Tuesday, December 30, 2014

कटौती: नववर्ष की बधाई!

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सिर्फ उन्हीं को
जो मेरे बच्चों का नाम जानते हैं!

Monday, December 29, 2014

हत्या-पूर्व एक मशविरा

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कितना अच्छा हो अपने ब्लाॅग में किसी वर्ष कोई तारीख न दर्ज हो...!!

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जब बेहद चालाक हो समय
मित्र बन पीठ पर थाप दे
घुस आए धड़धड़ाते हुए
तुम्हारे मकान के भीतर
अभाव में जीते तुम्हारे बच्चों को दुलारने लगे
तुम्हारी मेहरारू के भाग्य को कोसने लगे
निःसंकोच छूने लगे तुम्हारे सत्त्व को
करने लगे व्यंग्य, उड़ाने लगे उपहास
उसकी अट्टहास देख
यदि तुम्हारा चेहरा फ़क पड़ने लगे
एकबारगी भकुआ जाओ तुम
तो इस घड़ी सावधान होओ...
यह डरने का नहीं मुकाबला का समय है!
पीछे हटने का नहीं प्रतिरोध का समय है!
कमबख़्त यह रोने का नहीं गीत गाने का समय है!
अपने पिता के टोन में निहत्था किन्तु निर्भीक-
‘आव गाईं जा झूमर हो हमार सखिया....’

यह समय अपनी भाषा में तेज-तेज स्वर में बोलने का है
ताकत भर अपनी चेतना को आज़माने का है
ताकि तुम्हारी हत्या भी हो...,
तो सारा ज़माना तुम्हारी आह! सुने
और बरबस कहे, ‘हाय हत्भाग्य हमारा जड़-मूक, स्पंदहीन, संवेदनहीन बेजान शरीर;
दुनिया से कुछ न चाहने वाले को दुनियावालों ने ही लील लिया।’
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पत्नी

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रोज की तरह आज भी बाबू को स्पीच थेरेपी क्लास से लेकर लौटा, तो शाम के साढ़े पांच हो गए थे। कुछ देर बाद मेहरारू भी सब्जी लेकर मकान में दाखिल हुई। दीप, देव के साथ टीवी देखने लगा था; और मैं प्रथम प्रवक्ता के दिसम्बर, 2009 अंक में आंख-मुंह-नाक सहित धंसा हुआ था।

आते ही मुंह बिचका दी थी वह। उसे मुझपर लाड़ आता है; लेकिन उसकी आंख किताबों, पत्र-पत्रिकाओं पर बज़र गिराते हैं। वह पगलेट नहीं है लेकिन मैं समझता हूं। वह कहती है कि आदमी को इतना ही पढ़ना चाहिए कि सहुर भर बोल-बतिया सके; बाकी सब फिज़ूल है। वह अंदर चली गई।

आधे घंटे बाद मैं किचेन में गया, तो बच्चों ने ख़बर भेंट की-‘‘मम्मी, किताब में से खाने के लिए बना रही है...’

वह मंचूरियन बना रही है; उसने बताया।

‘‘ठीक है बनाओ, मैं नीचे कमरे में जा रहा हूं।’’

मेरा स्टडी रूम नीचे है। इसका किराया पन्द्रह सौ अलग से देता हूं। सीमा को उस कमरे से भारी चीढ़ है। और मुझे इकतरफ़ा प्यार।

खैर! नीचे नहीं आ सका। सोचा थोड़ा उसका सहयोग कर दूं।

मैं, सीमा, देव और दीप ने आज वेज-मुचूरिअन खाया। अच्छा लगा।

अपनों द्वारा अपनेपन से परोसी गई चीजों में क्या अद्भुत स्वाद होती है?

नीचे मेरा हाॅकेट, हैलिडे, शिलर, इंतजार कर रहे थे। यह गुलामी खटने का इरादा नहीं है; लेकिन यह करम न करें तो आपको अपने आगे कोई लगाएगा भी नहीं। हैबरमास, नाॅम चाॅमस्की, रेमण्ड विलियम्स, एडर्नों, टाफ़्लर प्रायः मेरे दिमाग को घेरे रखते हैं। इसी तरह आचार्य भरत मुनि, यास्क,, भामह, भतृहरि, पाणिनी, पतंजलि, आन्नदवर्धन,, स्फोटायन....भी मेरे भीतर पेसे रहते हैं।

यह सब नौटंकी नौकरी पाने के लिए। जिन्दगी सुलभ बनाने के लिए। सीमा कहती है, सबकुछ गवांकर पाना भी कोई पाना है। मान लीजिए, प्रधानमंत्री ही हो जाइए और मेहरारू को साथ रखना भी न जानिए....काम के फेर में अपने बच्चों से ही न बोल-बतिया पाइए; यह भी कोई आदमी की ज़िदगी है।

मैं जानता हूं। उसके पास जितना दिमाग है, सोच लेती है। वह सही ही सोचती है; भले सब कहें...मैं मानूं ही; यह जरूरी थोड़े है।  मैं अपनी आकांक्षा, मान और प्रतिष्ठा के लिए अपनी पत्नी के अरमानों का गला घोंटता आया हूं। लेकिन, समाज ने अभी तक मेरे लिए कोई सर्जा मुकर्रर नहीं की। सचमुच, समाज मर्दों का पक्ष न ले, तो स्त्रियों के सच्चे जीवनानुभव और यथार्थ-बोध के आगे पानी भरने के सिवाय हमारे पास कोई चारा नहीं बचेगा।

Sunday, December 28, 2014

मेरे शोध-निर्देशक : जिनसे मैंने खुद का ‘होना’ जाना

 वह पिछले पांच सालों में से कोई एक दिन रहा होगा। सदानीरा भगीरथ गंगा शब्दों से हमें शीतल कर रही थी हम ज्ञान-प्रवाह में हमेशा की तरह बह रहे थे....दीप्त आंखें तृप्त मन के साथ चुपचाप झर रहे थे
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मेरे नोटबुक के एक पन्ने में 
प्रो. अवधेश नारायण मिश्र

विश्वविद्यालय में संवादधर्मी माहौल नहीं है। बहसतलब मिज़ाज के लोग कई गुटों, खण्डों, भागों में बंटे हुए हैं या जानबूझकर विभाजित हैं। यह सब मेरी सोच और चेतना के विपरीत है। फिर मैं क्यों बीएचयू में हूं? किसने रखा है? कोई जोर-दबाव तो है नहीं। वैसे भी मैं स्वभाव से ‘शार्ट टेम्पर्ड’ हूं। कब कोई बात मुझे बुरी लग जाए। लेकिन अगर लग गई तो प्रतिक्रिया होनी है। अब चाहे परिणाम जो हो। फिर मेरे तुनकमिज़ाजीपन को किसने इस कदर साध दिया कि कुल प्रतिकूलताओं के बावजूद मैं इस विश्वविद्यालय में हूं। छात्रवृत्ति; हो ही नहीं सकता। राजीव रंजन प्रसाद के लिए यह कोई कामना का विषय नहीं है। मुझे पता है, कुछ लोगों में प्रतिभाएं जन्मजात होती हैं। मैं तो श्रमशक्ति युगे-युगे का आह्वानकर्ता हूं। तो मैं कहना क्या चाहता हूं आखिरकार...!

यही कि मुझे प्रो. अवधेश नारायण मिश्र ने रोक-छेंक लिया इस विश्वविद्यालय में। उन्हें इससे क्या कुछ लाभ हो रहा है; मुझे तो नहीं पता; लेकिन मैं क्या पा चुका हूं या पा रहा हूं; यह पता है मुझे। उस दिन सामने थे वे तो कह रहे थे: ‘माक्र्स का दर्शन क्रियात्मक पक्ष की ओर ज्यादा ध्यान देता है। पूर्व का दर्शन कहता है-दुनिया को समझो; जबकि माक्र्स कहता है-दुनिया को बदलो।’ बातचीत में मोड़ आए तो उन्होंने कहा: ‘सच कहना बगावत है, तो समझो हम बागी हैं।’ यह आज के देशी हालत पर सच्चे राष्ट्रवादियों, समाजसाधकों के प्रतिरोध के शब्द थे। वह इस बारे में हमें बता रहे थे: ‘राष्ट्रनीति आज सर्वग्राही और सर्वभसक्षी हो गई है। प्रत्येक राजनीतिक पार्टियों के शिखर पर शून्य है, अन्धेरा है। पुराने समय में राजधर्म प्रचलित थे; बाद में राजनीति शब्द प्रयुक्त होने लगे; बात का सिरा फिर बदला और वर्तमान में दुष्चरित्र लोगों की बढ़ती संख्या और उससे आक्रांत समाज पर चर्चा छिड़ गई थी। रावण का नाम आया तो उन्होंने कहा: ‘चार वेद और छह वेदांगों का ज्ञाता है रावण। इसलिए रावण को दशानन कहा जाता है।' बात छिटकी और बौद्ध-धर्म पर आ गई। वे हमें बताने लगे: करुणा के माध्यम से जगत लोकमंगल की यात्रा करता है। हम सुन रहे थे। मेरी कलम अक्सर सचेत हो जाती, तो कुछ टीप लेती। मैंने उस दिन कई चीजें टीप दी थी:
  • सहानुभूति=>दया=>कृपा; व्यक्ति को छोटा बनाती है।
  • भारत में राजनीति के कारण ही लोकतंत्र की स्थापना उन्मुख हुई।
  • गांधी प्रायः कहते थे-‘मेरा कर्म ही सन्देश है’।
  • लोकतंत्र में विचार कभी नहीं मरता है।
  • ‘आर्यकल्प’ शब्द में श्रेष्ठ युग की कामना अन्तनिहित है।
  • मस्तिष्क और हृदय के विनियोग से विचार निर्मित होता है। यह पत्रकारिता का प्रमुख नियामक तथा उसका मूलाधार है।
  • राजनीति उच्च स्तर की हुई तो स्वाधीनता की ओर प्रवृत्त किया और निम्न हुई तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधीन कर गया।
  • मनुष्यता की निर्मिति सात्तिवक चीजों से होती है।

Saturday, December 27, 2014

वाह! रजीबा वाह!

