Friday, May 8, 2020

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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(मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव)
एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर विचार करता हूँ, तो पाता हूँ कि श्रम हमारे मनुष्य होने की पहचान है, अपना सर्वोत्तम हासिल है। इस हासिल का सौन्दर्य अनोखा है, तो सुगंध लाजवाब। इस श्रम ने मुझे क्या कुछ नहीं दिया-अब और तमन्ना शेष नहीं। अपनी तरह उन सब श्रमशीलों को यह सब मिले जो मुझे मिला।
मेरा स्पष्ट मानना है कि कामगार के प्रति बरती गई उपेक्षा दुनिया का सबसे जघन्तम अपराध है। हर सत्ता या सरकार जब श्रमिकों की हत्या करती है, तो इसके एवज में अपने भौतिक-विलासों में अनावश्यक बेलबूटों का इज़ाफा कर लेती है। वह श्रमिकों की मौत को शहादत नहीं मानती, उन्हें शहीद की कोटि क्या मनुष्य की कोटि में डालने का उपक्रम भी नहीं करती है। मजदूरों की मौत पर वह फौरी घोषणा करती है। चलताऊ रवैया अपनाती है। क्या आपने कहीं सुना है कि मजदूरों की रहस्यमयी मौत पर सीबीआई जाँच की घोषणा हुई? दुनिया के इतिहास में श्रमिक सबसे बेजार और बेहाल कोटियाँ हैं जिनके कार्य-क्षमता का पुरस्कार उनको बराबरी के हिसाब से नहीं दिया जाता है। उनकी मौत पर सरकारी नौकरी नहीं दी जाती है, पैसे कितने मिलते होंगे-औने-पौने और क्या!
अब अध्यापकीय ज्ञान का चतुराईपूर्वक इस्तेमाल करें, तो मैं कहूँगा कि मुझे रस्किन का कहा जमता है कि-‘कार्य ही उपासना है।’ ऐसी बहुत-सी बातें मैं कह सकता हूँ-मौलिक अथवा भोगी हुई नहीं; बल्कि पढ़ी हुई, अध्ययन के बरास्ते ओढ़ी-बिछायी गई। मैं बहुत कुछ कह सकता हूँ क्योंकि भाषानिपुण और लिखने का उस्ताद हूँ।
जो मैं कहने जा रहा हूँ, वह यह कि-श्रम का सौन्दर्य सदा एक नवीन वस्तु का निर्माण करता है। श्रमिक इस क्रिया द्वारा प्रकृति का अनुकरण नहीं करता, वरन् अपनी स्वतन्त्र इच्छा का इस्तेमाल करता है। कार्ल माक्र्स ने यूरोपीय दृष्टि में श्रम की महत्ता और उसके कालसापेक्ष वस्तुस्थिति को हरसंभव शब्दबद्ध करने का प्रयत्न किया है। उसके मुताबिक, अभावग्रस्त व्यक्ति सामन्ती युग में दासवत पूर्णपराधीन रहकर अपना श्रम कार्य करता रहा; फिर बेगार के रूप में उससे बलात् श्रम कराया गया। मध्ययुग में वह निर्माता कार्मिक के रूप में श्रम के माध्यम से अपनी कला का प्रदर्शन करता था। इस काल में उसे यदा-कदा अपनी कलात्मक भावना की अनुभूति होती थी। किंतु यह स्पष्ट है कि वह अपने श्रम का स्वेच्छया, स्वतंत्र; उपयोग करने में असमर्थ था। वर्तमान में घोर पूँजीवादी युग है। अब मनुष्य का श्रम पण्य या जिन्स (काॅमोडिटी) के रूप में विक्रय की वस्तु होकर रह गया। इस शोषणमूलक व्यवस्था में उसे अपनी ‘पाँचों ज्ञानेन्द्रियों सहित भुगतान’(पे विद् आॅल देयर फाइव सेन्सेज) करना पड़ता है।
हर श्रमिक पूँजीवाद में मशीन का एक पूर्जा बनकर जीता है। वह अपनी इच्छा के प्रतिकूल श्रम के लिए बाध्य किया जाता है। बाज़ार में उसके श्रम की माल की तरह बिक्री होती है। वह इस प्रकार पराधीन और व्यक्तित्वहीन हो कर जीता है। कई सिद्धान्तकारों में हेनरी ब्रेवरमैन का काम महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कंप्यूटर-क्रांति और औद्योगिक प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर उसके उपयोग से मज़दूर वर्गों पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया है। उनका कहना है कि, ‘‘कंप्यूटरीकरण के साथ मशीनों का सांख्यकीय नियंत्रण श्रम-प्रक्रियाओं को तोड़कर उन्हें यांत्रिक दुहराव का काम बना देता है। इस क्रम में श्रम ज्यादा उत्पादक हो जाता है, लेकिन उसकी कीमत घट जाती है। निश्चित रूप से यह पूँजीपति-वर्ग के लिए मुनाफ़ादेह होता है। तकनीकी क्षमताएँ विशुद्ध से ‘जानकारी की आवश्यकता’(स्किल्स होल्डर्स) के आधार पर वितरित होती है। तथाकथित ज्ञान उद्योग इस विभाजन और पदानुक्रम को और तेज करता है और मशीन की सत्ता को स्थापित करके श्रमिकों के शोषण को बढ़ावा देता है और इस क्रम में मज़दूर को इंसान भी नहीं रहने देता।"
आज की तारीख़ में हम अपने सांस्कृतिक चेतना के स्वाभाविक विकास-प्रक्रिया से बुरी तरह कटे हुए हैं। कहने का आशय यह है कि औपनिवेशिक परिवेश में आयातित और नकली तकनीकों पर विशेष जोर देने के कारण हम उस ज्ञान से भी वंचित होते जा रहे हैं जिसे हमने सदियों के प्रयोग और कौशल से हासिल किया था। जैसे, इस्पात का उत्पादन, चिकित्सा-पद्धति, दस्तकारी-कार्य, हस्तकला एवं कुटीर उद्योगों पर आधारित ज्ञानबीज से हम महरूम होते जा रहे हैं। ध्यान देने योग्य है कि अन्तरराष्ट्रीय पूँजी ने साम्राज्यवादी घुसपैठ की प्रक्रिया में चूँकि देशी कृषि और उद्योगों को तहस-नहस कर दिया है इसलिए श्रम का अन्तरराष्ट्रीयकरण हो गया है और इस क्रम में दुनिया भर में बेकार मज़दूरों की भारी फ़ौज खड़ी हो गई है। महानगरों में मज़दूरों की भीड़ जमा करने की जरूरत के अनुसार इन नए उपनिवेशों की बेकारी की इस फ़ौज से मज़दूर लिए और निकाले जाते हैं। सब जानते हैं कि यह काम अनगिनत उप-अनुबंधों और निकाल-बाहर करने की प्रणालियों के आधार पर किया जाता है, जिसमें दुनिया के अल्पविकसित हिस्सों के सस्ते श्रम वाले क्षेत्रों में विभिन्न औद्योगिक प्रक्रियाओं का निर्यात शामिल है। इस तरह श्रम-बाज़ार का भी कायाकल्प हो गया है। पहले मज़दूरों की चेतना की एकजुटता के लिए ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो!’ का नारा लगाया जाता था, अब खा़ालिस संघ और संगठन हैं। मज़दूर, मज़दूरों के स्वर और उनकी सामूहिक ताकत नदारद है।
आज सत्ता वर्ग-केन्द्रित न होकर, विविध समुदायों या जातीय अस्मिताओं की बहुलतावादी सत्ता-संरचनाओं के नेटवर्क जैसी चीज हो गयी है। लिहाजतन, औद्योगिक और उत्तर-औद्योगिक हालात में संस्कृति को ‘मनुष्य के निज की दुनिया के बाज़ार’ में बदला गया है। प्राजंलि बंधु अपनी पुस्तक ‘भारतीय प्रसार माध्यमः विदेशी पूँजी के गुलामी का दौर’ में ए. शिवनन्दन की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी को दर्ज़ करते हैं, ‘‘पूँजी को अब पहले की तरह जीवित श्रम की आवश्यकता नहीं रह गई है। किसी ख़ास जगह पर खा़स समय पर मज़दूरों की निश्चित तादाद की जरूरत नहीं रह गई है, अब श्रमिक उस आधार पर संगठित नहीं हो सकते। उन्होंने अपनी पकड़ खो दी है और इस क्रम में जो उनकी राजनीतिक हैसियत, रुतबा और पहचान थी उन्हें भी खो जाने दिया है।’’ ऐसी नाज़ुक परिस्थिति में गाँधी की सोच पर पानी फिर जाना स्वाभाविक है। वे कहते हैं, ‘‘सब अपने ही श्रम की रोटी खाएँ तो बीमारी, अकाल और धनी-निर्धन की समस्या नगण्य हो जाएगी। अपने श्रम की रोटी में अधिक स्वाद होता है।’’ जरा विचार करें कि आज की तारीख़ में ‘संतोषम् परं सुखम्’ या ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ के आदर्श मूल्य किस करवट बैठ सकतो हैं।
आजकल श्रम की रोटी खाने वालों को मौत भेंट की जा रही है। यह विडम्बना है जिसमें हम सब क्रूर और विद्रूप हँसी हँस रहे हैं। वे मर रहे हैं और उनके मरने पर हम हँस रहे हैं, या बेरहम किस्म की मौन बरत रहे हैं। रघुवीर सहाय की आत्मा को साक्षी मान कहें, तो-‘हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!’ या कि अज्ञेय जी को स्मरण कर लें जो कहते हैं-‘मौन भी एक अभिव्यंजना है’।

