Wednesday, September 12, 2012

संचार की मनोभाषिकी और उत्तर संस्कृति

वैश्वीकरण की लोकवृत्त में व्यापक परिव्याप्ति है; लेकिन यह जन-समूहीकरण या जन-एकीकरण का पक्षधर नहीं है। समकालीन सन्दर्भों में वैश्वीकरण का अपनी प्रकृति, आचरण और व्यवहार में लोकोन्मुखता और सामाजिकता से दूरस्थ होना एक कटु सचाई है। आधिपत्य और अधिग्रहण की शर्त पर यह जिन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है, वे समरूपीकरण की संस्कृति को थोपने के अतिरिक्त व्यक्ति या कि समाज-विशेष की भाषा, शिक्षा, संस्कृति एवं साहित्य को भी अपने प्रभुत्ववादी वर्चस्व के घेरे में खींच लेते हैं। लोकतांत्रिक-मूल्यों के हरण का यह प्रपंच प्रायः नई आर्थिक नीति, मुक्त सूचना प्रवाह और उदारशील पूँजी-निवेश के गणवेष में रचा-बुना जाता है। अतः  वैश्वीकरण जिस सार्वभौमिक दुनिया को बनाता या फिर गढ़ता है, उसमें भाषा, शिक्षा, संस्कृति एवं साहित्य का जिक्र अथवा विवरण भले हांे; लेकिन उसमें भाषिक-चेतना, जातीय-स्मृति, इतिहास-बोध, राष्ट्रीय अस्मिता और पारम्परिक-मूल्यों की सारतः या पूर्णतः अभिव्यक्ति का निषेध(गेटकीपिंग) जैसे प्राथमिक शर्त है।

नव उपनिवेशवाद और नव साम्राज्यवाद ने समकालीन चुनौतियों को और गाढ़ा किया है। समकालीनता का सीधा और स्पष्ट अर्थ अपने समय में समोये वर्तमान जीवन और उसकी रूप-छटा को पूरी शिद्दत और शाइस्तगी के साथ सच्ची अभिव्यक्ति प्रदान करना है; ताकि इससे निर्मित दूरदर्शिता भविष्य के प्रति आस्थावन दृष्टि प्रदान कर सके। यहाँ अतीत और भविष्य के चित्रों की अपेक्षा वर्तमान की छवि अधिक स्पष्ट और प्रभावशाली होती है। वस्तुतः समकालीनता एक व्यापक धारणा बनकर सम्पूर्ण कालखण्ड को अपने भीतर समाहित रखती है। यह अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों ध्रुवों को एक साथ संस्पर्श करती है; साथ ही, समय-सापेक्षता के साथ मूल्य-सापेक्षता की भी माँग करती है। अतः किसी कालखण्ड-विशेष में प्रचलित और परिचालित मूल्यों की पूरी पहचान जरूरी है। यह इसलिए भी अपरिहार्य है, क्योंकि युगीन यथार्थ से साक्षात्कार तथा युगीन मूल्यों का बोध समकालीनता की सच्ची पहचान है और; यह पहचान सदैव आधुनिक समय की उपज होती है जो कि अपनी स्वाभाविक चेष्टाओं से ऐतिहासिक गतिशीलता के अतिरिक्त समसामयिक चुनौतियों को भी स्वीकार करती है।

उत्तर संस्कृति एक ऐसी ही चुनौती है जो ‘आॅक्टोपस’ की भाँति पूरी दुनिया में फैल रही है। वास्तव में उत्तर संस्कृति उपभोक्ता संस्कृति की अपर संज्ञा है। मनुष्य का मन माने, न माने पर सच यही है कि वह बाज़ार में खड़ा है। उसे बाज़ार में होने का भान नहीं है। वास्तव में, संस्कृति के पण्यीकरण की प्रक्रिया ही ऐसी है कि वह जान नहीं पाता कि कब बाज़ार में गया, कब उसका पुराना घर जल गया, कब उसने अपना घर फूँक दिया। वह सोच नहीं पाता कि उसका परिचालन एक बाह्î मस्तिष्क से संचालित है जबकि उसका खुद का मस्तिष्क भी भाषा, चेतना और विचार-दृष्टि से समृद्ध और समुन्नत है। यहाँ भाषा का पक्ष विचारणीय है, क्योंकि भाषाओं की रचना सिर्फ पढ़े-लिखे लोगों या सोचने-विचारने वाले शिष्ट-वर्ग द्वारा नहीं, बल्कि सभी लोगों के द्वारा की जाती है। कहा जा सकता है कि भाषा अधिरचना की भाँति भले न हो, पर उसकी चेतना अधिरचना से अछूती नहीं रह सकती। इस तरह भाषा एक विशेष वस्तुपरक प्रणाली है जो मनुष्य के सामाजिक.ऐतिहासिक अनुभव अथवा सामाजिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। व्यक्ति द्वारा आत्मसात किए जाने पर भाषा एक तरह से उसकी वास्तविक चेतना बन जाती है। भाषा अपनी प्रकृति में मूलतः संकल्पनात्मक यथार्थ है। उसका सम्बन्ध भौतिक जगत की वस्तुओं से उतना नहीं होता, जितना कि उनकी मानसिक संकल्पना से।

(जारी...)

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