Saturday, May 30, 2015

पत्रकारिता की उदास नस्लें

प्रिय देव-दीप,

पत्रकारिता दिवस है आज। 30 मई। एक फोन नहीं। इस आशय से। मैं पत्रकार नहीं हूं; लेकिन अकादमिक क्षेत्र में पत्रकारिता का ही, तो शोधार्थी हूं। कहीं ग़लत दिशा में तो नहीं आ गया। लौटना मुश्किल। अब ऐसे ही बादुर की तरह लटके रहना है। तुम सब बड़े हो और अपनी कैरियर देख सको; इसकी कोशिश में जुटना है।

(चुप। राजीव। खमोश। खामोश राजीव।
शांत। शांत राजीव।
कुछ नहीं। नथिंग। नील बट्टा सन्नाटा।
कल सुबह ऐसे उठो, जैसे दुनिया में पहली बार सूर्योदय देख रहे हो।
हवा के चलते हुए। पहर को बीतते हुए। अपनी खुराक पर जाओ। भोजन पर जाओ। कपड़े और चेहरे के रचाव-बनाव पर जाओ। अपने प्रति अधिक उदार बनो। औरों के प्रति ज्यादा ढीलापन नहीं। सीखो।
विश्व में कितने देश हैं। याद करो। राजधानी। महत्त्वपूणर्र स्थल। नेता-परेता। व्यापार-वाणिज्य। भारत-भूगोल। बांध-परियोजना। डिजिटल इंडिया। मेक इन इंडिया। ब्रांड। बाॅडी लोशन। चिप। स्मार्ट फोन... भाषा। भाषा की तकरीरें। भाषाओं में सूचना। सूचनाओं की कैटेगिरी। लोग। मानुष। जल, जंगल, जमीन। अधिग्रहण। बाज़ारीकरण। निजीकरण। पढ़ों और बांचों। लिखों और छाप दो। जुड़ो मत। जुड़ने की शर्त मत लादो। ज्ञान गंगा की संक्रांति है। लोगों को बताना नहीं। गूगल देवता में सब उछला जाएगा। कौन महान। कौन आगे। कौन पीछे। क्रम क्या। कद क्या। किस्से और जुबानी-लिखित प्रचार क्या। यही जीवन-संग्राम। यही दुनिया। यही एजेंडा और प्रोपेगेण्डा। सीखो। तरो और अमर हो जाओ। ऐसे ही सबका कल्याण हुआ। बेड़ा पार। तुम्हारा भी। जानकारी रखो। यही बताओ। इतना ही करो। बस, बस, इस जन्म में इतना ही बस।)

तुम्हारा पिता
राजीव
30/05/2015

Wednesday, May 27, 2015

घड़ी

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एक दिन दीवाल घड़ी के सेकंड की सुई टूट गई। मेहरारू ने देखा कि मैं उसकी चिंता में शामिल नहीं हूं; उसके ‘समय’ पर ध्यान नहीं दे रहा हूं, तो उसने झाड़ू की सींक नापतौल के हिसाब से घड़ी में फिट कर दी। बड़ी कलाकारी; घड़ी चलने लगी।

अब कोई भी समस्या आती है, तो वह कहती है; उनसे मत कहिए वे वेद लिख रहे हैं। अपने सर से भी अधिक ज्ञानी समझते हैं खुद को। उनको गंगा नहाने दीजिए।
आप अपनी समस्या का हल मुझसे पूछिए।

वाह! मेहरारू राम!वाह!

Saturday, May 23, 2015

शोध में अवरोध


राजीव रंजन प्रसाद
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(यह पाठकीय प्रतिक्रिया जनसत्ता अख़बार को भेजी गई है)

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सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी ‘दुनिया मेरे आगे’(22 मई) स्तंभ में मौजूदा अकादमिक हाल-स्थिति को लेकर चिंतित दिखाई देते हैं। वाजिब हैं, इस बारे में उनका इस तरह संवेदनशील होकर सोचना। शोध को भारतीय ज्ञान-मीमांसा में ज्ञानोत्पादन की नवाचारी विधा अथवा शाखा कहा गया है। किन्तु आज शैक्षणिक संस्थान पहले भ्रष्ट हुए हैं, सत्ता-शक्तियां बाद में उनसे संक्रमित-प्रभावित हुई हैं। मेरी दृष्टि में उच्चशिक्षा में व्याप्त अनैतिक विधानों ने किसी भी चीज को सम्यक् अथवा विधिसम्मत मानने से इंकार कर दिया है। लिहाजा, मौजूदा व्यवस्था इसका निर्बाध-निर्विघ्न अंतःपाठ करने में जुटी हुई है। अकादमिक अध्येताओं को देखें, तो अधिसंख्य पीएचडीकर्मी स्तरहीन हैं और योग्यता के नाम पर उनके पास डिग्री मात्र है। बाकी सब नील-बट्टा-सन्नाटा। एक शोध-छात्र के रूप में यह कहना खुद को मर्मांहत करना है, पर हकीकत यही है। कौन बोलेगा, यहां तो जो बोलो सो निहाल की स्थिति है। राम-राम, हाय-बाय, हंसी-ठिठोली, गप-शप, चाय-पानी, फैशन-रोमांस आदि पीएचडीधारियों की आवश्यक शोध-प्रविधि है। ये वे टुल्स हें जिनके बिनाह पर हम उपकल्पना, शोध-प्रारूप, अध्यायीकरण, सामग्री संकलन, सर्वेक्षण, साक्षात्कार, प्रश्नोत्तरी, बहस-परिचर्चा आदि-आदि विभिन्न ढर्रों को आजमाते हैं और इसी बरास्ते निष्कंटक शोध-उपसंहार तक पहुंचते हैं। 

इस सच पर निगाह सबकी है; लेकिन सब सब्र के पुतले हैं, तो मौन के अधिष्ठाता। प्रतापी प्रोफेसरों की अदाकारी इतनी जबरदस्त है कि वे अपनी पीड़ा भी आपके कहे में जोड़ देंगे, लेकिन निर्णय-क्षमता से चुके ऐसे सुधिजन इस बारे में समुचित-अपेक्षित कदम उठाने से सदा हिचकिचाएंगे। वे जानते हैं कि इसमें पड़ना पूरी गंदगी को उलीचना है और यह अकेले उनके जिम्मे का काम नहीं है। फिर क्या? सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी आईना दिखाएं या कोई और...होइहें सोई जो राम रचिराखा। भारतीय समाज का इस कदर चरित्रहीन और अविवेकी होना यह दर्शाता है कि भारत में बुद्धिजीवियों का सच्चा कहा-सुना बिल्कुल अप्रासंगिक हो चला है। नतीजतन, झूठे लोग लगातार जयघोष कर रहे हैं, तो आमजन की बोलती बंद है यानी सिट्टी-पिट्टी गुम। 

यह तोहमत नहीं अपना ‘प्रतिरोध’ है। प्रश्न है, हम विद्यार्थी ही हमेशा कठघरे में क्यों खडे हों? क्यों दुनिया भर की सारी बलाएं हमारे ही मत्थे मढ़ दी जाएं? क्यों हम ज्ञानसुख में अपनी पूरी जिंदगी झोंक दे और हमारे लिखे को पुस्तकालयों में दीमकों के हवाले कर दिया जाए? है आपके पास जवाब कोई? भारतीय विश्वविद्यालय मौलिक एवं उम्दा शोध-कार्य को कितना महत्त्व देते हैं; उन्हें स्वयं से प्रकाशित कर एक मिसाल अथवा उदाहरण के तौर पर औरों के सामने प्रस्तुत करते हैं? सोचिए। यदि वे ऐसा नहीं कर रहे, तो सब धन बाइस पसेरी ही होगा। आप अच्छा शोध-कार्य खोजते रह जाएंगे; लेकिन वह नहीं मिलेगा।  फिर आप रोए-गाए या बजाएं कि हमारे विश्वविद्यालय विश्व के उच्चस्थ 200 शीर्ष विश्वविद्याालयों की सूची में नहीं हैं या 500; कोई फर्क नहीं पड़ता है?

