Wednesday, March 25, 2015

नौजवान अखिलेश तूझे हुआ क्या है....?

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राजीव रंजन प्रसाद
(इस पंक्तिलेखक की इस बार जो पोस्ट दी जा रही है; हो सकता है अब आगे वेबजगत पर न मिले...। यह निर्णय आमजन से ज़मीनी संवाद और व्यावहारिक सम्पर्क स्थापित करने के लिहाज़ से लिया गया है। यह इसलिए भी कि जिस जनता के लिए हम शब्द, लिपि, भाषा, विचार, तथ्य एवं आंकड़े आदि के नज़रिए से एक वैकल्पिक ‘स्पेस’ गढ़ने की कोशिश में जिस तरह जुटे हैं; यह देखना जरूरी है कि यह सही तरह ध्वनित भी हो रहा है या नहीं। विभिन्न उतार-चढ़ावों के बीच ‘इस बार’ ने कई वर्षों तक लगातार अपनी वेब-उपस्थिति बरकरार रखी। यह भी कि कई बार बिल्कुल बचकाने तरीके से पेश आया। कभी-कभी अतिभावुकतापूर्ण पोस्ट डाल इस पंक्तिलेखक ने यह भी जताया दिया कि इस बच्चे का दिल कमजोर है और उसमें सियासी दुष्चक्रों-राजनीतिक षड़यंत्रों से सामना कर सकने की हिम्मत अथवा आत्मविश्वास नहीं है। लेकिन इन्हीं सब चीजों ने अंततः इस पंक्तिलेखक को ‘मैच्योर’ भी किया है। वह जान गया है कि अधिक या कम बोलने से ज्यादा जरूरी होता है, उचित समय पर उपयुक्त ढंग से बोलना। अतः यह चुप्पी हमारी कायरता नहीं है...यह प्रस्थान है उस दिशा में जहां से सूरज उदित होने के बाद अन्धेरा छा जाता है, जिस हिस्से में रोशनाई आने में वक्त लगता है, लम्बी प्रतीक्षा करनी होती है अपने पाले में फिर से सूर्योदय होने की। मैं उन्हीं अंधियारी द्वीप में अपनी गति-मति संग विचरणा चाहता हूं...., आमीन!!!)  

नोट: पत्रिका 'परिकथा' के अगले अंक में पढ़िए राजीव रंजन प्रसाद की फिल्म समीक्षा-‘मेरा नाम मैरी काॅम’। जरूर पढ़ें।
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आधुनिक परवरिश में रहकर राजनीति सीखे युवा नेता अखिलेश समाजवाद की परिभाषा जानते हैं। वे कहते हैं-''जिस समाज ने मेरे पिता को नेता माना, मेरे चाचाओं को बनाया, मुझे तो छोड़ दीजिए जिसने मेरी पत्नी तक को नेता के रूप में स्वीकार किया है। इसी तरह और भी हमारे परिवार के कई लोग हैं जो राजनीति में अपने को सेवारत रखे हुए हैं और जनता उन सबको स्वाभाविक रूप से अपना समर्थन, सहयोग और भरपूर जनादेश देकर जिताती रही है...यह प्रक्रिया अपनेआप में समाजवाद की विचारधारा, दर्शन और संस्कृति को ज़मीनी रूप से साबित करके रख देता है।'' 

अखिलेश झुठिया नहीं कह रहे हैं या अपना भोकाल टाईट करने के लिए ऐसा नहीं कह रहे हैं। वे विदेश में पले-बढ़े हैं। अपनी शिक्षा को आजकल वह उत्तरप्रदेश की ज़मीन में रोपते हुए यहां की राजनीतिक ज़मीन को समाजवादी तरीके से हरियाने में जुटे हैं। वह यह मानते हैं कि उत्तर प्रदेश को उन्होंने समाजवाद की चासनी में घोलने में उनकी समाजवादी पार्टी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है। जिस अख़बार को उठाइए, पत्रिका को उठाइए...सबमें अखिलेश और उनका गुणग्रही गुणगान में लिखे-उगे शब्द, वाक्य, भाषा, चित्र आदि का दिग्दर्शन हो लेंगे। यह सब महज़ वैचारिक रंगीनमिज़ाजी का परिणाम नहीं है बल्कि यह वह दस्तावेज है जिनकी उम्र कागजी स्थूल होती है; लेकिन उनका प्रभाव हमेशा मानसिक होता है। यह मनोवैज्ञानिक राजनीति है जिसमें कही जा रही बात दूर में घटित हुई या साकार होती हुई बतलाई जाती है जबकि सचाई नील-बट्टा-सन्नाटा। किसको इतनी फुरसत है कि वह सरकार से जिरह करे; उसके सरकारी प्रचारों पर प्रश्नोत्तरी आयोजित करे। वह इस पर करोड़ो लुटाए या अरबो; है तो उसकी ही ताकत, बाहुबल की चीज। 

वर्तमान में प्रचारवादी सत्ता की राजनीति चरम पर है और तथाकथित समाजवादी जो कलतक सुश्री मायावती के हाथी, मूर्तियों, पार्कों और आम्बेडकर गांवों आदि पर हुए अनावश्यक खरचे पर वाजिब ढंग से सवाल खड़े करते थे। आज वे सभी प्रचार के कमीशन खाकर समाजवादी होने का बैनर ढो रहे हैं। आज प्रचारवादी ढर्रे का उच्चतम पहाड़ा डकार रही समाजवादी पार्टी ने बड़ी-बड़ी नामचीन पत्रिकाओं को समाजवादी बैनर से ढंक दिया है, या यों कहें कि उनकी ‘ब्रांड इमेज’ को खरीद लिया है। इंडिया टुडे, आउटलुक, तहलका सब के सब यूपी के इसी युवा मुख्यमंत्री का अहोगान-अभिनन्दन कर रहे हैं; उससे एक बात तो साबित होता है कि लोहिया का समाजवाद पैसे पर बिक नहीं सकता था क्यांकि उसके अगुवा नेता डाॅ. राममनोहर लोहिया की हेकड़ी थी-‘युवा कौमे पांच साल इंतजार नहीं करती!’ वहीं आज समाजवादी परम्परा के प्राणवायु कहे जाने वाले अखिलेश यादव प्रबंधन-विपणन की बेजोड़ कला में सिद्धहस्त हो गए हैं जिनमें कल तक भाजपाइयों की मास्टरी थी। इस युवा नेता का लोकसभा चुनाव से पहले तक कहना था कि-‘नरेन्द्र मोदी केवल सेल्स और मार्केटिंग के बल पर ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार बने हुए हैं।'


युवा नेता अखिलेश यादव डाॅ. राममनोहर लोहिया का नाम लेकर बिसूरने वाले या आचार्य नरेन्द्र देव की चिन्तन-प्रणाली को लेकर झोला टांगे चुपचाप सादगीपूर्ण तरीके से चप्पल घिसने वालों को बुरी तरह नज़रअंदाज करते हैं। वह लोगों को नहीं जनाना चाहते कि समाजवादी चिन्तन का पितामह आचार्य नरेन्द्र देव चारित्रिक बल और नैतिक आचरण को समाजवाद की जान मानते थे; फैजाबाद के सीतापुर में जन्मे इस चिंतक नेता के घर को फैजाबाद का आनन्द-भवन कहे जाने की लोक-रीत है। बहुभाषाविद्, राजनीतिज्ञ, असाधारण बुद्धिजीवी, प्रख्यात शिक्षाविद्, बौद्ध-दर्शन के ज्ञाता, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान आदि थे आचार्य नरेन्द्र देव; लेकिन आज युवा समाजवादी अखिलेश की सियासी पार्टी के ध्येय, चित्त, कर्म, व्यवहार, कल्पना, स्वप्न आदि में यह या वह सब तरह के पारम्परिक महान समाजवादी विचारक दुरदुरा दिए गए हैं। माक्र्सवादी दृष्टिकोण को भारतीय राजनीति और सांस्कृतिक वातावरण में ज्यों का त्यों अंधानुकरण की प्रवृत्ति को नरेन्द्र देव गलत मानते थे। उनका कहना था कि माक्र्स की विचारधारा में जिस केन्द्रीय अन्तर्वस्तु को समाजवाद के रूप में परिभाषित या विश्लेषित किया गया है वह यदि लेनिन और स्टैलिन के लिए सही है, तो हरेक भारतीय के लिए भी। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि रूस का समाजवाद ही भारतीय समाजवाद के रूप में अक्षरशःलागू हो। नरेन्द्र देव के संगी समाजवादी नेताओं में अग्रणी लोहिया और जयप्रकाश ने भी इसे सही माना। यह अंतःदृष्टि समाजवाद के पुरोधाओं के अन्दर थी क्योंकि वे भारतीय ज़मीन से गहरे जुड़े थे जबकि आज के समाजवादी चुनावी जोड़-घटाव के लिए ज़मीन पर उतरते हैं और दो कदम पैदल चले नहीं कि सुस्ताने के लिए छांह या दालान-बैठका खोजने लगते हैं। शहर में तो इनके रंग-ढंग इतने आलीशान हैं कि वहां समाजवाद चाहे जिस भी दिशा से पुकारिए आपको इस शब्द के सिर्फ नेम-प्लेट, चुनावी बैनर, कागज-पोस्टर आदि ही दिखेंगे; आदमी वह भी समाजवादी सहज में मिल जाए असंभव।

उपर्युक्त दृष्टांत फिजूल नहीं है, झूठिया नहीं है। विचार और भाषा में जाल-जोकड़ भी नहीं है। तब भी, मौजूदा समाजवादी सकार के संस्कार में न्यूनतम शिष्टाचार नहीं है कि वह किसी भली सोच-विचार अथवा आलोचना पर भली-भांति आंख-कान-ध्यान दें। वह बस इतनी सदाशयता बरतें जिससे कि प्रदेश की जनता का किसी भी सूरत में अहित न हो; ईमानदारी से काम लें और लोगों को यह बताएं कि यह सरकार हर आदमी की हिस्सेदारी से राजनीति चाहती है, सबकी अभिव्यक्ति से अपना विचार-भूमि तैयार करने हेतु संकल्पित है; यह सरकार अपनी विचारधारा में आमजन की सोच, दृष्टि कर्म और व्यवहार से सचमुच अपनापा गांठना चाहती है। लेकिन हमारी इन आशाओं या उम्मीदों को समाजवादी राजनीतिज्ञ ठोकर मारने में ही अपनी हेठी समझते हैं। वे यह मानते हैं कि पैसा होने पर जनता पलगी करेगी, मान देगी और जिताएगी। अधिक होगा तो जाति के नाम पर जुट जाएगी। उससे भी अधिक होगा, तो भी क्या होगा क्योंकि उसे हर स्थिति में ‘आॅल इज वेल’ का गीता-ज्ञान हो चुका है। किन्तु यह देखना होगा कि जनता अपने नेता को रचती है। जनता अपने नेता की पहचान करती है। वह जनता है जो एक नज़र में यह पकड़ लेती है कि जो बात कही जा रही है वह कितनी सच्ची है और कितनी झूठ। उसे रसायनशास्त्र के हिसाब से ‘लिटमस टेस्ट’ नहीं करना होता है। वह अपने अनुभव-साक्ष्य प्रकृति से सब स्वाभाविक ढंग से तय करती है। यही जनता जब प्रतिरोध में प्रतिक्रिया देती है, तो अच्छे-अच्छों का सूपड़ा साफ हो जाता है।

हां, उसमें देश-काल-परिवेश से 
सम्पृक्त बुद्धिजीवियों की भूमिका जबर्दस्त है। इसे बाजारू टीआरपी से नहीं नापा जा सकता है। लेकिन भारतीय अकादमिक जगत आज घोर विपत्ति में है। वहां सामाजिक मुद्दों पर बहस नहीं है; प्रहसन है। राजनीतिक आलोचना पर संवाद-सम्मति नहीं है, नंगई है। युवा लड़के-लड़कियों के बीच पिज्जा-बर्गर है, फेसबुक-व्हाट्शप है। कुछ क्रांतिकारी मिज़ाजी मूवमेंटियों और एक्टिविस्टों का जायकेदार समूह है जो कलरव-गान का स्वांग करते हुए कभी भगत सिंह को याद करता है, तो कभी आचार्य नरेन्द्र देव को, लोहिया और जयप्रकाश नारायण को। और देहबाज सुर-ताल का सम्मोहनशाही और नकलटिपी बुद्धिजीवी वर्ग बाकायदा नागार्जुन की शब्दावली में कहता है-‘आबद्ध हू, सम्बद्ध हूं, शतधा प्रतिबद्ध हूं’; लेकिन असल में वह क्षण-क्षण बेईमानी में लोट-पोट करने की सोच रहा होता है; स्वयं के प्रशस्तिगान में बुद्धिवादी भाट-चारणों को नियुक्त करना चाहता है। सबसे कठिन मोड़ है यह जहां समाज का बुद्धिश्रावी नेतृत्व दौलत के गुलबर्ग में लुट-पिट जाता है, बिक जाता है। नतीजतन, आज की राजनीति में यंत्रवादी-प्रचारवादी-जनसम्पर्कवादी एक बीहड़ मकड़जाल फैलाव पर है। मनस्वी साहित्यकार अज्ञेय ने बुद्धिवादी चिन्तन के आधुनिक ढर्रे और उसके यांत्रिक रूपांतरीकरण पर चिंता जताते हुए लगभग गहरे अफ़सोस के साथ कहा है-‘वैज्ञानिक विकास ने जानकारियों का ही ऐसा अम्बार लगा दिया है कि उसी में से वांछित तथ्यों तक पहुँचने के लिए हमें बड़े और अत्यंत द्रुत यन्त्रों की आवश्यकता होने लगी है। कहने को इन तथ्यों को हम भी ‘जानकारी’ कहते हैं; लेकिन यदि जानकारी का सम्बन्ध ज्ञान से, व्यक्ति के मन या चित्त से होता है तो ऐसा कहना भाषा के साथ भी एक प्रकार का धोखा है। क्योंकि ऐसा जान पड़ता है कि अगर प्रगति की यही दिशा रहनी है, तो व्यक्ति मात्र एक संगणक-संचालित समाज की ओर-कम्प्यूटराइज़्ड मैनेजमेंट कण्ट्रोल में परिणत हो जाने वाली हैं। यह विकास का चित्र नहीं है, एक विभीषिका है।’’

मोटे तौर पर श्रम के स्थान पर बुद्धि के श्रम द्धारा जीविका कमाने वाला वर्ग बुद्धिजीवी माना जाता है। शारीरिक श्रम की तो सीमाएं होती हैं और बुद्धि की सीमा नहीं होती। तो शारीरिक श्रम की ईमानदारी और बेईमानी का पता लगाया जा सकता है पर बुद्धि की बेईमानी का पता लगाना बड़ा मुश्किल हो जाता है, दोनों का-बेईमानी और ईमानदारी का भी।.....

