Friday, September 30, 2016

हिन्दी नाटक और कविता में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का योगदान

यह आलेख अपने उन विद्यार्थियों के लिए प्रस्तुत है जिन्हें हम किसी विषय, काल अथवा सन्दर्भ विशेष के बारे में पढ़ना, लिखना एवं गंभीरतापूर्वक सोचना सिखा रहे हैं। जिनसे हम मौलिक सर्जना की अपेक्षा कर रहे हैं। 

हम

 हिन्दी एवं हिन्दीतरभाषी विद्यार्थी का अंतर मिटाने की दिशा में लगातार प्रयत्नशील हैं। यह और बात है, हम शिक्षण तथा शैक्षणिक आधारभूत सुविधाओं के भयंकर अभाव से गुजर रहे हैं। इसके बावजूद हमारे पास जो है और जितना है उसी को मिलाकर हर रोज बेहतर करने की दिशा में निरंतर गतिमान हैं। हम बेहद संतुष्ट हैं और आशान्वित भी। धन्यवाद!

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राजीव रंजन प्रसाद
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
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साहित्य की लिखा-पढ़ी की थोड़ी भी जानकारी रखने वालों के लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाम अनजाना नहीं है। वही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जिन्होंने कहा है-‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल/बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।’ इतनी महत्त्वपूर्ण बात भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने तब कही जब भारतीय स्वाधीनता का प्रथम संग्राम 1857 ई. में घटित हो चुका था। पूरे हिन्दुस्तान में नवजागरण की अलख जगी हुई थी और ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ के लोकप्रिय राग के साथ हिन्दी नई चाल में ढल रही थी। यह वक़्त 1873 ई. का था। दरअसल, नवजागरण काल ने हिंदी साहित्य को नए सिरे से रचा-बुना। नई लीक बनी। भाव, विचार, कहन और लेखन की इस धारा में बेजोड़ और जानदार चीजें बनी। कहानी, कविता, नाटक, कथा, उपन्यास बहुविध विधाओं में प्रभूत लेखन जिस तरीके और मनोयोग से हुआ, उसमें एक नाम अग्रणी है, वह है-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र। 

भारतेन्दु की अगुआई में युगांतर बदलाव हुए। साथ ही, इस काल में गद्य और पद्य दो भिन्न किन्तु विशिष्ट धाराओं का प्रादुर्भाव हुआ। भारतीय साहित्य के इतिहास को यह काल भाषा, समाज, संस्कृति, राजनीति आदि की दृष्टि से काफी हद तक प्रभावित करता दिखाई देता है। साहित्य लेखन के स्वरूप, शिल्प एवं शैली में अन्तर्वस्तु के अतिरिक्त तथ्यनिरूपण के स्तर पर भी ढेरों बदलाव आए। और इन सभी बदलावों के केन्द्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे। किताबी समझ तक अपनी सोच सीमित करने की जगह नई पीढ़ी को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के योगदान के बारे में अवश्य जानना चाहिए। क्योंकि जब भारत-भूमि परतंत्र और हम सबकी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना गुलाम थी। ब्रिटिश आकांक्षा भारतीय जन्मभूमि को लूटने-खसोटने में जुटी हुई थी। इंग्लैंड आधारित औद्योगीकरण भारत में अनौद्योगिकीकरण को पैदा कर रही थी। चारो ओर हताशा और निराशा का माहौल था। धनिक यानी आभिजात्य लोग अंग्रेजी सुख-वासना में अनुरत थे। सनातन-शास्त्रीय महापंडितों की जमात ढपोरशंखी क्रियाकलापों और कर्मकाण्डों में जुटी हुई थीं; भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सबसे आगे आए। 