बतकही/जनता की अड़ी
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सरकार का सरकारी नेतृत्व करने वाला शख़्स उस मंत्रिमण्डल विशेष का प्रधानमंत्री हो सकता है। देश का असली प्राइम मीनिस्टर वहां की जनता है भाई जी-बहिन जी! जो प्राइम मीनिस्टर होना नहीं चाहती; लेकिन वह चाह जाए तो तेरह महीने क्या तेरह दिन में प्राइम मीनिस्टर पर सुशोभित व्यक्ति को दर-बदर कर सकती है। 
 
धत् महराज! ‘भारत के प्रधानमंत्री’ वाला बचवन का मनोहर पोथी नहीं पढ़े हैं क्या? उसमें देख लीजिए जनता ने किसको और कितने दिनों तक प्रधानमंत्री बनाया है; और ज्यादा हूमचागिरी करने पर अगले चुनाव में पटखनी भी दे दिया है। जनता की डीएनए में से कांग्रेस जैसे गायब हो गई न! भाई जी, बहन जी! यूपी में से बहन जी का हाथी करवटिया गया न!
समाजवादियों और वामपंथियों ने कहां क्या भुगता है यह भी बताना पड़ेगा? और लालूजी और पासवान जी के बारे में तो बच्चा-बच्चा जानता है कि उन्हें जनता ने जितना ही आदर दिया वे उतने ही आसमानी और हवाई हो गए; अब उनसे ज़मीन धरायेगा...ई त भाई जी-बहिन जी! मेरी समझ से कवनो ज्योतिष, पंडित ही बता सकता है; है कि नहीं!
 
मेन बात ई है कि सरकार में ‘वन फेस सुपर हेजेमनी’ प्रधानमंत्री ही न कसौटी पर कसे गए हैं।  इतिहास से न सीखेंगे, तो इनका भी हश्र क्या होगा; ई बताना पड़ेगा क्या..?

बड़े आए प्रधानमंत्री का ज्ञान-पाठ सिखाने। ज्यादा ठंडाइए मत...जाइए,  जन-धन में में कुछ काम लायक धन-वन भेजिए!

महाआफत है वर्फबारी...विश्व का एक बड़ा हिस्सा हो सकता है ‘ममी’ में तब्दील

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यह बात सौ फीसद झूठ है। इस पर जरा भी विश्वास न करें। लेकिन मैं शोध-विद्याार्थी हूं ऐसी उपकल्पना यानी हाइपोथीसिस पर विचार तो कर ही सकता हूं।

शुभ-रात्रि!

ओह! प्रोमीथियस मुझे तुम्हारे मन की व्यथा-कथा कहनी है

दैवीय-सत्ता के अमानुष और बर्बर
 होने 
की 
प्रतीकात्मक नाट्य 
का 
पुर्नपाठ
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समकाल के बरास्ते एक मनोवैज्ञनिक: मनोभाषिक पड़ताल
राजीव रंजन प्रसाद




no wait pls...!
it's personal write up

‘आप’ जनता की गुनाहगार है, निर्णय वही करे!

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07 जनवरी, 2015
राजीव रंजन प्रसाद 





wait pls...!

कृपया मेरी मदद करें : Please Help me

परआदरणीय महोदय/महोदया,
सादर-प्रणाम!
मेरा शोध-कार्य संचार और मनोभाषाविज्ञान के अंतःसम्बन्ध पर है। मैं युवा राजनीतिज्ञों के संचारक-छवि और लोकवृत्त के अन्तर्गत उनके व्यक्तित्व, व्यवहार, नेतृत्व, निर्णय-क्षमता, जन-लोकप्रियता इत्यादि को केन्द्र में रखकर अनुसन्धान-कार्य में संलग्न हूं। मैंने अपने व्यक्तिगत प्रयास से अपने शोध-विषय के लिए हरसंभव जानकारी जुटाने की कोशिश की है। जैसे मनोविज्ञान के क्षेत्र में सैकड़ों मनोविज्ञानियों, मनोभाषाविज्ञानियों, संचारविज्ञानियों, समाजविज्ञानियों, राजनीतिविज्ञानियों, नृविज्ञानियों आदि को अपनी जरूरत के हिसाब से टटोला है, जानने-समझने की कोशिश की है। लेकिन भारतीय सन्दर्भों में ऐसे अन्तरराष्ट्रीय जानकारों-विशेषज्ञों का मेरे पास भारी टोटा है। अर्थात जितनी आसनी से हम कैसिरर और आई. ए. रिचर्डस का नाम ले लेते हैं; फूको, देरिदा, एडवर्ड सईद, ज्यां पाॅल सात्र्र को अपनी बोली-बात में शामिल कर लेते हैं वैसे हिन्दुस्तानी ज्ञानावलम्बियों(जिनका काम उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में उल्लेखनीय रहा है और जिन्हें भारतीय अकादमिक अनुशासनों में विषय-विशेषज्ञ होने का विशेषाधिकार प्राप्त है) की हिन्दीपट्टी में खोज बहुत मुश्किल है। ऐसे में मुझ पर यह आरोप आसानी से आपलोग मढ़ सकते हैं कि मेरी निर्भरता मनोविज्ञान को समझने के लिए फ्रायड, एडलर, युंग, नाॅम चाॅमस्की पर अधिक है; भारतीय जानकारों-विशेषज्ञों पर कम। इसी तरह अन्य विषय अथवा सन्दर्भों में भी आपलोग यही बात पूरी सख्ती से दुहरा सकते हैं। अतः अपने शोध-कार्य की वस्तुनिष्ठता प्रभावित न हो इसलिए मैं आपको अपने शोध-कार्य में एक सच्चे शुभचिंतक के रूप में शामिल कर रहा हूं। आप के सहयोग पर हमारी नज़र है। कृपया आप मेरी मदद करें और सम्बन्धित जानकारी निम्न पते पर प्रेषित करें:
ई-मेल द्वारा : rajeev5march@gmail.com 
या फिर डाक से उपलब्ध करायें: राजीव रंजन प्रसाद; हिन्दी विभाग; काशी हिन्दू विश्वविद्यालय; वाराणसी-221 005

आप मेरे कार्य-क्षेत्र के दायरे में इज़ाफा कर सकें इसी प्रत्याशा में;
सादर,


भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद

Friday, December 26, 2014

‘थोक में निजीकरण नहीं’: यह कारपोरेट दलालों की शब्दावली है, जनता की नहीं

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मान लीजिए, अमेरिकी चार्टर के अन्तर्गत लोकतांत्रिक सुधार की पेशकश सामने आये तो सामान्य जनता क्या प्रतिक्रिया देगी? यदि यूरोपीय संघ इस बात का दावा करता है कि भारत में विकराल होती भ्रष्ट्राचार की समस्या से निपटने के लिए आवश्यक है कि उसे विदेशी शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत(थोंक में नहीं आंशिक रूप से) शासित किया जाये, तो क्या भारतीय अवाम इसके लिए सहर्ष राजी होगी?

यदि आप यह सब नहीं सोचते हैं और सोचना भी नहीं चाहते हैं, तो चैन की नींद सोइए; क्योंकि हमारे देश का अभिजात्य घराना और नवप्रबुद्ध युवा पीढ़ी इन सब के लिए पूर्णतया तैयार है और भारत की बहुमत सरकार भी इसी दिशा में त्वरित कार्रवाई और पहलकदमी करती दिखाई दे रही है जिसे जन-प्रचारित रूप में जिस प्रकार परोसा जा रहा है या समझाया जा रहा है; वह बेहद खतरनाक है। भारतीय समाज का एक खास तबका स्वयं को लाभान्वित किए जाने की शर्त पर यह सब नवसाम्राज्यवादी प्रोपेगेण्डा अपना रहा है जिसमें जनता के लिए सिर्फ सपने हैं; यथार्थ में हासिल होने वाला कुछ भी नहीं।

ताजा उदाहरण माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का रेलवे के निजीकरण को लेकर है। उन्होंने बड़ी साफगोई से कहा कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा। सरकारी-मातहत अख़बारों ने सम्पादकीय भी जोर-शोर से और अपनी सरकारी प्राथमिकता तय करते हुए लिखा है। आप स्वयं गौर फरमाइए: ‘‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बात का जोरदार खंडन किया है कि उनकी सरकार रेलवे का निजीकरण करने जा रही है।...भारतीय रेलवे इतनी बड़ी संस्था है कि थोक में उसका निजीकरण संभव नहीं है।’’(हिन्दुस्तान, 27 दिसम्बर) यानी स्पष्ट है कि रेलवे का आंशिक निजीकरण संभव है। यह तब जब कि हम सब जानते हैं कि नवसाम्राज्यवादी ताकतें पहली घूसपैठ ऐसी ही सुराखों से करती हैं। हमारे यहां एक प्रचलित मुहावरा है-अंगुली पकड़कर पहुंचा पकड़ना; इन प्रभुत्त्वादी देशों की मानसिकता बतलाने में यह मुहावरा सर्वथा समर्थ है।

