Saturday, February 24, 2018

रजनीगन्धा की महक को महसूसती रूह और ‘जंगली फूल’



रिपोर्ट: राजीव रंजन प्रसाद
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अरुणाचल की सुपरिचित लेखिका और पेशे से हिन्दी प्राध्यापिका डाॅ. जोराम यालाम नाबाम की सद्यःप्रकाशित उपन्यास ‘जंगली फूल’ का विमोचन हिन्दी के प्रख्यात विद्वान एवं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रो. वीर भारत तलवार; दक्षिण भारत हिन्दी प्रचारिणी सभा के पूर्व-अध्यक्ष प्रो. ऋषभदेव शर्मा तथा अरुणाचल के प्रतिष्ठित साहित्यकार येशे दोरजी थोंगची के हाथों राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के लघु प्रेक्षागृह में हुआ। इस अवसर पर हिन्दी विभाग के प्राध्यापकों के अतिरिक्त राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. तोमो रीबा, वित्ताधिकारी ए. मित्रा, दोईमुख गवर्नमेंट काॅलेज के प्रिंसीपल एम. क्यू. खान, आईएफसीएसपी अध्यक्ष नाबाम अतुम, विभिन्न विभागों के प्राध्यापकगण एवं डाॅ. यालाम के अपने सगे-सम्बन्धी-शुभचिन्तक उपस्थित थे।
यह पुस्तक यश पब्लिकेशन से छपकर इसी वर्ष आई है। लेखिका के इस पहले उपन्यास का स्वागत उनके पहले कहानी-संग्रह ‘साक्षी है पीपल’ की ही भाँति पूरे जोर-शोर से हुआ है। कार्यक्रम के आरंभ में ही संचालन कर रही डाॅ. जमुना बीनी तादर जो आरजीयू के हिन्दी विभाग में प्राध्यापिका हैं; ने कहा कि इस पुस्तक में जिस तानी नामक मिथकीय पुरुष की चर्चा है उसे आबोतानी पुरखा, पूर्वज कहे जाने के बावजूद समुचित न्याय नहीं मिला। उसके सम्बन्ध में जो भी लोकगाथाएँ प्रचलन में हैं उसमें तानी के चरित्र को घृणास्पद चरित्र के रूप में दिखाया गया है। अर्थात् तानी के साथ लोक ने न्याय नहीं किया, अभी तक उसे न्याय नहीं मिला।
गणमान्य अतिथियों सहित सभागार में उपस्थित समस्त लोगों का स्वागत करते हुए राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के भाषा-संकायाध्यक्ष प्रो. हरीश कुमार शर्मा ने डाॅ. यालाम के समग्र व्यक्तित्व और उनके लेखन के बारे में चर्चा की। उन्होंने यह भी कहा कि आबोतानी की असल सचाई क्या है इसका लेखिका ने बड़े संवेदनशील ढंग से पड़ताल किया है। डाॅ. जोराम यालाम नाबाम अपने आत्म-वक्तव्य को देते हुए अत्यन्त भावुक हो उठी। उन्होंने कहा कि आबोतानी की कथा मेरे भीतर एक दर्द बनकर उतरी जिसे मैंने लोक-प्रचलन में मान्य एवं स्वीकृत स्थिति में देखा-सुना था। मुझे बार-बार लगा कि इतना घृणित अपराध करने वाला व्यक्ति सम्पूर्ण तानी समुदाय के वंश का पिता यों ही नहीं कहा गया होगा।
इस पुस्तक विमोचन हेतु ख़ास तौर पर मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित प्रो. वीर भारत तलवार ने बेहद मुदित भाव से इस कृति की प्रशंसा करते हुए कहा कि-‘‘इस उपन्यास को रचने के पीछे बड़ा ‘विज़न’ है। एक दार्शनिक दृष्टि इसको पढ़ते हुए परत-दर-परत खुलती है जो महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में ‘जंगली फूल’ हिन्दी में आदिवासी जनसमाज और उसकी अस्मितामूलक मूल्यों पर केन्द्रित एक दुर्लभ पुस्तक है। लोककथाओं में दर्शन अभिव्यक्त ही नहीं होता बल्कि वह विस्तारित भी होता है। लेखिका ने इसी अन्तर्वस्तु को अद्भुत शिल्प-विधान और विवेक-विश्वास के साथ रचा-बुना है। यह कृति यथर्थ की पुनरव्याख्या है। पाठ का पुनर्पाठ है। यह पाठ लोककथाओं-लोकगाथाओं की विकास-यात्रा है जिसे लेखिका ने बड़े विज़न और सांस्कृतिक दर्शन की धरातल पर निर्मित किया है। यह भी उल्लेखनीय बात है कि लेखिका की दृष्टि इतिहास को यथार्थपरक तरीके से देखती है।’’ प्रो. तलवार ने रेखांकित करते हुए कहा कि-‘‘इस उपन्यास की बड़ी खूबी लेखिका के दृष्टिकोण का प्रगतिशील और भविष्योन्मुखी होना है। यह दृष्टि डायन-प्रथा, दास-प्रथा, अंधविश्वास, परस्पर युद्ध, स्त्रियों पर अत्याचार आदि का विरोध करता है। अगर यह अंतःदृष्टि नहीं होती, तो लेखिका द्वारा आबोतानी वंश समुदाय के तानी के व्यक्तित्व का इतना बृहद् चिन्तन-विश्लेषण संभव नहीं था। जहाँ तक भाषा का सवाल है तो लेखिका की भाषा सूक्तियों की तरह लिखी गई हैं जो मुग्ध करती हैं। लेखिका के गद्य में भी कविता है और प्रभावपूर्ण चित्रण बरबस हमें लुभाता है। यालाम के उपन्यास की स्त्रियाँ चेतस और प्रतिरोधी स्वभाव की हैं जो अपने ही बन्धनों के गर्भ से बनती हैं। स्त्रियों की बगावती आँखों से ही निर्मलता की गंगा बहती है। यह उपन्यास इन अर्थों में प्रेम का शास्त्र रचती हैं। यह प्रेम समाज की चिंता करने वाला प्रेम है। इस उपन्यास के मुख्य पात्र तानी का चरित्र विलक्षण है। लोककथाओं में प्रचलित धारणाओं को अस्विकार करते हुए लेखिका ने तानी के मानवीय व्यक्तित्व की यथार्थपूर्ण पड़ताल की है।’’
लोकार्पण के मौके पर हैदराबाद से पधारे विद्वान प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने डाॅ. यालाम को शुभकामना देते हुए कहा कि-‘‘डाॅ. जोराम यालाम नाबाम अरुणाचली अस्मिता को सचेतन अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली विदूषी लेखिका हैं। यह अपने लेखन में अरुणाचली-स्त्री के प्रति बेहद जागरूक, सजग और संघर्षशील दिखाई देती हैं। डाॅ. यालाम हिन्दी के नई पौध की उत्कृष्ट लेखिका हैं। यह कृति सिर्फ हिन्दी में नहीं बल्कि भारत की विभिन्न भाषाओं में और जनसमाज तक पहुँचनी चाहिए।'' उन्होंने अपने सारपरक वक्तव्य में इस उपन्यास की खूबियों को बताते हुए कहा कि-''जिस सद्भावना और शिव-संकल्प के साथ यह शोधपरक कृति ‘जंगली फूल’ के रूप् में सामने है, यह बड़ी उपलब्धि है। अपनी कथावस्तु में यह रचना मनुष्य के समद्वा खड़े शाश्वत प्रश्न से टकराती हैं, उससे मुठभेड़ करती हैं जो कि मुख्यतया स्त्री पुरुष सम्बन्ध की वजह से अधिक प्रासंगिक हैं। यद्यपि कृष्ण की भाँति अरुणाचल के परमपिता तानी के बारे में भी बहुत सारे वाद-प्रतिवाद-प्रवाद आदि प्रचलित हैं; तथापि यह पुस्तक तानी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को खुली किताब की तरह पाठक के सामने रखता है। इस तरह लेखिका की ह पुस्तक अरुणाचली सांस्कृतिक लोक-परम्परा का नया आख्यान है जिसे मौलिक रूप से सृजित करने हेतु लेखिका प्रतिबद्ध होने के अतिरिक्त अभिशप्त-सी हैं।''
इसी क्रम में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अरुणाचल के प्रतिष्ठित साहित्यकार येशे दोरजी थोंगची ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कहा कि-‘‘आबोतानी की कथाएँ मिथकीय रूपक के रूप में लोक-प्रचलन में हैं। जोराम यालाम नाबाम ने इन रूपकों के पीछे की असली सचाइयों को ज़ाहिर करने का संवेदनशील प्रयास किया है। यह सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के लिए रचनाधर्मिता के स्तर पर एक ऐतिहासिक कृति है।’’
इस मौके पर बी.के. मिशन स्कूल के बच्चों ने अपने समूह-नृत्य की शानदार प्रस्तुति दी। और अंत में हिन्दी के सहायक प्राध्यापक डाॅ. अभिषेक कुमार यादव ने सभी को तहे दिल से धन्यवाद ज्ञापित किया। उन्हों आखिर में डाॅ. जोराम यालाम नाबाम की इस उपलब्धि हेतु लेखिका के पति नाबाम विवेक को भी शुभकामना सहित धन्यवाद ज्ञापित किया।
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चित्र: http://arunachalobserver.org से साभार

