Thursday, September 20, 2012

ख़बर में आग है कि झाग है

----------------------------

कुछ वर्ष पूर्व भारत का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय घोषित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए यह एक बुरी ख़बर है कि उसका नाम विश्व के सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों में कहीं नहीं है। इस ख़बर से विश्वविद्यालय परिसर में हड़कम्प या किसी किस्म का बवेला मचे, यह सोचना ही फिजूल है। इस बाबत सामान्य चर्चाएं/बहसें भी प्राध्यापकों एवं विद्यार्थियों के आपसी आत्मचिन्तन और मंथन का विषय शायद ही हो; क्योंकि इस घोषणा/उद्घोषणा से उनका बाल भी बाँका नहीं होना है। वैसे समय में जब पूरी दुनिया अपनी शिक्षा-पद्धति और शैक्षणिक-प्रक्रिया को लेकर बेहद संवेदनशील और चेतस है; भारत आज भी अपने शिक्षा-प्रारूपों मंे मौलिक अथवा आमूल बदलाव लाने का पक्षधर नहीं है। सामान्य जानकारी के लिए यह जिक्र आवश्यक है कि इस रिपोर्ट को विश्वविद्यालयों की रैंकिंग की सूची निकालने वाली वेबसाइट क्युएस टाॅपयुनिवर्सिटिज डाॅट काॅम ने लांच किया है। इस सूची में आईआईटी दिल्ली को जहाँ 212वीं रैंकिंग प्राप्त हुई है, वहीं आईआईटी मुम्बई को 227वीं। यह रैंकिंग विश्वविद्यालयी गुणवत्ता सम्बन्धी कई निर्धारित मानकों के आधार पर जारी किए गए हैं जिन मानकों पर भारतीय विश्वविद्यालय एकदम फिसड्डी हैं।

एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक प्रो0 कृष्ण कुमार भारतीय विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में बात निकलते ही योग्य और अपने विषय में दक्ष अध्यापकों की कमी का रोना रोने लगते हैं। वह भी उस स्थिति में जब कठिन से कठिनतर(?) हो रहे अध्यापक पात्रता परीक्षा में उतीर्ण अभ्यर्थियों की तादाद चैंकाने योग्य हैं। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की पेशकश/सब्ज़बाग पर कनिष्ठ व वरिष्ठ शोध अध्येतावृत्ति के लिए खासी रकम जिस गुणवत्ता को आधार मानकर खर्ची जा रही है; क्या वे ‘टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ मुहावरा-टाइप हैं? प्रश्न यह भी है कि सूचना-विज्ञान और तकनीकी नवाचार से सम्बन्धित जिन प्रोजेक्टों पर अंधाधंुध पैसा निवेश हो रहा है; क्या वे कागजी लुगदी मात्र हैं? इसके अतिरिक्त यह भी यक्ष प्रश्न है कि वर्तमान में अध्यापकों की तनख़्वाह को मोटी-तगड़ी करने को लेकर यूजीसी जिस कदर संवेदनशील है; क्या वे प्राध्यापक विद्यार्थियों को पढ़ाने की बजाय चिकोटी काट भगा दे रहे हैं या कि गुदगुदी करा खुद हँसने और विद्यार्थियों को भी हँसाने मात्र में रमे हैं; ताकि आधुनिक-अत्याधुनिक कैम्पसों की रमणीयता और मनोहारिता कायम रहे।

मित्रों, कुछ तो गड़बड़झाला अवश्य है; जिससे हमारी शिक्षा-प्रणाली संक्रमित है। उसकी सेहत लगातार बिगड़ रही है। कहना न होगा कि संवाद-परिसंवाद के नित घटते स्पेस की वजह से अधिसंख्य भारतीय विश्वविद्यालयों का माहौल शुष्क और कहीं-कहीं जड़बद्ध दिखाई दे रहा है। खुद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जो अपने ‘नबंर वन’ की दावेदारी पर अघाता और आत्ममुग्ध शैली में भोज-भात करता रहा है; में हरियाली, सौन्दर्य और मनोहारी वातावरण के बीच नई टीले/ठीहे कृत्रिम ढंग से रचने की कवायद जोरों पर है। भारतीय विश्वविद्यालयों में आत्मप्रक्षालन या स्वमूल्यांकन की संचेतना यदि न विकसित हुए, तो ज्यादा संभव है कि विश्व रैंकिंग में भारतीय विश्वविद्यालय उत्कृष्ट और उम्दा प्रदर्शन की बजाए ऐसे ही नित पातालगामी होते जाएंगे। अपनी मातृभाषा को लेकर जिस किस्म का दुराग्रह और पूर्वग्रह भारत के  शिक्षा-नियंताओं के मन में पैठा है; उससे भी कई विडम्बनाएं उपजी हैं।

