Sunday, October 24, 2010

राजनीति में युवा


20वीं शताब्दी युवा राजनीतिज्ञों की सक्रियता और सार्थक हस्तक्षेप का साक्षी रहा है। अतीत के स्वर्णीम पन्नों में दर्ज अनगिन युवा रणबांकुरों की बात न भी करें तो स्वतंत्रता बाद जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उभरा ‘युवा तुर्क’ भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक नवजागरण का ‘कोपरनिकस प्वाइंट’(बदलावकारी बिन्दु) साबित हुआ जिसके मूल-स्तंभ रामधन, ओम मेहता, कृष्णकांत, चन्द्रशेखर और मोहन धारिया थे। कर्मठ, जुझारू और राजनीतिक संचेतना से संपन्न इन युवा तुर्कों ने अपने बाद की युवा पीढ़ी को काफी मजे से मांजा। उनमें लोकचेतना का राजनीतिक टान पैदा किया। इस पाठशाला में तपकर कुंदन बनने वालों में जार्ज फ्रर्ण्डांडिस, लालू यादव, मूलायम सिंह यादव, नीतिश कुमार, शरद यादव जैसे सैकड़ों छात्र-नेता शामिल थें जिन्होंने मुख्यधारा की राजनीति में सफलतापूर्वक अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की।
90 के दशक में युवा-राजनीति की सक्रियता को छात्र-संघ ने रसद-पानी उपलब्ध कराया। लोकतंत्र की बुनियाद पक्की हो इस परिकल्पना के साथ राष्ट्रीय स्तर पर युवा-संसद की पृथक योजना बनी। 1988 ई0 में देश के सभी केन्द्रीय विद्यालयों से शुरू हुई यह योजना 1997-98 आते-आते पूरे देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के लिए लागू कर दी गई। यह राजनीति में युवा-दखल का निर्णायक दौर था। युवा-संचेतना का सूत्रपात जो वैकल्पिक युवा राजनीति को तराशने में जुटा था। यह आजादी के स्वप्न बेचते बुजुर्ग राजनीतिज्ञों को विदा करने का वक्त था जो स्थापित गणतंत्र में घिनौनी राजनीति का षड़यंत्र रच रहे थे। राजनीति में दाखिल नई पौध भूख, गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी से त्रस्त जनता के लिए उम्मीद की किरण सरीखा उभरी थी। उसकी उपस्थिति मात्र असंतोष की राजनीति से उबरने का भरोसा दिला रहा था।
वहीं दूसरी ओर 20वीं सदी का अंतिम दशक गवाह था-सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के अधोपतन का। बोफोर्स तोप घोटाले के रहस्योद्घाटन का जिसमें शामिल राजनीतिक दलाल देश की प्रतिष्ठा कौड़ियों के भाव बेच रहे थे। ‘भ्रष्टाचार’ को वैधानिक रूप से आत्मसात कर चुके नौकरशाहों के लिए यह एक कठिन दौर था क्योंकि जन सरोकार से जुड़े युवा राजनीतिज्ञों की प्रथम प्राथमिकता थी जल-जंगल-जमीन को हर हाल में बचाना जो अवैध धंधा करने वालों के लिए किसी ‘गुप्त खजाने’ से कम न था। उस घड़ी राजनीतिक युवा समाज सापेक्ष राजनीति की नींव रख रहे थे जिसके लिए ‘विजन 2020’ के परिकल्पनाकार डॉ0 अब्दुल कलाम आज की तारीख में ‘विकासपरक राजनीति’ शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं।
जनसरोकार के मुद्दों से रींजे-भींझे इन युवा-नेताओं से जनता की अपेक्षाएं बहुत थीं। वह इनको परिवर्तनकामी राजनीति का वाहक मान चुकी थी जो उनकी समस्याओं से सर्वाधिक संपृक्त थें। मसलन चन्द्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अरुण जेटली, अजय माकन, सीताराम येचुरी, प्रकाश करात, लालू प्रसाद, नीतिश कुमार, शरद यादव तथा मूलायम सिंह आदि जीवट युवाओं के जेहन में जेपी आंदोलन की आग और तपिश शेष थी। वे इस बात से भिज्ञ थें कि राष्ट्र बदलाव के संक्रमणकारी दौर से गुजर रहा है। देश की पारंपरिक अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थ-नीति को वरण करने को आतूर है। उदारीकरण और भूमंडलीकण कौटिल्य के अर्थशास्त्र के उलट ‘कानन-कुण्डल बसै’ की तर्ज पर अपनी छाती से चिपका लेने को लालायित है।
युवा-राजनीतिज्ञ ने उस समय सबसे बड़ी भूल की कि वे नव-साम्राज्यवादी ताकतों को पूरी तरह थाह पाने में असफल रहे। उन्हें इस बात का थोड़ा भी आभास न था कि वैश्विक नीति को अपना चुका भारत आगत भविष्य में कई तरह की समस्याओं से घिरने वाला है। यहां तक कि सभ्यजनीन जन-संस्कृति और जन-समाज पर भी धावा बोला जा सकता है। आधुनिकता के साथ जुड़वां बहन बन भारतीय दहलीज में दाखिल हुई उत्तर आधुनिकता भारतीय जीवन-मूल्य को तहस-नहस कर देगी। मूल्य, आदर्श, नैतिकता, सद्व्यवहार और सदाचरण जैसे सनातन सिद्धांत को नवनिर्मित भारतीय भूगोल निकाल-बाहर कर देगा।
एक तरफ राष्ट्र विदेशी पूंजी आधारित मुक्त अर्थव्यवस्था का स्वाद चख रहा था तो दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियां संसदीय राजनीति के केन्द्रीय ताकतों पर नकेल कसने की जुगत में थीं। तत्कालिन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह तारणहार की भूमिका में वाहवाही लूट रहे थे तो दूसरी ओर युवा तुर्क चन्द्रशेखर चिंता जाहिर कर रहे थे-‘उदारवाद की आर्थिक नीति देश को अंततः अराजकता की ओर ले जाएगी।’ आज देश में उसी अराजकता का बोलबाला है। देश की 40 फीसदी आबादी भूखी है, 80 फीसदी आबादी 20 रुपए दैनिक मजूरी पर अपना पेट पाल रही है तो करोड़ों-करोड़ युवा बेराजगारी का दंश झेल रहे हैं। समस्याएं विकराल हैं तो समाधान सीमित। युवा-राजनीतिज्ञों का स्वर्णीम दौर बीत चुका है-‘यूथ(लवनजीत्रलवनत जीवनहीज) टाइम इज ओवर इन इंडियन पॉलिटिक्स, बट फूथ(थ्ववजीत्रथ्ववसे जीवनहीज) टाइम इज बिगनिंग’।
यों तो 21वीं सदी का प्रथम दशक गवाह है इस बात का कि दो लोकसभा चुनावों में युवा राजनीतिज्ञों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और धमाकेदार जीत हासिल की। इनकी उपस्थिति युवाओं के लिए प्रेरणास्पद है यह अध्ययन-विश्लेषण का विषय है। लेकिन लोगों में एक बार फिर यह आस अवश्य जगी है कि सामयिक मुद्दों के प्रति युवा राजनीतिज्ञ अधिक संवेदनशीलता, संलग्नता एवं सहभागिता के साथ पहलकदमी करते दिखेंगे। भारतीय संसद में युवा-हस्तक्षेप का प्रतीक बनकर उभरे नामों में राहुल गांधी, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अखिलेश यादव, वरुण गांधी, अगाथा संगमा, दिया मिर्धा, मीनाझी नटराजन, ए. राजा, शहनवाज हुसैन, उमर अब्दुल्ला आदि शामिल हैं। आंकड़ों में इन नामों की भागीदारी 545 सिट वाले ‘लुटियन संसद’ में 33 फीसदी है जिनकी उम्र 40 वर्ष से नीचे है। यह संख्या भारतीय राजनीतिक भूगोल की दृष्टि से भी एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि इन आंकड़ों को 55 फीसदी युवा धड़कनों की पहचान और उनके प्रतिनिधित्व का पूरक माना जा रहा है। सच्चाई क्या है? आइए जानें।(जारी...)

युवा किस ओर...?