Monday, February 12, 2018

लिखे का इतिहास और बदलते जनमाध्यम


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राजीव रंजन प्रसाद
सहायक आचार्य एवं गंभीर सांस्कृतिक-साहित्यिक अध्येता
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जन-समाज की एक बड़ी उपलब्धि भाषा का हमारे संग-साथ होना है। सामाजिक-प्राणी के रूप में मनुष्य बोलने-सुनने-समझने योग्य तो है ही वह लेखन-कला में भी पारंगत है। बोलने वाला प्राणी होना एक जन्मजात नैसर्गिक गुण है जिसके माध्यम से वह बाद में भाषा अर्जित करता है और तदुपरांत लिखना। वास्तव में बोलना और सुनना अभिव्यक्ति-कुशल व्यक्ति का सशक्त औजार है, किन्तु लिखना एक विशेष विधा है। यह वह प्रभावशाली माध्यम है जिसमें रचित कालजयी रचनाओं यानी साहित्यिक कृृतियों से हमारा भविष्य संस्कारित होता है, तो अपना इतिहास-बोध सचेतन तथा जीवंत बनता है। इस बात से सभी पूर्णतया परिचित हैं कि भाषा किसी विचार या संकल्पना को साकार करने में अग्रणी भूमिका निभाती है। चिंतन-धारा को सहेजने-समोने तथा उसे जाहिर करने में उसका महत्त्व अनन्य है। कई मर्तबा भाषा को संशोधित-सम्पादित, परिष्कृत एवं परिवर्तित भी करना पड़ता है। विशेषतया सर्जनात्मक लेखन में यह रचाव-बनाव या शंृगार-सौन्दर्य अधिक दिखलाई देता है। 