Monday, April 6, 2020

क्या न्यूज़ चैनलों ने सरकारी टैटू गुदा ली है!


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(चालाकीपूर्वक वही ख़बरें प्रसारित की जाती है जो तत्कालिन सरकारों को सूट करती है।)
पत्रकारिता में शब्दों और वाक्यों का भर्ता बना पेश करना आज की पत्रकारिता की स्टाइल है। अचानक एक उबला हुआ आलू का टुकड़ा मिले और आप उसे बलजोरी मसल देने का लुत्फ लें, यह न्यूज़ चैनलों की हकीकत है। पत्रकारिता इन दिनों कमर्शियल हो चुकी है। मिशनरी तो रही नहीं। प्रोफेशनल का चोला भी हट चुका है। बकौल रामशरण जोशी-‘आज का मीडिया एक ऐसा धंधा बन गया है, जिसका उद्देश्य मुनाफा कमाना है, और इसके लिए वह कोई भी ग़लत समझौता या अनैतिक कार्य कर सकता है।’
प्रश्न है इस बिकी हुई पत्रकारीय दौर में न्यूज़ चैनलों के गले में घंटी बाँधेगा कौन?
न्यूज़ चैनलों ने तो जनादेश और जनमत से चुने जनप्रतिनिधियों का शरण गह रखा है और शरणागत की रक्षा भारतीय सभ्यता और संस्कृति के परम आदर्श हैं। आप ठेंगा न कर पायेंगे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जो आज की तारीख़ में दुनिया की असल साम्राज्ञी हैं, अन्तरराष्ट्रीय ढाबे से पसरते उत्तर आधुनिक साम्राज्य विस्तारक हैं। जबकि उसूल की प्रतिबद्धता तो यह कहती है कि कोसना अथवा इनकी आलोचना हमें ही करनी होगी। सरकार की शह पर सूचना-बम फेंकते इन न्यूज़ चैनलों की खरी-खरी टोह-पड़ताल लेनी पड़ेगी। पर यदि इसे सरकार-विरुद्ध कार्रवाई घोषित कर दिया जाए, तो बोलेगा कौन?
इसके लिए पंडित युगल किशोर शुक्ल, राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतातप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त, बनारसीदास चतुर्वेदी, मदनमोहन मालवीय, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, प्रेमचंद, राजेन्द्र माथुर, राहुल बारपुते, कमला प्रसाद, प्रभाष जोशी जैसे पत्रकारीय संकल्प-चेतना वाले प्राणवान सम्पादकों-पत्रकारों की स्वर्गीय आत्माओं को आहूत करने की जरूरत होगी…!
आज की स्थिति पर गौर फरमाये, तो मनोहारी छवि का ढोंग करते मीडियावी ‘बुद्धू बक्से’ स्टुडियों में रिहर्सल कर स्क्रीन पर नमूदार होते हैं। उन्हें यह ताकीद किया जा चुका होता है कि कहाँ पाउज़ लेना है और कहाँ मुड़ी झाटते हुए ‘पिच लेवल’ बढ़ाना पड़ सकता है। बात से कन्नी काट लेना, अनसुना कर देना, चिल्ला जाना या फिर अपनी भड़क की बमबारी से सामने वाले को नेस्तानाबूद कर देना है, इसकी ‘प्री-प्रैक्टीस’ की जा चुकी होती है। आलम यह है कि ख़बर की भाषा में यही ट्रेंड में है। इसकी ही टीआरीपी है। विज्ञापन ऐसे ही एजेंडे और प्रोपगेण्डे की ख़बरों पर थोकभाव हासिल होती है।
ज्यादा जजमेंटल हो कि आज हमें सही या ग़लत का पर्दाफाश कर देना है। राजा हरिश्चन्द्र बनने पर टीवी चैनल फौरन हिसाब के साथ बाहर कर देते हैं। नज़र टेढ़ी होने पर कभी-कभी मानवीय भूल भी बर्दाश्त-ए-काबिल नहीं होती हैं। चीन के राष्ट्रपति के नाम ग़लत पढ़ने के एवज में दूरदर्शन के एक एंकर को ऐसा ही खामियजा वर्ष 2014 में भुगतना पड़ा था। पुण्य प्रसून वाजपेयी आज कहाँ हैं? प्राइवेट चैनल इतना भयाकुल नहीं होते। वे निकाले जाने के भय से सरकारी अराधना और स्तुति का मार्ग शुरू से ही अपनाते हैं।
प्रियदर्शन ऐसे ही नहीं कहते हैं कि-‘अख़बारों की सुर्खियों से लेकर टीवी चैनलों तक दिखने वाले नामों और चेहरों से भरी पत्रकारिता की यह दुनिया जिन लोगों को बहुत रंगीन लगती है, उन्हें इस सच का यह दूसरा पहलू भी देखना चाहिए। पत्रकारों के हाथ में कलम दिखती है, कैमरे दिखते हैं, लेकिन उनके कंधों से बहता पसीना नहीं दिखता, उनके सीने पर पड़ने वाली गोलियाँ नहीं दिखती।…पत्रकार नहीं देखता है तो मारा जाता है; देखता है, तब भी मारा जाता है। जब वह चुप रहता है, तो मारा जाता है। जब बोलता है, तब भी मारा जाता है। लेकिन फिर भी देखना और बोलना जरूरी है, क्योंकि किसी भी शक्ल में बचे रहने की इकलौती शर्त है। किसी एक पेशे के लिए नहीं, पूरे कौम के लिए, पूरे आवाम के लिए।’
प्रियदर्शन एनडीटीवी में हैं और उनके चैनल के प्रति आपकी सद्भावना कैसी है, खुद विचार करके देख लीजिए।
बिकाऊ मीडिया वस्तुनिष्ठ तरीके से पत्रकारीय जवाबदेही का निर्वहन चाहती ही नहीं है। विवाद के विषाणु बहस में रहने से देखने वालों को रोमांच आता है। नहीं तो, चैनल बदलना आसान है। पब्लिक मर्सी नहीं करती है। उसे ख़राब ख़बरे ही चाहिए। वह सात्विक बातों से परहेज करती है। टेलीविजन चाहे जितना आदर्श बाँचे, लेकिन अधिसंख्य दर्शक वैसी ख़बरों पर कान ही नहीं देते जो उनकी जिया को न जलाए। उन्हें उकसाये नहीं। सनसनी की टाॅनिक न पिलाए।
दरअसल, हम एक ख़राब पीढ़ी को गढ़ रहे हैं। हम आने वाली पीढ़ी को भारत की शाश्वत ज्ञान-धारा से काट रहे हैं। हम लगातार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रहे हैं या बेहूदे प्रकरण को हवा दे रहे हैं; जो हमारे सोचने-समझने के विवेक का अपहरण कर लेना चाहती है। हम चाहते ही नहीं हैं कि देश में शिक्षा का ग्राफ बढ़े। सारे लोग तार्किक और वैज्ञानिक ढंग से सोचना शुरू करें। यद्यपि गाँधी-अम्बेडकर-लोहिया की इस सरजमीं पर लोकतंत्र के आने के बाद स्थितियाँ बदल गई हैं। अब वर्ण-व्यवस्था छुपे तौर पर बहुत घृणित रूप में भले हो, लेकिन खुलेआम सब नागरिक हैं और हिन्दुस्तानी सरजमीं पर सबका समान अधिकार है। अब सब धर्मस्थल सभी के हैं। सबके आवागमन पर निर्बाध आने-जाने की छूट है। पंडे-पुरोहितों के आतंक से मुक्त हो रहे इस भारत में कुछ लोग तब भी बचे रह गए हैं जो पूरे मुल्क पर अपना एकाधिकार चाहते हैं, वर्चस्व और बाज़ार की वांछित-अवांछित घुसपैठ चाहते हैं। मठों पर कब्जे और मठाधीशी का खिताब चाहते हैं।
हम देख रहे हैं कि जातिवादी जमात जागरूक नागरिकों द्वारा खारिज हो रही हैं। मठ-मठाधीशों की चुरकियाँ कट रही हैं। अब जो मेहनत कर रहा है उसके पास ज्ञान है। अब एक सामान्य व्यक्ति लोकल अख़बार भी पढ़ सकता है और न्ययार्क टाइम्स तक। फिर जमुरे की कौन सुनेगा। जोकरों की कैसे चलेगी। कैसे भारत के कुछ अंग्रेजीदां या वामपंथी जुमलेदार पूरे देश का नीति-नियंता कहलायेंगे। ऐसे में कांग्रेससहित पुरातन पोगापंथी सरकार को भी चाहिए कि जनता मूर्ख बनी रहे। उसके पास सचाई न पहुँचे, लेकिन सचाई के अंश जरूर आवे जिस पर राष्ट्रीय स्तर पर भंजौटी हो, भोकाल टाइट हो। लेकिन उनके विश्वविद्यालयों में मंत्रोच्चारण तो हो, लेकिन नए मंत्रों को रचने की कूब्बत न हो। लोग बोलने के लिए स्वतंत्र तो हों, लेकिन वे ही चुनिंदा लोग बोलें जिन्हें सरकारे सुनने का मादा रखती हैं।
यह सब भकसावन है। बेहूदगी भरी है। लेकिन जिंदगी की टोह में जीवित लोगों के लिए कुछ सरकारी टैटू गुदाये सिरफिरों की आवाज़ ही ‘भारत भाग्य विधाता’ है। आज की टिकटाॅक पीढ़ी ही नहीं धर्मपरायणी जमात को भी मसालेदार ख़बरें चाहिए। कुछ तड़कता-भड़कता हुआ। आप अनाप-शनाप या अनेरिया-पनेरिया बोलिए, तो लइकन-बुढ़वन तक के शरीर में डिएनए फड़फड़ाने लगता है। सनी लियोन फिल्म में हिट हो सकती है, तो मीडिया में फिर मधुबाला टाइप की फरमाइश क्यों पर बहस चलने लगेगी। प्रतिमान आसमानी नहीं होते। हम ही पसंद-नापसंद के पत्थर डालकर माइलस्टोन स्थापित करते हैं। पत्रकारिता भाषा की कबड्डी नहीं है, लेकिन बना दी गई हो तो रेंकना तो पड़ेगा-‘कबड्डी..कबड्डी... कबड्डी ...कब...ड्डी...क...’!

Monday, March 23, 2020

हाथ पर उग आया कमल और पतझड़ बनी कांग्रेस

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सिंधिया पद के मामले में बिल्कुल पैदल नहीं रहे। उन्हें कांग्रेस ने केन्द्रीय मंत्रीमण्डल में शामिल रखा। राहुल गांधी के सलाह-मशविरे में उनकी चलती रही। राजनीति के भंवर में अपनी कुशल तैराकी के बदौलत ज्योतिरादित्य ने बड़े दांव खेले और जीते। फिर क्या हुआ कि इस युवा नेता ने कांग्रेस का दामन छोड़ भाजपा का साथ हो लिया। रीता बहुगुणा किसी ज़माने में यूपी की जान थी और सिंधिया एमपी के। आज दोनों भाजपा की टोली में है। आज देश की सबसे बुलंद पार्टी बनती जा रही भाजपा की समृद्धि सरकारी कर्मचारियों के डीए भत्ता बढ़ने की तरह सामान्य बात नहीं है। खैर, कांग्रेस की इस गति के लिए क्या निष्ठुर नियति को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए या गाँधी-परिवार को।