अंग्रेजी भाषा को नवाचार(इनोवेशन) और अन्तरराष्ट्रीय बौद्धिक सम्पदा का सर्वेसर्वा मानने वाले ज्ञान आयोग के वर्तमान अध्यक्ष सैम पित्रोदा का यह कहना बेहद हास्यास्पद है कि भारतीय विश्वविद्यालय आज भी उन्नीसवीं शताब्दी के युग के हैं। आईआईटी दिल्ली और आईआईटी मुम्बई जहाँ हिन्दी वाग्देवी बहिष्कृत हैं, वहाँ की भाषा-साम्राज्ञी ब्रिटेन है या फिर अमेरिका। आधुनिकी तकनीकी संसाधनों एवं सूचना-प्रौद्योगिकी सम्बन्धी अत्याधुनिक साज-सामानों से लकदक इस तरह के अनगिनत विश्वविद्यालय हैं जहाँ का वातावरण भारतीय नहीं है। फिर ये क्यों अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों की सूची में ‘शार्टलिस्टेड’ होने में लगातार पिछड़ रहे हैं। प्रो0 कृष्ण से लेकर सैम पित्रोदा तक को नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है; बशर्ते उनमें भारतीय ज्ञान मीमांसा और बौद्धिक परम्परा में अनुस्युत तत्वों के अवगाहन(प्रोफाॅउन्ड स्टडी) की इच्छा एवं संकल्पशक्ति बची हो।   

Wednesday, September 19, 2012

अखिलेश ने कितना बदला उत्तर प्रदेश

इत्ती जल्दी यह मूल्यांकन जल्दबाजी साबित होगी। कुल जमा छह महीने बीते हैं मुश्किल से। कोई विशेष पराक्रम या उपक्रम नहीं किया अखिलेश ने की शब्दों की गलबहियाँ की जाएं या कि हर्षोचित उल्लेख। बेरोजगरी भत्ते जैसे अपर्याप्त कार्यक्रम से पढ़े-लिखे जमात का भरण-पोषण हो पाएगा; यह बहसतलब है। राजनीति का कुरुक्षेत्र कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में राजनीति कभी समरस नहीं रही। शासकीय उठापटक और फेरबदल इस प्रदेश की ऐतिहासिक विशिष्टता है। इसी वर्ष हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा सरकार यदि अपनी कारगुजारियों की वजह से गई, तो सपा शासन अपनी करतब की बजाय जन-विवेक की वजह से सत्ता पर पुनः काबिज होने में सफल रही है। समाजवादी पार्टी के झण्डाबदारों ने जितनी दगाबाजियां आमजन से अपने शासनकाल में की है; उसका रिपोर्ट कार्ड युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अवश्य पढ़ना चाहिए। सपा शासन में हिंसा, अपराध और खून-खराबे का जबर्दस्त बोलबाला और लोकराज रहा है। स्वभाव से थिर-गम्भीर पार्टी आलाकमान मुलायम सिंह यादव ने भी इस प्रवृत्ति को खूब सराहा है और आवश्यकतानुसार राजनीतिक इस्तेमाल भी किया है। आज अखिलेश यादव उसी पार्टी के मुख्यमंत्री हैं। अतः उन पर अपनी पार्टी की छवि सुधारने का दबाव प्रत्यक्षतः या परोक्षतः पड़ना लाजिमी है।....


(जारी...)

