Tuesday, January 25, 2011

युवा पाठशालाओं का ‘साइड इफेक्ट’


जनतांत्रिक समाज का नवीन प्रवर्तक कहा जाने वाला भारतीय युवा सांविधानिक इकाई का महत्त्वपूर्ण घटक है। देश-चिंतक राममनोहर लोहिया ऐसे युवाओं के लिए ‘तेजस्वी’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं जो अर्थगत दृष्टि से सार्थक और समर्थ जान पड़ता है। राष्ट्रीय मानव-संपदा के रूप में भारतीय युवा देश की अंदरूनी ताकत और श्रेष्ठता का पर्याय हैं। विश्वविद्यालय ऐसे युवाओं के लिए चेतनशील केन्द्र है। भारतीय विश्वविद्यालयों में सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेष्ठता का रचनात्मक प्रयोग होते हुए आसानी से देखा जा सकता है। शैक्षिक विरासत की धरोहर कोलकाता, मुंबई और चेन्नई स्थित विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त बनारस, इलाहाबाद, हैदराबाद, पटना, दिल्ली, डिब्रूगढ़, पुंडूचेरी, अलीगढ़ इत्यादि; इस दृष्टि से मुकम्मल साक्ष्य प्रस्तुत करते हंै।
इसके अलावे चिकित्सा, अभियंत्रिकी, खनन, प्रबंधन, पर्यटन, फैशन एवं मीडिया जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में प्रतिष्ठित संस्थानों की आमद बढ़ने से युवाओं का रूख तेजी से इस ओर बढ़ा है। न्यू मीडिया, मल्टीमीडिया, कंप्यूटर, साॅफ्टवेयर, बीपीओ आदि ने देश के उन युवाओं को तेजी से आकृष्ट किया है जो कर्मठ, महत्त्वाकांक्षी और प्रबंधन-कला में पारंगत है। इसीलिए अकादमिक शिक्षा का परिवेश आज तेजी से बदला है। पुरातन-शैली की प्राच्य विधाएँ आज भी जिंदा है लेकिन उनके साथ हमजोली बन विकसित हो रही आधुनिक शिक्षा के अन्य संसाधन प्रभाव और प्रयोग में युवाओं को ज्यादा लुभा रहे हैं।
असल में यह शताब्दी ही युवाओं की है जो हर मोर्चे पर तैनात या कहें मुस्तैद है। मैत्रीभावना से भरी-पूरी इस पीढ़ी के कार्यों में घर्षण, गतिरोध या बाधाओं का मिश्रण कम; अनुभवजन्य एवं दृढ़संकल्पित जनपक्षधरता का आवेग ज्यादा है। तकनीक और प्रौद्योगिकी के इस दौर में भारतीय युवाओं की दक्षता, कुशलता और सक्रियता के विविध आयाम दृष्टिगोचर हैं जिन्होंने सामाजिक उत्थान, सांस्कृतिक विकास, अकादमिक ज्ञान-सर्जना के अतिरिक्त नेतृत्व-कौशल का काम बखूबी किया है। आज इस युवा पीढ़ी के अंदर कुंठा, हीनता या पिछड़ेपन की दकियानुसी धारणा से उबरने की छटपटाहट साफ देखी जा सकती है। वैश्वीकृत समाज की धुरी पर विकसनशील भारतीय युवा निरंतर गतिशील हैं। उन्हें एक सीमाबद्ध अकादमिक परिसर का बाशिंदा मात्र समझना भारी भूल होगी। वे समय की उड़ान से बेहद आगे बढ़ कर सोचने में प्रवीण हैं। प्रतिकूल बहाव के बीच उन पर नियंत्रण पाने का विवेक रखते हैं।
नवोन्मेषी युवा पीढ़ी नवाचार और अभिसरण की प्रक्रिया द्वारा अन्तरराष्ट्रीय मुकाम पाने की होड़ में कैसे आगे हैं, इसकी पुष्टि मीडिया आवरणों में फैले ख़बरों से की जा सकती है। ‘
सुपर 30’, ‘गूंज’, ‘जागृति यात्रा’ जैसे अनेकों ऐसे सामाजिक संगठन हैं जिन्होंने लीक से हटकर समाज में अपनी पहचान कायम की है। हाल के दिनों में ‘सोशल नेटवर्किंग’ के माध्यम से ‘जेसिका लाल हत्या प्रकरण’ से सम्बन्धित युवाओं का संगठित अभियान ताजातरीन उदाहरण है। इसी साल 30 जनवरी को देश के 60 शहरों में प्रदर्शित ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ अभियान में लाखों युवाओं की सीधी भागीदारी युवा मन के बदलते ‘टेम्परामेंट’ का सूचक है।
कुछ अपवाद भी हैं जिसे खारिज़ कर सकना मुमकिन नहीं है। वह यह कि आज भारतीय युवाओं की एक बड़ी खेप अपराधिक, हिंसक और अराजक है। आँकड़ों में दर्जं ऐये युवाओं की फेहरिस्त कम नहीं है जो नशे के चंगुल में फँसे हैं। वे परिवर्तनकामी सोच से लैश होने की बजाय यथास्थितिवादी अधिक हैं। महानगरीय और मध्यवर्गीय युवाओं में बढ़ती स्वार्थपरकता और निजता की मानसिकता ने एक गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है। ‘सोशल नेटवर्किंग’ साइटों पर घंटों दोस्ती और गपशप करने वाला यही युवा अपने इर्द-गिर्द से एकदम कटा हुआ है। उनके भीतर एक किस्म की आतुरता है मानों वे चंद मिनटों में सबकुछ पा लेने को व्यग्र हों।
यह अधीरता विडंबनापूर्ण जल्दबाजी भी कही जाएगी जो उन्हें तनाव, अवसाद और कुंठा के गिरफ़्त में कस रही है। बावजूद इसके माहौल में सकरात्मक सोच और उम्दा दृष्टिकोण का ‘एंग्ल’ बड़ा है। जहाँ से बांह्मण्ड की तमाम आकाशगंगाओं और तारिकाओं को अपने भविष्य की पहलू में संजोया जा सकता है। यह जानते हुए भी कि ‘ब्लैक होल’ अंतरिक्ष का एक अभिन्न हिस्सा है। याद आता है, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गाँधी ने अमेरिका की अपनी पहली राजकीय यात्रा के दौरान संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हुए एक दिलचस्प बात कही थी-‘‘भारत एक प्राचीन देश है, लेकिन एक युवा-राष्ट्र है; और हर युवा की तरह हममें अधीरता है। मैं भी युवा हँू और मुझमें भी धीरज की कमी है।’’