यह कहा जाता है कि भाषा जहाँ मौन हो जाए, नाटक का जन्म वहीं होता है। अर्थात् नाटक जनता की चेतना का मूक-नायक होता है। शायद इन्हीं अर्थों में नाटक को आचार्य भरतमुनि ने पंचम वेद की संज्ञा दी है। सचमुच नाटक निरक्षर-ब्रह्म है। नाटक आम-आदमी का अख़बार है जो लिपि में नहीं साक्षात भाव-मुद्रा, मुखाकृति, सजीव भंगिमा, हस्त-संचालन, देहभाषा, मौन आदि में प्रकट होते हैं। हिन्दी नाटकों का मूल संस्कृत से ही है। संस्कृत में विश्व की सबसे प्राचीन नाट्य परम्परा मिलती है। आचार्य भरतमुनि का नाट्यशास्त्र इस विषय का सबसे प्राचीन ग्रंथ है। वास्तव में जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है; उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहा गया है। नाटक में श्रव्य-काव्य अधिक रमणीय होती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र स्वयं इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। भारतेन्दु जब कविताएँ लिखते थे, तो उसके लिए ब्रजभाषा और वैसे ही सुमेल, सुगठित छंदों का प्रयोग करते थे। परन्तु जब ये नाटकों या प्रहसनों की रचना करते थे, तो उनकी शैली बीच-बीच में कविताएँ लिखने की थी जो प्रायः खड़ी बोली की होती थी। यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि भारतेन्दु काल में आधुनिक गद्य साहित्य की परम्परा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ। बाद के समय में अभिनयशलाओं के न होने के कारण इस दिशा में अपेक्षित बदलाव नहीं हो सके। साहित्यिक दृष्टि से देखें, तो भारतेन्दु के नाटकों में देशभक्ति का स्वर मुखर और ऊँचा था। हम देख सकते हैं कि नीलदेवी, भारतदुर्दशा आदि नाटकों के भीतर आई हुई कविताओं में देश-दशा की जो मार्मिक व्यंजना है, वह तो है ही; बहुत-सी स्वतन्त्र कविताएँ भी उन्होंने लिखीं जिनमें कहीं देश की अतीत गौरव-गाथा का गर्व, कहीं वर्तमान अधोगति की क्षोभभरी वेदना, कहीं भविष्य की भावना से जगी हुई चिंता इत्यादि अनेक पुनीत भावों का संचार पाया जाता है। हम भारतेन्दु-काल का गंभीर अध्ययन करते हुए पाते हैं कि भारतेन्दु अपनी रचना-यात्रा में अकेले नहीं थे, बल्कि बंधु-बांधव की पूरी मंडली उनके साथ थी। यह मंडली भारतेन्दु मंडली के रूप में चर्चित हुई। इस मंडली में स्वनामधन्य जो महत्त्वपूर्ण लोग शामिल थे, वे थे-उपाध्याय पंडित बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’; पंडित प्रतापनारायण मिश्र; बाबू तोताराम;  ठाकुर जगमोहन सिंह; लाला श्रीनिवासदास; पंडित बालकृष्ण भट्ट, पंडित केशवराम भट्ट; पंडित अंबिकादत्त व्यास; पंडित राधाचरण गोस्वामी। 

प्रतिभा के धनी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का हिन्दी नाटक की दुनिया और काव्य-संसार में जो अप्रतिम योगदान है; उस पर एक नज़र डालें तो :

उनकी प्रमुख पत्रिकाएँ थीं : कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैग्जीन(चन्द्रिका), बालबोधिनी

मौलिक नाट्य जिसकी रचना भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने की  : वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चन्द्रावली, विषस्य विषमौषाधम्, भारत-दुर्दशा, नीलदेवी, अंधेरनगरी, प्रेमयोगिनी, सतीप्रताप(अधूरा)

अनूदित सामग्री में महत्त्वपूर्ण हैं : विद्यासुन्दर, पाखण्डविडम्बन, धनंजयविजय, कर्पूरमंजरी, मुद्राराक्षस, सत्यहरिश्चन्द्र, भारतजननी

