Tuesday, May 28, 2013

मेहरारू की पाती


......................

प्रिय राजीव,

हमारे समय के सूरमा बुद्धिजीवी अकर्मण्य हैं। अव्वल दरजे के कायर। वे सिर्फ शब्दों के उपले बनाते हैं। यह एक तरह से भाषा में गढ़ी गई चैथी दुनिया है जिनमें सिर्फ और सिर्फ वंचितों/शोषितों/पीड़ितों के बारे में बात-विमर्श या बहस की जाती है; लेकिन इससे उनका उद्धार कतई नहीं होता है। अपने मौत तक को अंजाम देने के लिए इन बेचारों को अपनी ही देह-भुजा और जांगर जलानी पड़ती है। यह मार दोहरी-तिहरी....है।

कहूँगी, तो हँसोगे....इन बुद्धिजीवियों(जिसमें तुम भी शामिल हो) को ब्लेड से अपना नाखून काटने तक में डर लगता है जबकि वे ‘खून का बदला खून’ का नारा लिखते(कोल्डनुमा पानी से गला तर करते हुए) हैं। ये बुद्धिजीवी जिस बदलाव के वाहक या खुद को उनका समर्थक कहते हैं, उससे कहीं ज्यादा वे स्वयं के ‘प्रमोटर’ होते हैं। ऐसे लोगों का आलीशान बंगला/मकान एसी, कुलर, फ्रीज, टीवी, सोफा और महंगे अलंग-पलंग जैसे वाहियात साजोसामान से भरा होता है। ये जिन पदों पर शासित होते हैं और जितनी भारी-भरकम तनख़्वाह पाते हैं; यदि वे इसका आधा हिस्सा भी बाँट दें, तो भी उनके बच्चे चाँदी के चमच्च से ही दूध पियेंगे। उनकी बीवियाँ अगले पायदान की ही आईपीएल क्रिकेट की टिकट खरीदेंगी, उनके बेटे बेसबाॅल और कत्थक-भरतनाट्यम नृत्य का हुनर सीखते हुए मिल जाएंगे।

राजीव, कम से कम तुम्हारे बारे में मेरी राय यही है। और मैं सही हँू। आजकल तुम इसी पंथ का पंथी/लती/चाटुकार/ढोंगी/आपस्वार्थी बनते जा रहे हो। तुम एक चईं काम नहीं करते और सारी दुनिया को सीख देते फिरते हो। कभी इस पर टिप्पणी, तो कभी उस पर। मैं वैसे तुम्हारा लिखा पढ़ती नहीं और कभी-कभी तुम जबर्दस्ती(तुममें आत्ममुग्धता जबर्दस्त है) पढ़ाते हो, तो मुझ हँसी आती है। तुम देखते होगे कि मैं खाना बनाती हूँ इसलिए नहीं कि मुझ अकेले को खाना है बल्कि इसलिए कि मुझे अपने पूरे परिवार को खाना खिलाकर संतुष्ट करना है, उन्हें भोजन से तृप्त करना है।

बताओ राजीव, लिख-लाखकर तुम कितने जरूरतमंदों को तृप्त और संतुष्ट करते हो? कितने वैसे लोग जिनके थैली में जरूरी रुपया तक नहीं है उनके थैलों को हरी सब्जियों से भर पाते हो? कितने बच्चों को जरूरी स्कूली किताब खरीदकर पढ़ने के लिए देते हो? किसी असहाय को देखते ही सहायता करते हो? तुम औरों को मत देखो। अपनी गरदन देखो....अपने किए से मतलब रखो। ऐसी ही बात पोस्ट करो, शेयर करो, लाइक करो।

अगर नहीं, तो किसी दिन तुम्हें भी नक्सली या सरकारी सेना गोली मार दे, तो मुझे तनिक गम न होगा। कोई अफसोस नहीं। कोरी विचारधारा के पालतू जीव संग आजीवन जिन्दगी बिताने से अच्छा है कि तुम अपना रास्ता लो बाबा और मैं अपना। पहले लायक करने की सोचों, लायक करने की ठानों और फिर लायक बनकर लायकियत लायक काम करो....दुनिया से पहले सीखो और फिर लिखो। दुनिया और अधिक खूबसूरत दिखाई देगी।

तुम्हारी पत्नी
सीमा

Saturday, May 25, 2013

शीर्ष कांग्रेसी नेता बीजापुर को नहीं जानते


........................................................
 


बस्तर में कल जो हुआ, बिल्कुल ग़लत हुआ। लेकिन, इससे पहले जो बीजापुर में हुआ, वह तो और भी अक्षम्य और बर्बर था। लेकिन, उसे न तो पूरा देश जान पाया और न ही सरकार के शीर्ष नेताओं ने इसकी सुध ली। जबकि आज कोहराम, विलाप और झूठी मातमी हो-हो का दौर शुरू हो चुका है। बस्तर की खूनी-साँझ ने पूरे देश की राजनीति में बवण्डर खड़ा कर दिया है। यह घटना क्योंकर हुई....? इन नेताओं को नक्सलियों ने किस कारण से निशाने पर लिया? यह देखा जाना आवश्यक है।

बीते दिनों बीजापुर में नरसंहार हुआ; लेकिन, देश में इस घटना को लेकर न तो कोई अफरातफरी मची और न ही खा़सोआम के जे़हन में संवेदनशील आह! ही उपजी। वजह साफ है। एकदम साधारण जनों की मौत पर देश की चैन को आग नहीं लगती। शान्ति में हाहाकार नहीं मचता है। आज की तारीख़ में शीर्ष कांग्रेसी नेताओं में शुमार राहुल गाँधी रायपुर पहुँच चुके हैं। सोनिया गाँधी के आगमन का संकेत मिल चुका है। इन नेताओं को बीती तारीख में घटी घटना की परवाह होती और वे इसी संवेदनशीलता के साथ वहाँ पहुँच गए होते, तो आज इस जवाबी हिंसक-दौर की नौबत नहीं आती।

अब यह देखा जाना होगा कि आँखवाले बुद्धिजीवी क्या करते हैं। संवेदना के राग बाँचने वाले सज्जन-वृन्द इस पर क्या पहलकदमी करते हैं? पूँजीदारों की मीडिया पुलिस सुरक्षा बलों की जवाबी(प्रायोजित) कार्रवाई की क्या पोल खोलती है? एक बात साफ है कि नक्सली अगर इस घटना को अंजाम बीजापुर की घटना से पहले दिए होते, तो उनकी शैतानी पर बरसने और उनके खिलाफ हरसंभव क्रूरतम कार्रवाई किए जाने का समर्थन करने का हमें पूरा हक था।