दरअसल, वर्तमान युगबोध से सुपरिचित शिक्षित युवाओं में राजनीतिक संचेतना का ज्वार मजबूत स्थिति में है। अब विश्वविद्यालयी शिक्षा पुरातन गुरुकुल संस्कृति से अलग लीक पकड़ चुकी है। अतएव, चेतना के स्तर पर भारतीय सांस्कृतिक भूगोल में पश्चिमी सांस्कृतिक भूगोल का घूसपैठ न हो कर ज्ञानात्मक तादातम्य ज्यादा है। जहाँ विदेशी विद्यार्थी भारतीय वेदों, प्राच्य विद्याओं, भाषा-व्याकरणों, टीकाओं में गूढ़ रहस्यों की खोज कर रहे हैं तो वहीं भारतीय युवा फुको, देरिदा, सस्यूर, एडवर्ड सईद, मिल्टन, माक्र्स, लेनिन, ज्यां पाल सात्र, सीमोन-द-बउआर तथा नोम चोमस्की की विचारधारा से प्रभावित दिख रहे हैं। इन युवाओं को भारतीय धर्म-प्रवर्तकों, ऋषियों, साधकों, महापुरुषों, कवियों, साहित्यकारों की चिंतन-परंपरा को भी नए संदर्भों में टटोलते या उन्हें उद्घाटित करते हुए देखा जा सकता है।
ऐतिहासिक युगबोध से संपृक्त अधिकांश युवा-पीढ़ी पारंपरिकता और आधुनिकता के फांक को समझती है। उसकी अभिव्यक्ति में भाषा, प्रोक्ति, कूट अन्तरण, कूट मिश्रण सम्बन्धी विशेषता विद्यमान है; इसे अन्तरसांस्कृतिक संवाद और संचार का दिलचस्प उदाहरण माना जाने लगा है। भाषिक-स्तरण यानी लिंग, वयस्, वर्ग, जाति, विषय और प्रयोजन के आधार पर समाज-सापेक्ष चेतना वह प्रमुख कारक है जिसने राजनीतिक सामाजिकरण की दिशा तय करने की पूरजोर कोशिश की है। अपने निज अधिकारों के प्रति सुचिंतित इस युवा पीढ़ी को आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं है। साम्प्रदायिक ताकतों की राजनीतिक प्रोपगेण्डा को युवा पीढ़ी ने सिरे से खारिज कर दिया है। बाबरी मस्जिद मुद्दे पर वह बेलाग-बेलौस इसकी आलोचना करती दिखती है; यह आलोचना धर्म-मजहब की राजनीति करते मुल्लाओं और संतों के लिए सर्वाधिक मुश्किल खड़ा करने वाली है। यह उस दौर का मजेदार सच है जब सर्वे यह घोषाणा करती है कि देश के पचास फीसदी से ऊपर नौजवान पूजा-पाठ और धर्म-उपासना में तल्लीन हैं।
कहना न होगा कि विश्वविद्यालय परिसर में अध्ययनरत युवा राष्ट्रभक्ति एवं साम्प्रदायिकता में अंतर करना जानते हैं। उन्हें पता है कि राजनीति में रक्त-बंदोबस्ती का टंटा कितना बुलंद है या फिर लोकतांत्रिक प्रणाली पर भाई-भतीजावाद और जातिवाद का हौवा कितना हावी है? जिससे आज के आधुनिक कहे जाने वाले विश्वविद्यालय भी अछूते नहीं हैं। फिलवक्त जन-आंदोलन की बुनियाद भले ऊसर हो लेकिन दृष्टिसंपन्न युवा उसमें लगातार वैकल्पिक सोच का खाद छिंट रहे हैं। विकल्प की राजनीति का यह ‘पैटर्न’ संसदीय राजनीति में ‘प्रोजेक्टेड’ युवाओं को नकारने का बढि़या औजार है। किशन पटनायक की पुस्तक ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ आज के विश्वविद्यालयी युवाओं के लिए आधारभूमि है। मेधा पाटेकर, अन्ना हजारे, श्रीश्री रविशंकर, सुनीता नारायण, अरविंद केजरीवाल जैसे लोग ‘रोल माॅडल’ की भूमिका में हैं। सामाजिक धरातल पर इन्होंने आन्दोलन का जो वैकल्पिक खाका खींचा है, उस मुहिम का समर्थन पढ़ा-लिखा युवा सहर्ष करने को तैयार है। यह युवा-जागरण बदलते भारत की तस्वीर पेश करता है। आश्वस्ति देता है कि नई पौध अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही के मसले पर तंगदिल हरगि़ज नहीं है।
राजनीतिक संचेतना से ओत-प्रोत इन युवाओं को पता चल चुका है कि आजकल भारतीय राजनीति हिंसा, अपराध, अराजकता और भ्रष्टाचार की लपेट में है। गांधी, लोहिया और जयप्रकाश मन-भुलावे के हथियार हैं जिनके झंडाबदार स्वयं को गांधीवादी, समाजवादी और युग प्रवर्तक आंदोलनकारी कहते फिर रहे हैं? राजनीतिक विरासत को अक्षुण्णय बनाये रखने के नाम पर तारीख़ाना बरसी मनाते इन राजनीतिज्ञों की सच्ची कथा जगजाहिर है। किया-धरा सबके सामने है। हिंसा, अपराध, लूट, आगजनी, दंगा और फसाद के बल पर बटोरी गई पूंजी द्वारा राजनीतिक टिकट हथियाने के किस्से भी बहुश्रुत हंै। इन नेता-मंत्री-हुक्मरानों को युवा-पीढ़ी जरा-सा भी पसंद नहीं करती है। वह ‘राईट टू रिकाॅल’ कानून का समर्थक है ताकि अयोग्य सांसदों को तत्काल उनके पद से हटाया जा सके।

संघर्षशील समझदार युवा:
वस्तुतः विश्वविद्यालयी शिक्षा में निपुण युवा पीढ़ी पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हर मोड़ पर संघर्षरत है। उनमें कहीं मंदी से उबरने की छटपटाहट है तो कहीं खाप पंचायत की मध्ययुगीन सोच से टकराने की जद्दोजहद। परिवार के स्तर पर ‘अपनी आजादी, अपने हाथ’ लेने को इच्छुक युवा-पीढ़ी आधुनिकता-बोध से लैश है। वे इतने आत्मविश्वासी और सक्षम हैं कि उन्हें उसूलों का ‘कैप्सूल’ खा कर नियम, कानून, मर्यादा, नैतिकता और शुचिता के प्रश्न को हल करना नहीं सुहाता है। फिर भी स्वतंत्र विचार और खुलेपन के आग्रही ये युवा अराजक स्वछंदता के धुर विरोधी हैं। विवेक की दहलीज पर आसीन इन युवाओं को संस्कृति-अपसंस्कृति के बीच भेद करते हुए हम आसानी से देख सकते हैं।
युवा पाठशालाओं का रेखाचित्र खींचते हुए छोटे शहरों, कस्बाई इलाकों तथा पिछड़े क्षेत्रों में मौजूद काॅलेजों एवं विश्वविद्यालयों की चिंताजनक स्थिति को जानना-टटोलना भी आवश्यक है जहाँ अभी भी काफी कुछ नहीं बदला है। भूलना नहीं चाहिए कि बहुसंख्यक युवा-युवतियाँ ऐसे भी हैं जो निरक्षर या महज साक्षर हैं; और उनके लिए माक्र्स, एंग्लस, लेनिन, गाँधी, लोहिया, नेहरू, 15 अगस्त, 26 जनवरी, नववर्ष, वेलेंटाइन डे आदि सब एकसमान हैं। सुदूर देहातों की वे युवतियाँ जो बस्ता टाँगे घंटों पैदल चल काॅलेज की सीमा में दाखिल होती हैं, उन्हें शोहदों और लफंगों से हर रोज निपटना होता है। किसी के लिए वे ‘आइटम’ होती हैं तो किसी के लिए ‘बाॅब कट झरेला’।
शीला और मुन्नी जैसी टिप्पणी तो आज के ईजाद हैं। कईयों को तो सिर्फ इसी वजह से बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ती हैं। कुछ जिद्दी(?) युवतियाँ तमाम बाधाओं को सहते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करती दिखती हैं लेकिन भविष्य का ठौर-ठिकाना धुंधला होने की वजह से उन्हें भी अंततः मन मार लेना ही उचित जान पड़ता है। यही हाल उन युवकों की है जो डिग्रियाँ लेकर यहाँ-वहाँ मारे फिरते हैं। बेरोजगारी का आलम यह है कि वे कहीं शिक्षामित्र की नौकरी पा संतोष कर रहे हैं तो कहीं नरेगा-मनरेगा परियोजना में पर्यवेक्षक की नौकरी से खुश हैं।
इस सामाजिक विडंबना का मार्मिक चित्रण करते हुए साहित्यकार गौरीनाथ एक जगह कहते हैं-‘‘जाहिर है हमारा समाज एक जैसा नहीं है, न यहाँ के लोगों की स्थितियाँ। इसलिए स्पष्ट है कि परिवर्तन की दिशा-दशा भी अनेक क्षेत्रों, वर्गों, समूहों में अनेक तरह की होगी और इसको देखने वाले भी अपने-अपने ढंग से देखेंगे समझेंगे और अपनी भूमिकाएँ तय करेंगे। विदेशी कारों में घूमने वाले अघाए हुए कुबेरपुत्रों के लाडले, कंप्यूटर, इंटरनेट की धड़कन के साथ चल रहे हैं टेक्नोलाॅजी जगत के युवा, सरकारी आॅफिसों के बाबू, दहेज के लिए जलाई जाती वधुएँ, घर से भागी हुई लड़कियाँ, बेरोजगार-कुंठित निम्न-मध्यवर्गीय युवा, खेतों में काम करने वाले युवा, पिछड़ी जाति के युवा, अल्पसंख्यक युवा आदि के सच अपने-अपने हैं। इनमें से प्रत्येक के परिवर्तन का ग्राफ, दूसरे से अलग बहुत अलग है।’’
बता दें कि हाल ही में सेंटर फाॅर मीडिया एंड कल्चरल रिसर्च के ताजा सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि राहुल गाँधी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। तकरीबन 33 शहरों में तैंतीस हजार युवाओं के बीच कराये गए इस सर्वेक्षण का निष्कर्ष या दावा कितना सही है? यह भी देखने योग्य है। यों तो देश भर के विश्वविद्यालयों में राहुल गाँधी को दौरा करते हुए देखा जा सकता है; पर असल मंशा राष्ट्रहित की जगह पार्टीहित से सम्बद्ध है। इसीलिए श्रेष्ठतम परिसर, चाहे वह डिब्रूगढ़ हो, जेएनयू हो या काशी हिन्दू विश्वविद्यालय; उनके पहुँचने का प्रभाव कम विरोध का असर ज्यादा देखने को मिलता है। इस बाबत मशहूर चिंतक सुरेन्द्र किशोर सही फरमाते हैं-‘‘आज कई राजनीतिक दलों के युवा नेता रिवाल्वर लेकर आते-जाते हैं। यदा-कदा जरूरत पड़ने पर उसे चमकाते भी रहते हैं। इस स्थिति में सामान्य युवा अपनी रोजी-रोटी और करियर के प्रश्न को ज्यादा महत्त्व दे रहा है। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया और आधुनिक फिल्मों ने भी युवजनों के एक हिस्से के दिलोदिमाग को दूषित किया है। लेकिन सबसे बड़े अपराधी वे लोग हैं जो इन दिनों राजनीति के शीर्ष पर हैं। वे किसी तरह की प्रेरणा देने की स्थिति में नहीं हैं, बल्कि प्रकारांतर से युवजनों में राजनीति के प्रति वितृष्णा ही पैदा करते हैं।’’
