Saturday, October 23, 2010

संचार: सवाल और संकट


संचार की व्यापकता तथा संचार संबंधी भारतीय अवधारणा को समझने के लिए वैचारिक मूल्यांकन का क्रमबद्ध विश्लेषण जरूरी है। साथ ही यह पड़ताल भी आवश्यक है कि सूचनाओं के शक्ति को लक्ष्य कर हम जन-समाज या जन-संस्कृति( की जिस आधुनिक शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं, उसका सार्वभौमिक महत्व कितना है। कहना न होगा कि भारत जैसे विकासशील देश में संचार-क्रांति के मायने बहुत हैं किंतु उपयोगिता सीमित है। वजह यह है कि गरीब तबके के लिए आधुनिक संचार प्रौद्योगिकी की क्षमताओं के उपयोग द्वारा अधिकाधिक लाभ पहुंचाने की राह में प्रभावी प्रयास किया जाना शेष है। साथ ही भारत के खेतिहर समाज, जिस पर देश के तीन-चौथाई हिस्से के भरण-पोषण का जिम्मा है, की आवश्यकताओं तथा उनकी जरूरत संबंधी मूलभूत प्रश्नों मसलन, निर्धनता, निरक्षरता, स्वास्थ्य और आर्थिक-सामाजिक विषमता का समाधान खोजा जाना अभी बाकी है। अन्यथा संचार-क्रांति का यह तामझाम महज साधन-युक्त सुविधा-संपन्न वर्ग के लिए ही हितकर साबित हो सकती है। जन-भागीदारी और जन-उपयोगिता के अभाव में उसका सार्वभौमिक मूल्य नील-बट्टा-सन्नाटा ही साबित होगा।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की चिंता लाजमी है-‘‘जिंदगी रोटी खाने और कपड़ा पहनने से अधिक भी कुछ है। दूसरे महत्वपूर्ण मूल्य भी हैं। लेकिन वे दूसरे मूल्य तब तक सामने नहीं आते जब तक भरपेट भोजन और जीवन की दूसरी जरूरतें पूरी न हों। आज हम भूखे व्यक्ति को सांस्कृतिक मूल्य आदि के बारे में प्रवचन नहीं सुना सकते। हमें उसे रोटी और काम देना है। यही आज हमारी समस्या है। हो सकता है कि दस या बीस साल बाद हमारी समस्या कुछ और हो। समस्याएं तो बदलते हुए समाज के साथ-साथ बदलती जाएंगी।’’
उनका इशारा जिन दूसरे मूल्यों की ओर था, उनमें सूचना-संचार का तकनीकी और प्रौद्योगिकीगत विकास भी शामिल था। एक जगह उन्होंने अपनी दृष्टि साफ की है-‘‘हम परिवर्तन के विरोधी बिल्कुल नहीं हैं।...लेकिन हमारा दृढ़ विश्वास है कि परिवर्तन जिन विधियों से लाए जाते हैं, वे स्वयं भी इन परिवर्तनों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। हमारा विश्वास है कि कोई भी परिवर्तन हमारी अपनी इच्छा से, हमारे अपने अनुभव के फलस्वरूप होना चाहिए और इसे किसी भी शक्ति या दबाव में लादा हुआ नहीं होना चाहिए। परिवर्तन के इस प्रयास में हमें जनता को अपने साथ ले चलने, उसका समर्थन पाने का भी प्रयास करना चाहिए। यही वह भावना है जिसके साथ हमने इस प्राचीन देश में राजनीतिक लोकतंत्र और आर्थिक न्याय के समन्वय पर आधारित एक प्रणाली विकसित करने का दायित्व लिया है।’’
इस संदर्भ में संचारविद् रेमंड विलियम्स की व्याख्या भी गौरतलब है-‘‘समाज वास्तव में संचार का एक रूप है जिसके जरिए हम अनुभवों का उल्लेख करते हैं, इनमें भागीदारी करते हैं तथा इनका संशोधन और संरक्षण करते हैं। हम अपने सामान्य जीवन का संपूर्ण ब्योरा राजनीतिक-आर्थिक संदर्भों में जानने, देखने और सुनने के आदी रहे हैं। अब संचार प्रक्रिया पर इस अनुभव के आधार पर बल दिया जा रहा है कि मनुष्य और समाज केवल सत्ता, संपत्ति और उत्पादन संबंधों तक सीमित नहीं है। अनुभवों के वर्णन, अध्ययन, अनुसरण और आदान-प्रदान से उनका सरोकार भी अब उतना ही मौलिक माना जा रहा है।’’