भारतीय युवा जनतांत्रिक समाज का नवीन प्रवर्तक तो सांविधानिक इकाई का महत्वपूर्ण घटक है। युवा अर्थात एक ऐसा वर्ग, जो मेहनती, ऊर्जावान, दिलेर, जांबाज, स्वाभिमानी, राष्ट्रभक्त और देशप्रेमी हो जिसकी चेतना जीवित हो। रक्त में स्फुर्ति और ताजगी हो। उपस्थिति अलहदा, तो विचार जुदा हो। जो अंतर्मन की आंख से भविष्य में ताक-झांक करने में निपुण हो। यानी युवा एक ऐसा शब्द है, जो सर्वगुणसंपन्न भले ना हो किंतु नूतन-नवीन गढ़ सकने में प्रवीण अवश्य हो। यथार्थ जो भी हो। युवा होने का अर्थ कमोबेश यही समझा जाता है। फिलहाल राष्ट्रीय मानव-संपदा के रूप में ये युवा देश की अंदरूनी ताकत और श्रेष्ठता का पर्याय हैं जिन पर 1 अरब आबादी वाला देश हिन्दुस्तान मजे में गुमान कर सकता है।
कई देश जो इस बात को लेकर चिंतित हैं कि उनके यहां युवा उम्र के लोगों की तादाद तेजी से घट रही है जबकि बुढ़ाते जा रहे लोगों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी जारी है। भारत में युवाओं की संख्या 55 फीसदी से अधिक होना वाकई गर्व करने की हिम्मत और अवसर देता है। आधुनिक साम्राज्यवादी देशों में अगुवा राष्ट्रों का भारतीय युवाओं के प्रतिभा, गुण एवं दक्षता पर रीझना और उनके सम्मुख बिछना सुखद अनुभूति का अहसास कराता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरान तक का भारतीय युवाओं के बड़प्पन में कसीदे काढ़ना अब झांसा कम उनकी विवशता अधिक मालूम पड़ती है। खुद को महाशक्ति साबित कर तीसरी दुनिया पर राज करने वाले ये बौने देश जान गए हैं कि अब उनकी अर्थव्यवस्था का ऊंट ज्यादा देर खड़ा नहीं रह सकता। और न ही विकासशील राष्ट्रों के उन ताकतवर जिराफों से टक्कर ले सकता हैं जिन्हें वे पिछड़ा, असभ्य और कमजोर-फिसड्डी कहने की भूल करते आए हैं।
इस घड़ी हमारे देश के युवा कई मोर्चे पर जबर्दस्त लड़ाई लड़ रहे हैं। वे आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक और धार्मिक हर मोड़ पर संघर्षशील हैं। कहीं मंदी से उबरने की छटपटाहट है तो कहीं खाप पंचायत की मध्ययुगीन सोच से टकराने की कशमकश। परिवार के स्तर पर ‘अपनी आजादी, अपने हाथ’ लेने को इच्छुक युवा-पीढ़ी आधुनिकता-बोध से लैश है। आज के युवा अपना आग-पाछ सब जानते-समझते हैं। वे इतने आत्मविश्वासी और सक्षम हैं कि उसूलों का ‘कैप्सूल’ खा कर नियम, कानून, मर्यादा, नैतिकता और शुचिता के प्रश्न को हल करना उन्हें नहीं सुहाता। आज के युवा मोबाइल पर चैटिंग करते हुए मां का चरण छूते दिख रहे हैं तो दूसरी ओर मंदिर के आगे चलते-चलते मस्तक नवाना भी नहीं भूल रहे।
सबसे अलहदा और अजूबा स्थिति है धर्म के मामले में। आज की युवा पीढ़ी अयोध्या पर आये फैसले पर हंसते हुए प्रतिक्रिया देती है-‘यार! हमारे देश में भगवान से ज्यादा ऊंचा तो भगवा है।’ यह सतही हंसी-ठट्ठा नहीं है। यह हमारे देश के उन युवाओं की व्यावहारिक अनुभव का दर्शन, सिद्धांत या कहें फलसफा है जो बाजार बनती राजनीति में धर्म को शामिल करना नहीं चाहते हैं। वे मजहबी मुल्लाओं और पंडे-पुजारियों के आह्वान पर झूठ-मूठ का सिर कटाने वालों में से नहीं है।
अनेक क्षेत्रों में अपनी समस्याओं, तकलीफों, चुनौतियों, तनाव, अवसाद और कुंठाओं से युद्धरत ये युवा राजनीति में भी अपनी दखल और दावेदारी को ले कर दृढ़प्रतिज्ञ हैं। राजनीतिक संचेतना से ओत-प्रोत युवा समाज इस बात से वाकिफ है कि आज राजनीति हिंसा, अपराध, अराजकता और भ्रष्टाचार की लपेट में है। गांधी, लोहिया और जयप्रकाश मन-भुलावे के हथियार हैं जिनके झंडाबदार स्वयं को गांधीवादी, समाजवादी और युग प्रवर्तक आंदोलनकारी कहते फिर रहे हैं? राजनीतिक विरासत को अक्षुण्णय बनाये रखने के नाम पर तारीखाना बरसी मनाते इन राजनीतिज्ञों की सच्ची कथा जगजाहिर है। किया-धरा सबके सामने है। हिंसा, अपराध, लूट, आगजनी, दंगा और फसाद के बल पर बटोरे पूंजी द्वारा राजनीतिक टिकट पा संसद और विधान-सभा पहुंचे इन नेता-मंत्री-हुक्मरानों को युवा-पीढ़ी फूटी कौड़ी पसंद नहीं कर रही। वे हर हाल में बदलाव चाहते हैं। सिनेमाई परदे पर ‘रंग दे बसंती’, ‘युवा’ जैसी फिल्में उनकी दर्द बयां कर रही है। राजनीतिक संचेतना के निर्माण में जुटे ये कर्मठ युवा राजनीति में वंशबेलि के वृक्ष को साफ करने खातिर औजार गढ़ रहे हैं। कलतक राजनीति से दूर भागने वाले युवा राजनीति से प्रेरणा ले रहे हैं। मानसिक शब्दकोष में राजनीति से घृणा और नफरत सम्बन्धी जो पूर्वग्रह या धारणा गाद-मवाद बन पैठी थी उसे वे धो-पोंछकर कुछ नया रचने के फिराक में हैं। वहीं दूसरी ओर आम-आदमी आज भी सपने में आजादी का जश्न मना रहा है। जनतंत्र का बेसुरा रिकार्ड बज रहा है-आजादी के 64 वर्ष, गणतंत्र के 61 वर्ष, नक्सलबाड़ी के 44 वर्ष, सम्पूर्ण क्रांति का 36 वर्ष। ऐसा युवा न होने की वजह से है या कुछ और। यह फैसला आप खुद करें....तो बेहतर है।