यह अख़बार अपनी सम्पादकीय में आगे लिखता है-‘‘भारतीय रेलवे पिछले दो-ढाई दशकों में धीरे-धीरे ऐसी हालात में पहुंच गई है कि उसे ठीकठाक करना आसान काम नहीं है। तकनीक और प्रबंधन के स्तर पर वह पिछड़ती गई है, क्योंकि उसके आधुनिकीरण की बरसों तक उपेक्षा की गई। इस बीच रेलवे की आर्थिक स्थिति भी ऐसी जगह पहुंच, जहां वह जैसे-तैसे अपने मौजूदा खर्च पूरे कर पा रही है। नई परियोजनाओं, नई टेक्नोलाॅजी और सेवाओं के व्यापक विस्तार के लिए उसके पास पैसा ही नहीं बचता। ऐसे में, निजी क्षेत्र की भागीदारी के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है। लेकिन यह व्यापक निजीकरण नहीं होगा।’’

ओह! ये चालबाज सम्पादक अपनी देशी ज़मीन के खि़लाफ ऐसा षड़यंत्र क्यों कर रहे हैं? वे यथास्थिति का मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ एवं निष्पक्ष ढंग से करने की बजाए अच्छे पैकेज की भुगतान पर दूसरों के मनमुताबिक  और मनमाफ़िक करने के लिए जबरिया लालायित हैं। भारत की एक बड़ी आबादी भूख, ग़रीबी, अशिक्षा, बीमारी से लहूलुहान है और वे भर-भर मुंह यह बात प्रचारित कर रहे हैं कि भारत का हर तीसरा आदमी/औरत स्मार्टफोन का दीवाना है वह उसके बिना न जी पाने की बात खुलकर स्वीकार कर रहा है।(हिन्दुस्तान, 27 दिसम्बर, पृ. 13) दरअसल, सम्पादकीय निष्ठा से च्यूत अधिसंख्य सम्पादक कम प्रबंधकीय बोली-बात अधिक परोसते हैं। जहां तक तकनीकी-प्रौद्योगिकी के स्तर पर रेलवे के पिछडने का सवाल है तो वे यह विकल्प कम सुझाते हैं कि जिस तरह आप मोबाइल के टाॅकटाइम को रिचार्ज करकर आप कहीं भी किसी भी जगह से अपना ‘टाॅक वैल्यू’ प्राप्त कर सकते हैं; ठीक वैसे ही रेलवे की आधुनिकीकृत तकनीक आपको यात्रा करने की भी सुविधा प्रदान करेगी या कि अब हर तरह का सरकारी ट्रांजक्शन आपको आॅनलाइन उपलब्ध है। ये काॅरपोरट घराने ऐसे और भी जनकल्याणकारी ऐप क्यों नहीं लांच कर रहे हैं या सरकार को इसके लिए सलाह-सुझाव दे रहे हैं?

पहली बात तो यह कि हम भारतीयों को आधुनिकता और आधुनिकीकरण की परिभाषा ही नहीं मालूम है। हम माध्यम की गतिविधि से अधिक प्रभावित होते हैं; अपनी सोच और दृष्टि से कम प्रेरणा प्राप्त करते हैं। हमारा देशा वर्षों की गुलामी के बाद, अटूट जनांदोलनों के बाद स्वाधीनता का मुंह देख सका है। अतः हमें हर कदम फूंक-फूंक कर रखना और उसके बारे में तत्काल निश्चिंत न हो सकना स्वाभाविक है। यह ठीक है कि हमें समय के साथ बदलाव को स्वीकार करना चाहिए। लेकिन इस बात पर भी जोर दिया जाना चाहिए कि हम किन शर्तों पर बदल रहे हैं या बदलावों को आत्मसात करने पर उतारू हैं? महात्मा गांधी जिनके नाम पर हम अक्सर जन-सरोकार और जन-पक्षधरता की बात करते-फिरते हैं; क्या वह वाकई हमारे कर्म-कथन और चरित्र में विद्यमान होता है? यदि नहीं तो फिर हम यह सब करम/करतूत क्योंकर कर रहे हैं? हमें इस बात से कोई गिला नहीं कि अच्छे काम के लिए कई बार खतरे मोल लेने पड़ते हैं? 1990 का आर्थिक उदारीकरण इसी का परिणाम है। लेकिन क्या हमने इन निर्णयों के बाद देश में हुए आमूल-चूल बदलावों पर गौर किया है? क्या हमने अपने शोध-निष्कर्ष और मूल्यांकन-विश्लेषण से प्राप्त तथ्यों-आंकड़ों का यत्नपूर्वक पड़ताल/जांच किया है कि हमारे फैसले का हमारी देश की जनता पर क्या कुछ प्रभाव पड़ा है या कि जनसमाज का जीवन-स्तर कितना बढ़ा है या कि कम से कम सबके लिए कुछ खास न सही माकुल ढंग से जीने लायक हुआ है?

अभी जिस तरह की रवायत है और हम जिस दिशा में आगे बढ़ने को तत्पर दिख् रहे हैं; वह ग़लत है या सही; यह बताने का जिम्मा देश के पत्रकारों पर है, बौद्धिक वर्ग के अधिष्ठताओं पर है...यह सब दारोमदार उन पर है जिन्होंने यह संकल्प लिया है कि हम संविधान की मूल प्रस्तावना के साथ कभी और किसी स्थिति में खिलवाड़ नहीं करेंगे। तिस पर भी यदि यह खेल जारी रहता है, तो छोड़ दीजिए सबकुछ ईश्वर के रहमोकरम पर...नियति के भाग्यभरोसे....लेकिन याद रखिए कि आपके ही पोते-पोतियां, नानि-नातिन....जब अपनी ही ज़मीन पर मुंह के बल गिरी हुई किसी को बददुआ देंगी, तो उस कतार में पहली अगुवाई में शामिल हम और हमारे समकालीन ही होंगे।
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Banaras Hindu University
दस विदानिया
फिर मिलेंगे

नागार्जुन: लोकतंत्र का जनकवि

हार नहीं मानूंगा,
रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं
...मैं गीत नया गाता हूं...गीत नया गाता हूं!!!