लेखन का महत्त्व है, क्योंकि भाषा को दीर्घायु बनाने में लिपि का महत्त्व अन्यत्म है। कंप्यूटर के आगमन, दख़ल और बढ़ते प्रभाव ने लेखन के क्षेत्र में ताज्ज़ुबकारी ‘कंटेंट वेव’ को जन्म दिया है। हिंदी का ही उदाहरण लें, तो यूनीकोड की कंप्यूटरीकृत भाषा में सभी तरह के भाषिक-प्रतीक बनाए जा सकते हैं। यथा: अक्षर, शब्द, पद, पदबंध, वाक्य आदि। नानाविध गुणसम्पन्न कंप्यूटर की अपनी सीमाएँ भी हैं। पहला तो यही कि वह पूर्णतया मनुष्य पर निर्भर है। वह एक डिजिटल मशीन मात्र है जो हमें तमाम तरह की सुविधाएँ मुहैया कराता है। अतः लेखकीय-कौशल के लिए व्यक्ति ही मुख्य धुरी है। यद्यपि लिखना हर किसी के वश की बात नहीं है। दूसरे लिखना व्यक्ति-विशेष की इच्छा पर निर्भर है। सनद रहे, रचनात्मक एवं प्रभावी लिखने के लिए कठिन श्रम करना पड़ता है। बेहद अभ्यास से अपने लेखन को साधना होता है। सरल एवं सहज बोधगम्य भाषा में लिखना तो और कठिन तप है। अतएव, समाचार लेखन हो या रेडियो लेखन या कि सिनेमा हेतु पटकथा लेखन; सबकुछ हमारे इस दिशा में किए जा रहे कार्य एवं सोचने के ढंग पर निर्भर है। वास्तव में, लेखन सम्बन्धी बारीकियों को समझे बिना लेखन-कार्य में दक्ष-प्रवीण होना संभव नहीं है। कुछ भी लिखना अथवा कैसे भी लिख लेना वाला रवैया हमें परीक्षा में पास तो येन-केन-प्रकारेण करा सकते हैं, किन्तु ज्ञान एवं अनुभूति के लिए, संवेदना और दृष्टि के लिए, विचार एवं प्रज्ञा हेतु यह तरीका बिल्कुल अपर्याप्त है। जिस तरह अच्छा वक्ता होने के लिए बेहतर श्रोता होना आवश्यक है; उसी तरह अच्छा लेखक बनने के लिए बेहतरीन और धैर्यशील पाठक/श्रोता/दर्शक बनना बेहद जरूरी है। 

यदि हम जनमाध्यम-लेखन का इतिहास देखें, तो लिखे-छपे अक्षरों की वास्तविकता समझ में आ जाती है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि लिपि ने लेखन को व्यापकता प्रदान की। लिपि द्वारा बोले जा रहे ध्वनि-प्रतीकों को यादृच्छिक भाषिक-प्रतीकों में ढाला गया जो शब्दार्थ के स्तर पर समान भाव-संवेदना एवं विचार-मूल्य वाले थे। प्राचीन काल में भारतीय विद्वजनों द्वारा अत्यधिक श्रम, अभ्यास एवं चिंतन द्वारा प्रभूत लेखन-कार्य हुआ जिन ग्रंथों, टीकाओं, भाष्यों, महाकाव्यों आदि का सांस्कृतिक-साहित्यिक महत्त्व आज भी सर्वाधिक है। अक्सर इन ग्रंथों में लिखे मंत्रों, श्लोंकों, ऋचाओं का उल्लेख हम सब यत्र-तत्र-सर्वत्र करते हैं जिन्हें शौद्रों (सूर्य को साक्षी मानकर लेखन करने वाले ज्ञानीजन) और व्रक्षों (वृक्ष को साक्षी मानकर लेखन करने वाले ज्ञानीजन) ने लिखा। कालांतर में यही विषय-सिद्ध लोग जनास्था के कारण ऋत्विज यानी लेखकीय-संस्कार आबद्ध मनीषी कहलाए जिनका मन और इच्छा दोनों पर पर्याप्त नियंत्रण होता था। आज लोक में जिन्हें शूद्र और वैश्य कहा जा रहा है वे असल में आक्षरिक लिपि-मर्मज्ञ सूर्य-साक्षी तथा वृक्ष-साक्षी अभिकत्र्ता ही हैं। अर्थपरिर्वतन के शाब्दिक फेरफार के कारण आज इन स्वनामधन्य वैयाकरणों को जातिसूचक उपनामों में मिला दिया गया है जो सर्वथा ग़लत और अन्यायपूर्ण है। जबकि सचाई यही है कि शौद्रों और व्रक्षों के लेखकीय-विधान को विभिन्न धर्मानुनायियों ने न सिर्फ अपनाया; अपितु उन्हें शिलालेखों पर उत्कीर्ण करा स्थापत्य-विधि द्वारा स्थायीत्व भी प्रदान की। जहाँ तक ब्राह्मणों का प्रश्न है, तो ये सदैव बाहरी विषयों में रमण करने वाले विषयासक्त लोग थे। ब्राह्मण आंतरिक अनुभूति एवं निर्मलता पर बल सबसे कम देते थे, जबकि सांसारिक भोग-विलास उन्हें सर्वाधिक लुभाता था। इस कारण वे लेखन की कठिन कोटि या कह लें परिपाटी से सदैव विलग रहे। अक्सर ब्रह्म शब्द से ब्राह्मण को व्युत्पन्न मान लिया जाता है जबकि ब्रह्म को वैदिक ऋचाओं अथवा सुक्तियों में ‘वरं’ का पर्याय माना गया है। इसका अर्थ होता है-चयनित यानी चुनी हुई। इसी प्रकार क्षत्रिय लोग क्षेत्र विशेष पर अपना अधिकार और वर्चस्व कायम रखने को ही अपना मुख्य अभिलक्ष्य मानते थे; इसलिए उनका सर्वाधिक समय इन्हीं कामों में चला जाता था। बाद में मनुवादियों ने इस पूरे क्रम को अपने कुचालों एवं कुदृष्टियों के पराक्रम से उलट दिया जिसकी परिणति वर्णवाद के रूप में जगज़ाहिर है जिसके वृहद् विवेचन का यहाँ कोई औचित्य नहीं है। 