भाड़े के ज्योतिषाचार्यों ने राहुलोदय की चाहे जितना भरोसा दिलाया हो, पर अब वह आस भी सांस तोड़ती दिख रही है। राहुल गाँधी जिस जड़ से पैदा हुए फूल हैं उसमें राजनीतिक अंकुरण की संभावना वाले बीज नहीं हैं। ‘प्रोजेक्शन’ और ‘प्रमोशन’ के मीडियावी खेल के बावजूद राहुलार्थ नील-बट्टा-सन्नाटा है। उनके अपने बेगाने हैं और अपनी ‘टैलेंट हंट’ का तो कबका सत्यानाश हो चुका है।
सवाल है, राहुल देख क्या रहे हैं या कि उन्हें भविष्य का नज़ारा आखिर दिख क्या रहा है। सिंधिंया जैसे रणबांकुरे के भाजपा में मिल जाने के बाद मूल्य और विचारधारा की राजनीतिक कहानी का ‘प्लाॅट’ भी हाथ से चला गया। राहुल के पास बेबाकी के बोल-बच्चन चाहे कितने भी नपे-तुले क्यों न हों, लेकिन ‘गेम चेंजर’ की उनकी हैसियत न कल थी और न आज है। बाद के लिए थोड़ी-बहुत जो आशंकाएँ शेष दिखाई भी दे रही थीं अब सिंधिया के जाने के बाद वह ‘यूथ स्प्रिट’ भी नहीं बचा।
राहुल गाँधी अपनी पार्टी के पुराने होने का कब तक लुत्फ उठाते रहेंगे, यह सवाल ज्यादा मौजूं हैं। उन्हें अपने सिवा अपना हमउम्र कोई क्यों नहीं नेतृत्व के काबिल दिख रहा है? लगातार मीनाक्षी नटराजन, जितिन प्रसाद, सचिन पायलट के युवा-कमान को नज़रअंदाज किया गया। इरादतन उन्हें ‘पाॅलिटिक्ल गेम’ से बाहर रखा गया। जबकि इनके केन्द्रीय नेतृत्व में होने से राहुल की राजनीति बेहतर होनी थी। जहाँ हैं वहाँ से आगे यानी शिखर पर पहुँचना था।
राहुल गाँधी की प्रचारवादी रानीति का सूचकांक 2010 में नरेन्द्र मोदी से ऊपर था। जहाँ प्रधानमंत्री की होड़ में आगे दिखते राहुल की प्रतिशत 29 फीसदी थी, वहीं नरेन्द्र मोदी 9 फीसदी स्कोरिंग पर थे। बाद बाकी राजनीतिक तमाश में नरेन्द्र मोदी ने खुद को तराशा और अपनी लोकप्रियता के आँकड़े दुरुस्त करते चले गए। वहीं राहुल की स्थिति ‘ऊँची दूकान, फीकी पकवान’ की रही। एक समय वह भी आया जब 2014 के लोकसभा चुनाव में महज चार महीने बचे थे नरेन्द्र मोदी ने अपनी लोकप्रियता के झण्डे 47 फीसदी से गाड़ दिए, वहीं राहुल अपने तमाम प्रयोग और युवा झाँसे के बावजूद 'पीए इन वेटिंग’ 15 फीसदी से ऊपर की छलांग न लगा सके।