-अटल बिहारी वाजपेयी
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जनकवि नागार्जुन बाबा आदम से भले न सही; लेकिन स्वातंन्न्योत्तर भारत के जननायक हैं और जननेता भी। उनकी अंतश्चेतना में लोक-जन की छवि कैसी है? एक लेखक उनका परिचय देते हुए कहते हंै-‘‘नागार्जुन ने अपनी काव्य-कृतियों और कथा-कृतियों में जीवन को उसके विविध रूपों में, जटिल संघर्षों को, राजनीतिक विकृतियों को, मजदूर आन्दोलनों को, किसान-जीवन के सामान्य दुःख-सुख को पहचानने और उसे साहित्य में अभिव्यक्त(एक संचारक की सफलता इन्हीं रूपों में अधिक प्रेरक, प्रभावी और प्रकाशमान होती है-पंक्तिलेखक ) करने का सृजनात्मक उत्तरदायित्व बखूबी निभाया है। वे प्रगतिशील चेतना के वाहक, जनचेतना के पक्षधर, निम्नवर्गीय व्यक्तियों के प्रति करुणाशील, उदार मानवतावाद के पोषक, स्वस्थ प्रेम के व्याख्याता, प्रखर व्यंग्यकार और जीवन के प्रति आस्थावान होने के कारण सच्चे प्रगतिशील, सर्जनात्मक क्रांति के संवाहक, मानवता के प्रतिष्ठापक और अशिव के ध्वंस पर शिव का निर्माण करने वाले कवि हैं।’’ यह परिचय नागार्जुन के भरे-पूरे कवित्व का संकेतक मात्र है; न कि पूरी सचबयानी। नागार्जुन अपनी रचनाधर्मिता में समदर्शी हैं, विचार की धरातल पर साफगोईपसंद यानी स्पष्टवक्ता हैं, तो अपनी रचना के रचाव-बनाव और पहिराव में निछुन्ना सादा, सहज, सरल, सपाट या कह लें एकदम सामान्य वेशधारी हैं। उनकी एक बड़ी खूबी यह कही जा सकती है कि वह समय की विद्रूपता या नग्नता से घबड़ाते अथवा भयभीत नहीं होते हैं; बल्कि वे निर्भयमना होकर उन आताताइयों के ऊपर सही कटाक्ष और सटीक प्रहार करते हैं जो ‘सत्यमेव जयते’ तथा ‘अहिंसा परमो धर्मः’ के नाम पर ढोंग और ढकोसला करते हैं; कभी वामपंथ, तो कभी दक्षिणपंथ और यदि न हुआ तो धर्मनिरपेक्ष होने/बनने का हवाला देकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकते हैं। रोमा रोलां बिल्कुल वाज़िब फरमाती हैं कि-‘ओह! स्वतंत्रता, दुनिया में सबसे अधिक छल तुम्हारे नाम पर ही हुआ है।’ नागार्जुन भारतीय मानस के सन्दर्भ में ‘स्वाधीनता’ शब्द के प्रयोग को लक्ष्य करते हुए कहते हैं: 
जमींदार है, साहूकार है, बनिया है, व्यापारी है,
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है।
माताओं पर, बहनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं,
मारपीट है, लूटपाट है, तहस-नहस बरबादी है।
जोर जुलम है, जेल सेल है, वाह खूब आजादी है। 
यह प्रहसन अक्षर, शब्द, पद, वाक्य, अर्थ इत्यादि के भाषिक-विन्यासों अथवा व्याकरणिक कोटियों का ढेर-बटोर मात्र नहीं है। यह आज के शिगूफेबाज़ राजनीति का जोड़-घटाव, भाग-गुणनफल, दशमलव-प्रतिशत, लाभ-हानि भी नहीं है जिसकी चोट से घवाहिल हमसब है; लेकिन बाहरी मुखौटे पर अद्भुत खामोंशी है, विराट मौन है, निर्विघ्न सन्नाटा है। वस्तुतः उनकी यह बात संविधान की उस मूल अभिव्यक्ति को प्रश्नांकित करती है जो छापे का अक्षर पढ़ने पर सब अर्थ देती हैं; लेकिन आचरण-व्यवहार में उसका कोई निर्णायक अर्थ-औचित्य सिद्ध नहीं होता है। उत्तर आधुनिक सहस्त्राब्दी का यह दूसरा दशक है जिसमें तीसरी मर्तबा लोकसभा चुनाव सम्पन्न हुए हैं; लेकिन मूल सवाल ज्यों का त्यों है कि इस जनादेश में जनता कहाँ है? अगर है भी तो उसके होंठ खुले क्यों नहीं हैं? उसकी जीभ हिल क्यों नहीं रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे सचमुच मिसिर बाबा की कविताई का अकार-आकृति हो गए हैं जिसका शीर्षक ही है-‘खुले नहीं होंठ हिली नहीं जीभ’। इस कविता में जनता की देहभाषा मानों जीवंत हो उठी हो; वे कहते हैं:   
खुले नहीं होंठ/हिली नहीं जीभ
गतिविधि में उभरी/संशय की गंध
इंगितों में छलका अविश्वास/अनचाहे भी बहुत कुछ
कह गई फीकी मुसकान/लदी रही पलकों पर देर तक झेंप
घुमड़ता रहा देर तक/साँसों की घुटन में
बेचैनी का भाफ/बनती रही, मिटती रही
देर तक भौंहों की सिकुड़न
हिली नहीं जीभ/खुले नहीं होंठ
दरअसल, हमारी मौजूदा दुनिया कपटपूर्ण अधिक है, मानवीय बेहद कम। इस पारिस्थितिकी-तंत्र में हमारा संवेदनहीन, स्पंदनच्यूत और स्फोटरहित होना हमारी नियति का अंगीभूत/अंगीकृत सत्य बन चुका है। इस नियति का सर्जक अथवा निर्माता कोई और नहीं है। पुरानी पीढ़ी के वे लोग या उनकी संतान-संतति ही हैं जो कभी देश के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर देने पर आमादा थे। आज राजनीतिक घरानों या कि वंशवादी राजशाहियों का चलन आम हो चुका है। नई पीढ़ी में शामिल अधिसंख्य जन स्वार्थ, लोभ, धनाकांक्षा आदि के प्रपंच-पाखंड में बुरी तरह जकड़े हुए हैं। जनसमाज के प्रति गहरी निष्ठा और निश्छल सहानुभूति दूर की कौड़ी हो चली है। समाज में स्त्री-विभेद और लैंगिक असमानता इतनी जबर्दस्त है कि इन्हें देखते हुए हमारे भीतर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि-‘क्या भारतीय मानुष सचमुच देवियों की पूजा-अर्चना करते हैं? क्या वे सचमुच नारी-शक्ति के प्रति श्रद्धानत और उनका कोटि-कोटि ऋणी हैं? वर्तमान में जिस तरह ममतामयी स्त्रियों के ममत्वपूर्ण चरित्र का सायासतः खलनायकीकरण या बाज़ारूकरण किया गया है; वह भारतीय स्त्रियों का किसी भी रूप में सम्मान अथवा उनकी प्रतिष्ठा में इज़ाफा नहीं है। आज की स्त्री लोकतांत्रिक रूप से छली गई एक ऐसी प्रतिरूप/आकृति है जिसकी वंदना सबलोग सार्वजनिक रूप से करने में नहीं अघाते हैं और उसकी आत्मा को प्रताड़ित करने में भी पीछे नहीं रहते हैं। लिहाजा, इस घड़ी जिन लड़कियों/युवतियों के बाबत सवाल उठते हैं वह सिर्फ और सिर्फ सांस्कृतिक विमर्श का ढकोसला है जिससे होना-जाना कुछ नहीं है; लेकिन नाम गवाना और ढोल-पिटना इन्हीं सब से है। आजकल अधिकतर चर्चा इस बात की होती है कि बाज़ार ने भारतीय लड़कियों/युवतियों को फैशनेबुल अधिक बना दिया हो उन्हें अपने प्रति जवाबदेह और जागरूक कम रहने दिया है। लेकिन इन बातों के प्रस्तोता यह भूल जाते हैं कि यह जाल-उलझाव किनका पैदा किया हुआ है जिससे स्त्री देह, दिलोदिमाग, मन और आत्मा से पूरी तरह कैद हो चली है? वस्तुतः जागरूक और जवाबदेह होना इस बात पर निर्भर करता है कि मौजूदा पीढ़ी के बीच देश-काल-परिवेश, कला-साहित्य-संस्कृति, समाज-संस्कार-सरोकार इत्यादि से सम्बन्धित विचार-विमर्श, वाद-विवाद-संवाद, स्वप्न-कल्पना-आकांक्षा, चिंतन-दृष्टिकोण आदि किस तरह के चल रहे हैं? उनकी बल, त्वरा, शक्ति और ऊर्जा कितनी ज़मीनी और अनुभवी है? जनकवि नागार्जुन जैसा समय के अनगिन थपेड़ों से जूझता हुआ यायावर कवि उनके बीच, उनके संग-साथ कितने हैं....? दरअसल, आज की मौजूदा पीढ़ी में ऐसी उपस्थिति और साहचर्य का घोर अभाव है। नतीजतन, आज के युवक-युवतियाँ अपने समकाल और समकालीन यथार्थ-बोध से कम संलग्न हैं उनसे विरत अधिक हैं। ऐसे कठिन मोड़ पर हमें नार्गाजुन का सच्चा वारिस खोजने होंगे जो यह ललकार कर कह सके:
आओ, खेत-मजदूर और
भूमिदास नौजवान आओ/
खदान श्रमिक और
फैक्ट्री वर्कर नौजवान आओ
कैंपस के छात्र और
फैकल्टियों के नवीन प्रवीण प्राध्यापक
हाँ, हाँ
तुम्हारे ही अंदर तैयार हो रहे हैं
आगामी युगों के लिबरेटर!

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Banaras Hindu University
दस विदानिया
फिर मिलेंगे

अवांछित पोस्ट : एक ख़त महामना के नाम

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परमआदरणीय महामना,
सादर-प्रणाम!


कायदे से होना तो यह चाहिए कि मुझे तत्काल काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पिछले पांच सालों से जारी शोध-कार्य छोड़ देना चाहिए। विश्वविद्यालय प्रशासन हमें बंधुआ मज़दूर समझता हैं। अपनी मेहनत और यत्न के बदौलत जो शोध-अध्येतावृत्ति हमारे नाम आता है उसे वे इस तरह दे रहे हैं जैसे हम इनकी गुलामी खट रहे हों। मैं दो बच्चों सहित सपरिवार शोध-कार्य में संलग्न हूं। माहवारी खर्च कम से कम 12 से 15 हजार है। एकदम सामान्य, साधारण रंग-ढंग में रहने पर। तिस पर छोटे बच्चे को सुनने की परेशानी है और उसके स्पीच-थेरेपी में ढाई से तीन हजार माहवारी खर्च हो रहे हैं।

ऐसे में अब आप बताओ कि उन्होंने मुझे मेरा शोध-अध्येतापृत्ति सितम्बर से नहीं दिया है। शोध-कार्य की गुणवत्ता और अपनी निष्ठा-समर्पण का हवाला दो तो कहते हैं; यह सब कुछ नहीं देखा जाता है। यानी मनमर्जी का रामराज है। सबतर शांति-शांति है। हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या वाली तर्ज़ पर कहें तो हम रोज अपने काम में लट रहते हैं। उसके अलावे अपने संगी-साथी और रिश्तेदारों के हर किस्म की जरूरत में हरसंभव साथ खड़े रहते हैं। क्योंकि गरीब आदमी अमीर होने की आकांक्षा कम पालता है वह अपने जैसों की काम आने के बारे में अधिक सोचता है। इन दुश्वारियों और तकलीफदेह परिस्थितियों के बावजूद हम शोध-कार्य से कोई समझौता नहीं कर रहे हैं लेकिन अब यह पीर असह्य हो रही है। विश्वविद्यालय हमारा काम देखने को भी तैयार नहीं है और हमें सहयोग देने को भी तत्पर नहीं है।

ऐसे में प्रधानमंत्री का कुछ भी कहना मन को व्यथित ही कर देता है। यह जानते हुए भी कि उनकी कहन में जबर्दस्त लोकप्रियता पा जाने की रेटिंग है। रेडियो पर उन्हें पिछले दिनों कहते सुना है कि अपनी ‘मन की बात’ सीधे मुझे कहो। पता भी बताया है कि ‘आकाशवाणी; पोस्ट बाॅक्स नं. 111; नई दिल्ली’। झूठ-फरेब और जाल की इस दुनिया में श्रीमान् कुलपति गिरीश चन्द्र त्रिपाठी तक को ख़त(10 दिसम्बर, 2014) और अनुस्मारक पत्र(24 दिसम्बर, 2014) देकर देख लिया। अब सीधे प्रधानमंत्री को भी इस बाबत बता के देखता हूं। और कुछ नहीं तो मेरे काम का ही सम्यक् मूल्यांकन करा लें तो काफी है। यह तो बता दें कि जिस काम में मैं रात-दिन अपना दिमाग घिस रहा हूं। उसका कुछ मोल-महत्त्व भी है या नहीं। या कि संतन की भीड़ में मैं भी महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी के नाम का मुफ्त का चंदन घिस रहा हूं: और यदि विशेष महत्व का है तो मेरे पिछले बर्बाद हुए समय की पूरी भरपाई करें जिसकी शारीरिक-मानसिक पीड़ा से इन दिनों मैं बेज़ार हूं।