Tuesday, September 18, 2012

लोरी, गीत और कविताएँ

--------------------------
(घर से आज ही लौटा, अंजुरी भर कविताओं के साथ जो मेरी मम्मी देव-दीप को रोज सुनाती है। ये दोनों भी मगन होकर सुनते हैं, खिलखिलाते हैं और आगे सुनाने की दरख़्वास्त भी करते हैं-‘दादी अउर, दादी अउरी’)

1.    
चउक-चउक चलनी
पानी भरे महजनी
पनिया पाताल के
उहो जीवा काल के
मार गुलेला गाल पर
रोक लिया रुमाल पर

2.    
अटकन-मटकन दे दे मटकन
खैरा-गोटी रस-रस डोले
मस-मास करेला फूले
नम बताओ अमुआ गोटी, जमुआ गोटी
तेतरी सोहाग गोटी
आग लगाई खीर पकाई
मीठी खीर कवन खए
भैया खाए बहिनी खाए
कान पकड़कर ले जा महुआ डाल
तब जाओगी गंगा पार

3.    
तकली रानी तकली रानी
कैसी नाच रही मनमानी
गुनगुन-गुनगुन गीत सुनाती
सूतों का ये ढेर लगाती
सूतो से यह कपड़े बनते
जे पहन से बाबू बनते

4.    
चन्दा मामा चन्दा मामा
लगते कितने प्यारे हो
जगमग जगमग सदा चमकते
तुम आँखों के तारे हो

5.    
रेल हमारी लिए सवारी
काशी जी से आई है
उत्तम चावल और मिठाई
लाद वहां से लाई है

6.    
हुआ सवेरा हुआ सवेरा
अब तो भागा दूर अन्धेरा
छोड़ घोंसला पंक्षी भागे
जो सोवे थे वो भी जागे
आसमान में लाली छाई
धरती पर उजलाई फैली
चहचह-चहचह
चिडि़या चहक रही है
गुमगुम गुमगुम
गुही गमक रही है
फुदक-फुदक के डाली-डाली
शोर मचाती कोयल काली
गायों-भैंस को चारा खिला रहा है
हँस-हँस के झाडू वह चला रहा है

7.    
सवन महुइया के झिलमिल अन्धेरिया
बेंगवा साजे ला बरतिया...बेंगवा साजे ला बरतिया
चुंटी के बिआह भइले, चंुटवा बजनिया
बेंगवा साजे ला बरतिया...बेंगवा साजे ला बरतिया
नव सौ के बाजा कइनी गिरगिट नचनिया
लोटनी खींचे ले रसरिया....लोटनी खींचे ले रसरिया

सवन महुइया के झिलमिल अन्धेरिया
बेंगवा साजे ला बरतिया...बेंगवा साजे ला बरतिया

Wednesday, September 12, 2012

संचार की मनोभाषिकी और उत्तर संस्कृति

वैश्वीकरण की लोकवृत्त में व्यापक परिव्याप्ति है; लेकिन यह जन-समूहीकरण या जन-एकीकरण का पक्षधर नहीं है। समकालीन सन्दर्भों में वैश्वीकरण का अपनी प्रकृति, आचरण और व्यवहार में लोकोन्मुखता और सामाजिकता से दूरस्थ होना एक कटु सचाई है। आधिपत्य और अधिग्रहण की शर्त पर यह जिन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है, वे समरूपीकरण की संस्कृति को थोपने के अतिरिक्त व्यक्ति या कि समाज-विशेष की भाषा, शिक्षा, संस्कृति एवं साहित्य को भी अपने प्रभुत्ववादी वर्चस्व के घेरे में खींच लेते हैं। लोकतांत्रिक-मूल्यों के हरण का यह प्रपंच प्रायः नई आर्थिक नीति, मुक्त सूचना प्रवाह और उदारशील पूँजी-निवेश के गणवेष में रचा-बुना जाता है। अतः  वैश्वीकरण जिस सार्वभौमिक दुनिया को बनाता या फिर गढ़ता है, उसमें भाषा, शिक्षा, संस्कृति एवं साहित्य का जिक्र अथवा विवरण भले हांे; लेकिन उसमें भाषिक-चेतना, जातीय-स्मृति, इतिहास-बोध, राष्ट्रीय अस्मिता और पारम्परिक-मूल्यों की सारतः या पूर्णतः अभिव्यक्ति का निषेध(गेटकीपिंग) जैसे प्राथमिक शर्त है।

