Thursday, April 30, 2015

सब्र है बेशुमार, बस सवेरे की दरकार है!

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‘परिकथा’ के इस बार के अंक में पढ़े: राजीव रंजन प्रसाद का लिखा :
‘मेरा नाम मैरी काॅम’
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राजीव रंजन प्रसाद
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1. Narendra Modi
इस समय भारत में चतुरंगी सरकार है जिसके चतुर सुजानों ने देश-सेवा और राष्ट्र-सम्मान का व्रत लेते हुए चतुरंगी क्रांति का हुंकार भरा है। इस दावे में कितना बल है ‘मैक्सिमम गवर्नेंस, मीनिमम गर्वर्मेंट’ के हजामत बनते हुए हम देख पा रहे हैं। जनता कह रही है-‘सिया राममय सब जग जानी’। यानी जनता यह भांप चुकी है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। यह प्रचारू सरकार अपनी ‘मेक इन इंडिया’ का शंखनाद कर रही है।  उधर नेपाल जमींदोज हो रहा है और भारत में स्मार्ट-सिटी का प्लान लिए कमीशनखोर उत्तराधिकारी माननीय प्रधानमंत्री का कान फूंक रहे हैं। बनारस को क्योटो बनाने का उतान-छितान हुक्मरानी फरमान है ऐसा कि पूछिए मत। सुरापान करते हुए शासक, प्रशासक एवं नौकरशाह की आंख जब बाली उमरिया संग-साथ थिरकती है, तो सब जगह एक ही नारा गूंजता है-‘मेक इन इंडिया’;....और चेहरा उभर आता है माननीय नरेन्द्र मोदी जी का जिन्होंने स्वच्छता अभियान का ऐसा रायता फैलाया कि लगा बनारस के लोगों की आत्मा जागृत हो गई है। भारत रत्न से अभी-अभी सम्मानित महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी के परिसर के ‘अच्छे दिन’ सुमिरन को आ गए; लेकिन! अफसोस ढाक के तीन पात। बीएचयू की पुरानी कार्य-संस्कृति अब भी जारी है; हां बीएचयू परिसर में केसरिया रंग गाढ़ा अवश्य हो गया है। सेल्फी चमकाने वाले काॅकफेसों(वह शख़्स जो सदैव बांग देने को तत्पर रहता है) को इसकी एक मुलायम तस्वीर सोशल-मीडिया पर जरूर चस्पां कर देनी चाहिए; ताकि अलग पोशाक-परिधान में अभी-अभी सम्पन्न हुए दीक्षांत-समारोह पर पूरी दुनिया की नज़र जाए और वे बलैया लें कि-‘वाह भाई, खूब हैं इंडिया वाले!’।

2. Rahul Gandhi
भारत में राजनीति का मास्टरमाइंड हमेशा अराजनीतिक व्यक्ति होता है। वह बाहर से राजनीतिज्ञों के दिमाग में अक़्ल भरता है और राजनीति चलती रहती है, बड़े आराम से। राहुल गांधी ऐसे ही राजनीतिज्ञ हैं जिनके साथ युवा ‘शब्द’ जोड़ना बुढ़े शेर द्वारा कंगन का इश्तहार बेचना है। यह बड़ी धासूं पौराणिक कथा है, नहीं पढ़े तो जाइए ‘ट्विंकल-ट्विंकल गाइए’। राहुल गांधी उस पार्टी के नेता है जो राजनीति के केन्द्र में बने रहने के लिए हर करतब कर सकती है, चियर्स लिडर बनना, तो बड़ी उत्तर आधुनिक पेशकश है। अभी-अभी केदारनाथ धाम से सर नवा कर लौटे राहुल गांधी में इतनी आध्यात्मिक शक्ति और उर्जा भर गई है कि भाजपा शासित केन्द्र पेटकुनिए उनके बारे में अनाप-शनाप बोल रहा है। दरअसल, राजा की जब चित्त-पट होती है या उसका दांव ग़लत बैठता है, तो सबसे पहले वह अपना सारा गुस्सा खेल की नियमावली पर निकालता है। देवालय से पहले शौचालय बनाने का कहढोंग करने वाली भाजपा को यह विश्वास ही नहीं था कि कांग्रेस का यह दुलरूआ केदारनाथ तक पैदल-मार्च कर आएगा; वह भी मई से पहले। उस 16 मई से पहले जहां केन्द्र सरकार के किए का एक साल उजागर होने वाला है। सचाई है कि भारत में ‘मेक इन इंडिया’ को छोड़कर भारत में ‘अच्छे दिन’ जिसके भी आए वह बहुसंख्यक नहीं है। भाईसाहब! सूर्य उदित हो, तो सबको लगना चाहिए कि सूर्योदय हुआ। सिर्फ नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, मुख़्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज़ हुसैन आदि के घर रौशन-बयार बहे, तो ऐसे दुत्तलछन पराक्रम को भला कौन बर्दाश्त करेगा?