सवाल है, यह हिंसा-प्रतिहिंसा का दौर थमे। जिन लोगों(स्त्री हो या पुरुष) के समक्ष नमक-रोटी के निवाले का इंतजाम नहीं। बदस्तूर जारी प्रशासनिक अव्यवस्था ने जिन्हें सहूलियत के नाम पर अपंग बना दिया है। जिनके सामने रोजगार के न तो साधन उपलब्ध हैं और न ही स्वास्थ्य और शिक्षा के इंतजमात। उन लोगों की संख्या को सरकारी-तंत्र साजिशन मौत के घाट उतारने के लिए हर खेल खेल सकती है; लेकिन उनकी सूरतेहाल बदलने का सार्थक विकल्प नहीं तलाशना चाहती है।.........,

Wednesday, May 22, 2013

पत्रिका

 www.garbhanal.com से साभार

.........

किसी पत्रिका के प्रकाशन का कार्यभार बतौर सम्पादक संभालना आसान काम नहीं है। पत्रिका सम्पादक के लिए अपनी बेटी की मानिन्द है। और यह काम जैसे हर हफ्ते या पखवाडे या महीने में अपनी बेटी की शादी करने माफ़िक ही दुःसाध्य कार्य है। सम्पादक पाठकों को पत्रिका ऐसे सौंपता है मानों वे लड़की के देखनहार हों। यहाँ मर्जी पाठक की चलती है। कोई उसके नाक-नक़्श(पृष्ठीय साज-सज्जा: लेआउट) पर लहुलोट हो सकता है, तो कोई उसके सुर-राग(अन्तर्वस्तु-विधान: कंटेंट) में माधुर्य की थोड़ी कमी होने का उलाहना दे सकता है। यानी कोई कुछ तो कोई कुछ। बेचारी पत्रिका शब्दों में चाहे जितना भी चेतस हो; ऐसे पाठकों के कहे का प्रतिकार नहीं कर सकती; अपने पीछे लगे श्रमसाध्य भागदौड़, बनाव-रचाव में आई दिक्कतदारियों या और भी अन्यान्य परेशानियों के बाबत कुछ नहीं कह सकती है।

यह कठिनाई तब और पर्वत-पीर-सी हो जाती है जब एक सम्पादक आज के भयानक प्रतिस्पर्धा के बावजूद पूँजी-जलावर्त से गठजोड़-गठबन्धन नहीं करता है। आत्मबल की हेकड़ी पर जागरण-गीत गाते ऐसे सम्पादकों ने अब धीरे-धीरे इस दुनिया से विदा ले लिया है जो बचे हैं उनमें से अधिसंख्य के पास पद है...किन्तु रीढ़ की हड्डी नहीं है। ऐसे सम्पादकों के व्यक्तित्व में पत्रिका में लादे गए कृत्रिमता से अधिक बनावटीपन होता है जिसे पाठक की आँख पहचान लेती है।

लिहाजा, सम्पादक को ही सबकुछ वरण करना होता है; कभी-कभी असह््य सीमा तक पाठकीय तल्ख़ियों को सहन करना पड़ता है। जो कर्मठ हैं, निष्ठावान और समर्पित हैं वे टीके रहते हैं; पाठकीय प्रतिक्रिया का वस्तुपरक मूल्यांकन-विवेचन करते हुए आवश्यक परिष्कार और दुरुस्त परिवर्तन करते चलते हैं। पाठक जब किसी पत्रिका को दिल से पसन्द करने लगता है तो उस पर अपना सबकुछ निसार कर देता है। यही उस पत्रिका के सम्पादक की असली जीत है...मूल थाती है। यह बात आज की तारीख़ में ब्लाॅग-पत्रिकाओं के लिए भी सोलह-आना सच है। इस सचाई से अवगत होने के बावजूद कि अब तो कई पाठक भी ऐसे हैं जो कहते हैं-‘‘सबकुछ चलता है यार!’’


(रजीबा की पत्रिका-दृष्टि से)

Saturday, May 18, 2013

काशी: बाबा मन की आँखे खोल


........................................

यह रेट/रट काशी के कबीर की थी। वे ताउम्र इसी साध/धुन में रमे रहे। अपने बाबा(निराकार ब्रंह्म) से मन की आँखे खोलने के लिए आरजू-मिन्नत करते रहे।
कबीर आज की जातीय-भाषा में सभी सम्प्रदायों के ‘बाप’ थे। वे आज की हमारी पीढ़ी की तरह ‘देखा, भोगा; और छोड़ दिया’ पद्धति पर विश्वास नहीं करते थे। उनकी रागावली का तान दूसरा था-‘दास कबीर जतन करि ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’। आज हम ऐसा नहीं कर पाते। हमारी नरेटी में वो दम-दिलास नहीं है; और जो है अपनी ही बखान में ख़त्म हो जाता है। हम अव्वल दरजे के काहिली के शिकार हैं। रोगग्रस्त। इडिक्ट। माइनियास्टिक लक्षण/अभिलक्षण से संक्रमित।

कबीर को पता था। वे जानते थे कि काशी त्राण-परित्राण की नगरी हैं। स्वयं को विलगित नहीं संलगित करने की भूमि है। यहाँ धर्म जीवन को धारण करने की चेतना से सम्पन्न है।
काशी में रोशनाई की आवाज़ बजती है। घंट-घड़ियाल नृत्य करते हैं। काशी की संध्या इस क्षण बावरी हो उठती है। आपको हर रोज लोग गंगा-आरती के बहाने सदानीरा नदी गंगा की बलैया लेते मिल जाएंगे। कला के रंगरेजों(दृश्य-कला के विद्यार्थियों) को ‘सुबह-ए-बनारस’ का सुलेख लिखते देख आप एकबारगी हैरत में पड़ जाएँगे। सोचंेगे, इन बच्चों की कूची में अपने लिए भी होता कोई ब्लैंक-स्पेस, रंग या कोई नाम-मात्र तिल का निशान ही सही। इस नगरी की प्राचीनता भव्य है। मैं कहता हूँ कि काशी का वर्तमान जितना जीवन्त है, उससे अधिक दुर्लभ।  