Monday, May 18, 2015

पीकूः रिश्तों में कोई मध्यांतर नहीं!

पकपकिया पिता पर पागल बेटी की कहानी या और बहुत कुछ!!!
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समीक्षा, फिर कभी! वैसे इसकी जरूरत किसे है?

नकली आदमी

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एक हद के बाद चीजें बेकार पड़ने लगती हैं, खराब होने लगती है।
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ज़िन्दगी लफ्फाजी से नहीं चलती है, कौन नहीं जानता!

पर मैं बेहद प्रसन्न कमरे में दाखिल हुआ।

‘चाय पिला...सीमा...’
‘हां, मैं नौकर बैठी हूं न...’

‘पी लीजिए खुद बनाकर, हां मैं भी पीउंगी।’
‘और देव-दीप’

कुछ नहीं बोली। यानी जो मन में आए सो करो। मुझसे क्यों पूछते हो। सुनते हो कभी मेरी।...
यह मैं सोच रहा थ...यह शोध-पत्र छप जाए!

‘किस से बात कर रहे हो,’
‘खुद से’
‘क्यों हम सब आदमी नहीं हैं क्या...?’
‘आज मेरा रिसर्च पेपर फाइनल हो गया। चार महीने से जम्भ जैसा उस पर लगा था।'

‘तो..’
‘तो क्या, कुछ भी मत कर...चाय पी!’
‘बस यही न करना है!’
‘अरे! यार चीनी का डब्बा किधर रख दी, तुम अजीब मेहरारू हो...’
‘और तुम जो डब्बे का ढक्कन ऐसे बंद कर देते हो कि किसे से न खुले।’

‘सीमा, सर खुश हैं...अच्छा बन पड़ा है पेपर’
‘इसी से नौकरी भी मिल जाएगी’
‘नहीं, वो अलग बात है!’
‘आयं जी, आपको इ सब करने में अच्छा लगता है; लेकिन इ काहे नहीं सोचते हैं कि बचवन सब बड़ा हो रहा है।’

‘हां यार, कर ही, तो रहा हूं!’
‘कर नहीं रहे हैं, गवां रहे हैं।’
‘तो क्या कहती हो छोड़ दे यह-सब?’
‘हां...’
‘हां, पापा...हमलोग सब एकसाथ दादा-दादी के पास रहेंगे!’

देव-दीप चहक कर बोले। चारों तरफ अटे पड़े किताबों के खदान से उनकी मासूमियत नजरअंदाज होती जा रही थी। उनकी तड़प जायज थी कि वे मुझसे अपने लिए समय की इल्तज़ा कर रहे थे।

मैं मुसकरा दिया। शोध-पत्र का शीर्षक मेरे दिमाग में नाच रहा था-'अथातो शब्दजिज्ञासाः चेतना का....’ और सीमा का कहा भी। जोड़ती-हिसाब में पढ़ते 18 साल हो गए। हाईस्कूल से बाहर हूं। हमेशा काम, पढ़ाई और चक्कर। इंटरव्यू में न मेरे लेख-आलेख देखे जाते हैं और न ही ‘रेफरी’ का नाम। आजकल चिट्ठियां छपने लगी है, जनसत्ता में। पचासियों ख़त किसी ज़माने(2003-06) में खूब छपती थीं। सुमन-सौरभ में ढाई दर्जन के करीब कहानियां। ‘सबलोग’ पत्रिका में एक दहाई के करीब आलेख। फिर मीडिया-विमर्श, परिकथा, समकालीन तीसरी दुनिया, कादम्बिनी, समकालीन जनमत.....हाल ही में परिकथा के नए अंक में ‘मेरा नाम मैरी काॅम’। यह समीक्षा इतनी लम्बी हो गई कि अगले अंक में आधा प्रकाशित होगा।

लेकिन, घर में अन्धकार गाढ़ा हो रहा है और मन कड़ा।

इस बीच आपसी संवाद के मध्य मैंने झोले से अपना शोध-पत्र निकाल लिया था जो अब ज़मीन पर औंधे मुंह गिरा था। स्थितियां साफ हो रही थी कि आपके लिए जगह नहीं है, आप की किन-किन चीजों पर पकड़ नहीं है या आप क्या-क्या नहीं जानते हैं।

एक पर्ची मेरे ललाट पर किसी न साट दिया था-‘फस्र्ट डिजर्ब देन डिज़ायायर...,'

जबकि हाथ की हथेली में गुदा था 76 प्रतिशत अंकों के साथ परास्नातक। गोल्ड मेडेलिस्ट। ‘जनसंचार एवं पत्रकारिता’ विषय में नेट-जेआरएफ। सम्प्रतिः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रयोजनमूलक पत्रकारिता पाठ्यक्रम के शोध-छात्र।

‘चाय आज भी गिराएंगे, हटिए आप-से नहीं होगा कुछ...’

सीमा चाय छानकर कप में ढार दी। फिर मेरी ओर बढ़ाया। मैं अब भी सोचने में मगन था।

‘...फिर नहीं गरमाएंगे!’

सुनते ही चाय सीड़कने लगा। दिमाग में पंक्ति कौंधी थीः ‘वियतनाम पर बम गिरने का दुःख बहुत है लेकिन, इतना भी नहीं जितना अपने चाय के ठंडे होने का’।
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Saturday, May 16, 2015

अपनी समस्या लिखें सीधे माननीय प्रधानमंत्री को

यह पहली बार है कि आप अपनी बात सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंचा सकते हैं। यह डिजिटल इंडिया का कमाल है। कुछ लोगों ने मुझे कहा कि आप अपनी समस्या गाने की जगह इसे सीधे प्रधानमंत्री से कहिए और अपना काम कीजिए। मुझे लगा, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। अपने शोध-कार्य के दरम्यान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने मेरा आनुषंगिक बिल एकतरफा मनमर्जी का कानून मुझ पर थोपते हुए, मेरे बिल को खद्यारिज कर दिया। मैंने कहा कि जब तक मुझे मेरा आनुषंगिक बिल नहीं मिल जाता है, मैं अपनी लड़ाई जारी रखूंगा। दरअसल, लोगों ने सिखाया है, सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं!

