Monday, March 23, 2020

हाथ पर उग आया कमल और पतझड़ बनी कांग्रेस

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सिंधिया पद के मामले में बिल्कुल पैदल नहीं रहे। उन्हें कांग्रेस ने केन्द्रीय मंत्रीमण्डल में शामिल रखा। राहुल गांधी के सलाह-मशविरे में उनकी चलती रही। राजनीति के भंवर में अपनी कुशल तैराकी के बदौलत ज्योतिरादित्य ने बड़े दांव खेले और जीते। फिर क्या हुआ कि इस युवा नेता ने कांग्रेस का दामन छोड़ भाजपा का साथ हो लिया। रीता बहुगुणा किसी ज़माने में यूपी की जान थी और सिंधिया एमपी के। आज दोनों भाजपा की टोली में है। आज देश की सबसे बुलंद पार्टी बनती जा रही भाजपा की समृद्धि सरकारी कर्मचारियों के डीए भत्ता बढ़ने की तरह सामान्य बात नहीं है। खैर, कांग्रेस की इस गति के लिए क्या निष्ठुर नियति को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए या गाँधी-परिवार को।

भाड़े के ज्योतिषाचार्यों ने राहुलोदय की चाहे जितना भरोसा दिलाया हो, पर अब वह आस भी सांस तोड़ती दिख रही है। राहुल गाँधी जिस जड़ से पैदा हुए फूल हैं उसमें राजनीतिक अंकुरण की संभावना वाले बीज नहीं हैं। ‘प्रोजेक्शन’ और ‘प्रमोशन’ के मीडियावी खेल के बावजूद राहुलार्थ नील-बट्टा-सन्नाटा है। उनके अपने बेगाने हैं और अपनी ‘टैलेंट हंट’ का तो कबका सत्यानाश हो चुका है।
सवाल है, राहुल देख क्या रहे हैं या कि उन्हें भविष्य का नज़ारा आखिर दिख क्या रहा है। सिंधिंया जैसे रणबांकुरे के भाजपा में मिल जाने के बाद मूल्य और विचारधारा की राजनीतिक कहानी का ‘प्लाॅट’ भी हाथ से चला गया। राहुल के पास बेबाकी के बोल-बच्चन चाहे कितने भी नपे-तुले क्यों न हों, लेकिन ‘गेम चेंजर’ की उनकी हैसियत न कल थी और न आज है। बाद के लिए थोड़ी-बहुत जो आशंकाएँ शेष दिखाई भी दे रही थीं अब सिंधिया के जाने के बाद वह ‘यूथ स्प्रिट’ भी नहीं बचा।
राहुल गाँधी अपनी पार्टी के पुराने होने का कब तक लुत्फ उठाते रहेंगे, यह सवाल ज्यादा मौजूं हैं। उन्हें अपने सिवा अपना हमउम्र कोई क्यों नहीं नेतृत्व के काबिल दिख रहा है? लगातार मीनाक्षी नटराजन, जितिन प्रसाद, सचिन पायलट के युवा-कमान को नज़रअंदाज किया गया। इरादतन उन्हें ‘पाॅलिटिक्ल गेम’ से बाहर रखा गया। जबकि इनके केन्द्रीय नेतृत्व में होने से राहुल की राजनीति बेहतर होनी थी। जहाँ हैं वहाँ से आगे यानी शिखर पर पहुँचना था।
राहुल गाँधी की प्रचारवादी रानीति का सूचकांक 2010 में नरेन्द्र मोदी से ऊपर था। जहाँ प्रधानमंत्री की होड़ में आगे दिखते राहुल की प्रतिशत 29 फीसदी थी, वहीं नरेन्द्र मोदी 9 फीसदी स्कोरिंग पर थे। बाद बाकी राजनीतिक तमाश में नरेन्द्र मोदी ने खुद को तराशा और अपनी लोकप्रियता के आँकड़े दुरुस्त करते चले गए। वहीं राहुल की स्थिति ‘ऊँची दूकान, फीकी पकवान’ की रही। एक समय वह भी आया जब 2014 के लोकसभा चुनाव में महज चार महीने बचे थे नरेन्द्र मोदी ने अपनी लोकप्रियता के झण्डे 47 फीसदी से गाड़ दिए, वहीं राहुल अपने तमाम प्रयोग और युवा झाँसे के बावजूद 'पीए इन वेटिंग’ 15 फीसदी से ऊपर की छलांग न लगा सके।