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को सिद्ध वाणी का अत्यन्त सरस हृदय कवि कहा है। उनकी दृष्टि में प्राचीन और नवीन का सुन्दर सामंजस्य ही उनकी सर्जना-कला का विशेष माधुर्य है। भारतेन्दु की भाषा चाहे जिस ढंग की हो उनके वाक्यों का अन्वय सरल होता है, उसमें जटिलता नहीं होती। उनके लेखों में भावों की मार्मिकता पाई जाती है, वाग्वैचित्र्य वा चमत्कार की प्रवृत्ति नहीं। भारतेन्दु रचित नाटकों एवं कविताओं का भाषा और साहित्य पर गहरा असर पड़ा। दरअसल, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने गद्य की भाषा को परिमार्जित करने उसे चलता, मधुर और स्वच्छ रूप प्रदान करने का श्रमसाध्य कार्य किया। इसीलिए यह माना जाता है कि उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा, अवस्था अथवा स्थिति प्रदान की। इस प्रकार उनको हिन्दी गद्य के प्रवर्तक के रूप में लोकमान्यता प्राप्त हुई। 

हमें यह स्वीकार करना होगा कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने न सिर्फ गद्य की भाषा को माँजा, अपितु पुराने घिसे-पिटे अथवा रिवाजी शब्दों को प्रयोग से अलग करते हुए काव्यभाषा को काफी हद तक परिष्कृत एवं संस्कारित किया। भारतेन्दु का सबसे मुख्य अवदान हिन्दी भाषा को जनता के मुख एवं वाणी की भाषा बनाना था। इस लक्ष्य की षष्ठीपूर्ति में उन्होंने जागरूक जनता को शिक्षा के एक महत्त्वपूर्ण माध्यम के रूप में हिंदी भाषा को अपनाने पर बल दिया। आमजन को उन्होंने अपने भाव, संवेदना, विचार, अनुभव, दृष्टि, कल्पना, स्वप्न आदि को हिंदी भाषा में अभिव्यक्त करने हेतु प्रेरित किया। 

भारतेन्दु बँगला में नए ढंग के सामाजिक, देश-देशांतर सम्बन्धी ऐतिहासिक-पौराणिक नाटक, उपन्यास आदि देखे और हिंदी में वैसी पुस्तकों के अभाव का अनुभव किया। इसका इतना गहरा असर पड़ा कि उन्होंने हिंदी भाषा के लिए हरसंभव उद्यम किया। ‘कविवचन सुधा’ और ‘हरिश्चन्द्र मैग्जीन’(हरिश्चन्द्र चन्द्रिका) निकालकर साहित्य-सेवा में जुटे। ‘कविवचन सुधा’ की लेखन-शैली मनोहर और भाषा प्रभावशाली थी। भारतेन्दु ने नई सुधरी हुई हिंदी का उदय इसी समय से माना है। उन्होंने ‘कालचक्र’ नाम की अपनी पुस्तक में नोट किया है कि हिंदी नई चाल में ढली, सन 1873 ई. में। भारतेन्दु जी स्त्री-शिक्षा को लेकर सजग थे और उन्होंने पीछे ‘बालबोधिनी’ पत्रिका निकाली। भारतेन्दु लिखित ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ नाम का प्रहसन लिखा। इसमें धर्म और उपासना की आड़ में किए जा रहे अनाचारों-व्याभिचारों पर करारा व्यंग्य साफ सुनाई पड़ता है। परतंत्रता की बेड़ी तोड़ने और हर तरह की जड़ता को समाप्त करने को लेकर भारतेन्दु में असीम जुनून दिखाई देता है। अपनी साहित्यिक यात्रा में अंग्रेजों की ताड़ना का भी वे शिकार हुए; किन्तु देशवासियों के प्रति उनकी लेखनी सदैव निष्ठावान बनी रही। उदाहरण के रूप में ‘नीलदेवी’ में वर्णित यह पंक्ति रख सकते हैं-‘कहाँ करुणानिधि केशव सोए ?/जागत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए।।’ वह यह भी कहते नहीं चूकते-‘अँगरेज राज सुख साज सजे सब भारी/पै धन बिदेश चली जात यहै अति ख्वारी।।’