इस मसले का विवेचन-विश्लेषण करते वक्त बाज़ार के प्रभाव को भूलना खतरनाक हो सकता है। क्योंकि आज हर चीज ‘कमोडिटी’ का हिस्सा है जिस पर मायावी प्रचारलोक का लेप चढ़ा है। विज्ञापन यह तय करने लगा है कि आज का युवा कैसे आधुनिक बने? परंपरावाही संस्कृतियाँ जो कुप्रथा या कुरीतियों की जगह मानवीय नैतिकता के मूल्यगत निर्धारक थीं; आज उसे भूमंडलीकरण के दैत्य ने दबोच लिया है। इस बाबत समाजवादी विचारधारा से जुड़े अरमान का विचार महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं-‘राजनीतिक संचेतना के स्तर पर दिखते इस ऊपरी उभार को अगर गहराई से टटोलें तो इनमें वैचारिक मूल्यगत स्पष्टता का अभाव है। ये युवा राजनीति के माध्यम से नया क्या कुछ स्थापित करना चाहते हैं? इनके सपनों का समाज कैसा होगा? वैसे तो कुछ छात्र युवा संगठनों में वैचारिक समझ का अभाव नहीं दिखता है। विशेषकर वामपंथी विचारधारा वाले युवा समस्याओं की पड़ताल गहरे स्तर पर कर लेते हैं लेकिन एक खास वैचारिक नजरिए से फिर समस्याओं का समाधान खास तरह की परिस्थिति में खास फाॅर्मूलावादी क्रांति में खोजते हैं जिनका भारतीय जीवन परिस्थितियों से दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता। वो जिस पूंजीवाद पर हल्ला बोलने की बात करते हैं उसी पूंजीवादी तरीके से साम्यवाद की परिकल्पना भी करते हैं। देश में आज जो ज्वलंत प्रश्न है उनके ऊपर भी यह अपनी राय नहीं दे पाते हैं। यदि काग़ज पर थोड़ी बहुत वैचारिकी दिखती भी है तो जमीन पर इनके मातृ-संगठनों की सरकारें ठीक विपरीत काम करती है। तब ये संगठन अपनी सरकारों के कामों पर उंगली नहीं उठाते हैं। निःसंदेह युवा संगठनों द्वारा प्रश्न खड़ा नहीं करना युवा स्वाभाव के विपरीत है जो इनके मातृ संगठनों और इनके बीच स्वायतता और स्वतंत्रता के अभाव को दिखाता है।’

जमाना युवा तुर्क काः
20वीं शताब्दी युवा राजनीतिज्ञों की सक्रियता और सार्थक हस्तक्षेप का साक्षी रहा है। अतीत के स्वर्णीम पन्नों में दर्ज अनगिन युवा रणबांकुरों की बात न भी करें तो स्वतंत्रता बाद जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उभरा ‘युवा तुर्क’ भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक नवजागरण का ‘कोपरनिकस प्वाइंट’(बदलावकारी बिन्दु) साबित हुआ है जिसके मूल-स्तंभ रामधन, ओम मेहता, कृष्णकांत, चन्द्रशेखर और मोहन धारिया थे। कर्मठ, जुझारू और राजनीतिक संचेतना से संपन्न इन युवा तुर्कों ने अपने बाद की युवा पीढ़ी को काफी मजे से मांजा। उनमें लोकचेतना का राजनीतिक टान पैदा किया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय को इन युवा तुर्कों ने कर्मभूमि के रूप में इस्तेमाल किया। इस पाठशाला में तपकर कुंदन बनने वालों में जार्ज फ्रण्र्डांडिस, लालू यादव, मूलायम सिंह यादव, नीतिश कुमार, शरद यादव जैसे सैकड़ों छात्र-नेता शामिल थें जिन्होंने मुख्यधारा की राजनीति में सफलतापूर्वक अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की।
90 के दशक में युवा-राजनीति की सक्रियता को छात्र-संघ ने रसद-पानी उपलब्ध कराया। लोकतंत्र की बुनियाद को तराशने में मदद की। राष्ट्रीय स्तर पर युवा-संसद की एक पृथक योजना बनी। 1988 ई0 में देश के सभी केन्द्रीय विद्यालयों से शुरू हुई यह योजना 1997-98 आते-आते पूरे देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के लिए लागू कर दी गई। यह राजनीति में युवा-दखल का निर्णायक दौर था। युवा-संचेतना के सूत्रपात का सुअवसर जो वैकल्पिक युवा राजनीति को सींच रहा था। यह आजादी के स्वप्न बेचते राजनीतिक बुजुर्गों को विदा करने का वक्त था जो स्थापित गणतंत्र में घिनौनी राजनीति का षड़यंत्र रच रहे थे। युवा-मन के साथ राजनीति में दाखिल हुई यह नई पौध भूख, गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी से त्रस्त जनता के लिए उम्मीद की किरण थी जो बोलते हुए नहीं करते हुए अपनी पहचान बनाने को संकल्पित थी।
वहीं दूसरी ओर 20वीं सदी का अंतिम दशक गवाह था-सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के अधोपतन का, भारतीय जनता पार्टी के चरम हिंदूवाद में रूपांतरण का, वामपंथी नेताओं के सीमित जनाधार का रोना रोने का तो त्राहिमाम् करती जनता के ‘मूढ़ मति सुजान’ बने रहने का। यह वक्त था, बोफोर्स तोप घोटाले के रहस्योद्घाटन का जिसमें शामिल राजनीतिक दलाल देश की प्रतिष्ठा कौडि़यों के भाव बेच रहे थे। ‘भ्रष्टाचार’ को वैधानिक रूप से आत्मसात कर चुके नौकरशाह पूंजीपतियों के साथ सौदेबाजी करने में संलिप्त थे।
यद्यपि यह एक कठिन दौर था तथापि जन सरोकार से जुड़े युवा राजनीतिज्ञ दृढ़प्रतिज्ञ थे। उनकी प्रथम प्राथमिकता थी जल-जंगल-जमीन को हर हाल में बचाना जो अवैध धंधा करने वालों के लिए किसी ‘गुप्त खजाने’ से कम न थी। उस घड़ी राजनीतिक युवा समाज-सापेक्ष राजनीति की नींव रख रहे थे जिसके लिए ‘विजन 2020’ के परिकल्पनाकार डाॅ0 अब्दुल कलाम आज की तारीख में ‘विकासपरक राजनीति’ शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं।

