Friday, October 22, 2010

हिंसा की डफली, हिंसक राग -२-


नाउम्मीदगी के इस दौर में यूपी की जनता तिल-तिल मरने को अभिशप्त दिख रही है। अपराध के बढ़ते सेंसेक्स ने हिन्दी पट्टी के अगुवा कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश का जीना मुहाल कर दिया है। प्रांतीय अमन, चैन और शांति को लकवा मार चुका है। शासकीय विधि-व्यवस्था में इतनी छेद है कि लोग कल की तारीख़ में कोई अप्रत्याशित घटना न घटे, इसे लेकर आश्वस्त नहीं दिख रहे। राजनीति संरक्षित हिंसा और अपराध से यूपी की जनता में काफी घड़बड़ाहट और बेचैनी है। क्योंकि राजनीतिक सरगर्मी की तपाहट-तराहट जिस बात पर निर्भर करती है, वहां सिर्फ और सिर्फ हिंसा की डफली और हिंसक राग बज रहा है। असलहे चमकाये जा रहे हैं। धमकी और धौंस के बूते मनमाने ढंग से रंगदारी वसूली जा रही है। लोग सदमे में हैं। उन्हें तनिक समझ में नहीं आ रहा कि आपसी वर्चस्व और राजनीतिक बल-प्रदर्शन के लिए आम-आदमी की जिंदगी पर हमला बोले जाने का क्या मायने-मतलब? वो भी वैसे समय में जब प्राकृतिक आपदा पारंपरिक खेती-किसानी को लील लेने को तैयार है। भूख, गरीबी, बीमारी, महंगाई और बेरोजगारी जिन्हें हर रोज मौत का दावत सौप रही है।
इस भयावह सच की अगर थोड़ी गहराई से पड़ताल करें, तो पाते हैं कि यूपी में राजनीतिक हिंसा की आहट पहली मर्तबा 1979 में सुनी गई, जब गोरखपुर जिले के विधायक रविन्द्र सिंह को अलसुबह गोलियों से भून दिया गया। इसके बाद तो अपराध और हिंसा की जो त्यौरियां चढ़ी, सिलसिला आज भी जारी है। संकेत मात्र के लिए याद दिलाया जा सकता है कि 1988 में देवरिया जिले के गौरीबाजार विधान सभा क्षेत्र के विधायक रणजीत सिंह की हत्या कर दी गई। वर्ष 1991 में दादरी के विधायक महेन्द्र सिंह भाटी की हत्या प्रतिबंधित स्वचालित हथियारों द्वारा हुई, तो यूपी में सनसनी का तापमान ऊपर चढ़ गया। लोग राजनीतिक वर्चस्व की आपसी लड़ाई का सच जान गए। 25 मार्च 1996 को मानीराम के विधायक ओमप्रकाश पासवान को बम से उड़ा दिया गया। अगले ही साल 30 मार्च 1997 को लखनऊ के पूर्व विधायक वीरेन्द्र प्रताप शाही अपराधियों के गोलियों का शिकार हो गए।
राजनीतिक वर्चस्व की इसी लड़ाई में शारदा प्रसाद रावत जो कि रामनरेश यादव की सरकार में मंत्री थे, की हत्या हुई। इसके बाद प्रांतीय हिंसा और राजनीतिक अपराध का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। प्रदेश में लूटमार, हत्या, हिंसा और अपराध की जमीन और गहरी हो ली। चुनावी उलटफेर में शासक जरूर बदले, लेकिन सियासी राजनीति का चाल, चेहरा और चरित्र बिल्कुल वही रहा। सत्ता के गलियारे में जनप्रतिनिधि बनने के लिए धनबलि, बाहुबली, दागी और अपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होना अनिवार्य योग्यता का ‘वजनी बाट’(तौल का मापक) बन गया। इन तथाकथित जन-प्रतिनिधियों ने अपने पास सैकड़ो पोसुए रंगबाज, दबंग, गुर्गे और शार्प-शूटर पालने शुरू कर दिए, जो पैसे की बिसात पर हर करम करने को तैयार थे। उत्तर प्रदेश में अपनी गुंडागर्दी के बदौलत दहशत का पर्याय बन चुके हरिशंकर तिवारी, बृजेश सिंह, मुन्ना बजरंगी, वीरेन्द्र शाही, श्री प्रकाश शुक्ला, आनंद पाण्डेय और राजन तिवारी को लोग आज भी नहीं भूले हैं।