महामना, आपको भारत रत्न दिया गया है; यह राजनीतिक सम्मान है; लेकिन आपके लिए तो हम ही लोग यानी विद्यार्थी-जन ही भारत रत्न और देश के कर्णधार थे। फिर हमें आपका यह विश्वविद्यालय बंधुआ मज़दूर क्यों समझता है? हमें समय से शोध-अध्येतावृत्ति क्यों नहीं दी जाती है? हमें हमारे पैसे देने में ये फ़ालतू का कागजी कार्रवाई/प्रक्रिया क्यों पूरी करने की बाध्यता डालते हैं? ऐसे में कैसे नवोन्मेषी ज्ञान सृजित हो सकता है। नवाचार के लिए मन-मस्तिष्क का संतुलित और स्थिर होना जरूरी होता है लेकिन ये तो हमसे रोजना चिरौरी कराते और केवल टहलाते हुए हमारा अधिकतर समय बरबाद कर देते हैं।

महामना, क्या भारतीय विश्वविद्यालय गुणवत्तापूर्ण शोध नहीं चाहते हैं? क्या वे नहीं चाहते हैं कि भारतीय अकादमिक जगत में होने वाले शोध-कार्य भारतीय आम-अवाम के लिए असरकारी और दूरगामी परिणाम देने वाला हो? यदि वे यह सब नहीं चाहते हैं तो क्या हम हमेशा के लिए चुप्पी साध लें क्योंकि हमारे बोलने से उन्हें दिक्कत होती है? हमारे सामने खड़े होने से वे शर्मसार होते हैं क्योंकि हम वे बच्चे हैं जो अपनी ग़लती होने पर तमाचा खाने के लिए भी हमेशा तैयार होते हैं लेकिन यह नहीं हो सकता है कि आप हमें तमाचा भी मार दें और कारण भी न बताएं। लेकिन आज के इस नपुंसक दौर में यह सब संभव है। दरअसल, दुनिया मंच से बोले जाने वाले वेद-मंत्रों, ऋचाओं, सूक्तियों, सुभाषितानियों...को सुनने की आदी हो चली है और अपने देश के लोगों का क्या हाल है....यह तो पूछिए ही मत।

खैर! महामना आपको याद किया कि मुझे भी औरों की तरह यह औपचारिकता निबाहनी चाहिए कि आपको ‘भारत रत्न’ दिए जाने की खुशी में आपके प्रति हर्ष जता दूं। यह जानते हुए कि यह कहीं किसी संचार-माध्यम से प्रसारित-प्रचारित होने वाला नहीं है।  तब भी अख़बारी शब्दों की तरह आपको मैं भी सादर-नमन् निवेदित करने का चोचरम करूं लेकिन मुख्य बात आपसे मुझे यह कहनी है कि जिन ढकोसलों और अकादमिक विसंगतियों के बीच हम अपना शोध-कार्य कर रहे हैं उससे तो यह लगता है कि इन सब पाखण्डों से अच्छा था कि हम अपने अन्य रिश्तेदारों की तरह किसी बड़े शहर(गुजरात या पंजाब या मुंबई) में किसी सेठ की नौकरी बजाते; कम से कम हमें हमारी मजूरी तो समय से मिलती। यह तो नहीं होता कि महीना पूरे होते ही दूसरों से उधार मांगने के लिए अपने सम्पर्कों का मोबाइल नंबर खोजने लगे। वह भी वैसे बुरे समय में जिसमें कोई भी किसी का अपना या एकदम खास हो ही नहीं सकता है।

अतएव, ऐसे में थोड़ा प्रोफेशनल होना चलता है। आपने कहा है न-‘सत्य पहले फिर आत्मरक्षा’। यह आप उच्च-पदासीन ठेकेदारों/नवाबशाहों  को पहले व्यवहार में आजमाने को कहिए; हम इस बारे में बाद में विचार करेंगे।
सादर,

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी
हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221005

Thursday, December 18, 2014

आखि़री बात इस वर्ष की ‘इस बार’

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वह 20 रुपए की पत्रिका है इंडिया टुडे...एकदम ताजा अंक; पत्रिका को मैंने ‘संकल्प के सितारे’ आवरण-कथा के लिए खरीदा था। हद पिछली बार से यह हुई कि उसने इस बार पूरा ‘पेड न्यूज़’ ही मुख्यपृष्ठ पर रंगीन-चटकीले पृष्ठों में प्रकाशित कर दिया। मानों ह कवर-स्टोरी हो...! 
यानी 
बात हो रही है उस विज्ञापन की जिसमें बग्घी पर नेताजी का उत्तर प्रदेश और उनका लाडला अखिलेश संग-साथ विराजमान हैं।

...क्या माननीय अखिलेश यादव की मंशा, घोषणा और उद्देश्य ही यह हो चली है कि :

उत्तर प्रदेश का नक्शा क्या कुछ बदला है यह अब यहां की जनता/मतदाता नहीं बोलेगी बल्कि यह सब वह प्रचार-सामग्री द्वारा कहे जाने चाहिए जो हम अकूत/इफ़रात खर्च कर तैयार कर रहे हैं; छोटे-बड़े सभी प्रचार माध्यमों से बंटवा- भिजवा रहे हैं और अपनी सफलता का और अपने बुलंद नज़रिए को अधिकाधिक नज़राना पेश कर रहे हैं....
(यह न भूलें श्रीमान् अखिलेश यादव कि हमारे पास आपके राजनीति में ककहारा सीखने वाले दिनों की ‘ब्लैक एण्ड व्हाइट’ कतरनें भी सुरक्षित हैं जब आपने मंचों से बोलना शुरू किया था...जनमुद्दों और सत्ताधारी जनप्रतिनिधियों को अपनी भाषा में घेरना शुरू किया था)

प्रचार में लपेट दो प्रदेश को, जनता रंगीनमिज़ाजी है वह अपना सारा दुःख-दर्द, उम्मीद और मांग भूल जाएगी....

प्रदेश की जनता को समाजवाद के झंडे के नीचे यह जतलाते हुए रखों कि समाजपार्टी ही जीवनदायिनी बरगद है उनका बरक्क़त इसी से होगा....

प्रांत में जो दिख रहा है या जो हो रहा है; उससे दूर हटकर जैसा कभी नहीं हो सकता लेकिन हम होने की दावा कर सकते हैं; ऐसी परिकल्पना संचार-माध्यमों में प्रचारित करो....

चीख-चीख कर संचार के हर माध्यमों के सर-सवार होकर यह बताओ कि प्रदेश की सरकार ने पिछले कुछेक वर्षों में ही पूरे राज्य का कायापलट कर दिया है....

अब जनता प्रचार को देखकर अपवना मत बेचती है या फिर राजनीतिक पार्टियों की दासता स्वीकार करती  हैं...

यह सरकार प्रचार का आक्रामक और बेशुमार पोचारा अथवा रंगरोगन करने वाली इकलौती प्रांतीय सरकार नहीं है....आज बिकाऊ किस्म की ध्ंधेबाज और बाजारू पत्रिकाओं का जत्था इसे ही अपना ईमान-धर्म, संकल्प, जनास्था और अपनी पत्रकारिता का वास्तविक ध्येय तथा अपने लक्ष्यसिद्धि का साधन मान चुका है..

पश्चिमी ज्ञान में पगे-पगुराए  हमसब(यानी वे सब जो प्रचार के द्वारा विकास का नारा लगाते हैं, कागजी रंगरोगन के द्वारा अपने राज्य की भूख, गरीबी, बेरोजगारी, स्वास्थ्य तथा अन्य जनमुद्दों से निपटते अथावा उसकी काट निकालते हैं...) एक ही हिसाब-किताब वाले साफसुथरी छवि के, अमनपसंद और अपने लोगों की भलाई और उनका विकास चाहने वाले ‘जनता के लोग’ हैं...‘समाज के आदमी’ हैं....
अतः
जनता हमेशा हमारे कहे का मनोविज्ञान समझती है... हमारे दिखाए फोटू-तस्वीर को सही-सच मानती है और इसी आधार पर हमें वोट देती है....