लेकिन यह मानना पड़ेगा कि आधुनिक आचार्यों और खुले मन के बौद्धिकों ने पुरातनवादियों के मत-मतान्तरों का पूरजोर खंडन किया है। इनका स्पष्ट अभिमत है कि इस देश में सवर्ण जैसी कोई जातिसूचक शब्दावली प्रचलन में कभी रही ही नहीं। प्राचीन ग्रंथों (यथा: वेद, उपनिषद्, पुराण आदि) में इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। इस बात के कहीं कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है कि भारत के जितने भी महत्त्वपूर्ण शास्त्र लिखे गए उनका लेखन सवर्णों ने किया। यह सबकुछ 19वीं सदी का शब्द है जिन्हें घनघोर कर्मकाण्डी मनुवादियों ने नवजागरण काल में अपनी भूमिका को बढ़ा-चढ़ा कर दर्शाने के लिए किया। इसी के समानांतर 19वीं सदी में दलित, हरिजन आदि शब्द आते हैं जिनका प्रयोग अपनेआप में भेदभावपूर्ण और सामाजिक विसंगतियों को बढ़ाने वाला मालूम देता है। भारत की ज्ञान-संस्कृति में सदाचारयुक्त सम्यक् आचरण पर बल अधिक है। भारत के सांस्कृतिक-साहित्यिक यात्रा में प्राप्य अबतक के समस्त अभिलेखों, उत्कीर्ण शिलालेखों, पांडुलिपियों, शास्त्रीय ग्रंथों आदि का सूत्रवाक्य यही है कि वह कोई भी व्यक्ति जो अपने मन, कर्म और वचन से भारतीयता का अराधक है या कि उससे संस्कारबद्ध है; असल संस्कृति-कर्मी वही है। बाद बाकी समाज को तोड़ने की साजिश है। भारतीय ज्ञान-परम्परा का अवगाहन करने वाले समस्त ज्ञानियों की राय में वे सभी प्राचीन-अर्वाचीन ग्रंथ या पुस्तक जो समाज को दृष्टि ना दे ऐसी पुस्तकों के प्रकाशन का कोई अर्थ नहीं है। अतः लेखन में लोकहित का प्रश्न सर्वोपरि है। अन्यथा कंप्यूटर और इंटरनेट के इस ज़माने में हर तरह की चोरी, बेईमानी, उलटफेर, छेड़छाड़, मिलावट, पूर्वग्रह, दुराग्रह, कट-काॅपी एण्ड पेस्ट इत्यादि का संभव यानी उपलब्ध होना ही एकमात्र सत्य है। 

इतिहास की पुरानी विज्ञप्तियों से बाहर निकलकर आधुनिक समय-समाज का मुआयना करें तो मुद्रण-कला ने लेखन की दिशा में क्रांतिकारी बदलाव को संभव बनाने का काम किया। इसके द्वारा असीम उपलब्धियाँ और लोकप्रिय ख्याति पा लेने के बावजूद प्राचीन पांडुलिपियों/शिलालेखों आदि का महत्त्व कहीं किसी दृष्टि से कम नहीं हो जाता है। यद्यपि समाचार-पत्र का भारत में प्रचलन बहुत बाद का ईजाद है, तथापि इसने पराधीन भारतीयों को सपने देखने के लिए आँख दिए, तो सोचने के लिए विवके-बोध का परिज्ञान कराया। यह सब शनैः शनैः हुआ, लेकिन इससे निर्मित भाषा का जो एक अखिल भारतीय स्वरूप बना हिंदी उनमें से एक है। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक दिनों में भारतीय भाषाओं में पहली बार बाङला का अवतरण हुआ और उसके ठीक बाद हिंदी का। दरअसल, आधुनिक लेखन-परम्परा में समाचार-पत्र उस सेतु के समान है जिसने लोक-संवाद हेतु भारतीय भाषाओं को संजीवनी प्रदान की। सिनेमा, रेडियो और टेलीविज़न से पूर्व प्रचलित समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं की बात करें, तो इसकी विकास-यात्रा भी दिलचस्प है। अर्थात् मुद्रित माध्यम जिसे अंग्रेजी में ‘प्रिंट मीडिया’ कहा जाता है की तो बात और ठाट दोनों निराली है। 1780 के करीब भारत में प्रेस का आगमन हुआ जबकि गुटेनबर्ग ने 1556 ई. में ही मुद्रण-मशीन का आविष्कार कर दिया था। हिंदी में समाचार-पत्र की छपाई उन्नीसवीं सदी में शुरू हुई। पहला साप्ताहिक अख़बार पंडित युगल किशोर शुक्ल के सम्पादन में कलकता से सन्् 30 मई, 1826 में प्रकाशित होना शुरू हुआ। इसके बाद तो हिंदीपट््टी मानों सोए से जाग उठा। नवजागरण का प्राक्कथन इन्हीं दिनों लिखा गया जिसमें राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, बालकृष्ण भट्ट इत्यादि भाषा के सच्चे साधक शामिल थे। देखते ही देखते गुलामी से बँधे-कसे भारतीयों में चेतना का संचार होने लगा। लिखने-पढ़ने की इस नई रवायत के कारण सबलोग आपस में संवाद करने लगे। वे समाचार-पत्र के रूप में एक शक्तिशाली औजार पा गए। भारतेन्दु जैसे पत्रकारिता के श्रेष्ठ उन्नायकों ने भारत-दुर्दशा के लिए यथास्थितिवाद और किंकर्तव्यविमूढ़ की प्रवृत्ति को  जवाबदेह ठहराया। यह कहा जाने लगा कि अंग्रेज हमारे भोलेपन का कम बल्कि हमारे भीतर बैठे आपसी भेदभाव की भावना के कारण अपना हुक़्म हम सब पर चला रहे हैं। आपसी झगड़े, रंजिश, शत्रुता के कारण पूरे देश में एकजुटता का अभाव है। बाहरी विचारधारा और मानसिकता वाले लोग हमारी भलाई क्यों चाहेंगे जब हम खुद ही एक-दूसरे का अहित करने का सोचे बैठे हों। अंग्रेजी शिक्षा ने स्वतन्त्रता यानी गुलामी से मुक्ति को मनुष्य की बेहतरी का प्रतीकचिह्न बतलाया। इसके अतिरिक्त उनका बल समानता और बंधुत्व पर अधिक था। भारतीयों में यह भावना बलवती होने लगी कि स्वाधीनता से बढ़कर कोई चीज नहीं है। इस बारे में खूब लिखा-पढ़ा गया। यह दौर ही नवजागरण का कहलाया। अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं ने कड़े प्रेस कानून होने के बावजूद अपनी राष्ट्रीयता के लिए वे सब दुःख-तकलीफ़ सहे, जिसकी कल्पना मात्र हमारी आत्मा को झकझोर देने वाला है। समाचार का काम हर राष्ट्र में चैथे खंभे का होता है। जन-संवेदना एवं जन-सरोकार की सबसे अधिक पूछ एवं उनकी रक्षा प्रेस करता आया है। आज प्रेस या समाचार-पत्र भले अपना महत्त्व खो चुके हों लेकिन एक समय था जिस समय अकबर इलाहाबादी का यह शेर बेहद मशहूर था-‘खींचों न कमानो को और न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो।’ वह घड़ी कुछ और था। समाचार-पत्रों के पास स्वतंत्र विचार-दृष्टि हुआ करती थी। वे निष्पक्षता एवं पारदर्शिता के मिसाल थे। 