हिन्दी नाटक और कविता के क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के योगदान की इस सम्पूर्ण चर्चा में हम यह पाते हैं कि भारतेन्दु जिस समयकाल में साहित्य रचना कर रहे थे; वह काल आज की तरह स्वतंत्र, आजाद, उन्मुक्त बिल्कुल नहीं था। ‘पराधीन सपनेहूँ सुख नाहिं’ की शब्दावली का सूत्रपात करने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इसलिए भी नवजागरण काल के प्रवर्तक कहे गए कि उन्होंने हिंदी भाषा को खड़ी बोली में साकार कर नागरी का जो अवलम्ब दिया; पीछे कई मनीषी साहित्यकारों ने उस पथ को अपनी काव्य एवं सर्जना प्रतिभा से गूँजार कर दिया। इस प्रकार भावना के साथ साथ विचारों के सहमेल को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ साथ गद्य का भी समुचित विकास हुआ। नाटक इन दो विधाओं के बीच की मुख्य कड़ी थी जिसे भारतेन्दु ने प्रमुखता के साथ आजमाया और इसे लोकमानस से सीधे जोड़ने का काम किया। भारतेन्दु के अतिरिक्त हिन्दीतरभाषी अनेक अन्य लेखकों ने हिन्दी में साहित्य रचना करके इसके विकास का मार्ग प्रशस्त किया। अनुवाद-प्रवीण कई मसीजीवी लेखकों ने प्रभूत मात्रा में अनूदित सामग्री उपलब्ध कराई जिसके कारण भारतीय विचार एवं विचारधारा में नई-नई धाराओं एवं वादों का सहज अवतरण हुआ। अतः हिन्दी नाटक और कविता के क्षेत्र में हिन्दी भाषा के मुख्य उन्नायक तथा प्रस्तावक की भूमिका में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का महती योगदान न सिर्फ महत्त्वपूर्ण है, अपितु अविस्मरणीय है। 
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अपनी दुनिया के बारे में


प्रिय देव-दीप,

एक अध्यापक सबसे अच्छा विद्यार्थी होता है। वह विनम्र होता है और अनुशासित भी। उसकी दृष्टि में ज्ञानानुशासन के लिए बाहरी बल प्रायः आरोपित हुआ करते हैं। इसका अपना महत्त्व है जो विद्यार्थी में धैर्य, सयंम, संतोष आदि की भावना जगाते हैं। लेकिन अन्दर का आत्मबल सबसे अधिक कारगर और लाभकारी होता है। यह आत्मबल जीवन-मूल्य पर टिका होता है। जीवन-मूल्य यानी जीने का वह उचित ‘पैटर्न’ जिससे हमारे स्वभाव, संस्कार, अनुभव, स्मृति, कल्पना, दृष्टि एवं चिन्तन आदि को सही खुराक मिलती है। इस तरह जीवन-मूल्य प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार, विचार एवं व्यक्तित्व में संचित पोषक सामग्री है। शिक्षा से इसी जीवन-मूल्य की संरक्षा होती है; उसे विकसित होने का सुअवसर मिलता है। आजकल विकास का अर्थ बेहद सीमित हो चला है। हम अमीरी अथवा धन-संग्रह को मानव-विकास का सूचकांक मानने लगे हैं। भौतिक सामग्रियों के बटोर को अपने सुख-संधान का प्रतीक मान बैठे हैं। 

देव-दीप, यह ग़लत है, बिल्कुल भ्रान्त अवधारणा है। आज शिक्षा-विधान इसीलिए संकटग्रस्त हैं; क्योंकि उनमें मूल्यहीन कार्यकलापों का प्रचलन सबसे अधिक हो रहा है। पूँजी की संस्कृति चाहे दरबारी हो या कारखानी। आज की तरह शेयरकारी हो अथवा कारपोरेटी। दौलत से वस्तुओं की कीमत में इरादतन अंतर अथवा फेरफार जरूर किया जा सकता है, पर व्यक्ति के चरित्र, आदत, स्वभाव, प्रकृति, मनोवृत्ति, अभिवृत्ति आदि में परिवर्तन संभव नहीं है। देखा जाए, तो हम ख़राब समाज में जीवित रह सकते हैं, लेकिन सुरक्षित और संतुष्ट भी हो; यह संभव नहीं है। लिहाजतन, ‘केएफसी’ और ‘मैक्डोनाल्ड’ जैसे महँगे रेस्तराँ में खाना खाकर लौटते समय हम लूट सकते हैं। हम अराजक सामाजिकता में आलीशान ‘माॅल’ या ’बिग बाज़ार’ में टहलते हुए बर्बर हिंसा का शिकार हो सकते हैं। यानी प्रगति के सुपर मानकों पर सवार होने के बावजूद मूल्यहीन समाज हमें जीवन-सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकता है। संतुष्टि का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। फिर यह विकास किन अर्थों में मोहक और नवाधुनिक है। किस तरह से मानव-प्रगति अब तक का सर्वोत्तम उपलब्धि है। 