कांग्रेसियों ने राहुल गाँधी की इमेज बिल्डिंग की; बहुतेरे ‘वन मैन शो’ किए पर परिणाम वही ढाक के तीन पात रहा। राहुल गाँधी ने अपने भीतर हो रहे बदलावों के साथ पार्टीगत बदलाव को कभी तरजीह नहीं दिया। हाँ बातें जरूर कीं, शोर बहुत मचाए।
हाल के वर्षों में कांग्रेस बैकफुट पर है। उसके अपने रंगरूटों को कांग्रेस जम नहीं रही। उन्हें कांग्रेस के भविष्य की नहीं अपने भविष्य की चिंता दिख रही है। पाला बदलने से लेकर दगा देते विश्वसनीयों की महत्त्वाकांक्षा हिलोरें मार रही है और वे अपना रस्ता ले रहे हैं। दरअसल, कांग्रेसी कुनबे में गाँधी-परिवार की कब्जेदारी जबर्दस्त रही है। राहुल ने अपने तईं ‘पाॅवर बैलेंस’ की कोशिश भी की थी, लेकिन उन्हें जिस तरीके से प्रमोट किया गया पिछले कुछ वर्षों में उससे कांग्रेस का टाइपफेस राहुल गाँधी बनते चले गये। अन्य युवा और काबिल चेहरों को नजरअंदाज करते हुए राहुलीय रथ को हाँका गया। उनकी गरदन सहलाने वाले पुरनियों ने अपनी बची-खुची राजनीति का भविष्य सुरक्षित रखने के लिए यह सब किया जिसके परिणाम ये हुए की कांग्रेस ‘वन फेस इन लीडरशीप रेस’ का गीत-मल्हार गाती दिखी।
राजस्थान और मध्य प्रदेश में दो युवा चेहरों ने ज़मीनी हक़ीकत समझा और जरूरी रणनीति बनाए। परिणाम देखा जा सकता है कि इन दोनों प्रदेश में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित हुई। सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया के इन कामों की सराहना और नेतृत्व की प्रशंसा बनती है, लेकिन उनकी ‘काउंटिंग’ बाद के नेता के रूप में ही हुई; बतौर मुख्यमंत्री नहीं। पिछले दो लोकसभा चुनावों की गणित समझने की कोशिश करें, तो कांग्रेस का बहुरूपियापन सामने आ जाएगा। दिल्ली की ही बात करें, तो संदीप दीक्षित की जगह अजय माकन एक अक्षम नेतृत्व वाले साबित हुए और कांग्रेस की भद्द पिटी सो अलग। संदीप में राजनीतिक समझ और दूरदर्शिता अजय माकन से कहीं अधिक थी लेकिन उन्हें खुलकर प्रमोट नहीं किया गया। यह सब किन कारणों से हुआ इसकी तफ़्तीश जरूरी है।
राहुल गाँधी की राजनीतिक शैली जिस बदलाव की रूपरेखा रखते हुए आरंभ में कांग्रेसियों को संबोधित कर रही थी, उसी में जंग लग गए। बाद के राहुल चुनावी रणनीतिकार की तरह गोटी सेट करते दिखे और हिसाबी ढंग से अपनी भूमिका में सर्वस्ववादी बने रहे।
यह सब तब हुआ जब राहुलीय कांग्रेस शीर्ष मोर्चे पर युवा कमान को लाना चाहती थी; बड़ी जिम्मेदारी सौंपना चाहती थी। भीतरबातियों की मानें तो पुराने नेताओं के विरोध के कारण ये फैसले टाल दिये गए। सवाल है जो लोग सचिन, अशोक, ज्योतिरादित्य, मीनाक्षी, नवीन, जितिन जैसे ऊर्जावान युवाओं को आगे आने देना नहीं चाहते; वे राहुल को पूरेपन से स्वीकार लेंगे इसकी क्या गारंटी! यही हुआ और गाँधी-नेहरू परिवार की गति बिस्तर पर पड़े मसलंद की भाँति हो गई जिसे अधिक से अधिक सिराहने-गोड़तारी अथवा दायें-बायें किया जा सकता है, इतर संभावना कुछ भी नहीं।
ताज्जुब कि जिन पुरनियों के कारण युवाओं को ‘बैकबेंचर’ बनाने का मसविदा चलाया गया; 2014 की लोकसभा चुनाव में जनता ने उनके ‘विक्ट्री साइन’ वाले ख्यालातों को ठेंगा दिखा दिया। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का आलम यह रहा कि वह बिना गुगली फेंके कांग्रेसी कमरतोड़ का ‘कमल निशान’ बन गए, वहीं राहुल गाँधी पर राजनीतिक बौनेपन का तिलक लग गया। जेब में हाथ डाल झुके गर्दन के साथ फोटू खिंचाना शिष्टता का परिचायक हो सकता है; लेकिन भारत जैसे हलचली देश में जहाँ मुद्दों और विषयों की भरमार है; राहुल गाँधी का यह रवैया उनके ‘पोटेंशियल रिफ्लेक्शन’ को कम कर देता है। नरेन्द्र मोदी की फड़कती भुजायें और कड़कती आवाज में एक तरह की निर्भीकता का ‘बेंचमार्क’ है जो उनकी शोहरत में बहुत कुछ जोड़ देता है; लोगों को उनकी बात सुनने पर विवश कर देता है।
यद्यपि मौजूदा राजनीति में सही-ग़लत के प्रतिमान ध्वस्त हो गए हैं। राजनीतिक संवाद की धार कुंद है तो स्वस्थ बातचीत के तह भीतर गंदगी जमा हो ली है। मीडिया ने नया करिश्मा यह सिरजा है कि वह अपने को बंदरबाट की भूमिका में रख चुकी है। जब तक और जिसके पक्ष से खुराक मिलती रहेगी उसका पलड़ा उस तरफ झुका रहेगा। बीते कई सालों में पत्रकारिता के दिग्गज पत्रकारों के साथ सरकारी बदतमीजी की घटनाएँ और नियोजित प्रताड़ना की ख़बरें रुह कंपाने वाली हैं। सरकार की आलोचना अब बदमाशी माने जाने लगी है जबकि वह उसका विशेषाधिकार है; संसदीय विशेषाधिकार। हुआ ठीक इसके उलट है। पत्रकारिता ने अब कहानियाँ गढ़कर अपने पाठकों/दर्शकोंरुश्रोताओं/प्रयोक्ताओं को रिझाने एवं उनके मनोरंजन करने का बीड़ा उठा लिया है जो ग़लत होते हुए भी ‘पोस्ट ट्रूथ’ की शैली में धड़ल्ले से प्रस्तुत है।
