Monday, July 29, 2013

लद्दाख भी आसमान से धरती जैसा ही दिखाई देता है.....: रामजी तिवारी


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(पढ़िए रामजी तिवारी का लिखा लाज़वाब यात्रा-संस्मरण
‘लद्दाख में कोई रैन्चो नहीं रहता’ शीर्षक से;
परिकथा, जुलाई-अगस्त, 2013 अंक में प्रकाशित)

पहाड़ हवा में नहीं होते। वे ज़मीन पर होते हैं। इसीलिए मजबूती से टिके रहते हैं।
उनका ज़मीन से नाभिनाल रिश्ता है। रैन्चोगिरी की ख़ुमारी में डूबे हम पर्यटकों
से प्रायः वे भिन्न महत्व के होते हैं। दरअसल, इस रिश्ते के कई-कई छोर या सिरे होते हैं।
हमारे पाँव इन पहाड़ों को छूते हैं। हमारा देह इन पहाड़ों पर टिकते हैं, तो कई मर्तबा
पर्याप्त आॅक्सीजन न होने का रोना भी रोते हंै। ‘‘साँस उखड़ने की यह कमी लेह में उतरने के
आधे घंटे बाद इतनी शिद्दत से महसूस होने लगती है कि पहली बार आपको अपने स्वस्थ जीवन में यह एहसास भी हो जाता है कि साँस लेना भी एक जरूरी काम है।’’ जरूरी तो पस्त होते तबीयत के साथ पहाड़ों के मन-मिज़ाज को बूझना भी होता है। अक्सर ‘‘हम मैदानी लोगों के दिमाग में पहाड़ों को लेकर कितना भ्रम रहता है। हम सोचते हैं कि पहाड़, रास्ते के हिसाब से बंद जगहें होती हैं लेकिन यहाँ तो इस जगह(लद्दाख) का अर्थ ‘बहुत सारे रास्ते’ के रूप में खुलता है।’’ इसी के साथ खुलता है लोकरंग। ‘‘कुमायूँनी हो या गढ़वाली, हिमाचली हो या डोगरी या फिर लद्दाखी, सभी पहाड़ी लोक धुनों में एक खास किस्म की मस्ती, उल्लास, उमंग और रवानी पाई ही जाती है।’’ अगर आप घूमने निकले हों, तो ‘‘घूमने के लिहाज़ से यह आवश्यक होता है कि आप उस क्षेत्र के गाँवों और दूर-दराज के इलाकों से परिचित हों। विविधताएँ और खासपने की तलाश आपकी वहीं पूरी होती है। वहीं उस समाज का लोक भी बचा होता है, और संस्कृति भी। अन्यथा आप दिल्ली में हों या लन्दन में, न्यूयार्क में हों या मेलबोर्न में, सारे जगहों के पाँच-सितारा होटल एक ही जैसी विशेषताओं से सुसज्जित मिलेंगे।....मेरी राय में लेह जैसे जगहों पर शहरों की कुलाँचे भरती बदहवाश दुनिया को भी जरूर आना चाहिए कि वह इस तथ्य का प्रत्यक्ष अनुभव कर सके कि पृथ्वी की छाती पर मूँग दलते हुए वह अपनी भौतिकता की खातिर जो खेल खेल रही है, आने वाले समय में उसका क्या हश्र हो सकता है। लेह में तो यह काम प्रकृति ने किया है, लेकिन शेष दुनिया में....?’’

Friday, July 26, 2013

यह ज़िन्दा गली नहीं है


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माही का ई-मेल पढ़ा। खुशी के बादल गुदगुदा गए।

जिस लड़की के साथ मेरे ज़बान जवान हुए थे। बुदबुदाए।

‘‘बिल्कुल नहीं बदली....’’

अंतिम शब्द माही का नाम था, उसे मन ने कह लिया था। लेकिन, मुँह ने मुँह फेर लिया।
(आप कितने भी शाहंशाह दिल हों....प्रेमिका से बिछुड़न की आह सदा शेष रहती है)

उस घड़ी मैं घंटों अक्षर टुंगता रहा था। पर शब्द नहीं बन पा रहे थे। रिप्लाई न कर पाने की स्थिति में मैंने सिस्टम आॅफ कर दिया था। पर मेरे दिमाग का सिस्टम आॅन था। माही चमकदार खनक के साथ मानसिक दृश्यों में आवाजाही कर रही थी। स्मृतियों का प्लेयर चल रहा था।

‘‘यह सच है न! लड़कियाँ ब्याहने के लिए पैदा होती हैं, और लड़के कैरियर बनाने के लिए ज़वान होते हैं। मुझे देखकर आपसबों को क्या लगता है?’’

बी.सी.ए. की टाॅप रैंकर माही ने रैगिंग कर रहे सीनियरों से आँख मिलाते हुए दो-टूक कहा था। तालियाँ बजी थी जोरदार। उसके बैच में शामिल मुझ जैसा फंटुश तक समझ गया था। माही असाधारण लड़की है। लेकिन, मैं पूरी तरह ग़लत साबित हुआ था। माही एम.सी.ए. नहीं कर सकी थी। पिता ने उसकी शादी पक्की कर दी थी। उस लड़के से जो एम. सी. ए. का क...ख...ग भी नहीं जानता था। माही ने एकबार भी इंकार नहीं किया था।(अपने माता-पिता या अपने अभिभावक का सबसे अधिक कद्र आज भी लड़कियाँ ही करती(?)हैं।)

माही का पति बिजनेसमैन है। स्साला एकदम बोरिंग। हमेशा नफे-नुकसान की सोचने वाला। शादी के बाद भी माही से जिन दिनों बात होती थी। वह बताती थी-‘‘राकेश की सोच अज़ीब है, वह मानता है कि सयानी लड़कियों को लड़कों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए; लड़कियाँ ख़राब हो जाती है।’’

‘‘ये सामान बेचने वाले हमेशा ख़राब-दुरुस्त और नफे-नुकसान की ही सोचते हैं...,’’

मैंने कहा। माही तुरंत फुलस्टाॅप लगा दी। विवाहित लड़कियाँ चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी हों अपने सुहाग(?)के बारे में ज्यादा खिंचाई बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं। वैसे हम दोनों हँसे खूब थे।

अब तो उसकी हँसी सुने अरसा हो गया है। आज उसने ई-मेल किया है। वह भी यह बताने के लिए कि बच्ची हुई है...और स्वभाव में बिल्कुल मुझ पर गई है।

माही के बिल्कुल न बदल सकने वाली बात ऊपर के पैरे में मैंने इसीलिए कहा था।

‘‘ओए मंजनू के औलाद...सो गए,’’

‘बोल न कम्बख़्त, क्या मैं किसी को चैन से याद भी नहीं कर सकता...., दो मिनट!’’