आज समाज में तनाव, अवसाद, कुंठा, अलगाव, बिखराव, एकाकीपन, टूटन, घुटन, दंभ, ईष्र्या, महत्त्वाकांक्षा आदि का बोलबाला है। राजनीतिक विधि-विधान अपनी ज़मीर बेच चुके हैं। काले धन की प्रतिष्ठा से पूरा देश आक्रांत है। सांविधानिक नियमावली में इतने सुराख कर दिए गए हैं कि उसकी मूल भावधारा पलायित हो चुकी है। सांस्कृतिक दृष्टि से रोगग्रस्त भारतीय समाज का आज सबसे बड़ा आकर्षण पश्चिमी रंग-ढंग, आबोहवा, कार्यकलाप, शिक्षा, दर्शन, विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि है। हमारा अपना इन्द्रधनुष गायब है; क्योंकि उसे उकेरने वाली ज़बान दूसरी भाषाओं में कूटीकृत हो चुकी हैं। अब बाहरी ‘आउटपुट’, ‘रिपोर्टकार्ड’, ‘स्केच’, ‘क्लोज़अप’ आदि में देश आगे बढ़ रहा है, तेजी से विकास कर रहा है। यह और बात है कि आजकल सूचना-क्रांति का जिस तरीके से हवा बुलन्द है, टेलीविज़न, सिनेमा, इंटरनेट, वेबसाइट, ब्लाॅगिंग, ट्वीटर, वाट्सअप आदि की दुनिया दिवानी है। उससे एक बात तो तय है कि हम स्क्रीन पर इतिहास की खूबसूरत पटकथा दिखा-दर्शा और उसकी मनमानी व्याख्या-विश्लेषण कर सकते हैं; किन्तु स्वयं इतिहास कभी नहीं रच-गढ़ सकते हैं। 

देव-दीप, ऐसा इस कारण कि इतिहास के निर्माण हेतु अनगिनत लोगों की अभिरुचियाँ, आदतें, स्वभाव, अभिवृत्ति, जिजीविषा, जीवन-दर्शन, जीवन-लक्ष्य, साधना-मार्ग, आकांक्षा-स्तर, संकल्प-शक्ति, उदात्तता, अचेतन प्रेरणाएँ आदि प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से कार्य करती हैं। इसे स्मृति, दृष्टि, अवधारणा, लोक-सन्दर्भ, कला, साहित्य, संगीत, नृत्य आदि विभिन्न मानवीय उपागमों के द्वारा पुनःस्थापित किया जाता है जिसे आधुनिक नवमाध्यम जागृत कर पाने में सर्वथा अक्षम हैं। ध्यान देना होगा कि लोक-संस्कृति आधृत भारतीय समाज सचाई को नकारता नहीं है, उससे सामना करता है। उसकी मूल्यदृष्टि में आत्मालोचना एवं आत्ममूल्यांकन के विधान को स्वीकार किया गया है। इसीलिए भारत का पारम्परिक समाज आत्मचेता है। उसे द्वंद्व अथवा वाद-विवाद-संवाद से परहेज़ नहीं है। उसके लिए मूल्य आधारित चिन्तना सर्वोपरि है; लेकिन आजकल तकनीकी-प्रौद्योगिकी की आड़ में झूठ की जबर्दस्त धौंस है। अनैतिक तथा अव्यावहारिक चीजों में इस कदर इज़ाफा किया जा रहा है कि सच कहीं किसी कोने में दुबक गया है। अतएव, भारतीय समाज अजीबोगरीब तरीके से प्रगति-साधना में जुटा है। वह येन-केन-प्रकारेण अग्रणी राष्ट्र होने-बनने को उतावला है। वह मौलिक सोच की जगह पश्चिमी उतरन से अपने को ज्ञानवान तथा सूचना-समाज बनाने को लालायित है। वाल्मीकि, व्यास, तुलसी, कबीर, रैदास, फुले, विवेकानंद, तिलक, टैगोर, गाँधी, आम्बेडकर आदि के शिक्षा-दर्शन में मन-मस्तिष्क एवं हृदय-हाथ की परिकल्पना कई गई है। इसमें ‘सर्वधर्म समभाव’ की चेतना, भाव और मूर्ति समाहित है; जबकि आधुनिक शिक्षा पूँजी और अर्थशास्त्र आधारित कसौटियों पर अपना ज्ञान बघारता है। जबकि यह कटु सचाई है कि आधुनिक विज्ञान आधारित कुल शिक्षण-प्रशिक्षण के बावजूद व्यक्ति के वर्तमान से प्रक्षेपण-पलायन को रोक सकना असंभव हैं; बुद्ध और महावीर की तरह ‘आत्म’ की खोज तो नामुमकिन ही है।