फाइनली, राहुल गाँधी को ‘पाॅलिश भाषा’ में बोलने का गुर सिखाने वास्ते क्या कुछ न किया गया हो, लेकिन राहुल अपने तईं कुछ नया करने की फिराक में अपनी ही टांग लहूलुहान कर बैठे हैं, अपनी ही साख पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। उनकी कोशिश में नियत साफ झलकती भले हो किन्तु निर्णय तक अंततः न पहुँच पाने की उनकी आदत और प्रवृत्ति ने नुकसान जोरदार किया है। आमजन ने राहुल गाँधी के बरक्स नरेन्द्र मोदी को ज्यादा भरोसेमंद माना क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने ‘गुजरात माॅडल’ के ‘वाइब्रेंट फ्लेवर’ की मीडिया प्लानिंग जबर्दस्त की थी जबकि राहुलीय-टीम वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी ही उपलब्धियों अथवा भावी दृष्टिकोंणों को गिना सकने तक में पूर्णतया विफल रही। जबकि दूसरी तरफ भाजपा की कुल हिंदुत्ववादी छवि के बावजूद नरेन्द्र मोदी ने अपनी सफलता के मायने पूरे देश को बताने का प्रयास किया और विशेषकर यंगस्टरों को वे यह समझा पाने में सफल रहे कि उनके राज्य गुजरात का विकास दर देश के राष्ट्रीय विकास दर 8.6 फीसदी की तुलना में 10 फीसदी है।
बतौर नेता नरेन्द्र मोदी की तुलना में राहुल गाँधी का मूल्यांकन करें तो मोदी जहाँ एक ‘अभ्यासी नेता’ की छवि रखते हैं, वहीं राहुल गाँधी अब भी ‘प्रयासी नेता’ के रूप में घुलटिया ले रहे हैं। नरेन्द्र मोदी की आवाज में मिमियाहट नहीं है। वह अपने विपक्षियों को टोन की सुस्तीपन से अपने ऊपर चढ़ बैठने का कोई मौका नहीं देते हैं। वह तेज बोलते हैं और बोले की प्रोक्ति प्रायः घुमावदार और लच्छेदार होती है। कहनशैली की नाटकीयता भी एक तरीके का आकर्षण या कहें खिंचवा पैदा करती है तथा इस सम्मोहन का असर-जादू काफी देर तक मानस में रहता है। राहुल के बोले में ऐसी कुशलता या कहें भाषा पर अधिकार न होने जैसी कमजोरी ने उनके वक्तृत्व को ‘कनेक्टिंग पीपुल्स’ बनने ही नहीं दिया जिस कारण राहुल गँधी युवा होते हुए युवाओं के बीच लहर न बन सके वहीं नरेन्द्र मोदी युवा-मानस में सुनामी की तरह छा गए; दिलोंदिमाग में रच-बस गए।
गाँधी-नेहरू परिवार की केन्द्रीयता ने कांग्रेसी जनाधार का बंटाधार तो किया ही, बल्कि उनकी शिफ्टिंग भी करायी। आज भी मोदी लहर बरकारार है, मोदी सरकार है। क्यों ऐसा हुआ कि देसी जनता अब भी नरेन्द्र मोदी की करिश्माई छवि और मोहक व्यक्तित्व का गुलाम है। उनकी चेतना में नरेन्द्र मोदी देश-उन्नायक और समृद्धि-सर्जक वैश्विक नेता हैं। उनकी खूबियाँ हजार ऐसी हैं जो दिखती हैं और आजकल का तो मुहावरा ही है कि-‘जो दिखता है वही बिकता है।’ सचमुच कांग्रेस के राहुल गाँधी ‘नेमप्लेट’ तो हैं लेकिन उनकी यूएसपी प्रेरक नहीं है। बची प्रियंका गाँधी तो वह खुद गाँधी-नेहरू परिवार के लिए खतरनाक हैं क्योंकि जमाई राबर्टस वाड्रा की महत्त्वाकांक्षा लाल किले से भी ऊँची है। अरस्तू ने अपनी किताब 'पाॅलिटिक्स' में जिक्र किया है कि-‘ऐसा कुछ भी जो मुमकिन है लेकिन श्रेष्ठ नहीं है; से बेहतर वह नामुमकिन होता है जो श्रेष्ठतर होता है।’
फिलहाल, मोदी का सिक्का चलने दीजिए जो नामुमकिन को मुमकिन बनाने का हर खेल खेलने में महारती है और हमें भी ऐसे खेल में शामिल हो कर खुश होने का चस्का तो लग ही गया है। भारतीय जनता पार्टी में कांग्रेसी चेहरा ज्योतिरादित्य सिंधिया के आने के बाद अब तो नया नारा होना चाहिए-‘कांग्रेसी डांडिया...मेक इन इंडिया’।

Wednesday, June 26, 2019

मोदी सरकार ने किए सभी पोर्न बेबसाइट बैन, जय माता दी!

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यह अच्छी ख़बर इस नरेन्द्र मोदी सरकार में ही संभव थे। सरकार ने मनुष्यता के नवनिर्माण में क्रांतिकारी निर्णय लेते हुए सभी पोर्न साइटों पर बैन लगा दी है। यह सामाजिक शुचिता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का जीता-जागता परिणाम है।

सचमुच वन्दे मातरम्, जय श्री राम, मोदी-मोदी!

(ख़बर की सत्यता की जाँच आप स्वयं कर लेने के लिए स्वतन्त्र हैं!)

