Saturday, April 19, 2014

शोध-पत्र: हिन्दुस्तानी अख़बार में छपी औरतें

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2007 से आज तक

जानकीपुल: आम चुनाव में शिक्षा सुधार मुद्दा क्यों नहीं?

जानकीपुल: आम चुनाव में शिक्षा सुधार मुद्दा क्यों नहीं?: वरिष्ठ शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा ने शिक्षा को लेकर राजनीतिक पार्टियों, ख़ासकर 'आप' से अपील की है. उनका यह सवाल महत्वपूर्ण है कि च...

जनपक्ष: 12 इयर्स ए स्लेव - इस फिल्म को देखते हुए आप ‘पापका...

जनपक्ष: 12 इयर्स ए स्लेव - इस फिल्म को देखते हुए आप ‘पापका...:                                 आस्कर पुरस्कारों की घोषणा ने इस बार सबको चौंका दिया है | अपने 86 सालों के इतिहास में आस्कर-अकादमी न...

Friday, April 18, 2014

चोटी गूँथने वाली लड़कियाँ


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अक्सर कहते सुना है
शहराती आवाज़ में
अंग्रेजी पिटपिटाने वाली भाषा में
‘...कि चोटी गूँथने वाली लड़कियाँ
क्या जानती हैं आखिरकार?
न डायटिंग, न डेटिंग, न पार्टी,
न शाॅपिंग, न फैशन, न मूवी, न डीजे,
न लव-शव, न कैरियर
...और न ही इंज्वायबुल लाइफ
...हाऊ डैम्ड यार, ये चोटी गूँथने वाली लड़कियाँ
गले में मोती का माला गाँथे रखने वाली लड़कियाँ
जानती ही क्या है अपने बारे में?
कुछ भी तो नहीं...!’

वहीं मैंने यह सुना है
ठेठ देसी अंदाज में
आँचलिक बोली-वाणी में
इन लड़कियों को बोलते हुए कि
‘हम अपना जांगर खटाते हैं
तो जलता है घर में चूल्हा
पकता है खाना
धुलाते हैं बरतन
बहराते हैं घर-आँगन
दीवालों की पीठ पर होती है मालिश
ज़मीन की देह पर लगते हैं उबटन
पेड़ों की तनाओं में लपेटा जाता है सूत
खेत-खलिहान में खाना पहुँँचता है
नाद में सानी गोताते हैं
जानवरों को मिलता है उनका जरूरी आहार
किसी लड़के की सजती है बारात
लौटते ही द्वार पर होती है परछन
गूँजती हैं किलकारी, तो बँटते हैं पाहुर
चारों तरफ हम और हम ही होते हैं
अतः नहीं चाहिए हमें शहरियों द्वारा
सभ्य होने का प्रमाण-पत्र
क्योंकि हमारे बाहर निकलते ही
मर जाएगी एक नदी
उजड़ जाएंगे खेत-खलिहान
ख़त्म हो जाएगी हरियाली
असमय काल-कलवित हो जाएंगे पेड़
खो देगी भाषा अपना सौन्दर्य
घर टीका-बुना करना भूल जाएंगे
और देखते-देखते
कायम हो जाएगी गाँवों में
अन्धेरे की बादशाहत
और समा जाएंगे सारे गाँव
शहरों के ‘ब्लैक होल’ में।'

तीन कविताएं : 1, 2, 3

1.

अपने विश्वविद्यालय के नाम ख़त
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मैंने एक चिट्ठी लिखी है
अपने विश्वविद्यालय के नाम
मैंने लिखा है:
'यदि इस विद्यालय में भ्रष्टाचार आम है,
तो मेरा ईमानदार होना
एक झन्नाटेदार थप्पड़ है
अपने विश्वविद्यालय के मुँह पर।

2.

पहचान
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मेरे ई-मेल बाॅक्स में
आते हैं बहुत सारे मैसेज
लेकिन नहीं आता एक भी ई-मेल
कभी-कभार राह-भटके किसी मुसाफिर की तरह
जिसमें लिखा हो-‘प्रिय राजीव, कैसे हो?’
साफ है कि मैं आदमी हूँ, लेकिन पहचानदार आदमी नहीं हूँ!

3.

पंक्षी
......

पंक्षी
चाहे जिस दिशा से आते हों
चाहे जितने दिवस भी रहते हों
चाहे करते हों कलरव कितना भी
विदाई की बेला में उनके लिए
नहीं गाता है कोई भी विदाई गीत।

Wednesday, April 16, 2014

चुनाव


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हमारे आदत-व्यवहार की
एक सामान्य क्रिया है ‘चुनना’
आचरण-स्वभाव में घुली-मिली
एकदम साधारण शब्द है यह
यह एक कामकाजी शब्द है
जिसका रिश्ता हमारे होने से है
वह भी इतना गाढ़ा कि
हम सिर्फ चुनने का बहाना लिए
बचपन से बुढ़ापे में दाखिले हो जाते हैं
बाल सफेद, बात भुलक्कड़, कमर टेढ़ी
और आँख में अनुभव का
आदी-अंत और अनन्त विस्तार

चुनना आमआदमी के करीब का
सबसे सलोना शब्द है  
अपने चुने हर चीज पर अधिकार जताते हैं हम
अपने चुनाव पर सीना चैड़ा करते हैं
मूँछों में तेल चुभोड़ते हैं
गर्वीली मुसकान संग
बार-बार उन पर हाथ फेरते हैं

हम जानते हैं
यह चुनना किसिम-किसिम का है
जैसे हम चुनते हैं
अपने बच्चों के लिए स्कूल
सब्जियों की ढेरी से आलू और टमाटर
अपने लड़के-लड़कियों के लिए
चुन लेते हैं कोई सुघड़-सा रिश्ता
ज़िन्दगी के आखिरी मोड़ आते ही
हम अपनी सुविधानुसार चुन लेते हैं
एक ठिकाना, ठौर या थाह
जहाँ बैठकर तका जा सके
आसमान को हीक भर या भर नज़र

इसी तरह ज़िन्दगी का राहगीर बने हम
चुनते हैं कोई एक रास्ता
और चल पड़ते हैं उस पर
इस विश्वास से कि हमारा यह चुनाव
कुछ और दे या न दे
इतना मौका मयस्सर तो कराएगा ही कि
हम और हमारा परिवार
हमारे आस-पड़ोस, इतर-पितर, देवता-देवी,
जवार-समाज, देश-दुनिया सब के सब
खुश हों, संतुष्ट और आह्लादित हों
इंडिया गेट और स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी
हम  नहीं जानते हैं तब भी
दुआ में ऊपर उठे हमारे हाथ
उनकी सलामती के लिए चुनते हैं
मानवता के कल्याणकारी शब्द

दरअसल, इस इक छोटे-से शब्द पर
टिका है-हमारा अपना होना
अपनों के साथ होना
अपनों के बीच होना
यानी हमारा चुनाव सही हो या ग़लत
उस पर अधिकार अंततः
हमारा ही है
यह अटल विश्वास होता है
चुनाव करते हम जैसे लोगों का

लेकिन, आम-चुनाव की राजनीति में
हमारा चुनना हमारे होने को नहीं करता सार्थक
हमारे ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ को नहीं बनाता है
शुद्ध, निर्मल और पवित्र
हम राजनीतिक मतदान में जब भी चुनते हैं आदमी
वह चुनते ही बन जाता है जानवर
या फिर हिंस्र पशु
जंगली दानव, राक्षस अथवा घोर आताताई
और बनाने एवं पैदा करने लगता है
अपने ही जैसे लोग
हिंसक,खंुखार और अमानवीय जन

क्या लोकतंत्र में चुनाव का अर्थ
हमारे आलू-टमाटर बराने/बिनने की तरह नहीं है
एक लड़का और लड़की के लिए ताउम्र
ससुराल और मायके का रस्म निबाहने की तरह नहीं है
हमारे बच्चे की स्मुति में टंके
उसके शिशु विद्यालय की तरह नहीं है
आखिर लोकतंत्र में चुनाव का अर्थ
हमारे और हमारे समाज की तरह
पूर्णतया अर्थपूर्ण, आश्वस्तीपूर्ण और अवश्यंभावी क्यों नहीं है...!!