इसीलिए यह आज भी अपने महात्मय में पावन-पवित्र, प्रासंगिक, उल्लेखनीय और दर्शनीय है। भारतेन्दु ने ‘अन्धेर नगरी चैपट राजा’ नाटिका में अपने समय के लोक को काशी में ही चित्रित और मंचित क्यों किया? महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’, तो प्रेमचन्द ने अगली कड़ी में सरस्वती के वैचारिक वाहन ‘हंस’ की आधारशीला काशी से क्यों रखी? महामना मदन मोहन मालवीय जी ने अपनी कर्मस्थली के रूप में काशी को ही क्यों चुना? संभवतः इसलिए कि यहाँ तमाम विचारधाराएँ, मतभेद, असहमतियाँ अपनी सभी जिज्ञासाएँ शान्त कर लेती हैं। यह सर्वविदित है कि ज्ञान-प्रवाह, ज्ञानानुशसन और ज्ञान-मीमांसा सम्बन्धी संदेह का निवारण करने के लिए देश भर से लोग यहाँ आते थे।

वर्तमान में मोक्ष-माक्ष सम्बन्धी जाल-जोकड़ तो कर्मकाण्डियों ने जोड़/छेड़ रखा है। काशी के जगत पर इसका निषेध सर्वथा होता रहा है। यहाँ ज्ञान की दुदुंभी बजती रही है। जो ज्ञान-सम्पन्न है; पारंगत है; वही सिद्ध है। वही शंकराचार्य है। घोर शास्त्रार्थ। घनघोर सांस्कृतिक-वैचारिक यात्रा। विश्व-मानव की उद्भावना सम्बन्धी अनगिनत साक्ष्य/समीक्षाएँ इस काशी से सिर्फ जुड़ी नहीं हैं; गूँथी हुई है। जैसे शृंख्लाबद्ध मोती एक महीन धागे से बिने होते हैं; वैसे ही काशीवासियों में प्राच्य विधाएँ; सांस्कृतिक स्थापत्य की अजंता एलोराएँ की भाँति अनुस्यूत हैं; देदिप्यमान हैं। 

 दरअसल, इनका मोल नकदी शून्य है। बैंकिंग-अंतरण एकदम असंभव है। यह वह चारित्रिक सम्पति है जो चेतस-मनुष्य को ‘रजस्वला’ बनाती है। रजस्वला होना यानी स्वयं में इतना आब/आभा भर देना कि आप इस दुनिया में अपने समानधर्मा चरित्र का निर्माण कर सको। उनको अपनी गति/मति/सम्मति के अनुरूप ‘विश्वमानव’ बनने की दिशा में अग्रसर कर सको। निश्चय ही ये बातें कुछ अटपटी लग सकती हैं। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के पल्ले तो हरगिज़ ही नहीं पड़ सकती है। विशेषतया मैकाले का रावणी-दंभ यहाँ फुस्स हो जाता है। उसके मिथ्याभिमान को काशी के कबीर की एक उलटबाँसी चिचियाने पर विवश कर देती है। जैसे रावण हार गया था होनहार अंगद के पाँव के अट्टाहास से।


(रजीबा के संस्मरण ‘हम ना छोड़ब काशी’ से)

पोर्न-संस्कृति: ‘बैन्ड’, ‘ब्लाॅकड’ एण्ड ‘सेन्सरड’ की जरूरत क्योंकर?


........................................................................................

(एक विस्तृत रिपोर्ट जल्द ही)

Tuesday, May 7, 2013

---------------------------------------------------------------------

    
          
