Monday, March 31, 2014

वह कामरेड न हो सका


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वह कामरेड न हो सका

उसे 
बोझ ढोने से 
फुर्सत नहीं मिली 
जो बनाता 
मुट्ठियाँ
लगाता नारे 
उठाता झंडा 
वह कामरेड न हो सका 

उसके घर का चूल्हा
 दो वक्त 
जला नहीं कभी 
नियमित 
जो जा सके वह 
किसी रैली में 
सुनने किसी का भाषण 
ढोने पार्टी का झंडा 
वह कामरेड न हो सका 

वह कभी 
स्कूल न गया 
फिर कैसे पढ़ पाता वह 
दास कैपिटल 
वह सुनता रहा 
मानस की चौपाइयां 
कबीर की सखियाँ 
वह कामरेड न हो सका 

उसे 
बचपन से ही 
लगता था डर 
लाल रंग से 
प्राण निकल जाते थे उसके 
छीलने पर घुटने 
उसे प्रिय था 
खेतो की हरियाली 
वह कामरेड  हो न सका
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अरुण चन्द्र राय जी के ब्लाॅग ‘सरोकार’ से इस बार का साभार!

1 अप्रैल, अन्तरराष्ट्रीय मुर्ख दिवस और इस बार

प्रिय देव-दीप,

''शब्दों से कहना
उनकी आहुति का समय आ गया है
कि उन्हे नया शब्द संसार रचना है
अपनी हवि देखकर         माँ की तरह 
इस शब्दमेध यज्ञ में इन शब्दों की हवि देते समय कहना .
शब्द ऊर्जा !
तुम हमारी निःशब्द वाणी में,  हमारे निःशब्द कर्म में
नये शब्दों के रूप में अंकुरित होओ 
बनो एक नया संवाद, एक नया सेतु''
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नोट: सन्् 1989 में लिखी गई यह कविता-अंश प्रसन्न कुमार चैधरी की है।  
इसे पढ़ लेने के बाद मेरे पास कहने को कुछ भी बचता नहीं शेष।

Friday, March 28, 2014

Jean Paul Sartre की आत्मकथा The Words के अंश

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संस्कृति किसी चीज या व्यक्ति की रक्षा नहीं करती। न यह कोई औचित्य प्रमाणित कर सकती है। लेकिन यह मनुष्य से उत्पन्न एक चीज है। मनुष्य इसमें अपने व्यक्तित्व को स्थापित  करता है, इसमें अपने को देखता है। यही एक शीशा है जिसमें वह अपनी छवि देख सकता है। मैं ईमानादारी से कह सकता हूं कि मैंने सिर्फ अपने समय के लिए ही लिखा है

पुरानी फाइल में युवा-2010

 



भारतीय युवा जनतांत्रिक समाज का नवीन प्रवर्तक तो सांविधानिक इकाई का महत्वपूर्ण घटक है। युवा अर्थात एक ऐसा वर्ग, जो मेहनती, ऊर्जावान, दिलेर, जांबाज, स्वाभिमानी, राष्ट्रभक्त और देशप्रेमी हो जिसकी चेतना जीवित हो। रक्त में स्फुर्ति और ताजगी हो। उपस्थिति अलहदा, तो विचार जुदा हो। जो अंतर्मन की आंख से भविष्य में ताक-झांक करने में निपुण हो। यानी युवा एक ऐसा शब्द है, जो सर्वगुणसंपन्न भले ना हो किंतु नूतन-नवीन गढ़ सकने में प्रवीण अवश्य हो। यथार्थ जो भी हो। युवा होने का अर्थ कमोबेश यही समझा जाता है। फिलहाल राष्ट्रीय मानव-संपदा के रूप में ये युवा देश की अंदरूनी ताकत और श्रेष्ठता का पर्याय हैं जिन पर सवा अरब आबादी वाला देश हिन्दुस्तान मजे में गुमान कर सकता है।

कई देश जो इस बात को लेकर चिंतित हैं कि उनके यहां युवा उम्र के लोगों की तादाद तेजी से घट रही है जबकि बुढ़ाते जा रहे लोगों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी जारी है। भारत में युवाओं की संख्या 55 फीसदी से अधिक होना वाकई गर्व करने की हिम्मत और अवसर देता है। आधुनिक साम्राज्यवादी देशों में अगुवा राष्ट्रों का भारतीय युवाओं के प्रतिभा, गुण एवं दक्षता पर रीझना और उनके सम्मुख बिछना सुखद अनुभूति का अहसास कराता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरान तक का भारतीय युवाओं के बड़प्पन में कसीदे काढ़ना अब झांसा कम उनकी विवशता अधिक मालूम पड़ती है। खुद को महाशक्ति साबित कर तीसरी दुनिया पर राज करने वाले ये बौने देश जान गए हैं कि अब उनकी अर्थव्यवस्था का ऊंट ज्यादा देर खड़ा नहीं रह सकता। और न ही विकासशील राष्ट्रों के उन ताकतवर जिराफों से टक्कर ले सकता हैं जिन्हें वे पिछड़ा, असभ्य और कमजोर-फिसड्डी कहने की भूल करते आए हैं।