Tuesday, April 15, 2014

शोध-पत्र : जाति-प्रपंच का लोकतंत्र और भारतीय राजनीति में सामाजिक सहभागिता विषयक प्रश्न



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भूमिका :
 
भारत में जातिवादी लोकतंत्र है। वैसा लोकतंत्र जिसमें जाति-विशेष की चैधराहट सदियों से कायम है। सामन्ती वसीयतनामा लोक के मनोजगत में इस कदर बैठ चुकी है कि उससे निज़ात पाना मुश्किल(?) है बनिस्पत उसे यथानुरूप बनाये रखने के। गोकि जाति-विशेष की भाषा बखानते ये लोग सवर्ण-मानसिकता के उपसर्ग-प्रत्यय हैं। ये मूलतः वास्तविक धातु नहीं हैं; लेकिन लोकतंत्र के अर्थ और गरिमा को परिभाषित अथवा व्याख्यायित करने का काम यही (आताताई)लोग करते हैं। लोक-शक्तियाँ स्वयं भी इन्हीं वर्चस्वशाली या प्रभुत्त्वशाली बिरादरियों के खूँटे से बँधी है। इसके लिए सियासी ताकतें इरादतन ‘जीनकोड’ का पूर्णतया इन्हीं आरोप्य अवधारणाओं के अनुलोम होने का हेठी दिखाती हैं। आज जातिवादी/सामन्ती राजनीति न्यूनतम आज़ादी और सुविधा की शर्त पर अपने विरोधी को ज़िन्दा रखने का एक शातिराना उपक्रम बन चुका है। यह इस बात का भी संकेतक हैं कि लोकतंत्र के ढाँचे में राजतंत्र का होना जनता की नियति का परिपोषक है जो कि दो ही स्थिति में संभव है; पहला-विवेक का अपहरण कर लिए जाने की स्थिति में या फिर उसके मृत हो जाने की स्थिति में। वर्तमान समय में भारतीय जनता इसी मनोदशा एवं मनःस्थिति के द्वंद्व में है। स्वातंन्न्योत्तर भारत में जनतांत्रिक सत्ता की स्थापना का जो खेल हुआ; उसका लाभ सवर्णवादियों और सामन्तवादियों को छोड़कर कहीं किसी को कुछ भी नहीं हुआ है। लोकतंत्र का हालिया सूरत बदहाली के भावमुद्रा में जड़बंध है। सवर्णवादी लोगों ने कार्यिक स्तर पर अवाम के लिए नीति-निर्देशक तत्त्व तो बना लिए; लेकिन अपने साथ ‘बेयाॅण्ड दि बाउण्ड्री’ का ‘लूप-लाइन’ भी जोड़े रखा। आजादी बाद भारत में उदारवाद की आँधी आई, तो ‘सवर्णाय हिताय’ का पंख डगमगाने लगा। सामाजिक विषमता की दीवारें दरकने लगी। सबसे गम्भीर संकट जातिवादी लोकतंत्र के लिए यह उत्पन्न हुआ कि अब 'पूँजी' सत्ता के केन्द्रीय महत्त्व का विषय/मुद्दा बन गया था। लिहाजा, सवर्ण जातदारों ने पागल हाथी टाइप ‘शार्प-शूटरों’ को पालना शुरू कर दिया। पोसुआ आदमीजनों की यह टोली लोकतंत्र के लिए बाद में काफी घातक सिद्ध हुईं। ...और इस तरह भारत में ‘राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण’ बतौर मुहावरा एक नारे की तरह चर्चित हो गया। वर्तमान राजनीति में बाहुबलियों/दागियों की घुसपैठ जिन वजहों से हुई है; वस्तुतः उनमें एक बड़ी वजह ‘सवर्ण जातदारों’ के मन में समाया हुआ ‘असुरक्षा बोध’ और ‘आत्महीनता की स्थिति’ भी शामिल है। दरअसल, राजनीति में घुसी यह जातदारी प्रवृत्ति मौजूदा चुनाव(लोकसभा चुनाव-2014) में जिस तरह आलोकित-प्रलोकित है; उसे देखते हुए भविष्य की राजनीति का जो खाका मन-मस्तिष्क में बनता है; वह बेहद खौफ़नाक और दहशतज़दा है। आइए, उस पर इस शोध-पत्र के अन्तर्गत विवेकसम्मत एवं वस्तुनिष्ठ ढंग से विचार करें...!


Sunday, April 13, 2014

‘इस बार’ वोट किया रे साथी/रे बहिनी कि अच्छे दिन आने वाले हैं...!


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(मैं खुद कोई सही और सार्थक विकल्प नहीं दे सकता या बन सकता, तो ऐसी स्थिति में मुझे किसी न किसी भरोसेमंद विकल्प को अंततः चुनना ही पडेगा। ‘इस बार’ मोदी; क्योंकि मेरे अनुसन्धान/शोध की उपकल्पना है कि सही नेता कोई प्रचारक-प्रबन्धन नहीं पैदा कर सकता है। उसके लिए सही व्यक्ति, सही संगठन और सही नेतृत्व का होना आवश्यक है। और इन सबके लिए सबसे जरूरी है सही लोगों की सहभागिता और वास्तकविक समर्थन।)

आजादी से पहले गाँधी का नाम एक सहारा था-उस गरीब आदमी के लिए अच्छे दिन आने का। वह प्रतीक-पुरुष थे लम्बे अर्से से भोगे जाने वाले दुःख-तकलीफों और मुसीबतों से मुक्ति का। वह आश्वासन था ईमानदारी से कमाई गई रोटी पर कमाने वाले के अधिकार का। इसी कारण लोकगीतों में उनके नाम का जबर्दस्त बयार बहता था उन दिनों:

‘‘ई खोटी पैसो नी खरी चाँदी आयऽ
 ई हवा अधोळ नी गाँधी आयऽ
 ई आसमानी बादलों नी सत्याग्रही न की टोळई आयऽ
 ई तो गरीब न का लेणऽ फैलायेल गाँधी बाबा की झोळई आयऽ
 ई मारनऽ की नी मरनऽ की बात करज
 ये काज सो येखऽ अँगरेज भी डरजऽ।।’’

(यह खोटा पैसा नहीं, खरी चाँदी है। यह हवा-आँधी नहीं, गाँधी है। यह आसमानी बादल नहीं, सत्याग्रहियों की टोली है। यह गरीबों के लिए फैलाई गई गाँधी बाबा की झोली है। यह मारने की नहीं, मरने की बात करता है, इसी से अँगरेज भी डरता है।)