दरअसल, हमने ज्ञान को सिद्धान्त में परिभाषित करके छोड़ दिया है। हर चीज के लिए एक खाका अथवा बाना बना लिया है और उसी के अनुसार हम आचरण-व्यवहार करने को अभिशप्त हैं। हम मौलिक खोज अथवा स्वप्रेरणा के स्थान पर अंधानुकरण का आदी हो चले हैं। इसके विपरीत भारतीय दर्शन हर क्षण नया अनुभव करने, मौलिक सोचने और लीक से अलग हटकर भिन्न किन्तु विशेष प्राप्त करने का हिमायती रहा है। भारतीय समाज की चिन्तना में मानव-जीवन केन्द्र में है जिसके कल्याणार्थ वह शिक्षा को एक जरूरी साध्य एवं साधन मानने का पक्षधर है। लेकिन आज हम जैसे ही इस ओर ध्यान देते हैं। हमें समाज परे धकेल देता है। चूँकि समाज से बाहर हम जिन्दा ही नहीं रह सकते, इसलिए हम अपनी क्षमता भर प्रतिरोध, विरोध, विद्रोह, आन्दोलन आदि का प्रदर्शन करते हुए जीवित हैं। मणिपुर की इरोम शर्मिला का उदाहरण हमारे सामने है। वह अकेले लड़ी। अंतिम दम तक लड़ी। लेकिन पूरा ज़माना उसकी माँग और अधिकार से बेख़बर रहा। जिंदगी इसी तरह याचना में समाप्त करने की बजाए उसने अनशन के स्थान पर दूसरे तरीके से लड़ाई लड़ने का मन बनाया, जो स्वागतयोग्य कदम है।