 सब समाजवादी आओ, एकराग और एकसुर में हमारा साथ दो, हमारा प्रचार करो और द्वारा दिखलाये गए कामों का गुणगान करो.....समाजवादी पार्टी के हर मानिंद नेताओं के श्रीमुख से यह भी अवश्य कहवाते रहो-कि 
‘बदल रहा है आज, संवर रहा है कल'
                            
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               उपयुक्त की असहमति में हमें अपनी ओर से पूरजोर प्रतिरोध दर्ज़ कराना चाहिए। यह जानते हुए कि यह किसी एक दल या पार्टी-विशेष का गाथा या हाल-ए-हक़ीकत नहीं है। लगभग सभी दल एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। नाम के ‘अपना दल’ में भी अपना कोई नहीं है; ‘आप’ में भी हमसब नहीं हैं; कांग्रेस हमारी डीएनए से गायब है और भाजपा का एनडीए पूरे जोर-शोर से साम्प्रदायिक बोल और कट्टर बयान देने में जुटी है....
'आई नेक्सट' से साभार
 सवाल है... ऐसे में हम क्या करें?...तो मुझे तो बंधुवर वर्तोल्त ब्रेख्त का वह कथन आपसे साझा करने की इच्छा हो रही है जिसे आज ही किसी पत्रिका में पढ़ा हूं:

‘‘महाशय, संसद ने जनता का विश्वास खो दिया है
        तो ऐसा करें
        कि संसद को रहने दें और जनता को भंग कर दें।''

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Tuesday, December 16, 2014

समाज, लोकतंत्र और एक तानाशाह की नियति


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आज का ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र(वाराणसी संस्करण) खोलिए।
 आखिरी पृष्ठ पर जाइए और यह ख़बर पढ़िए....

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16 दिसम्बर, 2014
प्रिंसिपल ने दीवार में दे मारा बच्चे का सिर, मौत 
बरेली। देवरनिया के डीएसआर ग्रुप के स्कूल में मजदूर पिता फीस जमा नहीं करा सका तो स्टाफ ने उसके बच्चे की जान ले ली। आरोप है कि स्कूल प्रिंसिपल ने यूकेजी में पढ़ने वाले बच्चे(7 साल) को पीटते हुए उसका सिर दीवार पर दे मारा। इससे मासूम की मौत हो गई।...
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गे दो-तीन पंक्ति और लिखी गई है; और ख़बर ख़त्म। यह बानगी है हमारे उस समाज की जिसके गौरव-गाथा को हम अपने सीने से चिपकाएं हुए पूरे भारतीय और भारतीयता से लैस होने का गुमान रचते हैं। यह घटना एक उदाहरण है। यदि इस बारे में थोड़ी सी दिलचस्पी दिखाएं, तो देशभर से सैकड़ों ऐसी ख़बर आपके खोज में सामने होगी। हम सुभाषितानी सुनने वाले लोग हैं। राम और कृष्ण पूजक लोग हैं। हमारे यहां बच्चे भगवान का रूप होते हैं। लड़कियां तो साक्षात देवी की अवतार होती हैं...पार्वती, शक्ति; और भी पता नहीं क्या-क्या?

ओह! ऐसे बदेलगा समाज! ऐसे दूर होगी सामाजिक असमानता और वर्ग-विभेद! हम ऐसे में मानवीयता के दर्शन और इंसानियत का साक्षात्कार कराएंगे। हम कैसे पढ़े-लिखे लोग हैं? कैसा समाज गढ़-रच रहे हैं या रचने-गढ़ने की सोच रहे हैं? विद्याा का मंदिर अगर वधस्थली हो जाएं; हमारे अन्दर सही और ग़लत का विवेक पैदा करने वाले ही यदि भ्रष्टाचार के उद्गम-स्थल बन जाएं, तो क्या होगा इस समाज का? 

क्या गति ही हमारे प्रगति का मानक है; उसका नीति-निर्धारक है। क्या स्मार्टफोन और ट्वीटर से
बनता समाज ही असली लोकतंत्र है; बाकी सब गाजर-मूली और घास-फूस। क्या हम यह मान ले कि मरना मनुष्य की नियति है; अतः अपने या किसी के मरने पर शोक मनाना; चिंता व्यक्त करना मुर्खता है। क्या दूसरे की लुगाइयों से छेड़छाड़, दूसरों की बेटियों से बलात्कार; मासूम-अबोध बच्चों के साथ जघन्य अपराध और कुकृत्य सबकुछ जायज और नैतिक मान लिया गया है; तो फिर मेरे दोनों पुत्र देव और दीप हर रोज अपने विद्याालय में यह प्रार्थना क्यों करते और शब्दों को अपनी भाषा में दुहराते हैं-‘इतनी शक्ति हमें देना दाता कि.....’


 इसी समाचारपत्र के मुख्यपृष्ठ की बाॅटम स्टारी इस बात की गवाही देती है कि कैसे हमारे देश के कर्मठ और यशस्वी प्रधानमंत्री अपने काशी स्थित गोद लिए गये गांव में एक बच्ची के पैदा होने पर वहां के स्थानीय जनों द्वारा पौधारोपण कार्यक्रम की नोटिस लेते हैं और उसे अपने ट्वीटर अकाउंट पर सराहना करते हैं। क्या प्रधानमंत्री इस घटना को भी नोटिस लेंगे; इसकी खुली रूप से भत्र्सना करेंगे? वैसे हर चीज के लिए प्रधानमंत्री का मुंह जोहना भी ठीक नहीं है। हमें अपनी फिक्र में अपनी नींद ही खराब करनी होगी। अपनी ख़राबी को दूर करने के लिए हमें ही आगे आना होगा। हमें सोचना होगा कि सामूहिक स्वप्न और कल्पना का आधार न हो तो व्यक्तिगत रूप से कितनी भी छलांग लगा लें अंततः गिरना पाताल में ही होता है। यह मेरी भावुकता हो सकती है; लेकिन अपनी क्षमता में दर्ज यह वह प्रतिरोध है जिसके द्वारा स्कूल भेजे जाते अपने दोनों बच्चों के सकुशल घर लौटने की चिंता और तनाव भी है।


पिछड़े इलाके से अपने मेहनत के बूते शहरी दहलीज पर आये हम जैसे छात्रों के लिए यह डगर बेहद कठिन है। हर जगह एक ही बात-‘इट्स यूओर प्राॅब्लम!’ सुनाई देता है। हम विद्यार्थी जो अपने प्रतिभा के बलबूते छात्रवृत्ति पाते हैं; पढ़ाई के साथ-साथ अपना पूरा परिवार पालते हैं और किसी जरूरतमंद की आगे बढ़कर सहायता भी करते हैं। हमारी इच्छा यह कभी नहीं रही कि हमारे पास धन-दौलत इफ़रात हो, लेकिन हमने हमेशा चाहा है कि हम सबका कल खुशहाल हो और हमारे नौनिहाल सुरक्षित। लेकिन अवसर की असमानता आधारित इस समाज में हम आर्थिक भेदभाव के भारी शिकार हैं। हमारे बच्चे महंगे स्कूल में नहीं पढ़ते हैं क्योंकि हमारी चाहत ही ऐसी नहीं है। हमारी इच्छा तो यह है कि हम जिस हक़-हकूक के काबिल-योग्य हैं; उतना अधिकार हमें मिले ही मिले। लेकिन अफसोंस! सरकारी निजाम और अधिकारियों के आगे हम अपना माथा बार-बार नवाते हैं; याचना और मन्नत करते हैं तो हमारे अकाउंट में पैसे आते हैं; दस्तख़्त कर अधिकारी हमारा कागज आगे बढ़ाते हैं। इसके बावजूद हम अपने बच्चों में महात्मा गांधी और मदर टेरेसा का सेवा-भाव भरने के सदिच्छुक बने रहते हैं। लेकिन इन घटनाओं से हमारा भीतर से टूटना लाजिमी है। हमारा भयग्रस्त होना जायज़ है। हम खौंफजदा इसलिए नहीं हैं कि हम इसके आसान शिकार बनते हैं। दरअसल, मुख्य चिंता यह है कि आज पूरा भारतीय परिवेश ऐसे ही असुरक्षा-बोध के साये में जी रहा है और सबकी घिग्घी बंधी हुई है; बोलती बंद है।



कुल के बावजूद हम आशाधारी भारतीय हैं। प्रचारवादी राजनीति के विपरीत भारतीय सुरों में लोकराग गाने वाले लोग। श्रमशील हाथों से अपने कल का भविष्य गढ़ने वाले लोग। सही अर्थों में ‘मेक इन इंडिया’ की रचना करने वाले लोग। अर्थात् अपार कष्टों और बेपनाह दुःखों को सहकर भी हम जीने की उम्मीद नहीं छोड़ते हैं। हमें विश्वास है कि जब तक पृथ्वी पर हरियाली बची हुई है। समन्दर में पानी शेष है, आसमान बादलों से घिरा और हवाओं के चलने का वह गवाह बना हुआ है; हम बचे रहेंगे। क्योंकि हमें पूरा भरोसा है कि जब क्रूरता का अंत होता है; तानाशाही ख़त्म होता है तो मनुष्य को भी सांप की तरह पेट के बल जमीन पर लोटने को बाध्य-विवश होना पड़ता है; चाहे वह कितना भी विषधर या विषैला क्यों न हो? 