Tuesday, May 21, 2019

देशराग


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डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है,
तुम रोओ या हँसो की
तेरे सिर्फ रो-हँस लेने से
देश कभी बनता नहीं है
देश कभी मरता नहीं है
मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है।
तुम जागो या सोओ की
तेरे सिर्फ जग-सो लेने से
देश कभी बनता नहीं है
देश कभी मरता नहीं है
मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है।
तुम चाहो या चाहो की
तेरे सिर्फ चाह चाह लेने से
देश कभी बनता नहीं है
देश कभी मरता नहीं है
मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है।
तुम प्रेमी हो या द्रोही फिर
तेरे सिर्फ प्रेमी-द्रोही हो लेने से
देश कभी बनता नहीं है
देश कभी मरता नहीं है
मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है।

एक जन के एक जन्म से
देश कभी बनता नहीं है
देश कभी संवरता नहीं है
एक व्यक्ति के एक मरण से                                        
देश कभी मरता नहीं है
देश कभी झुकता नहीं है।
मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है।
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Monday, May 13, 2019

ठगिनी नैना क्यों झमकावे

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पत्रकारिता ईमान-धर्म की स्थायी चेतना है, आस्थावादी कर्मकाण्ड, झोलझाल, पाखण्ड या स्तरहीन कोई ऐसी चीज नहीं जिसमें भाषा-विचार बरतने की तमीज तक न शामिल हो। यह बात ‘कागद की लेखी’ और ‘आँखन देखी’ दोनों के लिए लागू होती हैं। पत्रकारिता की समस्त अन्तर्वस्तु अनुभव-सत्य और अनभय-सत्य पर आधारित होती है। आज यह पूँजी द्वारा हस्तांतरित तथा सत्ता द्वारा निर्देशित ‘मैनेजमेंट मीडियम’ है। माध्यम पर आज कब्जा मध्यस्थों का है जिनके लिए मीडिया बिकाऊ है, भाट और चारण है। यह उनलोगों के दखलांदाजी का शिकार है जिनका एकमात्र ध्येय जनता की भाव-संवेदना-विचार को ध्वस्त कर देना है। दरअसल, मुनाफे की संस्कृति राष्ट्रीयता के किसी विचार-बोध, विचार-दशा अथवा विचार-दर्शन को स्वीकार नहीं करती हैं क्योंकि उनके लिए ‘सूचना, ‘शिक्षा’ और ‘मनोरंजन’विचार विवेक द्वारा प्रस्तुत-प्रस्तावित न होकर कौड़ियों के भाव बिकाऊ है, पूँजी द्वारा हस्तगत कर लेने योग्य है।
यह प्रायः इस कार्यशैली में शामिल लोगों की जातिवादी पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है कि वे बिकेंगे अथवा नहीं। टेलीविज़न की बेहयाई अथवा उसकी बदचलनी के लिए वे जातियाँ एकमात्र जिम्मेंदार हैं जिन्होंने अपनी आभामण्डल और वर्चस्व को कायम रखने के लिए पत्रकारों की नई फौज इस पेशे में इरादतन आने ही नहीं दी क्योंकि वे दूसरी-दूसरी जातियों से थे और इससे उनका कथित शुद्धिवादी चोला तार-तार हो जाता। बुद्धि की जगह शुद्धि को व्यावहारिक मानने वाले राष्ट्र को सद्गति मिलनी तय होती है। आज मीडिया इसी हूम-जाप-समिधा में जुटी है; इस हक़ीकत और यथास्थिति को स्वीकार करना हमारी नियति नहीं मजबूरी ज्यादा है। मीडिया में ‘एक तरह की जात की पाँत’ अधिक दिखलाई देती है। जब किसी माध्यम का वह भी खासकर जनसंचार माध्यम का रूपांतरण जाति-विशेष में अनूदित हो चुका हो, तो फिर इस अनुसृजन का मजा लिजिए, मौज कीजिए।
नतीजतन, अधिसंख्य टेलीविजनपोशी सम्पादक, पत्रकार, विशेषज्ञ स्टूडियो में जाने से पूर्व अच्छे से सँवरते, अपना केश काढ़ते हैं, आईने में अपनी छवि निहारते हुए सेल्फी लेना पसंद करते हैं। वह जानते हैं टेलीविजन के सामने वही कहना है जिसे टेलीविजन पर आकर बोलने का मौका देने वाले ने तय कर रखा है। खरीदी-विचार के ये बंधु-टपोरी पत्रकारिता का ‘क ख ग’ न जानते हों, तो भी उनका कहना-बोलना टेलीविज़न पर अहर्निश जारी होता है। उनके कहे-सुने, प्रतिक्रिया-प्रतिवाद आदि में विवेक व विचार-दृष्टि नहीं होते, तो इसका रोना भी नहीं रोना चाहिए; क्योंकि भाड़े के टट्टू रट्टुमल ही होंगे; और क्या? यह और बात है, वे अपने को हीरामन समझते है!
दरअसल, टेलीविज़न के अंदरखाने में पूँजीशाही की तूती बोलती है या फिर राजनीतिक बाबूगिरी चलती है। सत्ता की पटरानियाँ (नेता, मंत्री, नौकरशाह) मीडिया को हरम बनाकर उनका गैरजरूरी इस्तेमाल करती हैं, लेकिन दर्शकों को मजा आता है क्योंकि जनानेखाने में ताँक-झाँक की हमारी प्रवृत्ति ऐतिहासिक है, पेज-थ्री सर्कुलेशन सर्वाधिक है। मीडिया के बाबत रोना-रोने वालों (तथाकथित ठेठ, खाँटी और देसी शुभचिन्तकों) को अपने आँख का इलाज करना चाहिए या कि अपनी कनपटी पर जोरदार तमाचा जड़ना चाहिए, क्योंकि मीडिया के मौजूदा हाल-दशा के लिए वे ही सबसे ज्यादा जवाबदेह हैं जो इसकी ताकत से सुपरिचित थे; लेकिन न जाने किस सौतिया डाह के टेलीविज़न में घुस आये बीमारियों को तमाशाबीन अथवा मूकदर्शक बन देखते रहे, यह सोचकर कि इससे हमारा लेना-देना क्या? फिर आज शुचिता की माँग टेलीविज़न से क्यों? रेडलाइट की तरह यह भी रेडकारपेट मीडिया है। अंतर बस इतना है कि एक में शरीर रौंदी जाती है और दूसरे में विचार। पैसा तो दोनों जगह चलता है।
यद्यपि जो टेलीविज़न के ‘आई विटनेस’ हैं उन्हें पता है कि दूरदर्शन (डीडी) ने 1995 में ‘प्राइम टाइम’ में बीस मिनट के समाचार बुलेटिन ‘आजतक’ और अंग्रेजी में ‘एनडीटीवी’ का ‘टुनाइट’ प्रायोजित समाचार-प्रसारण शुरू हुए थे। यह तो बहुत बाद में कहें तो 31 दिसम्बर, 2000 से 24 घंटे के निजी न्यूज़ चैनल का विकास स्वतन्त्र रूप से ‘आजतक’ के रूप में हुआ। बात-बात पर इतिहास का हवाला देने वालों के लिए बता दें कि 1992 में भारतीय परिक्षेत्र में ‘एशेल ग्रुप’ द्वारा ‘जी टीवी’ का शुभारंभ हुआ तो इस चैनल ने आंधे घंटे का न्यूज बुलेटिन ‘आज की बात’ जारी किया था। 1993 में मीडिया मुगल के नाम से मशहूर रुपर्ट मर्डोक ने ‘जी टीवी’ से साझेदारी की और संग-साथ मिलकर ‘ई-एल टीवी’ दिसम्बर, 1994 में प्रारंभ किया। यही बाद में यानी जनवरी, 1998 में 24x7 घंटेवाली समाचार चैनल के रूप में विकसित हुआ ‘जी न्यूज़’ के नाम से।
रुपर्ट मर्डोक ने आते ही दूरदर्शन की प्रसारण-शक्ति और दर्शकीय-अभिरुचि को अपनी ओर खींच लिया। समाचारों का प्राइवेटीकरण हो गया और दूरदर्शन ने अपनी असंगतियों और अव्यवस्था का शिकार होते हुए अपना महत्त्व और जनाधर खो दिया; क्या किसी से छुपी बात है। राष्ट्रभक्ति पर बाँह ऊपर उठाने या भारतीय सनातनता को लेकर हमेशा एक ही तरह का बांग देने वाले की टोली उस समय कुछ नहीं बोली, क्योंकि सोचा होगा दूरदर्शन के लुट-पिट जाने से उनका बनना और बिगड़ना ही क्या है? इतिहास दुहरा रहा है। अब बात जनसंचार माध्यम से सीधे जनतंत्र के तीन स्थायी स्तंभों के खरीद-बिक्री पर आ टिकी है। लिहाजतन, राजनीतिक बाँझपन भी इसी रास्ते पर है। आगे की रामकहानी में इन दिनों भारतीय जनादेश से खिलवाड़ का जो उपक्रम रचा-बुना जा रहा है; भारतीय जनतंत्र की पराधीनता तय है। अचानक से हम रुपर्ट मर्डोक के ‘आॅक्टोपस’ चंगुल की तरह अमेरीकी या बाहरी गुलामी स्वीकार करने को विवश होंगे। बेहतर विकल्प के लिए अमेरीकी बाज़ार की तरह अमेरीकी सत्ता-तंत्र के अधीन हो जायेंगे। और उस दिन जब सब गुलाम होंगे भारत-दुर्दशा पर रोने के लिए कुछ लोग भारतेन्दु जी से लेकर प्रभाष जोशी जी की आत्मा तक को बुला रहे होंगे।
अवसर की इन संभावनाओं को देखते हुए जय-जय कीजिए, धन्य होइए! खैर!