कुल जमा निष्कर्ष ओह! अखिलेश, तुझे हुआ क्या है!
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Tuesday, March 24, 2015

आभिजात्य-पूंजीवादी ली कुआन यू ने सिंगापुर को बनाया अमीर, इसी नक्शेकदम पर नरेन्द्र मोदी


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कुछ आप भी विचारिए। आखिर सम्पादकीय पुष्ठ पर यह समाचार इतने महत्त्व के साथ प्रकाशित क्यों हुआ है? किसी समाचारपत्र का सम्पादक पत्रकारीय दायित्व से बंधा होता है। वह कुछ भी नहीं लिख सकता है। यदि वह सच को नकारते हुए ग़लत के पक्ष में सकारात्मक चीजों को ‘प्लांट’ करता है, तो यह हमारे बहस, संवाद और विमर्श का हिस्सा होना चाहिए। और यदि नहीं, तो यह बेहूदगी की हद है जो हम खुद को पत्रकार कहने का गुमान पालते हैं, नैतिकता की दुहाई देते हैं। शब्दों के हेरफेर द्वारा शास्त्रों ने सर्वाधिक नरंसंहार और अत्याचार किया है। अब इस ‘डिस्कोर्स’ को बदले जाने की जरूरत है। 
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कथन: मेरा मानना है कि दैनिक समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित आज का सम्पादकीय ‘पेड एडोटोरियल’ का नमूना है। 

सम्पादकीय सारांश : ली कुआन यू आधुनिक सिंगापुर के संस्थापक हैं। उन्होंने इस देश का कायाकल्प किया। वे तीसरी दुनिया के देशों की तरह स्वतन्त्रता सेनानी नहीं रहे थे, तीसरी दुनिया के नेताओं की तरह वे थोड़े या ज्यादा वामपंथी नहीं थे। वे पूंजीवाद के समर्थक थे। वह सिंगापुर के चीनी मूल के एक अभिजात खानदान से थे, जो अंग्रेजी बोलते थे। यू ने चीनी भाषा तब सीखा जब वे राजनीति में आए। उन्होंने पूंजीवाद के आधार पर विकास का ‘सिंगापुर माॅडल्’ तैयार किया। आज सिंगापुर गरीबीमुक्त देश है।  एक भी गंदी बस्ती नहीं है। वहां छह में से एक परिवार ‘मिलिनेयर’ है। यानी इन परिवारों के पास कम से कम दस लाख अमेरिकी डाॅलर अतिरिक्त पैसा है जिसमें इनकी अचल सम्पति नहीं शामिल है। भ्रष्ट्राचार और अन्य अपराध बहुत कम है। पुलिस विश्वसनीय और कार्यकुशल है। वह 30 साल तक सत्ता में बने रहे। यू की तानाशाही और भाई-भतीजावाद की खूब आलोचना हुई। वैसे सिंगापुर में यह आलोचना करना संभव नहीं है। वहां इस किस्म की आजादी नहीं है। यू के परिवार के सभी लोग सत्ता में बड़े पदों पर हैं और उनके बड़े बेटे अभी प्रधानमंत्री हैं। यू जब स्कूल में पढ़ते थे तब वह अपने अंग्रेज हेडमास्टर की छड़ी मारने की सजा से बहुत प्रभावित हुए और सिंगापुर में कई अपाधों के लिए छड़ी मारने की सजा का प्रावधान है। यू ने सिंगापुर में एक तानाशाह की तरह राज किया, लेकिन उनमें और अन्य तानाशाहों में एक फर्क यह रहा कि जहां ज्यादातर तानाशाहों ने अपने देश को कंगाल बना दिया, यू के राज में सिंगापुर समृद्ध होता गया।

सम्पादकीय का परोक्ष उद्देश्य : ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देने वाले वर्तमान प्रधानमंत्री के हाल में लिए जा रहे फैसलों के विरोध करने की बजाए सिंगापुर का उदाहरण देखा जाए जो देश आज अपनी समृद्धि के उच्चतम शिखर पर है। इसे ली कुआन यू के करिश्माई छवि ने संभव कर दिया है। पूंजीवादी ढर्रे, भाई-भतीजावाद, तानाशाही, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिने जाने के बावजूद यह देश आज एक बेमिसाल उदाहरण के रूप में हमारे सामने है जिसे यू के असाधारण व्यक्तित्व ने संभव कर दिखाया है। 


Monday, March 23, 2015

हिमालिया

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कल 24 मार्च, 2015 है। हिमालिया पूरे 14 वर्ष की हो जाएगी। उसकी शादी पिता ने ठीक कर दी है। उसकी मां बताती है कि वह तो अपनी बेटी की शादी खुद से दुगने उम्र में कर रही है। हिमालिया अबूझ-निरक्षर नहीं है।वह सोचती है, पहले शादी-विवाह समझ में नहीं आता है, कैसे इतने छुटपन में हो जाता था।

हिमालिया जिस मिस से पढ़ती है। वह उससे भी दुगनी उम्र की होगी। फोन में गाना बजते ही उस पर हाथ रख देती है और अंग्रेजी पिटपिटाने लगती है। वह शादी की बात नहीं करतेी; लेकिन बात करते हुए खूब खुश दिखती है। वह एक दिन पूछ ली थी-‘मिस आप अपने मेहर से बात करती हो?; हिमालिया को उसकी मिस डपट दी।
‘अरे! यह भी कोई शादी रचाने की उम्र है। इट्स टाइम टू फुल इंज्वायमेंट!’

हिमालिया आज खूब चहकते हुए घर लौटी थी। मां को कहा था-‘‘मां यह भी कोई शादी करने की उम्र है...’’

मां ने हिमालिया को एक तमाचा खींच दिया था। वह मुंह फुलाए दिन भर बैठी रही। सोचा, शाम को पिता से शिकायत करेगी। उसे बहुत बुरा लग रहा था। सब लड़की एक जैसा कपड़ा-लता क्यों नहीं पहनती है? सब लोगन को एक जैसा शिक्षा क्यों नहीं दी जाती? हम शादी कर लें और हमारी मिस हमसे दुगनी उमर में भी पढ़ती रहे कहां कैसे जायज है...?

यह सब सोचते-सोचते वह सो गई। उसकी मां ने उसका सुबकना देखा भी था। लेकिन वह निर्मोही जैसा पास न आई। बस दूर से टुकुर-टुकुर देखती रही।

हिमालिया जगी, तो पैर अकड़ा हुआ था। लगा जैसे दोनों पैर एक-दूसरे से उलझ गए हों; लेकिन यह क्या उसके पांव में, तो जंजीर बांध दी गई थी।

तारीख कैलेण्डर में आज ही का था। यानी 23 मार्च, 2015। इक्कीसवीं सदी। वह सदी जिसमें देश की सरकार अच्छे दिन आने का वादा करती है। वही सरकार जो अपनी जनता से इतनी जुड़ी हुई है कि सीधे प्रधानमंत्री देशवासियों से मन की बात कहते हैं।

लेकिन उसके पांव बंधे है, वह यह बात किससे कहे...?


Wednesday, March 18, 2015

राजनीति, मीडिया और न्याय

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अमीरों का, अमीरों द्वारा, अमीरों के लिए, अमीरों जैसा
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देशभक्ति सीखने के लिए चारित्रिक अनुशासन, आत्मिक उदात्तता और मनस्वी चेतना आवश्यक है; वाचालों को देशभक्ति सीखना नहीं होता, उन्हें तो बस जनमानस को नजरअंदाज करना और अपने गोलबंदियों के बीच मजमाई कहकहा लगाना आना चाहिए!
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राजीव रंजन प्रसाद 


भारत में राजनीतिज्ञ अमीर ही होते हैं, गरीब एकाध होते हैं। भूले-भटके; अपनी मन के सुनने वाले और अपनी बनाई दुनिया में रमने वाले। यहां बात उन बहुसंख्यंक अमीरों की हो रही है जो जनता की जरूरीयात की सौदेबाजी कर जनादेश बटोरते है और हरसंभवा सत्ता पर काबिज हो जाने में सफल  होते है। यह दुनियावी एवं अनुभवसाध्य सचाई है कि अमीर बेईमान, भ्रष्ट और दुष्चरित्र होते हैं। यह दोष उनमें पैदाइशी व्याप्त होती है। दुनिया भर में कुछ प्रजातियां, नस्ल, वंश अथवा जाति-विशेष के नुमाइंदे इस पैमाने का मनसबदार हैं। उनकी हेठी या ढिठई उनकी वाचालता और बोल-बर्ताव के नंगईपन से जगजाहिर है। उनका रात-दिन पर अधिकार-सा होता है; क्योंकि वे रात रंगीन और दिन की उजलाई में सफेद/काला या काला/सफेद कुछ भी कर सकने में उस्ताद हैं। उनके पास जमा-पूंजी अपने देह-दीदा की कमाई न होकर भड़ैती से उगाही या वसूली गई होती है। कईयों को तो अपने विरासत के पाप द्वारा हासिल होती है। यह दौलत मात्रा में इतनी इफ़रात होती हैं कि वे खुद पर लुटाएं या अपने कारिंदों पर वह कंगाल हरगिज नहीं हो सकते हैं। हां, यदि इनमें से कोई संतान-संतति बुद्ध पैदा हो जाता है, तो वह छुपता नहीं है; लोक उसे अपने मंगल के लिए वरण कर लेता है उसका अनुयायी बन जाता है; और ऐसे लोग हुए हैं लेकिन बहुत कम। लेकिन आज तो भारत जैसे देश में अमीरपना की राजनीति चरम पर है। आज राजनीति, मीडिया और न्याय के त्रिवर्ग पर इन्हीं कपूतों का एकछत्र अथवा निरंकुश राज्य है। सत्तागिरी की हनक से पैदा इन संतानों  को पता है कि राजनीति के हाथों शिकार लोग मीडिया द्वारा लोक-सहानुभूति अर्जित करेंगे और अंततः न्याय के लिए न्यायपालिका का शरण गहेंगे। अतः जनतांत्रिक लिहाज से लोक-सम्मत अर्थात जनता द्वारा चुनी गई सरकार इन अवांछित परिस्थितियों से सामना करने के लिए हरसंभव बचाव का विकल्प चुनती है। आज इस बचाव का सिलसिला या कहें ग्राफ इतना बड़ा, व्यापक और बहुआयामी है कि कौन सच्चा और कौन झूठा कह पाना बड़ा मुश्किल है। ऐसे लोगों के सुशासन के पोल हर क्षण खुलते हैं; लेकिन मीडिया प्रोपेगेण्डा के माध्यम से बारात इन्हीं की सजाई जाती है। अरबों-खरबों रुपए प्रचार माध्यमों में उड़ेलकर विकास की पिपीहरी बजाने वाले इन नेताओं को कमाना चाहे फूटी कौड़ी न आए; लेकिन लुटाने की तबीयत भरपूर होती है। ऐसे लोग गाते हैं:

‘निकल पड़ी है, भाग चली है
दूर-दूर तक बात छिड़ी है
कहते हैं उम्मीद की किरण खिली है,
किरण खिली है

क, ख, ग गूंजे स्कूलों में
दिखती है वर्दी मोड़ों पे
बीमार न अब अकेला है
हर तरफ विकास का मेला है

तीन साल की मेहनत दमके
जोर लगा रहे हम जमके
कहते हैं उम्मीद की किरण खिली है,
किरण खिली है’
                    -अखिलेश यादव

'मेरी धरती मुझसे पूछ रही
कब मेरा कर्ज चुकाओगे
मेरा अंबर पूछ रहा
कब अपना फर्ज निभाओगे
मेरा वचन है भारत मां को
तेरा शीश नहीं झुकने दूंगा
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा

वे लूट रहे हैं सपनों को
मैं चैन से कैसे सो जाऊं
वे बेच रहे हैं भारत को
खामोश मैं कैसे हो जाऊं
हां मैंने कसम उठाई है
मैं देश नहीं बिकने नहीं दूंगा
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा

वो जितने अंधेरे लाएंगे
मैं उतने उजाले लाऊंगा
वो जितनी रात बढ़ाएंगे
मैं उतने सूरज उगाऊंगा
इस छल-फरेब की आंधी में
मैं दीप नहीं बुझने दूंगा
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा

वे चाहते हैं जागे न कोई
बस रात का कारोबार चले
वे नशा बांटते जाएं
और देश यूं ही बीमार चले
पर जाग रहा है देश मेरा
हर भारतवासी जीतेगा
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा

मांओं बहनों की अस्मत पर
गिद्ध नजर लगाए बैठे हैं
मैं अपने देश की धरती पर
अब दर्दी नहीं उगने दूंगा
मैं देश नहीं रुकने दूंगा
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा

अब घड़ी फैसले की आई
हमने है कसम अब खाई
हमें फिर से दोहराना है
और खुद को याद दिलाना है
न भटकेंगे न अटकेंगे
कुछ भी हो इस बार
हम देश नहीं मिटने देंगे
सौगंध मुझे इस मिट्टी की
मैं देश नहीं मिटने दूंगा।'
                       -नरेंद्र मोदी 

अखिलेश सरकार और मोदी सरकार कौन-सा अख़बार पढ़ते हैं या कब कौन-सा समाचार चैनल देखते हैं; नामालूम; लेकिन जनता जो देख रही है; उसमें इन दोनों सत्ताओं का बहरुपियापन सार्वजनिक हो चला है। अरविंद केजरीवाल का स्वांग भी अब ढपोरशंखी बारात-सा ही साबित हो रहा है। खैर! कौन नहीं जानता यह सच कि अपनी चोरकटई और बेइमानी की चाहत पर पूंजीवाद प्रायोजित भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण का हमला भारतीय सम्प्रभुता पर लगातार जारी है। राजनीति के दुहरे-तिहरे छल-छद्म के कारण आधुनिक समाज भयाक्रांत है, अजीब दहशत में है। यह सामाजिक विखण्डन और विघटन की चेतावनी है। अपराध, हत्या, हिंसा और दरिंदगी की अमानुषिक छाया का कालापन उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। असंतुलित विकास और अवसर की असमानता के कारण दुनिया का यथार्थ तेजी से अपना पैंतरा बदल रहा है। यह आर्थिक विकास के विरोधाभास से उपजी हुई एक संकटकालीन स्थिति है जिसमें इस युग के गहरे दुःख बटोराए हुए हैं। फिर भी अमोघ शांति। रामायाण और महाभारत की भूमि पर अन्याय का प्रतिकार असंभव हो जाना; चकित कर डालता है। नतीजतन, सत्ता की चाह, भूख, कामना और आकांक्षा दिनोदिन इतनी प्रगाढ़ होती जा रही है कि सबमें लगभग एकसमान दलीद्दर समाया हुआ है। गांधी का ‘कोड आफ इंडिविजुअल कंडक्ट’ किसी को याद नहीं। अपनी ही स्वतन्त्रता और आत्मस्वाभिमान की रक्षा संभव नहीं। रोमां रोलां ने एक बार कहा था-‘ओह! स्वतंत्रता, दुनिया में सबसे अधिक जोर-जु़ल्म तुम्हारे नाम पर ही हुआ है।’ 

दरअसल, यह घोर विपत्ति का संकटकालीन दौर है। हम अपनी ही चेतना को सायास बलात्कृत कर रहे हैं। यह मानसिक दुष्कर्म भीतरी योजना-परियोजना का हिस्सा है जिसके कारण हमारी चेतना लगातार शिथिल, निष्क्रीय, किंकर्तव्यविमूढ़, निष्कंप, निष्प्रभ आदि हो चली हैं। हमें यह एहसास ही नहीं है कि खतरे की घंटी उन्माद और उत्तेजना के बरक्स कितनी मद्धिम और उपेक्षित-सी हो ली है। भारतीय समाज आत्मज्वर से पीड़ित है। उसे ‘बर्डफ्लू’ या ‘स्वाइन फ्लू’ से भी अधिक संक्रामक बीमारी लग चुकी है। लोगों की चेतना तेजी से मृतप्राय हो रही है, तो स्मृति लुप्तप्राय। जनक्रोश की जनधारा को लकवा मार गया है। पढ़े-लिखे शिक्षित लोग अपनी लोहे के चादर की लम्बे दरवाजों को खोल और बंद कर रहे हैं। शोहरत की दुधियाई रोशनी में उनका घर दमक रहा है, तो उनका फर्श दिपदिपाता हुआ नज़र आ रहा है। ऐसे बौद्धिक सामंतियों को यह नहीं दिखता कि इस देश का एक बड़ा वर्ग अपने दुधमुंहा बच्चे के दूध वास्ते खखन रहा है; बूढ़े मां-बाप के इलाज़ के लिए एक नौज़वान अपनी किडनी बेच रहा है। किसी भू-माफिया की धोखाधड़ी से आहत व्यक्ति नशे में डूब-उतरा रहा है। देश की बच्चियां रोज अराजक तत्त्वों, शोहदों और दरिंदों के हाथों दबोची एवं बलात्कृत की जा रही हैं; गणमान्य शासक! बता तूने कितनी सजा मुकर्रर की; कितने गुनाहों का पर्दाफाश किया; कितनों को न्याय दिलाया; कितनों के सुख-चैन लौटाए, कितने तुम्हें शापित करने की जगह दुआएं दे रहें हैं; कितने तुम्हें अगली बार जिताएंगे; कितने 'तुम-सा कोई नहीं' कहते हुए तुम्हारी वंदना कर रहे हैं....? हे आत्मजीवी शासक! देश की स्वाधीन सत्ता ने लोगों को निखट्टू और निकम्मा बनाने के सिवा किया क्या है? सरकारी-तंत्र, नौकरशाही, लालफिताशाही, नेता, सफेदपोश, मंत्री, हुक्मरान आदि लूट और भ्रष्टाचार में इस कदर पेनाहे हुए हैं कि उनके लिए ‘गरीब’ का मतलब नरेगा और मनरेगा है। जबकि दूसरे सियासी सत्ताधारियों के लिए ‘गरीब’ का मतलब ‘डिजटल रेवोल्यूशन’ है। देश का प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति भूख, गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, अन्याय, पीड़ा, तकलीफ, भेदभाव, लिंग-भेद, दुष्कर्म, हत्या, हिंसा, अपराध आदि को वे ‘रूटीन न्यूज़’ मानते हैं और उन पर अपनी सरकारी विज्ञप्तियां/दुखाचार जारी कर अपनी जवाबदारी से मुक्त हो लेते हैं। ऐसे महाजनों और महानुभावों के लिए आमजन का मरना चिंता का विषय नहीं है। लेकिन इन भोग-विलासी जनों के गले में ख़रास तक उत्पन्न हो लेना ‘ब्रेकिंग न्यूज’ है।

