Monday, April 6, 2020

क्या न्यूज़ चैनलों ने सरकारी टैटू गुदा ली है!


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(चालाकीपूर्वक वही ख़बरें प्रसारित की जाती है जो तत्कालिन सरकारों को सूट करती है।)
पत्रकारिता में शब्दों और वाक्यों का भर्ता बना पेश करना आज की पत्रकारिता की स्टाइल है। अचानक एक उबला हुआ आलू का टुकड़ा मिले और आप उसे बलजोरी मसल देने का लुत्फ लें, यह न्यूज़ चैनलों की हकीकत है। पत्रकारिता इन दिनों कमर्शियल हो चुकी है। मिशनरी तो रही नहीं। प्रोफेशनल का चोला भी हट चुका है। बकौल रामशरण जोशी-‘आज का मीडिया एक ऐसा धंधा बन गया है, जिसका उद्देश्य मुनाफा कमाना है, और इसके लिए वह कोई भी ग़लत समझौता या अनैतिक कार्य कर सकता है।’
प्रश्न है इस बिकी हुई पत्रकारीय दौर में न्यूज़ चैनलों के गले में घंटी बाँधेगा कौन?
न्यूज़ चैनलों ने तो जनादेश और जनमत से चुने जनप्रतिनिधियों का शरण गह रखा है और शरणागत की रक्षा भारतीय सभ्यता और संस्कृति के परम आदर्श हैं। आप ठेंगा न कर पायेंगे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जो आज की तारीख़ में दुनिया की असल साम्राज्ञी हैं, अन्तरराष्ट्रीय ढाबे से पसरते उत्तर आधुनिक साम्राज्य विस्तारक हैं। जबकि उसूल की प्रतिबद्धता तो यह कहती है कि कोसना अथवा इनकी आलोचना हमें ही करनी होगी। सरकार की शह पर सूचना-बम फेंकते इन न्यूज़ चैनलों की खरी-खरी टोह-पड़ताल लेनी पड़ेगी। पर यदि इसे सरकार-विरुद्ध कार्रवाई घोषित कर दिया जाए, तो बोलेगा कौन?
इसके लिए पंडित युगल किशोर शुक्ल, राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतातप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त, बनारसीदास चतुर्वेदी, मदनमोहन मालवीय, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, प्रेमचंद, राजेन्द्र माथुर, राहुल बारपुते, कमला प्रसाद, प्रभाष जोशी जैसे पत्रकारीय संकल्प-चेतना वाले प्राणवान सम्पादकों-पत्रकारों की स्वर्गीय आत्माओं को आहूत करने की जरूरत होगी…!
आज की स्थिति पर गौर फरमाये, तो मनोहारी छवि का ढोंग करते मीडियावी ‘बुद्धू बक्से’ स्टुडियों में रिहर्सल कर स्क्रीन पर नमूदार होते हैं। उन्हें यह ताकीद किया जा चुका होता है कि कहाँ पाउज़ लेना है और कहाँ मुड़ी झाटते हुए ‘पिच लेवल’ बढ़ाना पड़ सकता है। बात से कन्नी काट लेना, अनसुना कर देना, चिल्ला जाना या फिर अपनी भड़क की बमबारी से सामने वाले को नेस्तानाबूद कर देना है, इसकी ‘प्री-प्रैक्टीस’ की जा चुकी होती है। आलम यह है कि ख़बर की भाषा में यही ट्रेंड में है। इसकी ही टीआरीपी है। विज्ञापन ऐसे ही एजेंडे और प्रोपगेण्डे की ख़बरों पर थोकभाव हासिल होती है।
ज्यादा जजमेंटल हो कि आज हमें सही या ग़लत का पर्दाफाश कर देना है। राजा हरिश्चन्द्र बनने पर टीवी चैनल फौरन हिसाब के साथ बाहर कर देते हैं। नज़र टेढ़ी होने पर कभी-कभी मानवीय भूल भी बर्दाश्त-ए-काबिल नहीं होती हैं। चीन के राष्ट्रपति के नाम ग़लत पढ़ने के एवज में दूरदर्शन के एक एंकर को ऐसा ही खामियजा वर्ष 2014 में भुगतना पड़ा था। पुण्य प्रसून वाजपेयी आज कहाँ हैं? प्राइवेट चैनल इतना भयाकुल नहीं होते। वे निकाले जाने के भय से सरकारी अराधना और स्तुति का मार्ग शुरू से ही अपनाते हैं।
प्रियदर्शन ऐसे ही नहीं कहते हैं कि-‘अख़बारों की सुर्खियों से लेकर टीवी चैनलों तक दिखने वाले नामों और चेहरों से भरी पत्रकारिता की यह दुनिया जिन लोगों को बहुत रंगीन लगती है, उन्हें इस सच का यह दूसरा पहलू भी देखना चाहिए। पत्रकारों के हाथ में कलम दिखती है, कैमरे दिखते हैं, लेकिन उनके कंधों से बहता पसीना नहीं दिखता, उनके सीने पर पड़ने वाली गोलियाँ नहीं दिखती।…पत्रकार नहीं देखता है तो मारा जाता है; देखता है, तब भी मारा जाता है। जब वह चुप रहता है, तो मारा जाता है। जब बोलता है, तब भी मारा जाता है। लेकिन फिर भी देखना और बोलना जरूरी है, क्योंकि किसी भी शक्ल में बचे रहने की इकलौती शर्त है। किसी एक पेशे के लिए नहीं, पूरे कौम के लिए, पूरे आवाम के लिए।’