दरअसल, यूपी में शासकीय तंत्र की विफलता ने सदैव आमजन को ठगने का काम किया। वजह कि पुलिस-प्रशासन आम-आदमी की नुमाइंदगी करने की बजाय राजनीतिक लल्लो-चप्पो में एकजुट दिखा। उनकी निष्ठा जनता के प्रति न हो कर उन राजनेताओं को भेंट थी, जिनके कहे पर उनका ट्रांसफर-प्रमोशन होता है। अतएव, उन्हें इस बात का अहसास नहीं कि उनकी नियुक्ति आम नागरिक की सुरक्षा, सुविधा और कानूनी सरंक्षण खातिर हुई है न कि राजनीतिक तीमारदारी के लिए। लेकिन रोना तो यह है कि आज हर विभाग का ऊपरी अमला लगभग बिक चुका है। उनकी सांठगांठ ऐसे नेता, मंत्री और हुक्मरानों से है, जिनका सूबे में अपरोक्ष शासन है। जनता के बीच जनसेवी मुखौटा धारण किए कई नेताओं के चोचले और मंसूबे बेहद खतरनाक है, जो राजनीतिक विधान को अपनी मुट्ठी की ताकत समझते हैं।
प्रांतीय कानून व्यवस्था के बौनापन का सर्वप्रथम अहसास 2002 में उस वक्त हुआ जब लखनऊ विधानसभा के सामने ही मनबढ़ो ने विधायक मंसूर अहमद की दिनदहाड़े हत्या कर दी। राजनीतिक हिंसा के बेलगाम उदाहरणों में सबसे चर्चित दो घटनाएं जो वर्ष 2005 में घटी, ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में कोहराम मचा दिया। पहली घटना 26 जनवरी को इलाहाबाद में विधायक राजू पाल की हत्या के रूप में घटी, तो दूसरी 29 नवंबर को भाजपा के विधायक कृष्णानंद राय की हत्या के रूप में सामने आया। इन दोनों घटनाओं को यूपी के अपराध जगत में ‘ओलंपिक उपलब्धि’ की तरह देखा जाता है। काबीना मंत्री नंद गोपाल गुप्ता ‘नंदी’ पर हमलावरों ने जिस तरीके से जानलेवा हमला किया। उसे पूर्व घटित घटनाओं की अगली कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए।
वास्तव में उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हिंसा के नाम पर वर्चस्व के किले ठोके जा रहे हैं। लोगों में खौफ पैदा कर उन पर मनोवैज्ञानिक दबाव डाल जा रहा है। यह सियासी खेल किसी एक पार्टी विशेष का नहीं, बल्कि सभी दलों के मिलीभगत का परिणाम है। जो भी हो, आगामी विधान सभा चुनाव के मद्देनजर यूपी की करवट बदलती राजनीति क्या गुल खिलाएगी, सटीक पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता। किंतु इतना अवश्य है कि प्रांतीय स्तर पर आपराधिक समीकरण में वृहद अध्याय जुड़ेंगे। वो सारे प्यादे, जो पार्टी लाइन के इशारे पर बड़ी से बड़ी घटना को अंजाम देने में नहीं हिचकते। चुनावी माहौल गरमाने के लिए देर-सबेर ही सही मौत का तांडव अवश्य करेंगे।
इस घड़ी यूपी के अधिकांश राजनीतिज्ञों का हिंसा और अपराध से याराना है। जातिगत समीकरण दुरुस्त है, तो मज़हबी गोटी सेट। ‘सर्वजन’ की तरफदार बसपा सुप्रीमो सत्ता में फिर आने को उत्सुक हैं। ‘राहुली अभियान’ और ‘मिशन 2012’ के साथ कांग्रेस भी कमरकस तैयार है। पार्टी से अमरसिंह के जाने के बाद सपा पार्टी कमजोर जरूर हुई है, लेकिन हौसला बरकरार है। अपने पूरे दमखम के साथ यूपी के चुनावी मैदान में उतरने का दंभ भरती भाजपा भी प्रदेश पार्टी को चाक-चौबंद करने में जुटी है। इतना तय है कि आगामी विधानसभा चुनाव जन-प्रतिनिधियों को हर दांव आजमाने का सुअवसर देगी। ऐसे में हिंसा और अपराध को अपना अराध्य मान चुके राजनीतिज्ञ ‘राजनीतिक वर्चस्व’ के लिए क्या-क्या जोर आजमाइश करते हैं, देखा जाना शेष है। फिर भी यूपी की जनता के लिए फिलहाल यह न तो पेट का प्रश्न है और न ही दिमाग का। ऐसे में हिंसा की डफली बजे या ढपली, राग हिंसक ही होगा।

No comments:

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...