थोड़ी रूख और बात मीडिया की की जानी आवश्यक है। यूं तो आज की मीडिया अपनी करम-धरम में बेह्या हो ली है। वह पूंजी के फेर में अपना मूल चरित्र खो चुकी है। वह सत्ता के बेडरूम में नंगे दाखिल होने को तत्पर है। वह सत्ता की इच्छा पर करवटे लेने या उठ-बैठ करने को राजी है। सरकार कहे कि देश में महंगाई घट गई, तो मीडिया कोहराम मचाएगी घट गई; सरकार कहे कि देश में अब लोग पहले की तुलना में अधिक कार खरीदने लगे हैं, देश की लगभग जनता के पास स्मार्ट फोन हो गए हैं, तो मीडिया यही खबर अक्षरशः लांच करेगी। अब तो अमेरिका यह बता रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था आगामी वर्षों में क्या करवट लेगा; उसकी उंचाई-मुटाई-लम्बाई क्या होगी; वगैरह-वगैरह। दरअसल, वैश्विक दबावों की आड़ में या परोक्ष षड़यंत्र में सरकारी हुक्मरानों की चेरी बन चुकी भारतीय मीडिया के लिए ईमान-धर्म पैसा है; क्योंकि पैसे से बंगले खरीदे जाते हैं; पैसे से हनीमून पैकेज तैयार होते हैं; पैसे से परिवार जनों के चेहरे पर प्रसन्नता और बच्चों के पाॅकेट-मनी में बढ़ोतरी संभव है। जब सबकुछ पैसे से ही होना जाना तय है, तो फिर अपनी आमद और आमदनी से परहेज या गुरेज कौन करे। आज की पीढ़ी जो सुख-सुविधा में शुरू से पली-बढ़ी और आज बड़ी हुई है; वह पीढ़ी बेहद व्यावहारिक है। उसके लिए चारित्रिक मूल्य ठेंगा है; शुचिता का प्रश्न ढोंग है; फिजूलखर्ची की जगह मितव्ययिता बेवकूफी है। आज की यही पीढ़ी मीडिया का सबसे सक्षम और लक्षित उपभोक्ता है। आज की पत्रकारिता जनसंचार की जगह जोन/जोनल विशेष के प्रति उत्तरदायी है। वह सोसायटियों को ‘कवरेज’ देती है। क्योंकि मौजूदा मीडिया-क्षेत्र में आ रहे लोग कारपोटियों के वंशज हैं या उनके डीएनए में उन्हीं के गुणसूत्र विद्यमान हैं। मीडिया में चलते-फिरते इन ज़वान ‘जन-गण-मन’ गायकों के लिए पिज्जा-बर्गर और सथ्यता-संस्कृति में कोई अंतर नहीं है। भारतीय रेस्तरां का मालिक भारतीय हो या अंग्रेज; उन्हें सिर्फ मुफ्त पास चाहिए होता है। किसी कंपनी का सीईओ विदेशी है या भारतीय; इससे आज की प्रबंधकीय शिक्षा-दीक्षा पाकर अपने ‘बुलंदी’ पर होने का गुमान रचती युवा पीढ़ी का कोई वास्ता या सरोकार नहीं है। गांधी, मोदी, नीतिश, अखिलेश, रमन सिंह, शिवराज सिंह चैहान, वसुंधरा राजे, आनंदी बेन पटेल और अरविंद केजरीवाल सब ‘क्लाइंट’ है जिनसे मनमाफिक पैसे मिलने के एवज में उनके कहे मुताबिक ‘राम-लीला’ और ‘रास-लीला’ करना है। आज की मीडिया लोगों को मामुली आदमी कहती और मानती है। मीडियावी स्टुडियो में पाउडर और फेयर-क्रीम चिपुड़े शब्द, पद, वाक्य और हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित छौंकुआ भाषा में गहगह करने वाले/वाली इन नकाबी पेशेवरों के लिए हर समाचार दाल-भात का कव्वर है; हत्या-हिंसा, दर्दनाक मौंते के क्रम में ब्रेक वह भी कहकर; क्या तमाशा है भाई! आजकल समाचार का मतलब राजनीति और राजनीति का मतलब बिकाउ होना है। मीडिया वह हर चीज बेचने को तैयार है, जिसकी उसे मनमाफ़िक कीमत हासिल है या भेंट की गई है। इसीलिए लोगों का मन समाचार चैनलों से तेजी से उचट रहा है। जनमाध्यमों में माध्यम का वर्चस्व-प्रभुत्त्व कायम है; लेकिन जन-दबदबा अथवा जन-मूल्य गायब है, नदारद है। लोग टेलीविज़न से अधिक भाव रिमोट कंट्रोल को दे रहे हैं जो अपने भीतर विकल्प की भरपूर गूंजाइश रखता है।

एक अर्थ में, लोगों का उचटना, तंग होना या मीडिया चैनलों से हद दरजे तक दूरी बनाने की सोचना हर दृष्टिकोण से जायज है। क्योंकि जनता जब टेलीविजन से दूर होती है; समाचार-पत्रों से अलग होती है, तो वह स्वयं से उस घड़ी सबसे अधिक जुड़ी होती है। और जब आदमी खुद से जुड़ जाता है, तो उसका फिर अपने स्थान, क्षेत्र, प्रांत, राष्ट्र, विश्व आदि से जुड़ना शुरू हो जाता है। फिर वह देश-काल-परिवेश में दखल देने लगता है। फिर वह नेतृत्व का कमान अपने हाथों में लेने की सोचने लगता है। और इसी बरास्ते जो जन-ज्वार फूटता है; सार्थक नेतृत्व, किकल्प और सत्ता इन्हीं से बनती है। जनता याद करती है कवि मुक्तिबोध को:

‘‘ज़िन्दगी की कोख में जन्मा
नया इस्पात
दिल को खून में रंगकर
तुम्हारे शब्द मेरे शब्द
मानव-देह धारण कर
असंख्य स्त्री-पुरुष बालक बने, जग में भटकते हैं
कहीं जन्मे
नए इस्पात को पाने
झुलसते जा रहे हैं बाग में
या मुंद रहे हैं धूल-धक्कड़ में
किसी की खोज है उनको
किसी नेतृत्व की।’’

और अंत में न्यायपालिका की बात करें, तो भारतीय लोकतंत्र में कटी पतंग की भूमिका में है। जिसे किसी न किसी दिन ज़मीन पर आना तय है, सुनिश्चित है। लेकिन वह आकाशमार्गी डग भरते हुए, कुलांचे मारते हुए बराबर भारतीय न्याय-व्यवस्था में विश्वास और आस्था रखने का भरोसा दिलाती है। अफसोस; भेडिए बाल के बाद जनता का खाल नोच रहे हैं जबकि नयपालिका में अभी भी सुनवाई जारी है। इल्तजा है, मरने तक इंतजार कीजिए। भारतीय आध्यात्मिकों की मानें, तो-मरने के बाद सबको सद्गति मिल जाती है। अतः बस निहुर कर ज्योतिषियों, सन्यासियों, संतों, महात्माओं, आचार्यों, गुरुओं के आगे अपना मन-तन-धन सौंपते जाइए! ‘मंगलम् भगवान विष्णु...'




Monday, March 16, 2015

प्रिय जन,

दुखी होना मनुष्य का सहज-स्वाभाविक गुण है। लेकिन, बाबला के जाने से अकथित व्यथा की प्राप्ति हुई है। नाम से नारायण देसाई जो बापू की गोद में पला-बढ़ा और अंत तक जो शाश्वत-मूल्यों का संवाहक बना रहा; जो भारत की ही नहीं विश्व की तरुणाइयों के बीच सत्य-अहिंसा की अलख जगाता रहा; इस संसार से विदा हो लिया। उसका जाना हतप्रभ करता है; तो नहीं! लेकिन उसके न रहने से जो पीड़ा जन्मी है; वह असह्य है। युक्लिड ने कहा था कि रेखा वही है सकती है जिसमें चैड़ाई-मुटाई न हो। मेरे देखते ऐसी लाइन या लकीर न तो आज कोई बना पाया, न बना पाएगा। लेकिन, नारायण ऐसी ही परिकल्फना रख जिया और अंतिम सांस ली। मैं अपना कहा फिर दुहराता हूं कि आजतक हम आखिरी दरजे की बहादुरी नहीं दिखा सकें, मगर उसे दिखाने का एक ही रास्ता है, और वह यह कि जो लोग उसे मानते हैं वे उसे दिखायें। मेरा अपना मानना है कि जिस तरह आजादी के दिनों में स्वतंत्रता-सेनानियों ने जेलों का डर छोड़ दिया था, इस घोर प्रकम्पित भौतिकवादी युग में उसी तरह नारायण ने मृत्यु का डर छोड़ दिया था। पह गांधी-कथा का राग-गान गाता रहा; कहता-सुनाता रहा। देश की चेतना में उसकी भूमिका क्या और कैसी है यह देशवासी जानें; मेरे लिए, तो नारायण ने एक बड़ी लकीर खींच दी...!

ओह! बाबला, मन कितना अप्रसन्न् है, और दुखी है।

नारायण बाबला था; इसलिए कर सका जो उसके सामथ्र्य और सीमा में था। एक आदमी बहुत कुछ नहीं कर सकता। बहुत कुछ नहीं हो सकता। बहुत कुछ करने और बहुत कुछ होने के लिए उसे अंतर्यामी होना होगा। लेकिन गांधी होने के लिए, भगत होने के लिण्, आम्बेडकर होने के लिए,  विनोबा होने के लिए, जयप्रकाश होने के लिए या महादेव और नारायण होने के लिए तो देहधारी होना होगा...दादा धर्माधिकारी होना होगा। इस जगत में परिवर्तन सचेतन प्रयास से ही संभव है जो मनुष्य अपना अभीष्ट जानकर कर सकता है। शेष प्रकृति स्वमेव करती है। लेकिन, जब मनुष्य अपने हिस्से का काम भी प्रकृति पर थोप देता है या उसे इस दशा अथवा अवस्था में पहुंचा देता है कि प्रकृति के काम में अतिरिक्त अड़चन पैदा होने लगे, तो ऐसी परिस्थिति में प्रकृति का प्रकोप दुहरा-तिहरा होता है। वह अपनी ही पारिस्थितिकी को नियंत्रित और संरक्षित-अनुरक्षित रख सकने में असमर्थ हो जाती है। आज प्रकृति या पर्यावरण की हाल-ए-हकीकत कुछ इसी माफिक है। सबलोग अब बचाव की दिशा में नहीं मृत्यु-दशा में गतिमान होने की चाह में नि:द्वंद्व ग़लत-सलत, पाप-अनाचार, हिंसा-हत्या, युद्ध-आतंक आदि में स्वयं को घुलाए हुए हैं। मानव-जगत का यह विलयन स्वाभाविक नहीं है। परन्तु आज मनुष्य तकनीकी-प्रौद्योगिकी की श्रेष्ठता में इस कदर बदहवाश है कि उसे अपनी चेतना से कोई वास्ता-रिश्ता ही नहीं है। वह अपने दंभ और गुरुर में प्रकृति के सब्र की परीक्षा ले रहा है; लेकिन वह भूल रहा है कि प्रकृति का सब्र जब कहर बन टूटता है, तो मानव-निर्मित बांध शीशे की तरह चटकने और चूर होने शुरू हो जाते हैं; जिसके हर कण और हिस्से में अक्स, तो मनुष्य का दिखेगा; लेकिन वह उस वक्त कोई पराक्रम करने की स्थिति में नहीं होगा। यह अमेरिका-चीन-ब्रिटेन-जापान-इटली-फ्रांस जानते हैं और नेपाल-भूटान-तिब्बत-मयंनमार-हिस्तान-पाकिस्तान भी। सब देशों की एक ही गति होगी; ऐसा नहीं है। प्रकृति उन्हें ही बचा देखना चाहेंगी जिन्होंने प्रकृति को हर हाल में बचे रखने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया, होम कर दिया अथवा इसी की चिंता-फिक्र-जुगत में खेत हो गए।

देव-दीप, नारायण मानवीय चेतना का अगहर था। वह गांधी को अपना नियामक और प्रणेता मानता था। उस गांधी को जिसे इस देश में सीधे सीने पर गोली मारी गई। उस गांधी को जिस गांधी के नाम पर पूजा-अर्चना और आध्यात्मिक टिटीमा बहुत है; स्वच्छता अभियान के नाम पर साफ-सफाई के चोचले बहुत हैं; लेकिन नारायण जैसा मनस्वी साधक और सच्चा अनुयायी नहीं है; या कंकड़ की अधिकता के बीच अनाज के दाने कम हैं।

अब और कहने की इच्छा नहीं रही। कहे को सुनता कौन है। सुनकर मानता कौन है। मानकर चलता कौन है। चलकर आगे अपना सबकुछ जन-जन के लिए लुटाता कौन है। सबको अपनेआप की पड़ी है। आजादी इस सोचे के लिए नहीं थी। उस सोचावट में आमजन का जीवन, सुरक्षा और आंतरिक समृद्धि का ध्येय शामिल था। उस चिंतनधारा में आखिरी आदमी के लिए संविधान की प्रस्तावना लक्षित थी। उसमें भारतीय वेद-ऋचा, मुनि-तपस्वी, सेठ-साहुकार, राजा-रियासत, नेता-अमलादार सबकी भागीदारी थी; हिस्सेदारी व्यापक और एकबोधीय थी। उस परिकल्पना में भारत के अवाम के लिए आमंत्रण था; जागरण का संकल्प था। आज की तरह ‘मेक इन इंडिया’ नहीं जो अपने देशवासियों को परे टेरता है और दूसरे देश के व्यापारियों-कारोबारियों-पूंजीपतियों को आमंत्रित करता है। मैं इन प्रवृतियों का कल भी मुखालफ़त करता था, आज भी और अगले किसी देह-आत्मा का संसर्ग मिला, तो उसमें भी।

सबका
महात्मा

Saturday, March 14, 2015

प्रिय देव-दीप,

आइए, इस बार समन्दर को अपने घर आमंत्रित करें; उसके साथ ‘कूल-चिल’ पार्टी-सार्टी करें। ऐश-मौज, धूम-धड़ाका। गंजी-बनियान पर सोए। क्योंकि यह आराम का मामला है और इसी रास्ते हमें सदा के लिए सो जाने के लिए तैयार रहना है, तो गुनगुनाइए...मचिंग ड्राइव!!’
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कैसे हो? आज भारत और जिम्बाॅम्बे के बीच क्रिकेट मैच है। चारों तरफ सुन-सन्नाटा है। सारा हो-हो या तो टीवी में क्रिेकेट स्टेडियम में हो रहा है या तो टीवी देखते उन चिपकू लोगों के बीच; जो अपने माता-पिता को रोज दी जाने वाली दवाइंयों के नाम, खुराक और समय भले न जानते हों; लेकिन वे हरेक खिलाड़ी का पूरा रिपोर्ट कार्ड जानते हैं और आपसी बातचीत के दौरान बघारते भी हैं। 

बाबू, किसी चीज के बारे में जानना या जानकारी रखना ग़लत नहीं है। जानकारी चाहे जिस भी विषय के बारे में हो उसके तथ्य, आंकड़े और उससे सम्बन्धित सूचनाएं बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं। मुझे तो हाईस्कूल में पढ़ा पाइथोगोरस प्रमेय भी याद है और हीरो का सूत्र भी। मुझे तो रसायन में पढ़ा इलेक्ट्राॅनों की निर्जन जोड़ी; मेंडलिफ की आवर्त सारणी, सिंदर का सूत्र और पारा का परमाणु भार और परमाणु संख्या भी याद है। जबकि इसे पढ़े ज़माने हो गए। अब पत्रकारिता के तकाज़े से पढ़ना और चीजों को सहेजना जारी है।