90 का संक्रमणकारी दौर:
कहना न होगा कि जनसरोकार के मुद्दों से रींजे-भींझे इन युवा-नेताओं से जनता की अपेक्षाएं ज्यादा थीं क्योंकि वे आम-आदमी की मूलभूत समस्याओं से सर्वाधिक संपृक्त थें। अपने धुन के पक्के चन्द्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अरुण जेटली, अजय माकन, सीताराम येचुरी, प्रकाश करात, लालू प्रसाद, नीतिश कुमार, शरद यादव तथा मूलायम सिंह आदि का नाम उन जीवट युवाओं में शुमार था जिनके जेहन में जेपी आंदोलन की आग और तपिश शेष थी। वे इस बात से भिज्ञ थें कि राष्ट्र इस घड़ी बदलाव के संक्रमणकारी दौर से गुजर रहा है। देश की पारंपरिक अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थ-नीति को वरण करने को आतूर है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण कौटिल्य के अर्थशास्त्र के उलट नई विश्व अर्थव्यवस्था को अपनी छाती से चिपका लेने को लालायित है। इस बदलते कलेवर में महात्मा गांधी का लोक-सिद्धात तथा शासन-पद्धति भले गौण हो किंतु बाजारवाद के ग्लैमर्स का रंग चोखा था। तत्कालिन युवा-राजनीतिज्ञों ने उस समय सबसे बड़ी भूल यह की कि वे नव-साम्राज्यवादी ताकतों को पूरी तरह थाह पाने में असफल रहे। उन्हें इस बात का थोड़ा भी आभास न हुआ कि वैश्विक नीति भविष्य में कई अन्य तरह की समस्याओं को जन्म दे सकती है। यहां तक कि सभ्यजनीन भारतीय जन-संस्कृति और जन-समाज पर भी धावा बोला जा सकता है। आधुनिकता के साथ दाखिल हुई उत्तर आधुनिकता भारतीय जीवन-मूल्य और जीवन-दृष्टि के लिए गले की हड्डी बन सकती है।
देखें तो एक तरफ राष्ट्र विदेशी पूंजी आधारित मुक्त अर्थव्यवस्था का स्वाद चख रहा था तो दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियां संसदीय राजनीति के केन्द्रीय ताकतों पर नकेल कसने की जुगत में थीं। तत्कालिन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह तारणहार की भूमिका में उदारवाद की नीति पर वाहवाही लूट रहे थे तो दूसरी ओर युवा तुर्क चन्द्रशेखर चिंता जाहिर कर रहे थे-‘उदारवाद की आर्थिक नीति देश को अंततः अराजकता की ओर ले जाएगी।’

युवा राजनीति आजकल:
वास्तव में आज देश अराजकता की स्थिति में है। चहुंओर हिंसा, अपराध, लूट और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। देश की 40 फीसदी आबादी भूखी तो 80 फीसदी आबादी 20 रुपए दैनिक मजूरी पर अपना पेट पाल रही है।(अब तो इस रिपोर्ट का उल्लेख करने में भी शर्म महसूस होता है) देश के करोड़ों-करोड़ युवा बेराजगारी का दंश झेल रहे हैं। जाति और धर्म आधारित राजनीतिक ‘कमेस्ट्री’ सत्ता और शासन में क्या हनक रखते हैं? अब कोई छुपा तथ्य नहीं है। इसे सिद्धहस्त राजनीतिज्ञ जैविक खाद की भाँति इस्तेमाल करते है। सबसे बड़ा रोना तो इस बात का है कि जो छात्र-युवा ‘जेपी मुवमेंट’ से निकले थें उन्होंने खुद भी वर्ग, जाति और धर्म आधारित राजनीतिक मोहरे बिछाने शुरू कर दिए। इस राजनीतिक धंधेबाजी और वोट खातिर होने वाले सौदेबाजी में भारतीय जनता एक बार फिर ठगी गई।
नतीजतन आज सांसद और विधायक बनने के लिए सांविधानिक उसूलों की जगह राजनीतिक विरासत का जोर अधिक है। अपराधिक छवि या माफिया-गुंडा होना एक अतिरिक्त योग्यता है। पूंजीपतियों के दास बने ये कद्दावर रााजनीतिज्ञ क्या-क्या गुल खिला सकते हैं? यह नीरा राडिया और संचार मंत्री ए. राजा प्रकरण से साफ जाहिर है। 40 करोड़ रुपए का काॅमनवेल्थ गुब्बारा उड़ाते इस देश में जन-समस्याएं विकराल हैं तो समाधान के साधन सीमित। भूखी जनता मंहगाई और भूख से कराह रही है। यह सबकी निगाह में होते हुए भी किसी युवा राजनेता के निगाह में नहीं है। इन राजपुत्रों के नाम बड़े पर दर्शन छोटे हैं।
यह अराजकता का ‘प्राइम टाइम’ है जिसकी सुध हमारे उन युवा सांसदों को नहीं है जो संसदीय रिकार्ड के मुताबिक सक्रिय भागीदारी कम लेते हैं, अनुपस्थित ज्यादा रहते हैं। एक नमूना यह भी है कि जनता से अपने पक्ष में वोट मांगने वाले कई युवा नेता स्वयं पोलिंग बुथ से नदारद दिखते हैं। पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश में संपन्न हुए विधान परिषद चुनाव में कुछ ऐसा ही माज़रा दिखा जब राहुल गाँधी चुनाव वाले दिन विदेश यात्रा पर थे। इस पर एक स्थानीय पत्रकार की त्वरित प्रतिक्रिया गौरतलब है, ‘‘जब आमलोगों के वोट की जरूरत होती है तो यही नेता जिले की सड़कों पर घूम-घूम कर लोगों से वोट मांगते हैं। पर अपनी जिम्मेदारी निभाने की बारी आई तो पीछे रह गए। ऐसे में लोकतंत्र को मजबूत करने के इनके भाषण झूठे नहीं हो जाते क्या?’’