आज भी समाचार-पत्र टेलीविज़न से अधिक विश्वसनीय और आमजन के करीब हैं। अंध-व्यावसायिकता के इस दौर में भी गुणी तथा विवेकवान सम्पादक अपना पत्रकारीय-धर्म नहीं भूले हैं। वे बाज़ार के असंगत दबाव के बावजूद अपना दायित्व-बोध अच्छे से निभाते हैं। उनकी दृष्टि में जनपक्षधरता का मूल्य सर्वोपरि है। इस नाते उनके चयन एवं प्रस्तुतिकरण अतिरंजता और सनसनीपन का शिकार नहीं हो पाते हैं। समाचार-पत्र का लेखन प्रायः सधा हुआ और विषय-सन्दर्भित होता है। सम्पादकीय-पृष्ठ वैचारिक आइने का सीधा गवाह होता है, इसलिए सम्पादक उसकी तैयारी अधिक सजगता एवं सावधानी के साथ करते हैं, ताकि जनसमाज को वास्तविकता बेलागलपेट मालूम हो सके। इधर हाल के दिनों में समाचार-पत्रों ने अपनी गरिमा को अवश्य गिराया है, लेकिन इसकी आलोचना-समालोचना भी इसी बिरादरी ने सबसे अधिक की है। बात चाहे पेड न्यूज़ की हो या गोदी मीडिया की या फिर इम्बेडेड जर्नलिज़्म एवं समाचार-मिलावट की; समाचार-पत्रों ने इस तरह के सार्वजनिक चलन को पत्रकारिता के स्वास्थ्य के लिए सबसे हानिकारक माना है। दरअसल, किसी भी पत्र-पत्रिका का सम्पादक रचनाकार और पाठक के बीच मध्यस्थ होता है। प्रकाशन-पूर्व पत्रिका के सम्पादन की जवाबदेही उसी की होती है। उसका प्रयास होता है कि सम्पादित रचनाएँ भ्रामक एवं त्रुटिपूर्ण न हो। इसके लिए काॅपी-सम्पादक का विषय सम्बन्धी विशेषज्ञता अनिवार्य है। यदि सम्पादित सामग्री साहित्य और कला विषयक हो, तो वह विशेष सतर्कता बरतता है। दुहराव और उलझाव से बचने की हरसंभव कोशिश करता है। सम्पादकीय अंतर्दृष्टि सम्पादन के अन्तर्गत उपयुक्त स्थान प्राप्त करती है। इसी कौशल के आधार पर वह परस्पर विरोधाभास व्यक्त करने वाले असंगत वाक्यांशों को अलग कर देता है, ताकि रचना का कोई भी अंश विरोधाभासी अथवा बेमेल नहीं लगे। सम्पादकीय-कार्य से जुड़े लोगों के भीतर कुछ खूबियों का होना आवश्यक है। यथा: विशेषज्ञता, इतिहास-बोध, अनुभव एवं अंतर्दृष्टि, कल्पनाशीलता, व्यापक दृष्टिकोण, सम्यक विचारधारा और सचाई का आग्रह, कार्यशैली में एकरूपता, स्पष्ट वैचारिकी और भविष्य-योजना, परिवेश एवं देशकाल-बोध, तकनीकी सम्पादन-कौशल का ज्ञान, भाषा पर पकड़, चयनित पाठ का वस्तुपरक अन्तर्वस्तु विश्लेषण, सार्थक एवं प्रभावशाली प्रस्तुतिकरण का विवके, नूतन-नवीन प्रयोगों का समर्थक, कलात्मक चित्रों का उपयुक्त चुनाव, पूर्वग्रहमुक्त, सम्पूर्णता की खोज, निर्णय की क्षमता, सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष और प्रभाव के प्रति सचेष्ट, पाठकीय मनोभाव और मनोगत संप्रत्ययों की समझ और पड़ताल, विश्व-मानव के निर्माण का लक्ष्य, सार्वदेशिक सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए सुनियोजित प्रयास एवं प्रोत्साहन इत्यादि। जनहित और जन-सरोकार को प्राथमिकता देने वाले सम्पादकों ने अपने लिए सम्पादकीय मूल्य निर्धारिक कर रखा है। जैसे-तथ्यपरकता, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता, संतुलन, स्त्रोत का उल्लेख आदि। ऐसा नहीं है कि इन सब का अनुपालन करते हुए सम्पादक को किसी चुनौती अथवा संकट से जूझना न पड़ता हो; बल्कि वे बहुत सारे हैं। उदाहरणस्वरूप पूर्वग्रह, अतिरिक्त झुकाव, अवांछित दबाव, आवारा पूँजी से मुठभेड़, शासकीय या सरकारी-तंत्र द्वारा पिछलग्गू बनाए जाने का ख़तरा इत्यादि। अतः समाचार-पत्र लेखन में एक पत्रकार ख़तरों के खिलाड़ी की भूमिका में होता है। वह सदैव दोधारी तलवार पर चलता है।