Saturday, October 23, 2010

संचार: भारतीय और पाश्चात्य दर्शन


संचार संबंधी भारतीय अवधारणा के बारे में जानना काफी रोचक और दिलचस्प होगा। आधुनिक संकल्पना में अन्तर्राष्ट्रीय संचार एवं संवाद की बात जोर-शोर से की जाती है, जो भारतीय चेतना और स्मृति में गहरे व्याप्त है। भारत में केवल अंतःवैयक्तिक संचार के कई ऐसे अनछुए पहलू हैं, जो मनुष्य की आंतरिक सक्रियता को सूक्ष्म और सूक्ष्मेतर ढंग से व्याख्यायित करती हैं। साहित्यकार निर्मल वर्मा के शब्दों में-‘‘गंगा महज एक नदी नहीं, हिमालय सिर्फ पहाड़ नहीं, वाराणसी और वृंदावन महज शहर नहीं हैं। मनुष्य का अतीत संग्रहालयों में बंद नहीं है, न ही उसके देवता यूनानी देवताओं की तरह पौराणिक काल के स्मृति-चिन्ह्र हैं। मिथक और यथार्थ, पौराणिक स्मृति और वर्तमान जीवन, देवता और मनुष्य आज भी एक साथ रहते हैं। सैकड़ों विश्वासों, आस्थाओं, समृतियों और संस्कारों का यह संगम और पारस्परिक संपर्क-संवाद केवल भारतीय संस्कृति में ही संभव हो सकता था-जिसमें संपूर्ण मनुष्य की परिकल्पना निहित रहती है।’’
यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि भारतीय मानस संचार की अंतः-प्रेरणा को सिर्फ अपने भीतर समेटे रखने का आदी नहीं है। यहां विचारों, अनुभवों और जानकारियों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी सतत् प्रवाह है। यह परकाया प्रवेश की स्थिति है। भारतीय परंपरा में संवाद-चर्चा या शास्त्रार्थ का प्रभाव हर जगह विद्यमान है। ऋग्वेद में संवाद-सूक्त के अन्तर्गत दशम मंडल में सरया-पणि(कुतिया और गौ) संवाद है, तो यम-यमी तथा पुरूरवा-उर्वशी संवाद का भी उल्लेख है। मण्डल तीन में विश्वामित्र और नदी संवाद एवं कठोपनिषद् में नचिकेता-यम के बीच अद्भुत संवाद प्रकरण है। बृहदारण्यक में याज्ञवल्क्य ऋषि का मैत्रेयी और गार्गी से संवाद स्मरणीय है। इसी तरह रामचरितमानस में शिव-पार्वती संवाद और काकभुसुण्डी-गरुण संवाद भारतीय संचार की पारंपरिकता का शाश्वत प्रमाण हैं। इन अन्तर्वैयक्तिक संवादों में पूरी सृष्टि का लोक-व्यवहार समाहित है।
भारतीय संचार-पद्धति में अंतःवैयक्तिक संचार एवं अंतर्वैयक्तिक संचार के अतिरिक्त समूह संचार के भी साक्ष्य मौजूद हैं। रामचरित मानस में वर्णित याज्ञवल्क्य ऋषि का ऋषि-सभा में संवाद तथा सुत्तपिटक् में महात्मा बुद्ध का अपने शिष्यों से संवाद उदाहरण हैं। ये शिष्य मत-नेता(व्चपदपवद स्मंकमत) होते थे, जिनका दायित्व गुरु की बातों को लोक में प्रचारित-प्रसारित करना होता था। संचार की भारतीय अवधारणा को समझने के लिए आत्म-चेतना और आत्म-दृष्टि का सर्वप्रथम विकास किया जाना आवश्यक है अन्यथा आधुनिक तकनीक और प्रौद्योगिकी आधारित संचार-तंत्र ही सर्वगुण संपन्न एवं सर्वशक्तिमान मालूम होंगे, जिनका हाल के दिनों में बतौर आयातित संस्कृति भारत में दखल तेजी से बढ़ा है।
हाल ही में ब्रिटेन में किए गए एक सर्वेक्षण से स्पष्ट है-‘‘अब व्यक्ति को किसी से सीधे संवाद या संपर्क रखने और आसपास के लोगों के सुख-दुख में शरीक होने के बजाय आभासी संबंधों(टमतजनंस त्मसंजपवद) में ज्यादा दिलचस्पी है। आवाजों, शब्दों, गतियों, और रंगों की हर पल गतिमान बदलती आभासी दुनिया में खोया रहने वाला व्यक्ति न सिर्फ अकेला होता है, बल्कि सार्थक सामाजिक संबंध बना पाने के लिए भी नाकाबिल हो जाता है। इस स्थिति में नेट सर्च करना, ई-मेल करना, चैटिंग, सोशल नेटवर्किंग और टीवी देखना वास्तविक जीवन के प्रत्यक्ष सुख से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं।’’
इस बात से इन्कार संभव नहीं है कि आज संबंधों में आत्मीयता के लिए जगह घटी है। सामाजिक वातावरण में मानवीयता के लिए स्थान सुरक्षित नहीं है। भारत प्रकारांतर से जीवन के जिस अनुभवजनित विचार-दृष्टि को सांस्कृतिक विरासत का संवाहक मानता आया है, वह आज नष्ट होने की कगार पर है। साहित्यकार निर्मल वर्मा के शब्दों में-‘‘भारतीय संस्कृति का मनुष्य और सृष्टि से संबंध सार्वभौमिक संपूर्णता के आदर्श पर आधारित रहा है। भारतीय संस्कृति में आज भी समस्त विकृतियों मसलन ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड, दकियानूसी आचरण, अंधविश्वास आदि के बावजूद वे तत्व मौजूद हैं, जिनके रहते मनुष्य को कभी इतनी स्पर्धा और अहम्केन्द्रित अभिमान नहीं हुआ कि प्रगति की लालसा में वह सृष्टिगत अनिवार्य संबंधों का ही संहार कर दे।’’
यह ब्रिटिश राजनीतिज्ञ लार्ड मैकाले की उस चिंता का निराकरण है, जिसमें उसने स्वीकार किया था-‘‘हम भारत में पश्चिमी संस्कृति का प्रभुत्व तब तक स्थापित नहीं कर पायेंगे, जबतक भारतीय शिक्षा पद्धति से संस्कृत भाषा को पूरी तरह निष्काषित नहीं कर देते।’’
यह सोच या विचारधारा मैकाले की व्यक्तिगत नहीं है। पूरे पश्चिम की अवधारणा संकीर्ण और पूर्वग्रह से ग्रसित है। असल में उनका समाज भारत की तरह सांस्कृतिक बहुलता और बहुभाषिकता से परिचित नहीं है और न ही उनमें एशियाई समाजों की भांति खुला सांस्कृतिक आदान-प्रदान हो सका है। पश्चिम का संबंध दूसरी संस्कृतियों से हमेशा शक्ति आधारित रहा है। जिस कारण किसी और समाज की बौद्धिक संपदा की सराहना और उसे पचा सकने की प्रवृति उनमें नहीं है। खासकर भारत जैसे समाज की तो हरगिज ही नहीं, जो कभी पश्चिम का उपनिवेश रह चुका है।
यूरोपीय विचारों के इतिहास में ज्ञानोदय का प्रादुर्भाव महत्वपूर्ण माना गया है। ज्ञानोदय का अर्थ विवेकवाद, तकनीकी केन्द्रीयता, ज्ञान और उत्पादन का मानकीकरण, रैखिक प्रगति, सार्वभौम और निरपेक्ष सत्य में विश्वास का प्रतिनिधित्व करने से है। इस चिंतन का असर तत्कालीन समाज पर इतना ज्यादा था कि पूरी दुनिया एक खास तरह की विचारधारा में समेटी जाने लगी। पश्चिम में पनपे विचार कसौटी बन गए, जिस पर दुनिया की सभी ज्ञान-परम्पराएं जांची-परखी जाने लगीं। यूरोप के ही एक चिंतक हाइडेगर ने इस प्रवृति को ‘धरती का यूरोपीकरण’ की संज्ञा दी है।
प्रसंगवश, यदि हम पश्चिमी चिंतक जिजेक के हवाले से कहें, तो-‘‘इसमें कोई शक नहीं है कि हमारी सोच किसी न किसी स्थापित विचारधारा से निकलती है और हमारे जीवन का हर आयाम उससे प्रभावित होता है। जाने-अनजाने पूंजीवादी विचारधारा ने पिछले सौ वर्षों में समाज के हर आयाम को प्रभावित किया है। इसने न केवल सामान्य लोगों के दैनिक जीवन को अपने अनुसार ढाला है, बल्कि विरोध के हर स्वर को पूंजीवाद के समर्थन के स्वर में तब्दील कर दिया है।’’
आलोचनात्मक यथार्थवाद के प्रवर्तक रॉय भास्कर के अनुसार यथार्थ की एकांगी समझ के कारण चिंतन भी एकपक्षीय हो गया है। भौतिक सुखों के बहुतायत के बावजूद समाज घोर मानसिक संताप से गुजर रहा है। संचार के साधन बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन साथ ही मनुष्य एकाकी होता जा रहा है। मनुष्य जीवन के सूक्ष्मतम अनुभवों से वंचित है। ऐसे में हिंसा, अपराध, आत्महत्या आम बात हो चली है। यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि इससे समाज तो हिंसक होगा ही, मानवता के लिए भी संकट उत्पन्न हो जाएगा।
यदि हम संचार के परिप्रेक्ष्य में विचारधारा की बात करें, तो पाएंगे कि विचारधारा एक संपूर्ण विश्व-दृष्टि को व्यक्त करने वाले सिद्धांत की तरह प्रयुक्त होता है, जबकि सिद्धांत को किसी विचारधारा की पूर्वपीठिका नहीं माना जा सकता है। वैसे यह विवाद का विषय है, लेकिन कई बार स्वयं संचार-माध्यमों की भी अपनी विचारधारा होती है। भारत के बारे में, ब्रिटेन के संचार-माध्यम की जैसी सोच है, वैसा ही रूस भी सोचे या अमेरिका भी इसी नजरिए से भारत को देखे, यह जरूरी नहीं। मार्क्स और एंगेल्स ने संचार-संबंधी जो अवधारणा प्रस्तुत की है, उनके अनुसार-‘‘संचार के लिए प्रस्तुत विचारों का संबंध सिर्फ चेतना से नहीं होता है। वह समाज की भौतिक स्थितियों से पैदा होते हैं। खुद चेतना का अस्तित्व भौतिक और स्थूल स्वरूपों से है। जो भी नया वर्ग अपने से पहले शासन करने वाले वर्ग के स्थान पर अपने को प्रतिष्ठित करता है, अपनी लक्ष्य सिद्धि की खातिर ही अपने हित को समाज के तमाम सदस्यों के समान हित के रूप में प्रस्तुत करने के लिए बाधित होता है। यहां नए विचारों को इस रूप में प्रस्तुत करना होता है, जैसे यह किसी एक वर्ग के नहीं बल्कि पूरे समाज के विचार हैं।’’(समाप्त)