कांग्रेसियों ने राहुल गाँधी की इमेज बिल्डिंग की; बहुतेरे ‘वन मैन शो’ किए पर परिणाम वही ढाक के तीन पात रहा। राहुल गाँधी ने अपने भीतर हो रहे बदलावों के साथ पार्टीगत बदलाव को कभी तरजीह नहीं दिया। हाँ बातें जरूर कीं, शोर बहुत मचाए।
हाल के वर्षों में कांग्रेस बैकफुट पर है। उसके अपने रंगरूटों को कांग्रेस जम नहीं रही। उन्हें कांग्रेस के भविष्य की नहीं अपने भविष्य की चिंता दिख रही है। पाला बदलने से लेकर दगा देते विश्वसनीयों की महत्त्वाकांक्षा हिलोरें मार रही है और वे अपना रस्ता ले रहे हैं। दरअसल, कांग्रेसी कुनबे में गाँधी-परिवार की कब्जेदारी जबर्दस्त रही है। राहुल ने अपने तईं ‘पाॅवर बैलेंस’ की कोशिश भी की थी, लेकिन उन्हें जिस तरीके से प्रमोट किया गया पिछले कुछ वर्षों में उससे कांग्रेस का टाइपफेस राहुल गाँधी बनते चले गये। अन्य युवा और काबिल चेहरों को नजरअंदाज करते हुए राहुलीय रथ को हाँका गया। उनकी गरदन सहलाने वाले पुरनियों ने अपनी बची-खुची राजनीति का भविष्य सुरक्षित रखने के लिए यह सब किया जिसके परिणाम ये हुए की कांग्रेस ‘वन फेस इन लीडरशीप रेस’ का गीत-मल्हार गाती दिखी।
राजस्थान और मध्य प्रदेश में दो युवा चेहरों ने ज़मीनी हक़ीकत समझा और जरूरी रणनीति बनाए। परिणाम देखा जा सकता है कि इन दोनों प्रदेश में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित हुई। सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया के इन कामों की सराहना और नेतृत्व की प्रशंसा बनती है, लेकिन उनकी ‘काउंटिंग’ बाद के नेता के रूप में ही हुई; बतौर मुख्यमंत्री नहीं। पिछले दो लोकसभा चुनावों की गणित समझने की कोशिश करें, तो कांग्रेस का बहुरूपियापन सामने आ जाएगा। दिल्ली की ही बात करें, तो संदीप दीक्षित की जगह अजय माकन एक अक्षम नेतृत्व वाले साबित हुए और कांग्रेस की भद्द पिटी सो अलग। संदीप में राजनीतिक समझ और दूरदर्शिता अजय माकन से कहीं अधिक थी लेकिन उन्हें खुलकर प्रमोट नहीं किया गया। यह सब किन कारणों से हुआ इसकी तफ़्तीश जरूरी है।
राहुल गाँधी की राजनीतिक शैली जिस बदलाव की रूपरेखा रखते हुए आरंभ में कांग्रेसियों को संबोधित कर रही थी, उसी में जंग लग गए। बाद के राहुल चुनावी रणनीतिकार की तरह गोटी सेट करते दिखे और हिसाबी ढंग से अपनी भूमिका में सर्वस्ववादी बने रहे।