गाँधी मर गए अपनी बात को पूरी करने का अलख जगाते हुए। उनकी टोली के लोग कैसे निकले; आज किसी से छुपा नहीं है। अब अर्से बाद मोदी वही बात दुहरा रहे हैं। भाड़े/ठेके के गीतकारों-प्रचारकारों ने उम्मीद गाया है कि वे उनका कष्ट हर लेंगे; भ्रष्टाचारियों का अंत करेंगे; काला धन वापिस लायेंगे; गरीबी का खात्मा करेंगे; बेरोजगारी का अंत करेंगे; सभी लोगों को साथ-साथ बिना किसी टकराव और भेदभाव का जीने का सुअवसर प्रदान करेंगे; अन्तरराष्ट्रीय मंच पर भारतीय पहचान को सुदृढ़ करेंगें; विकास के उद्गम से नई धारा का लीक निकालेंगे; ईमानदारी, प्रतिबद्धता, सत्यनिष्ठा और अहिंसा-व्रत द्वारा भारत की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनःस्थापित करेंगे। ऐसा सचमुच होना तय है क्योंकि देश को इस की बहुत जरूरत है। जनता में मोदी इस आशा का सौ-फीसदी संचार कर पाये, तो उन्हें फिर पैसे के मोल-कीमत पर प्रचार-गाड़ी अथवा विज्ञापनी-घोड़ा दौड़ाने की नौबत नहीं आएगी...लोग खुद लोकराग गायेंगे कि-सुनो रे भैया...सुनो रे बहिनी कि अच्छे दिन आयऽ गये हैं...! 

मोदी, केजरीवाल और मीडिया फिक्सिंग

उस दिन सुबह-सुबह प्रमोद कुमार बर्णवाल बनारस के सिगरा स्टेडियम पहुँचे, तो वहाँ पहले से आम आदमी पार्टी के कुछ कार्यकर्ता मौजूद थे। पूर्व सूचना के मुताबिक अरविन्द केजरिवाल को वहाँ मार्निंग वाॅकरों से मिलने आना था। एक दिन पहले ही उन पर रोड-शो के दौरान स्याही का छिड़काव हुआ था, काले झण्डे दिखाये गए थे। हमारे सीनियर साथी प्रमोद जी का लगाव और झुकाव ‘आम आदमी पार्टी’ के प्रति बेहद भावनात्मक और निष्ठापूर्ण है। मेरी आलोचनात्मक टिप्पणियों का वे हरसंभव प्रत्युत्तर देते हैं। उस दिन हम दोनों इसी उम्मीद से गए थे कि सच को थोड़े करीब से क्यों न साथ-साथ देखा-परखा जाए। सिगरा स्टेडियम में अरविन्द केजरीवाल तो नहीं मिले; लेकिन वहाँ ‘आप’ के चर्चित नेता सोमनाथ भारती से सीधी बात और मुलाकात हुई। इस दरम्यान कई जानदार, दिलचस्प और अजीबोगरीब वाकया भी देखने-सुनने को मिला। सर्वाधिक मुश्किल था, मीडियावी राजनीति की नंगई, बेशर्मी और साँठ-गाँठ को अपनी नंगी आँखों से देखना। अपने इस अनुभव को प्रमोद कुमार बर्णवाल ने डायरी की शक्ल में ‘इस बार’ को प्रकाशन के लिए भेजा है। मैं उनके ‘मन की बात’ को उन्हीं की भाषा, शैली और शब्दावली में यहाँ आप सबों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।-माॅडरेटर

डायरी
26/3/14

’आप’ पार्टी के अरविन्द केजरीवाल 25/3/14 को वाराणसी पहुंचे। अख़बारों में पूर्व सूचना प्रकाशित की गई थी कि केजरीवाल अगले दिन सुबह में वाराणसी स्थित सिगरा स्टेडियम पहंुचेंगे और लोगों से भेंट करेंगे। अरविन्द केजरीवाल से मिलने की उत्सुकता में मैं भी अगले दिन सुबह के लगभग सवा पांच बजे स्टेडियम पहुंच गया। मैंने देखा कि पहले से ही कई लोग स्टेडियम के मुख्य गेट के पास उसके खुलने का इंतजार कर रहे थे। वहीं पर एक व्यक्ति आम आदमी पार्टी के स्लोगन वाली टोपी और टी-शर्ट पहने बैठा था। मैंने उस व्यक्ति से कंफर्म करने के लिए पूछा कि क्या स्टेडियम में अरविन्द केजरीवाल आने वाले हैं? उस व्यक्ति ने कहा कि उसने भी ऐसा ही कुछ सुना है। मैंने उसका परिचय पूछा। उस व्यक्ति ने अपना नाम चन्द्रकान्त पाण्डेय बताया। उसने बताया कि वह पेशे से वकील है, वह मूल रूप से वाराणसी का रहने वाला है, लेकिन इधर कई वर्षों से मुम्बई में ही क्रिमिनल प्रैक्टिसनर के रूप में रह रहा है, लेकिन लोकसभा चुनाव के समय ’आप’ का प्रचार करने के लिए दो महीने की छुट्टी लेकर वाराणसी आ गया है। कुछ देर बाद गेट खुला और लोगों ने गेट के अन्दर प्रवेश करना शुरू किया। मैंने भी स्टेडियम के अन्दर प्रवेश किया।

कुछ देर बाद मुझे दूर से राजीव रंजन आता दिखाई पड़ा। पिछले दिन मैंने अपने मित्र राजीव रंजन और सुकेश को फोन किया था और फिर बातचीत में ही अख़बार में छपी उस ख़बर का जिक्र किया जिसमें लिखा हुआ था कि अरविन्द केजरीवाल आज के दिन सुबह में सिगरा स्टेडियम में लोगों से बातचीत करेंगे। मेरी बात सुनकर सुकेश और राजीव रंजन दोनों ने सुबह में स्टेडियम चलने के लिए उत्सुकता दिखाई थी। सुकेश तो नहीं आया किन्तु राजीव रंजन स्टेडियम पहुंच गया था। स्टेडियम में धीरे धीरे लोगों की भीड़ बढ़ने लगी थी। मैं और राजीव रंजन गप्प करने लगे। इसी दौरान तीन-चार दस ग्यारह वर्ष के बच्चे हमारे नजदीक आ गए थे।

दरअसल वे लोग चन्द्रकान्त पाण्डेय को देखकर हमारे नजदीक आ गए थे, ’आप’ पार्टी के स्लोगन वाली टोपी में वे हम सब से थोड़ा अलग नज़र आ रहे थे। मैंने उनसे पूछा तुमलोग यहां क्यों घूम रहे हो? उन्होंने कहा कि उन्हें अरविन्द केजरीवाल से मिलना है। मैंने चन्द्रकान्त पाण्डेय की ओर इशारा किया और कहा कि ये ही तो हैं अरविन्द केजरीवाल। एक बच्चे ने कहा कि नहीं ये अरविन्द केजरीवाल नहीं हैं। मैंने कहा तुम उन्हें पहचानते हो? बच्चे ने कहा हां अरविन्द केजरीवाल को मूंछें हैं। मैं अब तक कई बार अरविन्द केजरीवाल को टीवी में देख चुका था, लेकिन इस बात पर कभी गौर नहीं किया कि उन्हें मूंछें हैं या नहीं। मैं थोड़ी देर से चन्द्रकान्त पाण्डेय से भी गप्प कर रहा था, किन्तु उनमें और अरविन्द केजरीवाल में इस बारीक अन्तर पर मैंने अब तक ध्यान नहीं दिया था। मैंने चन्द्रकान्त पाण्डेय के चेहरे की ओर देखा, उनका चेहरा सफाचट था। मैंने हँसते हुए कहा, सर आपको मूंछें रख लेनी चाहिए। वहीं पर एक व्यक्ति और थे, उन्होंने अपना नाम आनंद प्रकाश त्रिपाठी (उम्र 35) बताया। उन्होंने कहा कि कुछ दिनों पूर्व अख़बार में छपे अरविन्द केजरीवाल की तस्वीर को देखकर उनकी तीन वर्ष की बच्ची यह कह उठी कि पापा देखो अरविन्द केजरीवाल.....। आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने आगे कहा कि अब तो देश का बच्चा-बच्चा अरविन्द केजरीवाल को पहचानने लगा है। आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने बताया कि वे सनराइज इन्टर काॅलेज, बड़हलगंज, जिला-गोरखपुर में मैनेजर हैं और दो महीने की छुट्टी लेकर ’आप’ के प्रचार के लिए वाराणसी आए हैं।