विचार से बौने लगते ये युवा राजनीतिज्ञ मशहूर उपन्यासकार जोनाथन स्वीफ्ट के उन पात्रों की तरह हैं जिसे उन्होंने अपने उपन्यास ‘गुलिवर्स ट्रेवल्स’ में ‘लिलिपुट’ प्रजाति का जीव कहा है।
‘वन मैन शो’ और ‘रोड शो’ का ‘फैशन परेड’ करते इन युवा राजनीतिज्ञों की दृष्टि में चुनाव, प्रचार और वोट की अहमियत खूब है किंतु जनता उनके सोच, चिंतन और कर्म-परंपरा में कहीं नहीं है। देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी की अगुवाई में लाखों-लाख युवा स्वतः स्फुर्त पार्टी-कैडर बन रहे हैं यह असल में वास्तविकता का छद्म यथार्थ है जबकि छलावे की पराकाष्ठा। समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया ने इस बारे में विद्यार्थियों को काफी पहले ही आगाह कर रखा था-‘जब विद्यार्थी राजनीति नहीं करते तब वे सरकारी राजनीति को चलने देते हैं और इस तरह परोक्ष में राजनीति करते हैं।’
यों तो 21वीं सदी का प्रथम दशक गवाह है इस बात का कि दो लोकसभा चुनावों में युवा राजनीतिज्ञों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और धमाकेदार जीत हासिल की। इनकी उपस्थिति युवाओं के लिए कितना प्रेरणास्पद है, यह वास्तव में अध्ययन-विश्लेषण का विषय है? लेकिन लोगों में एक बार फिर यह आस अवश्य जगी है कि सामयिक मुद्दों के प्रति युवा राजनीतिज्ञ अधिक संवेदनशीलता, संलग्नता एवं सहभागिता के साथ पहलकदमी करते दिखेंगे। भारतीय संसद में युवा-हस्तक्षेप का प्रतीक बनकर उभरे नामों में राहुल गांधी, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अखिलेश यादव, वरुण गांधी, अगाथा संगमा, दिया मिर्धा, मीनाझी नटराजन, अशोक तंवर, शहनवाज हुसैन, उमर अब्दुल्ला आदि शामिल हैं। आंकड़ों में इन नामों की भागीदारी 545 सीट वाले ‘लुटियन संसद’ में 33 फीसदी है जिनकी उम्र 40 वर्ष से नीचे है। यह संख्या भारतीय राजनीतिक भूगोल की दृष्टि से भी एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि इन आंकड़ों को 55 फीसदी युवा धड़कनों की पहचान और उनके प्रतिनिधित्व का पूरक माना जा रहा है।

राजनीतिक घराना और घरानों की मीडिया:
लोकप्रिय नामों की फेहरिस्त में शामिल युवा राजनीतिज्ञों में राहुल गांधी के नाम से मंगलाचरण करना भारतीय जनता की काहिली भी है एवं विवशता भी। काहिली इसको लेकर कि आजादी के 60 वर्ष बाद भी नेहरू खानदान के अलावे हमारे पास कोई दूसरा जन-विकल्प नहीं। संसदीय पटल अखिलेश यादव, वरुण गांधी, अगाथा संगमा, जितिन प्रसाद, ज्योति मिर्घा, अशोक तंवर, प्रदीप कुमार मांझी जैसे अनेकानेक नामों से सुशोभित है किंतु मीडिया की आंख उन पर कम टिकती है कांग्रेस युवराज पर ज्यादा। यानी कि जिन चुनौतियों और रणनीतियों के साथ राहुल गांधी राजनीति में मैदान मारते दिख रहे हैं। अन्य युवा राजनीतिज्ञ की सोच और चिंतन में वह भी दृष्टिगत नहीं है। ऐसे में केरल के पालक्कड़ के युवा सांसद एम. बी. राजेश की बात बिल्कुल गौरतलब है जिनके मुताबिक अधिकतर युवा सांसदों को जमीनी सच्चाई का अनुभव नहीं है और वे राजनीतिक मुद्दों के प्रति भी जागरूक नहीं हैं। लिहाजा उनके पास किसी विषय पर बोलने के लिए अधिक कुछ नहीं होता।
अफसोस किंतु सत्य है कि हम एक ऐसे निर्णायक दौर में जी रहे हैं जहां केवल मुल्क की राजनीति ही घराना पोषक-संरक्षक नहीं है अपितु मीडिया भी उसी तरह के अभिजात्य घरानों की उपज और निर्मिति है। जाने-माने इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने मीडियावी करतब को रेखांकित करते हुए कहा है कि ‘‘आज सबसे ज्यादा इस बात का सबको इंतजार है कि राहुल गाँधी कब प्रधानमंत्री पद संभालेंगे? दिलचस्पी और जिज्ञासा दोनों लाजिमी है। जिस तरह से राहुल गाँधी को ‘प्लांट’ किया जा रहा है, चाहे जमीन अधिग्रहण का मुद्दा हो या वेदान्त के विरोध का मसला हो, धीरे-धीरे रास्ता बन रहा है और निश्चित तौर पर इसका श्रेय सोनिया गाँधी को जाता है।’