चूंकि जनमाध्यम विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनमत और जनसाधारण की सोच को निर्धारित करते हैं, जिससे न केवल जनसामान्य की जीवनशैली प्रभावित होती है अपितु सत्ता और शासन के ऊपर भी अपेक्षित प्रभाव पड़ता है। इस नाते यहां यह देखना महत्वपूर्ण है कि सूचना देने वाला कौन है और उसके द्वारा संचार माध्यमों का उपयोग किए जाने का उद्देश्य अथवा असली निहितार्थ क्या है? खासतौर पर यदि हमारा संचारक कोई राजनीतिज्ञ हो, तो यह भूमिका और अधिक ध्यान आकर्षिैत करती है। वैसे यह बेहद जरूरी भी है, क्योंकि भारत में संचार के सभी नए माध्यमों का सरकारी नियंत्रण की वजह से दुरूपयोग किया जा चुका है। स्वयं आपातकाल इसका उदाहरण है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल के बहाने प्रेस पर कब्जा कर लोकतांत्रिक विचारों को प्रतिबंधित बना डाला था।
इस विचित्र स्थिति का रेमंड विलियम्स आकलन करते हैं-‘‘ऐसे जनमाध्यमों का पहला उद्देश्य शासक समूह के निर्देशों, विचारों और दृष्टिकोणों को प्रसारित करना होता है। नीति के तहत वैकल्पिक विचारों, सुझाावों और दृष्टिकोणेां को छांट दिया जाता है। संचार माध्यमों पर एकाधिकार पूरी राजनीतिक व्यवस्था का अनिवार्य तत्व होता है। इसके तहत कुछ निश्चित प्रकाशनों, प्रकाशन समूहों, समाचार-पत्रों, थियेटरों और प्रसारण केन्द्रों को संचार की अनुमति मिलती है। शासक समूह कई बार इन्हें अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखकर स्वयं ही यह तय करता है कि क्या प्रसारित किया जाएगा?’’
संचारकर्मी पी. सी जोशी. के शब्दों में-‘‘संचार का विषय इतना गंभीर है कि इसे प्रौद्योगिकी, नौकरशाही और राजनीतिक अभिजात तथा व्यवसायी वर्गों के लिए ही नहीं छोड़ा जा सकता। इसमें असल भागीदार समाज-वैज्ञानिक, कला और संस्कृति के विशेषज्ञ, जमीनी स्तर के सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्त्ता तथा स्वयं जनता भी है, जो राजकीय क्षेत्र से बाहर किंतु सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक चिंतन का भंडार और भारत की आत्म-शक्ति है।’’
गौरतलब है कि दो दशकों के भीतर सूचना प्रौद्योगिकी ने समाज के पूरे ढांचे को अप्रत्याशित ढंग से बदल दिया है। यह भयावहता किस हद तक खतरनाक है, इस का उल्लेख भारतीय संचार विशेषज्ञ डॉ. जवरीमल्ल पारख अपने लेख ‘जनसंचार और विचारधारा’ में मिकोलस एन. स्जिलागी के उस कथन से करते हैं, जिसमें उसका मानना है कि सूचना क्रांति स्वतः ही राजनीतिक व्यवस्था को बदल देगी। आज जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं, यह उसे धराशायी कर देगी। राजनीति पर पैसे का दबाव खत्म हो जाएगा और उसका स्थान स्वतंत्र सूचना व्यवस्था ले लेगी। यह सूचना-व्यवस्था सभी सचेत नागरिकों के लिए व्यापक विविधता वाले राजनीतिक विकल्पों का प्रतिनिधित्व करेगी। इसमें भागीदारी सभी योग्य व्यक्तियों के लिए खुली होगी। प्रतिद्वंद्वी मत बिना किसी रोकटोक के प्रचारित किए जा सकेंगे, उनकी आलोचना और उन पर बहस की जा सकेगी। उनकी शक्ति सीमित और विकेन्द्रित होगी। वे नागरिकों के प्रति जवाबदेह होंगे। समाज में सफलता और प्रतिष्ठा राजनीतिक ताकत पर निर्भर नहीं रहेगी। प्रतिनिधिक लोकतंत्र का खात्मा हो जाएगा और जल्द ही इसका स्थान सूचना युग का लोकतंत्र ले लेगा, जो सबसे बेहतर होगा। मिकोलस एन. स्जिलागी एक ऐसे सूचना-तंत्र के हिमायती हैं, जिसके अनुसार जिसकी पहुंच सूचना-तंत्र तक होगी उसे ही वोट देने का अधिकार है। राजनीतिज्ञों का चयन विचारों की मुक्त प्रतिद्वंद्विता में से करने का विचार, वास्तव में अभिजात वर्ग की इच्छा का ही पक्ष-समर्थन है।(जारी...)

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