देव-दीप, कहना यह चाहता हूं कि आदमी के संस्कार को गढ़ने में जिन बुनियादी चीजों की भूमिका होती है; उनका महत्त्व कभी खत्म नहीं होता। बस उन्हें बरतने की तबीयत चाहिए। उन्हें उल्टने-पुलटने की नियत चाहिए होती है। यदि आप किसी चीज को वर्गीकृत करते हैं या स्तरीकृत, तो आप उसके गुण-धर्म पर विशेष ध्यान देते है; पर्याप्त महत्त्व भी। यह इसलिए कि सब एक-दूसरे से भिन्न हैं; लेकिन उनकी अभिन्नता एक साथ होने और बने रहने में है। उनका गुण-धर्म उन्हें उनकी उपयोगिता सिद्ध करता है। इसी तरह आदमी को अपने गुण-धर्म के अनुसार अपनी प्रकृति-स्वभाव और आचरण का प्रदर्शन करना चाहिए। प्रदर्शनप्रियता से परहेज आवश्यक है। आप राजा हो या रंक। प्रकृति की निगाह में सब जीव और प्रजाति मात्र हैं। सबकी प्राकृतिक रूप से मूलभूत आवश्यकता एक माफिक है। भाषा की भिन्नता से भावनात्मक लगबाव अथवा इंसानी राग का मूल्य नहीं बदल जाता है। संवेदना के शक्लोसूरत में तब्दीली नहीं आ जाती है।यह बस न भूलें हम। यदि मां-बाप मनमाफिक कपड़े-लत्ते नहीं पहनने  देते, क्या इस नाते वे बुरे हो जाएंगे? अभिभावक अपने बच्चों को बार-बार पढ़ने और कड़ी मेहनत करने की ताकीद कर रहे हैं; क्या इसके लिए वे दकियानुस हो जाएंगे? आखिर इसमें किसका हित और अंततः लाभ छिपा है। ऐश, मौज और खुशी क्या स्थायी रहने वाली चीज है? नहीं न! भारतीय दर्शन का नाभिकीय-लक्ष्य या केन्द्रीय उद्देश्य मानुष् अभिव्यक्ति का सत्य से साक्षात्कार कराना होता है। उस सत्य से जो ‘सत्य शिवं सुन्दरम्’ की लोक-मंगलकामना में अनुस्यूत है, व्याप्त है।

 आजकल चीजें सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से तेजी से रीत रही है; छीज रही हैं। अक्सर हम सारा दोष पश्चिम के मत्थे मढ़ देते हैं। उनका नाम ले-लेकर गरियाते हैं और अपनी वेद-वैदिक परम्परा के सार्वभौमिक सत्य और सार्वदेशिक रूप से उच्चस्थ होने का महिमागान करते हैं। हम शिव के जटा से गंगा के अवतरित होने का अर्थ उसके सदानीरा पावन-पवित्र और निर्मल होने की बात पर सही विश्वास कर लेते हैं। अपनी गलतियां कहां सुधारते हैं हम? कौन अपने को अपने से सवाल के घेरे में खिंचना चाहता है? कौन यह कहता है कि हर जगह पाप और अनाचारी है; क्योंकि हम सब खुद पापी और अनाचारी हैं। सभी को दूसरे को सत्यवान बनाने की पड़ी है। हम तो सिर्फ जबानी ढंग से सत्या का मंगलाचरण गाते-बखानते हैं; और अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं। 

देव-दीप आने वाला समय अत्यंत कठिन है। हादसाएं और प्रकोप तेजी से बढ़ने वाली है। मौसम-चक्र बिगड़ने वाला है। लोग कठिन दौर में जीने के लिए मशक्कत कर रहे होंगे और बेरहम हो चुकी प्रकृति हमारे अपने ही किए का फल देती दिखाई देगी। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, इटली, जापान को अपनी ताकत और महाशक्ति होने का गुमान दिखाना होगा। उन्हें प्रकृति से मुकाबले में थेसिस-एंटी थेसिस तैयार करनी होगी। जब मनुष्य लगाातार हारता है, तो अविश्वासी हो जाता है। पराजय उसे आत्महीनता की ओर ले जाती है। ऐसे समय में ही भारतीय दर्शन का स्थायी मिज़ाज काम आता है। वह आपको ऐसे मौके पर अनुभवजनित और स्मृति-केन्द्रित संबल, प्रेरणा, और शक्ति प्रदान करता है। आत्महीनता की स्थिति में गौरव-गान नहीं गाए जा सकते हैं; लटके हुए चेहरे संग विजयगाान गाते हुए अपने मुख्य गंतव्य की ओर कदम नहीं बढ़ाया जा सकता है। उसके लिए तो जीवटता और जिजीविषा का होना पहली और आखिरी शर्त है। लेकिन हम इसे कैसे समझेंगे जब तक हम इन्हें जानने-समझने के लिए स्वयं को स्थिरचित्त नहीं कर लेते हैं; अपनी अनावश्यक तेजी पर अंकुश अथवा लगाम नहीं लगा लेते हैं।

प्रकृति गड़बडि़यां कम पैदा करती है; वह लगातार सुधार अधिक करती है। उसे मनुष्य की सत्ता से अति-मोह है; ऐसा नहीं है। लेकिन वह सबको बचा देखना चाहती है। वह सबकी उपस्थिति में अपने प्रेय-श्रेय का अभिवृद्धि मानती है। उसे हिंसा पसंद नहीं है; हत्याएं नहीं पसंद है। उसे नरसंहार और आपस में मार-काट कतई बर्दाश्त नहीं है। आजकल हिंसा, हत्या और आतंक का भयावह चेहरा सर्वत्र दिखाई दे रहा है। यह प्रकृतिजनित बुराई नहीं है; यह मानवजनित और आमंत्रित स्थिति है। इसके लिए मनुष्य मात्र जिम्मेदार है। लेकिन जब हमारे स्थूल-सूक्ष्म विवेक-विक्षोभ, ज्ञान, बुद्धि, संकल्पशक्ति आदी चुक जाते हैं, तो प्रकृति स्वयं ‘कमांड’ करना शुरू कर देती है। जिसने इस पूरी दुनिया को रचा है; उसके पास इस दुनिया को हर प्रतिकूल परिस्थिति से उबारने की ‘प्राग्रांमिंग’ भी आती है। आज प्रकृति इसी राह पर है। 

ध्यान रहे कि प्रकृति के पास कोई ‘आधार कार्ड’ नहीं होता है; न ही कोई चित्रगुप्त जैसा मिथकीय नायक। अतः प्रकृति का निर्णय कई बार अपनी वजन में नृशंस मालूम दे सकता है। वह वज्र बन सब पर टूटती है। यह कहर कई हिस्सों में जबर्दस्त उथल-पुथल और कोहराम मचाने का संकेत देते हैं; इस बरस भी ऐसा ही कुछ होने वाला है। खैर!

देव-दीप, अगले विश्व-कप में इस बार के विजेता कि प्रतिष्ठा दांव पर होगी; यह देखने के लिए अपना बचा होना भी जरूरी है। इसे अवश्य अपनी जेहन में रखना चाहिए। आमीन!

तुम्हारा पिता,
राजीव

Friday, March 13, 2015

जनसत्ता के पेटेंट लेखक अपूर्वानंद के लिखे पर पाठकीय प्रतिक्रिया

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Rajeev Ranjan

Mon, Mar 9, 2015 at 1:25 PM
To: Apporva Anand
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परमआदरणीय अपूर्वानंद जी,
सादर-प्रणाम!

आपका जनसत्ता में लिखा ‘अप्रासंगिक’ स्तंभ पढ़कर बेचैनी हुई। ‘प्रश्न परम्परा’(8 मार्च) शीर्षक से लिखे अपने इस स्तंभ के बहाने आपने माकुल और वज़नी सवाल उठाया है। पहली बात आप जैसे सार्वजनिक बुद्धिजीवियों के लिए रोमिला थापर के सवाल का मथना ही यह सिद्ध कर देता है कि आप अकादमिक फूहड़पन और बेहयाई से परे हटकर अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं। इसके लिए आप अतिरिक्त प्रशंसा का पात्र हैं; यह बात बेमानी है। दरअसल, समय, समाज और सवाल के सन्दर्भ में हमारा चिंतातुर होना लाज़िमी है; क्योंकि स्थितियां दिन-ब-दिन विकट और विकराल होती जा रही हैं। कथित बौद्धिकजनों का कुनबा बौराया हुआ है और जिन बहसों में वे तल्लीन-संलग्न हैं; उससे आम-आदमी का भला होना संभव नहीं; कुरीतियों का नाश होना संभव नहीं; मौजूदा शिक्षा-व्यवस्था(टेरी ईगल्टन जिस ओर संकेत कर रहे हैं और आप जिन्हें नोटिस ले रहे हैं) में जरूरी बदलाव मुमकिन नहीं। किताब पढ़कर(?) मुटाए बुद्धिवादियों के लिए आम-आदमी की भाषा और परिभाषा महज़ शब्द-क्रीड़ा मात्र है। वह अपनी अकादमिक रूतबे, हैसियत अथवा प्रतिष्ठा में इस कदर उलझा हुआ है कि उसके लिए आम-आदमी का सखा, बंधु, मित्र, यार, दोस्त आदि होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। ऐसे पाखंडी, सत्तालोलुप और आत्ममुग्ध बुद्धिजीवियों के लिए अपना बोलना ‘वचनामृत’ है; लेकिन जिनके बारे में बोल रहा है और जिनसे बोल रहा है; उनकी कभी सुननी पड़े; यह सोच पाना भी दूभर है। अकादमिक संगोष्ठियों-कार्यक्रमों में ऐसे लोग दुनिया भर के मुद्दों-मसलों-विषयों पर निःकंठ बोलेंगे। तथ्यों, आंकड़ों और सूचनाओं की ढेर में से वे जो कुछ भी सामने रखते हैं या परोसते हैं; उससे वे अपने बौद्धिक होने का गुमान करते हैं; जबकि श्रोताओं का एक बड़ा समूह भीतर ही भीतर गालिब का आईना चमका रहा होता है-‘‘हमें मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन....’’

यदि आप मेरी उम्र में होते, तो कहता-‘‘मित्र! इन ससूरों की ज़बान को लकवा क्यों नहीं मार जाते?’’  

खैर,हम तो विद्यार्थी ठहरे। आपके कहन की सीमा और मर्यादा है। वैसे भी आजकल के बौद्धिकजन सही सवाल करने पर अपनी नज़र टेढ़ी कर लेते हैं। मैं इस प्रकोप का भुक्तभोगी रहा हूं। अकादमिक साक्षात्कार में प्रतिप्रश्न करने की वजह से हिमाचल केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने मुझे सहायक-प्राध्यापक पद पर नियुक्ति नहीं दी। मैंने कहा-‘सर्जनात्मक लेखन एवं पत्रकारिता’ जैसे पाठ्यक्रम से आप हिंदी भाषा को बाहर का रास्ता दिखाकर कभी कोई मौलिक/नवीन अथवा नवाचारयुक्त प्रतिमान नहीं गढ़ सकते हैं। यह जानते हुए आप मुझे मेरे सामने सिर्फ अंग्रेजी में पढ़ाने और भविष्य में पीएच.डी. अंग्रेजी में ही कराने का प्रस्ताव कैसे रख सकते हैं?’' माननीय कुलपति ने बड़े आदर और विनम्रतापूर्वक कहा-‘‘हमें अच्छी हिन्दी नहीं अच्छी अंग्रेजी चाहिए!’’

अपूर्वानंद जी, हम देहाती बच्चे हैं; बेहद भावुक। हमारे लिए हर शब्द का अर्थ होता है और महत्तव भी तद्नुकूल। ऐसी बात हमें अंदर तक चोटिल करते हैं। हम भेदभाव और असमानता के बीच अपनी ताप, ऊर्जा, बल, शक्ति आदि से आगे बढ़े हैं। हमारा कोई मार्गदर्शक-दिग्दर्शक नहीं रहा है। पत्रकारिता का चुनाव अपनी हेठी और भीतरी जुनून का परिणाम है। हम कहीं किसी स्तर पर पीछे मुड़कर नहीं देखे हैं। मैं अभी-अभी अपना शोध-कार्य पूरा करने वाला हूं। जनसंचार एवं पत्रकारिता में नेट/जेआरएफ/एसआरएफ। परास्नातक में सर्वोच्च अंक। पत्र-पत्रिकाओं में लिखा-पढ़ा दर्जन भर। संगोष्ठियों में आधे दर्जन शोध-पत्र पढ़ चुका हूं। अब यहां से घर लौटने की कुछ माह बाद नौबत आये, तो क्या कहेंगे? यह कि प्रतिभा किसी मौके की मुहताज नहीं होती। ऐसी दार्शनिक नौटंकी मुझे रास नहीं आती है। शुक्र है, फर्डानिंड सस्यूर, कार्ल गुस्ताव युंग, एडवर्ड सईद, रोमन याकोब्सन, रेमण्ड विलियम्स, नाॅम चोमस्की, हेबरमास, क्रीस बेली, फ्रांचिस्का आॅरसेनी, टेरी ईगल्टन, राॅबीन जेफ्री आदि को लेकर लौट रहे हैं जिन्होंने कम से कम मुझे सही और शिक्षित आदमी होने का वास्तविक मर्म बुझाया है। यह बताया है कि दुनिया भर को सात्त्विक ज्ञान देने वाला राष्ट्र आज स्वयं अंधराष्ट्रवाद का शिकार अथवा भुलावे में है।

आज की तारीख़ में मुझे यह कहने में कोई दिक्कत नहीं है कि यह समय/दौर इस कदर ख़राब है कि अकादमिक गधों को जैसे अस्तबल का ‘इन्चार्ज’ बना दिया गया है; आज इन्हीं पर स्वस्थ और उपयुक्त घोड़ों के पहचान/चयन की जिम्मेदारी सौंप दी गई है। परिणाम प्रत्यक्ष है, गधों ने अपने जैसे अकादमिक गधों को ही इस दुनियावी जगत में ज्ञान बांटने के लिए चुनना-नियुक्त करना जारी रखा है। सारी कमियों/ग़लतियों को ढांक-तोप कर विश्वविद्यालयों का महिमामंडन और गुणगान-बखान चालू है। पिछले दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद’ की टीम आई, तो मैंने सीधे इस संस्था के निदेशक के समक्ष अपनी चिंता रखी; लेकिन ढाक के वही तीन पात। मुहावरा सही साबित हुआ-नक्कारखाने में तूती की आवाज़।’ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जो शोध-कार्य हो रहे हैं; वे विश्वस्तरीय है। मेरी बोलती बंद। लौट के बुद्धू घर को आए जैसी हालात। भीतर चुप्पी और सन्नाटा। लेकिन प्रश्न वहीं का वहीं...क्या हुआ नचिकेता? हा! हाहा! हाहाहहहा!!!

ऐसे में आपके ही कहे का आश्रय लूं, तो कथित विशेषज्ञ तो हैं; लेकिल बुद्धिजीवी नहीं हैं। विशेषकर सार्वजनिक बुद्धिजीवी। चलिए इन्हीं (ब)दस्तूरों के बीच अपनी-अपनी होली मुबारक!
सादर,

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता
(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिंदी
हिंदी विभाग
काशी हिंदू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221 005
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Sunday, March 8, 2015

कुछ लोग थे पेशे में जिन्हें देख पत्रकार होना चाहा मैं....!

पत्रकार विनोद मेहता का निधन
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तुम्हारे जाने के बाद भी हम लड़ेगे, साथी। दीया और तुफ़ान की जंग यह जारी रखेंगे, साथी...!!!  
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आपकी स्मृति के बिंब 

अनुवाद भरोसे प्रधानमंत्री का सम्बोधन...हिंदी में मौलिक प्रस्तुति देने वाले कहां बिला गए?