दरअसल, आज युवा राहुल गाँधी के झक सफेद ‘स्लिम’ और ‘स्मार्ट’ चेहरों की ग्लैमर्स भरी पेशगी पर लोट-पोट हैं। उन्हें इस बात का जरा भी अहसास नहीं है कि राहुल गांधी द्वारा किसी सभा या रैली में दिए गए 20 मिनटिया भाषण का हासिल जोड़-घटाव क्या है? दरअसल, यह राजनीतिक बाज़ारवाद का ‘ब्रांड पोजिशनिंग थ्योरी’ है जिसमें राहुल गांधी का ‘ब्रांड वैल्यू’ मायने रखता है न कि ‘पब्लिक वैल्यू’। उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के पिछड़े इलाके अहरौरा में राहुल गांधी का आना एक शुभ संकेत है किंतु अखबारों और चैनलों के पत्रकार और संवाददाता जो रिपोर्टिंग करते हैं उस पर आम-आदमी के हिस्से में नील-बट्टा-सन्नाटा ही हाथ आता है। ऐसे में शरद यादव की हालिया टिप्पणी राजनीति प्रेरित होने के बावजूद मारक है-‘हाथ के चुनाव निशान वाले लोगों को शासन करने के लिए 50 वर्ष मिले। क्या किया? देश अभी भी विकास के पैमाने पर पिछड़ा है। फिलहाल एक नया बबुआ आया है जिसके पास जानकारियों का अभाव है। कागज पर लिखे चीजों को बस बोल देना भर जानता है। ऐसे लोगों को तो उठाकर गंगा में फेंक देना चाहिए।’
न केवल राहुल गाँधी बल्कि किसी भी युवा राजनीतिज्ञ के सम्बन्ध में यह टिप्पणी अनुचित है। किंतु हमें स्वयं से सोचना होगा कि आंखों के सामने से धूल उड़ाते हुए गायब हो जाने वाले ये वंशवादी युवा राजनीतिज्ञ हमारी जिंदगी में ऐसा कौन-सा रंग भर देते हैं जो उनके नाम की सारंगी बजायी जाए? ऐसा क्या दे जाते हैं कि वे अपना दर्द भूल जाएं, गरीबी और भूखमरी भूल जाएं, बीमारी और बेरोजगारी भूल जाए, वे बिसार दें उन सारे दुःख-तकलीफों को जो विदर्भ, बुंदेलखण्ड, कालाहांडी, सिंगूर, नंदीग्राम, बस्तर, ग्रीनहंट, वेदांत, टाटा, दादरी, टप्पल, नियमागिरी, पलामू जैसे इलाके में पसरा है।
खैर, राष्ट्र का चैथा खंभा कहा जाने वाला मीडिया युवा राजनीतिज्ञों की कार्यशैली, दृष्टि-बोध और जनता-सापेक्ष क्रियाकलापों में जिस तत्परता के साथ रूचि ले रहा है, उनके आगे-पीछे डोल रहा है, वह सीधे-सीधे संदिग्ध है। जनता में युवा-राजनीतिज्ञों के बारे में अधिकाधिक जानने-समझने की लालसा और भूख जितनी बढ़ी है मीडिया उसमें उससे अधिक छद्म स्वार्थ का छौंक डाल परोसने को व्याकुल है। इस संदर्भ में किए जा रहे रिपोर्टिंग/कवरेज की भूमिका उल्लेखनीय है जो राहुल गांधी के शादी के बारे में चिंता करता तो दिखता है पर दबे-कुचले, शोषित-पीडि़त और जरूरतमंद लोगों की चिंता से उसका वास्ता कम है। आज युवा-राजनीतिज्ञ जनता के साथ निरन्तर संवाद स्थापित करने खातिर ‘रोड शो’, ‘प्रेस कान्फ्रेंस’ तथा ‘औचक यात्रा’ करने की पहलकदमी करते दिख अवश्य रहे हैं पर उनके ऊपर ‘मिशन 2012’ या ‘मिशन 2014’ का टैग लटका हुआ साफ दिखाई पड़ रहा है। एडवर्ड सईद के शब्दों में कहें तो समकालीन मीडिया के विरोधाभासपूर्ण, असंगत व ज्ञात लोक-अनुभवों से सच्चाई को अलग करने की योग्यता हममें होनी चाहिए। सिर्फ मीडिया ही नहीं यह बात हमारी जिन्दगी के दायरे पर भी समान रूप से लागू होती हैं। विद्याकर्म से जुड़े विश्वविद्यालयी युवाओं के ऊपर तो और भी विशेष रूप से।

और अंत में छात्रसंघ
कांग्रेस युवराज राहुल गाँधी ने छात्रसंघ की पुनर्बहाली का समर्थन कर छात्र-राजनीति के तापमान को बढ़ा दिया है। मंशा भले ‘मिशन 2012’ अर्थात उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में युवाओं को रिझाने का हो, किंतु यह समर्थन छात्रों को उनका लोकतांत्रिक अधिकार सुपुर्द किए जाने की तरह है। वर्तमान में विश्वविद्यालयों में चर्चाओं का न केवल दौर शुरू हुआ है बल्कि छात्रसंघ की अगुवाई में चुनाव सम्बन्धी ‘ब्लूप्रिंट’ भी तैयार किए जाने लगे हंै। उत्तरप्रदेश में छात्र-राजनीति का गढ़ समझे जाने वाले बनारस, अलीगढ़ तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ का आना कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण हैं।
पहली बात तो यह कि इससे कैंपस राजनीति को दिशा मिलेगी; दूसरे संसदीय राजनीति में युवा राजनीतिज्ञों की भागीदारी सुनिश्चित कर सकना संभव है। अकादमिक गतिविधियों की गुणवत्ता में बेहतरी की गुंजाइश के साथ लिंग्दोह समिति की छात्रसंघ पर प्रतिबंध से मुक्ति भी तय है। हाँ, उनके सिफारिशों तथा छात्रसंघ सम्बन्धी तय किए गये मानदण्डों को मुख्य आधार माना जाना जरूरी है। यों तो छात्रसंघ के इतिहास में कई ऐसे काले पत्थर गड़े हैं जिनका भूगोल आपसी रंजिश, हत्या, गुंडागर्दी, राजनीतिक अवसरवादिता, अपराधीकरण तथा सम्प्रदायिक खून-खराबों का मानचित्र खींचता है। छात्रसंघ को उत्पात और अराजकता का ‘क्रेटर प्वाइंट’ कहने के पीछे का तर्क उसका पिछला इतिहास ही है जिसकी वजह से आज विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव जैसे जनतांत्रिक अधिकार से वंचित हैं।