बहुत बाद में एक और माध्यम आकाशवाणी का परिचय भारतीय जन-समाज से हुआ जिसने भारतीय लहू में बसे वाचिक-शैली के सुर-तान का शंखनाद किया। उन दिनों सिनेमा भारतीय सरजमीं पर अपना बसेरा बना चुकी थी, किन्तु वह फिलहाल गूँगी थी। जल्द ही रेडियो और सिनेमा ने भारतीय ज़मीं में रची-बसी सामूहिक रागात्मकता एवं कल्पनाशक्ति को सजीव अर्थच्छटाओं द्वारा चहुँओर बिखेर दिया जिसके ओज और आभा में लेखन परोक्ष-प्रत्यक्ष ढंग से शामिल रही। दृश्य-श्रव्य माध्यम का अगला जीवंत रूपाकार था-टेलीविज़न। उन दिनों टेलीविज़न की दुनिया आज की तरह कुहरीली नहीं थी। वही सबकुछ प्रसारित होता था जो समाज में रोज-ब-रोज घटित हो रहा था। सत्य की इस पक्षधरता का ध्येय वाक्य था-‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’। यानी समाचार-पत्र, सिनेमा, रेडियो और आजादी के तुरंत बाद टेलीविज़न ने पूरा परिदृश्य ही बदल कर रख दिया। 1982 ई. में रंगीन टीवी के आगमन का व्यापक असर हुआ। टेलीविज़न का ‘क्रेज’ शुरू हुआ, तो आने वाले समय में श्वेत-श्याम के साथ रंगीन टीवी भी आम-चलन में शुमार हो गया। सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखें, तो भारतीयता की मूल-भावना और पारिवारिक-संस्कार को रचने-बुनने में टेलीविज़न को श्रेय देना सबसे उपयुक्त होगा। बीसवीं सदी के आख़िरी दशक आते-आते टेलीविज़न घर-घर में मनोरंजन का स्थायी विकल्प बन गया। इसने न केवल अपनी जगह बना ली, अपितु कई महत्त्वपूर्ण सामाजिक बदलाव भी किए। ‘हम लोग’ और बुनियाद’ धारावाहिक ने भारतीय समाज का घरेलू चेहरा सामने रखा, तो ‘रामायण’ एवं ‘महाभारत’ जैसे धारावाहिकों ने ऐतिहासिक मिथकों एवं पौराणिक गाथाओं को नई ऊँचाई प्रदान की। रचनाशील लेखकों ने सिनेमा-पटकथा को नई धार दी। कई फ़िल्में ऐसी बनी जो मूलतया साहित्यिक कृतियों की भावभूमि (प्लाॅट) पर आधारित थीं। जैसे-सुजाता, शतरंज के खिलाड़ी, सारा आकाश, आँधी, हजार चैरासिवंे की माँ आदि। इस प्रकार दृश्य-श्रव्य माध्यम ने तद्युगीन पीढ़ी को सांसारिकता से पिंड छुड़ाने की बजाए समकालीन परिस्थितियों से लड़ने-भिड़ने की चुनौती पेश की। गुरुदत्त, राजकपूर, देवानंद, दिलीप कुमार, सुनील दत्त जैसे अभिनेताओं की अदायगी और संजीदगी आज भी स्तुत्य है। इसी दौर में अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र के रूप में ‘यंग्री यंगमैन’ का जन्म हुआ। मिथुन चक्रवर्ती और अनिल कपूर भारतीय घरेलूपन का युवा चेहरा बनकर उभरे। आशिकी एवं इश्क़ के नवोदित चेहरे आमिर, सलमान, शाहरूख की तिकड़ी जबर्दस्त रही। सुनील शेट्टी और अक्षय कुमार जहाँ स्टंट हीरो के रूप में लोकप्रिय हुए तो शनि देओल और अजय देवगन की ‘आॅलराउंडर छवि’ का सभी ने लोहा माना। अभिनेत्रियों में नरगिस, मधुबाला, मीना कुमारी, हेमा, जया, स्मिता, रेखा, शबाना, माधुरी, करिश्मा के नाम अव्वल हैं जिनका भारतीय दिलों पर अब भी राज है। कहना न होगा कि भारतीय परम्परा से गहरे जुड़े निर्देशकों की अधिसंख्य फिल्मों में भारतीयता का ठेठ ठाट दिखाई देता है जिसमें अपने समय के दुख-संत्रास, तकलीफ़-पीड़ा और विलाप का स्वर मुखरित था, तो नवचेतना से पूरित आधुनिक भारत का स्वप्न-संकल्प भी शनैः शनैः मूर्ताकार हो रहा था। इस प्रकार कई सारी विसंगतियों और आजादी बाद की उल्लेखनीय घटनाओं पर केन्द्रित हिंदी फिल्में बनी जिसके केन्द्र में स्वाधीन भारत का बनता-बिगड़ता हुआ समाज था। नए तरीके के कलात्मक-रचनात्मक-बौद्धिक लोग इन माध्यमों से जुड़े। उन्होंने इन माध्यमों के लिए लिखा भी खूब। प्रेमचन्द जैसे अग्रणी साहित्यकार भी पीछे नहीं रहे। यह और बात है, बाद के दिनों में प्रेमचन्द ने फ़िल्म इंडस्ट्री से दूरी बना ली। कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मनोहर श्याम जोशी जैसे प्रख्यात साहित्यकारों का फ़िल्मी अवदान स्तुत्य है। उदाहरण के रूप में अच्छी फ़िल्मों की लम्बी फ़ेहरिस्त सामने रखी जा सकती है जिसने भारतीय जनसमाज के बदलते चेहरे का हू-ब-हू चित्रण किया। प्रादेशिक भाषाओं ने भी कमाल के सिनेमाई ज़ज्बे का परिचय दिया। यथा: बाङला, मराठी, तेलुगु, कन्नड इत्यादि।