थोड़ी देर बाद कुछ पुलिस वाले हमारे नजदीक आए और आष्चर्यचकित होते हुए कहा यहां कोई स्टेज नहीं बना है? एक ने कहा नहीं, अरविन्द केजरीवाल स्टेज से बोलने नहीं बल्कि सुबह सुबह टहलने वाले लोगों से बातचीत करने आने वाले हैं। थोड़ी देर बाद मीडिया के लोगों ने भी कैमरा लेकर स्टेडियम में प्रवेश किया। इसी दौरान बातचीत में चन्द्रकान्त पाण्डेय ने अपना एक अनुभव सुनाया, उन्होंने कहा कि वे एक बार किसी पान की दुकान पर पहुंचे और पान की मांग की। चन्द्रकान्त पाण्डेय उस समय भी ’आप’ पार्टी की टोपी लगाए हुए थे। पनवाड़ी ने उनके हुलिए को देखकर टिप्पणी की कि गुरु तीन चार साल ठहर जाते, देख लेते कि यह पार्टी जीत रही है कि नहीं, उसके बाद इसकी टोपी लगाते, इतनी जल्दी क्या थी?

आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि अरविन्द केजरीवाल पहले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम के पास गए थे, उन्होंने उनके सामने जनलोकपाल बिल की बात रखी। दरअसल अरविन्द केजरीवाल कोई प्रसिद्ध चेहरा ढूंढ रहे थे, जिनके नेतृत्व में जनलोकपाल बिल लाने के लिए आन्दोलन चलाया जा सके। लेकिन पूर्व राष्ट्रपति तैयार नहीं हुए। तब वे आध्यात्मिक गुरु रविश्षंकर के पास गए और उनसे भी इस आन्दोलन में साथ देने को कहा, लेकिन वे भी इसके लिए तैयार नहीं हुए। तब वे रालेगण सिद्धि गए, और अन्ना हजारे से मिले, अन्ना इसके लिए तैयार हो गए। इस तरह से अरविन्द केजरीवाल ही अन्ना को दिल्ली लेकर आएं। आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि उस समय अरविन्द केजरीवाल की टीम को भी इस बात का अंदाज नहीं था कि उनकी इस मुहिम से इतनी संख्या में लोग जुड़ जाएंगे।

इस पर चन्द्रकान्त पाण्डेय ने कहा कि अगर उस समय सरकार ने जनलोकपाल बिल की बात मान ली होती तो ’आप’ पार्टी बनाने की ज़रूरत ही नहीं होती। आनंद प्रकाष त्रिपाठी ने कहा कि अगर अन्ना हमारे साथ होते तो पार्टी को और भी लोगों का सहयोग मिलता, लेकिन उनके न आने के बाद भी हमारी पार्टी आगे बढ़ रही है और आज के समय में अन्ना का कद अरविन्द केजरीवाल के सामने छोटा पड़ गया है। लगभग साढ़े सात बजे हमलोगों को दूर से कुछ लोग आते हुए दिखाई पड़े। थोड़ी ही देर में उनलोगों को अनेक लोगों ने घेर लिया था। हमलोग भी उनके समीप पहुंचे। नजदीक जाकर देखा ये सोमनाथ भारती थे। अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार में रहे भूतपूर्व कानून मंत्री। उन्हें लोगों ने घेर लिया था। मैं भी उनके पीछे खड़ा हो गया। लोगों ने उनके सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी। एक ने कहा अच्छा ये बताइए आपलोग दिल्ली से भागे क्यों? और यहां आकर अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि जब जनता चाहेगी तब ही हम यहां पर चुनाव लड़ेंगे, आपको यहां पर चाहता कौन है? आपको यहां पर कोई नहीं चाहता, एक भी आदमी चाहता हो तो बताएं। भीड़ में से कुछ लोगों ने अपने हाथ उठाएं और कहा हम चाहते हैं। सोमनाथ भारती मुस्कुराये और कहा देखिये लोग चाहते हैं कि अरविन्द केजरीवाल यहां से चुनाव लड़ें। इतना सुनना था कि सवाल करने वालों का चेहरा उतर गया।

सोमनाथ भारती ने आगे कहा जब मैं पहले दिन अपने आॅफिस पहुंचा तो देखा कि वहां पर कोई साॅकेट नहीं है जिससे मैं अपना लैपटाॅप जोड़ सकूं। मैंने वहां के कर्मचारी से इस बारे में पूछा। उसने कहा सर पहले के कानून मंत्री यहां बैठते ही नहीं थे, वे तो वहां सोफे पर बैठते थे। तब मैंने अपने आॅफिस में साॅकेट लगवाया। मैंने अपने आॅफिस के अधिकारियों को कहा कि  वे यहां की फाइलें लेकर आएं। अधिकारियों ने कहा कि सर आप फाइलें देख कर क्या करेंगे? यहां पर पहले के कानून मंत्री दो चार फाइलें देखकर उनपर हस्ताक्षर कर दिया करते थे, आप भी ऐसा ही करिये। मैंने कहा नहीं मुझे फाइलें दिखाओ, जब मैंने फाइलों की मांग की तो उन्होंने यह ख़बर फैला दी कि कानून मंत्री जजों की एक मीटिंग बुलाने के लिए कह रहे हैं जो कि उनके अधिकार में नहीं है, आपसबों ने भी अख़बार में वह ख़बर पढ़ी होगी। तब मैंने लिखित में उनको आॅर्डर पास किया कि कोई भी फाइल मेरी टेबल से गुजरे बिना नहीं जायेगा। जब मैंने फाइलें देखी तो देखकर दंग रह गया कि उसमें वकीलों को एक केस में बहस के लिए दो लाख रुपये अदा किये गये थे जबकि उस केस की कोई बहस हुई ही नहीं थी। मुझे वहां पर यह भी पता चला कि जिसकी सरकार बनती थी वे अपने समर्थक कुछ वकीलों का पैनल गठित कर देते थे। मैंने पहली बार वहां पर यह नियम बनाया कि अब से किसी बहस में हिस्सा लिए बिना वकीलों को कोई रकम नहीं दी जायेगी। दूसरे अब से वकीलों की नियुक्ति उनकी योग्यता के आधार पर की जायेगी। इसके बाद वकीलों की नियुक्ति के लिए पहली बार विज्ञापन निकाले गए। सोमनाथ भारती ने इतना कहा था और इससे लोग प्रभावित होने लगे थे कि तभी उन कुछ खास लोगों ने फिर से सवाल दागा आपने क्या किया यह सब मत बताइये..... आपने कुछ नहीं किया आपको पांच साल तक सरकार चलाना चाहिए था, आप भगेड़ू हैं। मैंने ध्यान दिया कुछ खास लोग थे जिन्होंने सोमनाथ भारती को अपने सवालों से घेर लिया था। वे कुछ खास लोग अपने तीखें सवालों के साथ सोमनाथ भारती पर टूट पड़े थे। एक के बाद एक सवाल दागे जा रहे थे। सोमनाथ भारती ने कहा आप मुझे जवाब देने तो दीजिये, मैं आपके हर सवाल का जवाब दूंगा।