‘‘खुद तो माही महरानी बन गई...अब माताश्री भी; मजे लो...।’’

पार्टनर जीवेश और मेरी खूब बनती थी। उसने मुझे माही पर एतबार करते हुए, उसके लिए अपना सबकुछ लुटाते हुए देखा था...अब उन्हीं आँखों से मुझे लूटते हुए भी देख रहा था।.....
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(कहानीकारों की ज़िन्दा कौमे हैं....अफ़सोस गलियां ज़िन्दा नहीं हैं.....खै़र! फिर कभी...)

Thursday, July 25, 2013

यही सच है!


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आज दीपू
तुम्हारा जन्मदिन
और मैं बेरोजगार
चाहता हूँ
तुम्हारी हँसी उधार.....!

Tuesday, July 23, 2013

बीएचयू : यह हंगामा है क्यों बरपा?


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बीएचयू में फीसवृद्धि का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। विश्वविद्यालय के
विद्यार्थियों में रोष व्याप्त है। बीएचयू प्रशासन इस सम्बन्ध में
निर्लिप्त है। यह कहना ग़लत होगा। वह जानबूझकर इस मुद्दे को बेपरवाही के
साथ ‘हैंडिल’ करता दिखाई दे रहा है। प्रशासन और अकादमिक अधिकारियों की
अक्षमता या कहें मिलीभगत ने इस मुद्दे को राजनीतिक रंग में रंग दिया है।
परिसर में विरोध-प्रदर्शन, पुतला-दहन, ज्ञापन इत्यादि का सिलसिला हफ़्ते
भर से जारी है। बीएचयू सिंहद्वार के समीप प्राॅक्टर-फोर्स लाठी-डंडे के
साथ तैनात है सो अलग। परिसर में तनाव का बाना इस कदर बुना हुआ है कि
सामान्य विद्यार्थियों में भय और खौफ पैदा होना स्वाभाविक है।

संकट की इस घड़ी में विश्वविद्यालय का प्रशासनिक अमला हाथ पर हाथ धरे बैठा है।
मानों उसने अपनी बुद्धि की बत्ती ही बुझा दी हो। दरअसल, शुल्कवृद्धि की वजह से
आर्थिक रूप से विपन्न विद्यार्थियों के ऊपर बड़ा बोझ डाल दिया गया है।
विश्वविद्यालय प्रशासन यहाँ पढ़ने आने वाले विद्यार्थियों के भूगोल से
परिचित नहीं है; ऐसा नहीं है। यह सबकुछ सोची-समझी रणनीति के साथ हुआ
है। इसका एक संदेश तो यह जा रहा है कि बीएचयू प्रशासन गरीबों को बेहतर
शिक्षा दिए जाने का पक्षधर नहीं है। दूसरा यह क़यास भी लगाया जा रहा है कि
यह फैसला चुनाव से ठीक पहले छात्र-राजनीति या छात्रसंघ बहाली की मांग को
धार देने के लिए किया गया है। फिलहाल, फीसवृद्धि के फैसले को लेकर
छात्र-छात्राओं में एकजुटता बढ़ी है। वे फीसवृद्धि के ख़िलाफ अपनी आवाज़
बुलन्द करने में जुटे हैं।

यह विडम्बना ही है कि फीसवृद्धि का लिहाफ़ लेकर विश्वविद्यालय-प्रशासन सड़कों का मरम्मतीकरण और खाली जगहों का उद्यानीकरण करना चाहता है। महामना मदनमोहन मालवीय ने इस गुरुकुल की परिकल्पना जिस महान उद्देश्य को आधार बनाकर की थी आज वे हाशिए पर हैं। यह विश्वविद्यालय ज्ञान, साहित्य, समाज, कला, वाणिज्य, नवाचार, शोध, सर्जनात्मकता इत्यादि में उच्चस्तरीय नेतृत्व की भूमिका निभाने में अक्षम है। परिसर के ‘आउटलुक’ को बनाने या उसे सजाने-सँवारने में जो धन अपव्यय हो रहा है; उसे यदि विद्यार्थियों के मानसिक विकास, स्वतन्त्र चिन्तन, ज्ञानात्मक प्रबन्धन, कला-कौशल, जीवनबोध व मूल्य-संवर्द्धन इत्यादि के लिए किया जा रहा होता, तो आज फीसवृद्धि को लेकर यह हंगामाखेज दृश्य शायद! ही देखने को मिलता।


Sunday, July 21, 2013

हमारा यह जीवन सिर्फ संज्ञा-सर्वनाम नहीं है....!


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(शोध-पत्र: निष्कर्ष)

जल्द ही....!

चुनावों में मरघटिए का टंट-घंट मत छानिए


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शशि शेखर अख़बार के सम्पादक हैं। समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ में उनकी
वैचारिक-टीआरपी जबर्दस्त है। वे जो लिखते हैं, सधे अन्दाज़ में। उनका साधा
हर शब्द ठीक निशाने पर पड़ता है या होगा, ऐसी मैं उम्मीद करता रहा हूँ
(फिलहाल नाउम्मीदगी की बारिश से बचा जाना नितान्त आवश्यक है) लेकिन, कई
मर्तबा वे जो ब्यौरे देते हैं, तर्क-पेशगी की बिनाह पर अपनी बात रखते
हैं; उसमें विश्लेषण-विवेक का अभाव होता है। यानी वे अपने विचार से जिस
तरह पसरते हैं, उनकी तफ़्तीश से कई बार असहमत हुआ जा सकता है। खैर!
पत्रकारिता भाषा में तफ़रीह नहीं है, यह शशि शेखर भी जानते हैं और मैं भी।
बीते ढाई दशक में उनकी कलम ने काफी धार पाया है, चिन्तन में पगे और चेतस
हुए हैं सो अलग। यह मैंने कइयों से सुना है...और उनसे भी।

अब मुख्य बात। शशि शेखर के लोकप्रिय रविवारीय स्तम्भ ‘आजकल’ में आज का
शीर्षक है-‘‘चुनावों को महाभारत मत बनाइए’’। इसमें उनका कौतूहल देखने
लायक है-‘‘पुरजवान होती इक्कीसवीं सदी के हिन्दुस्तानी सियासतदां अपने ही
इतिहास से सबक क्यों नहीं लेते? वे कबतक नफरत के भोथरे तर्कों को नया
जामा पहनाते रहेंगे? वे कबतक हमारे शान्ति पसन्द समाज को बाँटने की कोशिश
करते रहेंगे? वे हम पर तरस क्यों नहीं खाते? हम हिन्दुस्तानी हैं, सिर्फ
वोट बैंक नहीं।’’

