Tuesday, December 16, 2014

समाज, लोकतंत्र और एक तानाशाह की नियति


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16 दिसम्बर, 2014
प्रिंसिपल ने दीवार में दे मारा बच्चे का सिर, मौत 
बरेली। देवरनिया के डीएसआर ग्रुप के स्कूल में मजदूर पिता फीस जमा नहीं करा सका तो स्टाफ ने उसके बच्चे की जान ले ली। आरोप है कि स्कूल प्रिंसिपल ने यूकेजी में पढ़ने वाले बच्चे(7 साल) को पीटते हुए उसका सिर दीवार पर दे मारा। इससे मासूम की मौत हो गई।...
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गे दो-तीन पंक्ति और लिखी गई है; और ख़बर ख़त्म। यह बानगी है हमारे उस समाज की जिसके गौरव-गाथा को हम अपने सीने से चिपकाएं हुए पूरे भारतीय और भारतीयता से लैस होने का गुमान रचते हैं। यह घटना एक उदाहरण है। यदि इस बारे में थोड़ी सी दिलचस्पी दिखाएं, तो देशभर से सैकड़ों ऐसी ख़बर आपके खोज में सामने होगी। हम सुभाषितानी सुनने वाले लोग हैं। राम और कृष्ण पूजक लोग हैं। हमारे यहां बच्चे भगवान का रूप होते हैं। लड़कियां तो साक्षात देवी की अवतार होती हैं...पार्वती, शक्ति; और भी पता नहीं क्या-क्या?

ओह! ऐसे बदेलगा समाज! ऐसे दूर होगी सामाजिक असमानता और वर्ग-विभेद! हम ऐसे में मानवीयता के दर्शन और इंसानियत का साक्षात्कार कराएंगे। हम कैसे पढ़े-लिखे लोग हैं? कैसा समाज गढ़-रच रहे हैं या रचने-गढ़ने की सोच रहे हैं? विद्याा का मंदिर अगर वधस्थली हो जाएं; हमारे अन्दर सही और ग़लत का विवेक पैदा करने वाले ही यदि भ्रष्टाचार के उद्गम-स्थल बन जाएं, तो क्या होगा इस समाज का? 

क्या गति ही हमारे प्रगति का मानक है; उसका नीति-निर्धारक है। क्या स्मार्टफोन और ट्वीटर से
बनता समाज ही असली लोकतंत्र है; बाकी सब गाजर-मूली और घास-फूस। क्या हम यह मान ले कि मरना मनुष्य की नियति है; अतः अपने या किसी के मरने पर शोक मनाना; चिंता व्यक्त करना मुर्खता है। क्या दूसरे की लुगाइयों से छेड़छाड़, दूसरों की बेटियों से बलात्कार; मासूम-अबोध बच्चों के साथ जघन्य अपराध और कुकृत्य सबकुछ जायज और नैतिक मान लिया गया है; तो फिर मेरे दोनों पुत्र देव और दीप हर रोज अपने विद्याालय में यह प्रार्थना क्यों करते और शब्दों को अपनी भाषा में दुहराते हैं-‘इतनी शक्ति हमें देना दाता कि.....’


 इसी समाचारपत्र के मुख्यपृष्ठ की बाॅटम स्टारी इस बात की गवाही देती है कि कैसे हमारे देश के कर्मठ और यशस्वी प्रधानमंत्री अपने काशी स्थित गोद लिए गये गांव में एक बच्ची के पैदा होने पर वहां के स्थानीय जनों द्वारा पौधारोपण कार्यक्रम की नोटिस लेते हैं और उसे अपने ट्वीटर अकाउंट पर सराहना करते हैं। क्या प्रधानमंत्री इस घटना को भी नोटिस लेंगे; इसकी खुली रूप से भत्र्सना करेंगे? वैसे हर चीज के लिए प्रधानमंत्री का मुंह जोहना भी ठीक नहीं है। हमें अपनी फिक्र में अपनी नींद ही खराब करनी होगी। अपनी ख़राबी को दूर करने के लिए हमें ही आगे आना होगा। हमें सोचना होगा कि सामूहिक स्वप्न और कल्पना का आधार न हो तो व्यक्तिगत रूप से कितनी भी छलांग लगा लें अंततः गिरना पाताल में ही होता है। यह मेरी भावुकता हो सकती है; लेकिन अपनी क्षमता में दर्ज यह वह प्रतिरोध है जिसके द्वारा स्कूल भेजे जाते अपने दोनों बच्चों के सकुशल घर लौटने की चिंता और तनाव भी है।