Monday, December 15, 2014

निर्णय की स्वतंत्रता, जनता और भारतीय लोकतंत्र

‘जनसत्ता’ समाचारपत्र को भेजी गई राजीव रंजन प्रसाद की प्रतिक्रिया एक पाठकीय टिप्पणी पर
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15 दिसम्बर को जनसत्ता में प्रकाशित शिबन कृष्ण रैणा का पत्र गौरतलब है।
पत्र-लेखक महोदय ने लिखा है कि-‘‘राजनीति अथवा कूटनीति में समझदारी और
सावधानी का यही तो मतलब है कि जनता के मन को समझा जाए और फिलहाल उसी के
हिसाब से आचरण किया जाए। जनता के विपरीत जाने से परिणाम सुखद नहीं
निकलते, ऐसा राजनीति के पंडितों का मानना है।’’ प्रश्न है कि जनता के
बारे में बोलने वाले टेलीविजन-उवाचू या समाचारपत्रपोषी राजनीतिक
पंडितों(विश्लेषक नहीं) के कथन की सत्यता सम्बन्धी प्रामाणिकता क्या है?
अधिसंख्य तो फरेब की कारामाती भाषा बोलते दिखते हैं या फिर राजनीतिक
शब्दावली में अपनी बात आरोपित करते हुए जिनसे जनता का सामान्य ज्ञान भी
दुरुस्त होना कई बार संभव नहीं लगता है। परस्पर विरोधी बातें कहते-सुनते
ऐसे पंडे/पंडितों की बात मानने से अच्छा है कि जनता स्वयं स्वतंत्र मनन
करे; वह अपने स्तर पर यह विचार और निर्णय करे कि नई सरकार के बारे में
उसकी धारणा और विश्वास कहीं ‘मन खट्टे’ करने वाले तो नहीं है? क्या सचमुच
‘मोदीमिक्स’ का विधान रचती नई सरकार परिवारवाद या वंशवाद का विषबेल समूल
नष्ट कर देने का पक्षधर है? यदि नई सरकार की राजनीति में भी
वंशवादी-परिवारवादी  नेता-मंत्री-नौकरशाहों से सजे-धजे वही पुच्छल्ले,
वही तितर-बटेर काबिज हैं तो फिर इसे कांग्रेस का ही डीएनए/क्लोन क्यों न
माना जाए जिससे आज की तारीख़ में भारतीय लोकतंत्र सर्वाधिक संत्रस्त और
सरपरस्ती का शिकार है? यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि ‘कर्क
रोग’(कैंसर) मात्रात्मक दृष्टि से आंशिक हो या अधिक; किसी मरीज की जिंदगी
में उसकी भूमिका हमेशा खतरनाक ही होती है।

पत्र-लेखक महोदय, मेरी इस जानकारी से शायद इतफ़ाक रखें कि
वरुण गाँधी, राघवेन्द्र, अनुराग ठाकुर, दुष्यंत सिंह, पंकज सिंह, नीरज
सिंह, पूनम महाजन, पंकजा मुंडे...जैसे नाम जो राजग पार्टी के दलशोभा हैं
इसी परिवारवाद-वंशवाद के बरास्ते आज राजनीतिक लुत्फ़ और आनंद ले रहे हैं।
अतः मेरी इल्तज़ा है कि कम से कम पत्र-लेखकों की प्रतिक्रिया राजनीति
प्रेरित अथवा किसी भी रूप में प्रभावित नहीं होनी चाहिए। बहुसंख्यक जनता
भले न जानती हो कि किसी लोकतांत्रिक सरकार को बनाए रखने में आन्तरिक
क्रियाशीलता, बाह्य प्रदर्शन, सामूहिक एकता व सहमति, निर्णय-क्षमता और
नेतृत्व की क्या और कैसी भूमिका होती है; लेकिन जनता सदैव न्याय का
पक्षधर और विकास के समर्थन में लामबंद होती रही है। नई सरकार जनता के इसी
आस्था और विश्वास पर बहुमत(कुल बौद्धिक नैराश्य के बावजूद) पाई हुई है।
यदि राजनीतिक पंडित इसे शेषनाग पर टिकी पृथ्वी की तरह स्थिर सरकार मानते
हों, तो मानें...अपनी बला से; लेकिन यह सच है कि जिंदा कौमे पाँच साल
इंतजार नहीं करती हैं। जनता एस्कीलस के नाटक-पात्र ‘प्रोमीथियस’ की तरह
‘निर्णय की स्वतंत्रता’ में विश्वास करती है और उसे ही सही मानती है। इसी
कारण उसका नियति से मुठभेड़ वांछित और स्वाभाविक है। इस घड़ी जम्मू-काश्मीर
का जनमानस अपना भवितव्य लिखने के लिए इस जनादेश में शामिल अवश्य है लेकिन
वह राजनीतिक पंडे/पंडितों का कहा मानने के लिए अभिशप्त हरग़िज नहीं।

अतएव, इस बुरे समय में जनता की समझदारी और धैर्यशीलता की दाद हमें  देनी
ही होगी कि वह जातिवाद और सम्प्रदायवाद से उबरने की हरसंभव कोशिश में
जुटी दिखाई दे रही है। भले देश की जनता ने हमारी तरह डाॅ. रामविलास शर्मा
की उन पंक्तियों को नहीं पढ़ा हो, लेकिन वह हमसे कहीं अधिक व्यावहारिक और
विवेकमना है। डाॅ. रामविलास शर्मा ने बड़ी मानीखेज़ बात कही है कि-‘‘भारत
की युवाशक्ति बहुत बड़ी शक्ति है। वह यदि मजदूरों-किसानों के आंदोलन से
मिल जाए तो व्यवस्था के लिए बहुत बड़ा संकट पैदा हो सकता है। युवाशक्ति
अगड़ी-पिछड़ी जातियों में बंट जाए, इन जातियों के युवा आपस में लड़ते रहे,
तो व्यवस्था सुरक्षित रहेगी। यदि इसके साथ हिंदू धर्म और इस्लाम की रक्षा
के लिए दस-पाँच जगह मारकाट का आयोजन हो जाए तो व्यवस्था और भी सुरक्षित
हो जाएगी। इस समूचे विघटन से सर्वाधिक लाभ होगा विदेशी पूंजीपतियों को जो
सर्वथा अहितकर और पूर्णतया नुकसानदेह है।'' शुक्र है! भारतीय जनता जाति
और धर्म से अधिक विश्वास लोकतंत्र में करती है। लिहाजा, नफ़रतवादी
असामाजिक तत्त्व शर्मसार हो रहे हैं और सरेआम नंगे भी।
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नेल्सन मंडेला: एक अपराजेय आत्मा

प्रिय देव-दीप,

आज तुम्हें एक ऐसी शख़्सियत के बारे में, उसके जीवन-संघर्ष के बारे में बताने जा रहा हूं जिसने गांधी से बहुत कुछ सीखा ही नहीं कर के दिखाया भी। आज के स्वार्थी और दिखावटी युग में जहां अकादमिक ‘वर्क शाॅप’ देश भर में हजारों प्रति वर्ष की संख्या में हो रहे हैं; सचमुच कुछ करने की नियत कितने लोग पा पाते हैं...थोड़ा ठहरकर सोचना होगा। खैर! आज अपने पिता से सुनों नेल्सन मंडेला के बारे में जिस अपराजेय आत्मा को दक्षिण अफ्रीका का गांधी कहा जाता है।

तुम्हारा पिता
राजीव

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मबासा नदी के किनारे ट्राँस्की का मवेजों गाँव। नेल्सन रोहिल्हाला मंडेला इसी गाँव में 18 जुलाई, 1918 को पैदा हुए। यह अफ्रीका का दक्षिणी पूर्वी हिस्सा है। नेल्सन मंडेला का जन्म जिस वर्ष(1918 ई.) हुआ; रूस में ‘बोल्शेविक क्रान्ति’ हो चुकी थी। यह लड़ाई गैर-बराबरी और असमानता के खि़लाफ लड़ी गई निर्णायक लड़ाई थी। प्रतिरोध इस क्रान्ति के मूल में था। समाजवादी विचार की चेतना में प्रतिरोध का अर्थ व्यापक और बहुआयामी होता है जिसे इस क्रान्ति ने आधार और दिशा दोनों प्रदान की थी। जनसमूहों के इस विद्रोह में शोषित, पीड़ित, वंचित, उत्पीड़ित...लोगों की आवाजें सीधे शामिल थी। सामूहिक चेतना प्रतिरोध के स्वर में जिस तरह अपनी चुप्पी तोड़ रहा था; उसे देखते हुए कुछ न कुछ नया घटित होना अवश्यंभावी था। वहीं बदले की कार्रवाई में क्रूरतापूर्ण नरसंहारें भी दुनिया भर में जारी थी। यह सर्वविदित है कि जब कभी भी बुर्जआ-शक्तियों के मूलाधार पर चोट या प्रहार होता है, प्रायः उसकी सियासी प्रतिक्रिया  हिंसक और आक्रामक हुआ करती है। तब भी सामन्तवादी-पूँजीवादी मानसिकता और मनोदशा में पगे शोषक मुल्कों के लिए इस जन-प्रतिरोध को दबाना या फिर उसे समूलतः नष्ट कर पाना अब संभव नहीं रह गया था। लिहाजा, रंगभेद, नस्लभेद, वर्गभेद, स्तरभेद इत्यादि शब्दावलियों के खि़लाफ जनता धीरे-धीरे एकजुट होती दिख रही थी।

यह वस्तुतः सर्वहारा की जीत थी। इस बदलाव से पूरी दुनिया में नई आस बँधनी शुरू हो गई थी। प्रतिरोध-संस्कृति के इस पाठ में माक्र्स, एंगेल्स और लेनिन वैचारिक नेतृत्वकर्ता थे तो महात्मा गाँधी और नेल्सन मंडेला इसके सच्चे अनुयायी। भारत में गाँधी ‘करो या मरो’ नारे के साथ भारतीय स्वाधीनता संग्राम की रूपरेखा तैयार कर रहे थे। वहीं नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका में ‘प्रतिरोध’ की सर्जना और उसमें धार पैदा कर रहे थे। नेल्सन मंडेला ने सर्वप्रथम 1943 ई. में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस ‘ज्वाइन’ की और ‘जेनुइन’ तरीके से राजनीतिक मोर्चाबंदी करना प्रारम्भ कर दिया। अफ्रीका में नस्लभेद की स्थिति इतनी भयावह थी कि सन् 1948 में इसे कानूनी दर्जा तक मिल चुका था। मंडेला यह देख रहे थे कि उनके अपने लोगों के साथ इसलिए भेद किया जा रहा था क्योंकि प्रकृति ने उनको दूसरों से अलग रंग दिया था। इस देश में अश्वेत होना अपराध की तरह था। वे सम्मान चाहते थे और उन्हें लगातार अपमानित किया जाता था। रोज कई बार याद दिलाया जाता कि वे अश्वेत हैं और ऐसा होना किसी अपराध से कम नहीं है।