ऐसे कुतूहल शशि शेखर जी जैसों के लिए सेहतमंद नहीं है। आप किस पर तरस
खाने की बात कर रहे हैं? भारतीय जनता के ऊपर जो चुनावों में हर एजेण्डे,
साँठ-गाँठ, जोड़-तोड़, जाति-धर्म, संस्था-समुदाय, भाषा-तहजीब इत्यादि से
ऊपर उठकर(तमाम षड़यंत्रों अथवा कुचक्रों के अस्तित्वमान होते हुए भी) अपना
निर्णय सुनाती आई है; जिसने भाजपा के ‘इंडिया शाइंनिग’ से लेकर बसपा के
‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ तक को अप्रत्याशित पटखनी दी है? उस कांग्रेस
को ठेंगा दिखाया है जिसके मीडिया-युवराज राहुल गाँधी पर पार्टी की ओर से
लाख एतबार-पेशगी के बावजूद जनता की दिलचस्पी लेशमात्र नहीं है।(वैसे
कांग्रेस में उनसे बेहतर कई युवा राजनीतिज्ञ हैं) तभी तो, आप इस बात का
जिक्र करना नहीं भूलते हैं-‘‘राहुल गाँधी ने पिछले अप्रैल में जब सीआईआई
को सम्बोधित किया, तो एक वर्ग(पंक्तिलेखक युवा लिखना भूल गए) ने सोशल
मीडिया पर उन्हें ‘पप्पू’ की उपाधि से नवाज दिया।’’

अतः उपर्युक्त उदाहरणों से ज़ाहिर है कि भारतीय आबादी ‘मुर्दों का टीला’
नहीं है, लिहाजा चुनावी मौके पर हमें भी मरघटिए का टंट-घंट नहीं छानना
चाहिए। यह ख़्याल रखा जाना आवश्यक है कि हमारे किए-धरे, कहे-सुने पर आज भी
जनता सबसे अधिक विश्वास करती है, अपनी आत्मा में सच के ज़िन्दा होने का
ढ़िढोरा पिटती है। इसलिए हमारे लिखे का वैचारिक-अर्थ निकसे न कि
वैचारिक-अर्थी; ऐसी निगाहबानी जरूरी है।

और जहाँ तक नरेन्द्र मोदी का सवाल है, तो उनका व्यक्तित्व निश्चित ही
नेतृत्व-सम्पन्न है। उनके उवाच में प्रभाव का रंग है। राजनीति की उनकी
समझ(चालाकियाँ) इतनी साफ/निखरी हुई है कि वे जर्रे-जर्रे का इस्तेमाल
अपने पक्ष, हित अथवा वोट-बैंक भुनाने के लिए कर सकते हैं।(यह मान लेना भी
अतिरेक से भरा और भ्रामक है) बकौल शशि शेखर-‘‘बड़े जतन से
उन्होंने(नरेन्द्र मोदी) खुद को इस लायक बनाया है कि उनकी प्रसिद्धि
गुजरात और देश की सीमाओं से लांघकर समूची धरती पर फैलने लगे। लोग उन्हें
पसन्द करें या नापसन्द, पर राजनीति के जंगल में उन्होंने अपनी जगह बनाने
में कामयाबी हासिल कर ली है।’’

यहाँ भी शशि शेखर जी को याद रखना चाहिए कि भारतीय राजनीति जंगल नहीं है।
अगर जंगल-राज होता, तो आप पिछले वर्ष यूपी में बेहद रचनात्मक ढंग से
चुनावी-तैयारी, अभियान, जनमुहिम, संघर्ष या व्यावहारिक परिवर्तन(चुनाव
ख़त्म अब काम शुरू) इत्यादि का ‘अपना मोर्चा’ नहीं ठानते; इस ज़मीन में खुद
को नहीं गोड़ते; आप वह सब नहीं करते जिससे भारतीय लोकतंत्र की गरिमा
‘पुनर्नवा’ होती है।

शशि शेखर जी की सलाहियत दुरुस्त है। हमें अपने चुनावों को महाभारत बनने
से रोकना होगा। इससे ईश्वरवाद और भाग्यवाद के कुकुरमुते पनपते हैं। इससे
हमारा नागरिकपना ख़त्म होता है। हम यूटोपिया-चिन्तन में दाखिल अवश्य होते
हैं, लेकिन उसे साकार करने का औजार भूल गए होते हैं। मेरी समझ से, अतीत
की बात पर श्रद्धा ठीक है। परन्तु उसका बेवजह इस्तेमाल ख़तरनाक है। हमें
चुनावों में अपने विवेक-कौशल, बुद्धि-व्यवहार, दृष्टि-चेतना इत्यादि के
सहारे चुनावी लड़ाई लड़नी चाहिए जिसका हिमायती खुद आप भी हैं। हमें उन बौने
युवा राजनीतिज्ञों(वंशवाद के उत्तराधिकारी) को राजनीतिक-पास देने से बचना
चाहिए जिनसे जनता को रू-ब-रू कराने का जिम्मा कई बार समाचारपत्रों के ऊपर
भी लाद दिया जा सकता है।

अतएव, हमें चुनावी सरगर्मियों का आकलन-विश्लेषण करते समय भारतीय नागरिकों
की ओर से सहृदयता बरतने की हरसम्भव कोशिश करनी चाहिए; ताकि हमारे ये
प्रयत्न तमाम भूलों के बावजूद भारतीय चिन्तन, विचार, दृष्टि, परम्परा,
तहज़ीब, उसूल इत्यादि को दृढ़ सम्बल प्रदान कर सके; भाग्य की लेखी कहे जाने
वाले पाखण्ड का नाश कर सके...और हम बढ़ सके लोकतंत्र के जनपथ पर अपनी
भारतीय जीवन-राग एवं जीवन-मूल्यों को गाते-गुनगुनाते हुए; ‘वीर तुम बढ़े
चलो, धीर तुम बढ़े चलों की टेक पर। आमीन!

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Wednesday, July 17, 2013

O! Bastard, I'm Dancing Again


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उसके अधरों से फूटे बोल
और वह.....,
चुप आत्मा, मनहूस
आत्महीन, कलपजीवी
गाने लगी अचानक

जैसे बाँस में खिले फूल
और वह....,
बहिष्कृत, शोषित
दुखिहारी, रुदाली
बजाने लगी पैजनियाँ

उसका आज न बर्थ डे है
न फ्रेण्डशिप डे
न वुमेन्स डे
न ह््युमन राइट्स डे
वह गा रही है गीत
नृन्य कर रही है पैजनियाँ
नहला रही है अपने भीतर की पार्वती को
गूँथ रही है गजरा बालों में
लगा रही है मेंहदी हाथों में
बना रही है रंगोली दरवाजे पर

टेलीविजन, अख़बार....जनमाध्यम
जो कभी नहीं रहे शुभचिन्तक
आज ढार रहे हैं उनके लिए ख़बर
उलीच रहे हैं तर्क
परोस रहे हैं भाषा
चमका रहे हैं चेहरा(खाया, पिया, अघाया)

कुल जमा निष्कर्ष
‘महाराष्ट्र में फिर खुलेंगे डांस बार’।

Tuesday, July 16, 2013

दुनिया का हर घटित हमारे मनःजीवन के दायरे में है...!