सोमनाथ भारती बार बार कहे जा रहे थे कि मेरी बात सुन तो लीजिये और वे कुछ खास लोग बार बार एक ही सवाल किये जा रहे थे इसको छोड़िये यह बताइये कि आप लोग सरकार से भागे क्यों? सोमनाथ भारती ने कहा वही तो मैं बता रहा हूँ। देखिये हमलोग......अभी सोमनाथ भारती ने इतना कहा ही था कि उस व्यक्ति ने कहा कि आपलोग भगेड़ू हैं। तब तक एक ने कहा सरकार चलाने में आपलोगों का फट गया, आप लोग गड़फट्टु हैं। इसके बाद लोगों ने चिल्लाना शुरू किया हर हर महादेव.....। एक ने कहा आपने अपनी सरकार के समय क्या किया?  सोमनाथ भारती ने कहा वही तो मैं बता रहा हूँ। उस व्यक्ति ने कहा आप दिल्ली वाली बात मत बताइये। यहां की समस्या के बारे में बताइये। एक ने कहा आपलोग मुलायम के खिलाफ भी खड़े हो सकते थे, सोनिया गांधी के खिलाफ भी खड़े हो सकते थे, आपलोग मोदी के खिलाफ ही खड़े क्यों हुए? सोमनाथ भारती ने कुछ कहना चाहा लेकिन उन्हें घेरे लोग उन्हें कुछ भी कहने नहीं दे रहे थे। एक ने कहा हमलोग पिछले छह महीने से आपको सुनते आए हैं, अब आप हमलोगों की सुनिये आपलोगों को एक सीट भी नहीं आएगा। इतना कहने के बाद उन लोगों ने चिल्लाना शुरू कर दिया हर हर महादेव.......मोदी....मोदी....। मैंने ध्यान दिया कि वहां पर करीब दस बारह लोग थे जो बार बार सोमनाथ भारती से सवाल किये जा रहे थे। लेकिन वे लोग उन्हें जवाब देने नहीं दे रहे थे। मैंने एक बात और देखा कि सोमनाथ भारती इस दौरान हँसते रहे थे, वे एक ही बात कहे जा रहे थे भाई मेरे मुझे जवाब देने तो दो। सोमनाथ भारती बार बार सवाल करने वाले लोगों को अपने गले से लगा ले रहे थे और उनसे एक ही बात कह रहे थे भाई मेरे मेरी बात सुन तो लो। लेकिन उनकी बात उन लोगों को नहीं सुननी थी उन्होंने नहीं सुना। सोमनाथ भारती वहां से हटकर थोड़ा आगे बढ़े वहां भी उन्हीं कुछ लोगों ने उन्हें घेरे रखा और पूरी कोशिश की कि वे वहां के लोगों से कोई संवाद नहीं कर पायें। कुछ पत्रकारों ने सोमनाथ भारती से सवाल पूछना चाहा लेकिन उन कुछ लोगों ने सोमनाथ भारती को कोई जवाब देने नहीं दिया। जब सोमनाथ भारती कोई जवाब देते वे हल्ला करने लगते।

वहां पर मीडिया का भी खेल चल रहा था, सहारा समय के पत्रकार भी वहां पर उपस्थित थे, एक पत्रकार ने वहां उपस्थित लोगों से कहा आप लोग अपने अपने हाथ उठाइये और मोदी ...... मोदी का नारा लगाइये मैं आपलोगों का विजुअल लूंगा। उसकी बात सुनकर लोगों ने अपने हाथ उठा दिये और मोदी.... मोदी चिल्लाना शुरू कर दिया। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने अपने हाथ नहीं उठाये थे। उन पत्रकारों ने कहा आपलोग भी अपने हाथ उठाइये। उन लोगों ने हाथ उठाने और मोदी के पक्ष में नारे लगाने से इन्कार कर दिया, तब उन पत्रकारों ने कहा अगर आपलोग हाथ नहीं उठाएंगे तो आपलोग यहां से हट जाएं। उन लोगों को बुरा लगा उन्होंने इसका विरोध किया कि हमलोग क्यों हटंे? तब उन पत्रकारों ने कहा अगर आप यहां से नहीं हटेंगे तो ये लोग आपका हाथ उठा देंगे। पत्रकारों ने अपनी बात पूरी की ही थी कि वहां उपस्थित अन्य लोगों ने उन दो तीन लोगों के हाथ जबरदस्ती पकड़कर उठा दिये। लोगों ने चिल्लाना शुरू किया मोदी......मोदी। विरोध करने वाले अल्पसंख्यक न चाहते हुए भी उस भीड़ का हिस्सा हो गये थे, और उन पत्रकारों ने मोदी समर्थक के रूप में उनकी वीडियो तैयार कर ली थी।

अब तक कुछ पुलिस वाले भी वहां पर आ गये थे, उन्होंने सोमनाथ भारती से कहा आप लोग यहां से बाहर चले जाइये जो बातचीत करनी है बाहर कीजिये। उनकी बात सुनकर सोमनाथ भारती स्टेडियम से बाहर निकलने लगे। लेकिन अभी भी उन कुछ खास लोगों ने सोमनाथ भारती का पीछा नहीं छोड़ा था, वे स्टेडियम से बाहर की ओर निकल रहे थे और वे लोग उनपर सवाल दागे जा रहे थे। ’आप’ पार्टी के एक समर्थक ने उन लोगों से कहा आपलोग इस ओर भी ध्यान दीजिये कि क्या आज से पहले भी कोई नेता इस तरह आपके बीच आया है? कितने नेता हैं जिनसे आपको इस तरह का सवाल पूछने का मौका मिला है? अगर यहीं पर राजा भैया और मुख्तार अंसारी आ जाते तो क्या आप उनसे ये सब सवाल पूछ पाते? ’आप’ पार्टी के उस कार्यकर्ता का भी उन खास लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने कहना शुरू किया यहां से बाहर जाइये .......जाने कहां से चले आते हैं .......स्टेडियम में सिर्फ खेल की बात की जानी चाहिए.....। सोमनाथ भारती हँसते हुए स्टेडियम से बाहर निकले, उन्होंने कहा लोगों के पास बहुत सारे सवाल हैं, मैं इस तरह के सवालों को पाॅजिटिव रूप में लेता हूँ।