यह सब तब हुआ जब राहुलीय कांग्रेस शीर्ष मोर्चे पर युवा कमान को लाना चाहती थी; बड़ी जिम्मेदारी सौंपना चाहती थी। भीतरबातियों की मानें तो पुराने नेताओं के विरोध के कारण ये फैसले टाल दिये गए। सवाल है जो लोग सचिन, अशोक, ज्योतिरादित्य, मीनाक्षी, नवीन, जितिन जैसे ऊर्जावान युवाओं को आगे आने देना नहीं चाहते; वे राहुल को पूरेपन से स्वीकार लेंगे इसकी क्या गारंटी! यही हुआ और गाँधी-नेहरू परिवार की गति बिस्तर पर पड़े मसलंद की भाँति हो गई जिसे अधिक से अधिक सिराहने-गोड़तारी अथवा दायें-बायें किया जा सकता है, इतर संभावना कुछ भी नहीं।
ताज्जुब कि जिन पुरनियों के कारण युवाओं को ‘बैकबेंचर’ बनाने का मसविदा चलाया गया; 2014 की लोकसभा चुनाव में जनता ने उनके ‘विक्ट्री साइन’ वाले ख्यालातों को ठेंगा दिखा दिया। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का आलम यह रहा कि वह बिना गुगली फेंके कांग्रेसी कमरतोड़ का ‘कमल निशान’ बन गए, वहीं राहुल गाँधी पर राजनीतिक बौनेपन का तिलक लग गया। जेब में हाथ डाल झुके गर्दन के साथ फोटू खिंचाना शिष्टता का परिचायक हो सकता है; लेकिन भारत जैसे हलचली देश में जहाँ मुद्दों और विषयों की भरमार है; राहुल गाँधी का यह रवैया उनके ‘पोटेंशियल रिफ्लेक्शन’ को कम कर देता है। नरेन्द्र मोदी की फड़कती भुजायें और कड़कती आवाज में एक तरह की निर्भीकता का ‘बेंचमार्क’ है जो उनकी शोहरत में बहुत कुछ जोड़ देता है; लोगों को उनकी बात सुनने पर विवश कर देता है।
यद्यपि मौजूदा राजनीति में सही-ग़लत के प्रतिमान ध्वस्त हो गए हैं। राजनीतिक संवाद की धार कुंद है तो स्वस्थ बातचीत के तह भीतर गंदगी जमा हो ली है। मीडिया ने नया करिश्मा यह सिरजा है कि वह अपने को बंदरबाट की भूमिका में रख चुकी है। जब तक और जिसके पक्ष से खुराक मिलती रहेगी उसका पलड़ा उस तरफ झुका रहेगा। बीते कई सालों में पत्रकारिता के दिग्गज पत्रकारों के साथ सरकारी बदतमीजी की घटनाएँ और नियोजित प्रताड़ना की ख़बरें रुह कंपाने वाली हैं। सरकार की आलोचना अब बदमाशी माने जाने लगी है जबकि वह उसका विशेषाधिकार है; संसदीय विशेषाधिकार। हुआ ठीक इसके उलट है। पत्रकारिता ने अब कहानियाँ गढ़कर अपने पाठकों/दर्शकोंरुश्रोताओं/प्रयोक्ताओं को रिझाने एवं उनके मनोरंजन करने का बीड़ा उठा लिया है जो ग़लत होते हुए भी ‘पोस्ट ट्रूथ’ की शैली में धड़ल्ले से प्रस्तुत है।
फाइनली, राहुल गाँधी को ‘पाॅलिश भाषा’ में बोलने का गुर सिखाने वास्ते क्या कुछ न किया गया हो, लेकिन राहुल अपने तईं कुछ नया करने की फिराक में अपनी ही टांग लहूलुहान कर बैठे हैं, अपनी ही साख पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। उनकी कोशिश में नियत साफ झलकती भले हो किन्तु निर्णय तक अंततः न पहुँच पाने की उनकी आदत और प्रवृत्ति ने नुकसान जोरदार किया है। आमजन ने राहुल गाँधी के बरक्स नरेन्द्र मोदी को ज्यादा भरोसेमंद माना क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने ‘गुजरात माॅडल’ के ‘वाइब्रेंट फ्लेवर’ की मीडिया प्लानिंग जबर्दस्त की थी जबकि राहुलीय-टीम वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी ही उपलब्धियों अथवा भावी दृष्टिकोंणों को गिना सकने तक में पूर्णतया विफल रही। जबकि दूसरी तरफ भाजपा की कुल हिंदुत्ववादी छवि के बावजूद नरेन्द्र मोदी ने अपनी सफलता के मायने पूरे देश को बताने का प्रयास किया और विशेषकर यंगस्टरों को वे यह समझा पाने में सफल रहे कि उनके राज्य गुजरात का विकास दर देश के राष्ट्रीय विकास दर 8.6 फीसदी की तुलना में 10 फीसदी है।
बतौर नेता नरेन्द्र मोदी की तुलना में राहुल गाँधी का मूल्यांकन करें तो मोदी जहाँ एक ‘अभ्यासी नेता’ की छवि रखते हैं, वहीं राहुल गाँधी अब भी ‘प्रयासी नेता’ के रूप में घुलटिया ले रहे हैं। नरेन्द्र मोदी की आवाज में मिमियाहट नहीं है। वह अपने विपक्षियों को टोन की सुस्तीपन से अपने ऊपर चढ़ बैठने का कोई मौका नहीं देते हैं। वह तेज बोलते हैं और बोले की प्रोक्ति प्रायः घुमावदार और लच्छेदार होती है। कहनशैली की नाटकीयता भी एक तरीके का आकर्षण या कहें खिंचवा पैदा करती है तथा इस सम्मोहन का असर-जादू काफी देर तक मानस में रहता है। राहुल के बोले में ऐसी कुशलता या कहें भाषा पर अधिकार न होने जैसी कमजोरी ने उनके वक्तृत्व को ‘कनेक्टिंग पीपुल्स’ बनने ही नहीं दिया जिस कारण राहुल गँधी युवा होते हुए युवाओं के बीच लहर न बन सके वहीं नरेन्द्र मोदी युवा-मानस में सुनामी की तरह छा गए; दिलोंदिमाग में रच-बस गए।
गाँधी-नेहरू परिवार की केन्द्रीयता ने कांग्रेसी जनाधार का बंटाधार तो किया ही, बल्कि उनकी शिफ्टिंग भी करायी। आज भी मोदी लहर बरकारार है, मोदी सरकार है। क्यों ऐसा हुआ कि देसी जनता अब भी नरेन्द्र मोदी की करिश्माई छवि और मोहक व्यक्तित्व का गुलाम है। उनकी चेतना में नरेन्द्र मोदी देश-उन्नायक और समृद्धि-सर्जक वैश्विक नेता हैं। उनकी खूबियाँ हजार ऐसी हैं जो दिखती हैं और आजकल का तो मुहावरा ही है कि-‘जो दिखता है वही बिकता है।’ सचमुच कांग्रेस के राहुल गाँधी ‘नेमप्लेट’ तो हैं लेकिन उनकी यूएसपी प्रेरक नहीं है। बची प्रियंका गाँधी तो वह खुद गाँधी-नेहरू परिवार के लिए खतरनाक हैं क्योंकि जमाई राबर्टस वाड्रा की महत्त्वाकांक्षा लाल किले से भी ऊँची है। अरस्तू ने अपनी किताब 'पाॅलिटिक्स' में जिक्र किया है कि-‘ऐसा कुछ भी जो मुमकिन है लेकिन श्रेष्ठ नहीं है; से बेहतर वह नामुमकिन होता है जो श्रेष्ठतर होता है।’
फिलहाल, मोदी का सिक्का चलने दीजिए जो नामुमकिन को मुमकिन बनाने का हर खेल खेलने में महारती है और हमें भी ऐसे खेल में शामिल हो कर खुश होने का चस्का तो लग ही गया है। भारतीय जनता पार्टी में कांग्रेसी चेहरा ज्योतिरादित्य सिंधिया के आने के बाद अब तो नया नारा होना चाहिए-‘कांग्रेसी डांडिया...मेक इन इंडिया’।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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