3. Rajeev Ranjan Prasad
इन दिनों मेरे जेब की हैसियत उलट गई है। अकाउंट में पैसे नहीं है और सरकारी नियत की बेईमानी द्वारा नियुक्त नीति-नियंताओं ने मुझे चार महीने से स्काॅलरशिप नहीं दिया है। 14 अप्रैल को आम्बेडकर जयंति को इन कुकुरमुतों ने ऐसे मनाया जैसे लगा कि वे आम्बेडकर की सोच एवं विचार की ज़मीन पर स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व का फसल बोएंगे; लेकिन उन्हें तो ‘पांचजन्य’ का लोकार्पण करना था, सो किया। हां, नाश्ते और शरबत की चैचक व्यवस्था थी। ठीक उसी तरह जैसे अकादमिक सेमिनार का आयोजन इसलिए नहीं किया जाता कि अच्छे विचारवान वक्ता और शोधार्थी कोई नई बात कहेंगे अथवा नवाचारयुक्त नई प्रतिस्थापना देंगे; बल्कि इसके आयोजक सर्टिफिकेट बेचकर पैसा बटोरने और प्रतिभागी उसमें भाग लेकर मनपसंद लज़ीज़ व्यंजन गटकने के लिए हर करम-ध्रम करते दिखाई देते हैं। बंधुवर, भारत एक ऐसा देश है जहां सभी स्वयं को सद्चरित्र कहते हैं; लेकिन हैं वे कुते की जात जिसकी पूंछ सीधी हो ले, तो मेरी ख़बर लेना। 

जहां तक विश्वविद्यालय का सवाल है, तो उससे क्या डरना...; मैंने एक दिन मौज में पूछा कि देवता, शोध-कार्य पर लाखों खर्च कर रहे हो, करेंगे क्या? उन्होंने झट से जवाब दिया, ‘इसके लिए दीमकों को वर्षों से जिला रखा है किसलिए, इन्हीं सब के लिए न काम आएंगे।’ मैंने कहा, ‘सही गुरु, यह विश्वविद्यालय वाकई लम्बा जाएगा....!'  यह सचाई है कि स्तरीय शोध करने का बिगुल फूंकने का ही नतीजा है कि मुझे इतना सबकुछ सहन करना पड़ रहा है। क्या इसके लिए कोई जांच कमेटी नहीं बैठाई जानी चाहिए? क्या यह तय नहीं किया जाना चाहिए कि एक-एक शोध-छा़त्र पर 10 से 15 लाख के बीच खर्च करने के बाद प्राप्त निर्गत(Output) इतना स्तरहीन एवं कूड़ा-कबाड़ क्यों है...? सब मुझे कहते हैं कि तुम ठीका लिए हो क्या? मैं कहता हूं-‘हां, मेरा शोध-कार्य यदि कूड़ा-कबाड़ हुआ, तो जो न सो; लेकिन भूखों मारकर इस तरह परेशान रखोगे, तो मैं क्या माननीय प्रधानमंत्री जी के ‘मेक इन इंडिया’ का भी कबाड़ा हो जाएगा!’।

Saturday, April 25, 2015

एक शोधार्थी पत्रकार के नोट्स

कल सुबह यह स्टोरी पूरी की, तो दिमाग में कनहर में किसानों पर पुलिसया कार्रवाई की बर्बर घटना थी, मुझे क्या पता था कि दोपहर तक विनाश का नया मंजर आने वाला है। भूकम्प से पूरी दुनिया हिली, तो लोगों का बुरा महसूस हुआ होगा। खैर! अब अच्छे दिन गए तेल लेने...क्यों ग्लेशियर....,
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राजीव रंजन प्रसाद

हमारा प्रश्न देश के नेता से है, उन टूटपुंजिए नेताओं से नहीं जो नाम आम-आदमी रखते हैं; लेकिन जिनका काम विचारशून्य, असंवेदनशील और दृष्टिबाधित हुआ करती है! हमारा प्रश्न उस समाजवादी युवा कपोत से नहीं है जो लाल-टोपी पहनने को समाजवादी हो जाने का एकमात्र गुण मानता है। जिसके शासनादेश से बर्बर पुलिस सोनभद्र में कनहर मुद्दे पर गोलियां चलाती है और निहत्थे-बेजुबान जेलों में ठूंस दिए जाते हैं। हमारा प्रश्न न तो शारदा चिटफंड करने वालों से है और न ही व्यापं घोटाला में नाम आने के बाद भी अपनी मर्दानी पर ताव देने वाले मुख्यमंत्रियों से। हमारा प्रश्न दोयम दरजे के नेताओं से नहीं हो सकता; क्योंकि जनता की हैसियत और नाक दुत्तलछन चरित्र वाले राजनीतिज्ञों से कहीं ज्यादा ऊँची है; संस्कारित और मर्यादित भी। 