-प्रमोद कुमार बर्णवाल
pramodbarnwalbhu@gmail.com

Saturday, April 12, 2014

...और यह भी विश्वविद्यालय के बारे में

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भारतीय ज्ञान-मीमांसा के अनुसार, मनुष्य का ज्ञान उसके स्वयं के अनुभव पर आधारित है। जहाँ ज्ञान की रिक्तता होती है, वह युग अंधकार युग बन जाता है। भारत में इस घड़ी अंधकार युग के आगमन का शोर और कोलहाल सुनाई दे रहा है। चारों तरफ यह कहा जा रहा है कि वे दिन अब नहीं रहे जब शिक्षा की बात भविष्य के लिए समाजीकरण के रूप में विवेचित किया जा सकता था। चूँकि तब बहुत कम अवसर प्रत्याशित थे और जीवन जी सकने योग्य बनाने के लिए एक बच्चे को अपेक्षित दक्षता प्रदान की जा सकती थी। विज्ञान और प्रौद्योगिकी द्वारा लाए गए आधुनिकीकरण ने विरोधाभासी रूप से एक ओर तो हमारी भविष्य कथन की ताकत को बढ़ा दिया है; वहीं दूसरी ओर भविष्य की अनिश्चितताओं को पैदा कर दिया है। भारत में उच्च शिक्षा के संस्थान ऐसे स्नातकों के उत्पादक हैं जो उच्च योग्यताओं के लिए तथा अंतत्त्वोगत्वा पश्चिम की विकसित अर्थव्यवस्था में समावेशन के लिए चले जाते हैं। इस प्रकार एक स्नातक को प्रशिक्षित करने में विकासशील समाज जो भी निवेश करता है-मौलिक विज्ञानों, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा विज्ञान इत्यादि में वह बेकार चला जाता है; क्योंकि वह व्यक्ति ऐसी दूसरी अर्थव्यवस्था को सेवाएँ प्रदान करने लगता है जो अपने लोगों को प्रशिक्षित करने में सक्षम हैं; पर जो ऐसे विदेशियों को काम पर रखकर स्थिति का लाभ उठाती है जिनके प्रशिक्षण में उन्हें कोई प्रारम्भिक निवेश नहीं करना पड़ा। विकासशील विश्व में ज्ञान के केन्द्रों को विकास के वैकल्पिक मार्ग पर विचार एवं शोध हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए, जो जीवन को बेहतर बनाएँ; पर्यावरण को कम प्रदूषित करें; संसाधनों की बेहतर साझेदारी संभव करे तथा लोगों को अपने समाज तथा संस्कृति के प्रति प्रतिबद्ध एवं दूसरी संस्कृतियों का गुणग्राही बनाएँ।

अतएव, आज अध्ययन-अध्यापन में परोपकारिता और सदाशयता के स्थान पर पारदर्शिता और जवाबदेही कायम किए जाने की जरूरत है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इसी संकल्प को दुहराते हैं:

भारत अपने युवाओं को कौशल-विकास, प्रशिक्षण और अवसर देकर एक ज्ञान आधारित समाज बनाने का इरादा रखता है। 12वीं योजना के अंत तक हमारा ज्ञान आधारित समाज बनाने का लक्ष्य है। मैं युवाओं को शिक्षा प्रदान करने वाले तथा उनके मस्तिष्कों को प्रभावित करने वाले तथा समाज पर नैतिक प्रभाव रखने वाले लोगों का आह्वान करता हूं कि वे इस प्रक्रिया को शुरू करें। हमारे विश्वविद्यालयों तथा अकादमिक संस्थानों को शिक्षा प्रदान करने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए, जिससे हमें अपने समय की नैतिक चुनौतियों का सामना करने में सहायता मिलेगी। इससे समाज में मानव गरिमा और समानता के मूल्यों के प्रचार-प्रसार में मदद मिलेगी। भारत के वर्तमान जनसांख्यिकी स्वरूप से इस विश्वास को सुदृढ़ बल मिलता है। एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2020 तक भारत की औसत आयु 29 वर्ष होगी। यह अमरीका की 40 वर्ष, जापान की 46 वर्ष और यूरोप की 47 वर्ष की औसत आयु से काफी कम होगी। 2025 तक, दो-तिहाई भारतीयों की कामकाजी आयु होगी। यदि हम युवाओं की इस क्षमता का उपयोग कर सके और उनकी लाभकारी ऊर्जा को दिशा दे सके तो हम अपने देश के आर्थिक भविष्य की कायापलट कर सकते हैं।

भारतीय राष्ट्रपति के शब्दों में भावी पीढ़ी के भविष्य से सम्बन्धित चिन्ता साफ स्पष्ट हो रही है। इस चिन्ता का मुख्य कारण है-भारतीय ज्ञान-सृजन की प्रक्रिया में पड़ने वाला भूमण्डलीकरण का तीव्र प्रभाव। आज दुनिया भर की विचारधाराओं का प्रभाव भारतीय विश्वविद्यालयों पर पड़ रहा है। माक्र्सवादी हैं; नवमाक्र्सवादी हैं; प्रगतिवादी हैं; नवप्रगतिवादी हैं; जनवादी हैं; नवजनवादी हैं; लेकिन ज्ञानवादी या नवज्ञानवादी नदारद हैं। आज विश्वविद्यालय केवल उपाधि बाँटने की जगह भर बनकर रह गया है। आज अध्ययन एवं शिक्षा का मूल्य न समझकर या विद्यार्थी की निपुणता और प्रवीणता में वृद्धि न कर उसे केवल उपाधिकारी बनाने पर तुले हुए हैं। अर्नाल्ड एंडरसन और एडवर्ड शिल्स प्रवीणता के विकास और रचनात्मकता पर जोर देते हैं और चिन्तन के लिए नए रूपों के साथ आधुनिक उद्योग, समाज और शासन के निर्माण की सक्रियता देखते हैं। यूरहेड ने ‘एलिमेन्टस आॅफ एथिक्स’ में कहा है कि ज्ञान ही उच्चतम आनन्द हैं। धन और शान्ति इसकी अपेक्षा निम्न कोटि के हैं जिनसे केवल इच्छाओं की पूर्ति होती है। और उस ज्ञान प्राप्ति की चेष्टा करना, सुख प्राप्ति के लिए किए गए कर्मों में उच्चकोटि का है।

ज्ञान, विश्वविद्यालय और युवा


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पश्चिम में, अठारहवीं शताब्दी से ज्ञानोदय की परम्परा शुरू होती है। इसमें बेकन, कांट, देकार्त, ह्युम, हीगेल जैसे विचारक शामिल हैं। फ्रांसिस बेकन को ज्ञानोदय का पितामह ही कहा जाता है। बेकन ने कहा कि ज्ञान के केन्द्र में मनुष्य है। बेकन के अनुसार ज्ञान और शक्ति पर्यायवाची हैं। सन् 1783 ई. में इमैनुअल कांट ने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘ज्ञानोदय क्या है?’ में ज्ञानोदय को साहस का पर्याय कहा। मनुष्य में साहस आत्मनिर्भर होने से आता है। आत्मनिर्भरता ज्ञान से आती है। ज्ञान, तर्क और विवेक ने मनुष्य को अंधविश्वास, धार्मिक कूपमंडूता व रूढ़ि के जकड़न से मुक्त करना शुरू किया। ज्ञान-सृजन की प्रक्रिया में प्रेस की भूमिका अभूतपूर्व रही है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना था कि प्रेस ने पुस्तकों को अपूर्व प्रचार-प्रसार और असंख्य पाठक दिए। वस्तुतः प्रेस ने साहित्य को प्रजातांत्रिक रूप दिया। यूरोप में आधुनिक युग, आधुनिक होने का एहसास, आधुनिकता की शुरुआत पन्द्रवहीं सदी के रिनैसां(पुनर्जागरण) से मानी जाती है। यह अंग्रेजी, फ्रंासीसी, जर्मन आदि आधुनिक यूरोपीय जातियों के निर्माण का काल है। जातीय निर्माण का मतलब है सामंती व्यवस्था के भीतर व्यापारिक पूँजीवाद का विकास। यहीं से लैटिन को पीछे ठेलकर अंग्रेजी, इतालवी, फ्रांसीसी, जर्मन आधुनिक यूरोपीय भाषाओं में साहित्य की रचना शुरू हुई, यूरोपीय मानवतावाद का जन्म हुआ। भारत में ज्ञानोदय काफी पहले ही हो चुकी थी। भारत में उच्च शिक्षा नई बात नहीं है। प्राचीन काल में गुरुकुलों तथा आश्रमों में गुरु के पास रहकर छात्र विशेष विषयों में उच्च शिक्षा प्राप्त करते थे। उस समय उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में वेदो-वेदांगों की शिक्षा का बाहुल्य था। शाखा, चरण तथा क्षेत्र नामक तीन प्रकार का बाहुल्य था। नालन्दा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय वास्तव में विश्व प्रसिद्ध थे जिनमें विश्व के अन्य देशों के छात्र पढ़ने आया करते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय विश्वप्रसिद्ध था जहाँ निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी।