16 मई, 2015 को माननीय प्रधानमंत्री को पुनःअनुरोध पत्र भेज रहा हूं।
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पिछले दिनों आपको लिखा, तो आपने 06 फरवरी, 2015 को मेरी शिकायत को अपने संज्ञान में लेते हुए पंजीकृत किया है और उच्च् शिक्षा मंत्रालय को अग्रसारित किया है। लेकिन अभी तक इस सम्बन्ध में कोई कार्रवाई नहीं की जा सकी है। उसका विवरण निम्न हैः
Dated: 06/02/2015
Your Grievance has been lodged vide Registration number PMO/W/NA/14/0107777 
and has been forwarded to the DEPARTMENT OF HIGHER EDUCATION, M/O HUMAN RESOURCE DEVELOPMENT 

आपने अन्याय का सदैव प्रतिकार करना सिखाया है। साथ दें, तो आगे बढ़ें। 
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भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
शोध-छात्र
हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221005

नकेल प्रशासन की

राजीव रंजन प्रसाद
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(यह पाठकीय प्रतिक्रिया जनसत्ता अख़बार को भेजी गई है)

हालिया घटना ‘दलित की बरात’ में पत्थरबाजी का है जिसे जनसत्ता ने अपने 14 मई की सम्पादकीय में संवेदनशील ढंग से सामने लाया है। ये फुटकल घटनाएं नहीं हैं। यह समाज की रीढ़ में छेद कर उसमें जातीय वर्चस्व की अंकुशी लगाने वाली ‘अचेतन’ कील है। हमें समझना होगा कि भारत में जातीयता एक दंभ और अहंकार का काॅकटेल तैयार कर वर्गीय-संघर्ष को सदैव दावतखाने पर न्योंतती है। इसके पीछे सामंती मानसिकता के विषाणु-कीटाणु हैं जिसे भारतीय समाज ने कथित पुरोहितवादी ढकोसलों के आधार पर ‘चारमीनार’ के रूप में गढ़ा है, पोसा-पाला और निवाला बनाकर गटका है। आरक्षण-देवता का एक अनुदानिक-प्रपंच खड़ा कर अपनों को अपने से अलगा दिया है, परे टेर दिया है। आरक्षण के बहाने पूरे देश में राजनीतिक षड़यंत्र फल-फूल रहा है; बौद्धिक-सयंत्र प्रयोगशील है, जो यह मानता है कि किसी को योग्य बनाने से अच्छा है कि उसे ‘प्रतिभाशाली’ होने का सर्टिफिकेट थमा दो; किन्तु उसमें कबीर के कथनानुसार ज्ञान, क्रिया और इच्छा के हुनर-कौशल, काबिलियत, साहस एवं संकल्पशक्ति न पनपने दो। 

हद है, आदमी घोड़े पर नहीं चढ़े क्योंकि वह दलित है; दूध-भात न खाए क्योंकि वह निम्न जाति का है; एक ही शौचालय का प्रयोग न करे क्योंकि वह अछूत है। वाह भाई, कबूतर का ‘क’ नहीं जानते, पर सामाजिक ठेकेदारी की कबूतरबाजी या करतब सीखना हो, तो आपसे जानें! परले दरजे का बेवकूफ होते हुए भी आपको सिर्फ इस नाते दंडवत करे कि आप फलानां जाति के चिल्लाना वंश-बिरादर के हैं। समाजविज्ञानी, भाषाविज्ञानी, मनोविज्ञानी, नृत्तत्वविज्ञानी, संचारविज्ञानी इत्यादि विशेषणों से अलंकृत भारतीय बौद्धिकों...क्या कहना है आपका इस पर? विश्वविद्यालयी प्राध्यापकों क्या कहता है, आपका अनुसंन्धान, शोध-पत्र? किन वजहों और मूल कारणों का खुलासा करती हैं इस सन्दर्भ में आपकी 'आईएसएसएन' नंबर वाली पत्रिकाएं या कि 'इंपेक्ट फैक्टर' वाला अन्तरराष्ट्रीय जर्नल? क्यों दुहराव-भरी ऐसी घटनाओं से हम और हमारा समाज दो-चार है? क्यों ऐसी अमानुषिक मनोवृत्तियां सर उठा ले रही हैं प्रायः? क्यों अत्याचार-अनाचार की भयावह घटनाओं में इज़ाफा हो रहा है; और आमजन कोई समुचित काट नहीं ढूंढ पाने के कारण रोज-ब-रोज प्रताड़ित-पीड़ित, शोषित-शासित, दमित एवं हर ओर से दबा-कुचला हुआ है?  

ज़ाहिरा तौर पर भारत में आज दो वर्ग हैः सिविल सोसायटियन और सनातन भारतीय। सनातन भारतीय के हिस्से में आज़ादी के परख़च्चें उड़ाने वाली सचाइयां हैं। इस वर्ग के लोग आर्थिक चिंता से ग्रस्त हैं, तो युवा पीढ़ी दोराहे पर है। खुदकुशी, अपराध, लूट, हिंसा, बलात्कार, जुआ, शराबखोरी, नशाखोरी, गाली-गलौज, बेशहूर शोहदेबाजी, उत्तेजनापूर्ण प्रतिक्रिया, असामाजिक बर्ताव, अराजकतावादी रवैया आदि-आदि के कसूरवार के रूप में उन्हीं के नाम पर सरकरी मुहर लगा है। कथित ‘हाई प्रोफाइल’ शहरातियों द्वारा कुछ भी कह-लिख देने पर वे सदा-सर्वदा के लिए वही हो-बन जाते हैं। यानी अनाथ, अवारा, कुता, लिच्चड़, हरामी आदि-आदि। वर्तमान अर्थयुग में उन पर कुछ भी आरोप मढ़कर या आक्षेप लगाकर छोड़ दो, बस काम हो गया। उनकी बोलती बंद कर दो, कोई हिसाब लेने नहीं आएगा। गोकि गरीब आदमी सरकार चाहता है और बदल देता है; लेकिन अपना किस्मत बदल पाना उसके अपने हाथ में नहीं है। सरकार कहती है, नरेगा कमाओ, मनरेगा कमाओ; प्रधानमंत्री कहते हैं कि यह पिछली सरकार के किए-धरे और बोए का कर्मफल है, इसे मैं समाप्त नहीं सकता। अतएव, मौजूदा जनतांत्रिक दुर्भावना एवं आर्थिक असहयोग का शिकार सभी जातियां, मज़हब एवं समुदाय एकसमान हैं। दरअसल, हमें लड़ना उन ताकतों से है जो हमारा घर-बार चैपट कर रहे हैं, लोक-कला और कारीगिरी को तबाह कर रहे हैं; हमारे उद्योग-धंधे ख़त्म कर रहे हैं। लेकिन, हम लड़ रहे हैं घोड़े पर चढ़े दुल्हे के साथ, सिर्फ इसलिए कि यह झूठी शान और जातीय श्रेष्ठताग्रंथि से रोगग्रस्त समाज को चिढ़ा रहा है।   

बावजूद इन सबके सामाजिक-जन को भरोसा है कि अपने ही किए सुधार एवं अपेक्षित बदलाव होंगे। हम-आप ही बुराइयों का ख़ात्मा करेंगे। हमलोग ही समाज की ग़लतियों को आइना दिखाएंगे। गोया सरकार एवं सरकारी-तंत्र से यह उम्मीद करना कि वह स्वतःस्फूर्त समाज-सुधार करे या लोगों को विवेकी बनाए, अब संभव नहीं रहा। लेकिन यह भी सत्य है कि यदि वह हमारी प्रेरणाशक्ति से चाह जाए, तो बड़ी से बड़ी घटना तत्काल टल सकती है। हिंसा-वारदात की बढ़ती घटनाओं पर नकेल कस सकता है। स्त्रियां पुरुषवादी यातना के शर्मसार कर देने वाली करतूतों का शिकार होने से बच सकती है। रतलाम की घटना एक बेमिसाल उदाहरण है। बाबा सबके मन की आंखें खोल, आमीन! 
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Thursday, May 14, 2015

युवा राजनीतिज्ञ के नारे और मुहावरे में वंशवादी कुनबे का एक और ‘सेल्फी’