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(शोधपत्र निष्कर्ष)

यह स्वयंसिद्ध तथ्य है कि यदि प्रत्येक व्यक्ति
आसमान देख सकता है, तो आसमान भी प्रत्येक
व्यक्ति को देख सकता है....! घट-घट व्याप्त राम की
तर्ज़ पर.....! या कण-कण, क्षण-क्षण विराजे शिव की आध्यात्मिक भावना को समो कर....!

यहाँ आसमान से आशय उस
समष्टि-चेतना से है जिसके पास चेतन मन असंख्य है,
चिन्तनशील, क्रियाशील आत्मा अनगिनत हंै,
व्यावहारमूलक व्यक्तित्वों के बारे में क्या कहना उनके आपसी समूहन ने सोशल नेटवर्किंग
के रूप में जो करिश्मा कर दिखाया है उससे हम-आप सभी परिचित हैं।
जैसे सर्च इंजन के माध्यम से इन्टरनेट
पर देय सामग्री कोई भी कहीं भी देख सकता है। एक क्लिक में
जिस तरह आॅनलाइन विडियो से लिंकअप हुआ जा सकता है, अपने परिचिति-परिजनों
से साक्षात्कार किया जा सकता है। वैसे ही दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति
‘फ्रैक्शन इन सैकण्ड’(नैनो सेकेण्ड) की सुपरजेट गति में अपने को वहाँ प्रकट कर सकता है
जहाँ उसका चेतस(प्रेरित/परीक्षित) मन जाना या पहुँचना चाहता है।

आसान-सी बात है। आपकी आवाज सैकड़ों-हजारों मिल दूर कैसे चली जाती है
इतनी जल्दी? कैसे आप ‘विडियो विजुअल्स’ देख लेते है...चटपट इतनी आसानी से?
जब इतना कुछ अपनी नज़रों से सत्य प्रकाशित होते देख रहे हैं...
और हमको चक्कर नहीं आ रहे....मतलब हम सहज विश्वास करने लगे हैं, चाहे यह
विज्ञान के लिहाफ में ही क्यों न हो तो फिर हमें इस नवीन संकल्पना से जुड़े
नए खोज, नवीन अनुसन्धान का अवश्य स्वागत करना चाहिए।
आज भले इसकी संगति करना थोड़ा अटपटा लग रहा है। लेकिन
कल देखिएगा, हमारा कोई परिजन/परिचित बीमार होगा और हम
वहाँ सशरीर उपस्थित न होकर भी उन्हें सांत्वना दे रहे होंगे,
डाॅक्टर से सिमटम-डिस्कस कर रहे होंगे।
इर्द-गिर्द की गतिविधियों/हलचलों, शहर के वातावरण से अवगत हो रहे होंगे।

यही नहीं हमारा सांसद संसदीय-सत्रों के दौरान संसद में बैठकर कैसी भागीदारी कर रहा है, अपना मित्र देर रात जगकर किस विषय पर प्रोजेक्ट तैयार कर रहा है,
हमारी गर्लफ्रेण्ड मोबाइल पर बात करने के बाद अपनी रूममेट को
हमारे बारे में क्या कुछ बता रही है....यह सब आसानी से देखा-सुना-महसूसा
जा सकता हैं। यह अत्याधुनिक तकनीक गूगल-मैप पर अपना गाँव-ज्वार,
घर-द्वार पाकर खुश-प्रसन्न होने से आगे की कड़ी है
जिसमें दुनिया का प्रत्येक कण प्रकाशित है, तरंगित है....उस तक
हम कभी भी किसी समय पहुँच सकते हैं।

दरअसल, यह वायवीय निगरानी है। स्वाभाविक। प्रकृति सापेक्ष।
निर्वात में प्रकाश की की गति है। माध्यम में ध्वनि की पहुँच है।
तो मन तो इन सबसे शक्तिशाली है....फिर वह पलक झपकते दिल्ली से दौलताबाद
क्यों नहीं पहुँच सकता है। हम आश्चर्य कर सकते हैं, लेकिन यह सत्य है।
कोई भी यंत्र/मशीन अपना काम सुचारू ढंग से करे, तो अपेक्षित परिणाम मिलते ही
मिलते हैं। आज मन को साधने, उसकी सूक्ष्म स्फूरण को पकड़ने की तकनीक विकसित कर ली गई है। परखनली शिशु, सरोगेट मदर, क्लेनिंग के बारे में एक समय
सोच पाना भी संभव नहीं था....आज ये अफसाने नहीं हकीकत हैं।

आज जब मन के संप्रत्ययों को विभिन्न ज्ञान-मीमांसा से जुड़े विशेषज्ञों
यथा-मनोविज्ञानियों, संचारविज्ञानियों, समाजविज्ञानियों, मनोभाषाविज्ञानियों, जैवविज्ञानियों, नुविज्ञानियों इत्यादि ने अबूझ मानना छोड़ दिया है, तो हमें भी इसके पराक्रम से परिचय करना
चाहिए। यदि विश्वमानव की अवधारणा है तो निश्चित जानिए कि
हम-सबका मन विश्वमन है। हम पूरे विश्व को अपने मन के
आन्तरिक-बाह््य प्रभाव से हर क्षण देख सकते हैं,
अनसुनी आवाज़ों को सुन सकते हैं, उनतक आसानी से
पहुँच बना सकते हैं।

यदि अमेरिका हमारी निगरानी कर सकता है तो हम भी
अपने मनःशक्ति के प्रभाव से यह जान सकते हैं कि
अमेरिका का राष्ट्रपति भारत के बारे में क्या फैसला लेने के बारे में सोच रहा है, विचार-विमर्श कर रहा है। गुप्त सूचना, गोपनियता और वर्चस्वपूर्ण जासूसी का एकाधिकार
जिस संयुक्त राज्य अमेरिका के पास आज है उस प्रभाव-घेरे को तोड़ने के लिए
मनःजीवन की ऊर्जस्वी-तेजस्वी ताकत ही मुख्य रूप से काम आ सकती है।

आइए, इस बाह्मण्ड में अपनी लौकिक उपस्थिति को मजबूती से दर्ज करें। संकल्प-शक्ति के बूते अपने मनःजीवन को और पारदर्शी, क्रियाशील और विश्व-हृदय के सापेक्ष संवेदनशील और विवेकी बनाए। आमीन!!!

