Thursday, November 4, 2010

वैश्विक मीडिया के घेरे में भारतीय संस्कृति


विश्व की तमाम संस्कृतियाँ परंपरा का अंग हैं जिसमंे साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान, धर्म, दर्शन और राजनीति सभी समाहित हैै। संस्कृति सदैव अपनी एक विशिष्ट भावभूमि के साथ भाषा में अभिव्यक्त होती है। बोले गए शब्दों में अपने क्षेत्र, जमीन, मौसम, संवेदना और भावना का असर होता है। सांस्कृतिक गौरव और विरासत भाषा को समृद्ध तथा विचार को परिपक्व बनाते हैं। संस्कृति सम्प्रेषण हेतु भाषा को उपकरण की भाँति साधती है जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक संचेतना का प्रचार-प्रसार संभव हो पाता है। आज भारत में देशज-संस्कृति और पश्चिमीकृत संस्कृति के बीच का फाँक निरंतर गहरा हो रहा है। एक तरफ तकनीक और प्रौद्यौगिकी आधारित विकास करवट ले रहा है तो दूसरी ओर भारतीय मूल्यबोध, नैतिकता, सदाचार, सयंम, अनुशासन, सद्भाव और संतोष जैसे पुरातन मूल्य कमजोर एवं विघटित हो रहे हैं। आज ज्ञान, तथ्य और जानकारियों की कसौटी स्वयं भी पूर्वग्रह से प्रेरित है जो हमें भाषांतरण, लिप्यंतरण या कहें कि अनुवाद द्धारा प्राप्य है।
मनुष्य की ‘ग्लोबल’ अवधारणा संचारगत विभेद, नस्लीय दृष्टिकोण और सांस्कृतिक विषमता की वजह से खटाई में है। सूचना-राजमार्ग पर नव-साम्राज्यवादी ताकतों का वर्चस्व अधिक है। अन्तरराष्ट्रीय संवाद और सह-सम्बन्ध को स्थापित करने वाली सांस्कृतिक गतिविधियाँ यथा-धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, संगीत, रेडियो, सिनेमा और टेलीविज़न भी इस कदर दूषित हैं कि उन्हें किसी कीमत पर निष्पक्ष और निरपेक्ष नहीं माना जा सकता है। नतीजतन, पूँजी और बाजार का वर्चस्व मनुष्य के वैचारिकी पर हमला बोल रहे हैं। संस्कृति के पुराने मापदंड और विचारधारायें जिसमें मानवीयता के अतिरिक्त देश, काल और परिवेश की सामाजिकता भी महत्वपूर्ण थीं। आज उनका तेजी से विध्वंस या सत्यानाश हुआ है। सवाल यह है कि ‘क्या इस तरह की बनावटी संस्कृति, जो हमारे खून में, हमारी परंपराओं में रची-बसी नहीं है, ओढ़कर हम क्या किसी मुकाम पर पहुँच पाएंगे या फिर एक ऐसी अधकचरी संस्कृति का विकास करेंगे जो न हमें घर का छोड़गे न घाट का।’(सचिदानन्द सिन्हा, आउटलुक)
1980 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्थापित मैक्ब्राइड कमीशन ने सूचनाओं-जानकारियों के मुक्त-प्रवाह सम्बन्धी रिपार्ट पेश की ताकि जनमाध्यमों द्वारा प्रचारित-प्रसारित संदेशों की वस्तुनिष्ठता और विश्वसनीयता के बारे में कोई संशय न हो। यह पहलकदमी भारत के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत के पास खुद भी संचार-तंत्र सम्बन्धी आत्मनिर्भरता नहीं है। चंद गिने-चुने विदेशी एजेंसियों पर आश्रित होने की वजह से वही सूचना और जानकारी भारत तक पहुंच पाती है जो ये साम्राज्यवादी देश देना या परोसना चाहते हैं। लगभग 1 अरब 20 करोड़ आबादी वाला देश भारत आज भी पूरे विश्व का वही मानचित्र और राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक भूगोल जान-समझ रहा है जो पश्चिमी राष्ट्रों के नीतियों-रणनीतियों के अनुकूल हैं। जनमाध्यमों की इस पक्षपातपूर्ण रवैए से भारतीय बौद्धिकों और चिंतकों में गहरा क्षोभ व्यापत है जो सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव के समर्थंक उन्हीं अर्थों में हैं जो संस्कृति के मूल चरित्र और स्वाभाव में किसी तरह का प्रभाव न डालता हो क्योंकि संस्कृति केवल भौतिक परिस्थितियों के परिवर्तनों का ही संवाहक या सूचक भर नहीं है बल्कि शरीर के साथ मन, आत्मा, बुद्धि और चेतना सबके लिए मेरूदण्ड समान है।

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