नारा लोकेश, पुत्रः चन्द्रबाबू नायडू; चित्रः साभार
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राजीव रंजन प्रसाद
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राजीव रंजन प्रसाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 
युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के व्यक्तित्व, व्यवहार एवं नेतृत्व से सम्बन्धित संचारगत प्रणाली एवं मनोभाषिक अनुक्रिया-अनुप्रयोग सम्बन्धी सम्बद्धता पर शोध-कार्य कर रहे हैं।
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नेता चन्द्रबाबू नायडू के बेटे की हैसियत यह है कि वे अमरिका में पढ़े-लिखे हैं; लेकिन योग्यता इस काबिल भी नहीं कि अपने देशवासियों और गरीब जनता के लिए कोई नवाचार आधारित स्वउद्यमिता कार्यक्रम शुरू कर सकें। जो एनजीओ टाइप न हो। जिसमें लूट-खसोट की समाज-सेवा का दिखावा न हो। हर आदमी के साथ इस प्रयास में तत्पर लोगों द्वारा ऐसा बर्ताव हो कि लोगों के चेहरे खुशी से दमके और प्रसन्नता से लैस नज़र आए; लेकिन विदेशी ‘स्कूलिंग’ भी भारतीय विश्वविद्याालयों की तरह ही अनुपयोगी हो चली हैं। अतः अमेरिका के स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी से एमबीए किए नारा लोकेश राजनीति करेंगे। वंशवाद की बेल बजाएंगे। अपने पिता के नाम का सिक्का अपने पाॅकेट में धरेंगे। जगन रेड्डी की तरह यह भी सड़क से संसद तक गरजेंगे, तड़केगे और भड़केंगे।

ओह! लोग कैसे कहते हैं कि विश्व की टाॅप रैंकर यूनिवर्सिर्टियां अमेरिका में हैं; यह चिन्तन, विचार एवं दृष्टि के स्तर पर उच्चतस्तरीय मानक एवं मानदंड को साबित करती हैं। यदि ‘अमेरिकी दरजे’ में शिक्षित होना भी भारतीय विश्वविद्यालयों से डिग्रीधारी युवाओं की तरह ही अकुशल, अयोग्य या नाकाबिल होना है, तो अच्छा है कि हम हिन्दुस्तानी पाठशाला में पढ़ें और और उसमें ही अपेक्षित एवं अनिवार्यतम सुधार करते हुए 
सौ-फीसदी हिन्दुस्तानी बनकर अपने लोगों के विकास, समृद्धि एवं सम्पन्नता के बारे में कार्य-व्यवहार एवं नेतृत्व करें। 

अपने पास विदेशी डिग्री का ढकोसला; व्हाॅट नाॅनसेंस!!!

ACEPHALOUS HUMAN BIENG: In 22nd Century Era

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कई दशक वैज्ञानिक शोध-अनुसन्धान में निवेश के बाद यह निष्कर्ष प्रमाणित हो पाया था कि मनुष्य के दिमाग को ‘डिरेल’ करने के बावजूद दुनिया यथावत बनी रहेगी। इस दुनिया के होने का कारण मनुष्य मात्र नहीं है बल्कि वह पारिस्थितिकी-तंत्र है जिसे प्रकृति अपने स्वनियमन और स्वनियंत्रण द्वारा परिचालित करती है। लेकिन मनुष्य ने हमेशा कुदरती स्वभाव से अधिक मान स्वयं को दिया। उसने यह माना कि वह चरम बदलाव तथा यांत्रिकी-प्रौद्योगिकी-तकनीकी आधारित ज्ञानकाण्ड द्वारा प्रकृति की अहमियत और उसकी नैसर्गिक सत्ता को अर्थहीन साबित कर देगा। लेकिन जब इसके उलट ‘हाइपोथीसिस’ पर काम करते हुए वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने मनुष्य को ही जागतिक सत्ता में सर्वाधिक ‘डाय्लूट’ कर देखा, तो पाया कि मनुष्य तो प्रकृति का एक ‘एक्सपेरिमेंटल टुल्स’ का हिस्सा मात्र है। अर्थात मनुष्य हो या न हो दुनिया विकल्पहीन नहीं है। 
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राजीव रंजन प्रसाद
''वे हमारे हाथ की लकीर देखते हैं और चेहरे पर पसरी हुई आर्थिक कंगालियत; और यह घोषणा कर डालते हैं कि हमारी औकात क्या है जबकि बीज कभी नहीं बोलते की उनके भीतर वटबृक्ष बनने की ताकत है, आनुवंशिकीय गुणसूत्र है....''
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मानव आधारित शासन ख़त्म करने की संस्तुति की जा चुकी थी। अनगिनत ब्यौरे उपलब्ध थे, डिजिटल ग्राउंड पर। उनकी थाह लेना आसान काम नहीं था; लेकिन निर्णय होना आज ही था। सब बेसब्र-से थे कि देखें, निर्णय क्या होता है? यह सबकुछ जैसे स्वप्न में घटित हुआ और निर्णय होते ही पूरी दुनिया वायवीय कब्जे में आ गई। लोगों को बेहद तकलीफदेह दौर से गुजरना पड़ा; घंटों शरीर में बेचैनी बनी रही। सब के सब ‘डिजिटल ट्रैक’ पर थे। एक साथ पूरी दुनिया वायवीय हुक्मरानों द्वारा ट्रैस की जा रही थी। मानो उनके शरीर में कोई ‘इलेक्ट्राॅनिक चिप’ डाल दिया गया हो और वे लगातार मशीनी आवाज़ के साथ अपना काम कर रही है। 

‘रेड्डी, वी कैन!!!’
‘यस!, वी कैन वायो।’

अचानक एक फोर-डाइमेंशनल आकृति सामने उग आई। यह वायो था। वायवीय दुनिया का बेताज बादशाह। कीटाणु, जीवाणु, विषाणु तक उसके हूक़्म की तामील करते थे। वायो कौन है, कहां से आया है, क्या करने आया है; सबलोग उसका कहा मानने को इस कदर मजबूर क्यों हैं...यह कोई सोच नहीं पा रहा था। सभी ‘असेफलस’ थे यानी अशीर्षी, शिरोहीन, बिना सर-माथा के स्त्री-पुरुष जो सिवाए पुतलगाह के कुछ नहीं थे। सभी पुतले अपने नाक-नक्शे, शारीरिक बनावट और उभार के साथ ‘मेकअप’ किए हुए थे। सबकी आवाज़ भिन्न और उनके कहने का लहजा भी भिन्न था। किन्तु सब ने एक बार में एक ही साथ कहा था-‘यस! वी कैन।’ 

वायो बेंजिन की आकृतिनुमा ईंट से बना एक धड़ था जिसके छाती में आंख जैसी दो गोल बटन थीं। आवाज़ सुनाई पड़ रही थी लेकिन यह वायो के भीतर से नहीं आ रही थी; क्योंकि वायो बिल्कुल यंत्रवत सामने था। खास बात यह कि सबलोग वायो से मुखातिब थे; और वायो प्रत्येक के लिए हाज़िर-प्रकट था। यह ठीक वैसे ही था जैसे आपके हवाई-यात्रा के दरम्यान आपके सीट के सामने वाले हिस्से पर ‘टीवी स्क्रीन’ चल रहा होता है। यानी वन-टू-वन इन्ट्रक्शन।

अचानक बारिश होने लगी झमाझम। वाये भींग रहा था या नहीं; यह तय करना मुश्किल था। लेकिन लोग बड़ी फुर्ति से अपने छुपने के लिए जगह तलाश लिए। बिना किसी कठिनाई के सभी बारिश से बचे हुए थे। 

अचानक एक आवाज़ उभरी। 
‘काम शुरू!’