    fny esa fQ+ruk txk fn;k fdlus

                           ^^;w¡ Hkys gh jax Qhdk lk yxkA
                         t+k;d+k x+e dk cM+k vPNk yxkAA
                         nq'euh djus dh gljr jg xbZA
                         D;k djsa gj vkneh viuk yxkAA
            fgUnh&mnwZ x+t+y dh nqfu;k esa gkfre tkosn dk uke lqifjfPkr gSA ^oD+r dh gFksyh esa* x+t+yxksa gkfre tkosn dk igyk x+t+y&laxzg gS] tks vafrdk&izdk'ku ls blh o"kZ Nidj vk;k gSA esjh ;g xqt+kfj'k gS fd&^vki bl x+t+y&laxzg dks vo'; i<+sA* ;g vkils [k+kfyl nksLrkuk bfYrt+k ugha gS( vkSj u gh fdlh vkSiPkkfjdrk dk fuokZg ek=A ;g rks ml :g dh vkokt+ gS tks bl laxzg dks i<+rs gq, ,d lân; ikBd ds eu esa iScLr gks tkrh gS] gQ+Z&nj&gQZ+( :ekuh de :gkfu;r ds lkFk vf/kdA ,d eqd+Eey jPkuk viuh Hkk"kk ds LoHkko] Hkko&Hkafxek] dgu&'kSyh] jPkuk&fo/kku vkSj eqgkfojk ls ikBdh; igPkku gkfly djrh gSA oSls Hkh ^^mnwZ dkO;Hkk"kk esa vFkZ&{kerk cksyPkky ds eqgkojs ls mitrh gS] u fd dfo;ksa }kjk fodflr fof'k"V fcEc&fo/kku lsA nksuksa esa Q+dZ Hkh gSA eqgkfojk dgk tkrk gS] fcEc dgk ugha tkrk cuk;k tkrk gSA** funk Qkt+yh x+t+y dks ft+Unxh ds nk;js esa leks;k gqvk vQ+lkuk ekurs gSa&^^tks [kks tkrk gS fey dj ft+Unxh esa@x+t+y gS uke mldk 'kk;jh esa**A
            x+t+yxks gkfre tkosn ds bl laxzg esa ;g 'kqÅj tcjnLr gSA bl x+t+y&laxzg dks i<+uk lqdwunsg de] Hkhrj dh dcdckgV vkSj csPkSuh dks mUeqDr djuk vf/kd gSA ledkyhu vUrfoZjks/k vkSj vUr}Za} fnekx esa ijijkus yxrs gSa %
               ^^'kksf[k;k¡] d+gd+gs] egfQ+ysa] jkSudsaA
               Q+kSt naxkb;ksa dh mBk ys xbZA
               :g balkfu;r dh rM+irh jghA
               ywVdj ykt [k+wuh Q+t+k ys xbZAA**
            vke ft+Unxh dh ywV&[klksV( ty&taxy&t+ehu ij xSjksa ds /kkos( vLer vkSj vfLerk ij PkksV( mlwy vkSj rgt+hc esa vkrs Q+dZ@Qk¡d bR;kfn gekjh ft+Unxh ds ukeqjkn t+[e gSa] ftUgsa gkfre tkosn ewd&cf/kj ugha NksM+rs gSaA os vius bl uohure x+t+y&laxzg esa ft+Unk 'kkfey djrs gSa] dqN ;w¡ %
               T+kkrks&et+gc dh fl;klr dk urhtk nsf[k,A
               Pkkj lw ^tkosn* cckZnh ds eatj jg x,A**
            gd+hd+r dk :[k ges'kk t+ehuh gksrk gSA fnekxh jln&ikuh Hkh og viuh feV~Vh ls gh ikrk gSA gkfre tkosn tc vius eu dh tsc VVksyrs gSa rks chrs [kq'kuqek ft+Unxh ds dqN rY[+k yEgsa Hkh cjcl t+sgu esa [khaPkh Pkys vkrs gSa %
               ^^mez Hkj dh oQ+k dk flyk ;s fn;kA
                d+kfryksa dks gekjk irk ns x,AA---
          oSls PkqukSrhiw.kZ le; esa tc lRrk&fl;klr us vke vkneh dk fQØ djuk NksM+ fn;k gS] myVs og balkuh Pksruk vkSj lkekftd lg&vfLrRo dh mnkÙk Hkkouk dks tehankst djus ij rwyh gSA gesa gkfre tkosn dh rwfydk ds ;s vYQ+kt fu%lUnsg egRoiw.kZ tku iM+rs gSa %
                 ^^eqgCcr] nksLrh] x+Sjr] ns;kur Nhu ysrh gSA
                 u tkus vkSj Hkh D;k&D;k fl;klr Nhu ysrh gSAA
          gkfre tkosn dh fuxkgckuh esa bl tgku dh flQZ cM+h&cM+h ckrsa ugha gSA os ikl&iM+ksl ;k vius vUnj&ckgj dh iM+rky Hkh mlh 'kkbLrxh vkSj ft+Unkfnyh ds lkFk djrs gSa( ftruh lkQ+ vkSj t+ghu Hkk"kk esa nqfu;koh ckrsaA Hkk"kk esa cjrh xbZ ;g lkQ+xksbZ vkeks[k+kl lHkh ikBdksa dks cjcl ck¡/k ysrh gS rks t+cku ij ,dckjxh gSjr ds 'kCn fcuk fdlh eqyEes ds Pk<+ vkrs gSa&^;k∙∙ vYykg! ,slk dSls laHko gS\* gekjh ;g euksn'kk [kqn dh dkjxqtkfj;ksa dks
                 ^^yk'k viuh mBk, lHkh yksx gSaA
                  bl rjg th jgs ft+nxh yksx gSaAA
                  eqn~nrksa lkFk jgdj irk ;s PkykA
                  vius ?kj esa lHkh vtuch yksx gSaA**
            ;d+huu] gkfre tkosn dh eq[; fPkUrk iqjkuh jok;r ds cjvD+l [kM+h ubZ jok;rksa ds vuesyiu dks ysdj gSA iqjkus jLeksfjokt dks Bsaxk fn[kkus dh ml izo`fRr dh vksj T+;knk gS ftlesa jPkh&cquh viukik feljh dh ?kksy Hkk¡fr [k+klksvke lHkh ds fy, xzkºî FkhA
                     ^^nqiV~Vk lj is j[k ysus esa vkf[+kj gtZ gh D;k gSA
                  uqekb'k gqLu dh fdruksa dh vLer Nhu ysrh gSAA
            vQlksl! ?kj&lekt esa iljk ^O;fDrokn* dk ;g fyt+fyt+kiu [kq'kQ+geh dk f'kdkj gSA vius fnekx esa mÙkj vk/kqfudrk dk Q+jsc ck¡/ks yksxksa ds fy, vktdy nqfu;k dh gj lPkkbZ ckSuh ;k Q+qt+wy ekywe nsrh gSA ,d t+ekus esa voke dh jguqekbZ esa yksx viuk lcdqN nk¡o ij yxk nsrs FksA muds fy, /keZ&bZeku] rgt+hc vkSj balkfu;r ls cM+h frtkjr nqfu;k esa dqN Hkh u FkhaA ysfdu vkt rks os gh yksx eqfUlQ gSa tks vijk/k] ywV] vkxtuh] d+Ry bR;kfn esa lafyIr gSa ;k tqYeksa&flre ds fu;ked&fu;ark gSaA ckdh turk rks vfHk'kIr gS] cl bl foMEcuk ls nks&Pkkj gksus ds fy, %
                ^^tks ;rheksa x+jhcksa ds dke vk ldsaA
                 vc dgk¡ ,sls fny ds /kuh yksx gSa\\
                 d+Ry djrs gSa ^tkosn* tks jkr fnuA
                 mudk dguk gS ^ge et+gch yksx gSa*A**
            gkfre tkosn ds bl igys x+ty&laxzg esa dksbZ bljkj¼xqIr&ea=.kk½ ugha] jgL; dk Hkkf"kd frfyLe ugha( vkSj u gh dksbZ bygke¼vfr;FkkFkZ½ dk vkHkke.My ekStwn gSA os rks cl viuh jkS esa lcdqN cgk;s fy, Pkys tkrs gSaA mUgksaus bldk ftØ vius x+t+y&laxzg dh Hkwfedk ^bfCrnkbZ 'kCn* 'kh"kZd ls cM+s gh fnyPkLi juk] ?k`.kk dh ukxQfu;ksa dk taxy] /kks[ks vkSj Q+jsc dh [kkbZ] fo'okl dh Å¡Pkh ehukj] d#.kk vkSj n;k dk gjk&Hkjk eSnkuh {ks=] Øwjrk dh [k+wuh ?kkVh] fe=rk dk xqy'ku] nq'euh dk e#LFky] rUgkbZ dk lqulku Vkiw] fj'rksa dk Hkjk&iwjk xk¡o] misf{kr cq<+kis dh nyny] vkradokn dh Tokykeq[kh] eqf¶+ylh ds rst+kc esa Mwch vkjtqvksa dh cLrh rFkk v/kwjs [+okcksa dh VwVh&QwVh d'rh bR;kfn vusd LFkyksa ds Hkze.k ds nkSjku eSaus vius vuqHko dh vk¡[kksa ls tks dqN Hkh ns[kk rFkk vius vglkl dh maxfy;ksa ls Nw dj tks dqN Hkh eglwl fd;k mUgsa 'ksjksa dk :i nsdj x+tyksa ds dr~vkr dk fyckl igukus dh rqPN&lh dksf'k'k dh gS ftls bl iqLrd ^oD+r dh gFksyh esa* ds ek/;e ls vki dh fo}rk ds gokys dj jgk g¡wA** bl fouez vkxzg ds chPk Hkk"kk ds ckcr mudh xqt+kfj'k dks ikBd dh fuxkgksa ls lh/kh eqBHksM+ djrs gq, ns[kk tk ldrk gS %
                 ^^uhyke ;w¡w t+cku dh vt+er u dhft,A
                 Hkk"kk is esjs nksLr fl;klr u dhft,AA
                 Hkk"kk rks tksM+rh gS fnyksa ls fnyksa ds rkjA
                 Hkk"kk ds uke ij ;w¡ vnkor u dhft,AA**
            bl laxzg dh vf/kla[; x+t+ysa vke thou dh y;] xfr vkSj xw¡t&vuqxw¡t ds lkFk bl dnj xw¡Fkh gqbZ gSa fd vki muls Pkkgdj Hkh [kqn dks vyx ugha dj ldrs gSaA yxrk gS( gkfre tkosn dks vkneh gh ugha] vkneh dh ijNkb;ksa rd dh xgjh le> gSA mudh T+;knkrj x+t+ysa ^VPk LØhu* ij egt+ gkFk j[kus dh dykckt+h Hkj ugha gSA eucgyko dk vkStkj rks gjfx+t ugha gSa %