Saturday, February 9, 2019

यदि आप पत्रिकाएँ खरीदकर नहीं पढ़ते, तो ईमानदारी और निष्ठा की बात रहने दीजिए!



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डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

कहावत है-‘सौ सुनार की, एक लुहार की’। पत्रिकाएँ ठोक-बजाकर मुद्दों को सामने लाती हैं। स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में पत्रिकाओं ने जो ज़मीन बनाया; विचारों के धरातल पर राजनीतिक चेतना का जो निर्माण किए वह बेजोड़ कही जानी चाहिए। उनकी भूमिका को भाषा के मुहावरेदानी में अक्षरशः बता पाना हो सकता है-संभव न हो; लेकिन उन्होंने जनपक्षधरता के जो उदाहरण पेश किए हैं, वह सचमुच बेमिसाल है। पत्रिकाएँ सूचनात्मक और विवरणात्मक मात्र नहीं हुआ करती है; बल्कि उनकी प्रकृति पाठक के विवेक को चुनौती देते हुए उनसे लड़ने-भिड़ने एवं टकराने का होता है। उनके द्वारा अर्जित अनुभवों पर रंदा चलाना होता है। वह ग़लत बातों को रेतती हैं, लेकिन तर्क सहित। पत्रिकाएँ झूठ को नंगा करती हैं और वास्तविक तथ्य को पुष्ट करती है, वह भी बड़ी निर्ममता के साथ। अपनी रचनाशीलता में पत्रिकाएँ दुनिया का सर्वांग सौन्दर्य उपस्थित कर देती हैं जिसे हम हीक भर निहार सकें, दुलार सकें, गले लगा सकें। कुल मिलाकर हम मनुष्य बने रहे इस समिधा में चेतस पत्रिकाएँ अहर्निशु जुटी होती हैं।
आजकल की बात दूसरी है। बिकाऊ लोगों ने पत्रिकाओं की ऐसी की तैसी कर दी है। उनके तकनीकी ताम-झाम बहुत हैं। चमकीली चमक-दमक बेशुमार है। पर विचार में बौनापन ऐसा कि आप यदि उनके झाँसे में आए, तो समझिए सत्यानाश! ऐसा नहीं है कि इन दिनों अच्छा कुछ भी नहीं है। लेकिन खोजने के लिए आजकल जूझना पड़ेगा। अपने साहस से निकलती और पाठकों के मन में पैठती लघु-पत्रिकाओं ने बड़ा फ़र्क उत्पन्न किया है। लेकिन उनकी आर्थिक ताकत कम होने से पहुँच अपर्याप्त है। अपनी जुटान-निपटान के माध्यम से निकलती ऐसी पत्रिकाओं को देखें तो वे अपने दख़ल में हस्तक्षेपी एवं प्रतिरोधी प्रकृति के हैं; पर वे अपने लेखकों, आलोचकों, समीक्षकों की आर्थिक मदद कर पाने में अक्षम हैं। ऐसे में कौन लेखक, आलोचक, कवि या साहित्यकार ताउम्र पत्रिकाओं के लिए अपना जांगर लुटायेगा। पाठकों में भी कई श्रेणियाँ है। तनख़्वाही प्रोफेसरों ने तो पत्रिकाओं को पढ़ने से ही तौबा कर लिया है, लेकिन लिखना जारी है। कुछ नेक जरूर हैं जो बिन मांगे-कहे समय से पत्रिकाओं को अपना सदस्यता शुल्क देते हैं। इसमें भी बहुत कम ही होंगे जो पत्रिका के आजीवन सदस्य हों।
अधिसंख्य प्रोफेसरों/अध्यापकों को तो मौजूदा पत्रिकाओं के नाम ही नहीं पता है और मालूम है तो ताजा अंक के बारे में मुँह सिले हुए हैं। ज्यादा पीछे न जाइए क्या आपने ‘कथादेश’ पत्रिका का दिसम्बर अंक पलटा है। यदि हाँ तो आपने सुधीर विद्यार्थी का संस्मरण पढ़ा होगा-‘एक इबारत जो लहूलुहान है’। इसी अंक में देखा होगा आपने भालचन्द्र जोशी का-‘कविता के घर में मनुष्यता का रहवास’। आपकी नज़रें जरूर इनायत हुई होंगी बजरंग बिहारी तिवारी के दलित प्रश्न से-‘ओड़िया दलित साहित्य’ शीर्षक से। इसी तरह ‘जनमत’ पत्रिका के नवम्बर, 2018 अंक में अवश्य ही देखा होगा-‘किसान क्रांति यात्रा: सवालों से भागती सरकारें’ विशेषांक का नव-कलेवर।
सजग पाठक सब जानते ही हैं इसलिए संक्षेप में कहें, तो ऐसे ही आपने देखा होगा ‘शीतल वाणी’, ‘रचना समय’, ‘हंस’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘सबलोग’, ‘जन मीडिया’, ‘पाखी’, ‘साहित्य अमृत’, ‘वाक्’, ‘तद्भव’ ‘सोच विचार’ आदि पत्रिकाओं के ताजातरीन अंक। अपने समय की विचारवाही पत्रिका समयांतर को कैसे भूल सकते हैं आप जिन्होंने अपनी पत्रिका के जनवरी-2019 अंक को दो दशक के साहित्य और संस्कृति पर केन्द्रित किया है। परिकथा का जनवरी-फरवरी, 2019 अंक के बारे में अवश्य ही सुन रखा होगा जो नव-लेखिकाओं के रचना-संसार पर केन्द्रित है। यदि आप पढ़ने की शौकीन हैं, तो हंस का पिछला विशेषांक ‘नवसंचार के जनाचार’ अवश्य ही पढ़ा-देखा होगा। अपनी तरह की अलग पत्रिका जिसने विशेष रूप से आपका ध्यान खींचा होगा-‘इंडिया इनसाइड’ का ताजा अंक जो ‘साहित्य के समकाल’ का पड़ताल करती है। यह लघु पत्रिकाओं की अपरिमित ताकत ही है कि शुद्ध मुनाफ़े वाली व्यावसायिक पत्रिकाओं ने भी साहित्य वार्षिकी निकाला है। ‘इंडिया टुडे: 2018’ का अंक देखें जिसका शीर्षक ही शानदार है-‘रचना का जनतंत्र’। मेरी अपनी सीमाओं के कारण बहुत-सी उल्लेखनीय पत्रिकाओं का नाम छूट जाना स्वाभाविक है; पर मेरा इरादा यहाँ महज़ पत्रिकाओं का नाम गिनाना मात्र नहीं है; बल्कि उनकी अनिवार्यता की ओर संकेत करने मात्र का है।
