Thursday, September 15, 2016

हिन्दी मेरे तनख़्वाह की भाषा है!


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प्रिय देव-दीप,

सरकारी कैलेण्डर में 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पड़ा है। हमारे विश्वविद्यालय में हिन्दी सप्ताह समारोह मनाए जाते हैं। पिछले साल भी मैं शरीक हुआ। बहुत सारी प्रतियोगिताओं में विद्यार्थियों की भागीदारी देख बड़ी खुशी हुई। कईयों ने पुरस्कार पाए। अपनी तैयारी में मदद के लिए हमें धन्यवाद कहा। उनका उत्साह देख कार्यक्रम की सफलता पर मैं भी अभिभूत हो लिया।

देव-दीप, तुम जानते हो कि हिन्दी मेरे तनख़्वाह की भाषा है। हिन्दी का अध्यापक हूँ। सब विषयों की तरह यह भी एक रुचिकर विषय है। इस भाषा में कई लेखकों ने अच्छी कहानियाँ लिखी हैं, उपन्यास भी। कविताएँ तो इतनी सारी कि तुम्हारा घंटों मन रमा रहे। पता नहीं लोग हिंदी-हिंदी क्यों चिल्लाते हैं। इस भाषा को सबसे कम बोलने वाले कुछ ज्यादा ही शोर मचाते हैं। इस बारे में लिखने वालों की भी कमी नहीं है। मैं भी खूब लिखता था। पर अब आदत बदलनी पड़ी। मैं जहाँ पढ़ाता हँू, वहाँ हमसे सटे ही अंग्रेजी विभाग है। वहाँ कभी लोग अंग्रेजी-अंग्रेजी नहीं चिल्लाते हैं। मैं उनसे पूछता हूँ-क्या आपके सारे बच्चे रोजगार पा जाते हैं। वे साफ कहते हैं, इस बारे में सोचना हमारा काम नहीं है। हम ‘टेक्सट’ और ‘टास्क ओरिएंटेड’ काम करते हैं। ‘पैटर्न’ को जैसे हमसे सीनियर लोग करते आए हैं, उसका ‘फाॅलोअप’ लेते हैं। हम ‘कन्टेन्ट’ की एनालिसिस और सिन्थेसिस पर ध्यान देते हैं। इसे पूरी तरह अकादमिक रीति से पढ़ते और पढ़ाते हैं। मैं देखता हूँ कि उनके चेहरे पर संतुष्टि का भाव है। विद्यार्थी भी खुश और प्रसन्न दिखते हैं।

देव-दीप, हमने भी यह तरीका आजमा लिया है। अब सब अच्छा है। विद्यार्थी खुश रहते हैं कि हमारा अध्यापक परीक्षा में पूछे जाने वाले सभी प्रश्नों के बाबत हमसे ठीक-ठीक बात करता है। हमें इसकी अच्छी तैयारी रखने की सलाह देता है; ताकि अच्छे अंक लाया जा सके। उनकी यह अपेक्षा सही है। अध्यापक का काम विद्यार्थियों का मनोबल बढ़ाना है। विषय की सही जानकारी देना है। उचित रीति से विषय-सन्दर्भ की सही व्याख्या-विश्लेषण कर ले जाने का कौशल सिखाना है।

आज जब बहुत लोग हिन्दी पर विचार कर रहे हैं। लम्बे वक्तव्य दे रहे हैं। बहस कर रहे हैं, तो ख़राब लगता है कि वे हमारी तरह काम क्यों नहीं कर रहे हैं। अरुणाचल जैसे हिन्दीतरभाषाी प्रदेश में एम.ए. के 50 प्रवेशी बच्चों के साथ अध्ययन-अध्यापन करना कितना मजेदार और सुखदायी है। विद्वान लोग ज्ञान बाँटने का ठीका अपने पास क्यों रखना चाहते हैं; सीधे ज्ञान क्यूँ नहीं बाँटते। हम अपने बच्चों को इंटरनेट पर हिंदी लिखना सिखाते हैं। कंप्यूटर से सम्बन्धित तकनीकी जानकारी से उन्हें अवगत कराते हैं। हम उन्हें पाठ-वाचन और सर्जनात्मक लेखन के बारे में बताते हैं। इसके अतिरिक्त हम कविता, कहानी में व्यक्त भाव-संवेदना-विचार को अपनी अभिव्यंजना-शक्ति से पकड़ने की कला बताते हैं। अनकहे को पाने अथवा रचनाकार के मंतव्य को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। 

हाँ, इसके लिए मैंने व्यावहारिक बुद्धि अपनाया है। भाषा में लेखकीय दुरूहता/जटिलता डाल विद्वान बनने की जगह अरुणाचली हिंदी अपना लिया है। वैसे भी पंडिताई से पेट नहीं भरती; ऊपर से जाति से ओबीसी हूँ, यानी पिछड़ी जाति का। आज भी पूरा समाज पहले ब्राह्मणों को ज्ञानी/ज्ञानवान मानता है; फिर किसी और को। यानी आज का समाजशास्त्र पुराने भाष्य के अनुसार ही व्यवस्था को चला रहा है। उसे बदलाव बर्दाश्त है, पर एक सीमा तक। अतएव, हमारे लिखे को कोई भी शास्त्र की उपाधि नहीं दे सकता। स्वाभाविक सम्मान तो दूर की बात है। फिर यह टिटिमा क्यों सब? वैसे भी बड़ी मुश्किल से यह नौकरी मिली है। यह छूट गई, तो न घर के होंगे और न घाट के। अतः अपनी भीतरी गुब्बार (महान बनने की महत्त्वाकांक्षा और छपास रोग) को आग में झोंक देना ही उचित होगा। जान बची तो लाखों पाए। वैसे भी मैं अपने मूल चरित्र से अवसरवादी हूँ, समझौतापरस्त, स्वार्थी, सिर्फ अपना हित विचारने वाला। ऐसा सोचने और कहने वालों की कमी नहीं है। मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ। 

देव-दीप, हमें प्रसन्नता है कि हम हिंदी के बारे में नहीं हिंदी में अपने रोजमर्रा का काम करते हैं।

तुम्हारा पिता
राजीव

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