नव उपनिवेशवाद और नव साम्राज्यवाद ने समकालीन चुनौतियों को और गाढ़ा किया है। समकालीनता का सीधा और स्पष्ट अर्थ अपने समय में समोये वर्तमान जीवन और उसकी रूप-छटा को पूरी शिद्दत और शाइस्तगी के साथ सच्ची अभिव्यक्ति प्रदान करना है; ताकि इससे निर्मित दूरदर्शिता भविष्य के प्रति आस्थावन दृष्टि प्रदान कर सके। यहाँ अतीत और भविष्य के चित्रों की अपेक्षा वर्तमान की छवि अधिक स्पष्ट और प्रभावशाली होती है। वस्तुतः समकालीनता एक व्यापक धारणा बनकर सम्पूर्ण कालखण्ड को अपने भीतर समाहित रखती है। यह अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों ध्रुवों को एक साथ संस्पर्श करती है; साथ ही, समय-सापेक्षता के साथ मूल्य-सापेक्षता की भी माँग करती है। अतः किसी कालखण्ड-विशेष में प्रचलित और परिचालित मूल्यों की पूरी पहचान जरूरी है। यह इसलिए भी अपरिहार्य है, क्योंकि युगीन यथार्थ से साक्षात्कार तथा युगीन मूल्यों का बोध समकालीनता की सच्ची पहचान है और; यह पहचान सदैव आधुनिक समय की उपज होती है जो कि अपनी स्वाभाविक चेष्टाओं से ऐतिहासिक गतिशीलता के अतिरिक्त समसामयिक चुनौतियों को भी स्वीकार करती है।

उत्तर संस्कृति एक ऐसी ही चुनौती है जो ‘आॅक्टोपस’ की भाँति पूरी दुनिया में फैल रही है। वास्तव में उत्तर संस्कृति उपभोक्ता संस्कृति की अपर संज्ञा है। मनुष्य का मन माने, न माने पर सच यही है कि वह बाज़ार में खड़ा है। उसे बाज़ार में होने का भान नहीं है। वास्तव में, संस्कृति के पण्यीकरण की प्रक्रिया ही ऐसी है कि वह जान नहीं पाता कि कब बाज़ार में गया, कब उसका पुराना घर जल गया, कब उसने अपना घर फूँक दिया। वह सोच नहीं पाता कि उसका परिचालन एक बाह्î मस्तिष्क से संचालित है जबकि उसका खुद का मस्तिष्क भी भाषा, चेतना और विचार-दृष्टि से समृद्ध और समुन्नत है। यहाँ भाषा का पक्ष विचारणीय है, क्योंकि भाषाओं की रचना सिर्फ पढ़े-लिखे लोगों या सोचने-विचारने वाले शिष्ट-वर्ग द्वारा नहीं, बल्कि सभी लोगों के द्वारा की जाती है। कहा जा सकता है कि भाषा अधिरचना की भाँति भले न हो, पर उसकी चेतना अधिरचना से अछूती नहीं रह सकती। इस तरह भाषा एक विशेष वस्तुपरक प्रणाली है जो मनुष्य के सामाजिक.ऐतिहासिक अनुभव अथवा सामाजिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। व्यक्ति द्वारा आत्मसात किए जाने पर भाषा एक तरह से उसकी वास्तविक चेतना बन जाती है। भाषा अपनी प्रकृति में मूलतः संकल्पनात्मक यथार्थ है। उसका सम्बन्ध भौतिक जगत की वस्तुओं से उतना नहीं होता, जितना कि उनकी मानसिक संकल्पना से।

(जारी...)