                 ^^bruk vklku ugha x+t+y dgukA
                  ;s gquj vkrs&vkrs vk,xkAA**
            njvly] bl laxzg dh vf/kla[; x+t+yksa esa ,d vyx fdLe dh csdyh ;k dgsa csPkSuh&lh fn[kkbZ nsrh gSA os gekjh laosnuk ds eeZ dks Hkhrjh rg rd Nwrh gSa vkSj dbZ erZck rks ikBd ds le{k ,sls lokykr [kM+s dj nsrh gaS fd Lo;a ikBd dh Pksruk lokyksa ds dB?kjs esa vk [kM+h gksrh gS %
                 ^^ljt+eha eqgCcr dh t+qYe ds gokys D;ksa\
                  oD+r dh gFksyh esa uQ+jrksa ds Nkys D;ksa\\
                  vEu ds tt+hjs ij [k+kSQ dh gqdwer gSA
                  dS+n gSa rvLlqc esa t+sgu~ ds mtkys D;ksa\\
          bl laxzg dh x+t+yksa ds ek/;e ls gkfre tkosn ft+Unxh dh lykerh ds fy, le; ls lh/ks eqBHksM+ djrs gSaA os oD+r dh gFksyh esa vle; mHkjs Nkyksa ds fu'kku ls Mjs&lges] Hk;kØkUr ;k foPkfyr ugha gksrs gSaA os blds myV ft+Unxh dh ?kM+huqek fVd~fVd~ dks lquus dh [k+kfrj csPkSu vkSj mRlkfgr ut+j vkrs gSaA vke ft+Unxh dh dfBukb;ksa vkSj PkqukSfr;ksa dh rlnhd gkfre tkosn dgha&dgha rks ,sls djrs gSa tSls os Lo;a ls layki dj jgs gksa %
                  ^^lksPk dk ifjUnk gj tax thr ldrk FkkA
                   gkSlyksa ds ij ^gkfre* rqeus dkV Mkys D;ksa\\**
            bl leh{; x+t+y&laxzg esa Hkk"kk dk fet+kt+ vygnk gSA 'kCnksa ds Pk;u esa 'kkfCnd&ferO;f;rk ,d izeq[k vfHky{k.k ds :i esa iz;qDr gSA vlk/kkj.k vFkZPNVk dks fljtus esa Hkk"kk ls vf/kd Hkk"kk dh le> ek;us j[krh gSA gkfre tkosn bl rt+qcZs ls HkfyHkk¡fr voxr gSa %
                      ^^vkbuk ns[k 'kjek x,A
                    D;k gqvk\ D;k gqvk\ D;k gqvk\**
            vkt fj'rksa dh tekoV&clkoV fdl dnj detksj gks xbZ gSA ;g vc Nqik rF; ugha gSA gkfre dh fuxkgsa foPkkjksa dh fjgkb'kh edku [kM+k djus ds ctk; viuh cqfu;kn dks Bksad&ctkdj ns[krh gS vkSj bldh okftc otgksa dk [kqyklk Hkh djrh Pkyrh gS %
                       ^^fi?kysxk lksPkk gh D;ksa Fkk\
                     iRFkj dks iwtk gh D;ksa Fkk\\
                     vkSyknsa udkjk fudyhaA
                     fj'or ls ikyk gh D;ksa Fkk\\**
            bl x+t+y&laxzg ds cgkus ge vius le; dh nqfu;k dks ns[ksa] rks og QQksysnkj vkSj ihc&eokn ls luh gqbZ fn[kkbZ nsxhA ;¡w rks lc tkurs gSa&^le; lcls cM+k ejge gSA* ysfdu vkt ds dfBure le; esa ,slh ejgeksa dk t+cku ij ftØ vk, Hkh] rks vi;kZIr gSA vke&vkneh dh ft+Unxh rkmez drj&C;ksar gksrh jgrh gS vkSj cnyko dh dksbZ lkQ js?kkjh fn[kkbZ ugha nsrh gSA rc Hkh] tkosn mEehn dh njxkg esa ekFkk Vsdrs gSaA ft+Unxh dk vlyh QylQk ,d vyx gh vankt esa c;ka djrs gSa %
                        ^^eq>dks vk¡[ksa fn[kk jgh gS D;k\
                      rsjh vkSdkr ft+Unxh gS D;k\\
                      VwVuk tqM+uk fQj fc[kj tkukA
                      uke bldk gh ft+Unxh gS D;k\\**
          bu fnuksa ijEijk&laLd`fr dh yM+h esa fijks;h lqHkkf"krkfu;k¡ xqePks gq, dkxt dh rjg ^MLVchu* esa Qsad nh xbZ gSaA fygktk] ^LorU=rk*] ^lekurk* vkSj ^ca/kqRo* ds iz'u ^felfQV ,yhesaV* dh rjg dHkh ^tarj&earj*] rks dHkh ^jk;lhuk fgYl* ds vkxs&ihNs ;k nk,¡&ck,¡ VjkZ jgs gSaA yksdra= dh ukd rks bl dnj Vs<+h gks xbZ gS fd Pksrl ;qokvksa ds gks'k Q+k[+rk gSaA bl ?kM+h lQsnh iqrs Pksgjksa dh Pkk¡nh] gud vkSj jkSud gSA ;s os yksx gSa tks lÙkk&fl;klr ds egkjFkh gSa( jktuhfrd tksM+&?kVko] xq.kk&Hkkx] lehdj.k&T;kfefr bR;kfn ds lVksfj, gSa( iw¡thifr] m|ksxifr ;k Hkwfe/kkjh lkeUr gSaA ;s os yksx gSa tks eqYd dh ihB ij ihNs ls ugha vc vkxs ls okj djus esa mLrkn gks Pkys gSa( D;ksafd mudh n`f"V esa turk va/kh gS %
                        ^^dkVdj oks gekjs ij cksysA
                       Tkkvks ijokt+ dh btkt+r gSAA
                       tku Hkh muis okj nh eSausA
                       fQj Hkh eq>ls mUgsa f'kdk;r gSAA**
            dguk u gksxk fd vkt vkneh;r dh tM+s rsth ls dV jgh gSaA laosnuk dh mIktkÅ t+ehu jsr esa rCnhy gksus dks gSA yksxckx th Hkh jgs gSa rks ej&ejdjA os la[;kcy esa mifLFkr gSa] fdUrq fxurh esa dgha ugha gSaA vkye ;g gS fd cPPkksa dh NksVh&NksVh [+okfg'ks Hkh vHkko vkSj csclh ds ryos ds uhPks nch ekywe nsrh gSA ,sls ?kjksa esa ekSr gj jkst vkrh gS( ysfdu] bruh eqyk;fe;r ds lkFk fd mls ekSr dguk fdlh dks x¡okjk gh ugha gksrk gSA bl dld ij gkfre tkosn tc viuh vk¡[k j[krs gSa] rks ikBd ,dckjxh fPkgqd tkrk gSA ;g fPkgqduk] mu vkfHktR; yksxksa ds fPkgqdus dh ekfQ+d ugha gS tks izk;% dyk&fofFkdkvksa ;k dyk&izn'kZfu;ksa esa vius eq¡g&vk¡[k&ukd ls t+kfgj djrs gSaA [kS+j! cdkSy gkfre tkosn %
                          ^^nnZ dh Vksdjh lj is jD[ks gq,A
                        esjh ngyht+ ij eqQ+fylh vk xbZAA
                        tc Hkh [+okfg'k f[kykSuksa dh cPPkksa us dhA
                        jD+l djrh gqbZ csclh vk xbZAA**
            fu%lUnsg i<+uk ftruk okftc gS( okftc i<+uk mlls dgha vf/kd tokcnsghiw.kZA fgUnh&x+t+y dh le> vHkh esjh uUgas ikS/ks ds mez dh gSA ysfdu] bl x+t+y&laxzg us eq>s viuh jkS esa fHkaxks;k tcjnLrA esjs lkFkh 'kks/kkFkhZ y{e.k izlkn ftuds Hkhrj laosnuk dh BsB jkx #u>qu dj ctrh gS( ftuds cksy vn~Hkqr y; ikdj thoUr gks tk;k djrs gaS vDlj( dks eSa tc gkfre tkosn dh blh iqLrd dh ;s iafDr;k¡ xquxqukrs gq, ikrk g¡w] rks vfHkHkwr gks tkrk g¡w %
                        ^^fny esa fQ+ruk txk fn;k fdlus\
                         d+Ryks&x+kjr fl[kk fn;k fdlus\\
                         rqe rks Qwyksa ls Hkh eqyk;e FksA
                         rqedks iRFkj cuk fn;k fdlus\\**
            vafdrk izdk'ku us ^oD+r dh gFksyh esa* x+t+y&laxzg dks izdkf'kr dj mnwZ fet+kt+ ds x+t+yksa dh DySfld ijEijk vkSj vk/kqfud izo`fÙk;ksa dk cf<+;k xqynLrk ikBdksa ds le{k izLrqr fd;k gSA ;g x+t+y&laxzg blfy, Hkh egÙoiw.kZ gSa] D;ksafd blesa vk/kqfud le; ds nckoksa] PkqukSfr;ksa] dfBukb;ksa vkSj la?k"kZ ls Vdjkus dk tcjnLr t+T+ck gSA ;g x+t+y laxzg fgUnh&mnwZ x+t+y ds ikBdksa ds fy, gkfre tkosn dh vuqie HksaV gh ugha] cfYd muds tui{k/kj yksd/kehZ Pksruk dk Hkh ifjPkk;d gSA ;g x+t+y&laxzg vius ^oDr dh gFksyh esa* gekjk viuk gh vD+l fn[kk jgk gSA vr% ;FkkFkZ&cks/k vkSj ;FkkFkZ&Pksruk ls lEi`Dr bl x+t+y&laxzg dh vksj lqfoK iSekb'kdkjksa dh ut+j buk;r gksxh( ,slh mEehn rks dh gh tk ldrh gSA