मंडेला इस नस्लभेदी कट्टरता और श्वेत-समूहों के आधिपत्य का पुरजोर मुख़ालफत करने वाले अग्रणी नेताओं में से एक थे। यूरोपीय शासित इस मुल्क में अफ्रीकी रहवासियों को सरकार चुनने के लिए मत देने तक का अधिकार नहीं प्राप्त था। भारी जनसमर्थन के बीच संघर्षशील अहिंसक प्रतिरोध की लम्बी लड़ाई लड़ चुकने के बाद 1961 ई. में उन्होंने गूँगी-बहरी गोरी सत्ता के ख़िलाफ ‘एएनसी’ की सैन्य टुकड़ी तैयार की। दरअसल, रंगभेद की नीति सभी सीमाओं को तोड़ती जा रही थी। दक्षिण अफ्रीका की जमीन अत्याचारों के मेहराब से मढ़ी जा चुकी थी। अतः एएनसी और दूसरे प्रमुख दल ने हथियाबन्द लड़ाई लड़ने का फैसला किया। दोनों ने ही अपने लड़ाका दल विकसित करने शुरू कर दिए। नेल्सन अपनी मौलिक राह छोड़कर एक दूसरे रास्ते पर निकल पड़े थे जो उनके उसूलों से मेल नहीं खाता था। मंडेला ने अपनी सैन्य टुकड़ी का नाम ‘स्पीयर आफ दी नेशन’ रखा था जिसका अध्यक्ष वे खुद ही थे। यह रास्ता नया था, लेकिन मंजिल अभी भी वही थी-अपने लोगों के लिए न्याय और सम्मान दिलाने की, रंगभेदी नीतियों को हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त करने की, स्वाधीन रूप से एक ऐसे जनतांत्रिक समाज के गठन की जहाँ समानता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व की गहरी पैठ और सम्बोधन हो।

नेल्सन मंडेला को इसी कारण 1964 ई. में तत्कालीन सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। वे 27 वर्षों तक लगातार राॅबेन द्वीप के जेल में बंद रहे। इस जेल में सुरक्षा बीहड़ थी। नेल्सन मंडेला के उस दौर की एक तस्वीर तक कहीं नहीं है; वजह कि उस जेल से एक फोटोग्राफ तक की तस्करी नहीं की जा सकती थी। इस जेल में उन्होंने अनेकों यातनाएँ सहे; कठोर परिश्रम के कारण गंभीर रूप से बीमार पड़े; लेकिन अपने संकल्प और मूल ध्येय से पीछे नहीं हटे। उन्होंने अपने मजबूत इरादे को कभी स्वयं पर से भरोसा खोने नहीं दिया। बुरे वक्त में अपने परिवार के सदस्यों को ढाढस बंधाया; लेकिन विचलित अथवा निराश नहीं हुए। इसीलिए अश्वेत समाज के लिए नेल्सन मंडेला की छवि राजनीतिक कम, अश्वेत समाज के मसीहा-पुरुष की अधिक है। उनका उद्देष्य और लक्ष्य राजनीतिक ताकत हासिल करना था, ताकि वे जनता की आर्थिक स्वतन्त्रता और सामाजिक जनाधिकार सुनिष्चित कर सकें। बकौल नेल्सन मंडेला-‘‘मैं हर तरह के प्रभुत्व और वर्चस्व के ख़िलाफ हूँ। बुर्जुआ-संस्कृति अपनी हो या परायी; वह जहाँ भी अन्याय, अत्याचार, दमन और शोषण की मंशा से आगे बढेगी; मैं उसका पुरजोर विरोध करूँगा। मैं यह नहीं देखूँगा कि सत्तासीन लोग काले हैं या गोरे।’’

1994 ई. में सम्पन्न आम-चुनाव में मंडेला अफ्रीका के पहले राष्ट्रपति चुने गए। वैसे उनकी आन्तरिक इच्छा देश के इस सर्वोच्च पद पर आसीन होने की नहीं थी। वे चाहते थे कि इस देश की सत्ता युवा हाथों को सौंप दी जाये। लेकिन जन-आकांक्षाओं के भारी दबाव को देखते हुए नेल्सन मंडेला को यह निर्णय स्वीकार करना पड़ा; और इस तरह नेल्सन मंडेला ने पूरी दुनिया में इतिहास रच दिया। इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक(2004 ई.) में नेल्सन मंडेला ने राजनीति से सार्वजनिक तौर पर खुद को अलग कर लिया। दरअसल, पिछले कई दशकों से जारी लड़ाई और कैद में घोर तकलीफ़ के साये में बीते समय ने उनकी शारीरिक अवस्था को बेहद कमजोर कर दिया था। वैसे भी सांगठनिक उत्तरदायित्व एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से निर्मित सांगठनिक ढाँचें को नेतृत्व देने के लिए पूरा समय देना होता है। इस कठिन कर्म में नेल्सन मंडेला ने अपना शत-प्रतिशत देने का हरसंभव प्रयत्न किया।

21वीं सदी के राजनीतिक महानायकों में नेल्सन मंडेला की उपस्थित निर्कण्टक है। उनका व्यक्तित्व अफ्रीकी समाज की राजनीति और उसकी अगुवाई को पूर्णतया समर्पित है। उनमें प्रतिरोधी चेतना बहुलांश है। नेल्सन मंडेला जेल के भीतर भी उतने ही सक्रिय थे। वे अफ्रीकी जनता की सोच और चिन्तन को लगातार ‘प्रतिरोध’ की चेतना और शक्ति से लैस कर रहे थे। मंडेला देशवासियों को जनतंत्र बहाली की दिशा में संघर्षशील बनाने के लिए कटिबद्ध थे। इस जगह शहीद भगत सिंह का स्मरण होना स्वाभाविक है। वे कहते थे-‘‘जरूरत है निरन्तर संघर्ष करने, कष्ट सहने और कुर्बानी भरा जीवन बिताने की। अपना व्यक्तिवाद पहले ख़त्म करो। इंच-इंच पर आगे बढ़ो। इसके लिए हिम्मत, दृढ़ता और बहुत मजबूत इरादे की जरूरत है। कितने ही भारी कष्ट एवं कठिनाइयाँ क्यों न हों, आपकी हिम्मत न कांपे। कोई भी पराजय या धोखा आपका दिल न तोड़ सके। कितने भी कष्ट क्यों न आएं, आपका यह जोश ठंडा न पड़े। कष्ट सहने और कुर्बानी करने के सिद्धान्त से आप सफलता हासिल करेंगे और यह व्यक्तिगत सफलताएँ क्रांति की अमूल्य संपत्ति होंगी।’’ आधुनिक अफ्रीका के निर्माण में अपने को होम कर देने वाले नेल्सन मंडेला ने मानो इस संदेष का आजीवन अवगाहन किया हो। इसीलिए वे अफ्रीका में महात्मा गाँधी के सच्चे उत्तराधिकारी भी बन सकें। उनके लिए ‘बापू’ की तरह ही अपनी जनता का दुःख, तकलीफ, पीड़ा इत्यादि असह्य एवं अस्वीकार्य थी। मंडेला समझौतापरस्त या अवसरवादी राजनीतिज्ञ नहीं थे जो आज के राजनीति की सहजप्रवृत्ति बन चुकी है। वह प्रतिरोध के स्वर को मृत्युपर्यंत जीने और उसे अभिव्यक्ति के स्तर पर जिलाए रखने वाले दूरद्रष्टा थें। उनकी आत्मा(सामाजिक चेतना) प्रतिरोध की जो अभिव्यक्ति करती है उसका भाषा में अर्थ और अभिलक्ष्य दोनों सूक्ष्म एवं विशिष्ट हैं। नेल्सन मंडेला में आत्म-सम्मान और संकल्पनिष्ठता का ओज-उद्वेग भरपूर था। वे प्रतिकामी शक्तियों के जोड़-गठजोड़, शोषण-अन्याय, हिंसा-अपराध इत्यादि की मुख़ालफत में आजीवन संघर्षशील और विचार के स्तर पर प्रगतिशील बने रहे। ऐसे महान जननायक मंडेला को विनम्र श्रद्धाजंलि जिन्होंने अफ्रीकी जनता को जीने की आजादी मुहैया कराई; समानाधिकार की लड़ाई को सफल एवं प्राप्य बनाया और जो जनता की दृष्टि में महात्मा गाँधी के समानधर्मा व्यक्तित्व बने। अंग्रेजी कवि विलियम अर्नेस्ट हेनली की उस कविता की चंद पंक्तियाँ नेल्सन मंडेला की याद में यहाँ सादर समर्पित हैं जिन्हें वे सदा गुनगुनाते थे:
‘‘शुक्रगुजार हूं उस जो भी ईश्वर का
 अपनी अपराजेय आत्मा के लिए
 परिस्थियों के शिकंजे में फंसे होने के
                 बाद भी मेरे चेहरे पर न शिकन है
                 और न कोई जोर से कराह
                 वक़्त के अंधाधुंध प्रहारों से
                 मेरा सर खून से सना तो है, पर झुका नहीं।’’

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...