Friday, March 1, 2013

एक पिता का पत्र दो पुत्र के नाम

प्रिय देव-दीप,

‘‘....सदैव यही प्रतीती रखो कि तुम साधना के अति उत्तुंग शिखर पर बैठे हो। तनिक भी सन्तुलन खोया, तो अतल गहराइयों में, खोहों और खाइयों में गिर पड़ोगे। एक क्षण भी खोया तो जीवन-सम्पदा को क्षीण कर बैठोगे। जीवन से तभी तुम कुछ पा सकोगे, यदि उससे भी बढ़कर जीवन को कुछ दे सकोगे।’’

देव-दीप, यह सन्देश महान वैज्ञानिक सी. वी. रामन का है। वही सी. वी. रामन जिनके वैज्ञानिक खोज को दुनिया ‘रामन-प्रभाव’ के नाम से जानती है और जिसके लिए उन्हें सन् 1930 में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था। अपने प्रारम्भिक दिनों में अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त इस वैज्ञानिक के साथ एक दिलचस्प वाकया घटित हुआ था। वह यह कि सी. वी. रामन को सन् 1917 ई0 में कलकता के साइंस काॅलेज में योगदान देने के लिए बुलाया गया। पेंच यह आ खड़ी हुई कि उन दिनों साइंस काॅलेज में यह परम्परा थी कि जो भी व्यक्ति भौतिकशास्त्र पढ़ाने आये वह यूरोपीय विश्वविद्यालय में पढ़ा हुआ हो और वहाँ की उपाधि उसे प्राप्त हो। रामन तो अभी तक विदेश भी नहीं गए थे, विदेशी डिग्री की बात तो दूर रही। अन्त में अपवाद-स्वरूप रामन पर से यह शर्त हटा ली गई और जुलाई, 1917 में वह कलकता विश्वविद्यालय में भौतिक-शास्त्र के प्राध्यापक नियुक्त हुए।

यह सन्देश मेरे लिए लकीर है। तुमदोनों के लिए यह क्या अहमियत रखती हैं? अपने-अपने हिसाब से अर्थ निकालने के लिए स्वतन्त्र हो।


तुम्हारा पिता
राजीव

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...