x+t+y&laxzg       % oD+r dh gFksyh esa
x+t+ydkj    % gkfre tkosn
izdk'kd     % vafrdk izdk'ku
             lh&56@;wth,Q&4
             'kkyhekj xkMZu] ,DLkVsa'ku&II
             X+kkft;kckn&201005¼m-iz-½
ewY;       % #i, 200A


Sunday, May 5, 2013

चलो थोड़ा फिल्मी हो लें


.............................

सिनेमा-निर्माण की प्रक्रिया बेहद जटिल है। यह एक टीम-वर्क है जिसमें कई लोगों का दिमाग एक ही दिशा में कार्य करता है। सुचारू ढंग से किन्तु नियमित। कई-कई विधाओं और मानव-कौशलों का खूबसूरत सम्मिलन होने के कारण मैं इसे ‘दिमागी-टोली’(ब्रेन सेट्स) कहता हँू। यथा-पटकथा, निर्देशन, अभिनय, दृश्य, गीत-संगीत, मेकअप, सिनेमेटोग्राफी, कोरियोग्राफी, कास्ट्यूम डिजाइनिंग, लाइट, एडिटिंग वगैरह सब के सब किसी निर्माणाधीन फिल्म के ऐसे कल-पूर्जे हैं जिनको परस्पर जोड़कर एकाग्र प्रभाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। रोचक संवाद और सुपरहिट गाने की उपस्थिति मात्र से ही कोई फिल्म महत्त्वपूर्ण बन जाए; ऐसा सोचना एक बेहतरीन गल्प हो सकता है, किन्तु सचाई हरगिज़ नहीं। कथावस्तु के हिसाब से पात्रों के सशक्त अभिव्यक्तिकरण अथवा फिल्मांकन की चुनौती अच्छे से अच्छे निर्देशक को चकराए रखता है। इंसानी मनोभाव, स्वाभाविक मनोवृत्ति, दैहिक चेष्टाओं और अंदरूनी हलचल से उपजे शारीरिक-मानसिक संप्रत्ययों को कैमरे की आँख में कैद करा ले जाने की बहादुरी दिखाना फिल्मकारों के लिए सचमुच लोहे के चना चबाने की माफिक है। ‘‘नरेशन’ के स्तर पर एक व्यक्ति के निजी क्लेश के सार्वभौमीकरण और उसके अन्तर्जगत को पकड़ पाना टेढ़ी खीर है। ऐसे में निर्देशक की खूबी नाटकीय घटनाओं और संगीत की एकात्मकता करने, फिल्टर लाइटों के माध्यम से मद्धम प्रकाश और घटनाओं का एक गुंफन रचने, अन्धेरे में डूबी आकृतियों के पाश्र्व में क्षीण उजास को उभारने, व्यक्त और अव्यक्त के साथ चेहरों के क्लोज अप रचने और कैमरे की विलक्षण गतिशीलता में है।’’(हिन्दी सिनेमा अंक, प्रगतिशील वसुधा-81, पृ0 145)