हम सोलह आना लोकतंत्र में विश्वास करते हैं। सांविधानिक अनुशासनों और नियमावलियों का अक्षरशः पालन करते हैं। फिलहाल हमारा सवाल उस नेता से है जो लालकिले से बोलते हुए जनता का दुलारा प्रधानमंत्री-सा भाषिक व्यवहार कर रहा था। जिसके उच्चार में यह गर्वबोध था कि देश की करोड़ों-करोड़ जनता ने उसकी भूमिका को महत्त्वपूर्ण माना है; उस पर अपना पूरा भरोसा जताया है। जिस नेता ने लगभग हकड़ते हुए चुनावों के दौरान यह दावा किया था कि वह भारत मां का सपूत है और वंशवादी नेताओं के गोत्र से उसके जात सर्वथा भिन्न है। जिसने सीमा पर सर कटाते जवानों के लिए कहा था कि हम जीते, तो ऐसा कभी नहीं होगा भाइयो एवं बहनो। जिसने अपने मछुआरों को समुद्री सीमारेखा उल्लंघन के एवज में कैद कर लिए जाने या गोली मार दिए जाने की बात पर कहा था कि ऐसा होना सरकार की अक्षमता और सामथ्र्यहीन होने की निशानी है। जिसने किसानों की सूरत बदल देने के लिए हीक भर ‘गुजरात माॅडल’ देखने का नारा दिया था। जिसने कहा था हमारी पार्टी का मन स्वच्छ है इसलिए वह स्वच्छता अभियान चलाएगी और वह राजनीति की पुरानी रवायत को बदल कर नई बयार/बहार लाने में सफल होगी। जिसने बेरोजगारों को कहा था कि यदि आपको रोजगार न मिले तो अपने मन की बात सीधे प्रधानमंत्री को लिख भेजना; आपकी समस्या का शत-प्रतिशत निदान होगा और आपकी काबिलियत का पूरा सम्मान करते हुए योग्यतानुसार आपको शीघ्रताशीघ्र नौकरी दी जाएगी। और भी बहुत कुछ। बेटी बचाने से लेकर शौचालय बनाने तक। सब वादे दावे के साथ निभाने का संकल्प लिया ही नहीं था; बल्कि जनता से कबूलवाया था-'आई कैन डू इट!’ 

आप कहेंगे, जो कहना चाहता हूं वह सीधे कहूं। मेरा आपसब से पूछना है कि आखिर सीधी बात क्या होती है-‘यही न कि यदि ज्यादा दिक्कत है, तो मर क्यों नहीं जाते?' भारतीय जनता मर रही है। ‘अच्छे दिनों’ के आस देखने वाले किसान फसरी लगा कर मर रहे हैं, तो कई की ससरी टंगी हुई है। भारतीय मीडिया क्या देख रही और क्या दिखा रही है; पूछिए ही मत। उनका खाना-पीना-सोना-ऐश-मौज सब 'पाॅलिटिक्ल पैकेजिंग' का हिस्सा है। मानो वह ‘लिव इन’ में स्वतन्त्र-उन्मुक्त वास-निवास कर रही हो। सरकारी रकम खाकर बउआती मीडिया त्रासदीजनक घटनाओं का तमाशा बनाती है। राजनीतिज्ञों की भूमिका उसमें उस्ताद और जमूरे सरीखा है जो भारतीय लोकतंत्र में अपनी कमीनगी, दुचित्तापन और अमर्यादित आचरण के लिए जाने जाते हैं। जनसेवक, जनपक्षधर, जन-नुमाइंदा, जननेता आदि शब्द उसके उस तरह की अटैची में बंद है जिसे लेकर प्रायः सरकारी नेता संसद में प्रश्न पूछने जाते हैं; बजट पेश करने के लिए निकलते हैं या फिर किसी अध्यादेश अथवा हुक्मी शासनादेश द्वारा जिन्हें देश का विनाश और सत्यानाश करना होता है। 

हम उस देश के बाशिंदे हैं जहां चाय बेचने वाला एक साधारण लड़का जब प्रधानमंत्री बनता है, तो जनता की सूरत बदलने से पहले अपना शक्लोसूरत, हुलिया, हाव-भाव, टोन-लहजा और शब्दार्थ सर्वप्रथम बदलता है। सबसे पहले वह महंगे सूट-बूट में टीप-टाॅप दिखना चाहता है। अपनी ही सरज़मीं को पूरी दुनिया के बाज़ार के खुले स्पेस के लिए प्रचारित करने लगता है। जिस देश के अधिसंख्य लोग अंतिम सांस लेने तक अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, कनाडा आदि का नाम तक नहीं सुने होते; वहां के लोग, परम्परा, संस्कृति आदि का भर-भर मुंह गुणगान उलीचना कैसे जान जाएंगे, सोचिए जरा! लेकिन भूलिए मत कि इसी ‘मेक इन इंडिया’ में मैक्डोनाल्ड ‘शाकाहारी’ भोजन तैयार करने में जुटा है, तो केएफसी परोसने में। ओएलएक्स आपके लिए बेशकीमती समान सस्ते में उपलब्ध करा रहा है, तो फ्लिपकार्ट ‘होम डिलेवरी’ द्वारा आपको जूते से लेकर पेन-ड्राइव और फ़िल्मी वीसीडी तक तुरत-फुरत में घर-द्वार तक पहुंचा रहा है। 