धूपगाड़ी


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आओ बाबू
बैठो साथ

निकालो अपना
अंजुरी-हाथ

बिन सीढ़ी
उतरी धूप

आजू-बाजू
पसरी धूप

गहन अन्धेरा
बिल्कुल चुप

सब जागे
जब चमकी धूप

Monday, July 15, 2013

मन...राग


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बहुत हुई भाषा में बातें
अब...नहीं कोई बात कहूंगा
गले मिलूंगा, गले पडूंगा

छोडूंगा चर्चा, बातूनी बहसें
अब....नहीं कोई प्रचार करूंगा
गले मिलूंगा, गले पड़ूंगा

बहुत चलाया शब्द-धनुष को
अब...नहीं कोई वाक्य गढूंगा
गले मिलूंगा, गले पड़ूंगा

यह समय है स्वांग-धरण का
अब...नहीं कोई पाँत बैठूंगा
गले मिलूंगा, गले पड़ूंगा

जो होना-जाना तय था, सीखा
अब नहीं कोई राग रटूंगा
गले मिलूंगा, गले पड़ूंगा

‘करो या मरो’ दो ही पथ हैं
बस इस पथ का नेह धरूंगा
गले मिलूंगा, गले पड़ूंगा

इस सबक के कई हैं साथी
उनसे सीधा संवाद जोडंूगा
गले मिलूंगा, गले पड़ूंगा।

Sunday, July 14, 2013

इस मौत को क्या नाम दें....?


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हमारा रूख कई मसलों पर चलताऊ किस्म का होता है। चाहे वह कितना ही गम्भीर क्यों न हों? हम जबतक खुद किसी दुर्घटना या समस्या का शिकार नहीं हो जाते; बुरी तरह उसकी चपेट में नहीं आ जाते; तबतक हमें अपनी ज़िदगी की खुशमिज़ाज रंगीनियाँ ही एकमात्र सचाई मालूम देती है-‘‘ये इश्क़-खुमारी तुमतक...तुमतक, ये सब तैयारी तुमतक...तुमतक’।

आपमें से कितने हैं जो जानते हैं पोस्ट ट्राॅमेटिक स्ट्रेस डिसआॅर्डर(पीटीएसडी) के बारे में। नहीं जानते हैं, तो जानिए ज़नाब!

यह दिमागी महामारी है। तनाव-अवसाद का ऐसा चरम रूप जो हाल के दिनों में युद्ध, हिंसा, अपराध, हत्या, अशांति इत्यादि के साए में जी रहे लोगों को तेजी से लील रहा है। यह तनाव, अवसाद, कुण्ठा, विफलता आदि के लक्षण के साथ हमारी ज़िदगी में सबसे पहले शामिल होता है....फिर आत्महत्या की परिणति के रूप में इंसान की इहलीला ख़त्म करके ही मानता है।

यह मनोविकार/स्नायुविकार है। परिवेश/परिस्थिति की प्रतिकूलताओं के साथ जब हमारा देह-दिमाग सन्तुलन नहीं बिठा पाता है, तो पीटीएसडी का उभार हमारे भीतर दिखने लगता है। हम अंतर्मुखी होते चले जाते हैं। जरूरी चीजों से अरुचि होने लगती है। बार-बार अतीत को टटोलते हैं। भयावह/भयानक सपने देखकर डरते हैं, बेवजह भयभीत होते हैं। इस स्थिति में चैन की साँस कैसे ली जाए, जब कई-कई दिनों तक नींद ही नहीं आते आँखों को।

एरिक फ्राम ने जोर देकर कहा था कि स्नायुविकारों की उत्त्पति सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों से होती है। आज हमारा सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण अत्यधिक डरावना हो चला है। हिंसा-प्रतिहिंसा के खेल ने हत्या और मौत को हमारे लिए रसभूमि(वैटिल फिल्ड) बना दिया है। विषम परिस्थितियों ने इसे ख़ासोआम के साथ ऐसे नत्थी कर दिया है जैसे यह हमारी नियति का अभिन्न हिस्सा हो। अतः भारत में जम्मू-काश्मीर का युद्धक्षेत्र हो, नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्र हो; गैंगवार का इलाका हो.....आज लोगों में असुरक्षा की भावना बुरी तरह व्याप्त है। वे किसी न किसी मनोरोग या फिर पीटीएसडी से पीड़ित हैं। बचाव के लिए लोग नशीली दवाओं का सेवन कर रहे हैं। ग़लत राह चुन रहे हैं। कई बार आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध को भी अंजाम दे रहे हैं।

यह स्थिति हमारे द्वारा उपार्जित है। हमने विज्ञान, तकनीक, यंत्र, मशीन, पूँजी, साम्राज्य, वर्चस्व, प्रभुत्त्व आदि की जो अंतहीन लड़ाई शुरू की है। यह उसी का मिश्रधन है। ज़िदगी गणित नहीं होती। लेकिन आजकल हम ज़िदगी में गणित के फार्मूले ही बेहिसाब आजमा रहे हैं। दुनिया भर में बाज़ार की खोज/कब्जे के लिए अनचाहे/अनावश्यक ढंग से युद्ध लड़ रहे हैं। बदले में हम स्वयं ऐसी घातक/लाइलाज बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं जो हमारे जीवन की बुनियादी ताकत ही ख़त्म कर दे रही है। और हम विजेता होकर भी ज़िदगी का दाँव हार जा रहे हैं। ब्रिटेन में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक अफगाानिस्तान और तालिबान में जितने सैनिक युद्ध के दरम्यान मारे गए...उससे अधिक वहाँ से बचकर लौटे सैनिक आत्महत्या कर मर गए। मुख्य वजह, पीटीएसडी जैसी संहारक बीमारी।

क्या इस विषय पर हम गम्भीरता से विचार करेंगे? अपने देश के दिन-ब-दिन ख़राब होते जा रहे माहौल को समय रहते दुरुस्त करने के बारे में कुछ बेहतर सोचेंगे?