सिनेमा अपनी तकनीकी-कौशल, दृश्य-विधान, चरित्र-गठन, कथा-वस्तु, बिम्ब-योजना एवं संवाद-कला में अन्य जनमाध्यमों से बिलकुल भिन्न है। हम देख सकते हैं कि फिल्में प्रारंभ से ही अधिक बोलने की बजाय दृश्यों के माध्यम से पूरी रामकहानी बयां करती आई हैं। वस्तुतः ‘‘सिनेमा में सिर्फ शब्दों की शक्ति से काम नहीं चलता, इसके लिए चित्रों की शक्ति भी जरूरी है। शब्दों की सीमा यह है कि वे चित्रों की तरह रेखीय और क्षैतिज गतियों यानी दो आयामों में नहीं चलते और न ही वे इन जैसी प्रत्यक्ष दृश्यात्मक गहराई(डेफ्थ आॅफ फिल्ड) के द्वारा कथ्य और उसकी संवेदना के तीसरे आयाम को आगे बढ़ाते हैं। उनके विपरीत मूवी कैमरा देश और काल के साथ-साथ लम्बाई, चैड़ाई और मोटाई के सारे आयामों को उकेरता है। चित्रों का प्रत्यक्ष तन्त्र या अवधारणात्मक संरचना और गठन तथा संयोजन भी शब्दों से भिन्न होता है।’’(सिनेमा विशेषांक, लमही, जुलाई-सितम्बर, 2010, पृ0 11)

यद्यपि दृश्य कला की अपेक्षा श्रव्य कला की प्रेषणीयता के उपकरण भिन्न होते हैं, तो भी वे अपने सम्मिलित प्रभाव के माध्यम से एक विशिष्ट कला-रूप को अनुसृजित करने की चेष्टा करते हैं। वस्तृतः दृश्य-श्रव्य माध्यम हमारे ज्ञानेन्द्रियों से अनुभूत नब्बे प्रतिशत सूचनाएँ मस्तिष्क तक पहुँचाने में सक्षम होता है। ये बिम्ब, प्रतीक, मिथक या संकेत; चाहे सामाजिक हों या राजनीतिक; उनका उत्स देखते बनता है। इस क्षण उदात्त मानवीय-भाव और संवेदना के कोण परस्पर संपृक्त हो उठते हैं। यथार्थ भीतर नव-यथार्थ रचने में माहिर इस जादूई-कला को भारत में कभी दोयम दरजे का रचनाकर्म नहीं समझा गया। भरत मुनि का नाट्यशास्त्र दृश्य कला की सम्प्रेषणीयता का शास्त्रीय और व्यावहारिक धरातल पर रस-सृजन सम्बन्धी प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रकाश डालता है। इस सन्दर्भ में पश्चिमी चिन्तक सारा जेटकिन का कथन उल्लेखनीय है-‘‘कला जनता की चीज है। कला ऐसी होनी चाहिए जिसे आम जनता समझे और चाहे। कला को आम जनता की संवेदनाओं, विचारों एवं इच्छाओं से जोड़ना और उद्वेलित करना चाहिए; इसे जनता के अन्दर की कलात्मक सहजवृत्तियों को उद्वेलित तथा विकसित करना चाहिए।’’(हिन्दी सिनेमा अंक, प्रगतिशील वसुधा-81, पृ0 469)

Saturday, May 4, 2013

सलाह/सुझाव/आदेश


............................................

राष्ट्रीय मुद्दों पर,
राजनीतिक घटनाक्रमों पर,
सामाजिक-आर्थिक चिन्ताओं के मोर्चे पर,
कला, साहित्य और संस्कृति की स्थितियों पर,
धर्म, दर्शन और ज्ञान की अधुनातन प्रवृत्तियों पर,
क्षेत्रीय भूगोल, राष्ट्रीय संचेतना और अन्तरराष्ट्रीय प्रभुत्वों के ऊपर

रजीबा तुम ही लिखोगे

तो देश के
इतने स्कूलों
इतने महाविद्यालयों
इतने विश्वविद्यालयों
इतने सरकारी-गैरसरकारी संस्थानों, नामी-गिरामी जनमाध्यमों
संगोष्ठी, सेमिनार, संवाद-विमर्श स्थलों
रैली, चिन्तन-शिविरों, पीठ-महापीठों
ख्यातनाम सम्पादकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, ब्लाॅगिस्टो, एक्टीविस्टों,
अन्यन्य राजनेताओं, अभिनेता-अभिनेत्रियों, खेल-खिलाड़ियों, सुपर माॅडलों, डूपर बिजनेसमैंनों आदि कि

फिर सुनेगा कौन.....?

उम्र है
थोड़ा लव-सव करो
प्यार-तकरार की बातें
जरा इमोशनल, हल्का रोमान्टीक हो लो
चहक की चाँदनी को करो स्पर्श
मन की तरंगों को न करो नियन्त्रित
अपने को बह जाने दो मौके की रौ में
न सुनो आज कल क्या हुआ?
आगामी कल की चिन्ता से पा लो मुक्ति

अरे! रजीबा!
‘एक कमजोर की थाली में दूसरे कमजोर की इज्ज़त परोसी जाती है
और दावत शक्तिशाली उड़ाता है’
यह लिखने के लिए तुम्हारी उम्र पर्याप्त है।

Friday, May 3, 2013

सुनो पार्टनर!!!