अतः सीधी बात यह कि नरेन्द्र मोदी जो चुनावी हुंकार, गर्जना और शंखनाद में अपना सीना दिखाते फिर रहे थे; आज उन्होंने जनता-जनार्दन की ओर से मुंह फेर लिया है। उनका ध्यान शेयर बाज़ार पर है, विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष पर है। नरेन्द्र मोदी विश्व-ताकत का हिस्सा बन चुके हैं और दुनिया उनके चमत्कारी गुणों का लोहा मान चुकी है; यह बात गलाबाज भाजपा जोर-शोर से प्रचारित-प्रसारित कर रही है। जिसे भी उनके ठेकेदार पैसा दे रहे हैं, उनकी जेब गर्म कर रहे हैं; वह उनके पक्ष में, उनकी महानता के बारे में बालने लग रहा है। यहां तक कि ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा आदि के राष्ट्राध्यक्षों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। जबकि यह सबकुछ सरकारी टिटिमा है, शत-प्रतिशत प्रायोजित है। यह ‘आॅन रिकार्ड’ ऐसा ही कहने की नवसाम्राज्यवादी पेशकश है, ताकि भारतीय जनता को उल्लू बनाया जा सके। उनके जल-जंगल-ज़मीन को प्रवासी-विदेशी विकास और स्मार्टी बदलाव के नाम पर हथियाया जा सके। यह भारत की जनता को बताया जा सके कि आपका कल्याण इसी रास्ते है। केन्द्र की वर्तमान सरकार सबको आभिजात्य, पूंजीपति और सर्वशक्तिमान बनाने का ख़्वाब दिखा रही है। यह  झूठ, सरासर झूठ है। लूटेरों के साथ गलबहियां कर आप ‘सुरक्षा-बोध’ और ‘सम्पन्नता’ हासिल करने का कितना भी ख़म ठोंक लें; लेकिन उसका परिणाम क्या होगा; सब जानते हैं।

सोनभ्रद के कनहर में गोलिया बरसेंगी और देश चुप। अरविन्द केजरीवाल की रैली में एक किसान को लोग जानबूझकर उकसाएंगे और वह पेड़ से लटक कर अपनी जान दे देगा। ऐसे ही ख़बर-दर-ख़बर किसान पूरे देश में मरता रहेगा और रूटीन ख़बरों में उनकी मौत का जनाजा उठेगा। बच्चे नौनिहाल दिखाए जायेंगे जबकि होंगे बदहाल। देश की जनता को खुशहाल बनाने के लिए सरकारी नीति-नियंता और हुक्मरां अपनी तनख़्वाह और सरकारी सुविधाओं में घनघोर इज़ाफा करेंगे और देसी ज़मीन पर लोग अपनी ऐंठती अतड़ियों संग दाने-दाने के लिए बिलखेंगे, बिलबिलाएंगे; लेकिन जनसुनवाई, निष्पक्ष न्याय और आमजन को जीने लायक साफ-सुथरी माहौल नसीब न होगी। और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी तस्वीर अथवा पहलू बेहद संतोषजनक नहीं होंगे। यानी देश संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थायी सदस्य बनने के गिड़गिड़ाएगा, लेकिल संगठित ताकतें कान नहीं देंगी। संयुक्त राष्ट्र संघ में अपनी भाषा हिन्दी को शामिल करने के लिए साझे बयान पढ़े जाएंगे; लेकिन होएगा-जाएगा कुछ नहीं। इसी तरह भारतीय सम्पदा अधिकार को भारत विदेशियों से आयातीत कर धन्य महसूस करेगा; लेकिन उसे अपनी शिक्षा-प्रणाली में सुधार की बात फूटी न सुहाएगी। वह ज्ञान का उधोगीकरण, वस्तुकरण, विदेशीकरण आदि करने के लिए लालायित होगा; किन्तु अपनी भाषा, दर्शन और ज्ञान-सृजन की परम्परा पर शत-प्रतिशत विश्वास कदापि नहीं करेगा।  ऐसे में आमजन के लिए यह बात ही सत्य साबित होगी कि,‘‘ये बारिश बड़े अमीर जैसे लोगों के वास्ते हैं; हमारे-तुम्हारे जैसा गरीब के वास्ते नहीं....हमारे लोगों का क्या होगा, हमारी झोपड़ी का क्या होगा?’’

फिल्म बूटपाॅलिस का यह मार्मिक संवाद आज के किसानों पर आफत के रूप में आन पड़ा है। वह असमय हुए बारिश और तबाह हुए फसल से सदमें में है। किसानों के खुदकुशी का मामला तेजी से बढ़ा है। पूरा देश सकते में है और सरकार का वित्तमंत्री ‘जिएसटी’ की पैरोकारी में उलझा है। विपक्ष बाॅयकाट कर रही है। वामपंथी पुनर्विचार के दबाव डाल रहे हैं। और कुदरती प्रकोप से परेशानहाल लोग गा रहे हैं-‘लपक..झपक..तू मत आ रे विनशवा...’।

Friday, April 24, 2015

मि. पाॅलिटिशियन आपको शर्म आती नहीं या है ही नहीं!!

कसाईबाड़े में किसान
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राजीव रंजन प्रसाद
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पूरे देश में शैतानी ताकतों की राजनीति गर्म है। आप आम हो या खास, नाम में नहीं रखा कुछ। भगवा वाले भगवान के नहीं होते, तो किसान का क्या होंगे। ‘मेक इन इंडिया’ से देश में पेट्रोल और डीजल के दाम घट रहे हैं। ‘मेक इन इंडिया’ से स्मृति ईरानी भारतीय शिक्षा-जगत का वारा-न्यारा कर रही हैं। ‘मेक इन इंडिया’ से सुषमा स्वराज की बिंदिया बड़े भाव के साथ चमक रही है।

फिर भी सौ टके का सवाल है कि भारतीय किसान मर क्यों रहा है? केजरीवाल से पूछें जो हाल ही में विदेशी पत्रिका के नाम के साथ चमके हैं; या फिर माननीय प्रधानमंत्री से जो चाय बेचते हुए गरीब-गुरबा के साथ कंधामिलाई करते हुए राजनीति के शीर्ष पर काबिज हुए; आज अपने खिलाफ बोलने वाले की जुबान बंद कर देने तक की नियत रखते हैं?