संचार: सवाल और संकट


संचार की व्यापकता तथा संचार संबंधी भारतीय अवधारणा को समझने के लिए वैचारिक मूल्यांकन का क्रमबद्ध विश्लेषण जरूरी है। साथ ही यह पड़ताल भी आवश्यक है कि सूचनाओं के शक्ति को लक्ष्य कर हम जन-समाज या जन-संस्कृति( की जिस आधुनिक शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं, उसका सार्वभौमिक महत्व कितना है। कहना न होगा कि भारत जैसे विकासशील देश में संचार-क्रांति के मायने बहुत हैं किंतु उपयोगिता सीमित है। वजह यह है कि गरीब तबके के लिए आधुनिक संचार प्रौद्योगिकी की क्षमताओं के उपयोग द्वारा अधिकाधिक लाभ पहुंचाने की राह में प्रभावी प्रयास किया जाना शेष है। साथ ही भारत के खेतिहर समाज, जिस पर देश के तीन-चौथाई हिस्से के भरण-पोषण का जिम्मा है, की आवश्यकताओं तथा उनकी जरूरत संबंधी मूलभूत प्रश्नों मसलन, निर्धनता, निरक्षरता, स्वास्थ्य और आर्थिक-सामाजिक विषमता का समाधान खोजा जाना अभी बाकी है। अन्यथा संचार-क्रांति का यह तामझाम महज साधन-युक्त सुविधा-संपन्न वर्ग के लिए ही हितकर साबित हो सकती है। जन-भागीदारी और जन-उपयोगिता के अभाव में उसका सार्वभौमिक मूल्य नील-बट्टा-सन्नाटा ही साबित होगा।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की चिंता लाजमी है-‘‘जिंदगी रोटी खाने और कपड़ा पहनने से अधिक भी कुछ है। दूसरे महत्वपूर्ण मूल्य भी हैं। लेकिन वे दूसरे मूल्य तब तक सामने नहीं आते जब तक भरपेट भोजन और जीवन की दूसरी जरूरतें पूरी न हों। आज हम भूखे व्यक्ति को सांस्कृतिक मूल्य आदि के बारे में प्रवचन नहीं सुना सकते। हमें उसे रोटी और काम देना है। यही आज हमारी समस्या है। हो सकता है कि दस या बीस साल बाद हमारी समस्या कुछ और हो। समस्याएं तो बदलते हुए समाज के साथ-साथ बदलती जाएंगी।’’
उनका इशारा जिन दूसरे मूल्यों की ओर था, उनमें सूचना-संचार का तकनीकी और प्रौद्योगिकीगत विकास भी शामिल था। एक जगह उन्होंने अपनी दृष्टि साफ की है-‘‘हम परिवर्तन के विरोधी बिल्कुल नहीं हैं।...लेकिन हमारा दृढ़ विश्वास है कि परिवर्तन जिन विधियों से लाए जाते हैं, वे स्वयं भी इन परिवर्तनों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। हमारा विश्वास है कि कोई भी परिवर्तन हमारी अपनी इच्छा से, हमारे अपने अनुभव के फलस्वरूप होना चाहिए और इसे किसी भी शक्ति या दबाव में लादा हुआ नहीं होना चाहिए। परिवर्तन के इस प्रयास में हमें जनता को अपने साथ ले चलने, उसका समर्थन पाने का भी प्रयास करना चाहिए। यही वह भावना है जिसके साथ हमने इस प्राचीन देश में राजनीतिक लोकतंत्र और आर्थिक न्याय के समन्वय पर आधारित एक प्रणाली विकसित करने का दायित्व लिया है।’’
इस संदर्भ में संचारविद् रेमंड विलियम्स की व्याख्या भी गौरतलब है-‘‘समाज वास्तव में संचार का एक रूप है जिसके जरिए हम अनुभवों का उल्लेख करते हैं, इनमें भागीदारी करते हैं तथा इनका संशोधन और संरक्षण करते हैं। हम अपने सामान्य जीवन का संपूर्ण ब्योरा राजनीतिक-आर्थिक संदर्भों में जानने, देखने और सुनने के आदी रहे हैं। अब संचार प्रक्रिया पर इस अनुभव के आधार पर बल दिया जा रहा है कि मनुष्य और समाज केवल सत्ता, संपत्ति और उत्पादन संबंधों तक सीमित नहीं है। अनुभवों के वर्णन, अध्ययन, अनुसरण और आदान-प्रदान से उनका सरोकार भी अब उतना ही मौलिक माना जा रहा है।’’
चूंकि जनमाध्यम विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनमत और जनसाधारण की सोच को निर्धारित करते हैं, जिससे न केवल जनसामान्य की जीवनशैली प्रभावित होती है अपितु सत्ता और शासन के ऊपर भी अपेक्षित प्रभाव पड़ता है। इस नाते यहां यह देखना महत्वपूर्ण है कि सूचना देने वाला कौन है और उसके द्वारा संचार माध्यमों का उपयोग किए जाने का उद्देश्य अथवा असली निहितार्थ क्या है? खासतौर पर यदि हमारा संचारक कोई राजनीतिज्ञ हो, तो यह भूमिका और अधिक ध्यान आकर्षिैत करती है। वैसे यह बेहद जरूरी भी है, क्योंकि भारत में संचार के सभी नए माध्यमों का सरकारी नियंत्रण की वजह से दुरूपयोग किया जा चुका है। स्वयं आपातकाल इसका उदाहरण है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल के बहाने प्रेस पर कब्जा कर लोकतांत्रिक विचारों को प्रतिबंधित बना डाला था।
इस विचित्र स्थिति का रेमंड विलियम्स आकलन करते हैं-‘‘ऐसे जनमाध्यमों का पहला उद्देश्य शासक समूह के निर्देशों, विचारों और दृष्टिकोणों को प्रसारित करना होता है। नीति के तहत वैकल्पिक विचारों, सुझाावों और दृष्टिकोणेां को छांट दिया जाता है। संचार माध्यमों पर एकाधिकार पूरी राजनीतिक व्यवस्था का अनिवार्य तत्व होता है। इसके तहत कुछ निश्चित प्रकाशनों, प्रकाशन समूहों, समाचार-पत्रों, थियेटरों और प्रसारण केन्द्रों को संचार की अनुमति मिलती है। शासक समूह कई बार इन्हें अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखकर स्वयं ही यह तय करता है कि क्या प्रसारित किया जाएगा?’’
संचारकर्मी पी. सी जोशी. के शब्दों में-‘‘संचार का विषय इतना गंभीर है कि इसे प्रौद्योगिकी, नौकरशाही और राजनीतिक अभिजात तथा व्यवसायी वर्गों के लिए ही नहीं छोड़ा जा सकता। इसमें असल भागीदार समाज-वैज्ञानिक, कला और संस्कृति के विशेषज्ञ, जमीनी स्तर के सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्त्ता तथा स्वयं जनता भी है, जो राजकीय क्षेत्र से बाहर किंतु सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक चिंतन का भंडार और भारत की आत्म-शक्ति है।’’
गौरतलब है कि दो दशकों के भीतर सूचना प्रौद्योगिकी ने समाज के पूरे ढांचे को अप्रत्याशित ढंग से बदल दिया है। यह भयावहता किस हद तक खतरनाक है, इस का उल्लेख भारतीय संचार विशेषज्ञ डॉ. जवरीमल्ल पारख अपने लेख ‘जनसंचार और विचारधारा’ में मिकोलस एन. स्जिलागी के उस कथन से करते हैं, जिसमें उसका मानना है कि सूचना क्रांति स्वतः ही राजनीतिक व्यवस्था को बदल देगी। आज जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं, यह उसे धराशायी कर देगी। राजनीति पर पैसे का दबाव खत्म हो जाएगा और उसका स्थान स्वतंत्र सूचना व्यवस्था ले लेगी। यह सूचना-व्यवस्था सभी सचेत नागरिकों के लिए व्यापक विविधता वाले राजनीतिक विकल्पों का प्रतिनिधित्व करेगी। इसमें भागीदारी सभी योग्य व्यक्तियों के लिए खुली होगी। प्रतिद्वंद्वी मत बिना किसी रोकटोक के प्रचारित किए जा सकेंगे, उनकी आलोचना और उन पर बहस की जा सकेगी। उनकी शक्ति सीमित और विकेन्द्रित होगी। वे नागरिकों के प्रति जवाबदेह होंगे। समाज में सफलता और प्रतिष्ठा राजनीतिक ताकत पर निर्भर नहीं रहेगी। प्रतिनिधिक लोकतंत्र का खात्मा हो जाएगा और जल्द ही इसका स्थान सूचना युग का लोकतंत्र ले लेगा, जो सबसे बेहतर होगा। मिकोलस एन. स्जिलागी एक ऐसे सूचना-तंत्र के हिमायती हैं, जिसके अनुसार जिसकी पहुंच सूचना-तंत्र तक होगी उसे ही वोट देने का अधिकार है। राजनीतिज्ञों का चयन विचारों की मुक्त प्रतिद्वंद्विता में से करने का विचार, वास्तव में अभिजात वर्ग की इच्छा का ही पक्ष-समर्थन है।(जारी...)

संचार: शक्ति और अभिसरण


यह निर्विवाद सत्य है कि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में तकनीक और प्रौद्योगिकी आधारित संचार की जरूरत प्राथमिक है। विश्व की हर स्थापित सत्ता संचार-शक्ति से परिचित है। मार्शल मैकुलुहान ने अपनी पुस्तक ‘अंडरस्टेण्डिंग मीडियाः दि एक्सटेंशन ऑफ मैन’ में माध्यम की महत्ता का जिक्र ‘माध्यम ही संदेश है’ के रूप में किया है, तो फ्रेन्क डांस ने अपने वर्तुल प्रारूप में संचार माध्यम को व्यक्तित्व संचार और ज्ञान-सृजन का पर्याय माना है। संचार का केन्द्रीय तत्व सूचना है, जो शक्ति का अक्षय स्रोत है। मीडिया विशेषज्ञ जे. एस. यादव के शब्दों में-‘‘सूचना ही शक्ति है। किसी समाज में सूचना का प्रयोग अपने हित के लिए करने की कला और विज्ञान ही प्रभाव और शक्ति का मुख्य स्रोत है। मानव इतिहास तो नए और अधिक से अधिक सह-ज्ञात प्रतीकों के सृजन की क्षमता का उत्तरोत्तर विकास का इतिहास है।’’
सूचनाओं का अकूत भंडार, संचार-शास्त्री एल्विन टॉफ्लर के शब्दों में ‘थर्ड वेब’ अर्थात ‘तीसरी लहर’ का जामा पहन चुका है। सूचना-संसाधन में मानवीय क्रियाशीलता के बढ़ते रूझान तथा सक्रिय भागीदारी की वजह से पूरा विश्व ‘सूचना राजमार्ग’ में तब्दील हो गया है। कल तक यह कहां संभव था कि आप दूरदराज के गांवों से टेलीकान्फ्रेंसिंग के जरिए संपर्क साध सकें? ब्रह्माण्ड में बिखरे सूचना-तरंगों को पकड़ अपेक्षित जानकारी हासिल कर सकें या फिर ‘सोशल नेटवर्किंग’ या ‘ब्लॉग’ की अविश्वसनीय ताकत का थाह ले सकें। भूमंडलीकरण का नामकरण इसी पहुँच की देन है, जहां दूरी की निकटता या अधिकता का प्रश्न ही ख़त्म हो गया है।
भारतीय ‘न्यू मीडिया’ के स्थापित संचार-विशेषज्ञ बालेन्दु दाधीच के शब्दों में कहें, तो-‘‘संचार के नए माध्यम सीमाओं के विरूद्ध कार्य करने वाली शक्ति के रूप में उभर चुके हैं। उसे न समय की सीमा प्रभावित करती है और न भौगोलिक सीमा। पारंपरिक रूप से मीडिया या मास-मीडिया शब्दों का इस्तेमाल किसी एक माध्यम पर आश्रित मीडिया के लिए किया जाता है, जैसे कि कागज पर मुद्रित विषयवस्तु का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रिंट मीडिया, टेलीविजन या रेडियो जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से दर्शक या श्रोता तक पहुंचने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। न्यू मीडिया इस सीमा से काफी हद तक मुक्त तो है ही, पारंपरिक मीडिया की तुलना में अधिक व्यापक भी है।’’