देव-दीप, पता नहीं आदमी इस ओर से असंवेदनशील क्यों है? किस कारण से वह उन चीजों को नज़रअंदाज कर रहा है जिससे होने वाला परिणाम भयंकर एवं खतरनारक होंगे। सब देख और जान रहे हैं कि आज समाज में चारों तरफ हिंसा-प्रतिहिंसा का खेल खेला जा रहा है। हर तरफ असामाजिकता, अराजकता और अमानवीयता हावी है। मनुष्य के कृत्य/करतूत पूरी मानवता को शर्मसार कर रहे हैं। अशोभनीय घटनाएँ थोकभाव घट रही हैं। दलितों यानी आर्थिक रूप से अभावग्रस्त/विपन्न व्यक्ति पर समाज, राजनीति, संस्कृति, विज्ञान, तकनीक, प्रौद्योगिकी सबकी मार पड़ रही है। स्त्रियाँ मनुष्यता की कोटि से मानो नीचे धकेल दी गई हैं। उन पर होने वाल अत्याचार जघन्य हैं जिसे असभ्य समाज में ही अंजाम दिया जा सकता है। इसी तरह लोकतंत्र का अंधा-कानून चुप्पी साधे हैं और अयोग्य/नाकाबिल राजनीतिज्ञ ऊँटपटांग निर्णय ले रहे हैं या फिर जरूरी कार्रवाई को नज़रअंदाज कर अपनी सुख-साधन, ऐशोआराम में जुटे हुए हैं। ऐसे में कहाँ है-राष्ट्र, राष्ट्रीय भावना, सामाजिक सद्भाव, सांस्कृतिक चेतना, नवाधुनिक दृष्टि....! यह यक्ष प्रश्न है। आज हम सभी विकल्पहीनता को ही जीवन का प्रमुख केन्द्र अथवा आदर्श माने बैठे हैं। अब यही हमारे रोजमर्रा का प्रसाधन है, खाधान्न और मनोदैहिक जरूरत है। इसी को अब हम ओढ़-बिछा और पहन रहे हैं। लोकतंत्र, गणतंत्र, संविधान, समाज, संस्था, सेवा, हित, कल्याण, मानवता, भाईचारा, धर्म, आदर्श सबकुछ बलात् बहिष्कृत हो चुके हैं या होने के कगार पर हैं। 

देव-दीप, हम समाज के सेवक हैं और प्रकृति के चेतस उपासक। यदि यह नहीं हैं तो सीधी बात है कि हम मनुष्य नहीं हैं। स्त्री अथवा पुरुष नहीं हैं। हाँ, ऐसा न होकर हम जो हैं उसका इंसाफ प्रकृति करेगी...हम नहीं। मैं-तुम तो किसी कीमत पर नहीं। हम सब जो कभी किसी का बुरा नहीं कर सकते या कि इस बारे में सोच सकते; ‘दैवीय न्याय’ (पोएटिक जस्टिस) की प्रतीक्षा में हैं। 

तुम्हारा पिता
राजीव  

Thursday, September 15, 2016

हिन्दी मेरे तनख़्वाह की भाषा है!


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प्रिय देव-दीप,

सरकारी कैलेण्डर में 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पड़ा है। हमारे विश्वविद्यालय में हिन्दी सप्ताह समारोह मनाए जाते हैं। पिछले साल भी मैं शरीक हुआ। बहुत सारी प्रतियोगिताओं में विद्यार्थियों की भागीदारी देख बड़ी खुशी हुई। कईयों ने पुरस्कार पाए। अपनी तैयारी में मदद के लिए हमें धन्यवाद कहा। उनका उत्साह देख कार्यक्रम की सफलता पर मैं भी अभिभूत हो लिया।

देव-दीप, तुम जानते हो कि हिन्दी मेरे तनख़्वाह की भाषा है। हिन्दी का अध्यापक हूँ। सब विषयों की तरह यह भी एक रुचिकर विषय है। इस भाषा में कई लेखकों ने अच्छी कहानियाँ लिखी हैं, उपन्यास भी। कविताएँ तो इतनी सारी कि तुम्हारा घंटों मन रमा रहे। पता नहीं लोग हिंदी-हिंदी क्यों चिल्लाते हैं। इस भाषा को सबसे कम बोलने वाले कुछ ज्यादा ही शोर मचाते हैं। इस बारे में लिखने वालों की भी कमी नहीं है। मैं भी खूब लिखता था। पर अब आदत बदलनी पड़ी। मैं जहाँ पढ़ाता हँू, वहाँ हमसे सटे ही अंग्रेजी विभाग है। वहाँ कभी लोग अंग्रेजी-अंग्रेजी नहीं चिल्लाते हैं। मैं उनसे पूछता हूँ-क्या आपके सारे बच्चे रोजगार पा जाते हैं। वे साफ कहते हैं, इस बारे में सोचना हमारा काम नहीं है। हम ‘टेक्सट’ और ‘टास्क ओरिएंटेड’ काम करते हैं। ‘पैटर्न’ को जैसे हमसे सीनियर लोग करते आए हैं, उसका ‘फाॅलोअप’ लेते हैं। हम ‘कन्टेन्ट’ की एनालिसिस और सिन्थेसिस पर ध्यान देते हैं। इसे पूरी तरह अकादमिक रीति से पढ़ते और पढ़ाते हैं। मैं देखता हूँ कि उनके चेहरे पर संतुष्टि का भाव है। विद्यार्थी भी खुश और प्रसन्न दिखते हैं।