...और दुनिया चलने लगी। लिफ्ट गतिशील हो लिए। आॅफिस की घड़ियों में टिक-टिक शुरू हो गई। पूरी दुनिया की ख़बरें टेलीविज़न पर उभरने लगी। स्त्री-पुरुष एक-दूसरे को पुरानी ही रवायत के मुताबिक देख-ताक और मुस्कुरा रहे थें। लेकिन अंतर था तो बस यह कि काम हो रहा था; पर आप सुस्ताने के बारे में नहीं सोच पा रहे थे। अभी-अभी पत्नी द्वारा बच्चे की भेजी गई सेल्फी देख पाने की बेचैनी नहीं थी। सबकुछ एक ‘सिस्टमेटिक’ ढंग से काम कर रहा था। जैसे किसी मशीन की पूर्जे अलग-अलग लगे होकर भी अलग नहीं होते; सबका काम सामूहिक प्रभाव पैदा करते हैं। 

वायो कहीं नहीं था; यह भी नहीं आभास हो रहा था कि सब के सब किसी वायवीय कब्जे में हैं। एक अप्रतिम सुकून। अलहदा आभास। बेलाग-बेलौसपन। पूरी दुनिया पहले ही की तरह किसी ढर्रे विशेष पर चलने के लिए अभ्यस्त। यंत्र में शक्ति होती है, वह शक्तिमना है; लेकिन उसका साम्राज्य मनुष्य द्वारा बनाए गए समाज और सत्ता से इस कदर बेहतर हो सकता है। नहीं सोचा था। शायद! वायो ठीक था; उसका कहना ठीक था।

‘दुनिया में दुःख का सारा कारण दिमाग है, निकाल फेंको!’

दिमाग को झुठलाने की कोशिश मनुष्य ने की थी आज वायो ने मनुष्य की सत्ता को नकार दिया था। लोगों को इससे कोई फर्क नहीं था कि उनका स्वामी/शासक भारतीय है या अमेरिकन; हिन्दुस्तानी है या ब्रितानी। हर इंसान को अपने होने का पूरेपन में अहसास चाहिए होता है। वह अपनी सोच और स्वप्न के मुताबिक कर्मक्षेत्र चुनने और अपने मनोनुकूल काम करने की छूट एवं सहूलियत चाहता है। वह चाहता है कि वह ऐसे जिए कि उससे उसका जीना संतुष्टि दे, खुशी एवं प्रसन्नता दे। आज वायो ने मानवीय सरज़मी पर वायवीय सत्ता का परचम लहराकर एक बड़ी सुकूनदायक ज़िन्दगी बख्श दी थी। अमीम से डरे लोग ऐसा सोच रहे थे। इतिहास में सताए जन वायो की शुक्रिया कर रहे थे।

लेकिन क्या सत्य इनता ही हसीन, संतोषप्रद और सचमुच अनिर्वचनीय था....

Tuesday, May 12, 2015


          रागिनी नायक एवं अमृता धवन; चित्रः गूगल से साभार!

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मोहतरमाएं सजे-सजीले ढंग से कांग्रस की राजनीति में हवा देती हैं! राहुल इन्हीं सौन्दर्य-सुंदरियों के बयार में आलोचना उलीचते हैं। मोदी सरकार पर ग़रजते-बरसते हैं। मि. राहुल अपनी सूट-बूटियन को पहले राजनीति के सदाचार वाली ताबीज़ पहनाएं....फिर तड़के-भड़के-गरजे संसद से लेकर सड़क तक। 
और आपके बाबू नेताओं के नखरे तो और अजीबोगरीब है; खैर!
नाॅनसेंस बेवकूफी, हद है यार!
राहुल की दिल्ली युवा टीम: 
 शर्मिष्ठा मुखर्जी (49 साल)
 अमृता धवन (29 साल)
रागिनी नायक (32 साल)
 अभिषेक दत्त (35 साल)
 आले मोहम्मद इकबाल (25 साल)
 राहुल ढाका (29 साल)
 अमन पवार (26 साल)
 रिंकू जयंत (39 साल)
 राजेश गोयल (45 साल)
 चैतन्य सिंह (25 साल)
 प्रेरणा सिंह (30 साल)
 अनम हुसैन (25 साल)

झूठे सम्मोहन का वृत्तचित्र

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Monday, May 11, 2015

शताब्दी वर्ष में भारत रत्न महामना मदनमोहन मालवीय जी का परिसर

साभारः हिन्दुस्तान; 11 मई, 2015
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राजीव रंजन प्रसाद
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संस्कार और मूल्य पैदा करने और उसे बढ़ावा देने का दावा करने वाला बीएचयू परिसर आज शर्मसार है। यह शर्म भी हम जैसे विद्यार्थियों के नाम दर्ज है। कुलगीत गवाने वाले सेमिनारी-प्रोफसरों अथवा इसी तरह के आयोजकी ढकोसलों में सालों भर फांद-कूद करने वाले बुद्धियाए लोगों के लिए यह कोई बड़ा मसला नहीं है। मसला तो उनके लिए भी नहीं है, जो एक ढर्रे पर काम करने के आदी हैं और जिनकी दृष्टि में ज्ञानोत्पादन नितान्त फालतू काम है, समय का गोबर-गणेश करना है। सिर्फ एक माह की घटनाओं का तफ्तीश करें, तो मालमू देगा कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का वास्तविक चरित्र क्या है और रंग-रूप? 

चूंकि इन सब बारे में बोलने का खतरा मोल लेना अपने को असुरक्षित मनोदशा में झोंक देना है या फिर उन शुभचिंतकों तक से मोर्चा ठान लेना है जिनकी निगाह में आप अपनी योग्यता और काबिलियत का लोहा मनाते आए हैं; इसलिए अधिसंख्य की बोलती बंद रहती है; सब अपने कैरियर को उत्कर्ष और चरमसुख की उच्चतर अवस्था पर ले जाने के लिए पेनाहे रहते हैं। 

यह कितना अफसोसजनक है कि माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के संसदीय क्षेत्र में महिलाएं असुरक्षित हैं, तो विदेशी पर्यटक डरे-सहमे हुए हैं। यह वीभत्स चेहरा क्या मानवीय है? क्या स्त्रियों के साथ चाहे वह भारतीय हों या अमरीकी इस तरह के सलूक जायज़ हैं? क्यों हम सचाई को झूठ के लिहाफ में चकमक-चकमक देखने को अभ्यस्त हो चले हैं? क्यों ऐसा हो रहा है कि पूरा कैंपस अराजकता की भेंट चढ़ा हुआ दिख रहा है; असामाजिक तत्त्वों की पौ-बारह है? 