लिहाजा, आज विश्वविद्यालयों की स्थिति दयनीय है। हिन्दीपट्टी के अग्रणी माने जाने वाले केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की दशा और खराब है। भय और खौफ परिसर की वातावरण में व्याप्त है। छात्रों को किसी मुद्दे पर बात करने से मनाही है तो विश्वविद्यालय व्यवस्था से सवाल पूछने पर सख्त पाबंदी। अध्ययन-अध्यापन के नाम पर अधिकांश विभागों में लचर व्यवस्था जाहिर है। परिसर में भाई-भतीजावाद की संस्कृति का बोलबाला है तो हर काम जातिगत समीकरण की पेंच से कसी जाती है। फौरी तौर पर छात्र-परिषद को छात्रसंघ के बरक्स खड़ा किया गया है जिसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। विश्वविद्यालयी व्यवस्था द्वारा दिए गए फंड और सीमित अधिकार के बदौलत परिसर में चंद आयोजन परिषद के जिम्मे अवश्य है किंतु वह विश्वविद्यालय के गलत नीतियों या फैसलों की आलोचना करने की भूल नहीं कर सकती है।
ऐसे में छात्रसंघ की अनिवार्यता स्पष्ट है। यह इसलिए भी जरूरी है कि इसने मुख्यधारा की राजनीति में भाग लेने वाले एक अहम रास्ते को बंद कर रखा है। आपसी मित्रता और परस्पर व्यापार का हवाला दे कर सरकार चीन और भारत के बीच स्थित 44 वर्षों से बंद नाथुला दर्रा को फिर से खोल सकती है; लेकिन छात्रसंघ के मसले पर विचार करना उसे उचित नहीं जान पड़ता है। इस मुद्दे के बाबत बार-बार जिन हिंसक घटनाओं तथा अपराधिक कुकृत्यों को स्मरण किया जाता है; वे सारी घटनाएँ तो लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव तथा पंचायत चुनावों में भी दुहरायी जाती हैं। इस समस्या से पार पाने में चुनाव आयोग को नाकों चने चबाने पड़ते हैं। फिर भी छिटपुट घटनाएँ घटित हो ही जाती हैं; इसका यह अर्थ तो नहीं लगाया जा सकता की देश में इस तरह के चुनाव ही गैरजरूरी हैं। छात्रसंघ के नाम पर आँसू बहाने वाले यह भूल जा रहे हैं कि आज संसदीय सरकार में जमीनी आधार प्राप्त युवा राजनीतिज्ञों की भारी कमी है तो इसकी वजह छात्रसंघ का नहीं होना भी एक है। आमआदमी के बीच से कोई राजनीतिक चेहरा तभी सामने आ सकेगा जब उसे छात्रसंघ जैसे मंचों से आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। अन्यथा स्वयंभू राजनेताओं द्वारा ‘प्रोजेक्टेड’ नामचीन युवाओं को ही पूरे देशभर के युवाओं का प्रतिनिधि मान कर संतोष कर लेना होगा।
इस बाबत वरिष्ठ पत्रकार आनंद प्रधान बिल्कुल सही नब्ज़ धरते हैं, ‘‘आज अगर विश्वविद्यालयों को डिग्रियाँ बाँटने का केन्द्र बनाने के बजाय राष्ट्रीय स्तर पर बदलाव और शैक्षणिक पुनर्जागरण का केन्द्र बनाना है तो उसकी पहली शर्त परिसरों का लोकतांत्रिकरण है। इसका मतलब सिर्फ छात्रसंघ की बहाली नहीं बल्कि विश्वविद्यालय के सभी नीति-निर्णयों में छात्रों की सक्रिय भागीदारी है। इसके लिए जरूरी है कि सिर्फ शिक्षकों और कर्मचारियों ही नहीं, छात्रों को भी विश्वविद्यालय के सभी निकायों में पर्याप्त हिस्सेदारी दी जाए। आखिर विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक बेहतरी में सबसे ज्यादा हित छात्रों के हैं। इसलिए उनके संचालन में छात्रों की भागीदारी सबसे अधिक होनी चाहिए। इससे परिसरों के संचालन की मौजूदा भ्रष्ट नौकरशाह व्यवस्था की जगह पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण और भागीदारी आधारित व्यवस्था बन सकेगी।’’
लब्बोलुआब यह है कि आज के बदले माहौल में छात्रसंघ अनिवार्य है। विश्वविद्यालय परिसरों में अध्ययनरत युवाओं का मजबूत नेटवर्क बने, वे स्वयं अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी तय करने का बीड़ा उठाये, जनहित और जनमत के अनुकूल अपने शैक्षिक परिवेश में सुधार और बदलाव करें, इसके लिए छात्रसंघ सार्थक हल है। कैंपस का वातावरण साफ-सुथरा और दृष्टिसंपन्न होना विद्यार्थियों के मनोबल और दृढ़इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। हिंसा, हत्या, अपराध और अराजकता जैसे गलत रास्तों पर युवापीढ़ी न जाए, यह तभी संभव है जब देश की संसदीय राजनीति का चेहरा आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करे। यानी शोषण, अन्याय, भ्रष्टाचारमुक्त केन्द्रीय सत्ता ही इस बात का निर्धारण करेगी कि भारतीय विश्वविद्यालयों में बहाल छात्रसंघ की प्रकृति और उसका बुनियादी ढाँचा कैसा हो? बिना अपनी जिम्मेदारी तय किए राष्ट्र या छात्र किसी के हित की बात करना बेमानी है।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...