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हिंदी-दुर्दशा का हाल-ए-हक़ीकत
मूल भाषण-स्रोत
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सभी महानुभाव!
मैं सबसे पहले तो आपकी क्षमा याचना करता हूं, क्‍योंकि पहले यह कार्यक्रम आज सुबह तय हुआ था। लेकिन मुझे आज कश्‍मीर जाना पड़ा और उसके कारण मैंने Request की थी कि अगर समय बदला जाए तो ठीक होगा। आपने समय बदला और मुझे आप सबको मिलने का अवसर दिया, इसलिए मैं NASSCOM का बहुत आभारी हूं।
शायद ही कोई संगठन इतना जल्‍दी एक Movement बन जाए, आमतौर पर Membership होती है, सब Meetings होती है, सरकार को Memorandum दिये जाते हैं, सरकार से अपेक्षाएं की जाती है, कभी राजी-नराजी प्रकट की जाती है, लेकिन NASSCOM का Character वो नहीं रहा। यह संस्‍था से ज्‍यादा एक बड़ा आंदोलन बन गया और प्रारंभ में जिसने कुछ मोतियों को NASSCOM के धागे के साथ जोड़ दिया। आज धीरे-धीरे भारत का गौरवगान करने वाली एक बहुत बड़ी सुंदर माला बन गया है ।
जब NASSCOM की चर्चा आएगी तो Dewang की जरूर चर्चा आएगी। मेरा Dewang से अच्‍छा परिचय था और जब Y2k को लेकर के बड़ा तूफान खड़ा हो गया था, सारी दुनिया चिंतित थी और उस समय अटल जी की सरकार थी हमारे प्रमोद जी IT विभाग को देखते थे और बड़ा इतना Hype था Y2k के कारण पता नहीं कैसे क्‍या हो जाएगा। और उस समय Dewang के साथ काम करने का अवसर आया था, लेकिन खैर बहुत लम्‍बे समय हमारे बीच रह नहीं वो। मैं उनको आदरपूर्वक अंजली देता हूं और NASSCOM जितनी तेज गति से प्रगति करेगा उतने ही Dewang के ideas हमें हर बार याद आते रहेंगे।
25 साल के कार्यकाल में जब NASSCOM प्रारंभ हुआ तो मैं समझता हूं शायद यह क्षेत्र Hundred Million की Economy से ज्‍यादा नहीं होगा, आज Hundred forty Six Billion तक पहुंच गया। 25 साल में इतना बड़ा Jump, लेकिन ज्‍यादातर जब IT sector की चर्चा होती है, यह तो बात माननी पड़ेगी कि आज IT में जहां हम पहुंचे हैं उसका एक कारण, जो प्रमुख कारण है मुझे लगता है, वो प्रमुख कारण है कि इसमें सरकार कहीं नहीं है। हम जितने दूर रहे उतने ही अच्‍छे है। यह जो सारा करिश्‍मा है वो हमारी युवा पीढ़ी का है। 20, 22, 25 साल के नौजवान जिन्‍होंने उस समय इस क्षेत्र में प्रवेश किया। NASSCOM के इस Network के माध्‍यम से लाखों नौजवानों को रोजगार मिला, उनको अवसर मिले। देश की economy को लाभ हुआ। भारत को आधुनिक बनाने की दिशा में कुछ कदम हम भी चले।
लेकिन इन सबसे भी अलग एक बात जो मुझे हमेशा लगती है इस IT के कारण पूरी दुनिया को भारत की तरफ देखने का रवैया बदलना पड़ा। पहले दुनिया हमें पिछड़े, अंधश्रद्धा में डूबे हुए, सांप-सपेरे वाले, इसी हमारे देश की पहचान बनी हुई थी। लेकिन हमारे नौजवानों ने Computer पर उंगलियां घुमाते-घुमाते सारी दुनिया के दिमाग को बदल दिया और विश्‍व को भारत की एक नई पहचान देने में इस क्षेत्र का एक बहुत बड़ा योगदान है और इसके लिए इस क्षेत्र के साथ जुड़े हुए सभी भारत की इतनी बड़ी महान सेवा के लिए अनेक-अनेक अभिनंदन के अधिकारी है। मैं आपको बधाई देता हूं।
आज जिन महानुभावों ने इस क्षेत्र में योगदान किया है, जिन्‍होंने Innovation के द्वारा, नई-नई Application के द्वारा, अपने start-up Industries को भी बहुत ऊंचाई पर पहुंचाया है। जिन्‍होंने इस क्षेत्र से जो कुछ भी कमाया समाज सेवा के लिए लगाया है जैसे हमारे अजीम प्रेमजी, उन सबका मुझे सम्‍मान करने का अवसर मिला। मैं उन सबको हृदय से बधाई देता हूं। उनके Achievement के लिए NASSCOM को जन्‍म देने वालों से लेकर के NASSCOM को यहां तक पहुंचाने वालों को और NASSCOM के कारण अपने को भी आपको बहुत ऊंचाईयों पर ले जाने वालों को भी मैं बहुत-बहुत बधाई देता हूं और मुझे विश्‍वास है कि आप लोगों का यह सा‍हस, आप लोगों का यह प्रयास नई पीढ़ी को भी प्रेरणा देगा और अनेक नई चीजों को करने के लिए आश्‍वस्‍त करेंगे।
आपका कार्यक्रम है IT- India Tomorrow और आप Innovations पर बल दे रहे हैं। हम भी कुछ दिनों से Digital India की दिशा में चीजों को Synchronize करने का प्रयास कर रहे हैं। वक्‍त इतना तेजी से बदल चुका है कि जितना महत्व Highways का है, उतना ही महत्व i- Ways का है, Information ways. Highways बन गए तो प्रगति होगी और गारंटी जब तक i-way नहीं जुड़ता है अधूरी रह जाती है और इसलिए जब Digital India इस बात को लेकर के चल रहे हैं तो हमारी कल्‍पना है। Digital दृष्टि से जो Infrastructure चाहिए भारत के हर नागरिक को वो व्‍यवस्‍था कैसे उपलब्‍ध हो। उतना वो विस्‍तार होना चाहिए। हम Digital India की जब बात करते है तब Citizen Centric सेवाएं उसको उपलब्‍ध कराने की व्‍यवस्‍था, हम कैसे विकसित करें। हम Digital India की बात करते है, तब Governance में हम किस प्रकार से बदलाव लाएं और मेरा यह मत रहा है। Good Governance का एक पर्याय बन गया है E-Governance और जब मैं E-Governance कहता हूं तब मेरी दृष्टि से वो Easy Governance भी है, Economical Governance भी है। और उस रूप में Governance की सारी परिभाषाएं बदलती जा रही है। हम उसको कैसे आगे बढ़ाएं। हम आज जहां भी पहुंचे हैं, संतोष है ऐसा लगता है, लेकिन जरूरत के हिसाब से देखें तो अभी हम बहुत पीछे हैं। बहुत कुछ करना बाकी है। इतना बड़ा देश, इतने सारे लोग, आप कल्‍पना कर सकते हैं जिस देश में बहुत ही निकट भविष्‍य में 100 करोड़ Mobile Phones लोगों के हाथ में होंगे। Hundred crore क्‍या? अब जितना जल्‍दी आपकी field के लोग Mobile app जितनी तेजी से तैयार करेंगे। मैं समझता हूं उतना तेजी से आप Market को Capture करेंगे और मैं जो यह सलाह दे रहा हूं उसके लिए कोई Consultancy Fee नहीं है।
सिर्फ Banking लीजिए. मैं नहीं मानता हूं कि Bank में कोई जाने वाला है। Mobile Banking पर दुनिया चलने वाली है। हम उसको कैसे आगे बढ़ाएं, Mobile Governance पर चलने वाला है सारी सुविधाएं, सारी आवश्‍यकताएं, इंसान वहीं से प्राप्‍त करना चाहता है। आप तो देखते होंगे कि आज Astrologers भी Mobile पर सुबह क्‍या करना है, क्‍या नहीं करना, बता देते हैं। हर कोई समझता है कि इसका क्‍या उपयोग हो सकता है। हर कोई अपने-अपने तरीके से विकसित कर सकता है NASSCOM ने कभी Agenda नहीं रखा होगा कि Astrology और IT को क्‍या किया जाए, लेकिन लोगों ने कर लिया होगा।
कहने का तात्‍पर्य यह है कि पूजा-पाठ करना है तो भी उनको IT का सहारा लेना है। उसको दुनिया की Latest से Latest जानकारी चाहिए तो भी वो IT का सहारा ले रहा है। अपनी कोई समस्‍या का समाधान करना है तो भी IT से, Shopping करना है तो भी IT से, वह आज एक प्रकार से इस पर Dependent हो गया है और आपके परिवार में जो 18 से नीचे के जितने बच्‍चे हैं उनका एक ही गुरू है Google गुरू, वो सब चीज उसको ही पूछते हैं, वो आपको नहीं पूछेंगे। घर में भी अंदर चर्चा चलती होगी दो भाईयों के बीच में तो अंदर जाकर के पूछ करके आए देखो यह है तो यह इस रूप में उसने स्‍थान ले लिया है। इसलिए हम कल्पना कर सकते हैं कि इसमें व्याप्त की कितनी संभावनाएं पड़ी है और भारत का एक स्‍वभाव है इन चीजों को Adapt करना यह भारत के Nature में है।
हमारे यहां सामान्‍य से सामान्‍य व्‍यक्ति भी.. मैं अपना एक अनुभव बताऊं और मेरे लिए वो बड़ा surprise था। मैं गुजरात में मुख्‍यमंत्री था तो एक तहसील ऐसा था कि जहां मुझे पांच-छह साल वहां काम करने के बाद भी जाने का अवसर नहीं मिला था। मेरा स्‍वभाव रहता था कि मैं ज्‍यादा से ज्‍यादा स्‍थान पर पहुंचु, इलाके में जाऊं, लोगों से मिलूं, यह मेरा आग्रह रहता था। मैं हमारे सरकारी अफसरों को कहता कि भई वहां मुझे जाना है कोई कार्य्रक्रम बनाओ। अब वहां कोई कार्यक्रम बने इतना कोई विकास ही नहीं हुआ था क्‍या करें। मैंने कहा ऐसे ही चला जाऊंगा भई, कुछ करो। एक बस का Route चालू करने का कार्यक्रम बनाओ। मुझे वहां जाना है, खैर फिर तय हुआ कि वहां एक Chilling Centre बनाएंगे Milk Collection के लिए एक छोटा-सा Centre कोई 20-25 लाख का छोटा-सा इमारत बनाकर के Chilling Centre खड़ा किया।
मैंने कहा ठीक है, मैं उदघाटन के लिए आता हूं। जंगल विस्‍तार से सब आदिवासी लोग रहते हैं और forest होने के कारण वहां आम सभा करने के लिए भी जगह नहीं थी। कोई तीन किलोमीटर एक स्‍कूल था उस स्‍कूल के मैदान में एक आम सभा रखी तो यहां Chilling Centre का उद्घाटन करना और वहां जाना तो वहां पर जो Milk देने वाली कुछ आदिवासी महिलाएं थी। वो भी उस दिन उद्घाटन के समय Chilling Centre में करीब 25 महिलाएं उन्‍होंने बुलाकर रखी थी। हम सारा कार्यक्रम किया और मैं देख रहा था वो पच्‍चीसों महिलाएं Mobile Phone से फोटो निकाल रही थी। मानें आप कल्‍पना कर सकते हैं कि जहां 25 लाख का एक Chilling Centre बनाना एक बहुत बड़ी घटना सरकार के लिए थी। वहां सामान्‍य महिला वो भी आदिवासी महिला जो दूध भरने आई थी, उसके पास Mobile Phone था और फोटो निकाल रहीं थी और मैं उनके पास गया, मैंने कहा आप मेरा फोटो निकालकर के क्‍या करोगे? उन्‍होंने जो जवाब दिया वो मैं समझता हूं कि आपको भी चौंकाने वाला है। उन्‍होंने कहा हम जाकर के उसको Download कराएंगे। अब यह आपको भी अंदाज नहीं होगा कि आप कहां-कहां पहुंचे हैं। अगर इस शक्ति को पहचान लिया आपने कि आपका जो आखिरी client है वो आपसे दो कदम आगे है, उस need को पूरा करने के लिए सरकार Infrastructure खड़ा करे , आप नए Innovations करें। आपके Innovations को सरकार Adopt करे। और देखते ही देखते Revolution हो सकता है।
और मैं मानता हूं कि आने वाले दिनों में GDP की संभावना वाले अनेक क्षेत्र हैं, उसमें एक connectivity क्षेत्र, GDP increase करने वाला बहुत बड़ा क्षेत्र बनने वाला है। जितनी ज्‍यादा, जितनी अच्‍छी, जितनी तेज connectivity, उतनी अधिक GDP की संभावनाएं, यह होने वाला है। इतनी बड़ी तेजी से दुनिया बदल रही है, उस दुनिया को हम कैसे Capture करे। आने वाले दिनों में.. मेरे मन में एक सवाल है आप नाराज मत होना क्‍योंकि आपने बहुत किया है, देश का सम्‍मान बढ़ाया है, फिर भी, जो अच्‍छा करता है उसी से तो अपेक्षाएं होती है, जो अच्‍छा नहीं करता उसको कौन पूछेगा, भई हां ठीक है बहुत अच्‍छा, ले लो ईनाम ले लो। आप अच्‍छा कर रहे हैं, इसलिए मेरी अपेक्षाएं ज्‍यादा है। आप अच्‍छा नहीं करते तो मैं कुछ नहीं मांगता आपसे।
क्या आपके मन में सवाल नहीं उठता है दोस्‍तों कि Google मेरे देश में क्‍यों न बना? क्‍या Talent में कमी है क्‍या, यहां से जो गए उन्‍होंने जरूर बनाया। मैं नहीं मानता हूं कि सरकार यह रूकावट है। हौंसले बुलंद हों, दुनिया में हम पहुंचने के लिए हम उस level की Innovations पर जाएं ताकि जगत को चलाने में हमारी व्‍यवस्‍थाएं एक Role Play करें और यह हो सकता है दोस्‍तों, मुश्किल काम नहीं है। Hollywood के फिल्‍म से भी कम खर्चे में अगर मेरे देश के नौजवान Mars पर पहुंच सकते हैं, तो मैं समझता हूं कि आप भी कर सकते हैं मेरे दोस्‍तो! यह innovation के बहुत बड़े challenge के रूप में लेना चाहिए। कहीं और सब चीजें बनें फिर हम सिर्फ client बने, अच्‍छे client बने और अच्‍छे बने यह हमारा मकसद नहीं हो सकता। हमें इससे आगे जाना है। एक क्षेत्र ऐसा है, जिसमें बहुत संभावनाएं पड़ी है ऐसा मैं मानता हूं।
मैं दुनिया के जितने राजनेताओं को प्रधानमंत्री बनने के बाद मिला। शायद 50 से ज्‍यादा राजनेताओं से मिला हूं। उसमें 25 से 30 राजनेताओं से मेरी जो बात हुई है वो Cyber Security की उनकी चिंता सारी दुनिया परेशान है Cyber Security को लेकर। क्‍या मेरे हिंदुस्‍तान का नौजवान दुनिया को चैन की नींद सोने के लिए Cyber Security के लिए Full Proof Innovations लेकर के आ सकता है क्‍या? बहुत बड़ा Market होगा आप लिखकर के रखिए यह। firewall से भी काफी आगे बढ़ना पड़ेगा। हमें उस स्थिति में पहुंचना पड़ेगा और जिसके संबंध में जानते ही दुनिया को लगेगा कि, हां यार हम चिंतित थे, अब शायद हमें रास्‍ता मिल गया। सारी दुनिया की जो ताकत है, उस ताकत को Cyber Safety की जरूरत खड़ी हुई है। Cyber Security की जरूरत पड़ी है। क्‍या NASSCOM के द्वारा ऐसे एक Task-force बनाकर के, हम Globally क्‍या दे सकते हैं। यह बात सही है कि यह dynamic अवस्‍था है। आप एक करे तो वो दूसरा करता है, आप दूसरा करे तो, तीसरा करता है, लेकिन शायद जगत को एक बहुत बड़ा चिंतामुक्‍त करने का काम हम कर सकते हैं। मैं डरा नहीं रहा हूं, मैं इस विषय का मास्‍टर नहीं हूं। मैं एक Client हूं, मैं client के रूप में बात करता हूं, सामान्‍य ग्राहक। अगर हम यह security प्रदान नहीं करेंगे, वो दिन दूर नहीं होगा कि बहुत बड़ा वर्ग मोबाइल को छूने से भी दूर रहेगा। उसको लगेगा कि नहीं, नहीं भईया यह पता नहीं बातें कहां चली जाएंगी, कोई चीजें कहां Record हो जाएंगी अरे नहीं नहीं भईयां वो मैं नहीं करता, मेरे पास मत.. यह दिन आएंगें। और तब जाकर के इस process को इतना बड़ा धक्‍का लगेगा, जिसकी हम कल्‍पना नहीं कर सकते और इसलिए आवश्‍यक है हम Assurance पैदा करे विश्‍वास पैदा करे कि भई चिंता मत करो यह जो इस technology से तुम जुड़े हो, सुरक्षित है, चिंता मत करो.. तुम्‍हारी privacy को भी problem नहीं है।
तुम्‍हारे अपने Documents को भी Problem नहीं है। उसी प्रकार से जैसा E-Business बढ़ा, जो भी वो Portal बनाकर के आते हैं वो आगे बढ़ रहे हैं। अब जितनी बड़ी मात्रा में E-Database तैयार हो रहा है, Digital Database तैयार हो रहा है, आने वाले दिनों में आपको अपने Status से नीचे आकर के एक नया Business शुरू करना पड़ेगा। Status, मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं शब्द प्रयोग ऐसा करने वाला हूं। Public Life में तो आप ऊंचे जाने वाले हैं, व्‍यापारिक जगत में ऊंचे जाने वाले हो। ऐसे दिन आएंगे जब आपको Cloud godown शुरू करने होंगे। अब आप अपने पिताजी को कहेंगे कि मैं Godown शुरू करने जा रहा हूँ, तो वे कहेंगे कि तुम्‍हारी बुद्धि खराब हो गई है क्‍या? Godown खोलोगे क्‍या? लेकिन आने वाले दिनों में Cloud Godown का एक बहुत बड़ा business खड़ा होने वाला है। बहुत बड़ी मात्रा में लोग अपने Documents, अपनी सारी व्‍यवस्‍थाएं और बैंक, बैंक भी पूरा का पूरा Data आपके Cloud Godown में रखने के लिए तैयार हो जाएगा, जिस पल उसको विश्‍वास हो जाएगा कि आप Security Provide करते हैं, Safety Provide करते हैं। Cloud locker आने वाले दिनों में Important Document के लिए, Even कल जो हमने Gold Bond की बात कही है, Gold Bond लेने के बाद बहुत लोग होंगे जो Gold Bond को Cloud locker में रख देंगे। Cloud Godown and Cloud locker यह इतनी बड़ी Market की संभावना वाला क्षेत्र बन रहा है। मैं समझता हूं उस पर हमें व्‍यापक रूप से सोचना होगा और सरकारों को भी अब सरकारों को अपने दफ्तरों में फाइलों के ढ़ेर रखने की आवश्‍यकता नहीं होगी। वे अपने Cloud Godown में चीजें रखते रहेंगे और सालों-साल सुरक्षित उसको रखें वो दिन आने वाले हैं।