अगर थोड़ी बात न्यूज़ चैनल की करें, तो समाचार का चैतरफा समय (24x7) और टेलीविजनों में महाएपिसोड का दौर बहुत बाद में शुरू हुए। बीसवीं सदी के एकदम आख़िर में। पहले तो रेडियो ’बीबीसी’ और ‘दूरदर्शन’ विश्वसनीय जानकारी के पुख़्ता औज़ार थे। अख़बार कुछ जानने-समझने की पहली खुराक थी। वहीं अब समाचार-पत्रों और ख़बरिया-चैनलों के ई-पेपर/वेब-संस्करण मौजूद हैं। यानी अब का गतिशील समय ‘डिजिटलाइजेशन’ की बढ़ती माँग पर टिका हुआ है। अब सबकुछ कंप्यूटरीकृत भाषा में दर्ज है। डिजिटल लाइब्रेरी के चलन ने हमें ज्ञान के अथाह स्रोत तक पहुँचा दिया है जिसमें अपनी अभिरुचि एवं आवश्यकता के अनुरूप कोई भी मुद्रित/श्रव्य/दृश्य-श्रव्य सामग्री ‘अक्सेस’ यानी प्राप्त की जा सकती है। अब ऐतिहासिक महत्त्व के पांडुलिपियों एवं हस्तलिखित सामग्रियों का दस्तावेजीकरण भी जोर-शोर से किया जा रहा है। यही नहीं कई लुप्तप्राय ऐसी भाषाएँ जिनका अस्तित्व ही खतरे में आ पड़ा है या कि उनका कोई लिपि-प्रतीक नहीं है; के संरक्षण-संवर्द्धन हेतु ‘डिजिटल आर्काइव’ बनाया जा रहा है। और यह सबकुछ माध्यम-लेखन की प्रक्रिया में कंप्यूटर द्वारा संभव हो पा रहा है। 

जनमाध्यम-लेखन का कार्य आसान बिल्कुल नहीं है। कारण कि चेतन-अचेतन के अन्तर्गत दिमाग में उपजे किसी विचार को हम वाक् में यकायक नहीं ढाल लेते हैं। दिलोंदिमाग में इसकी पूरी प्रक्रिया चलती है। भाषा में सम्बोधित होने से पूर्व जो मानसिक-शारीरिक प्रक्रिया दिमाग में घटित होती है उसे मनोभाषिकी कहा जाता है अर्थात् मन के स्तर पर बोली जाने वाली वह भाषा जिसका अहसास तो होता है किन्तु उसमें वाक्-ध्वनि अनुपस्थित रहती है। यानी मन ही मन किसी की प्रशंसा कीजिए, उसकी कोई मानसिक-छवि गढ़िए, उस पर आँखे टिकाए होने के बावजूद उसके कहे को नापसंद कीजिए; यह सबकुछ घटित अपने भीतर होता है लेकिन इस अनकहे की भाषा व्यक्त नहीं हो पाती है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में ‘इन्टरनल स्पीच’ या ‘सेल्फ इमेजिनेशन’ कहते हैं। अभ्यस्त होने के कारण मनुष्य इन रवैए का इस कदर आदी हो जाता है, मानो ये सबकुछ अपनेआप घटित हो रहे हैं, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। जिस तरह पढ़ने का इरादा न हो तो हम कतई पढ़ नहीं सकते हैं; उसी तरह लिखना भी प्रयत्नपूर्वक ही संभव है। इसकी पूर्व तैयारी अत्यावश्यक है। इसकी प्रक्रिया को अंजाम तक पहुँचाना पड़ता है। आपने किसी को ‘टेक्सट मैसेज’ भेजने को सोचा। क्या सोचने मात्र से वांछित संदेश अपने गंतव्य तक पहुँच जाएगा। नहीं न! उसके लिए संदेश लिखने होंगे या कंप्यूटर द्वारा टाइप करना होगा। अब तो कंप्यूटर के आने से लिखने और भेजने का झंझट नहीं रहा। अब हम बिना डाकघर गए, लिफाफ़े को चिपकाए बगैर अपना लिखा जिस किसी को त्वरित ढंग से भेज सकते हैं। अपना मोबाइल फोन तो सबसे स्मार्ट है। उसमें वर्ड डाॅक्यूमेंट, पीडीएफ, पीपीटी सबकुछ खुल जाते हैं। सेल्फ़ी, वीडियो रिकार्डिंग, वायॅस चैट, वीडियो काॅलिंग इत्यादि तो आम बात है। लेखन-सामग्री हेतु अब धूल-धकड़ से सने किताबों पर हाथ फेरने की आवश्यकता नहीं रही। क्योंकि कई सारे ऐप और साॅफ्टवेयर स्मार्ट फोन में विराजमान हैं जिनके माध्यम से हम मनोवांछित सामग्री कंप्यूटर पर पढ़ सकते हैं। कंप्यूटर ने इंटरनेट के साथ मिलकर विशाल जालनुमा एक ऐसा आभासी जगह (वर्चुअल स्पेस) बना लिया है जिसमें दुनिया-ज़हान की सैर ‘फ्रैक्शन आॅफ सेकण्ड’ में संभव है। इस अन्तर्जाल को आजकल ‘वर्चुअल वल्र्ड’ कहा जा रहा है तथा ये सब क्रियाकलाप जहाँ घटित होते हैं वे ‘वर्चुअल स्पेस’ कहलाते हैं। यह माध्यम पुराने सभी माध्यमों से दिलचस्प है क्योंकि यह मल्टीमीडिया यानी बहुमाध्यम है। मल्टीमीडिया का कमाल यह है कि एक ही जगह अब समाधान संभव है जो पहले अलग-अलग औजारों से हल किया करते थे। दरअसल, कंप्यूटर आधारित प्रोग्राम अथवा एप्लिकेशन उपलब्ध होने के कारण रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा, समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ सबकुछ एकमेक हो गए हैं। अर्थात् लिखना, पढ़ना, सुनना, देखना, सुधार करना, तस्वीर बनाना, हटाना, जोड़ना, खोजना इत्यादि बहुविध कार्य कंप्यूटर एवं इंटरनेट द्वारा आसानी से संभव है। अब हम बोलते जाएँ और हमारा मोबाइल उसका लिप्यंाकन भी करता जाएगा। कंप्यूटर टाइपिंग और मनमाफ़िक टाइप-फेस चुनना वह सचाई है जिससे भाषा में छपी इबारतें बेहद मोहक एवं आकर्षक बन पड़ी हैं। खुद हिंदी के विस्तार-फैलाव में ‘यूनिकोड’ का महत्त्व अप्रतिम है। दरअसल, कंप्यूटर गुणों का खान है। जैसे-लेआउट, डिजाइन, ग्राफिक्स, एनिमेशन, कलर-कंट्रास्ट, साउंड इफेक्ट, पिक्चर एडिटिंग, वीडियो सर्फिंग, शेयर, अपडेट, माॅडरेट इत्यादि। 