Tuesday, September 11, 2012

घोषणा


----------------

चिनगारियाँ फूटीं
लगी आग
धुँआ, गुब्बार, लावा, मलवा
कोहराम, क्रन्दन, त्राहिमाम्
जल्द ही सब थिर, सब शान्त

सहस्राब्दियों बाद
मंगल से पृथ्वी पर आया है अन्तरिक्ष यान
जीवन की तलाश में
शोध, अनुसन्धान, अन्वेषण के क्रम में
नमूने लेगा वह 

निष्कर्षतः घोषणा होगी मंगल पर
पृथ्वी पर थी
भरी-पूरी जिन्दगी किसी समय
जो काल का ग्रास बना
अपने ही हथियारों से
विस्फोटक साज-सामानों से
एटम बम और अणु बमों से

सही है, माथा गर्म होने पर
दिमाग फटता है
और, पृथ्वी के गर्म होने पर
फटता  है, बम....व्योम में।  

Monday, September 10, 2012

अमूल को जिसने बनाया अमूल्य


बीते रविवार को श्वेत-क्रान्ति के पुरोधा डाॅ0 वर्गीज कुरियन नहीं रहे। यह हम भारतीयों के लिए अपूर्णीय क्षति है। डाॅ0 कुरियन राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड(एनडीडीबी) के संस्थापक अध्यक्ष थे जिन्होंने अमूल डेयरी को अमूल्य बनाया; एक अलग पहचान दी। उन्होंने डेयरी सहकारी आन्दोलन को जो ऊँचाई दी, वह श्लाघ्य है। 90 वर्षीय डाॅ0 कुरियन सही मायने में जननायक थे, कोई सुपरमैन या स्पाइडरमैन नहीं। भारतीय ग्रामीणों से गहरा जुड़ाव महसूस करने वाले डाॅ0 कुरियन गला गाढ़ा करने वाले कागज़ी बौद्धिक नहीं थे। वे लोकअनुभव से अर्जित संस्कारों के लिए लड़ने-भिड़ने वाले योद्धा थे। डाॅ0 कुरियन को वर्तमान पीढ़ी चाहे जैसे भी या जिस रूप में भी याद रखे, लेकिन पुरानी पीढि़यों की स्मृति में उनका नाम स्वर्णीम अक्षरों में टंका हैं। डाॅ कुरियन अपने जीते-जी जो अरज गए हैं, उसे बिसार देना इसलिए भी आसान नहीं है; क्योंकि उसका सामाजिक महत्त्व अतुलनीय है। जैसा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी कहते हैं-‘सामाजिक महत्त्व के लिए आवश्यक है कि या तो आकर्षित करो या तो आकर्षित हो।’

डाॅ0 कुरियन ने भारतीय किसानों और पशुपालकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। उन्होंने अपने नेतृत्व में दुग्ध विपणन संघ की स्थापना कर दुग्ध-उत्पादन में अन्तरराष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहित किया। अपने अंतःकरण को वरीयता देने वाले डाॅ0 कुरियन समझौतापरस्त व्यक्ति नहीं थे। 2006 में जीसीएमएमएफ के प्रबन्धन तन्त्र से मतभेद के चलते उन्होंने अपने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना अपने गरिमा के अनुरूप समझा। उसके बाद वे शिक्षा के क्षेत्र में अपने अनुभव और नेतृत्व का सदुपयोग करने में जुट गए। किसानों और पशुपालकों में आत्मगौरव का संस्कार भरने वाले डाॅ0 कुरियन की सीख है-कर्तव्यबोध और कर्तव्यनिष्ठता; मौके की पहचान और चुनौतियों से सामना करने का जज़्बा; समय का सम्मान और उनका रचनात्मक उपयोग; पैसे की अहमियत और लोक-अभियान में उसे होम कर देने का उत्साह आदि। आज के भौतिकवादी युग में जब अपसंस्कृतियों के अभिलक्षण प्रकट या अप्रकट रूप में हमारे भीतर जगह छेंक रही है, इनसे निवृत्त होना आवश्यक है। डाॅ0 कुरियन इस दृष्टि से हमारे प्रेरणास्रोत हैं जो व्यक्ति के मन, चित्त और अंतःकरण को न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ मानते हैं; बल्कि तमाम कुप्रवृत्तियों और मनोविकारों से छुटकारा पाने का संकल्प-विकल्प भी इसी में तलाशते हैं।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...