आशा है, इस मसले पर आपसब बहसतलब नज़रिए से विचार-विमर्श एवं संवाद करेंगे।

Saturday, July 13, 2013

कायाकल्प


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उसे कोई नहीं देख रहा होता है, तब भी उसे लगता है कि कोई उसे देख रहा है, घूर रहा है, बेवजह छू रहा है या छूने की कोशिश कर रहा है।

इस भय का कोई निश्चित कारण नहीं होता, लेकिन वह भयभीत रहती है...या रहने के लिए अभिशप्त है।

14 साल की उस लड़की का नाम उसके पिता ने कीर्ति रखा है। इसके अलावे उसका पिता उसके लिए फूटी कौड़ी न रखा है। जबकि आजकल बेटा-बेटी जन्मते ही स्मार्ट फादर्स-मदर्स लाखों रुपए का बीमा चटपट करा डालते हैं अपने बच्चों के लिए।

खैर! खूब शराब पीने की लत में कीर्ति का पिता तब मर गया या कहें मार दिया गया जब वह छह साल की थी। पिता के मरने के बाद घर का कबाड़ हो गया। ज़मीन दबंगई की भेंट चढ़ गई। विधायक के बेटे ने वहाँ शो-रुम खोल दिया। वहाँ कपड़े बिकते हैं। लेकिन वे सोने की कनबालियों या छूछियाँ से ज्यादा महंगे होते हैं। कीर्ति अपने ही ज़मीन पर खड़े मकान के दूकान से खरीदारी नहीं कर सकती है। यह बाज़ार उसकी ज़मीन पर है। लेकिन उसे बाज़ार के भाव ने बेदखल कर दिया है।

देश में सुप्रीम कोर्ट है। कीर्ति यह नहीं जानती है।

पढ़ने का अधिकार है। कीर्ति नहीं जानती है।

गरीबों के लिए मर मिटने का दावा करने वाली सरकार है। कीर्ति को नहीं पता है।

देश में लेखक हैं, साहित्यकार हैं, बुद्धिजीवी हैं जो उस जैसों के लिए हर रोज शब्द लिख रहे हैं, नवलखा(वैचारिक) बोली बोल रहे हैं, जुबानी चोंच लड़ा रहे हैं, शोध-परिशोध कर रहे हैं। कीर्ति को यह सब नहीं पता है।

कीर्ति जिसे अब सब कूतिया बोलाते हैं क्योंकि वह किसी से ज़बान लड़ा देती है, एक बूँद नहीं डरती है, तमाचा मारने वाले के मुँह पर थूक देती है। भगवान को ठेंगा समझती है।

पूजा में उसका जी नहीं लगता है। वह दिनभर अपनी माँ के साथ भड़सार में दाना भूँजती है। वह दाने-दाने को भगवान मानती है। किसी रोज पेट में अनाज का दाना नहीं जाता है, तो उसकी अंतड़ियाँ ऐंठने लगती है। सोचती है, पत्थर पूजने से ज्यादा जरूरी है पेट पूजा करना।

फुर्सत में रहे तब भी कीर्ति टेलीविज़न नहीं देखती है। बगल के ढाबेनुमा होटल में टीवी है। माँ उसे मना नहीं करती है। वह कीर्ति से कहती है कि टीवी देखने से मन बहल जाता है। जी आन-मान हो जाता है। कीर्ति माँ की बात पर कान नहीं देती है।

कीर्ति खुद कहानी है। वह दूसरों की मनगढ़त कहानी पर क्या आँख-कान दे।

वह तो उन लड़कियों को भी पलटकर नहीं देखती है जो उसी के उम्र की है। लेकिन वेशभूषा में उस जैसी नहीं हैं। फरार्टेदार अंगेजी बोलती हैं। ‘थैंक्स’, ‘वेलकम’, ‘वाऊ’, ‘शिट’ जैसे बात-बात में शब्द बोलती है। ये लड़कियाँ जिस घराने से हैं वहाँ लव-सब धुँआधार चलता है। जवानी दिवानी होती है। मामला घनचक्कर होता है। अमीर लाडले फुकरे की फूँक मारते हैं।

अभी-अभी उसके भड़सार में एक लड़की आई है। उसने अपना नाम आयशा बताया है। वह कीर्ति से बात करना चाहती है। कीर्ति भड़सार में आग बोझने का काम कर रही है। कीर्ति को पता है कि यह लड़की पास की काॅलोनी में रहती है। वह काॅलोनी बड़े-बड़े पार्कों वाला है। वहाँ कार रखे जाते हैं। उसमें तल्ले पर तल्ला वाला कतारबद्ध मकान है। वहाँ सबको जाना मना है। कीर्ति वहाँ से दूध का पैकेट लाने कई बार गई है। पिछले दिनों उसका भाई बीमार था, तो वह हफ्ते भर लगातार आती-जाती रही थी।

कीर्ति अंधी नहीं है। वह कानी, गूंगी, बहरी नहीं है। वह दुनिया के सभी रंग देख रही है। वह सभी रंगों का नाम भी जान रही है। लेकिन उन रंगों में उसका अपने कलेजे का रंग नहीं है। उसकी माँ का असमय बटलोही बना चेहरा नहीं है। दुःख-तकलीफ, ज़िल्लत-ज़लालत से सना उसका खुद का रंग-रूप नहीं है।

कीर्ति को क्या कोई आईएएस बना सकता है? कीर्ति से क्या कोई ऐसा लड़का ब्याह रचा सकता है जिससे कि उसके और उसकी माँ की जिन्दगी सँवर जाए? क्या कोई उदारमना उसके लिए ऐसा कुछ उपाय कर सकता है जिससे उसकी ज़िन्दगी जो इस कदर बेपटरी है, वह पटरी पर आ जाए? क्या ऐसा कोई आसरा है जो यह विश्वास दिला सके कि गरीब के घर पैदा भले हुई है...लेकिन उसे अमीर लाडली बनाने वाले सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों हाथ हैं, हमदर्द साथी हैं, शुभचिन्तक समाज है?

नहीं....नहीं.....नहीं.....!!!

हाँ, अगर आप लेखक-साहित्यकार हैं, तो कीर्ति के इस नारकीय ज़िन्दगी पर एक धांसू कहानी लिख सकते हैं और सेटिंग-गेटिंग ठीक रही तो लोकप्रिय सम्मान पा सकते हैं।

हाँ, अगर आप विशेषज्ञ-आलोचक हैं, तो कीर्ति का उदाहरण सामने रख ‘जीने का अधिकार’, ‘खाने का अधिकार’, ‘पढ़ने का अधिकार’ इत्यादि शीर्षकों से चोखा आलेख लिख और चर्चा अवश्य बटोर सकते हैं।

हाँ, अगर आप समाजसेवी या सामाजिक कार्यकत्र्ता हैं तो जंतर-मंतर पर आमरण अनशन कर लोगों की नज़र में चढ़ सकते हैं, देश का दूसरा-तीसरा-चैथा गाँधी बन सकते हैं।(पहले की कद्र अब बची नहीं सो अन्यों की तलाश हिन्दुस्तान को बेसब्री से है)

आज देश की अटारी पर चढ़कर बांग देने वाल हम-आप जैसे तीसमारखाँओं की कमी नहीं है........लेकिन हमारे इन कौआनहान हरकतों से कीर्ति या कीर्ति की माँ जैसे अनगिनत लोगों का क्या और कितना उद्धार हो रहा है....इसपर रजीबा को शोध अवश्य करना चाहिए।(राहुल गाँधी, अखिलेश यादव जैसों पर शोध करने से ठेंगा न होगा कुछ)