..................

पार्टनर, तुम कह सकते हो
मुझे ‘सेक्सी’
या इसी तरह का कुछ

पार्टनर, तुम कर सकते हो
मुझे ज़लील
नाॅनवेज जोक सुनाकर

पार्टनर, तुम दे सकते हो
मुझे गालियाँ
यूँ सटकर या सीटी बजाकर

पार्टनर, तुम काट सकते हो
मुझे चिकोटी
ताकि अपनी हँसी को राग दे सको

पार्टनर, तुम फेंक सकते हो
मुझ-पे तेजाब
अपनी कुण्ठा को विसर्जित करने के लिए

...................................
..............................
.......................................

.................................................
.........................................
....................................................

लेकिन, यह मत भूलो पार्टनर!
जो-जो तुम कर सकते हो
वह सब मेरी ही पैदाइश है!

सिनेमा के सौ बरस


 ........................

आज मैंने पान खाकर
होंठ किया लाल है
आज मेरे चेहरे पर
लगा गुलाल है

आज मेरे जिया का
रंग शरबती है
आज मेरे शब्दों का
अर्थ पार्वती है

आज मेरे दृश्यों का
रूप मनभावन हैं
भींगे हैं वस्त्र मेरे
आँखों में सावन है

आज मेरे हिस्से में
पटकथा ज्यादा है
आज मेरे गीतों में
मचलन का इरादा है

...........................
.........................
..............................
...........................

........................
.....................
...........................
.......................

आज अपनी उमरिया का
हुआ सौ साल है....,
यह साल लाजवाब है
यह साल बेमिसाल है।

भारतीय सिनेमा: मैं हूँ खुशरंग हिना.....!


1.

आप मिक्चर-बिस्कीट खाना पसन्द करते हैं?
या चाॅकलेट? मैगी? पाॅपकोर्न? पिज्जा?

क्या आपको छाछ-मट्ठा-शरबत पीना पसन्द है?
या पेप्सी? कोक? स्लाइस? मजा?

हो सकता है, किसी को हो और किसी को न हो। इनमें से किसी को एक पसन्द हो, तो दूसरी नहीं। दूसरी और तीसरी हो तो पहली और आखिरी नहीं। यह भी हो सकता है कि आप कोई चीज इसलिए नहीं पसन्द करते हों कि वह भारतीय नहीं है? कई बार ट्राई मार के भी देख लेते हैं...लेकिन आपको जमती ही नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि कुछ लोगों को पश्चिमी ‘फ्लेवर’ ही पसन्द आये।

कुल मिलाकर यह मामला आपके भीतरी मनोविज्ञान से जुड़ा है। जो चीज आपको रुचती है, उसके प्रति आप अपनी अभिरुचि दर्शाते हैं। संभावित अनुक्रिया करते हैं। और जो नहीं पसन्द है, उसके प्रति आपकी प्रतिक्रिया होती है-‘बाज़ार में खड़ा हँू लेकिन खरीदार नहीं हँू’। कुछ इसी टाइप।

मित्रो, मुझे पसन्द है....पिक्चर। पिक्चर की दुनिया। पिक्चर की बातें। पिक्चर के लोग। तकनीक। कला। अभिनय। संवाद। पटकथा.....और निर्देशन। मेरे इस ‘पैशन’ का कोई कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं है; और न ही मेरा भारतीय फ़िल्मों पर शोध-कार्य ही है। तब भी पसन्द है मुझे सिनेमा...जुनून की हद तक। बेइंतहा प्यार। बेशुमार लाड़।

‘लार्जर दैन लाइफ’ के इस खूबसूरत कैनवास पर दृश्यों की क्रमिक अन्वीति मुझे मेरे होने का प्रमाण देती है। मुझे लगता है जैसे सिनेमा पृथ्वी के घूर्णन गति के माफिक इतिहास-चक्र में घूमती है, निर्बाध....निरन्तर। सिनेमा, 70 एम.एम. के स्क्रीन पर भविष्य की यात्रा तक संभव बनाती है.....क्या यह हमें नहीं पता?

सिनेमा अपने शिल्प में गल्प तक को यथार्थ रूप, आकृति, वेश और यौवन प्रदान करती है। यह समय के दुःख-तकलीफ की मुनादी सिर्फ बाहर नहीं करती है, अपितु हमारे भीतर भी रुदाली की तरह रोती है हीक भर। हम चकित होते हैं कई मर्तबा कि सिनेमा हमारे भोगे-देखे सच को ऐसे कैसे बयां कर ले जाती है। हमारी अपनी आँख से हर-हर लोर भी गिर जाएँ और हम उसे संभाल भी न सके।

मित्रो, सिनेमा ने बीते दशकों में काफी कुछ बदला है हमारे भीतर। भारतीय फिल्में अपने कायदे की तहज़ीब में वह सबकुछ संभव कर दिखाती थी जिस बारे में और जनमाध्यमों के लिए सोच पाना तक दूभर था। वह उस जमाने में सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों, रूढ़ियों, मर्दवादी मानसिकताओं, लैंगिक भेदभावों, जातवादी धारणाओं इत्यादि से लोहा लेती थीं जब उनके मुँह में जबरन लोहे के नाल ठूँसे होते थे।पहले फिल्में पैसे से बनती थी....अब पैसा बनाने के लिए बनती हैं। पहले वे कहानी में अपने समय-समाज, देशकाल-परिवेश को जगह देती थीं....आज ‘इनकार’(मेट्रो लाइफ, सेक्सुअल हरासमेन्ट) को जगह मिलती है। पहले राह चलते निर्देशकों को देवानन्द जैसे कलाकार मिल जाते थे, और आज ‘तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित’ के बाद भी कुछ भी मिल सकने की शुद्ध गारंटी नहीं है।

आज सिनेमा इकाई के करोड़ में बन रही है और दहाई के करोड़ में धड़ल्ले से बिक रही है। इस सिनेमा में शामिल नंगेपन की भाषा अपनी पल्लू गिराकर अपना मोल बढ़ाती है...क्योंकि खरीदारों को यही देखना गँवारा लगता है। सबसे बुरी गत स्त्रियों की है। वजह कि स्त्रियाँ स्वयं माॅडरेटर नहीं हैं या हैं भी तो न्यूनांश। ऐसे में मर्दवादी ‘फेविकोलो’ की जबरदस्त जबरदस्ती उनके साथ कई रूपों में देखने-सुनने को मिल जाती है।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...