देव-दीप, हमने भी यह तरीका आजमा लिया है। अब सब अच्छा है। विद्यार्थी खुश रहते हैं कि हमारा अध्यापक परीक्षा में पूछे जाने वाले सभी प्रश्नों के बाबत हमसे ठीक-ठीक बात करता है। हमें इसकी अच्छी तैयारी रखने की सलाह देता है; ताकि अच्छे अंक लाया जा सके। उनकी यह अपेक्षा सही है। अध्यापक का काम विद्यार्थियों का मनोबल बढ़ाना है। विषय की सही जानकारी देना है। उचित रीति से विषय-सन्दर्भ की सही व्याख्या-विश्लेषण कर ले जाने का कौशल सिखाना है।

आज जब बहुत लोग हिन्दी पर विचार कर रहे हैं। लम्बे वक्तव्य दे रहे हैं। बहस कर रहे हैं, तो ख़राब लगता है कि वे हमारी तरह काम क्यों नहीं कर रहे हैं। अरुणाचल जैसे हिन्दीतरभाषाी प्रदेश में एम.ए. के 50 प्रवेशी बच्चों के साथ अध्ययन-अध्यापन करना कितना मजेदार और सुखदायी है। विद्वान लोग ज्ञान बाँटने का ठीका अपने पास क्यों रखना चाहते हैं; सीधे ज्ञान क्यूँ नहीं बाँटते। हम अपने बच्चों को इंटरनेट पर हिंदी लिखना सिखाते हैं। कंप्यूटर से सम्बन्धित तकनीकी जानकारी से उन्हें अवगत कराते हैं। हम उन्हें पाठ-वाचन और सर्जनात्मक लेखन के बारे में बताते हैं। इसके अतिरिक्त हम कविता, कहानी में व्यक्त भाव-संवेदना-विचार को अपनी अभिव्यंजना-शक्ति से पकड़ने की कला बताते हैं। अनकहे को पाने अथवा रचनाकार के मंतव्य को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। 

हाँ, इसके लिए मैंने व्यावहारिक बुद्धि अपनाया है। भाषा में लेखकीय दुरूहता/जटिलता डाल विद्वान बनने की जगह अरुणाचली हिंदी अपना लिया है। वैसे भी पंडिताई से पेट नहीं भरती; ऊपर से जाति से ओबीसी हूँ, यानी पिछड़ी जाति का। आज भी पूरा समाज पहले ब्राह्मणों को ज्ञानी/ज्ञानवान मानता है; फिर किसी और को। यानी आज का समाजशास्त्र पुराने भाष्य के अनुसार ही व्यवस्था को चला रहा है। उसे बदलाव बर्दाश्त है, पर एक सीमा तक। अतएव, हमारे लिखे को कोई भी शास्त्र की उपाधि नहीं दे सकता। स्वाभाविक सम्मान तो दूर की बात है। फिर यह टिटिमा क्यों सब? वैसे भी बड़ी मुश्किल से यह नौकरी मिली है। यह छूट गई, तो न घर के होंगे और न घाट के। अतः अपनी भीतरी गुब्बार (महान बनने की महत्त्वाकांक्षा और छपास रोग) को आग में झोंक देना ही उचित होगा। जान बची तो लाखों पाए। वैसे भी मैं अपने मूल चरित्र से अवसरवादी हूँ, समझौतापरस्त, स्वार्थी, सिर्फ अपना हित विचारने वाला। ऐसा सोचने और कहने वालों की कमी नहीं है। मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ। 

देव-दीप, हमें प्रसन्नता है कि हम हिंदी के बारे में नहीं हिंदी में अपने रोजमर्रा का काम करते हैं।

तुम्हारा पिता
राजीव

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...