युवा राजनीति में आधी आबादी


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कुकुरमुते जमात में उगते-पनपते हैं। लेकिन, स्त्रियाँ कुकुरमुते की जात नहीं होती।

एक के बाद दूसरी लड़की हुई नहीं कि आदमी के भीतर का अदहन खौलने लगता है। इस अनचाही ताप से समाज का पितृसत्तात्मक चेहरा झुलस जाता है। कोहराम की भाषा में चर्चा के सोते फूट पड़ते हैं। लूटी किस्मत का हवाला दे कर उन नवजात लड़कियों को हीक भर कोसा जाने लगता है जिन्हें सयाने होने तक अनगिनत दुश्वारियाँ झेलनी होती है। राहचलते मजनूओं से निपटना होता है। शोहदों की सीटी की आवाज़ और भद्दे कहकहे सुन चुप्पी में सँवरना होता है। अनचाही आँख जब उनके देह को छूकर निकलती है, तो तन-मन पर क्या कुछ गुजरता है; यह वे क्या जाने जो सिर्फ यह गाना गाना जानते हैं-‘‘लड़की है या छड़ी है, शोला है, फुलझड़ी है....440 वोल्ट है...छूना है मना।’’

ऐसे कठिन परिवेश में पल-बढ़ कर युवा हुई लड़कियाँ भारतीय संसद/राज्य विधानसभाओं में कितनी मात्रा में उपस्थित हैं? अन्दाजिए जनाब! शरमाइए मत, गिनिए। यह सचाई है कि वर्तमान राजनीति आज भी लड़कों की बपौती है। राजनीतिक आकागण अपने बेटों को ही अपना सत्ताधिकारी घोषित करते हैं। उनके गुणगान-बखान में रैली-रेला ठेलमठेल करते हैं। और लड़कियाँ...? उनके लिए राजनीति में आने का रास्ता बंद रखा जाता है। ऐसा नहीं है। बल्कि इस दिशा में उन्हें सोचने ही नहीं दिया जाता है। हाँ, जिन प्रतापी राजनीतिज्ञों के लड़के नहीं होते....वे अपने बेटियों को ‘प्रमोट/प्रोजेक्ट‘ अवश्य करते हैं। यह उदारीपन नहीं है...यह काइयाँगिरी है जिसमें उनका लक्ष्यार्थ अपने राजनीतिक वंशावली के 'डीएनए' को हर हाल में बचाकर रखना होता है। यह कुटनीतिक चाल है जिसमें लड़कियों को राजनीति ‘लाइफलाइन एलीमेंट’ की तरह आजमाया करती है।

बने रहिए आप रजीबा के साथ....जल्द ही आप पढ़ेगें भारतीय राजनीति में शामिल आधी आबादी का सच, हाल-ए-हक़ीकत, मुकम्मल तफ़्तीश और पड़ताल....जो भारतीय राजनीति में आधी आबादी के उपस्थित होने या न होने सम्बन्धी ‘पाॅलिटिकल मोनोपाॅली’ का बखान/बयान करती है।

रजीबा की पाती

प्रिय देव-दीप,

कैसे हो आपदोनों? बिटना का जन्मदिन है 25 जुलाई को। याद है। मैं भूला नहीं हँू तारीख़। राजा बाबा आपका जन्मदिन भी याद था, 27 अप्रैल। आप ही नहीं थे मेरे पास। खैर! इस बार आपदोनों का जन्मदिन साथ-साथ मनाऊँगा। संयुक्त रूप से।

देव-दीप, आपदोनों के पिता होने का सुख मैं काट रहा हूँ। जबकि आपदोनों बेरोजगार पिता के बेटे होने का दंश झेल रहे हैं। इन हालातों का जवाबदेह मैं खुद हूँ। मेरा निकम्मापन जिसपर मुझे लाड़ आता है अक्सर....आपदोनों के लिए करता-धरता कुछ नहीं है। हाँ, बतकही-बकबकी में अव्वल अवश्य है। यह सब वैसे समय में जब प्रतिभावानों का झुण्ड मेरे आगे-पीछे दौड़ लगाता दिख रहा है; मैं अपने फिसड्डीपन का पीठ थपथपाने में अलमस्त हूँ।

देव-दीप, शोध जैसे महत्त्वपूर्ण काम के लिए मेरी पात्रता न के बराबर थी। मेरे गाइड ने हौसला आफजाई की, तो मेरा उत्साह कपार पर और सोच फुनगी पर चढ़ गया। मुझे खुद से ताज्जुब था कि जो लड़का ठीक से अपनी बबरी तक नहीं सँवार सकता है, सलीकेदार कपड़े(मुफ्ती, लिवाइस, काॅटन्स, फ्लाइंग मशीन....ब्रान्डेड) तक नहीं पहन सकता है....वह अपने गुणवान/प्रतिभावान मित्रों के संगत में रहकर इतनी जल्दी क्या कुछ सीख लेगा? खैर! आपदोनों अपनी उम्र के साथ बड़े होते चले गए और मैं जूनियर शोधार्थी से सीनियर शोधार्थी बनता चला गया। आज इस शोध में आए मुझे चार साल हो गए हैं...तब भी लगता है कि अगले साल के अंत से पहले शायद ही कुछ ठीक-ठाक(काॅपी-पेस्ट कतई नहीं)जमा कर पाऊँ?

देव-दीप, जहाँ मैं पढ़ता हूँ मेरे इर्द-गिर्द संवेदना, ज्ञान, भाषा, शिल्प, कला इत्यादि की गंगोत्री बहती है। इस गंगोत्री में दर्शन-चिन्तन की बड़ी-बड़ी मछलियाँ तैरती हैं। मेरे कई मित्रों की उठकी-बैठकी और हर-हर गंगे उस गंगोत्री के साथ जबर्दस्त है। वे उसमें चैबीसों घंटे पँवरते हैं, लेकिन डूबते कतई नहीं। इस गंगोत्री में कई सिद्ध साधक हैं जो खुद को दुनिया भर के मुद्दों का जानकार और अन्तरराष्ट्रीय प्रवक्ता कहते हैं। उनके आगे पीएम, सीएम, डीएम सब के सब पानी भरते हैं। वे सीधे सबसे बात कर लें...जुबान की मजाल नहीं। लेकिन वे मंच से तूफानी बोलते हैं। वजनदार ताली पिटवाते हैं। मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई पढ़ी है। अतः मैं उनकी बातों को प्रायः पन्ने पर नोट-नाटकर उनकी नाक की नापजोख करता हूँ, अलोता में....अकेले में। और खुद से हिसाब-किताब करता हूँ कि क्या वे वाकई बहुत ज्ञानी हैं। प्रकाण्ड हैं। जिनके आगे सब सुननहारों की आँखें चुंधिया जाती है।