Friday, October 22, 2010

टूटती चारदीवारी और ख़तरे में पहरेदार बहुरुपिए


अपनी बात का सिरा मशहूर स्त्री-चिंतक सिमोन द बोउवार के बहाने से शुरू करें, तो ‘औरत जन्म से औरत नहीं होती बल्कि बनाई जाती है।’ यह आज के समय का नंगा सच है, जिसे आज की महिलाएँ शिद्दत से महसूस करने लगी हैं। विज्ञान और विवेक आधारित आधुनिकता की ढेर सारी बाधायें हैं, जो इसे निरंकुश, अराजक और अव्यावहारिक साबित करती हैं। स्त्री के बारे में हम संकीर्णवादी सामंती प्रवृति के शिकार हैं। वर्तमान संचार माध्यमों में स्त्री की छवियों को एक विशेष प्रकार के साँचे में उभारा जा रहा है। उसके देह का प्रदर्शन ‘चीजों’ या ‘वस्तुओं’ के साथ किया जा रहा है।
हाल ही में एक दैनिक अख़बार में छपे उस विज्ञापन को हम मिसाल के तौर पर चुन सकते हैं, जिसमें एक बाइक के प्रचार हेतु स्त्री छवि को इस संदेश के साथ उभारा गया था, ‘ड्राइव मी क्रेजी’। हम आसानी से देख सकते हैं कि आज हर बात नाटकीयता के लहजे में कैसे परोसी जा रही है। किसी उत्पाद के विज्ञापन में स्त्री को दिखाने की मंशा उन्हें सकरात्मक तरीके से ‘प्रमोट’ करना न हो कर स्त्री-सौंदर्य को सेक्स और ग्लैमर्स के हिसाब से दिखाना है। आधुनिक स्त्री को बाज़ार जबरिया इस्तेमाल करने पर तुला है। इसके पीछे बहुत बड़ी राजनीति है, जिसे महज स्त्री-विमर्श के नाम पर प्रोपगेंडा फैलाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी और आलोचक जिसमें बहुतेरे खुद भी पाक-साफ नहीं, की नियत पर संदेह व्यक्त करना लाज़मी है।
आज की बाज़ारवादी प्रवृतियों में स्त्री-चरित्र निरुपण के मसले पर लेखिका मन्नु भंडारी कहती हैं, ‘मीडिया ने स्त्री को बिकाऊ बना दिया है। विज्ञापनों में मोबाइल फोन की बगल में खड़ी अर्धनग्न लड़की की उपस्थिति के क्या मायने है? मेरा स्त्री पहनावे के प्रति रोष नहीं है, रोष इस बात पर है कि मीडिया ने वस्तु को बेचने के लिए स्त्री का सहारा लिया है। मीडिया ने स्त्री में यह मानसिकता पैदा की है कि स्त्री का शरीर ही उसकी शक्ति है और इस स्त्री ने अपनी शक्ति पहचान ली है। जबकि स्त्री को बाजार के विरूद्ध खड़ा होने की आवश्यकता है। उसे अपना मनचाहा उपयोग नहीं करने देना चाहिए।’
प्रख्यात पत्रकार सच्चिदानंद जोशी इस बारे में बेबाक शब्दों में कहते हैं, ‘आधुनिकता को परंपरा के साथ मिलाकर प्रस्तुत करने की जो भोंडी कोशिश हमारे माध्यमों के जरिए हो रही है, उस पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है। हम शालीनता और संस्कारों की सीमाएँ लाँघते जा रहे हैं। हमारी मान्यताओं, परंपराओं और संस्कृति पर निरंतर आधुनिकता, बाजार और उपभोक्तावाद के नाम पर आक्रमण होते जा रहे हैं।’
लब्बोलुआब यह है कि आज हम आधुनिकता का सीधा मतलब पोशाक और परिधान की रंगिनियों से लगाते हैं। उन युवाओं के प्रेम-प्रसंग से लगाते हैं, जो उच्च शिक्षण संस्थानों तथा विश्वविद्यालय परिसरों में तेजी से पनप रहा है। यह चीज भी आधुनिकता की ही देन मालूम पड़ती है, जहाँ झूठ, मक्कारी, ईष्र्या, घृणा, स्वार्थ तथा ‘यूज एंड थ्रो’ थ्योरी का वर्चस्व है। जरा याद कीजिए हाल ही में रिलीज फिल्म ‘देव डी’ का वह संवाद, ‘दिल्ली में बिल्ली मारकर खा लो, उसे पोसो मत।’ यहाँ बिल्ली का सीधा अर्थ लड़कियों से ही है, वैसे समझने वाले की समझदारी हजार।
यह पूरा सच नहीं है, लेकिन काफी हद तक पुरुष बिरादरी के लिए सोचनीय अवश्य है। आज अगर ‘वेलेंटाइन डे’ पर युवा-प्रेमियों पर लाठी बरसायी जा रही है या मंगलौर के एक पब में ‘श्रीराम सेना’ के अराजक तत्त्व हमला बोल रहे हैं, तो इसके पीछे का तर्क यही है कि आज के समय में भी समाज का एक तबका ऐसा भी है, जिसे अपने बेडरूम में गैर स्त्रियों का कपड़ा उतारना जँचता है, लेकिन ‘पब्लिकली’ यही खुलापन रास नहीं आता। ‘सेक्स स्कैण्डल’ या ‘कास्टिंग काउच’ की घटनाएँ इस बात की पुख्ता प्रमाण हैं।
स्त्री के साथ छेड़छाड़ और दुष्कर्म की घटनाएँ बदस्तूर जारी है। अख़बारी भाषा में इसका कारण बदनियति माना जाता है, जबकि यह बदनियती औरतों की प्रगतिशीलता को बाधित करने का सबसे बड़ा हथियार है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी तरह के सांप्रदायिक उन्माद, सामाजिक प्रतिशोध या फिर वर्ग-संघर्ष में सबसे ज्यादा जिल्लत-जलालत स्त्रियाँ ही झेलती हैं। सन सैंतालिस के बँटवारे हो या गुजरात दंगे, स्त्रियों के साथ हुई ज्यादतियाँ आधुनिक समाज का काला चिट्ठा खोलकर रख देती हैं। असल में, छिटपुट घटनाएँ जो हमारे समाज की स्वाभाव बन चुकी है। मनुष्य के अंतस में बसी उस पशुता या हैवानियत का द्योतक है, जो वह बनावटी मुखौटे में छुपा ले जाने की हरसंभव कोशिश करता है।
यदि हम आधुनिकता की बात स्त्री से जोड़ कर करें, तो चारदीवारी में कैद रहने वाली स्त्रियाँ निःसंदेह अब पहले से ज्यादा मुखर और अपने अधिकारों के प्रति सजग हुई हैं। आज की स्त्री स्वयं अपनी भाग्य-निर्माता है। उसे क्या करना है, यह उसे पता है। वह अपना मुकाम स्वयं तय कर रही हैं। चुनौतियों से जूझ रही है। देखा जा सकता है कि कल की तारीख तक हाशिए पर धकेली जा चुकी औरतें, आज केन्द्रीय विमर्श की विषय हैं। वे अपने हक के लिए खुलकर बोलने लगी हैं। चुप्पी तोड़ते हुए वे उस मुकाम को हासिल करने के लिए तत्पर हैं, जहाँ कल तक पुरुष वर्चस्व का डंका बज रहा था। देश की पहली महिला आॅटो चालक सुनीता चैधरी हों या एयर मार्शल पद्मावती वंद्योपाध्याय, सभी तमाम चुनौतियों को दरकिनार कर अपने अस्तित्व की लड़ाई मुस्तैदी से लड़ रही हैं।
बहरहाल, आधुनिक दौर की स्त्रियों ने पुरातन आदर्शों को वर्तमान व्यावहारिकताओं से बदल लिया है। वे धार्मिक व्रत-उपवास की जगह स्वास्थ्य को चुन रही हैं। सिमटी सिकुड़ी दूर-दराज की लड़कियाँ भी अब खुलकर हँसना-बोलना सीख गई हैं। अपने पक्ष के लिए लड़ पड़ना और अंत तक हार न मानना आज की स्त्री का तेवर बन गया है। अगर उनके लिए ‘लिव इन रिलेशनशीप’ या ‘विवाहेतर संबंध’ मुफीद है, तो है। कुछ लौह-मंशा वाली स्त्रियाँ निर्भिक ढंग से ‘समलैंगिकता’ जैसे विवादास्पद कहे जाने वाले विषय पर ‘फायर’ जैसी फिल्में बनाने की ‘दुस्साहस’ दिखा रही हैं, तो ऐसी स्त्रियों को निश्चय ही ‘सैल्यूट’ दागना चाहिए।
निस्संदेह, आधुनिक स्त्री का यह बदलता चेहरा पुरुषवादी सोच के लिए एक चुनौती बन खड़ा हुआ है। पुरुष समाज अप्रत्यक्ष रूप से नई कुंठाओं का शिकार है। उसकी निगाह में औरतों का अपनी सहूलियत और इच्छानुसार जीना, व्यवहार करना या पुरुषों से अप्रभावित रह कर अपनी यौनिकता का आनंद लेना अक्सर पुरुषों में एक विकृत और घातक मानसिकता को जन्म दे रहा है। सरेराह तेजाब फेंकना, छेड़छाड़ करना, बदसलूकी, अश्लील हरकतें, भद्दे कमेंट्स, कामकाजी औरतों पर लांछन, प्रेम-संबंधों में विफलता पर औरतों पर हमले पुरुष की औरतों संग की जाने वाली स्पर्धा का परिणाम कम लैंगिक वर्चस्व दिखाने की मानसिकता अधिक है। लेखिका पूनम सहरावत की बेचैनी उनके इन शब्दों में देखा जा सकता है, ‘इसमें कोई दो राय नहीं है। समय जरूर बदला है। समाज भी बदल रहा है। औरत की परंपरागत, सामाजिक, सांस्कृतिक छवि भी बदल रही है। लेकिन इसके साथ-साथ औरत को दुष्प्रचारित और दंडित करने के तरीके भी बदल चुके हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है आज के औरत की इस समकालीन पोजीशन और छवि से तालमेल बिठा पाने में अधिकांश मर्दों की असमर्थता।’
ख़ैर, आधुनिक विमर्शों के इस दौर में जहाँ स्त्रियों के अस्तित्व को ‘चिõित’ करने के नाम पर दैहिक शोषण का करतब हो रहा है। सार्वभौमिक उपयोगिता सिद्ध करने की खातिर एक ‘सिंथेटिक कल्चर’ पनप रहा है, जहाँ आधुनिकता का चोला ओढ़ी स्त्रियाँ कम कपड़ों में ज्यादा आज़ाद दिखने का दम भर रही हैं। यह दिखावा या छलावा, जिसमें कुल्हे मटकाती स्त्रियाँ मौजूद हैं, असल में आधी आबादी की प्रतिनिधि ईकाई नहीं हैं। इस बारे में स्त्री-मुद्दों की जानकार डाॅ0 रजनी गुप्त कहती हैं-‘पितृसत्तात्मक संरचनाओं के चलते आज की तथाकथित आजाद स्त्री की संपूर्ण आजादी जिसमें उसकी सामाजिक भागीदारी पुरुषों के समकक्ष हो, यह फिलहाल स्वप्न ही है। इस विज्ञान आधारित आधुनिक युग में आधुनिक सोच के तमाम दावों के बावजूद स्त्री की सामाजिक हैसियत में कोई बहुत बड़ी तब्दीली नजर नहीं आती। आज की कमाऊ स्त्रियाँ भी कहे-अनकहे समझौतों और दोहरे कार्यभार से ग्रस्त हैं। आर्थिक आजादी से रिश्तों की जकड़ने जटिल से जटिलतर होती जा रही हैं। प्रताड़ना के नित नए औजारों पर धार दी जा रही है। दरअसल, पुरुषसत्ता की जड़े इतनी गहरी धंसी हैं, जिन्हें तोड़ना या बदलना सचमुच एक लंबी लड़ाई होगी।’

