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उसे कोई नहीं देख रहा होता है, तब भी उसे लगता है कि कोई उसे देख रहा है, घूर रहा है, बेवजह छू रहा है या छूने की कोशिश कर रहा है।
इस भय का कोई निश्चित कारण नहीं होता, लेकिन वह भयभीत रहती है...या रहने के लिए अभिशप्त है।
14 साल की उस लड़की का नाम उसके पिता ने कीर्ति रखा है। इसके अलावे उसका
पिता उसके लिए फूटी कौड़ी न रखा है। जबकि आजकल बेटा-बेटी जन्मते ही स्मार्ट
फादर्स-मदर्स लाखों रुपए का बीमा चटपट करा डालते हैं अपने बच्चों के लिए।
खैर! खूब शराब पीने की लत में कीर्ति का पिता तब मर गया या कहें मार दिया
गया जब वह छह साल की थी। पिता के मरने के बाद घर का कबाड़ हो गया। ज़मीन
दबंगई की भेंट चढ़ गई। विधायक के बेटे ने वहाँ शो-रुम खोल दिया। वहाँ कपड़े
बिकते हैं। लेकिन वे सोने की कनबालियों या छूछियाँ से ज्यादा महंगे होते
हैं। कीर्ति अपने ही ज़मीन पर खड़े मकान के दूकान से खरीदारी नहीं कर सकती
है। यह बाज़ार उसकी ज़मीन पर है। लेकिन उसे बाज़ार के भाव ने बेदखल कर दिया
है।
देश में सुप्रीम कोर्ट है। कीर्ति यह नहीं जानती है।
पढ़ने का अधिकार है। कीर्ति नहीं जानती है।
गरीबों के लिए मर मिटने का दावा करने वाली सरकार है। कीर्ति को नहीं पता है।
देश में लेखक हैं, साहित्यकार हैं, बुद्धिजीवी हैं जो उस जैसों के लिए हर
रोज शब्द लिख रहे हैं, नवलखा(वैचारिक) बोली बोल रहे हैं, जुबानी चोंच लड़ा
रहे हैं, शोध-परिशोध कर रहे हैं। कीर्ति को यह सब नहीं पता है।
कीर्ति जिसे अब सब कूतिया बोलाते हैं क्योंकि वह किसी से ज़बान लड़ा देती है,
एक बूँद नहीं डरती है, तमाचा मारने वाले के मुँह पर थूक देती है। भगवान को
ठेंगा समझती है।
पूजा में उसका जी नहीं लगता है। वह दिनभर अपनी
माँ के साथ भड़सार में दाना भूँजती है। वह दाने-दाने को भगवान मानती है।
किसी रोज पेट में अनाज का दाना नहीं जाता है, तो उसकी अंतड़ियाँ ऐंठने लगती
है। सोचती है, पत्थर पूजने से ज्यादा जरूरी है पेट पूजा करना।
फुर्सत में रहे तब भी कीर्ति टेलीविज़न नहीं देखती है। बगल के ढाबेनुमा होटल
में टीवी है। माँ उसे मना नहीं करती है। वह कीर्ति से कहती है कि टीवी
देखने से मन बहल जाता है। जी आन-मान हो जाता है। कीर्ति माँ की बात पर कान
नहीं देती है।
कीर्ति खुद कहानी है। वह दूसरों की मनगढ़त कहानी पर क्या आँख-कान दे।
वह तो उन लड़कियों को भी पलटकर नहीं देखती है जो उसी के उम्र की है। लेकिन
वेशभूषा में उस जैसी नहीं हैं। फरार्टेदार अंगेजी बोलती हैं। ‘थैंक्स’,
‘वेलकम’, ‘वाऊ’, ‘शिट’ जैसे बात-बात में शब्द बोलती है। ये लड़कियाँ जिस
घराने से हैं वहाँ लव-सब धुँआधार चलता है। जवानी दिवानी होती है। मामला
घनचक्कर होता है। अमीर लाडले फुकरे की फूँक मारते हैं।
अभी-अभी
उसके भड़सार में एक लड़की आई है। उसने अपना नाम आयशा बताया है। वह कीर्ति से
बात करना चाहती है। कीर्ति भड़सार में आग बोझने का काम कर रही है। कीर्ति को
पता है कि यह लड़की पास की काॅलोनी में रहती है। वह काॅलोनी बड़े-बड़े
पार्कों वाला है। वहाँ कार रखे जाते हैं। उसमें तल्ले पर तल्ला वाला
कतारबद्ध मकान है। वहाँ सबको जाना मना है। कीर्ति वहाँ से दूध का पैकेट
लाने कई बार गई है। पिछले दिनों उसका भाई बीमार था, तो वह हफ्ते भर लगातार
आती-जाती रही थी।
कीर्ति अंधी नहीं है। वह कानी, गूंगी, बहरी नहीं
है। वह दुनिया के सभी रंग देख रही है। वह सभी रंगों का नाम भी जान रही है।
लेकिन उन रंगों में उसका अपने कलेजे का रंग नहीं है। उसकी माँ का असमय
बटलोही बना चेहरा नहीं है। दुःख-तकलीफ, ज़िल्लत-ज़लालत से सना उसका खुद का
रंग-रूप नहीं है।
कीर्ति को क्या कोई आईएएस बना सकता है? कीर्ति
से क्या कोई ऐसा लड़का ब्याह रचा सकता है जिससे कि उसके और उसकी माँ की
जिन्दगी सँवर जाए? क्या कोई उदारमना उसके लिए ऐसा कुछ उपाय कर सकता है
जिससे उसकी ज़िन्दगी जो इस कदर बेपटरी है, वह पटरी पर आ जाए? क्या ऐसा कोई
आसरा है जो यह विश्वास दिला सके कि गरीब के घर पैदा भले हुई है...लेकिन उसे
अमीर लाडली बनाने वाले सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों हाथ हैं, हमदर्द
साथी हैं, शुभचिन्तक समाज है?
नहीं....नहीं.....नहीं.....!!!
हाँ, अगर आप लेखक-साहित्यकार हैं, तो कीर्ति के इस नारकीय ज़िन्दगी पर एक
धांसू कहानी लिख सकते हैं और सेटिंग-गेटिंग ठीक रही तो लोकप्रिय सम्मान पा
सकते हैं।
हाँ, अगर आप विशेषज्ञ-आलोचक हैं, तो कीर्ति का उदाहरण
सामने रख ‘जीने का अधिकार’, ‘खाने का अधिकार’, ‘पढ़ने का अधिकार’ इत्यादि
शीर्षकों से चोखा आलेख लिख और चर्चा अवश्य बटोर सकते हैं।
हाँ,
अगर आप समाजसेवी या सामाजिक कार्यकत्र्ता हैं तो जंतर-मंतर पर आमरण अनशन कर
लोगों की नज़र में चढ़ सकते हैं, देश का दूसरा-तीसरा-चैथा गाँधी बन सकते
हैं।(पहले की कद्र अब बची नहीं सो अन्यों की तलाश हिन्दुस्तान को बेसब्री
से है)
आज देश की अटारी पर चढ़कर बांग देने वाल हम-आप जैसे
तीसमारखाँओं की कमी नहीं है........लेकिन हमारे इन कौआनहान हरकतों से
कीर्ति या कीर्ति की माँ जैसे अनगिनत लोगों का क्या और कितना उद्धार हो रहा
है....इसपर रजीबा को शोध अवश्य करना चाहिए।(राहुल गाँधी, अखिलेश यादव
जैसों पर शोध करने से ठेंगा न होगा कुछ)