देव-दीप, ज्ञान बाँटने से बढ़ता है; यह बचपन की सीख है। विश्वविद्यालयों में तो ज्ञान मौके पर बोलने से ही बढ़ा मालूम देता है। कौन संवेदनशील है, मानवीय है, अद्भुत है, बेमिशाल है, सर्वहारा का साथी है, हाशिए की आवाज़ है...यह सब किसी को देखकर या उनके हाव-भाव, व्यक्तित्व-व्यवहार का सीधे मोल-तोल-परख कर नहीं जाना जा सकता है। इसके लिए मुझ जैसे की मोटी बुद्धि धोखा दे जाती है। सूक्ष्म दिमाग और तीक्ष्ण दृष्टि का जुगाड़-सुगाड़ हो तभी यह पहचान हो पावेगा। अब मैं यह पउवा कहाँ से लाऊँ। साथी कहते हैं, हीनताबोध खराब चीज है। संगत-पंगत में रहने से जो नहीं है, उस पर भी हक ज़माने का अधिकार मिल जाता है। उनका तर्क है कि यदि आपको पगुराना सीखना है, तो जानवरों के साथ गलबहियाँ तो करना ही पड़ेगा न! ठीक उसी तरह ज्ञानवान, महान या सम्मानित बनने के लिए ज्ञानियों के साथ धुनि तो रमाना ही पड़ेगा।

यदि यह सब नहीं कर सकते, तो आपके लिए टका-सा रेडिमेड जवाब रखा है-‘जाइए अपना हाथ जगन्नाथ कीजिए।’

....और मैं वर्षों से यही करता आ रहा हूँ।

तुम्हारा पिता

Friday, July 12, 2013

चला गया.....जो कहता था यारी है यार मेरी....यार मेरी ज़िन्दगी


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बरखुरदार! प्राण नहीं रहे।

नहीं रहा वह चरित्र अभिनेता जिसने सिनेमा के परदे को डायलाॅग बोलने की तमीज़ और अक़्लमंदी दी। भाषा के परिधान में लिपटी आपकी ज़ुबान बोलते ही कैसे पहचान ली जाती है....यह प्राण की संवाद अदायगी से जाना जा सकता है। प्राण साहब! का गेटअप, मेकअप, चाल-ढाल, उठने-बैठने और चहलकदमी के तौर-तरीके सब लाजवाब थे। नकल नहीं। दुहराव नहीं। बनावटीपन का किनारा या झोल नहीं।

उनके मन ने शौक पाला था फोटोग्राफरी का। बने फिल्म के चरित्र अभिनेता। धाकड़ खलनायक। बेजोड़ अदाकार। 1949 में ‘जिद्दी’ और ‘बड़ी बहन’ फिल्मों में उनकी भूमिका खलनायकी की जमी। सराही गई। 1956 में मीना कुमारी के साथ ‘हलाकू’ फिल्म में हलाकू डाकू की भूमिका से छा गए। फिर दिखें प्राण साहब फ़िल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में राका डाकू के रूप में। शम्मी कपूर की लगभग सभी फिल्मों में वे नकारात्मक भूमिका में रहे और लोगों के मन में पैठते चले गये। ‘उपकार’ फिल्म ने उनकी भूमिका का ‘फ्लेवर’ बदल दिया। इस फिल्म में प्राण साहब! ने मलंग बाबा की यादगार और अद्भुत चरित्र-अभिनेता की भूमिका अदा की। 1967 में आई इस फिल्म का गाना पूरे देश में लोकप्रिय रहा जो आज भी बड़े शान से ट्युन होता है-‘कस्में वादें प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या...!’

प्राण साहब! ने अमिताभ बच्चन के साथ ग़जब की जोड़ीदारी निभाई फिल्म ‘जंजीर’ में। शेरखान के चरित्र को उन्होंने निभाया क्या जिया मनगर। वे उसमें जब दिल से डूबकर गाते हैं तो फ़िल्मी परदे का सीना चैड़ा हो जाता है-‘‘यारी है यार मेरी...यार मेरी ज़िन्दगी’। अमिताभ बच्चन को तो फिर प्राण साहब! को साथ रखने की लत लग गई। जंजीर के बाद ‘डाॅन’, ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘शराबी’....एक के बाद एक बनती गई, फिल्मी परदे पर टंगती गई...और प्राण साहब! सबमें सप्राण अपनी अदाकारी का लाजवाब करतब दिखाते चले गए।

1940 में आई मोहम्द अली की पंजाबी फिल्म ‘यमला जाट’ से अपनी फिल्मी कैरियर शुरू करने वाले प्राण साहब! ने आज जब अंतिम सांस ली है तो उनके फिल्मी यात्रा में शामिल फिल्मों की संख्या करीब चार सौ हो चुकी है। इस घड़ी जब पूरे देश में उन्हें श्रद्धाजंली देने की रवायत चल रही है, मेरा आपको उनकी फिल्मों का नाम गिनाना नागवार गुजर सकता है। अतः मैं यह कहूँ कि प्राण साहब ने ‘छलिया’, ‘काश्मीर की कली’, ‘दो बदन’,:जाॅनी मेरा नाम’, ‘गुड्डी’, ‘परिचय’, ‘विक्टोरिया नं. 203’, ‘बाॅबी’, ‘नौकर बीवी का’, ‘कर्ज’, ‘नसीब’ जैसी सैकड़ों फिल्में बनाई है.......इससे अच्छा है कि आप उनकी फिल्म ‘धर्मा’ का यह गीत गुनगुनाए....‘राज को राज रहने दो.....,’

मेरी ओर से प्राण कृष्ण सिकन्द को ‘सैल्यूट’ जिसने अपनी अदाकारी से बीते वर्षों में भारतीय सिनेमा की दुनिया में अनगिनत नायकों-महानायकों को शिकस्त दी है....पटखनी खिलायी है...आज वे सभी प्राण साहब! के दुनिया को अलविदा कह जाने पर रो रहे होंगे....बरखुरदार!

आपदा

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आपदा पर गीत लिखा
गाने लगी मुर्गियाँ

आपदा पर लोरी लिखा
सुनाने लगी गाय अपने बच्चे को

आपदा पर कविता लिखी
कुतों ने ठोंक दिया ताल

आपदा पर कहानी लिखी
बकरियाँ भरने लगी हुंकारी

आपदा पर लिखता रहा कुछ न कुछ
सभी जानवर मनाते रहे उत्सव रोज-रोज

लोग कह रहे हैं
ये सभी आपदा में मृत उन जानवरों की आत्माएँ हैं....
जिन्होंने अभी तक आपदा-प्रबंधन करना नहीं सीखा था।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...