Sunday, October 24, 2010

राजनीति में युवा


20वीं शताब्दी युवा राजनीतिज्ञों की सक्रियता और सार्थक हस्तक्षेप का साक्षी रहा है। अतीत के स्वर्णीम पन्नों में दर्ज अनगिन युवा रणबांकुरों की बात न भी करें तो स्वतंत्रता बाद जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उभरा ‘युवा तुर्क’ भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक नवजागरण का ‘कोपरनिकस प्वाइंट’(बदलावकारी बिन्दु) साबित हुआ जिसके मूल-स्तंभ रामधन, ओम मेहता, कृष्णकांत, चन्द्रशेखर और मोहन धारिया थे। कर्मठ, जुझारू और राजनीतिक संचेतना से संपन्न इन युवा तुर्कों ने अपने बाद की युवा पीढ़ी को काफी मजे से मांजा। उनमें लोकचेतना का राजनीतिक टान पैदा किया। इस पाठशाला में तपकर कुंदन बनने वालों में जार्ज फ्रर्ण्डांडिस, लालू यादव, मूलायम सिंह यादव, नीतिश कुमार, शरद यादव जैसे सैकड़ों छात्र-नेता शामिल थें जिन्होंने मुख्यधारा की राजनीति में सफलतापूर्वक अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की।
90 के दशक में युवा-राजनीति की सक्रियता को छात्र-संघ ने रसद-पानी उपलब्ध कराया। लोकतंत्र की बुनियाद पक्की हो इस परिकल्पना के साथ राष्ट्रीय स्तर पर युवा-संसद की पृथक योजना बनी। 1988 ई0 में देश के सभी केन्द्रीय विद्यालयों से शुरू हुई यह योजना 1997-98 आते-आते पूरे देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के लिए लागू कर दी गई। यह राजनीति में युवा-दखल का निर्णायक दौर था। युवा-संचेतना का सूत्रपात जो वैकल्पिक युवा राजनीति को तराशने में जुटा था। यह आजादी के स्वप्न बेचते बुजुर्ग राजनीतिज्ञों को विदा करने का वक्त था जो स्थापित गणतंत्र में घिनौनी राजनीति का षड़यंत्र रच रहे थे। राजनीति में दाखिल नई पौध भूख, गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी से त्रस्त जनता के लिए उम्मीद की किरण सरीखा उभरी थी। उसकी उपस्थिति मात्र असंतोष की राजनीति से उबरने का भरोसा दिला रहा था।
वहीं दूसरी ओर 20वीं सदी का अंतिम दशक गवाह था-सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के अधोपतन का। बोफोर्स तोप घोटाले के रहस्योद्घाटन का जिसमें शामिल राजनीतिक दलाल देश की प्रतिष्ठा कौड़ियों के भाव बेच रहे थे। ‘भ्रष्टाचार’ को वैधानिक रूप से आत्मसात कर चुके नौकरशाहों के लिए यह एक कठिन दौर था क्योंकि जन सरोकार से जुड़े युवा राजनीतिज्ञों की प्रथम प्राथमिकता थी जल-जंगल-जमीन को हर हाल में बचाना जो अवैध धंधा करने वालों के लिए किसी ‘गुप्त खजाने’ से कम न था। उस घड़ी राजनीतिक युवा समाज सापेक्ष राजनीति की नींव रख रहे थे जिसके लिए ‘विजन 2020’ के परिकल्पनाकार डॉ0 अब्दुल कलाम आज की तारीख में ‘विकासपरक राजनीति’ शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं।
जनसरोकार के मुद्दों से रींजे-भींझे इन युवा-नेताओं से जनता की अपेक्षाएं बहुत थीं। वह इनको परिवर्तनकामी राजनीति का वाहक मान चुकी थी जो उनकी समस्याओं से सर्वाधिक संपृक्त थें। मसलन चन्द्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अरुण जेटली, अजय माकन, सीताराम येचुरी, प्रकाश करात, लालू प्रसाद, नीतिश कुमार, शरद यादव तथा मूलायम सिंह आदि जीवट युवाओं के जेहन में जेपी आंदोलन की आग और तपिश शेष थी। वे इस बात से भिज्ञ थें कि राष्ट्र बदलाव के संक्रमणकारी दौर से गुजर रहा है। देश की पारंपरिक अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थ-नीति को वरण करने को आतूर है। उदारीकरण और भूमंडलीकण कौटिल्य के अर्थशास्त्र के उलट ‘कानन-कुण्डल बसै’ की तर्ज पर अपनी छाती से चिपका लेने को लालायित है।