प्रियदर्शन एनडीटीवी में हैं और उनके चैनल के प्रति आपकी सद्भावना कैसी है, खुद विचार करके देख लीजिए।
बिकाऊ मीडिया वस्तुनिष्ठ तरीके से पत्रकारीय जवाबदेही का निर्वहन चाहती ही नहीं है। विवाद के विषाणु बहस में रहने से देखने वालों को रोमांच आता है। नहीं तो, चैनल बदलना आसान है। पब्लिक मर्सी नहीं करती है। उसे ख़राब ख़बरे ही चाहिए। वह सात्विक बातों से परहेज करती है। टेलीविजन चाहे जितना आदर्श बाँचे, लेकिन अधिसंख्य दर्शक वैसी ख़बरों पर कान ही नहीं देते जो उनकी जिया को न जलाए। उन्हें उकसाये नहीं। सनसनी की टाॅनिक न पिलाए।
दरअसल, हम एक ख़राब पीढ़ी को गढ़ रहे हैं। हम आने वाली पीढ़ी को भारत की शाश्वत ज्ञान-धारा से काट रहे हैं। हम लगातार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रहे हैं या बेहूदे प्रकरण को हवा दे रहे हैं; जो हमारे सोचने-समझने के विवेक का अपहरण कर लेना चाहती है। हम चाहते ही नहीं हैं कि देश में शिक्षा का ग्राफ बढ़े। सारे लोग तार्किक और वैज्ञानिक ढंग से सोचना शुरू करें। यद्यपि गाँधी-अम्बेडकर-लोहिया की इस सरजमीं पर लोकतंत्र के आने के बाद स्थितियाँ बदल गई हैं। अब वर्ण-व्यवस्था छुपे तौर पर बहुत घृणित रूप में भले हो, लेकिन खुलेआम सब नागरिक हैं और हिन्दुस्तानी सरजमीं पर सबका समान अधिकार है। अब सब धर्मस्थल सभी के हैं। सबके आवागमन पर निर्बाध आने-जाने की छूट है। पंडे-पुरोहितों के आतंक से मुक्त हो रहे इस भारत में कुछ लोग तब भी बचे रह गए हैं जो पूरे मुल्क पर अपना एकाधिकार चाहते हैं, वर्चस्व और बाज़ार की वांछित-अवांछित घुसपैठ चाहते हैं। मठों पर कब्जे और मठाधीशी का खिताब चाहते हैं।
हम देख रहे हैं कि जातिवादी जमात जागरूक नागरिकों द्वारा खारिज हो रही हैं। मठ-मठाधीशों की चुरकियाँ कट रही हैं। अब जो मेहनत कर रहा है उसके पास ज्ञान है। अब एक सामान्य व्यक्ति लोकल अख़बार भी पढ़ सकता है और न्ययार्क टाइम्स तक। फिर जमुरे की कौन सुनेगा। जोकरों की कैसे चलेगी। कैसे भारत के कुछ अंग्रेजीदां या वामपंथी जुमलेदार पूरे देश का नीति-नियंता कहलायेंगे। ऐसे में कांग्रेससहित पुरातन पोगापंथी सरकार को भी चाहिए कि जनता मूर्ख बनी रहे। उसके पास सचाई न पहुँचे, लेकिन सचाई के अंश जरूर आवे जिस पर राष्ट्रीय स्तर पर भंजौटी हो, भोकाल टाइट हो। लेकिन उनके विश्वविद्यालयों में मंत्रोच्चारण तो हो, लेकिन नए मंत्रों को रचने की कूब्बत न हो। लोग बोलने के लिए स्वतंत्र तो हों, लेकिन वे ही चुनिंदा लोग बोलें जिन्हें सरकारे सुनने का मादा रखती हैं।
यह सब भकसावन है। बेहूदगी भरी है। लेकिन जिंदगी की टोह में जीवित लोगों के लिए कुछ सरकारी टैटू गुदाये सिरफिरों की आवाज़ ही ‘भारत भाग्य विधाता’ है। आज की टिकटाॅक पीढ़ी ही नहीं धर्मपरायणी जमात को भी मसालेदार ख़बरें चाहिए। कुछ तड़कता-भड़कता हुआ। आप अनाप-शनाप या अनेरिया-पनेरिया बोलिए, तो लइकन-बुढ़वन तक के शरीर में डिएनए फड़फड़ाने लगता है। सनी लियोन फिल्म में हिट हो सकती है, तो मीडिया में फिर मधुबाला टाइप की फरमाइश क्यों पर बहस चलने लगेगी। प्रतिमान आसमानी नहीं होते। हम ही पसंद-नापसंद के पत्थर डालकर माइलस्टोन स्थापित करते हैं। पत्रकारिता भाषा की कबड्डी नहीं है, लेकिन बना दी गई हो तो रेंकना तो पड़ेगा-‘कबड्डी..कबड्डी... कबड्डी ...कब...ड्डी...क...’!

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