इस घड़ी हमारे देश के युवा कई मोर्चे पर जबर्दस्त लड़ाई लड़ रहे हैं। वे आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक और धार्मिक हर मोड़ पर संघर्षशील हैं। कहीं मंदी से उबरने की छटपटाहट है तो कहीं खाप पंचायत की मध्ययुगीन सोच से टकराने की कशमकश। परिवार के स्तर पर ‘अपनी आजादी, अपने हाथ’ लेने को इच्छुक युवा-पीढ़ी आधुनिकता-बोध से लैश है। आज के युवा अपना आग-पाछ सब जानते-समझते हैं। वे इतने आत्मविश्वासी और सक्षम हैं कि उसूलों का ‘कैप्सूल’ खा कर नियम, कानून, मर्यादा, नैतिकता और शुचिता के प्रश्न को हल करना उन्हें नहीं सुहाता। आज के युवा मोबाइल पर चैटिंग करते हुए मां का चरण छूते दिख रहे हैं तो दूसरी ओर मंदिर के आगे चलते-चलते मस्तक नवाना भी नहीं भूल रहे।

सबसे अलहदा और अजूबा स्थिति है धर्म के मामले में। आज की युवा पीढ़ी अयोध्या पर आये फैसले पर हंसते हुए प्रतिक्रिया देती है-‘यार! हमारे देश में भगवान से ज्यादा ऊंचा तो भगवा है।’ यह सतही हंसी-ठट्ठा नहीं है। यह हमारे देश के उन युवाओं की व्यावहारिक अनुभव का दर्शन, सिद्धांत या कहें फलसफा है जो बाजार बनती राजनीति में धर्म को शामिल करना नहीं चाहते हैं। वे मजहबी मुल्लाओं और पंडे-पुजारियों के आह्वान पर झूठ-मूठ का सिर कटाने वालों में से नहीं है।

अनेक क्षेत्रों में अपनी समस्याओं, तकलीफों, चुनौतियों, तनाव, अवसाद और कुंठाओं से युद्धरत ये युवा राजनीति में भी अपनी दखल और दावेदारी को ले कर दृढ़प्रतिज्ञ हैं। राजनीतिक संचेतना से ओत-प्रोत युवा समाज इस बात से वाकिफ है कि आज राजनीति हिंसा, अपराध, अराजकता और भ्रष्टाचार की लपेट में है। गांधी, लोहिया और जयप्रकाश मन-भुलावे के हथियार हैं जिनके झंडाबदार स्वयं को गांधीवादी, समाजवादी और युग प्रवर्तक आंदोलनकारी कहते फिर रहे हैं? राजनीतिक विरासत को अक्षुण्णय बनाये रखने के नाम पर तारीखाना बरसी मनाते इन राजनीतिज्ञों की सच्ची कथा जगजाहिर है। किया-धरा सबके सामने है। हिंसा, अपराध, लूट, आगजनी, दंगा और फसाद के बल पर बटोरे पूंजी द्वारा राजनीतिक टिकट पा संसद और विधान-सभा पहुंचे इन नेता-मंत्री-हुक्मरानों को युवा-पीढ़ी फूटी कौड़ी पसंद नहीं कर रही। वे हर हाल में बदलाव चाहते हैं। सिनेमाई परदे पर ‘रंग दे बसंती’, ‘युवा’ जैसी फिल्में उनकी दर्द बयां कर रही है। 
निःसंदेह राजनीतिक संचेतना के निर्माण में जुटे ये कर्मठ युवा राजनीति में वंशबेलि के वृक्ष को साफ करने खातिर औजार गढ़ रहे हैं। कलतक राजनीति से दूर भागने वाले युवा राजनीति से प्रेरणा ले रहे हैं। मानसिक शब्दकोष में राजनीति से घृणा और नफरत सम्बन्धी जो पूर्वग्रह या धारणा गाद-मवाद बन पैठी थी उसे वे धो-पोंछकर कुछ नया रचने के फिराक में हैं। वहीं दूसरी ओर आम-आदमी आज भी सपने में आजादी का जश्न मना रहा है। जनतंत्र का बेसुरा रिकार्ड बज रहा है-आजादी के इत्ता वर्ष, गणतंत्र के इत्ता वर्ष, नक्सलबाड़ी के इत्ता वर्ष, सम्पूर्ण क्रांति का इत्ता वर्ष। यह बित्ता भर की माप और पैमाना युवा न होने की वजह से है या कुछ और। यह फैसला आप खुद करें....तो बेहतर है।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...