मि. पाॅलिटिशियन शहर-दर-शहर और गांव-दर-गांव स्यापा है, लोग सरकारी उपेक्षा और प्रताड़ना की मार झेल रहे हैं; उनकी समस्या पर सुनवाई बंद है; बस चिन्तन जारी है....वह चाहे कांग्रेस हो या भाजपा; करात हो येचुरी; ममता हो या पवार; रमन सिंह हो या नीतिश कुमार....मि. पाॅलिटिशियन, तुम्हारे ‘काॅमन सेंस’ को  हुआ क्या है...किस मुंह से आओगे जनता से जनादेश मांगने? 

एक पुरानी कहावत है-‘भेडि़या आया...भेडि़या आया चिल्लाने पर लोग दौड़े चले आये, तो चरवाहे बच्चे ने कहा कि उसने तो बस कौतुहूल बस ये कारनामा किया था। फिर एक बार सचमुच भेडि़या आया और वह चिल्लाने लगा। इस बार लोगों ने कान नहीं दिया।’

जनता के ‘अच्छे दिन’ और आम-आदमी के ‘अमन-चैन’ लूटने वालों को यह सोचना चाहिए कि इस बार दगा दिया, तो अगली बार जनता आपकी दाग नहीं धोएगी; क्योंकि विज्ञापन में दाग भले अच्छे लगते हों; किन्तु जनता अपने घर-परिवार-समाज को बरबाद करने के एवज में आपके राजनीकि दाग को अच्छा कभी नहीं कहेगी।

और किसान; जब तक वह संगठित नहीं होगा। जब तक वह अपनी ज़मीन को टुकड़ों में बांटकर देखता रहेगा। जबतक वह दूसरे की मौत और मैय्यत पर ख़ालिस टेसुआ बहाता रहेगा....; सरकारी-तंत्र द्वारा जबरिया अपना घर-बार लूटे जाने पर सिर्फ और सिर्फ आश्चर्य करता रहेगा, तो इस यथास्थितिवाद से तब तक कुछ नहीं बदलने वाला। लोगों को एकजुट होना चाहिए, जागरूक और लामबंद भी। उन्हें ग्रह-नक्षत्र और सितारे देखकर अपनी दिनचर्या शुरू करने वाले राजनीतिज्ञों का सर नही, नाम तो अवश्य कलम कर देनी चाहिए! 

अब लड़ाइयां हदबन्दी में नहीं; बल्कि सांविधानिक मर्यादा और लोकतांत्रिक दायरे में आर-पार की लड़ाइयां लड़नी चाहिए....

Wednesday, April 22, 2015

नौकरी की जगी आस, बढ़ा दुआओं का सिलसिला

लिखित परीक्षा और कंप्यूटर-टंकण में उत्तीर्ण, साक्षात्कार का सफलतापूर्वक सामना किया राजीव रंजन प्रसाद ने।


Sunday, April 19, 2015

राहुलीय रिलाॅन्च पर ‘इस बार’ से मुख़तिब राजीव रंजन प्रसाद

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थैलीशाहों ने पहले पुरानी सत्ता को कर्जा दिया, कांग्रेसियों को खरीदा; अब मि. नरेन्द्र मोदी और उसके ‘संघ शक्ति युगे-युगे’ को....नया क्या....ठेंगा?

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गदहे लाख जुगत करें, वे अश्वारोही जमात में शामिल नहीं हो सकते।
दिक्कतदारी यह भी है कि अश्व ही नहीं, तो अश्वमेध कहाँ? अतः गदहों के सहारे ही सच्चे अश्वमेध(लोकतंत्र) का स्वप्न देखना हमारी सनातनी मजबूरी है और भाग्यवाद भी।
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राजीव रंजन प्रसाद

आप मनोविज्ञान और मनोविज्ञानियों को नहीं जानते, कोई बात नहीं!
मन और भाषा का अंतःसम्बन्ध नहीं जानते, तो क्या हुआ?
आप शब्द और अर्थ के सन्दर्भ विशेष के लिए प्रयुक्त प्रयोजनवश मनोभाषिकी से परिचित नहीं, तो भी चलेगा?

बस इतना जरूर जान लीजिए कि स्वभाव मनुष्य की आन्तरिक प्रकृति होती है। भीतरी परतों में छुपे-दबे या रचे-बसे उस वस्तुगत चेतन-अचेतन की प्रतिकृति जो बाहर आचरण में उजागर होते ही व्यक्ति क्या है, कैसा है, कौन है...आदि का पोल खोलकर रख देती है। यह बात व्यक्ति क्या किसी संस्था अथवा दल के बारे में, उसकी रचना-बनावट या संरचना-स्वरूप के बारे में भी उतनी ही सत्य साबित होती है; जितनी की व्यक्ति विशेष के स्वभाव, चरित्र, आचरण, प्रकृति, व्यक्तित्व, व्यवहार और नेतृत्व के बारे में? 