मैं स्‍वयं, मैं शायद पहला politician हूं, जो Sound Cloud का उपयोग करता हूं और मेरा अनुभव इतना अच्‍छा है, Sound cloud का। वरना मैं पहले Yahoo के अगल-बगल में ही घूमता रहता था, YouTube के अगल-बगल में घूमता रहता था। अब मैं चला गया वहां और मैंने देखा है मैं बहुत तेजी से एक बहुत बड़े जग‍त के साथ जुड़ गया। हम इन शक्तियों को अगर पहचानते हैं और उन शक्तियों को जोड़ करने की दिशा में प्रयास करते हैं तो बहुत बड़ा लाभ आने वाले दिनों में हो सकता है, ऐसा मुझे लगता है।
हमारे रविंशकर जी ने कहा कि अमीर और गरीब की चर्चा का एक नया पैरामीटर आने वाला है और वो है Digital Divide. Digital Divide से भी अमीरी और गरीबी नापी जाएगी और इसलिए समाज में दो तबके पैदा न हो, digital divide की अवस्‍था पैदा न हो उसको हमने आगे बढ़ाना पड़ेगा। मैंने देखा है सरकार में एक बहुत बड़ी समस्‍या रहती है एक तो silos में काम करने की उनकी पहले से ही आदत रही है और अब उनकी digital activity भी silos में पड़ी है। और मैं मानता हूं, मैं तो technician नहीं हूं, मुझे लगता आप कर सकते हैं, फिर वही आप कर सकते हैं इसलिए कहने का मन करता है।
किसी भी language को किसी भी language में Translate करने वाले Software आपने बनाए हैं। उसकी लेखनी अलग है, उसका grammar अलग है, लेकिन Translation हो जाता है software से। मतलब Interpretation के लिए आपके पास बढि़या-सा Talent है जिसका उपयोग करते हो। सरकार के सामने यह समस्‍या है, किसी ने 15 साल पहले कोई Software लिया तो यह सारा Material उस भाषा के Software में है। 10 साल पीछे कोई दूसरा Software लिया तो उसमें है। यह इतना बिखरा पड़ा है और इतने अलग-अलग लोग माल हमको देकर चले गए हैं। अब उस समय जो लोग थे उनको लेने की जरूरत होगी शायद और लेने में भी मजा आता होगा। क्‍या हमारी यह जो बिखरी हुई चीजें हैं, हरेक का अलग-अलग Software है। अगर Language को आप Interpret कर सकते हैं बड़ी आसानी से एक software से, क्‍या इस challenge को उठाकर हमारी यह जो Raw data पड़ा है, अलग-अलग form में पड़ा है, उसको हम चाहे इस प्रकार से उसको synchronize करना, उसको Interpret करना, उसको उस form में रखना क्‍या इस काम को कर सकते हैं क्‍या। देश के Governance में एक बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है इससे, क्‍योंकि आज मैं नया software लूं और लोगों को कहूं कि भई अब वो बदलो, वो फैंक दो इसमें डालो सारा। तो भई वो कहेंगे कि ठीक है साहब हम data entry करते रहेंगे। मैं नहीं चाहता हूं कि सरकारे data entry में ही लगी रहे। हमें बदलाव चाहिए और technology के उपयोग से क्‍या होता है देखा होगा आपने। बहुत-सी बातें होती हैं जो लिखने, पढ़ने, देखने को मिलती नहीं है, लेकिन मैं बताता हूं।
हम लोगों ने गैस सिलेंडर की जो सब्सिडी है वो Direct Benefit Transfer करने की Scheme बनाई। 80 percent ग्राहक तक हम पहुंच गए। करीब 12 crore लोगों को हम Direct Benefit Transfer कर रहे हैं और यह काम हमने 30 दिन में पूरा कर दिया, कैसे? Just it with the help of technology. कितना बड़ा achievement और मैं मानता हूं आने वाले दिनों में यह जो भ्रष्‍टाचार के खिलाफ लड़ाई है न, उसमें technology बहुत बड़ा Role play कर रही है। इतनी transparency लाई जा सकती है, हम चाहते हैं यह लाना और इससे बड़ी देश की सेवा क्‍या हो सकती है। यह सिर्फ गैस का जो हमने direct transfer किया है न, मेरा मोटा-मोटा अंदाज है शायद 10 percent लीकेज तो मैंने बंद कर ही दिया है। Can you imagine ten percent यानी thousands of crore rupee है।
अभी हमने Coal Auction किया है। पूरा technology का उपयोग किया, इतने बड़े बोर्ड पर public में उसको रखा। जिसको बैठना था, सारे पत्रकार भी बैठे थे। Auction हो रहा था। 204 coal blocks, जिसको Supreme Court ने सितंबर महीने में कह दिया कि भ्रष्‍टाचार हुआ है, रद्द करो। सब फायदा मुफ्त का उठा कर ले गए और आपको मालूम होगा कि एक जगह से चिट्ठी जाती थी, कोयले की खदान मिल जाती थी। Supreme Court ने निर्णय किया, हमने उसका फायदा उठाया। हमने तीन महीने के अंदर सारी योजना बनाई, Ordinance लाए, कुछ लोगों की नाराजगी स्वाभाविक है कि Ordinance क्‍यों लाए ? CAG ने कहा था कि यह जो coal block का आवंटन हुआ है, उसमें एक लाख 86 हजार करोड़ रुपये का घपला हुआ है। उस समय जब एक लाख 86 करोड़ अखबारों में हैडलाइन आई तो इस देश के नागरिक मानने को तैयार नहीं थे कि यार यह तो ऐसे ही लिख दिया होगा। CAG शायद सरकार से, उसकी भिड़ गई होगी। हम भी politically बोलते तो थे लेकिन मन में रहता था कि यार इतना होगा क्‍या? देखा भाई जिसने समंदर देखा नहीं है, जिसने गांव का तालाब देखा है उसको कोई पूछे कि समंदर कैसा है? तो वो क्‍या बोलेगा, क्‍या बोलेगा बेचारा। किसी को पूछेगा कि बताओ तो भई तो वो कहेगा कि तुम्‍हारे गांव में जो तालाब है न इससे बहुत बड़ा होता है। कितना बड़ा होता है, बोले बहुत बड़ा होता है। फिर पूछेगा.. ऐसे हमारी भी मुसीबत है.. हम तो कल्‍पना ही नहीं कर सकता है। अभी हमने 19 ब्‍लॉक का auction किया और technology का प्रयोग करके किया पूरी तरह e-auction था, सब लोग अपनी बोली computer से बोल रहे थे। 204 में से सिर्फ 19 का हुआ है, CAG का कहना है सिर्फ 204 में एक लाख 86 हजार करोड़ रूपये का घपला हुआ है। 19 का किया और अब तक एक लाख 10 हजार करोड़ रुपया की बोली, बोल चुके हैं। Technology से Transparency कैसे आती है इसका यह जीता जागता उदाहरण है और कहीं किसी ने उंगली नहीं उठाई है जी। एक सवाल नहीं खड़ा हुआ है। अगर हम ईमानदारी से आधुनिक विज्ञान का उपयोग करते हुए, नेक इरादे से चीजों को करें। क्‍या आने वाले दिनों में आप इसमें योगदान कर सकते हैं और मैं मानता हूं कि आप लोग कर सकते हैं और आपसे मेरी अपेक्षाएं हैं।
अभी हमने एक कल्‍पना रखी है हम जानते हैं कि Tourism का sector. अभी हमारे चंद्रशेखर जी Two trillion Dollar का हिसाब बता रहे थे। आज दुनिया में Tourism का Business three trillion dollar का है और तेज गति से बढ़ने वाला business है। आज जो Tourist है वो न टेलिफोन करके जानकारी लेता है, न किताब पढ़कर निकलता है, वो Google Map से चलता है वो Destination Google से तय करता है, वो IT profession के द्वारा व्‍यवस्‍था के द्वारा चलता है। क्‍या हम भारत का Tourism में हमारे इस Profession के माध्‍यम से एक बहुत बड़ी marketing कर सकते हैं? हम पूरी दुनिया को प्रभावित कर सकते हैं क्‍या? और भारत में गरीब से गरीब को रोजगार देने में Tourism बहुत बड़ी ताकत रखता है और एक बार उसको सही चीजें प्राप्‍त हो। मगर इन चीजों को वो मेहनत करके करे, Database तैयार करके करे, easily accessible व्‍यवस्‍थाएं विकसित करे। आप कल्‍पना कर सकते हैं हम कहां से कहां पहुंच सकते हैं। हमारे नौजवानों को मैं आग्रह करता हूं।
मैंने सरकार में अभी यह निर्णय किया है Heritage cities के लिए। मैं चाहता हूं कि देश में 50 ऐसे Heritage Cities में Virtual Museum तैयार किया जा सकता है क्‍या? देखिए यह किसी भी देश की विरासत को बचाने, संभालने में museum का बहुत बड़ा role होता है, लेकिन आज भारत के पास इतने पैसे नहीं है। कि हम world class museum को create करे, लेकिन virtual museum बना सकते हैं। मैं, नौजवानों आपसे आग्रह करता हूं, आइए virtual museum बनाइए, virtual museum बनाकर के एक बहुत बड़ा market खड़ा करे, tourism के साथ जोड़े और भारत सरकार तैयार है इस प्रकार के virtual museum को आने वाले दिनों में खरीदने के लिए तैयार है। एक बहुत बड़े Business की संभावनाएं हैं, Research करने वाली University मिल जाएगी, Professors मिल जाएंगे और फिर आप उसमें से तैयार करिए और इतना User friendly बनाएंगे, आप देखिए tourism को बढ़ावा देने के लिए यह virtual museum और Economical रहेगा। आप एक Museum खड़ा करे उसका खर्चा और एक Virtual Museum का बहुत फर्क पड़ जाता है। क्‍या हम इस काम को कर सकते हैं क्‍या? आने वाले दिनों में अगर इन चीजों का काम कर सकते हैं तो मेरा आपसे आग्रह है कि आप करे, बाकी तो शिक्षा है, Health है यह काम ऐसे है कि बड़े बहुत ही अनिवार्य हैं।
Remotest to Remote Area में हम अगर अच्‍छी शिक्षा पहुंचाने चाहते हैं तो Technology बहुत बड़ी ताकत है। Long Distance education के द्वारा उत्‍तम से उत्‍तम शिक्षा हम दे सकते हैं और हम अगर उसका उपयोग करे हम बहुत बड़ी सेवा कर सकते हैं आप Corporate Social responsibility के नाम पर कई काम कर रहे हैं, मेरा एक आग्रह है स्‍वच्‍छता के लिए आप करें, लेकिन उसके साथ-साथ मुझे बताया गया कि 1800 members हैं आपके NASSCOM के, क्‍या 1800 Member कंपनियां कम से कम एक का उस कंपनी के मालिक या उसके partner जिस primary school में पढ़े हैं, जहां भी बचपन में गांव में होंगे, शहर में, जहां भी पढ़े हैं कम-से-कम उस स्‍कूल को आप एक E-library donate कर सकते हैं क्‍या? आप हमारी नई पीढि़यों को जानकारी का खजाना खोल दीजिए उनके सामने। आज Minimum 20 लाख किताबें E-Library के लिए आसानी से उसको उपलब्‍ध हो जाएगी। आज गांव में दो हजार किताबों की Library बनाना कठिन है, लेकिन आप जहां पढ़े हैं आपको एक Attachment होगा, आपका भी मन करता होगा, जिस स्‍कूल ने मुझे बड़ा बनाया, मैं भी उसके लिए कुछ करूं। आप देखिए देखते ही देखते वो Viral की तरह फैलेगा और फिर E-Library की लिए बहुत बड़ा business खुल जाएगा। यह है कि E-Library का structure बनाकर के दे देते हैं, E-Library service provide करते हैं। science magazine आज हमारा विद्यार्थी कहां से खर्चा करेगा। Even medical students के लिए science magazine महंगे पड़ते हैं, लेकिन हम E-Library Provide करे तो वो कितना सारा कर सकता है इसका आप अंदाज कर सकते हैं। और इसलिए हम Corporate Social Responsibility के नाते ही अपने व्यक्तिगत जीवन में जहाँ नाता रहा वहां कुछ करें, आप देखिये उनके लिए भी बहुत बड़ी चीज़ होगी और आने वाले दिनों में बहुत बड़ा लाभ होगा और Dynamic आप उसमें उत्तरोत्तर सुधार करवा सकते हैं क्योंकि आप इस field में हैं। दूसरा जब मैं सूचना की बात करता हूँ E-Waste इसके विषय में awareness नहीं है देखिये हमारे देश में environment की समस्याएं इसलिए आई कि जिस जगह कारखाना लगा दिया, They were not conscious about it. हमें E-Waste के सम्बन्ध में और NASSCOMM को विषय उठाना चाहिए और लोगो के लिए Awareness Campaign चलाना चाहिए online चलाना चाहिये, E-Waste के Solutions देने चाहिए, सरकार के साथ मिलकर के कोई project बनाया जा सकता है। Campaign चलाना चाहिए, वर्ना हम कहाँ से कहाँ पहुँच जायेंगे।
कभी कभार इन दिनों हमारे यहाँ पहले अच्छा पेन रखना एक Status था, अच्छी घड़ी रखना एक Status था लेकिन अब अच्छा फ़ोन रखना एक स्टेटस हो गया है और एक दूसरे को मिलते रहते हैं और कहते है अच्छा-अच्छा तूने ले लिया Apple-6. अगर ये नहीं है तो लगता है कुछ नहीं है। बहुत साल पहले की बात है इमरजेंसी के दिन थे मैं Underground था, पुलिस हमें खोज रही थी। एक परिवार में मैं रह रहा था उनके एक भाई UK में रहते थे वो आये हुए थे शाम को पहुंचें तो सभी भाई बैठे थे, तो उन्होंने कहा कि में एक घड़ी लाया हूँ, दो-ढाई लाख की घड़ी होगी शायद सबने देखी, सुबह हम चाय-पानी के लिए बैठे थे और उनके एक छोटे भाई थे वो बड़े मजाकिया थे, तो उन्होंने उनसे पुछा कि time कितना हो गया, तो उन्होंने कहा कि आठ बज गए हैं, बोले नहीं-नहीं ज़रा ठीक से देखिये, उन्होंने बोला कि आठ ही बजे है, फिर वो बोले की आप ज़रा ध्‍यान से देखिये वो फिर बोले की आठ ही बजे है, तो दूसरे भाई बोले की अच्छा, मेरी 250 रुपये की घड़ी है उसमें भी आठ ही बजे हैं।
हमारे देश में 1500 रूपए के मोबाइल वाला भी जो उपयोग देता है 25000 रूपए वाला भी उतना ही उपयोग देता है। लाल बटन, नीला बटन, Green button इससे ही एक मैं मानता हूँ कि सचमुच में हमें मोबाइल revolution लाना है, mobile app का revolution लाना है तो एक बहुत बड़े वर्ग को, 80 percent utility नहीं है 80 percent.. एवरेज मैं कह रहा हूँ, कितना ही बढ़िया सॉफ्टवेर वाला मोबाइल ले आईये, लेकिन उसका उपयोग ही नहीं करेंगे तो फायदा क्या होगा। क्या school-colleges में इसके बारे में awareness कार्यक्रम हो सकते हैं क्या? इसको करना चाहिए। वरना मैं मानता हूँ कि यह एक अलग प्रकार का E- Waste हैं। कोई भी पैसा अगर कहीं पर dead money के रूप में पड़ा है तो मैं मानता हूँ कि वो देश का नुकसान है। अगर मेरा 25,000 रूपए का मेरा मोबाइल फ़ोन हो और मैं उसका 80 प्रतिशत use नहीं करता मतलब कि वो मेरा dead money है सीधा- साधा इकोनॉमिक्स है, हमें लोगों को तैयार करना है और यह काम यही field के लोग कर सकते हैं. उसकी utility से ताकत बढ़ती है देश की, सामान्य लोगों की भी ताकत बढ़ती है और उस दिशा में हम कैसे काम करें इस दिशा में हमे सोचना है। आप जानते है कि मैं social मीडिया में काफी active रहा हूँ और काफी समय से active रहा हूँ, इस दुनिया की जब से शुरुआत हुई तभी से इसमें मेरी रुचि थी।
My gov.in मैंने मेरे कार्यालय से जोड़कर के मैंने देखा है कि मैं कोई भी चीज वहां question करता हूं, हजारों लोग मुझे respond करते हैं। मुझे कहीं भाषण करने जाना है और मैं पूछता हूं कि मुझे थोड़ा idea दीजिए, हजारों लोग तुरंत मुझे idea देते हैं। आपने देखा होगा यह जनधन योजना, प्रधानमंत्री जनधन योजना.. यह शब्‍द एक नागरिक ने दिया है, competition से आया है, my gov.in पर आया। अभी my gov.in के द्वारा मैं competition launch करने जा रहा हूं शायद एक दो दिन में कर लूंगा, मैं आपको भी निमंत्रित करता हूं इसमें आइए।
PMO कार्यालय के लिए Mobile App कैसा होगा, ideas पहली competition का मेरा level है Ideas. और जो Best ideas आएंगे यह Google के साथ मिलकर के हम कर रहे हैं, जो Best ideas होंगे ऐसे लोगों की टीम को फिर Google office America जाने का निमंत्रण मिलेगा और दूसरा है education, Idea को implement करने वाला पूरा software तैयार करना। मैं चाहूंगा कि मेरे कार्यालय को भी इस India tomorrow जो innovation को लेकर के आप चले हैं तो मुझे भी आप लोग मदद करे।
फिर एक बार मैं नहीं जानता मैंने ज्‍यादा ही समय ले लिया। मुझे यहां आकर अच्छा लगा, बहुत बहुत धन्‍यवाद।