हिंसा की डफली, हिंसक राग -२-


नाउम्मीदगी के इस दौर में यूपी की जनता तिल-तिल मरने को अभिशप्त दिख रही है। अपराध के बढ़ते सेंसेक्स ने हिन्दी पट्टी के अगुवा कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश का जीना मुहाल कर दिया है। प्रांतीय अमन, चैन और शांति को लकवा मार चुका है। शासकीय विधि-व्यवस्था में इतनी छेद है कि लोग कल की तारीख़ में कोई अप्रत्याशित घटना न घटे, इसे लेकर आश्वस्त नहीं दिख रहे। राजनीति संरक्षित हिंसा और अपराध से यूपी की जनता में काफी घड़बड़ाहट और बेचैनी है। क्योंकि राजनीतिक सरगर्मी की तपाहट-तराहट जिस बात पर निर्भर करती है, वहां सिर्फ और सिर्फ हिंसा की डफली और हिंसक राग बज रहा है। असलहे चमकाये जा रहे हैं। धमकी और धौंस के बूते मनमाने ढंग से रंगदारी वसूली जा रही है। लोग सदमे में हैं। उन्हें तनिक समझ में नहीं आ रहा कि आपसी वर्चस्व और राजनीतिक बल-प्रदर्शन के लिए आम-आदमी की जिंदगी पर हमला बोले जाने का क्या मायने-मतलब? वो भी वैसे समय में जब प्राकृतिक आपदा पारंपरिक खेती-किसानी को लील लेने को तैयार है। भूख, गरीबी, बीमारी, महंगाई और बेरोजगारी जिन्हें हर रोज मौत का दावत सौप रही है।
इस भयावह सच की अगर थोड़ी गहराई से पड़ताल करें, तो पाते हैं कि यूपी में राजनीतिक हिंसा की आहट पहली मर्तबा 1979 में सुनी गई, जब गोरखपुर जिले के विधायक रविन्द्र सिंह को अलसुबह गोलियों से भून दिया गया। इसके बाद तो अपराध और हिंसा की जो त्यौरियां चढ़ी, सिलसिला आज भी जारी है। संकेत मात्र के लिए याद दिलाया जा सकता है कि 1988 में देवरिया जिले के गौरीबाजार विधान सभा क्षेत्र के विधायक रणजीत सिंह की हत्या कर दी गई। वर्ष 1991 में दादरी के विधायक महेन्द्र सिंह भाटी की हत्या प्रतिबंधित स्वचालित हथियारों द्वारा हुई, तो यूपी में सनसनी का तापमान ऊपर चढ़ गया। लोग राजनीतिक वर्चस्व की आपसी लड़ाई का सच जान गए। 25 मार्च 1996 को मानीराम के विधायक ओमप्रकाश पासवान को बम से उड़ा दिया गया। अगले ही साल 30 मार्च 1997 को लखनऊ के पूर्व विधायक वीरेन्द्र प्रताप शाही अपराधियों के गोलियों का शिकार हो गए।
राजनीतिक वर्चस्व की इसी लड़ाई में शारदा प्रसाद रावत जो कि रामनरेश यादव की सरकार में मंत्री थे, की हत्या हुई। इसके बाद प्रांतीय हिंसा और राजनीतिक अपराध का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। प्रदेश में लूटमार, हत्या, हिंसा और अपराध की जमीन और गहरी हो ली। चुनावी उलटफेर में शासक जरूर बदले, लेकिन सियासी राजनीति का चाल, चेहरा और चरित्र बिल्कुल वही रहा। सत्ता के गलियारे में जनप्रतिनिधि बनने के लिए धनबलि, बाहुबली, दागी और अपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होना अनिवार्य योग्यता का ‘वजनी बाट’(तौल का मापक) बन गया। इन तथाकथित जन-प्रतिनिधियों ने अपने पास सैकड़ो पोसुए रंगबाज, दबंग, गुर्गे और शार्प-शूटर पालने शुरू कर दिए, जो पैसे की बिसात पर हर करम करने को तैयार थे। उत्तर प्रदेश में अपनी गुंडागर्दी के बदौलत दहशत का पर्याय बन चुके हरिशंकर तिवारी, बृजेश सिंह, मुन्ना बजरंगी, वीरेन्द्र शाही, श्री प्रकाश शुक्ला, आनंद पाण्डेय और राजन तिवारी को लोग आज भी नहीं भूले हैं।
दरअसल, यूपी में शासकीय तंत्र की विफलता ने सदैव आमजन को ठगने का काम किया। वजह कि पुलिस-प्रशासन आम-आदमी की नुमाइंदगी करने की बजाय राजनीतिक लल्लो-चप्पो में एकजुट दिखा। उनकी निष्ठा जनता के प्रति न हो कर उन राजनेताओं को भेंट थी, जिनके कहे पर उनका ट्रांसफर-प्रमोशन होता है। अतएव, उन्हें इस बात का अहसास नहीं कि उनकी नियुक्ति आम नागरिक की सुरक्षा, सुविधा और कानूनी सरंक्षण खातिर हुई है न कि राजनीतिक तीमारदारी के लिए। लेकिन रोना तो यह है कि आज हर विभाग का ऊपरी अमला लगभग बिक चुका है। उनकी सांठगांठ ऐसे नेता, मंत्री और हुक्मरानों से है, जिनका सूबे में अपरोक्ष शासन है। जनता के बीच जनसेवी मुखौटा धारण किए कई नेताओं के चोचले और मंसूबे बेहद खतरनाक है, जो राजनीतिक विधान को अपनी मुट्ठी की ताकत समझते हैं।
प्रांतीय कानून व्यवस्था के बौनापन का सर्वप्रथम अहसास 2002 में उस वक्त हुआ जब लखनऊ विधानसभा के सामने ही मनबढ़ो ने विधायक मंसूर अहमद की दिनदहाड़े हत्या कर दी। राजनीतिक हिंसा के बेलगाम उदाहरणों में सबसे चर्चित दो घटनाएं जो वर्ष 2005 में घटी, ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में कोहराम मचा दिया। पहली घटना 26 जनवरी को इलाहाबाद में विधायक राजू पाल की हत्या के रूप में घटी, तो दूसरी 29 नवंबर को भाजपा के विधायक कृष्णानंद राय की हत्या के रूप में सामने आया। इन दोनों घटनाओं को यूपी के अपराध जगत में ‘ओलंपिक उपलब्धि’ की तरह देखा जाता है। काबीना मंत्री नंद गोपाल गुप्ता ‘नंदी’ पर हमलावरों ने जिस तरीके से जानलेवा हमला किया। उसे पूर्व घटित घटनाओं की अगली कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए।
वास्तव में उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हिंसा के नाम पर वर्चस्व के किले ठोके जा रहे हैं। लोगों में खौफ पैदा कर उन पर मनोवैज्ञानिक दबाव डाल जा रहा है। यह सियासी खेल किसी एक पार्टी विशेष का नहीं, बल्कि सभी दलों के मिलीभगत का परिणाम है। जो भी हो, आगामी विधान सभा चुनाव के मद्देनजर यूपी की करवट बदलती राजनीति क्या गुल खिलाएगी, सटीक पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता। किंतु इतना अवश्य है कि प्रांतीय स्तर पर आपराधिक समीकरण में वृहद अध्याय जुड़ेंगे। वो सारे प्यादे, जो पार्टी लाइन के इशारे पर बड़ी से बड़ी घटना को अंजाम देने में नहीं हिचकते। चुनावी माहौल गरमाने के लिए देर-सबेर ही सही मौत का तांडव अवश्य करेंगे।
इस घड़ी यूपी के अधिकांश राजनीतिज्ञों का हिंसा और अपराध से याराना है। जातिगत समीकरण दुरुस्त है, तो मज़हबी गोटी सेट। ‘सर्वजन’ की तरफदार बसपा सुप्रीमो सत्ता में फिर आने को उत्सुक हैं। ‘राहुली अभियान’ और ‘मिशन 2012’ के साथ कांग्रेस भी कमरकस तैयार है। पार्टी से अमरसिंह के जाने के बाद सपा पार्टी कमजोर जरूर हुई है, लेकिन हौसला बरकरार है। अपने पूरे दमखम के साथ यूपी के चुनावी मैदान में उतरने का दंभ भरती भाजपा भी प्रदेश पार्टी को चाक-चौबंद करने में जुटी है। इतना तय है कि आगामी विधानसभा चुनाव जन-प्रतिनिधियों को हर दांव आजमाने का सुअवसर देगी। ऐसे में हिंसा और अपराध को अपना अराध्य मान चुके राजनीतिज्ञ ‘राजनीतिक वर्चस्व’ के लिए क्या-क्या जोर आजमाइश करते हैं, देखा जाना शेष है। फिर भी यूपी की जनता के लिए फिलहाल यह न तो पेट का प्रश्न है और न ही दिमाग का। ऐसे में हिंसा की डफली बजे या ढपली, राग हिंसक ही होगा।