पिछड़े इलाके से अपने मेहनत के बूते शहरी दहलीज पर आये हम जैसे छात्रों के लिए यह डगर बेहद कठिन है। हर जगह एक ही बात-‘इट्स यूओर प्राॅब्लम!’ सुनाई देता है। हम विद्यार्थी जो अपने प्रतिभा के बलबूते छात्रवृत्ति पाते हैं; पढ़ाई के साथ-साथ अपना पूरा परिवार पालते हैं और किसी जरूरतमंद की आगे बढ़कर सहायता भी करते हैं। हमारी इच्छा यह कभी नहीं रही कि हमारे पास धन-दौलत इफ़रात हो, लेकिन हमने हमेशा चाहा है कि हम सबका कल खुशहाल हो और हमारे नौनिहाल सुरक्षित। लेकिन अवसर की असमानता आधारित इस समाज में हम आर्थिक भेदभाव के भारी शिकार हैं। हमारे बच्चे महंगे स्कूल में नहीं पढ़ते हैं क्योंकि हमारी चाहत ही ऐसी नहीं है। हमारी इच्छा तो यह है कि हम जिस हक़-हकूक के काबिल-योग्य हैं; उतना अधिकार हमें मिले ही मिले। लेकिन अफसोंस! सरकारी निजाम और अधिकारियों के आगे हम अपना माथा बार-बार नवाते हैं; याचना और मन्नत करते हैं तो हमारे अकाउंट में पैसे आते हैं; दस्तख़्त कर अधिकारी हमारा कागज आगे बढ़ाते हैं। इसके बावजूद हम अपने बच्चों में महात्मा गांधी और मदर टेरेसा का सेवा-भाव भरने के सदिच्छुक बने रहते हैं। लेकिन इन घटनाओं से हमारा भीतर से टूटना लाजिमी है। हमारा भयग्रस्त होना जायज़ है। हम खौंफजदा इसलिए नहीं हैं कि हम इसके आसान शिकार बनते हैं। दरअसल, मुख्य चिंता यह है कि आज पूरा भारतीय परिवेश ऐसे ही असुरक्षा-बोध के साये में जी रहा है और सबकी घिग्घी बंधी हुई है; बोलती बंद है।



कुल के बावजूद हम आशाधारी भारतीय हैं। प्रचारवादी राजनीति के विपरीत भारतीय सुरों में लोकराग गाने वाले लोग। श्रमशील हाथों से अपने कल का भविष्य गढ़ने वाले लोग। सही अर्थों में ‘मेक इन इंडिया’ की रचना करने वाले लोग। अर्थात् अपार कष्टों और बेपनाह दुःखों को सहकर भी हम जीने की उम्मीद नहीं छोड़ते हैं। हमें विश्वास है कि जब तक पृथ्वी पर हरियाली बची हुई है। समन्दर में पानी शेष है, आसमान बादलों से घिरा और हवाओं के चलने का वह गवाह बना हुआ है; हम बचे रहेंगे। क्योंकि हमें पूरा भरोसा है कि जब क्रूरता का अंत होता है; तानाशाही ख़त्म होता है तो मनुष्य को भी सांप की तरह पेट के बल जमीन पर लोटने को बाध्य-विवश होना पड़ता है; चाहे वह कितना भी विषधर या विषैला क्यों न हो? 

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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