माननीय प्रधानमंत्री जी, जनता की भाषा में प्रचार-सामग्री और संदेश बनवाएं, तो सबका भला...सबका अच्छा!

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भारतीय जनता निगोड़ी/मुर्ख/बेवकुफ/अपढ़ नहीं है, उसे अपनी भाषा से बेइंतहा लगाव है!
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स्वदेशी ‘शाखा’ वाली भारतीय जनता पार्टी ने अब अपने कार्यकर्ताओं को कहना शुरू किया है: ‘Dear Member,’। यह क्या बात हुई? क्या भाषा के मामले में भारतीय जनता पार्टी की अपनी मौलिक सोच, भाषा और दृष्टि फिसड्डी है? यदि हां, तो ‘घर-घर मोदी’ का क्या होगा?

क्या यह आपके सोच और चिंता का विषय नहीं है? जनता-जनार्दन की भाषा में बोल-बतिया कर जनादेश हासिल करने वाली सरकार इतनी जल्दी अपनी वैचारिक सूरत से पलटी मार ली है। क्या इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? अरे महराज! आपका बिटिया-बिटवा इंटरनेट पर चैटिंग-सैटिंग करता है, तो आपको फर्क नहीं पड़ता; नंगी तस्वीरों का दिग्दर्शन करता है, तो फर्क नहीं पड़ता; सिगरेट और व्हीस्की पीता है, तो फर्क नहीं पड़ता; आये दिन सड़कों पर गाली-गलौच करता है, तो फर्क नहीं पड़ता; आपको झांसा देता हुए लड़के या लड़कियों के संग-साथ ‘टूर’ मचाता है, तो फर्क नहीं पड़ता; वह अपनी बेरोजगारी में रात-दिन घुलता है, तो आपको फर्क नहीं पड़ता? आपका पसंदीदा चैनल टेलीविजन कार्टून के हवाले होता है, तो फर्क नहीं पड़ता....यदि सचमुच ऐसा है; तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था और यूरोपीय ज़मात की चांदी ही चांदी है; क्योंकि जिन चीजों से आपको फर्क नहीं पड़ता इन अमीर और नवसाम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्था उसी से अनाज-ईंधन और अपना जरूराी खर्चा पाती है। 

फिर आप नरेन्द्र मोदी और उनके सब्जबागी कुनबे  को टेलीविज़न पर देखिए और प्रणाम कीजिए; क्योंकि जब देश में अपनी सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, तहज़ीब, रवायत आदि को लेकर संवेदनशीलता नहीं बचती है; अपनी भाषा को लेकर अपना स्वाभिमान चूक जाता है; तो आतातायी के लिए  अपना करारा और घातक प्रहार-आक्रमण करने के लिए इससे बेहतर और दूसरा मौका कोई नहीं होता।

खैर, किसी को फर्क न पड़े; कोई बात नहीं; लेकिन प्रधानमंत्री जी और स्वदेशी राग अलापने वाली भारतीय जनता पार्टी से देश निराश है और शर्मसार भी। जरा सोचिए कि आप बनारस में हों और यह सरकार आपको अंग्रेजी में होली की शुभकामनाएं बांटें; प्रधानमंत्री जी इतनी दरिद्री भाषा और संदेश के स्तर पर देश की सेहत के लिए सही नहीं है। कृपया अपने आकर्षक चाल-ढाल, बोल-बर्ताव और शाब्दिक-अशाब्दिक भाषा-व्यवहार की तरह अपने लिखंत-पढ़त में अपनापन और आत्मीयता का पुट लाइए, तो देश का भला होगा और आपका भी। अन्यथा देश तो अंग्रेजीदां सौदेबाजी की शिकार है ही। यदि आप ही अपना सर अमेरिकी ओखल में डाल देंगे, तो शेष देशवासियों का क्या होगा? 

Monday, March 2, 2015

‘हाथ’ को सिर मानने की भूल न करें राहुल


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 'लैसेज फेयर'(Laissez Faire) शब्द राहुल गांधी के लिए उपयुक्त है। यह फ्रेंच भाषा का वाक्यांश है जिसका अर्थ होता है-‘जैसा चाहे, वैसा करने दो।’ इस समय राहुल गांधी के थाइलैंड में होने और ‘विपश्यना’ करने की ख़बर गुब्बार पर है। विपश्यना यानी अपने भीतर झांकना और अपने को वास्तविक अर्थों में खोजना। यह खोज आत्मावलोकन के पश्चात आत्म-परिष्कार के लिए होता है। यह एक आध्यात्मिक उपकरण है जिससे व्यक्ति एंकांत में स्वयं से बात करता है; अपने होने पर विचार करता है; फिर यह सोचता भी है कि वह जो काम कर रहा है उसके प्रति उसकी निष्ठा, ईमानदारी और प्रतिबद्धता कैसी है?
युवा राजनीतिज्ञों के मनोभाषिक आचरण एवं मनोव्यवहार पर संचारगत दृष्टि से 
शोध कर रहे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोधार्थी
 राजीव रंजन प्रसाद 
 की 
एक X-Ray रिपोर्ट 
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गिरो, फिर उठो न,
यह पराजय है!

झुको, फिर खड़े न हो
यह सचमुच पराजय है!

इन दिनों कांग्रेस चुनावी हार के बाद आत्ममंथन की स्थिति में है। वह अपने उघड़े हाथों का सीअन जोड़ रही है। उसकी व्यग्रातुर चिंता इस बात को लेकर है कि अगला आलाकमान कौन होगा? क्या राहुल को यह जवाबदेही सौंपी जा सकती है? क्या राहुल अपने सामथ्र्य के बूते कांग्रेस पार्टी को इस बुरे दौर से बाहर निकाल पायेंगे? क्यों राहुल इतने पापड़ बेलने के बावजूद अपनी स्वतंत्र छवि और सम्मानजनक राजनीतिक कद नहीं बना सके हैं? जिस व्यक्ति में 130 साल पुरानी पार्टी अपना भविष्य निहारती-जोहती है; उसमें जनता का भरोसा क्यों नहीं है? पिछले कुछ वर्षों में राहुल ने अपने को खूब दुरुस्त किया है, मांजा है, सीख और प्रेरणा ली है; वे अपने भाषणों में स्वप्नजीवी अधिक लगते हैं; उन्हें आम-आदमी की फिक्र सताती है जिसे वे अपने बोल में राजनीतिक मंचों से लगातार उवाचते हैं; फिर जनता को उनकी तबीयत, तेवर, तजरबे और तत्परता में आशाजनक कोई बात या उम्मीद की स्थायी किरण क्यों नहीं दिखाई पड़ती है? क्या जनता मंदबुद्धि है या कि जनता को मंदबुद्धि मानने का कांग्रेस का मिथ टूट रहा है? कांग्रेस जिसे आम-आदमी के 'डीएनए' में होने का दावा करती थी; क्या उसी 'डीएनए' के गुणसूत्रों ने बगावत या विद्रोह कर डाला है? 

इन सब सवालों का एक जवाब मेरी दृष्टि में सिर्फ यह बनता है कि राहुल गांधी इस कार्य के लिए नहीं बने हैं। वह अत्यधिक संवेदनशील और भावुक हैं। वे सोचेते हैं कि मैं यदि सही सोच रहा हूं, तो वह ज़मीनी स्तर पर सही होना भी चाहिए। राहुल किसी दृष्टि से ग़लत नहीं हैं। लेकिन ग़लत लोगों के विश्वास में आकर वह यह भूल जाते हैं कि भारतीय राजनीति में स्वार्थ और अहंकार; ईमानदारी और प्रतिबद्धता से पहले अपना काम करता है। इस तरह झूठ आइना बन जाता है और सत्य पिछड़ जाता है। और जैसे ही सत्य दूसरे नंबर पर चला जाता है; किसी भी लोकतंत्र में जनता का सिवाय बुरा छोड़ भला कभी हो ही नहीं सकता है!

राहुल की टीम ने पिछले एक दशक से जनता का हरसंभव बुरा किया है। सभी अपने स्वार्थ और अहंकार को गाढ़ा करने में जुटे रहे। नतीजतन, राहुल बिहार, उत्तर पद्रेश, मध्यप्रदेश से लेकर अन्य प्रांतों में भी अपनी पार्टीगत जनाधार लगातार खोते रहे। लोकसभा चुनाव में भी असफल रहे। यह असफलता राहुल की कमी कम; उनके साथियों के चोरकटई और काहिलीपन का नतीजा अधिक है। कहना न होगा कि सोलहवीं लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी ऐतिहासिक पार्टी के संख्यागत आंकड़े को अपने उम्र के बराबर में ला खड़ा किया। यह हार करारी थी जिसने राहुल गांधी को भारतीय जनमानस के प्रतिरोधी चरित्र से पहली बार परिचित कराया था। उन्हें यह बात व्यावहारिक रूप से समझ में आ गई होगी कि जनता को कांग्रेस के पिछले कार्यों के ‘स्वर्णकाल’ से कोई लेना-देना नहीं है। आमजन आज की समस्याओं से बरी होना चाहते हैं। वे आज मुख्यतौर पर जो चैतरफा दरिंदगी, हैवानियत, अराजकता, शोषण, हिंसा, बलात्कार, बीमारी, गरीबी, अशिक्षा, पेयजल संकट, स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी, यातायात प्रबंधन की लचर व्यवस्था, भ्रष्ट नौकरशाही, सरकारी-तंत्र की लालफिताशाही, कारपोरेट घरानों की आर्थिक-लूट, बाज़ार का दिनोंदिन उनके चैखटे के भीतर घूस उन्हें अपनी जकड़बंदी में फांस लेने की कवायद, फैशन, क्रिकेट, सूचना, मनोरंजन आदि के बाहरी हमलों और भीतरी षड़यंत्रों से हर हाल में मुक्ति चाहते हैं। 

आज देश की अधिसंख्य आबादी हवा-पानी के भरोसे जिंदा है। वह रोज कमाती है, तो खाती है। ऐसे जन सरकारी सुविधाओं का लाभ कम पाते हैं; मोहरा अधिक बनते हैं। दस्तावेजों में उनके नाम-पते सही-सही लिखे होते हैं; लेकिन उनके हिस्से में एक ढेला भी नसीब नहीं होता है। सरकारी ऋण में कमीशन तक यह सरकारी-तंत्र और उसके नुमांइदे वसूलते हैं; घर और शौचालय बनाने में मिली रकम का बंदरबांट सरकारी मुलाजिम करते हैं। राजनीतिक पत्रकार सुरेन्द्र किशोर कहते हैं-‘‘एक ताजा अध्ययन के मुताबिक, भारत में शासन से अपने जायज काम कराने के लिए भी हर साल जनता को छह लाख तीस हजार करोड़ रूपए घूस देनी पड़ती है। यह राशि नीचे से उपर तक बंटती है। अधिकतर नेताओं की मेहरबानी से संसद व विधानसभाओं में ऐसे सदस्यों की संख्या वुनाव-दर-चुनाव बढ़ती जा रही है जिन पर भ्रष्टाचार क अपराध के गंभीर आरोप हैं और जो करोड़पति-अरबपति हैं।''  

यह सच है; इसे कांग्रेस पार्टी बखूबी जानती है; लेकिन वह खामोश बना रहती है। क्योंकि उसके मन में खुद चोर है। अतः वे खुद ही इन कारनामों को शह देते हैं। उनमें विरोध का साहस कम है या उनकी अपनी मिलीभगत है। ऐसे में कांग्रेस चाहती है कि जनता उनकी योजनाओं के एवज में वोट दे, मत दे; कहां-कैसे संभव है? राहुल गांधी की आंख अगर आलू नहीं है, तो इन समस्याओं को देखने के लिए अपने दीदा का ‘पाॅवर’ बढ़वाना चाहिए। आदर्शवाद बुरी बात नहीं है; लेकिन उसे अपने देह का गहना बनाकर खुद से नाथे रहना भी ठीक नहीं है। यथार्थ और आदर्श में फर्क होता है। राहुल गांधी जबतक इस अंतर को भली-भांति नहीं समझ लेते हैं; भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उद्धार हरग़िज संभव नहीं है।

थोड़ी सी विषयांतर किंतु जरूरी बात। इन दिनों हम और हमारा सामाजिक परिवेश यूरोप और अमेरिका के लोकलुभवन चपेट में है। हम अपनी संस्कति को वहां की सांस्कृतिक उपकरणों और उपादानों से देख रहे हैं; उन पर वैसी ही मानसिकता का इत्र-फुलेल छिड़क रहे हैं। हम बाज की बाजीगिरी को देखने को लालायित है जो येन-केन-प्रकारेण हमारा भविष्य खा-चिबा जाने पर आमादा है। हम हर चीज में अपना पुराना कह छोड़ रहे हैं; पारम्परिक कह उसे हेयदृष्टि से देख रहे हैं। हमारे बोल-बत्र्ताव और आचरण-संस्कार में भी उसी का वर्चस्व है। यह असर कितना ख़तरनाक है इसका नमूना लोगों के हस्ताक्षर को देख कर पता लग सकता है। कहा जाता है कि आदमी का ‘नेचर’ और ‘सिग्नेचर’ नहीं बदलता है। आज हर जगह लोग अपनी पहचान अपनी भाषा में कम दूसरी भाषा में हस्ताक्षरित कर रहे हैं। हिन्दी विरोध वाले इस बात के लिए क्यों नहीं हैरान-परेशान हैं कि उनके नौनिहाल और युवा होती पीढ़ी कम से कम अपनी मातृभाषा को तो श्मशान-घाट न भेजे।

राहुल गांधी खुद विदेशों में शिक्षा ग्रहण किये हुए हैं। क्या उन्होंने महात्मा गांधी का यह उद्बोधन पढ़ा है या उसके सार-संदेश को कभी जानने-समझने की चेष्टा की होगी? 1942 में ‘भारत छोड़ो’ का आह्वान करने के ठीक पहले काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की रजत-जयंती के मौके पर गांधी जी ने कहा था- ‘‘पश्चिम के हर एक विश्वविद्यालय की अपनी एक-न-एक विशेषता होती है। कैम्ब्रिज और आॅक्सफोर्ड को ही लीजिए, इन विश्वविद्यालयों को इस बात का नाज है कि उनके हर एक विद्यार्थी पर उनकी विशेषता की छाप इस तरह लगी रहती है क वे फौरन पहचाने जा सकते हैं। हमारे देश के विश्वविद्यालयों की अपनी ऐसी कोई विशेषता होती ही नहीं। वे तो पश्चिमी यूनिवर्सीटी की एक निस्तेज और निष्प्राण नकल भर है। अगर हम उनको पश्चिमी सभ्यता का सिर्फ सोख्ता या स्याही सोख कहें, तो शायद वाजिब होगा।’’ 