युवा-राजनीतिज्ञ ने उस समय सबसे बड़ी भूल की कि वे नव-साम्राज्यवादी ताकतों को पूरी तरह थाह पाने में असफल रहे। उन्हें इस बात का थोड़ा भी आभास न था कि वैश्विक नीति को अपना चुका भारत आगत भविष्य में कई तरह की समस्याओं से घिरने वाला है। यहां तक कि सभ्यजनीन जन-संस्कृति और जन-समाज पर भी धावा बोला जा सकता है। आधुनिकता के साथ जुड़वां बहन बन भारतीय दहलीज में दाखिल हुई उत्तर आधुनिकता भारतीय जीवन-मूल्य को तहस-नहस कर देगी। मूल्य, आदर्श, नैतिकता, सद्व्यवहार और सदाचरण जैसे सनातन सिद्धांत को नवनिर्मित भारतीय भूगोल निकाल-बाहर कर देगा।
एक तरफ राष्ट्र विदेशी पूंजी आधारित मुक्त अर्थव्यवस्था का स्वाद चख रहा था तो दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियां संसदीय राजनीति के केन्द्रीय ताकतों पर नकेल कसने की जुगत में थीं। तत्कालिन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह तारणहार की भूमिका में वाहवाही लूट रहे थे तो दूसरी ओर युवा तुर्क चन्द्रशेखर चिंता जाहिर कर रहे थे-‘उदारवाद की आर्थिक नीति देश को अंततः अराजकता की ओर ले जाएगी।’ आज देश में उसी अराजकता का बोलबाला है। देश की 40 फीसदी आबादी भूखी है, 80 फीसदी आबादी 20 रुपए दैनिक मजूरी पर अपना पेट पाल रही है तो करोड़ों-करोड़ युवा बेराजगारी का दंश झेल रहे हैं। समस्याएं विकराल हैं तो समाधान सीमित। युवा-राजनीतिज्ञों का स्वर्णीम दौर बीत चुका है-‘यूथ(लवनजीत्रलवनत जीवनहीज) टाइम इज ओवर इन इंडियन पॉलिटिक्स, बट फूथ(थ्ववजीत्रथ्ववसे जीवनहीज) टाइम इज बिगनिंग’।
यों तो 21वीं सदी का प्रथम दशक गवाह है इस बात का कि दो लोकसभा चुनावों में युवा राजनीतिज्ञों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और धमाकेदार जीत हासिल की। इनकी उपस्थिति युवाओं के लिए प्रेरणास्पद है यह अध्ययन-विश्लेषण का विषय है। लेकिन लोगों में एक बार फिर यह आस अवश्य जगी है कि सामयिक मुद्दों के प्रति युवा राजनीतिज्ञ अधिक संवेदनशीलता, संलग्नता एवं सहभागिता के साथ पहलकदमी करते दिखेंगे। भारतीय संसद में युवा-हस्तक्षेप का प्रतीक बनकर उभरे नामों में राहुल गांधी, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अखिलेश यादव, वरुण गांधी, अगाथा संगमा, दिया मिर्धा, मीनाझी नटराजन, ए. राजा, शहनवाज हुसैन, उमर अब्दुल्ला आदि शामिल हैं। आंकड़ों में इन नामों की भागीदारी 545 सिट वाले ‘लुटियन संसद’ में 33 फीसदी है जिनकी उम्र 40 वर्ष से नीचे है। यह संख्या भारतीय राजनीतिक भूगोल की दृष्टि से भी एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि इन आंकड़ों को 55 फीसदी युवा धड़कनों की पहचान और उनके प्रतिनिधित्व का पूरक माना जा रहा है। सच्चाई क्या है? आइए जानें।(जारी...)

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