कहना न होगा कि हर पत्रिका ने अपनी तरह से अपने मौजूदा समय के महत्त्वपूर्ण लेखकों से जरूरी सामग्री इकट्ठा कर/जुटा कर पाठकों को समृद्ध करने का बीड़ा उठाया है। उन्हें भरा-पूरा करने के लिए रचनात्मक सामग्री जुटाया और अथक मेहनत संग सम्पादित कर हम पाठकों तक पहुँचाया है। ऐसे सम्पादको का शुक्रगुजार होना लाजमी है जो समय के बनैले त्रासदियों और उसकी चपेट से हमें बचाना चाहते हैं। दूरदर्शी सम्पादकों के प्रति हमारा सर इस कारण भी झुक जाता है कि वे अपनी पूरी जिंदगी खपाकर हमें बचाने में जुटे हुए हैं। उन रचनाकारों को भी हम दिल से आभारी हैं जिन्होंने अपनी भूख की जगह हमारे भविष्य की चिंता करना जरूरी समझा है। वे जानते हैं कि भूकम्प आने से ठीक पहले तक ज़मीन पर दरारें नहीं हुआ करती हैं; सुनामी आने के ठीक पहले तक किनारों पर भगदड़ नहीं मचे होते हैं; लेकिन जब अन्धकारा को लगातार गाढ़ा और पैना किया जा रहा हो तो देर-सवेर हमारे उजाले के परखच्चे उडेंगे ही उडेंगे। हमारी खुशहाली में डाका पडेगा ही पडेगा। इसे नौजवान पीढ़ी भले न देख पा रही हो, लेकिन अनुभवी आँखें अपनी इंद्रियों से संभावित खतरों को भाँप लेने में सक्षम है, समर्थ है। ऐसे सम्पादकों में किन-किन का नाम का नाम लिया जाए, लेकिन जिन्होंने भी अपनी साहस और जीवटता के बूते पत्रिकाओं को जिंदा रखा है उनके प्रति हमारा कृतज्ञ होना जरूरी है।
लेकिन हम पाठक क्या सचमुच भरोसे के काबिल हैं? क्या हने इन पत्रिकाओं के महत्त्वपूर्ण अंकों को खरीदा है। अपने डाक के पते पर शुल्क देकर मंगाया है। यदि नहीं, तो फिर हम कैसे पाठक हैं! सोचना होगा। क्या हममें इतनी भी सदाशयता नहीं बची है कि हम विचारों को महत्व दें। अपनी रूह में उन पत्रिकाओं के शब्दार्थ को शामिल करें। हमारे लिए तमाम कठिनाइयों को झेलती, बर्दाश्त करती इन लघु पत्रिकाओं को जिंदा रखने में हमारा कोई फ़र्ज नहीं है? कोई भूमिका नहीं है? हमें सोचना होगा कि बाज़ारवादी आक्रमण और पूँजीवादी धौंस के बावजूद पत्रिकाएँ बची हुई हैं; येन-केन-प्रकारण नियमित प्रकाशित हो रही हैं तो पाठकों के नेकदिली और भरोसेमंद साथ के ही कारण। संख्या में बेहद कम किन्तु सहृदय और संवेदनशील पाठक कुल के बावजूद अपना जान निसार किए हुए हैं। उनकी मेहरबानी और दिलचस्पी ही लघु पत्रिकाओं की असल ताकत है। ऐसे पाठक मनस्वी होते हैं जो अपनी पत्रिकाओं को दुलारते हैं। समय से सहयोग और न्यनतम सदस्यता शुल्क नवाज़ते रहते हैं। बाद बाकी, तो मुँह बाये ऐसे लोगों की टोली हैं जिनमें लिखने-छपने की ललक तो ग़जब होती है पर पत्रिकाओं को महीने-दर-महीने खरीदकर पढ़ना गुनाह लगता है। पत्रिकाएँ भी आजकल दाम में कुल महंगाई बढ़ोतरी के बाद भी पचास रुपए की कीमत के आस-पास टंगी है। कुछेेक विशेषांकों की बात छोड़ दें, तो पत्रिकाओं के साधारण अंक प्रायः 100 से नीचे के ही होते हैं।
तिस पर भी सम्पादकों के सामने विकट संकट यह होता है कि सदस्यता शुल्क पाठकों से बड़े आग्रह-अनुरोध के बाद मंगाने होते हैं। बिक्री केन्द्रों का बर्ताव तो और ठस एवं गैर-जिम्मेदाराना है। ऐसे में पढ़े-लिखें लोगों से ही उम्मीद-अपेक्षाएँ सर्वाधिक है। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि कहाँ चली जाती है पूरी दुनिया को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले लोगों की ईमानदारी, निष्ठा, लगाव और पाठकीय प्रतिबद्धता जो सम्पादक को अपने लिए आर्थिक सहयोग ख़ातिर भी मान-मनुहार करना पड़ता है। नौकरी के लिए ललायी नई पीढ़ी की उदासीनता ने भी इस संकट को और गाढ़ा किया है। विचारों के ग्रहण-बोध की उनकी सहज लगाववृत्ति को मौजूदा परिवेश नेे नज़र लगा दी है, लेकिन उनकी खुद की नियत भी सही नहीं है। उनकी आँख बिना किसी दृष्टि-दोष के कुछ भी सही नहीं देख पा रही है। अधिसंख्य युवा अलग-अलग खाँँचें में उलझे हुए हैं। शब्दों की गंभीरता और विचारों की ताकत से नावाकिफ़ ऐसे युवजन यदि पत्रिकाओं को खरीदकर पढ़ने मात्र लगें, तो लघु-पत्रिकाओं के समक्ष खड़ा एक बड़ा संकट हल हो जाएगा। आर्थिक मोर्चे पर आत्मनिर्भर होने से ये पत्रिकाएँ विचारों के स्तर पर अधिक सशक्त और प्रभावशाली होंगी। इन पत्रिकाओं से जुड़े स्वतन्त्र लेखकों को भी कुछ आर्थिक सहूलियत हो सकेंगी।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...