Friday, December 26, 2014

अवांछित पोस्ट : एक ख़त महामना के नाम

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परमआदरणीय महामना,
सादर-प्रणाम!


कायदे से होना तो यह चाहिए कि मुझे तत्काल काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पिछले पांच सालों से जारी शोध-कार्य छोड़ देना चाहिए। विश्वविद्यालय प्रशासन हमें बंधुआ मज़दूर समझता हैं। अपनी मेहनत और यत्न के बदौलत जो शोध-अध्येतावृत्ति हमारे नाम आता है उसे वे इस तरह दे रहे हैं जैसे हम इनकी गुलामी खट रहे हों। मैं दो बच्चों सहित सपरिवार शोध-कार्य में संलग्न हूं। माहवारी खर्च कम से कम 12 से 15 हजार है। एकदम सामान्य, साधारण रंग-ढंग में रहने पर। तिस पर छोटे बच्चे को सुनने की परेशानी है और उसके स्पीच-थेरेपी में ढाई से तीन हजार माहवारी खर्च हो रहे हैं।

ऐसे में अब आप बताओ कि उन्होंने मुझे मेरा शोध-अध्येतापृत्ति सितम्बर से नहीं दिया है। शोध-कार्य की गुणवत्ता और अपनी निष्ठा-समर्पण का हवाला दो तो कहते हैं; यह सब कुछ नहीं देखा जाता है। यानी मनमर्जी का रामराज है। सबतर शांति-शांति है। हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या वाली तर्ज़ पर कहें तो हम रोज अपने काम में लट रहते हैं। उसके अलावे अपने संगी-साथी और रिश्तेदारों के हर किस्म की जरूरत में हरसंभव साथ खड़े रहते हैं। क्योंकि गरीब आदमी अमीर होने की आकांक्षा कम पालता है वह अपने जैसों की काम आने के बारे में अधिक सोचता है। इन दुश्वारियों और तकलीफदेह परिस्थितियों के बावजूद हम शोध-कार्य से कोई समझौता नहीं कर रहे हैं लेकिन अब यह पीर असह्य हो रही है। विश्वविद्यालय हमारा काम देखने को भी तैयार नहीं है और हमें सहयोग देने को भी तत्पर नहीं है।

ऐसे में प्रधानमंत्री का कुछ भी कहना मन को व्यथित ही कर देता है। यह जानते हुए भी कि उनकी कहन में जबर्दस्त लोकप्रियता पा जाने की रेटिंग है। रेडियो पर उन्हें पिछले दिनों कहते सुना है कि अपनी ‘मन की बात’ सीधे मुझे कहो। पता भी बताया है कि ‘आकाशवाणी; पोस्ट बाॅक्स नं. 111; नई दिल्ली’। झूठ-फरेब और जाल की इस दुनिया में श्रीमान् कुलपति गिरीश चन्द्र त्रिपाठी तक को ख़त(10 दिसम्बर, 2014) और अनुस्मारक पत्र(24 दिसम्बर, 2014) देकर देख लिया। अब सीधे प्रधानमंत्री को भी इस बाबत बता के देखता हूं। और कुछ नहीं तो मेरे काम का ही सम्यक् मूल्यांकन करा लें तो काफी है। यह तो बता दें कि जिस काम में मैं रात-दिन अपना दिमाग घिस रहा हूं। उसका कुछ मोल-महत्त्व भी है या नहीं। या कि संतन की भीड़ में मैं भी महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी के नाम का मुफ्त का चंदन घिस रहा हूं: और यदि विशेष महत्व का है तो मेरे पिछले बर्बाद हुए समय की पूरी भरपाई करें जिसकी शारीरिक-मानसिक पीड़ा से इन दिनों मैं बेज़ार हूं।

महामना, आपको भारत रत्न दिया गया है; यह राजनीतिक सम्मान है; लेकिन आपके लिए तो हम ही लोग यानी विद्यार्थी-जन ही भारत रत्न और देश के कर्णधार थे। फिर हमें आपका यह विश्वविद्यालय बंधुआ मज़दूर क्यों समझता है? हमें समय से शोध-अध्येतावृत्ति क्यों नहीं दी जाती है? हमें हमारे पैसे देने में ये फ़ालतू का कागजी कार्रवाई/प्रक्रिया क्यों पूरी करने की बाध्यता डालते हैं? ऐसे में कैसे नवोन्मेषी ज्ञान सृजित हो सकता है। नवाचार के लिए मन-मस्तिष्क का संतुलित और स्थिर होना जरूरी होता है लेकिन ये तो हमसे रोजना चिरौरी कराते और केवल टहलाते हुए हमारा अधिकतर समय बरबाद कर देते हैं।

महामना, क्या भारतीय विश्वविद्यालय गुणवत्तापूर्ण शोध नहीं चाहते हैं? क्या वे नहीं चाहते हैं कि भारतीय अकादमिक जगत में होने वाले शोध-कार्य भारतीय आम-अवाम के लिए असरकारी और दूरगामी परिणाम देने वाला हो? यदि वे यह सब नहीं चाहते हैं तो क्या हम हमेशा के लिए चुप्पी साध लें क्योंकि हमारे बोलने से उन्हें दिक्कत होती है? हमारे सामने खड़े होने से वे शर्मसार होते हैं क्योंकि हम वे बच्चे हैं जो अपनी ग़लती होने पर तमाचा खाने के लिए भी हमेशा तैयार होते हैं लेकिन यह नहीं हो सकता है कि आप हमें तमाचा भी मार दें और कारण भी न बताएं। लेकिन आज के इस नपुंसक दौर में यह सब संभव है। दरअसल, दुनिया मंच से बोले जाने वाले वेद-मंत्रों, ऋचाओं, सूक्तियों, सुभाषितानियों...को सुनने की आदी हो चली है और अपने देश के लोगों का क्या हाल है....यह तो पूछिए ही मत।

खैर! महामना आपको याद किया कि मुझे भी औरों की तरह यह औपचारिकता निबाहनी चाहिए कि आपको ‘भारत रत्न’ दिए जाने की खुशी में आपके प्रति हर्ष जता दूं। यह जानते हुए कि यह कहीं किसी संचार-माध्यम से प्रसारित-प्रचारित होने वाला नहीं है।  तब भी अख़बारी शब्दों की तरह आपको मैं भी सादर-नमन् निवेदित करने का चोचरम करूं लेकिन मुख्य बात आपसे मुझे यह कहनी है कि जिन ढकोसलों और अकादमिक विसंगतियों के बीच हम अपना शोध-कार्य कर रहे हैं उससे तो यह लगता है कि इन सब पाखण्डों से अच्छा था कि हम अपने अन्य रिश्तेदारों की तरह किसी बड़े शहर(गुजरात या पंजाब या मुंबई) में किसी सेठ की नौकरी बजाते; कम से कम हमें हमारी मजूरी तो समय से मिलती। यह तो नहीं होता कि महीना पूरे होते ही दूसरों से उधार मांगने के लिए अपने सम्पर्कों का मोबाइल नंबर खोजने लगे। वह भी वैसे बुरे समय में जिसमें कोई भी किसी का अपना या एकदम खास हो ही नहीं सकता है।

अतएव, ऐसे में थोड़ा प्रोफेशनल होना चलता है। आपने कहा है न-‘सत्य पहले फिर आत्मरक्षा’। यह आप उच्च-पदासीन ठेकेदारों/नवाबशाहों  को पहले व्यवहार में आजमाने को कहिए; हम इस बारे में बाद में विचार करेंगे।
सादर,

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी
हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221005

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