-ज्ञान-प्राप्ति के पौर्वात्य साधन

मूल प्रवृत्ति
इन्द्रियों द्वारा
विवेक-बुद्धि
आचार्यत्व के माध्यम से

-अकादमिक शिक्षा

पाठ्यक्रम-विश्वास या श्रद्धा का स्तर
अध्ययन-अध्यापन-चिन्तन का स्तर
अनुसंधान-वृत्ति-नए सत्य की खोज या पुराने की नवीन स्थापना

-आचार्य शब्द की भारतीय ज्ञान-मीमांसा में अर्थ

ज्ञान
सद्
प्रेमी
नम्र
विनयी
सत्य

उच्चकोटि की आध्यात्मिक चेतना प्राप्त पुरुष
महामना मदन मोहन मालवीय जी का मानना था विश्वविद्यालय में ज्ञान ही धर्म है:

घर में हमारा ब्राह्मण धर्म है
परिवार में सनातन धर्म है
समाज में हिन्दू धर्म है
विश्वविद्यालय में ज्ञान धर्म है
देश में स्वराज धर्म है
विश्व में मानव धर्म है

राजनीति, जनतंत्र और युवा

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भारत में राजनीतिक पराभव का यह विषम दौर है। लोकतंत्र के मजबूत पाये खड़े-खड़े ऊंघ रहे हैं। हाल के दिनों में अभद्रता, अवमानना, अन्याय, अपराध, असंगति आदि की घटनाएँ इफरात मात्रा में बढ़ी हैं। वर्चस्व और प्रभुत्तव की वर्तमान राजनीति ने लोकतंत्र की चादर को मैला कर दिया है। हिंसा और दंगे लोक-समाज के धु्रवीकरण, तुष्टिकरण, एकरूपीकरण आदि का जरिया बन चुकी है। लिहाजा, साम्प्रदायिक शक्तियाँ सिर्फ एकजुट ही नहीं हो रही हैं बल्कि अंधे धृतराष्ट्र की भाषा में आत्ममुग्ध वसीयतनाता लिखने पर भी आमादा हैं। वहीं धर्मनिरपेक्षता का नकाब और जुराब पहनी देश की कमोबेश सभी पाटियाँ वैचारिक एकजुटता का भौड़ा प्रदर्शन करते हुए लगातार देश की अस्मिता-बोध को चुनौती दे रही हैं; उपभोक्ता-संस्कृति के सांस्कृतिक-दुराचार के आगे घुटने टेक रही है। लेकिन, यह भी सच है कि इनसे टकराने वाली समूह को भी इस कठिन समय ने ही सिरजा है। प्रतिरोध और प्रतिकार की उर्वर जमीन बनाने में समय की इन दुरभिसंधियों का योग अधिक है। भारतीय जनमाध्यम जिसकी भाषा में छल करना सर्वाधिक आसान है। इस घड़ी जनता-जर्नादन के पक्ष में महमह करती दिख रही है। भारतीय राष्ट्रीय कांगेस और भाजपा के बरक़्स आम-आदमी पार्टी को हासिल प्रचार और लोकप्रियता कहीं न कहीं इसके महत्त्व को सही साबित करते हैं। ऊँची नाक वाले राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों की मानें तो सबने एकमत घोषणा कर रखी है-‘भारतीय राजनीति का यह समय युवा-समय है। वह जाग गया, तो देश बदल जाएगा।’ हम इन ऊँची नाक वाले राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों के कहे को सच होते हुए देखना चाहते हैं।

यह बात विश्वास योग्य है। भारतीय युवाओं के बारे में सोच का सामाजिक भूगोल तेजी से बदला है। बदलाव की यह पुरवाई युवा चिन्तन, नेतृत्व और दृष्टिकोण में परिलक्षित होता हुआ भी दिखाई दे रहा है। भारत का युवा वर्ग बहुसंख्यक है; बहुगुणधर्मी हैै। राजनीति से दूर भागने वाले युवाओं के विपरीत युवाओं का एक वर्ग ऐसा भी है जो राजनीति में दिलचस्पी रखने वाला चेतस और जवाबदेह युवा है। परिवर्तनकामी राजनीतिक प्रवृत्तियों को वह सिर्फ सराह ही नहीं रहा है, बल्कि स्वीकार भी कर रहा है। आज भारतीय युवा कई मोर्चे पर लगातार जनतांत्रिक लड़ाई लड़ रहा है। स्वयं को अवसरवादी, पलायनवादी और समझौतापरस्त कहा जाना उसे पसंद नहीं है। वह मुक्कमल बदलाव के लिए हर छोटे-बड़े मौके को एक संभावना के रूप में चिह्नित कर रहा है। हमारी दृष्टि में विपरीतलिंगी साथी के साथ चैट करता, डिश चखता, डांस करता युवा....देश का मुकद्दर बदलने वाला युवा भले न हो; लेकिन देश का असली युवा असंगठित रूप से पूरे देश में बिखरा है। उसकी संख्या गिनती में देश की पूरी आबादी के शीर्ष पर अंकित है।

क्या इस सच से आपका साबका पड़ा है? क्या आप भारतीय विश्वविद्यालयी युवा को इसी आँख से देखते हैं? क्या आप मानते हैं कि आज हर किस्म का जोखिम उठाता यही हुआ कल की तारीख में बड़े परिवर्तन का इतिहास लिखेगा? क्या आप इस विश्वास से भरे हुए हैं कि पतियों का रंग जब तक हरा है...उसमें क्लोरोफिल होने की संभावना सौ-फीसदी है? यदि हाँ, तो हरेपन से भरे इस युवा पीढ़ी के बारे में गोया आपका क्या ख्याल है?

भारतीय युवा राजनीति में ताजगी, स्फूर्ति, आवेग, लय, स्वर, भाषा सबकुछ है...और सब बहुवचन में है। अतः विषय, सन्दर्भ और प्रसंग विचारणीय बनता ही है।

इक्कीसवीं सदी, युवा और विश्वविद्यालय


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वर्तमान युवा-पीढ़ी भाव, उमंग, इच्छा, आकंक्षा, रूप, रंग, गंध, रस इत्यादि के उमाड़ पर है। यह उमाड़ जन-ज्वार की सामूहिक चेतना, साहस और युवा-शक्ति के पर्याय रूप में अभिव्यक्त है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में बुनियादी समस्याओं से लड़ती-भिड़ती यह पीढ़ी भारत के भविष्य का पीठ ठोकती पीढ़ी है। यह इक्कीसवीं सदी की ऊर्जावान, चेतस और परिवर्तनकामी पीढ़ी है जो इस घड़ी विश्वविद्यालय परिसर में मौजूद है। अध्ययनजीवी यह पीढ़ी मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुई उन पीढ़ियों में से नहीं हैं जो नेता नहीं होते हैं; लेकिन नेतृत्व उन्हीं के हाथों में नित तरक्की पाता है। दरअसल, देश की असली शक्ति आज प्रोजेक्टेड/प्रमोटेड वंशवादी राजनेताओं का शिकार है। आज जिन युवाओं के पास राष्ट्रीय चेतना, विश्व-दृष्टिकोण और वैश्विक अर्थतंत्र की गहरी समझ है; वह हर जगह है लेकिन राजनीति में नहीं है। व्यक्ति, समाज, राजनीति और संस्कृति से सम्बन्धित गहन विश्लेषण की क्षमता भी इस विश्वविद्यालयी पीढ़ी में अंतर्भूत है; लेकिन वे राजनीति में ‘इंटरेस्टेड’ नहीं दिखते हैं।