हिंसा की डफली, हिंसक राग -१-


यह राजनीतिक हिंसा का भुतहा दौर है। डर, भय, खौफ, चीख और चीत्कार से सना एक ऐसा कालचक्र, जिसके कपाल पर यूपी का नाम ‘लार्ज टाइपफेस’ में गुदा है। दिनेदहाड़े प्रदेश के पूर्व विधायक कपिलदेव यादव की हत्या होती है। लोग उस तारीख को काले घेरे में चिह्नित करते हैं-4 जुलाई। चंद दिन भी नहीं बीतता कि उत्तर प्रदेश के काबीना मंत्री नदं गोपाल गुप्ता ‘नंदी’ पर इलाहाबाद में उस समय जानलेवा हमला बोल दिया जाता है, जब वह मंदिर पूजा-अर्चना खातिर निकल रहे होते हैं। 12 जुलाई को हुए इस बम विस्फोट में बाल-बाल बचे मंत्री जी का निजी सुरक्षाकर्मी राकेश मालवीय मारा जाता है और कई सार्गिद घायल हो जाते हैं।
यूपी की पुलिस महकमा जैसे सोए से जगा हो। वह इस घटना का तार काबीना मंत्री से खार खाये चाका ब्लॉक प्रमुख दिलीप मिश्रा से जोड़ती है। साथ ही शक की सुई सपा विधायक विजय मिश्रा पर भी घूमती है, जो दिलीप मिश्रा का करीबी रिश्तेदार है। इस मामले में गिरफ्तार राजेश यादव और कृपाशंकर ने जो बात कबूली, उससे यह साफ हो गया कि इस घटना का मास्टरमाइंड दिलीप मिश्रा ही है, जिसका सपा और भाजपा दोनों से निकट संबंध है। राजनीतिक रंजिश का यह खूनी खेल विस्फोट के दौरान गंभीर रूप से जख़्मी हुए इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार विजय प्रताप सिंह के लिए प्राणघातक साबित हुआ। करीब एक सप्ताह तक जिंदगी और मौत के बीच जूझने के पश्चात दिल्ली के आर्मी अस्पताल में उनकी मौत हो गई।
उत्तर प्रदेश में हिंसा और हत्या की आपराधिक पृष्ठभूमि सनातनी है। गुंडागर्दी, माफियाराज, गैंगवार और एनकाउण्टर बहुचर्चित शब्द हैं, जो ख़बरों में धड़ल्ले से प्रयोग होता है। हां, यह जरूर है कि नंद गोपाल गुप्ता ‘नंदी’ को जिस तरह रिमोट बम से उड़ाने की साजिश हुई और विस्फोटक के रूप में पोटेशियम क्लोरेट और सोडियम नाइट्रेट के मिश्रण का उपयोग हुआ। ऐसा यूपी में पहले कभी नहीं हुआ था। यह आज से बीसेक वर्ष पूर्व घटित उस घटना की याद ताजी हो गयी, जब सूबे में पहली बार एके-47 का इस्तेमाल झंूसी के विधायक जवाहर पंडित को मौत के घाट उतारने के लिए किया गया था। एक बात तो तय है, तकनीक न केवल जिंदगी आसान बनाने का ज़हीन तरीका है अपितु मौत के लिए भी उतनी ही मुफीद है। प्रदेश सरकार के काबीना मंत्री पर हुए हमले के बाद आंखों में प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ का वह दृश्य नुमाया हो जाता है, जिसमें रिमोट बम द्वारा विस्फोट कर ‘मुख्यमंत्री कुनबा’ को गुपचुप मारने का ‘क्लू’ है। रौंगटे खड़े करते उस दृश्य की बानगी इलाहाबाद में दिखेगी, यह कम से कम अकल्पनीय था।
उत्तर प्रदेश आज जिस हिंसा के लपेटे में है, वह नई इबारत नहीं। यूपी में सत्ता-प्रायोजित अपराध, जुर्म और हिंसा सदाबहार टोटके हैं। यहां की प्रांतीय राजनीति इसी से खाद-पानी पाती है, फलती-फूलती है। माफिया, गिरोह और जरायम की दुनिया राजनतिक आशियाने हैं, जहां से हर नेता, मंत्री या जन-प्रतिनिधि का कद-काठी मापा जाता है। ‘चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर’ जैसा सुघड़ नारा बतौर झांसा जुबान चढ़ता है। हकीकत में यह ललकार उन गुर्गों को हैं, जो चंद रुपयों की खातिर किसी की भी हत्या की सुपारी लेता है। हिंसा को ‘इंटरटेनमेंट गेम’ की तरह खेलता है, जिसमें एक ओर राजनीतिक कद्दावर होता है, तो दूसरी ओर सियासी संरक्षण पाये आपराधिक छवि के लोग।
बहरहाल, यूपी में बदस्तूर जारी हिंसा से आमजन के दिन बहुरेंगे, गारंटी नहीं। सुशासन तंत्र स्थापित होगा, अता-पता नहीं। यह भी तय नहीं कि सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस में से कौन-सी पार्टी वास्तव में भय, हिंसा और अपराधमुक्त समाज की रचना कर सकने में सक्षम है। सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। ‘मिशन 2012’ का राग अलाप ‘संदेश यात्रा’ निकालने वाली पार्टी कांग्रेस भी चुप है। इन दिनों वह खुद अंदरूनी कलह, मारपीट और प्रतिस्पर्धी हिंसा का सामना कर रही हैं। सपा का इतिहास तो ‘अकथ पुराण’ है। मुलायम सिंह के तीन खासमखास माने जाने वाले मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया की एक समय तीन जिलों क्रमशः गाजीपुर, इलाहाबाद और प्रतापगढ़ में तूती बोलती थी। आंकड़ो की भाषा में इतिहास बांचे, तो वर्ष 1991 से ले कर 2007 तक एक सांसद, 18 विधायक एवं 38 राजनीतिज्ञों की हत्या हो चुकी है। इसके अतिरिक्त एक पूर्व सांसद, एक पूर्व विधायक और 14 अन्य राजनीतिज्ञों के कत्लेआम भी कागजी रिपोर्ट में दर्ज है।