ये सभी सवाल उन मंगलआरतीकारों से है जो अपने ज्योतिषफल से इस परिसर को विश्वस्तरीय दरजे पर ले जाने को आकुल-व्याकुल हैं; जिनकी आत्मा में धर्म, कला, साहित्य, दर्शन, संस्कृति, राजनीति, सूचना-प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, अनुसन्धान, नवाचार, स्वउद्यमिता, अन्तरानुशासनिक अकादमिक शिक्षण-कार्य...और न जाने क्या-क्या अनगिनत पाठ अकादमिक भाषा में गुदे हुए हैं, लेकिन वास्तव में होता-जाता सोलह में दो आना है; किन्तु प्रचारित सोलह का छब्बीस आना होता है! गोकि ऐसे लोगों के पास कायल कर देने वाली प्रतिभाएं हैं; इन अर्थों में कि यह अर्थ-युग है और इस दौर में रूप एवं अन्तर्वस्तु की तरह कथित ज्ञान भी खरीद-फ़रोख्त की चीज है; सदाचार की ताबीज पहन कर घूमने या शिष्टाचार के शब्द-भाषा में संवादी होने का नहीं।

स्मरण रहे, दुर्भाग्य की किसी से रंजिश नहीं होती; विडम्बना का कोई नैतिक पक्ष नहीं होता है। भारत रत्न महामना मदनमोहन मालवीय जी आज इसी दुर्भाग्य और विडम्बना के शिकार हैं; वे रो रहे हैं जबकि हमारे आत्मप्रलाप के आगे उनका रोना प्रासंगिक नहीं माना जा रहा है। यह जानते-समझते हुए भी कि युगद्रष्टा मालवीय जी की चिंतन-पद्धति, अंतःदृष्टि और आचार-व्यवहार जनपक्षीय और मूल्यगत आधार पर जनसरोकारी थे और संवेदना एवं सरोकर आमजन की आत्मा से गुंथी हुई। वे दो कदम भी बड़े संयम, संतुलन किन्तु पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ चलते थे। आज उन्हीं के परिसर में उनके नाम पर लोग अनैतिक कर्मों में मुंह मार रहे हैं; ग़लत कार्यों से भारतीय ज्ञान-परम्परा को गंदला कर रहे हैं।

ओह! हर घटना पर गंगाजल छिड़कर लिपापोती करने वालों, तुम जानते भी हो कि इसकी सजा परम परमात्मा क्या मुकर्रर करेगा; तुम्हारे माल-असबाब किस तरह तवाए रह जाएंगे; तुम्हारी भौतिक लिप्सा में कीड़े लगेंगे और यह सब होने से पहले ईश्वर सबसे पहले अच्छे लोगों को तुम्हारे बीच से अलग कर लेगा, अपने पास बुला लेगा क्योंकि जहां सच्चे लोगों की कद्र और अहमियत घट जाती है वहां ईश्वर अपने देवदूतों की भी आवाजाही बंद कर देता है।

Saturday, May 9, 2015

अखिलेश यादवः यूपी में लोग मुझे पहचानते नहीं है!


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राजीव रंजन प्रसाद का एक समाजमनोभाषिक रिपोर्ट
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''मोदी जी की ‘मेक इन इंडिया’ ने हम शोध-छात्रों की अध्येतावृत्ति में दिसम्बर माह से बढ़ोतरी का घोषणा किया। लेकिन विश्वविद्यालय ने फरवही माह तक के जो शोध-अध्येतावृत्ति प्रदान की है उसमें यह बढ़ा हुआ पैसा नहीं प्राप्त हुआ है। यही नहीं पूछने पर विश्वविद्यालय के लोग कहते हैं कि-'जाइए, मोदी जी से पूछ लीजिए।' यार! आपलोग की हैसियत हो तो मेरी बात उनतक पहुंचा दीजिए कि ऐसी धोखाधड़ी और ग़लत नियत रही, तो आपकी दुकानदारी ज्यादा दिन नहीं चलने वाली।-राजीव रंजन प्रसाद''
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भारत युवा देश है। आंकड़ों में सिर-पांव-हाथ मिला दें तो देश की पूरी आबादी की लगभग दो गुनी। यहां प्रत्येक पांच में से एक खुद को दूसरों से भिन्न और असाधारण मानते हैं। प्रत्येक पच्चीस के समूह में से एक नेता होने का दावा करते हैं। कोई दलीय छात्राधिकारी है, तो कोई पद-विभूषित संयोजक-सचिव-अध्यक्ष। सब के सब अपने दावे में किसी बड़े नामचीन अथवा स्वनामधन्य नेता के बिरादर हैं, रिश्तेदार हैं या फिर अरीबी-करीबी। ऐसे युवा नेता के पास दो-चार मुफ़्त के सवार हैं, खाने-पीने के संगी चटोर हैं और ये सब खाते-पीते घर से हैं; इसलिए इनके युवा नेता होने की कहानी चल पड़ती है। इनमें से अधिसंख्य की भाषा बदज़ुबानी में लहराती है। उनको देखकर और उनकी हरकतों को दूर से निहार कर लगता है कि भारत का भविष्य उज्ज्वल है; भारतीय राजनीति में युवा ज़मात संख्याबल में इज्ज़त के साथ सम्बोधन करने योग्य है। आस-पड़ोस, चैक-चैराहे, गली-मुहल्ले से लेकर महाविद्यालय-विश्वविद्यालय तक उनकी आवाजाही और उठन-बैठन देखकर सुखद आश्चर्य होता है कि ऐसे नेताओं के रहते कोई देश पतनशील, भ्रष्ट और चरित्रहीन कैसे हो सकता है? कैसे युवाओं की इतनी मौजूदगी के बीच झूठ के तबेले में कोई इंतमिनान से गोरखधंधा कर सकता है? कैसे कोई नेता आम-आदमी से दुहराए जाने वाले वादों से मुंह फेर सकता है या फिर उन्हें सियासी राजनीति के षड़यंत्र में फांस कर हर बार दगा दे सकता है?

लेकिन सच बिल्कुल उलट है। सर से पांव तक युवा नेता होने के गुमान एवं गुरूर कंधा और सर झटकते; दो मिनट की बातचीत में कई बार दाएं-बाएं देखते ऐसे नेताओं से मिलिए, तो लगेगा कि देश में जाल-जोकड़, दांव-पेचं, झूठ-सच आदि को पैदाइशी संस्कार में लिए लोग अधिक पैदा हो गए हैं; और यही सर्वथा नेता होने के योग्य और काबिल भी माने जाने लगे हैं। तभी तो, इनके कहकहे में धौंस का छौंक होता है, या नाटकीय याचनावत मुद्रा। इनकी ख़ासियत यह है कि ऐसे युवा नेता प्रभाव पैदा करते हुए पद पाते हैं और अन्य कई किस्म के लाभ। ख़ास मौकों पर इनकी मनमर्जिया दुरंतो ट्रेन की तरह हर तरफ विचरण करती है लेकिन कोई पंगा नहीं लेता। कोई इन्हें सुझाव-सलाह देने की हिमाकत नहीं करता। वे अक्सर शब्दों में हेकड़ी की फ़िरकी मारते हैं-‘चल-चल निकल यहां से’, ‘चल फूट’, ‘रास्ता नाप’,तेरी तो’, ‘ठोक दे’, ‘बजा दे’, ‘छोड़ना नहीं’, ‘और मार’, ‘जबान खोलेगा’, ‘पहचानता है कि नहीं’, ‘आज के बाद वह जान जाएगा’, ‘काम करना सिखाउं क्या’, ‘करता है या पिटेगा’, ‘गए कि लगाएं कान के नीचे’, ‘खींच’, ‘मार’, ‘जाने न देना’, ‘आज धुनो जम के’, ‘खर्चा-पानी चाहिए क्या’ वगैरह-वगैरह।

अलग से सुनाने की जरूरत नहीं है कि देश की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति में विवेक आधारित चेतना का सत्यानाश हो गया है। जिन कुछ लोगों के पास हैं वे खामोंशी का चकलाघर चलाते हैं। वे जानते हैं कि सच बोलने का मतलब है अपने को जोखि़म में डालना; सही का साथ देने का मतलब है अपनी कैरियर से खेल जाना। ऐसे महापंडित बनते और समाज के ठेकेदार कहे जाने वाले लोग यह कभी नहीं कह सकते कि अगर यह ढंग सही है और बेहतर परिणाम के लिए आश्वस्त हो और जिसमें समाज के एक बड़े वर्ग-समूह का हित-लाभ छुपा हो, तो उसे आप दिल से करो। अपवाद हर जगह है। इसे मैं मानता हूं।