हमें देखना होगा कि विश्वविद्यालय में रोपी जा रही यह पीढ़ी अपनी संभावनाओं की तलाश में आकाश की ओर ताकती अवश्य है; लेकिन, वह सिर्फ आकाशमार्गी नहीं है। वह अपने विपरीतलिंगी के साथ हवाबाजी-गपबाजी सबकुछ कर लेने को आतुर है; लेकिन वह ‘देवदासवादी’ नहीं है। यह पीढ़ी भारत की निष्कलुष मनोवृत्तियों, अंतःप्रवृत्तियों के साथ जन्मी और जवां हुई संघर्षशील पीढ़ी है। यह विश्वविद्यालयी पीढ़ी अपने समय के सवालों और ज्वलंत मुद्दों को पुस्तकबाज आँकड़ों में उल्लेखनीय बनाने की बजाए उन्हें विचार के बरास्ते सही, सार्थक और स्वालंबी नेतृत्व देना चाहती हैं। यह युवा पीढ़ी ‘प्रोपेगेण्डा अट्रैक्ट’ की खोखली राजनीति को ‘पब्लिक इन्टरेस्ट’ की सशक्त राजनीति में बदलना चाहती है।

देश की ताजी बयार जिस दिलोदिमाग में बह रही है, वह पीढ़ी युवा है। इस पीढ़ी की उम्र को युवा तुर्क के जमाने से नापें, तो देशी चैहद्दी में सयानी हुई यह हमारी राजनीतिक-जनतांत्रिक पीठ की तीसरी पीढ़ी है जो साधिकार राजनीति में प्रवेश, दखल और प्रतिनिधित्व की माँग कर रही है। इस पीढ़ी को यथास्थितिवादी फटा-सुथऽना पहनकर जीना स्वीकार्य नहीं है। यह पीढ़ी लिंग, धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा इत्यादि के भुलावे या झाँसे में पड़ने के बजाए अपना हाथ जगन्नाथ स्वयं करना चाहती है। संभावित चेतना से लकदक यह जिन्दादिल पीढ़ी ‘भूख’ पर राजनीतिक भाखा बोलने वालों को तत्काल उसी की भाषा में ‘शेटअप’ और ‘गेटआउट’ कहना जानती है। सच के बारे में सलीके से सोचने वाली यह पीढ़ी जुझारू है, जुनूनी है और जज्बाधारी भी। ध्यान देना होगा कि आवेपूगर्ण ओज और तेज से पूरित यह किशोर से युवा होती पीढ़ी प्रेम में पड़ती है, लेकिन स्खलित होती ही हो; यह जरूरी नहीं है। आजकल जिस तरह का कईकिस्मा प्रेम चलन में है, प्रेम के बेचदार बाज़ार में मौजूद हैं; उससे तो यही लगता है कि प्रेम और युद्ध में युवा प्रेम को चुनने के लिए बाध्य है।

अतः वर्तमान नवयुवक पीढ़ी 21वीं सदी की विश्वसनीय पीढ़ी है जो अपने समय के अंतर्विरोधों, विरोधाभासों, गतिरोधों, गतिविधियों इत्यादि से पूर्णतया अवगत है। इस पीढ़ी का अपनी पुरानी पीढ़ी से रिश्ता सामान्य है, बेमेल नहीं है। अस्तु, यह पीढ़ी उनका मुखालफत कम उनसे तहकिकाती भाषा में जवाबतलब-बहसतलब ज्यादा कर रही है। इस पीढ़ी को मंच से भूख पर भाषण देने वाले कतई पसंद नहीं हैं। इसलिए वह अपनी उम्र के युवा राजनीतिज्ञों को ‘भूख सत्याग्रह’ के लिए सीधे देशी चैराहे पर खड़ा करना चाह रही है। गोकि वर्तमान युवा पीढ़ी के पास जनतांत्रिक-विकल्प की त्वरा, साहस और शक्ति विद्यमान है। यह पीढ़ी सम्प्रदायीकरण, धार्मिकरण, जातिकरण, क्षेत्रीरकण, तुष्टिकरण, ध्रुवीकरण आदि गठबंधनों-गठजोड़ों से पूर्णतया मुक्त है। इस पीढ़ी के लिए ‘रोल माॅडल’ अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, जापान, रूस और फ्रांस जैसे नवसाम्राज्यवादी मुल्क नहीं हैं। अर्थात् ‘विश्वसनीय भारत’ के निर्माण में दृढ़संकल्पित हम उस पीढ़ी की बात कर रहे हैं जो यह सिद्ध कर देना चाहती है कि वह अपने मुल्क का मालिक भी खुद है और वारिस भी खुद।

दो दिन पहले: 10 अप्रैल 2014

किया मतदान 'इस बार' पहली बार
रघुवीर सहाय  के शब्दों में:
....फिर जीवन शुरू हुआ.

Wednesday, April 9, 2014

आज 09.04.14

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काफी उत्साहित हूँ। कल अहले सुबह गाँव जाना है। मतदान देने का उत्साह चरम पर है। लोकतंत्र की निग़ाह में सर्वसाधारण नागरिक होने का सबसे शुभ सुअवसर है यह। चलो, अच्छा है। शब्दों और भाषाओं में कचोधन या माथापच्ची करने से अच्छा है कि हम चुपचाप मतदान करें। राजनीति पर बात बखनाने और बहसबाजी करने का जिम्मा जिन भाषा-नायकों को है; फिलहाल इसे वही संभालें। वैसे आज काफी दिनों से दिलों-दिमाग में चल रहा आलेख ‘कमण्डल पितृसत्ता और धरती धन स्त्री’; पूर्ण हुआ।


Tuesday, April 8, 2014

आज 08.04.14

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टी.वी. पर न्यूज़ चैनल। भौचक्क हूँ। केजरीवाल को एक शख्स रोड शो के दौरान थप्पड़ मार देता है। सुना, वह टेम्पो चालक है। आम आदमी इस कदर गुस्सा है। ज़ायज़-सही की बात छोड़ दीजिए, तो भी कांगे्रस, भाजपा, सपा, बसपा आदि अन्य पार्टियों से गुस्सा क्यों नहीं हैं लोग? मेरा गला बैठ गया है। दिमाग को तो कबका मरम्मत के लिए भेज रखा है।

Monday, April 7, 2014

आज 07.04.14


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आज दूध फट गया। गर्मी काफी है, इस कारण। सीमा ने उसे अपने ओढ़नी में बांधकर दरवाजे से टांग दिया। नीचे बाल्टी में पानी गिर रहा था-ठप, ठप...। मैं, सीमा, देव और दीप ने साथ बैठकर छेना की सब्जी और भात खाया। बड़ा ही स्वादिष्ट। कहा, चलो...कुछ तो अच्छा हुआ। बिटना(दीप) तो अपनी थाली में से बिन-बिन कर चट कर गया छेना का टुकड़ा। देव उस पे गुस्सा हो रहा था। सीमा ने कहा कि जाने दो बच्चा है। फिर उसने मुझे चिढ़ाया-तब आपका चाय कल कैसे बनेगा? मैं मुसकरा दिया।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...