दिमाग से पैदल नहीं युवा



पिछले दिनों शोध-छात्रो को बीएचयू प्रशासन ने जो नये नियम-कानून बताये। उसकी अनुशंसा पर कुछ छात्रो को दूसरे छात्रावास में ‘शिफ्ट’ होना पड़ा। उसमें एक मैं भी शामिल था। पता नहीं क्यों? मुझे बिरला छात्रावास परिसर से जाते हुए घर-निकाला का आभास हुआ। मन में अजीब किस्म की टीस और तकलीफ महसूस हुई। यह जड़ से कटने की तरह का दर्द भले न हो, लेकिन झंुड से बिछुड़ने का ग़म जरूर था। जबकि बिरला से मैं एम.ए. में जा कर जुड़ा, बी.ए. में तो था ही नहीं। एम.ए. में मोह का व्योम इस कदर विस्तार न पाया था। पीएचडी में आकार लेना शुरू ही किया कि ‘ठौर बनाओ कहीं और’ का फरमान आ गया। कहने को साथी कहेंगे कि आप स्वेच्छा से गए। भाई! स्वेच्छा से हवन-कुंड में घी डाला जा सकता है, हाथ तो नहीं जलाया जा सकता है न!
खैर, दमदार विरासत का हकदार बिरला छात्रावास न तो मेरे कद-कादी से बढ़ सका था और न ही जाने से घटेगा। किंतु मुझे सालेगा कई दिनों तक इसका मेरे साथ रहना, उठना, बैठना, खाना-पीना और सोना। मेरे वो तमाम साथी, जिनके युवा दिखने पर मैं गर्व करता आया हंू। जिनकी वैचारिक समझ पर मार्क्स की भाषा में ‘डाउट ऑन एवरीथिंग’ सिद्धांत का अनुसरण करता रहा हंू और जिन लोगों की शांत-चित्त-प्रवृत्ति के पदचाप से यह सीख लेता रहा हंू कि-‘आज के युवा दिमाग से इतने पैदल नहीं कि गांधी माफिक जिंदगी जिएं और ऊपर से गाली भी खाएं।’
‘युवा’ की बात निकली, तो कह डालूं कि अक्सर राजनीतिक बयानों में जिन आंकड़ों का जिक्र होता है, वह है-‘भारत की 55 फीसदी आबादी युवा है।’ युवा अर्थात एक ऐसा वर्ग, जो मेहनती, ऊर्जावान, दिलेर, जांबाज, स्वाभिमानी, राष्ट्रभक्त और देशप्रेमी हो। जिसकी चेतना जीवित हो। जिसके रक्त में स्फुर्ति और ताजगी हो। जिसके होने के मायने अलहदा, तो विचार जुदा हो। जो अंतर्मन की आंख से भविष्य में ताक-झांक करने में निपुण हो। यानी युवा एक ऐसा शब्द है, जो सर्वगुणसंपन्न भले ना हो किंतु नूतन-नवीन गढ़ सकने में प्रवीण अवश्य हो। यथार्थ जो भी हो। युवा होने का अर्थ कमोबेश यही समझा जाता है।
फिलहाल मीडियावी लोक में जिन युवाओं की बात की जाती है। उनकी तादाद भारतीय विश्वविद्यालयों में बहुतायत है। आई. टी., मेडिकल, सायंस, कला और सामाजिक विज्ञान जैसे तमाम क्षेत्र ऐसे ही प्रतिभाशाली युवाओं से अटे पड़े हैं। मैनेजमेंट, कंप्यूटर सायंस, बीपीओ और आउटसोर्सिंग सेक्टर में इन्हीं युवाओं का ‘हल्ला-बोल’ जादू है। भारतीय विश्वविद्यालयों की ओर से ये युवा ‘महाशक्तिमान’ बनने को अग्रसर राष्ट्र का करिश्माई नेतृत्व कर रहे हैं। कहीं कोई खालीपन नहीं। काहिली और बुजदिली तो एकदम ही नहीं। जहां एक ओर संसार भारतीय युवाओं के समर्थन में सर नवा रहा है, तो दूसरी ओर मल्टीनेशनल कंपनियां इन युवाओं के समक्ष घुटने टेक कर बिछने को तैयार दिख रही हैं। तथाकथित साधु, संत और सपेरो का देश आर्यावत आज विकास और समृद्धि की नई इबारत लिखने में मशगूल है। आलम यह है कि उत्सवधर्मी(सारे फिक्र धुंए में उड़ा कर) युवाओं ने अमेरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से ले कर ब्रितानी प्रधानमंत्री डेविड कैमरान तक को मंत्रमुग्ध कर डाला है।
एएमयू, डीयू, जेएनयू और बीएचयू तो बानगी भर है। मैं खुद जहां हंू और जिस पेशे में हूं। वहां युवा-नगाड़ा खूब बजता है। महफिले जमती हैं। सैद्धांतिक, वैचारिक और किताबी बातों से इत्तर मनसोख ठहाका, कहकहा, बतकही और बतरस भी खूब होती है। बातों में लड़कियां भी विचरती हैं-बेखटक-बेहिचक। हर रोज यहां दुनिया बनती है-रोचक, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक भाषा-शैली में। कभी-कभी खाटी बोली-वाणी में भी चौचक। लोग यहां जीते हैं, जी भर के। यानी शांत, उन्मुक्त और हर तरह के पूर्वग्रह से मुक्त हो कर। कुछ जवां दिल अगर रूआब में हों, तो बगैर ठंडा-गरम पैग पिए ही ऐसे बतियाते हैं कि कई वार्तालापलोलुप लोगों के जिस्म में झुरझुरी उत्पन्न हो ले। कभी-कभार ज्यादा भावुक होने की स्थिति में महंगाई, गरीबी, भूखमरी, किसानी मौत और राजनीतिक निकम्मेपन की भी चर्चा छिड़ जाती है। क्या सोनिया गांधी, क्या मनमोहन सिंह, क्या मोंटेक सिंह अहलुवालिया, क्या ललित मोदी और क्या सुरेश कलमाड़ी।
सधे अंदाज में मर्मभेदी विषय-विश्लेषण करते ये युवा-पीढ़ी अपना आग-पाछ सब जानतीे है। मालूमात है उन्हें अपने बोल की हैसियत-हकीकत। आजकल विश्वविद्यालयों में छात्र-नेतृत्व जैसी कोई संस्था तो अब रही नहीं, जो अपनी काबिलियत को मुख्यधारा की राजनीति में आजमा ले। सो कुछ चेतनशील युवा कैंपस के दायरे में ही घंटो धुनी रमाते हैं और मुझ जैसे ज्ञानपिपासु लोगों को संभाषण पिला कर संतुष्ट हो लेते हैं। अक्सर मैं इन संभावनाशील युवाओं के बारे में सोचता हंू। चूंकि पत्रकारिता का शोध-छात्र ठहरा। इस नाते सम्मोहन का उबाल कुछ ज्यादा तीक्ष्ण होता है। वैसे भी जहां राहुल गांधी, वरुण गांधी, अखिलेश यादव, नवीन जिंदल, सचिन पायलट जैसे युवा राजनीतिज्ञ गंभीरतम जनसमस्याओं पर चुप्पी साधे बैठे हों। वहां विश्वविद्यालय के छात्रों का आपसी संवाद में गर्जन-तर्जन बेहतर कल की आश्वस्ती माफिक लगता है। काश! इन कर्मठ युवाओं का कोई सार्थक उपयोग हो पाता। कम से कम बदलाव के विपरीत बहाव के कारण मन-मस्तिष्क में अनावश्यक रूप से आ जमे गाद, मवाद, संकीर्णता, कुंठा और दमित इच्छाओं का बहिर्गमन तो हो जाता।
आज छात्रावास छोड़ जाते हुए मुझे इन्हीं साथियों की याद सता रही है। उनके संसर्ग में रहते हुए मैंने अपनी ज्ञानक्षुधा में कितनी बढ़ोतरी कर ली है। यह जाहिर न करूं, तो भी तय है कि मैं अपने जीवन का बहुमूल्य क्षण खोने जा रहा हंू। नए छात्रावास का वातावरण बेहद शांत भले हो किंतु बिरलागिरी में जो आनंद है, उसका छटांक भर आनंद भी मुझे वहां हासिल नहीं होने वाला। बहरहाल, बीएचयू प्रशासन के दांव-छांव तले अपने शोध के शेष बचे दिन एक कमरे में दो लोगों के साथ ‘शेयर’ करते हुए पूरी कर ले जांऊ। यही मेरी दिली इच्छा है। अनुभव से बटोरे उस सीख भांति, जिसका सूत्रवाक्य है-‘आज के युवा दिमाग से इतने पैदल नहीं हैं कि गांधी माफिक जिंदगी जिएं और ऊपर से गाली भी खाएं।’

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...