छात्र-नेताओं का चरित्र यदि पार्टी के चरित्र से ‘मैचिंग’ न खाए, तो उसे आज कोई भाव नहीं देता, छात्र-मोर्चा तक के नेतृत्व का उसे अवसर नहीं मिलता। आजकल कमोबेश सभी पार्टिया हर चीज एक ही ढर्रे और ढंग से आज़माना-परोसना चाहती हैं। उन्हें यह आभास ही नहीं है कि दुनिया में नए बदलाव के सर्जक हमेशा नई पीढ़ी होती है। बूढ़े उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं; अपने अनुभव-संसार से पार्टी को अनुशासित एवं सांस्कारित रख सकते हैं; लेकिन परिवर्तनकामी राजनीति का आधारवस्तु हमेशा नए लोग, नई पीढ़ी के लोग बनते हैं। इसके लिए चे ग्वेरा की टोपी या भगत सिंह मार्का टी-शर्ट पहनने की जरूरत नहीं है। उन्हें राहुल गांधी के आगे-पीछे अपना चेहरा लेकर घूमने की जरूरत नहीं है। अनुराग ठाकुर की तरह शर्तिया सदस्य बनाने के बाद ही किसी युवा से मिलना नहीं होता है।

युवा होने का अर्थ अपनी रोम-रोम को मानसिक वैचारिकी और चिंतन-धारा द्वारा सींचना होता है जैसे ज़मीन पर रोपे गए पौधे के साथ हम अपनी स्वाभाविक-वृत्ति बरतते अथवा अपनाते हैं। युवा होने का अर्थ किसी कार्य को करने के लिए चिंतातुर या व्यग्रातुर होना हरग़िज नहीं होता है बल्कि उस दिशा में कार्यशील होने के लिए अवश्यंभावी औजारों और संसाधनों का माकूल ढंग से जुटाना, सहेजना और उसे कार्यरूप में परिणत करना होता है। युवा होने का अर्थ है, परिवेश का व्यावहारिक ज्ञान होना; परम्परा का अनुशीलनकर्ता होना; संस्कृति का उद्गाता और उद्घोषक होना; समय का सहोदर होना; परिस्थियों का नियंत्रक होना; भष्यि का द्रष्टा होना, तो अतीत और इतिहास से हर समय सीखते हुए स्वयं में आवश्यक सुधार एवं परिष्कार की गूंजाइश रखने वाला होना। यह होना स्वमेव नेता होना है; समाज का अगुवा होना  है, युवा पीढ़ियों का नायक होना है, तो वर्तमान को सही, सार्थक एवं निर्णायक तरीके से एकमेक रखने वाला सच्चा नेतृत्वकर्ता होना है।

स्मरण रहे, जनता पत्थर पूजती है; लेकिन किसी जिंदा इंसान का पांव उस तरह कभी नहीं पूजती कि वह आचरण-व्यवहार में दानव-दैत्य की तरह पूरे समाज को लील जाने पर आमादा हो और देश उसकी जयजयकार करती फिरे या कि अंधानुकरण या अंधश्रद्धा में अहर्निश सर नचाती या टेकती दिखे। आधुनिक अर्थें में आसाराम बापू से लेकर तरुण तेजपाल तक की गिनती हमारे सामने है; आडवाणी से लेकर अण्णा हजारे तक के नाम हमारी गिनती में है।

अतः जो युवा नेता अपनी टुच्चापन और छिछोरापन से नहीं उबरेंगे या उसे छोड़कर नए मार्ग नहीं तलाश लेंगे; तब तक उनकी ज़मीनी दख़ल हवाई ही रहेगी। वह भी प्रचार, पैसा और प्रभाव के बूते उन्हीं ‘प्रोजेक्टेड’ नेताओं की गिनती में गिने जाएंगे जिन्होंने अपना नाम जनता को बुझाने के लिए सरकारी खजाने से अरबों-अरब रुपए पिछले कई सालों में फूंक दिए; लेकिन जनता के बीच उनकी सफेदपोश कमीज को नाम देने वाली आंखें नहीं है। पिछले दिनों अखिलेश यादव को बड़े दु:ख़ के साथ एक आयोजन में कहना पड़ाः'यूपी में लोग मुझे पहचानते ही नहीं है!’

Oh! Akhilesh, I don't aspect it....,

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नोटः लेखक राजीव रंजन प्रसाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के व्यवहार, व्यक्तित्व एवं नेतृत्व को लक्षित-केन्द्रित कर संचार एवं मनोभाषाविज्ञान की दष्टि से शोध-कार्य में संलग्न है। 

Friday, May 8, 2015

‘सो काॅल्ड कमिटेड’ राहुल

क्या आपने परिकथा के मई-जून अंक में फिल्म ‘मैरी काॅम’ की समीक्षा पढ़ लीः ‘मेरा नाम मैरी काॅम’
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राजीव रंजन प्रसाद
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(यह पाठकीय प्रतिक्रिया जनसत्ता अख़बार को भेजी गई है)

‘राजनीति की राह’(8 मई) शीर्षक से प्रकाशित समांतर ब्लाॅग में  अर्चना राजहंस मधुकर ने राहुल गांधी के व्यक्तित्व, व्यवहार एवं नेतृत्व के भीतरी परतों को टटोला है और अपनी असहमति के साथ उपयुक्त आशंकाएं जाहिर की है। इस घड़ी राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी में बाहैसियत उपाध्यक्ष पद पर काबिज़ हैं। नेता(?) के रूप में उभरने से पहले वे अज्ञातवास में अध्ययनरत थे। सार्वजनिक ज़िदगी में प्रकट हुए, तो उसे कांग्रेस ने अवतार सरीखा तरज़ीह दिया। व्यक्ति योग्यशाली न हो तो उसे यथाशीघ्र पद देकर ‘योग्य’ घोषित कर दिया जाता है। जबकि ह़कीकत में एम.फिल किए राहुल गांधी राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा(UGC NET) उत्तीर्ण करने तक की काबिलियत रखते हैं, सबका सहमत होना संभव नहीं है। अध्ययनजीवी व्यक्ति भी नेता होता है और वह अपने अध्यापन-कर्म द्वारा नेतृत्व करता है। कहा जाना चाहिए कि राहुल इस नेतृत्व में सफल नहीं हो सकते थे, इसलिए आसान राह चुना। राजनीति में आसानी यह है कि बहुलांश काम पार्टी के कारिंदे एवं अन्य सदस्य करते हैं। खुद सिर्फ ‘प्रर्जेंटेबल फेस’ बनकर संग-साथ दिखते रहना भर होता है। राहुल जब भी दिखते हैं, कैमरे की फ्लैश चमकती है। अख़बार अपने पृष्ठों पर ‘कागद कारे’ करते हैं। सबको पता है कि इन सब परोक्ष प्रमोशन का जैनुइन ईनाम किस-किस को क्या-क्या और कितना मिलता है। 