राहुल और मोदी राजनीति के ऐसे ही दो छँटे हुए नमूने हैं जिनका मुँह अक्सरहा भोंपू की तरह बजता है। दोनों खुद को जनता का सिपाहसलार कहते नहीं अघाते हैं; कभी नहीं चूकते हैं। चाहे मसला नियमागिरी का हो या भट्टा-पारसौल का.....विदेशी प्रवासियों का हो अथवा भारतीय किसानी में संकटग्रस्त ढंग से सरकार का मुँह जोहते लोगों का। 

आज राहुल बोले और नरेन्द्र मोदी भी। दोनों के ट्यून में एक खास बात ‘काॅमन’ है; वह यह कि दोनों के व्यक्तित्व-व्यवहार में झक्कीपन नज़र आता है जो उनके ‘टोन’ को बिलावजह आक्रामक बनाता है। बोलते समय दोनों का ‘राउंडअप’(घुमाव) देखने योग्य है। राहुल खड़े होते हैं और स्थिर हो जाते हैं...बोलना जारी रहता है; दैहिक मुख-मुद्रा अथवा हस्त-संचालन में हरकत भी स्वचालित-सा जान पड़ता है। राहुल की इस अदागिरी को देख ‘सेमीमानव’ का ख़्याल आता है जो न पूरी तरह यंत्र हो सकता है और न ही सौ फिसदी इंसान। इसी प्रकार, नरेन्द्र मोदी के भाषणबयानी वाली स्थिति में खड़ा होने के बाद भी एक सामान्य और जरूरी लचक दिखाई देता है। उनके घुमाव अथवा भाव-मुद्रा-भंगिमा के फेरफार में गतिशीलता सहज तैरती दिखाई देती है; उनका आत्मीय झुकाव आमजन के प्रति इतना आग्रही एवं दिलचस्प होता है कि मालूम देता है जैसे अभी लपक कर वे आपके सामने आ जाएंगे। राहुल में यह काबिलियत हो ही नहीं सकती है; क्योंकि वे इसकी पात्रता नहीं रखते हैं। वहीं नरेन्द्र मोदी यह जानते हैं कि शरीर को पूरा घुमाए और उसे साधे बिना अन्तजर्गत में गहराई नहीं आ सकती; उनकी ग्राह्यता बनी नहीं रह सकती और यह नहीं हुआ, तो सार्वजनिक मंचों पर वे कोई चमत्कार भी नहीं कर सकते हैं। 

एक बात और दोनों के सार्वजनिक वक्तव्य में भी ख़ासा फर्क दिखाई पड़ता है। राहुल में बोलने की तैयारी आंतरिक न होकर बाह्यारोपित है; लेकिन नरेन्द्र मोदी में विचार-भाव-सम्बोधन आन्तरिक होते हैं; लेकिन कथ्य के दिशा, मंतव्य और कुल जमा प्रभाव बाहरी वातावरण द्वारा नियोजित-समायोजित। पहली स्थिति में व्यक्ति कोई छूट नहीं ले सकता है क्योंकि छूट लिया नहीं कि पसीने छूटे, बोल बिगड़े। वहीं नरेन्द्र मोदी कुछ से कुछ भी जोड़-तोड़ लें वे अंततः पहुँचेंगे वहीं जहाँ उन्हें तय निशाने के मुताबिक पहुँचना अपेक्षित है, वांछित है। राहुल गाँधी प्रतिकूल परिस्थितियों में बोलने का ‘रिस्क’ नहीं ले सकते हैं; अतः ज्यादातर विषयों के बारे में उनकी समझ-दृष्टि और विचार हैं ही नहीं। नरेन्द्र मोदी हर विषय पर बोल लेने की अपनी विशेषता से परिचित हैं जो एक प्रकार से अहमन्यतावादी रवैया है। यह अपने वैचारिक सूनेपन अथवा विचारधारात्मक खालीपन पर कोई मुलम्मा चढ़ाने जैसा है जिसकी आज की राजनीति में बड़ी धूम है। लेकिन अंततः यह आपको नुकसान ही पहुँचाती है क्योंकि अनुभव और स्मृति पर यदि आप भरोसा करने से बचते हैं अथवा अपने इतिहासबोध और परम्परा को ‘अंडरस्टिमिट’ करते हैं, तो भला आपके विपक्षी को हो सकता है, किन्तु बुरा तो आप ही के साथ होना तय है। राहुल गाँधी राजनीति में बलि की बकरा की तरह नमूदार हैं जबकि नरेन्द्र मोदी बकरे के उस सौदागर की तरह जो बकरे की कीमत ही नहीं जानता है बल्कि अपने बेचेने की कला और अपनी काबिलियत पर भी जिसे काफी भरोसा है।