अतः राहुल गांधी को यह नहीं भूलना चाहिए कि देश की जनता इन सोख्ता या स्याही सोख से नहीं चलती है। वह इस तरह की किसी ‘टैग’, ‘लेबल’ या ‘स्टिकर’ की मुहताज नहीं है। उसके पास अपनी उम्मीदों के औजार और उपकरण है। वह निरा-मुर्ख नहीं है। भले भारतीय जनता कथित ‘गुलाम भाषा’ अंग्रेजी नहीं बोलती हो; लेकिन उसके अक्षर, लिपि, शब्द, पद, वाक्य आदि में अपनी भीतरी संस्कार, स्मृति, चेतना और विवेक की बोली-वाणी-वाक् और भाषा है। वह आशा, उत्साह, साहस, व्यवस्था, मनोयोग, प्रसन्नता आदि के माध्यम से अपने अभावों के बीच अपनी जिंदगी खेती है। अपना जीवन तमाम तंगहाली के बावजूद गुजर-बसर करने लायक जोड़कर रखती है। क्या ऐसे अभावहीन-साधनहीन लोगों के पास जो उपकरण-औजार हैं; क्या राहुल गांधी अपने कार्यकताओं में बांटने की काबिलियत रखते हैं। राजनीति को प्रबंधन की कक्षा समझने की भूल करने वाले राहुल गांधी का फलसफा ‘फेल’ हो चुका है। विदेशी विश्वविद्यालयों की योग्यता धरी की धरी रह गई हैं। यह राहुल की जितनी असफलता है; उससे कहीं अधिक उस शिक्षा-निकेतन की है जो अपने को ‘टाॅप 200’ में रखने की शेखी बघारते हैं। अपनी ईजाद ‘स्कूलिंग’ की ‘हेजिमनी’ को जोर-शोर से भारत में प्रचारित करते हैं। वे यह बताने का दंभ पालते हैं कि ज्ञान का असली पिटारा हमारे पास है; विकास का वास्तविक रोड-मैप हम तैयार कर सकते हैं। जबकि सचाई यह है कि भारत में भ्रष्ट्राचार, विदेशी-शिक्षा में दक्ष-प्रवीण नीति-नियामक-धारकों ने ही फैलाया है। भारत में तमाम बुराइयां थीं; सामंतीपन था, बर्बरता की पराकाष्ठता थी; लेकिन किसी में इतनी हैसियत नहीं थी कि वह लोक-भाषा को बांध सके या उस पर अपना एकाधिकार जमा सके। आज भारत का पढ़ा-लिखा वर्ग भाषा में काफ़िर बना हुआ है। वे अंग्रेजी बोलने का दावा करते हैं; लेकिन अंग्रेजी की कोख में उनके पैदा होने के लिए जगह मयस्सर नहीं है। लिहाजा वे अपनी ज़बान में ‘सरोगेसी’ द्वारा विदेशी भाषा 'प्लांट' करा रहे हैं। ऐसे लोगों की ज़बान कितनी असरदार, प्रभावशाली और जन-जन के हिया को जुड़ाने वाली होगी; राहुल गांधी को बोलते देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे हवाई राजनीतिज्ञ विदेशी मानदंडों के आधार पर आधुनिक ‘लिडरशीप’ का पाठ पढ़ाते हैं; लेकिन वह नहीं जानते कि भाषिक गुलामी का ‘पउआ’ लेकर भारतीय राजनीति में संयोगवश दाखिल हो जाना संभव है; लेकिन अपनी हैसियत बनाए रखना बेहद मुश्किल। यह बात केन्द्र में काबिज मोदी सरकार के लिए जितना सही है; उतना ही दिल्ली में गद्दीनशीन पार्टी आम-आदमी को। 

राहुल गांधी की दिक्कतदारी यह भी है कि वे अपने विदेशी शिक्षा के माध्यम से ग्रहीत संस्कार को भारतीय राजनीति में आजमाना चाहते हैं; और मिसफिट बैठते हैं। दूसरी ओर उनकी पूरी टीम जिन विश्वविद्यालयों से शिक्षा ग्रहण करके निकली है, वहां सबकुछ ‘इवेंट’ है। यथा: सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, निष्ठा, संकल्प, चिन्तन, समर्पण, सेवाभाव, व्यवहार, व्यक्तित्व, नेतृत्व, सोच, दृष्टि वगैरह-वगैरह। ये सचमुच गांधी जी की शब्दावली के कहे मुताबिक स्याही-सोख्ता मात्र हैं। वे ‘प्लानिंग’ के हिसाब से काम करते हैं। ‘आइडिया जेनेरेट’ कर अपना हाजमा दुरुस्त करते हैं। ये अक्ल के बैगन पांच-सितारा होटल में मीटिंग और बातचीत करते हैं कि कहां सड़क जाम होगा, कहां से कहां तक पदयात्रा होगी, कौन-कहां पर कैसे रोड-शो निकालेगा आदि। ऐसी राजनीति से कांग्रेस यदि अपना भला करना चाहती है, तो वह निश्चय करे। वह हर-वर्ष चिंतन-कर्म करे; विपश्यना करे।  

अतः राहुल ‘ब्रेक’ ले रहे हैं; लेने दो। वे थाइलैंड में ‘विपश्यना’ कर रहे हैं करने दो। किसी व्यक्ति को इतनी आजादी, तो अवश्य चाहिए कि वह अपनी मन की कर सके। मेरी दृष्टि में राहुल में वाग्मिता की भारी कमी है; लेकिन वे ईमानदार और प्रतिबद्ध नज़र आते हैं। आजकल की राजनीति चाटुकारिता और बोलक्कड़पन की है। पर यह कला हमेशा साथ नहीं देती। कहावत है कि ‘कुछ लोगों को बहुत देर तक के लिए और बहुत लोगों को कुछ देर तक के लिए मुर्ख बनाए रखा जा सकता है; लेकिन सबको सदा के लिए मुर्ख बनाए रखना हरगिज़ संभव नहीं है।’ इस बात को राहुल गांधी को ब्रह्म वाक्य की तरह मन-दिल में तहिया लेना चाहिए।

आजकल तो मनमर्जी का ज़माना है। सरेआम टट्टी-पेशाब करने वाले आजकल नेता-परेता बन जा रहे हैं। कई तो ऐसे चटोरे टपोरीमल भी हैं कि जिनके पास अपनी गाड़ी हुई नहीं कि सरकार उनकी हो गई। सरकार जैसे उनकी रखैल है। वे पार्टी का झंडा अपने मोटर-वाहन पर टांगे घूमने-फिरने लगते हैं। टोकटाक करो, तो हूमचकर कहेंगे-‘मजाक है, पार्टी को लाखों देते हैं।’ सो ऐश और धौंस में इन राजनीतिज्ञों या राजनीतिक-पुत्रों की दिन-रात कटती है। ऐसे पोसुआ लोग राहुल गांधी को अपना नेता कहते हैं; जबकि जनता ऐसे को देखकर ही कांग्रेस से नफरत करती है; राहुल के बातों को अनसुना करती है। राहुल की समझदारी की क्या कही जाए; वे चारों ओर से ऐसे चापलूसों से घिरे हैं कि; उनके प्रत्येक मातहत के पास हजारों ज़मीनी ख़बरें, लोगों के संदेश और चुनाव-क्षेत्र की हाल-स्थिति दनादन पहुंचती रहती है। जबकि उनका अपने क्षेत्र से याराना कबका पुराना पड़ चुका होता है। जनसंवाद उनके लिए एक धांसू टोटका है। इसे वे मौका पड़ने पर रामबाण की तरह बरतते हैं।  

हां, तो राहुल की बात। आज जरूरत पूरे कांग्रेस को ‘विपश्यना’ की है; लेकिन गए अकेले। यह ग़लत है। सरासर नाइंसाफी है। सुनाया जा रहा है कि आने के बाद वे पार्टी का कायाकल्प करेंगे। नए कमांडर डालेंगे। नई योजना और रणनीति बनाएंगे। अब वे जो सिपहसालार रखेंगे उन्हें वे खुद चुनेंगे। राहुल कांग्रेस पार्टी में धुरीगत बदलाव करेंगे; इसके आसार ही नहीं दिखाई दे रहे हैं; बल्कि यह रंगत अभी से दिखने भी लगी है। ऐसे में राहुल फिलहाल अपनी कुंडली जागरण करने गए हैं। ‘विपश्यना’ स्वयं की खोज सरीखा आध्यात्मिक मार्ग है। गांधी-मार्ग और नेहरू-मार्ग से पलटी मार चुकी इंदिरा की पार्टी कांग्रेस(आई) अब कांग्रेस(आरएच) से अपने भीतर आमूल-चूल बदलाव लाने की सोच रही है। पार्टी बुरी तरह क्षतिग्रस्त है। चूलें हिली हुई है। संज्ञाहीन नेता अब ‘तू-तू-मैं-मैं’ के सर्वनाम में उलझे हुए हैं। कांग्रेस की टोपी अब चिन्तन और सुधार के नाम पर उछालने की बारी है। अपने रोड-शो और यात्रा का रिपोर्ट कार्ड राहुल को पता है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के यात्रा की उनके धुरंधर नेताओं ने विभिन्न तिथियों में कैसा कोहराम मचाया था, छुपा नहीं है। अपनी पार्टी में पदस्थापित बेशउर और बेलिहाज नेताओं की वजह से जिस तरह ‘मिशन 2012’ की भद्द पिटी; उससे एक बात तो साफ हो गया कि नैतिक आचरण में भ्रष्ट नेतागण भले ही कुछ देर सभ्यजनीन होने का ढोंग और स्वांग करें; लेकिन हैं वे वास्तव में लीचड़ ही। ऐसे नेता कभी यह नहीं जान पाते कि धन, पद, कुलीनता, आयु आदि भले ही भाषा-प्रयोगों को निर्धारित करते हैं; परन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार व्यक्तिगत आचरण, सामाजिक मर्यादा, व्यक्तिगत व्यवहार की लोकोन्मुखता होती है। समाजविज्ञानियों एवं मनोभाषाविज्ञानियों की दृष्टि में, समाज में प्रतिस्पर्धात्मक सम्बन्ध कई आधारों पर निश्चित होते हैं। जैसे-स्त्री-पुरुष भेद, पारिवारिक सम्बन्ध, आयु, ज्ञान, गुण, पद, कुल, गोत्र, सम्पत्ति, बल, बुद्धि, प्रकार्य आदि। मनोविज्ञानी ब्राउन और गिलमैन के अनुसार ये प्रभुत्त्व प्रदान करने वाले आधार हैं जबकि हमारे मत में ये आधार प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। 

यह सच है कि किसी राजनेता को भाषण देने की कला में निपुण होना चाहिए। उसकी वाग्मिता का प्रभाव मनोहारी होता है। लेकिन यह एकमात्र निर्णायक नहीं है। समाज के बाहरी आवरण तथा मान्यताएं भाषा-प्रयोगों की दृष्टि से इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं होती, जितनी महत्त्वपूर्ण विचारों की उदात्तता तथा भावों की पवित्रता एवं कर्म की सात्त्विकता होती है। इसीलिए मन, वाणी और कथन की एकरूपता को भाषा का आदर्श नियामक समझा जाता है।  किन्तु अफसोस! भारतीय राजनीति में नेता होना संस्कागत चेष्टा नहीं है। यह स्वार्थगत अभिलिप्सा मात्र है जिसमें जिसे जो कमान दे दिया जाता है; वह इंतमिनान से लेमनचूस चूसता रहता है। कांग्रेस में पदगत बंटवारा में सामाजिक स्तरीकरण जबर्दस्त है। यथा: सवर्ण-सवर्णेतर; शिक्षित-अशिक्षित, शहरी-ग्रामीण, धनी-निर्धन, उच्च-मध्य-निम्न। ये स्तरभेद बहुचरणीय और बहुआयामी है। इनमें से प्रत्यके के भीर अंतःविभाजन है। यथा: साक्षारता, ज्ञान, योग्यता, आचरण, वाक्-व्यवहार आदि। यह विभाजन इतना गहरा और साफ है कि अधिसंख्य को देखकर ही पहचाना जा सकता है।

सवर्ण, शिक्षित एवं उच्च वर्ग
-योग्यता
-ज्ञान
-शिक्षा

सवर्णेतर, अशिक्षित और निम्नवर्ग
-अयोग्यता
-अज्ञान
-अशिक्षा

कांग्रेस में कोई सहज आपसे बात कर ले, हरगिज संभव नहीं। सब अपने विषय, प्रसंग, प्रयोजन और परिस्थिति के मुताबिक लोगों से मेलजोल बढ़ाते हैं; जनसम्पर्क साधते हैं; अपने बारे में और पार्टी के भावी योजनाओं के बारे  में खुले में चर्चा-परिचर्चा, संवाद-विमर्श या सीधे आमजन से अपनापा दिखाते पाए जाते हैं।चार बार दौड़ने से हो सकता है कि प्रधानमंत्री का निजी सचिव आपसे मिलने को राजी हो जाए; लेकिन राहुल गांधी से मिलने के लिए अपनी सारी ज़मीन-जायदाद कांग्रेस के नाम लिखा दीजिए तब भी नहीं मिल सकते हैं। प्रश्न है, ये दो कौड़ी के महलबंद नेता इतने नखरे उठाने का अभ्यस्त हो गए हैं कि ये जिंदा मानुष हैं ही नहीं। इसीलिए प्रायः हम देख पाते हैं कि कांग्रेसी नेतागण ज़मीन पर कम अवतरित होते हैं; गगनचुंबी बने रहना अधिक सुहाता है। वे कहीं किसी जगह दिखाई भी दे जाएं तो आठ-दस मुस्टंड लौंडों से इस कदर घिरे रहते हैं; मानों राजनेता नहीं शहर का गुंडा, मवाली या कोई माफिया हों। कई बार उनकी हरकतें अप्रत्याशित ढंग से खीसें निपोरने वाली होती हैं। वे सबको प्रणाम-पाती-पलगी करते फिरेंगे; सबसें दुआ-सलाम, हाल-चाल और कुशलता पूछकर मुस्कुराएंगे। जनता अब इतनी समझदार हो गई है कि वह उन्हें देखते ही जान जाती है कि जरूर इनका कोई नया प्रपंच-जुलूस-प्रदर्शन-विरोध-पुतला-दहन आदि टिटिमा होगा। पिछले कई दशकों से कांग्रेसी नेतागण राजनीति को सितारा-राजनीति से अलंकृत किए हुए हैं। वह प्रबंधन की भाषा का ‘छह संसाधन’ पढ़कर राजनीतिक नेतृत्व करने की सोचते हैं। जैसे:

- लोग
- क्षेत्र
- पद
- पदानुक्रम
- प्रबंधन
- आर्थिक संसाधन

उपर्युक्त विवेचन के पश्चात यदि राहुल गांधी इन तमाम विसंगतियों को यथावत रखते हुए यह कहें कि मैं आम-आदमी की तरक्की चाहता हूं; मैं गरीबी दूर करना चाहता हूं; मेरा उद्देश्य समानता लाना है; मैं सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए कटिबद्ध हूं; मेरा लक्ष्य राष्ट्रीय एकता को लेकर संकल्पित है आदि-आदि; और अपने पिछले कारनामों का नाम गिनाना शुरू कर दें : सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार, भोजन का अधिकार, जल-जंगल-ज़मीन का अधिकार, तो जनता सुनकर अनसुना ही करेगी। फिर आप लाख ‘विपश्यना’ कीजिए, चिंतन-मनन कीजिए आपको जनता का रूख शायद ही सकारात्मक मिले। दरअसल भारत की जनता अब इस बात से पूरी तरह वाकिफ हो चली है कि-''भारतीय राजनीति एक गहन वैचारिक चिन्तन, मंथन और विमर्श के दौर से गुजर रही है। पर इस बौद्धिक उपक्रम का प्रवेश द्वार और निकास द्वार इतना सन्निकट होता है कि यह पता ही नहीं चलता कि विमर्श कब शुरू होकर कब ख़त्म हो गया और उन विमर्शों से हासिल क्या हुआ? यह सिलसिला 1952 से चल रहा है।'' ऐसे में पत्रकार सुरेन्द्र कुमार की ही यह बात बड़ी मानीख़ेज मालूम देती है-‘‘आज किसी नेता को चमत्कारी नहीं; सिर्फ ईमानदार होने की जरूरत है। उसे यह मानकर चलना होगा कि वह अगले चुनाव का नहीं बल्कि अगली पीढ़ियों का ध्यान रख रहा है।’’

हम भी इसी ईमानदारी संग प्रतिबद्धता की ताकीद करते हैं। बशर्ते थाइलैंड से विपश्यना कर लौट रहे राहुल गांधी देश और जनसमाज से पहले खुद की और समूचे पार्टी की शक्लोंसूरत और सूरतहाल बदलने की अपनी इच्चछाशक्ति, संकल्पशक्ति और आत्मबल को सम्प्रेषणीय बनाएं। संवाद को सिरजें। पार्टी के भीतर सामाजिक-सांस्कृतिक रचनात्मकता को बहाल करें। यदि यह सब आप कर सकने में सफल हुए, तो सचमुच ‘राहुलोदय’ का नया युग प्रारंभ होगा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वर्तमान संकटों के गिरोह से मुक्त होने के अपने प्रयास में सफल होती दिखेगी। आमीन!

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...