आज के अधिसंख्य संचार-माध्यम प्रायोजित ईनाम के बूते ख़बर और विचार का काॅकटेल परोस, प्रसारित कर रहे हैं। शेष प्रचार का अपना प्रोपेगेण्डा सुरसामुंह लिए आगवानी में खड़ी है। आजकल उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री अखिलेश और आमजन के ‘अच्छे दिन’ लाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन्हीं सब ‘इवेंट/पब्लिसिटी/इमेज बिल्डिंग’ में नधाए हुए दिख रहे हैं। पूरे देश में ‘पहले शौचालय फिर देवालय’ का बुलंद नारा देकर संघी मानसिकता को हूरपेटने वाले प्रधानमंत्री की माया तक ऐसी कि अपने संसदीय क्षेत्र में भी उनकी कथनी-करनी बीस नहीं बैठ रही। इस ओर ध्यान देना मीडिया के नफ़ासत में नहीं है। वह बिकने की आदत में इतनी मगरूर है कि उसे अपनी बोली लगाने वाले की आवाज़ छोड़ और कुछ भी नहीं सुनाई पड़ रहा है। हां, उनके चुने जयापुर गांव पर अधिकारियों की मेहरबानी जबर्दस्त है; तो यह भी एक लोकप्रियतावादी कोशिश है जिसमें द्वार गुलज़ार किन्तु समूचे घर में अंधेरिया वाली कहावत सच हो रही है।

अतएव, राहुल गांधी इतने दिन राजनीति में ‘ट्रेनिंग’ लेते हुए इतना तो जान ही गए हैं कि गर्म कड़ाह के खौलते तेल में पानी का छींटा मारने का अंजाम क्या होता है। चूंकि कांग्रेस में पानी नहीं बची है। इस कारण वह अपना पसीना बहाते हुए मौजूदा सरकार के उपर जल-छिड़काव में दिन-रात जुटे हैं। इस उपक्रम को भी ‘सुपररियलिस्टिक ड्रामा’ की तरह करने के लिए उन्हें विदेशी ज़मीन पर कठिन अभ्यास करने पड़े। हिन्दी शब्दकोश और मुहावरे को साधना पड़ा। चेहरे के भाव-भंगिमा, दैहिक-चेष्टाओं,बात-बनाव, बोल-बर्ताव, मौन-ख़ामोशी आदि के बीच सही संगति और संतुलन बिठाने के लिए विधि-विधान के साथ तकरीबन आठ सप्ताह तक ‘विपश्यना’ करना पड़ा। 

राहुल आज क्या कर रहे हैं, मीडिया दिखा रहा है और कल क्या करेंगे यह मीडिया तय कर चुका होगा। हवाई जहाज में राहुल यात्रा कर रहे हैं और अपने साथ के यात्रियों से बातचीत करने में मशगूल है; यह टेलीविज़न पर दिखाने के लिए खुद पत्रकार को उसी समय हवाई-यात्रा करनी पड़ रही है, ट्रेन में बर्थ ‘रिजर्ब’ कराने पड़ रहे हैं। मौजूदा जनमाध्यमों के साथ बड़ी विसंगति यह है कि वह अपनी रूप, शैली, अन्तर्वस्तु अथवा प्रस्तुति-प्रसारण में वस्तुपरक, निष्पक्ष, पारदर्शी एवं तर्कसंगत नहीं है। दिल्ली की मीडिया देश के भूगोल से किस कदर अनभिज्ञ है यह भारतीय टेलीविज़न देखते हुए स्पष्ट हो जाता है; जबकि कई बार इन मीडिया-सुजानों से अच्छी ऐंकरिंग और उनकी नकल स्कूली बच्चे कर डालते हैं। खैर! राहुल कई साल पहले वाराणसी क्षेत्र के अहरौरा आए थे, आज उस गांव का नाम तक उन्हें याद नहीं होगा। लेकिन कांग्रेसी और मीडियावी ‘इवेंट मैनेजर’ चाह जाएं तो किसी दिन राहुल हम सबको प्रधानमंत्री के सांसद-ग्राम जयापुर से सटे किसी गांव में चहलकदमी करते हुए दिख जाएं; किसी काकी-चाची या बड़े-बुजुर्ग से बतियाना शुरू कर दें; यह जानते हुए कि उनका यह चाल-चरित्र और चेहरा टेलीविज़न रिमोट द्वारा बदले जाने वाले ‘टीवी स्क्रीन’ से अधिक गति एवं तीव्रता वाला है। भाई! सवाल उनकी ‘कमिटमेंट’ का है वह भी 'पाॅलिटिक्ल ब्रेक' के बाद; सो हनक तो रहेगी ही। जनता सब बूझती है, तब भी सबको अवसर देती है; लगे रहो राहुल।

Thursday, May 7, 2015

Winglish-English

Day 1
Dear friends,

What you say and how you say it!

It‘s matter of conversational control. For conversational control; to listen closely and reply well is the highest perfection we are able to attain in the art of conversation. Conversational control does not mean that you can control your own conversation, and in time be able to influence others and encourage them to respond in a positive and relevant way.  They include how to handle personal criticism, how to put forward a proposal, how to register a protest, how to disagree without being aggressive, how to be creative, how to negotiate, how to buy and sell, how to interview and praise, and how to contribute to a meeting.
Such guidelines do not tell us what to say but provide indicators to keep us on track. Conversational control therefore is a skill. It can be learnt. There are principles to separate poor performance from effective high performance.

Conversation:
- Positive
-  Relevant way


Conversational skills:
-   When to speak and when to listen
-    How to move a conversation from the past to the present and to the future
-   Why conversational linking is necessary
-   How to distinguish between parallel and sequential conversation
-   How to raise energy levels in discussions
-   How to move between problem-centred conversation and solution-centred conversation.

B…Bye…!


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Presented by: Rajeev Ranjan Prasad   

Tuesday, May 5, 2015

सरोगेसी लिडरशिप: प्रचार की पैदाइश नई पीढ़ी

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राजीव रंजन प्रसाद
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1.
सबके चाल-मोहरे एक जैसे हैं। तिकड़म-जुगाड़ भी लगभग एकसमान। सब के सब नेता हैं और भारतीय नेता जिनके दिन-रात सब पूरे होते हैं; लेकिन जनता या तो खालीपन में जिन्दगी गुजारती है या फिर अधूरेपन में या कि अंधेपन में। भारत में नेतृत्व का मतलब ही है कि लफ्फ़ाज होना। यदि न हुए तो जुगाड़ू होना। वह भी नहीं हुए तो एक्टिविस्ट से अराजकवादी होना। कुछ भी न होना तो सिर्फ यह होना कि आपकी डीएनए में किसी नेता-परेता के गुणसूत्र पड़े हों; बस बाकी काम सरोगसी के नए उपकरण अर्थात पैसा, प्रचार एवं प्रभाव की तिकड़ी से बिल्कुल संभव है।

2.
आप सच बोलिए, तो सियासी लोग आपसे आपका बबरी नवाते हुए झूठ बुलवा लेंगे। उनके पास बुलवाने के अनगिनत तौर-तरीकें हैं, ज्ञान और विज्ञान है। उनके पास धन है, संसाधन है और अकूत पैसा के बल पर बटोराया हुआ शक्ति कि उनकी कई पीढि़यां बिना किसी कमाई-धमाई के राज करेगी। यानी हिंग लगे न फिटकरी और रंग चोखा आए तत्काल संभव। यह यांत्रिक युग है और इक्कीसवीं सदी। पैसा, प्रचार और प्रभाव इन्हीं तीनों के बल पर भारत की राजनीति का ‘जन पैक’ मुटाया दिख रहा है। इसी मुटाई के फल हैं, कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी, समाजवादी  युवा नेता अखिलेश यादव और अन्य। इस घड़ी देखिए लीला कांग्रेसी वीर-बहादुर राहुल गांधी का....!

सीधा भी, उल्टा भी, दांए और बांए भी!!!



































हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...