जहाँ तक दोनों के भाषण ‘डिलेवरी’ का सवाल है, तो एक में आरोप की मरोड़ जबर्दस्त है, तो दूसरे में कायाकल्पी विकास का धाराप्रवाही तोड अद्भुत। एक अपनी बात कहने के लिए जनता को समुझाहट के स्तर पर लाते हैं, तो दूसरा ‘बडे ख़्वाब का बड़ा जादू’ इस तरह दिखाते हैं कि आप बिस्तर से उठे नहीं कि घर में शौचालय बन कर तैयार, पेयजल संकट दूर, बिजली बिल आधा, महंगाई डायन गई तेल लेने, बच्चों का बस्ते का बोझ और नकचढ़ी स्कूल फीस में भारी-भरकम कटौती हो ली। तब भी दोनों अपनी बात कहने में निराले हैं, ज़बान से अलहदा हैं। एक अपने बीते समय के बर्तनों को बजाते हुए, उसका गुणगान करते हुए देष की जागरूक जनता को अपने करतबजाल में फांसना चाहता है, तो दूसरा अपनी वाग्जाल और वक्तृता से ऐसे हुंकार-गर्जना करता है जैसे कि आकाषी बादल गरजते हों। नरेन्द्र मोदी अपने पहनावे और परिधान को हमेशा आउटस्टैंडिग गेटअप देते हैं क्योंकि वह इस मनोविज्ञान को भली-भाँति जानते हैं कि जनता के सामने उस तरह प्रस्तुत हो जिस तरह होने की आकांक्षा वह पालती है। 

इस तरह देखा जाए, तो मोदी और राहुल दोनों वाक्बहादुर हैं। एक बाज़ारू रणनीति में अपनी गर्दन ऊँट की तरह ऊँचा रखने में उस्ताद हैं, तो दूसरा योग, मौन, विपश्यना करते हुए हर दिन कुछ नए हुनर-करतब सीखने अथवा सीखते जाने का दावा करते हैं जबकि जनता सब जानती है....एक्स भी, वाई भी और जेड भी। इतनी सुबुद्ध और समझदार जनता है, तो फिर प्रश्न उठता है कि देश की यह हाल-दशा क्यों है? देसी मंगलाशा में हर रोज इतने देवी-देवता पूजे जाते हैं; लोग श्रद्धा जोतते हुए देष भर में तरह-तरह के भगवानों के समक्ष माथा टेकते हैं; फिर पूरा हिन्दुस्तान मुर्दिस्तान क्यों बना हुआ है? यह वीरभूमि महारथियों और महापुरुषों से इस कदर खाली क्यों है, चारों ओर बियाबान क्यों है? दरअसल, भारत में इस घड़ी राजनीतिक दुचित्तापन इस कदर हावी है कि सभी राजनीतिक पार्टियाँ एक-दूसरे का पूँछ पकड़कर स्वयं को ‘अश्वारोही’ कहने का दंभ पाल रही हैं; पूरे आब-ताब के साथ चुनाव लड़ती हैं, जीतती हैं....और राजनीतिक पराक्रम दिखाते हुए देश का हर तरह से सत्यानाश करने में जुटी हुई हैं। कहना न होगा कि इसी हुमचाहूमची में अपना देश अपनी स्वाधीनता और गणतंत्र का साल-दर-साल विशेष दिवस मानने को अभिशप्त है; लेकिन अँजुरी भर अंजोरिया भी कहीं किसी तरफ से लउक नहीं रहा है, सीएफएल और एलईडी के चकाचैंध में सबकुछ इस कदर बिला गया है मानों कि बोले नहीं कि गला रेताया आप-वह-मैं किसी का! 

खैर! आज रामलीला मैदान में 53 दिनी विपश्यना कर लौटे राहुल गाँधी की आँख उस ज़मीन पर एकटक लग गई है जिसके चारों ओर सोनिया गाँधी महीने भर से परिक्रमा कर रही थीं। पिछले दो महीने से खेती-किसानी पर राष्ट्रीय पार्टियों को खूब लाड़ आ रहा है। इसे एक अच्छा मौका जान कांग्रेस भुनाने में लगी है। यह जानते हुए कि अब वह जमाना चला गया जिसमें अपनी तश्तरी में भुना हुआ फुटहा चना खाए और बैठे-ठाले मस्त-कलन्दर बने पगुराए। वर्तमान सरकार की अध्यादेशी तोपें भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी विधेयक लाने पर तुली हुई हैं। उसका यह उतावलापन अथवा ऊतारूपन किसी भी दृष्टि से बर्दाश्त-ए-काबिल नहीं है। मन में कई प्रश्न उमड़-घुमड़ रहे हैं। जनता-जनार्दन की सारी आशाएँ मोदी सरकार की है, अतः प्रश्न भी सिर्फ उसी से किए जाने चाहिए। फिलहाल आप भी देखें:

1. प्रश्न है, जनता आश्वासन पर क्यों जिए? वह आज की रोटी के लिए कल की प्रतीक्षा क्यों करे?2. प्रश्न है, जनता क्या सरकारी सहायता मिलने, नीति-नियम बनने, दस्तावेज तैयार होने, उसके क्रियान्वयन सम्बन्धी पहलुओं के बारे में ठीक-ठीक विचार होने तक भूखों मरे?
3. प्रश्न है, सरकारी शिक्षा-तंत्र इतनी अक्षम, नाकाबिल और अकुषल है, तो इस पूरे शैक्षणिक तंत्र को बनाए रखने में किस पुरोहितवादी और आभिजात्य समाज का हित/लाभ सध रहा है, कल्याण हो रहा है?
4. प्रश्न है, क्या जनता अपने अच्छे दिन आने की फ़िराक में ऐसे ही लोगों को आत्महत्या करने दे, सरकारी कारगुजारियों, शासनिक-प्रषासनिक अक्षमता और राजनीतिक अराजकता के आगे स्वयं को बलि का बकरा बनने दे? दूसरों को राग अलापने दे? अपनी ही ज़मीं से बेदखल होकर स्वयं को अजनबियत की मौत मरने दे? 
5. प्रश्न है, जनता बुनियादी सुविधाओं के लिए क्यों तरसे? यदि वह किसी सेवा के बदले में तत्काल भुगतान करने को बाध्य या विवश है? वह किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी या सेवा प्रदाता से एक छोटे रिचार्ज के लिए उस उत्पाद-विशेष की देय कीमत का लगभ पच्चीस प्रतिशत हिस्सा भेंट कर देने में नहीं हिचकती है, तो फिर जनता को इसी तरह जीवन-निर्वाह सम्बन्धी मूलभूत सुविधा-सेवा तत्काल मुहैया कराए जाने पर हीलाहवाली क्यों?
6. प्रश्न है, जनता की ज़मीन पर अमीरी-रेखा और दरो-दीवार खड़ा करने से यदि देश में ‘स्मार्टनेस’ बहने लगेगा, तो सबसे पहले राजनीतिज्ञों को अपने ज़मीर, नैतिकता और राजनीतिक प्रतिबद्धता सम्बन्धी जन-समाजीकरण का पेंट-पाॅलिस क्यों नहीं कराना चाहिए जो आलीशान ज़िन्दगी जीने का अभ्यस्त हैं?
7. प्रश्न है, राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण द्वारा वर्तमान राजनीतिज्ञों ने पूरे भारतीय समाज, संस्कृति, इतिहास, भूगोल, आर्थिकी, जनांनिकी आदि को जिस कदर व्यक्तित्वविहीन, चेतनाविहीन, सुख-शांतिविहीन बना/कर रखा है; इस गणितीय अंकशास्त्र-रसायन-अर्थशास्त्र को बदलने क्या कोई मसीहा-महापुरुष-सुधारक अलग से पैदा होगा? 
8. प्रश्न है, यदि सभी तरह के समस्याओं का समाधान/हल आप ही के पास है, तो कब तक भारतीय जनता आपके आसरे रहे? वह भी तब जब नई सरकार विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को अपने आतिथ्य में झूला टांगकर झुलाने में इस कदर व्यस्त है कि उसे यह भी नहीं पता कि भारत की राजनीति व्यक्तिवाद पर नहीं राजनीतिक व्यक्तित्व, चरित्र, सादगी, शालीनता, मूल्य और नैतिकता पर टिकी होती है। 
9. प्रश्न है, मौजूदा सरकार जिस बाज़ारू नज़रिए से अपनी देशी सरज़मी को देख-ताक-निरख-परख रही है; उसमें मानवीय मूल्य, स्नेह, आत्मीयता, ज़मीनी लगाव, इंसानी प्रगाढ़ता, ज्ञानशक्ति, विवेकसम्मत चेतना, दूरदर्शी अंतःदृष्टि इत्यादि का सर्वथा अभाव दिखाई देता है; फिर वह किस बिनाह पर ‘सबका साथ, सबका विकास’ का ढोल पीट रही है? कही ऐसा तो नहीं कि यह ढोंग उसने अपनी अक्षमता और राजनीतिक नपुंसकता का छिपाने-ढँकने के लिए ईजाद कर रखा है?
10. प्रश्न है, मोदी सरकार की हुंकार-गर्जना, हैसियत, हिम्मत, हौसला, हरक़त आदि ने पिछले 11 महीनों में जो दृष्यगत नौटंकी लगातार मंचित किया है; उससे अच्छे दिन के आसार कम दिख रहे हैं; बुरे दिन के संकेत लगातार उजागर हो रहे हैं? ईश्वर, भारतीय जनमानस को अपार सहनषीलता, धार्मिक आचरण एवं विरोध सम्बन्धी विवेकदृष्टि, चिंतनपरक संवाद के अवसर और भारतीय दिलों में एक-दूसरे के लिए बेपनाह जगह दें; क्योंकि साम्प्रदायिक सत्ता जब चकनाचूर होती हैं या उन्हें अपनी मौत मरने की नौबत आती है, तो वह अपनी पूरी कोशिश में दूसरों को तबाह करने, बरबाद करने अथवा पूरी मानवीयता के खि़लाफ बड़ा दाँव चलने का कुकर्म करती हैं। अतः आने वाले दिनों में अपनी इंसानी एकजुटता इंसानीयत, भाईचारा आदि को बुलंदी की अग्निपरीक्षा से गुजारना होगा; अपने को पूर्ण नियंत्रण में तथा निरपेक्ष रखना होगा। 

नोट:
=> उपर्युक्त बातें अपने शोध-कार्य हेतु फौरी आउटलाइन के साथ खिंचे गए हैं। 
=> इन पंक्तियों के लेखक युवा राजनीतिज्ञों के व्यक्तित्व, व्यवहार एवं नेतृत्व में संचार, भाषा, मनोविज्ञान, राजनीतिशास्त्र, समाजविज्ञान, मानवविज्ञान इत्यादि की भूमिका, महत्त्व और मनोभाषिक प्रकार्य पर शोध-कार्य कर रहे हैं।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...