रोजमर्रा की ज़िंदगी में कंप्यूटर के उपर्युक्त कामों का इस्तेमाल बढ़-चढ़ कर हो रहा है। क्योंकि आमजन से जुड़े इन लेखन-कार्यों को जनमाध्यम-लेखन कहा जा रहा है। विशाल भू-भाग में बसे लोगों तक अब सिर्फ संचार के पुराने ‘एप्रोच’ द्वारा पहुँच सकना संभव नहीं है। यथा: अन्तरर्वैयक्तिक संचार, समूह संचार, बातचीत, वार्ता, भाषण, घटना-विशेष के बारे में बहस-मुबाहिसे आदि। अतएव, बीती सदी में समाचार-पत्र, रेडियो और टेलीविज़न के आगमन से ‘सूचना-विस्फोट’ का प्रादुर्भाव हुआ है जिसकी गिरफ़्त में आज पूरी दुनिया है। इस इक्कीसवीं सदी में कंप्यूटर और इंटरनेट ने तो ‘सूचना’, ‘शिक्षा’ एवं ‘मनोरंजन’ के क्षेत्र में ‘आइस युग’ का सूत्रपात कर डाला है। यह ‘आइस युग’ सूचना एवं संचार-प्रौद्योगिकी आधारित है जिसमें किताबों की पूछ घटी है, लेकिन तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित ‘डिजिटल पब्लिशंग’ का दायरा अप्रत्याशित ढंग से बढ़ा है। सिनेमा और टेलीविजन इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के सशक्त उदाहरण है। कंप्यूटर इससे चार कदम आगे हैं क्योंकि उसके द्वारा कई और काम भी निपटाए जा सकते हैं। कंप्यूटर अब एक प्राथमिक कौशल विकास का रूप ले चुका है। कंप्यूटर लिटरेसी पर बल ज्यादा है। इसी प्रकार इंटरनेट की विशेषताएँ बहुत सारी हैं। जैसे, इंटरनेट से जुड़े कंप्यूटर द्वारा मनपसंद गाने केवल सुन ही नहीं सकते हैं बल्कि उसे बाद के लिए सुरक्षित भी रख सकते हैं। इसको कहते हैं-‘डाउनलोड एण्ड सेव’। ये गाने जरूरी नहीं कि केवल सुनने वाले हों बल्कि वे आसानी से देखे-सुने और बाद में संग्रहित किए जा सकते हैं। विडियो की दृष्टि से यूू-ट्यूब बड़ा ज़खीरा है। अब तो वीडियो के माध्यम से वीडियो-काॅन्फ्रेसिंग होने लगे हैं। अक्सर टेलीविज़न चैनलों में दूर बैठा व्यक्ति न्यूज़ रूम में बैठे व्यक्ति से ‘लाइव’ बातचीत कर लेता है। समय के बदलाव के साथ सायास-अनायास ढेरों बदलाव होते हैं। जैसे कुछ समय पूर्व तक रेडियो की लोकप्रियता बहुत अधिक थी। उसे आकाशवाणी के रूप में जाना गया। बाद मे विविध भारती ने रेडियो कार्यक्रम में चार चाँद लगाए। इसके बाद रेडियो एफ.एम. का नया ज़माना आया जिसमें रेडियो जाॅकी की अदा और शोखी ने सुनने वालों का मन मोह लिया। शुरूआत में रेडियो पर कई मोहक शास्त्रीय और सुगम संगीत बजते थे। जरूरी एवं चर्चित विषयों पर परिचर्चा होती थी, तो कई बार गंभीर मुद््दों को लेकर विषय-विशेषज्ञ वार्ता प्रसारित करते थे। 

आज भी महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस के प्रसारण की खूब चर्चा होती है। रेडियो पर प्रसारित होने वाले नाटकों, प्रहसनों, झलकियों आदि की अपनी विशेष लोकप्रियता है। आजादी उपरांत भारत में बहुचर्चित रेडियो की घोषणा थी-‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’। लोग सुन-सुना रहे थे-देशहित में, लोगों को जागरूक कर रहे थे-राष्ट्रहित में। उनकी मनोकामना में मंगल का उदय और संभावना के शुभ-चिह्न शामिल थे। राजनीति में हर तरह के लोग थे-किन्तु सबका मुख्य स्वर राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत था। यह और बात है, साम्प्रदायिकता और असहिष्णुता हालिया ईजाद हैं जिन्हें जनसमाज के ऊपर एक राजनीतिक प्रोपेगेण्डा के तहत थोपा जा रहा है। यह मीडिया के जन-साख (मास-क्रेडिट) पर बदनुमा दाग है जिससे भारतीय जन और उनकी अंतरात्मा दोनों आहत है। मीडिया चाहे वह क्लासिकल हो या न्यू मीडिया अपने निज-स्वरूप में वह विश्वसनियता का पर्याय है। वस्तुनिष्ठता जनमाध्यम की एकमात्र कसौटी है। आज आवारा पूँजी के जोर-दाब ने वर्तमान परिदृश्य में भारी उलटफेर कर रखा है। नतीजतन, पत्रकारीय-निष्ठा में स्वार्थपूर्ण महत्त्वाकांक्षा इस कदर घुल-मिल चुके हैं कि पारदर्शिता का सदानीरा जल पीला होते-होते काला पड़ चुका है। इसे इन दिनों कई नामों से जाना जाता है। यथा: पेज थ्री, पेड न्यूज़, येलो जर्नलिज़्म, ग्रे प्रेस, इम्बेडेड, सरोगेट इत्यादि। इन अवांछित प्रभावों से माध्यम-लेखन और उसकी भाषा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुए हैं।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...