Sunday, November 21, 2010

देशी-भाषा में बोली-बात


हिन्दी दिवस बीत गया। पर मेरे जेहन में एक बात अटकी रह गई है। कोई बात किसी दिवस के भरोसे क्यों छोड़ी जाए? हिन्दी दिवस पर ही हिन्दी की बात क्यों हो? हिन्दी सप्ताह या पखवाड़ा तभी क्यों मनाएँ, जब घोषित तारीख-दिवस आस-पास या करीब हो। हमें बोलने की आजादी है अर्थात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। दूसरे शब्दों में कहें तो सांविधानिक रूप से मिले मौलिक अधिकार का अनुच्छेद 19(अ) वाला पैरा। हाँ तो खैर, आजकल खूब हो-हल्ला होता दिख रहा है कि अपनी भाषा का सिर-पैर बचाईए। क्या तो अंग्रेजी से खतरा है। पैंताने से सिराहने आ बैठी है यह गोरी-नस्ल की तथाकथित अक्लमंद जुबान। लोगबाग यह भी कहने लगे हैं कि घोर निर्लज्जता के ऐसे दिन आ गए हैं कि टेलीविज़न चैनलों पर हिन्दी की तो बोली-बात ही बंद हो चुकी है। मेहमान-मेज़बान वाले दिलचस्प कार्यक्रमों को अंग्रजीदां होस्टों-गेस्टों ने हथिया लिया है। सरकारी समाचार बोलते जीव भी हिन्दी में खुद को ‘अनईजी’ फिल कर रहे हैं वहीं अंग्रेजी भाषा में उनकी जुबान फर्राटा दौड़ती है। रेडियो के कामगारों की भी यही गत है। हिन्दी बोलते हुए जरा-सा असहज हुए नहीं कि खट से अंग्रेजी में टिपियाना शुरू कर दिए।
अब दूरदर्शन और विविध भारती के दिन भी लद गए। श्रोताओं और दर्शकों के सामने ‘ऑप्शन’ की भरमार है। झख मारकर सारी बात हिन्दी में सुनने से अच्छा है कि रेडियो मिर्ची सुने या रेडियो मंत्रा। नाम पर मत जाइए। यह पूँजी-तंत्री शब्दशास्त्र है जो मंगलाचरण तो ठेठ हिन्दुस्तानी परंपरा में करता है। बाद बाकी उसका अपना राज है, अपना साम्राज्य। हिन्दी दीवार पर टंगी है-‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जब होंगे सोचते होंगे कि क्या पते की बात कह डाली है मैने। उनकी कृति ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ पढ़कर सयानी हुई जनता आज सोच रही है काश! भारतेन्दु ने यह दुराग्रह नहीं किया होता तो देश का बच्चा-बच्चा उन्नतशील एवं सभ्यजनीन अंग्रेजी का कृत-दास होता। यदि राजा राममोहन राय विदेशी ज्ञान और साहित्य पर मोहित थे तो कुछ तो वजहें जरूर रही होंगी।

जो हो, समय के साथ समझदार होती जनता राहुल गांधी के पलटन में शामिल होने लगी है। दक्षभाषा के मामले में भिखमंगी जनता को ‘फ्यूचरटैगी प्राइम मिनिस्टर’ राहुल गांधी अंग्रेजी सीखाना चाहते हैं। भोली जनता भी भाषा वाले मामले में थोड़ा सभ्य होने को सोचने लगी है ताकि भविष्य में कभी एशियाड या ओलम्पिक हों तो उन्हें राष्ट्रमंडल खेल की तरह दर-बदर न होना पड़े। भाषा के सिपहसलारों ने ही अंग्रेजी न जानने की वजह से खेप के खेप लोगों को दिल्ली से बाहर का रास्ता दिखा दिया। मेरा तो मानना है कि ग़म खाए व्यक्ति को कुछ नया करने का गुमान अधिक होता है। सो उसने अंग्रेजी सीखने खातिर ठान लिया है तो बस-‘फैसला जिन्दाबाद’। वैसे भी-‘एक दफा किया होगा या कई दफा गुस्ताख़ी तुमने, यों कोई लड़की बेवफा नहीं होती’।
फिर भी ज्यादा सोचिए या घबराइए नहीं। मन को तसल्ली दीजिए कि जो होगा ठीक होगा। भाषा मरेगी नहीं, जिंदा रहेगी। हिन्द का जय होगा, तो हिन्दी का भी जय होगा। बराक ओबामा के मुँह से ‘जय हिन्द’ और ‘धन्यवाद’ सुनकर गर्व से अपना कान सहलाइए। इस तरह अपन का राष्ट्र हिन्दी में राष्ट्रगान गाता रहेगा। खड़ी बोली ही नहीं, खाटी देशी-भाषा में गपियाता रहेगा। मातृभाषा, जनभाषा, संपर्क भाषा, राष्ट्रभाषा, राजभाषा सभी नामों का मंगल होगा। संविधान में श्रेष्ठ भाषा के रूप में शामिल हिन्दी को ऐसे कैसे कोई निकाल बाहर कर देगा। गुदड़ी के लालों ने इस अनमोल भाषा को संविधान में एक-दो नहीं दसियों अनुच्छेद मंे बांधा है। विवेकमनुजों ने धाराओं-उपधाराओं में पिरोया है। अगर आपकी इच्छा विश्वास-बहाल करने की हो तो अनुच्छेद 120, अनुच्छेद 210, अनुच्छेद 343 से लगातार 350 तक को पलट लें। हिन्दी भाषा की अहमियत कितनी बड़ी है और इसके वर्द्धन-संवर्द्धन के लिए संविधान में लिखित रूप से क्या-क्या रोचक उपक्रम किए हैं, सबका ब्रह्मज्ञान हो जाएगा।
तब आप खुद सस्वर शैली में कहेंगे कि क्षय-रोग लगे उन कलमुँहों को जो अपनी देशीपन में बोली-बात बंद हो जाने के कहकहे लगाते हैं। आमआदमी के जुबान की भाषा छिन जाने की आशंका जताते हैं। कहने वालों को इतिहास बताने की जरूरत है। सामान्य ज्ञान के किताबों में बहुपठित राजभाषा आयोग और उसके कमेटियों द्वारा लागू सिफारिशों से उन डाहजरों को परिचित कराने की आवश्यकता है। और कुछ नहीं तो देश में राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण द्वारा निकाले गए इस तथ्य को बताने की आवश्यकता है जिसमें देश के 10 सर्वाधिक प्रसार-संख्या वाले अखबारों में सब के सब हिन्दी के है।
तो सवाल है कि हिन्दी दिवस मनाने की जरूरत किसकों है? फलतुआ में आयोजन-समारोह के नाम पर ढनर-ढनर, हुम्म-हाम और कोंय-कोंय करने का औचित्य क्या है? देशवासी हिन्दी-भाषा के लिए कोई क्रांति या जन-आंदोलन करने से तो रहे। अभी उनके पेट में अन्न का दाना नहीं है। राशनकार्ड वाले अनाज के लिए ही छीनाझपटी और मारामारी की नौबत है। भूखे पेट खलिहर बैठे इन जरूरतमंदों के लिए अपनी हैसियत भूलाने वाली शराब भी धोखेबाज लगती है। वह भी इनके जीते रहने का पक्षधर नहीं है। ये बदनसीब जो कि सौ फीसदी भारतीय नागरिक हैं जिनके पास बाजप्ता वोटर कार्ड, लाल-पीला कार्ड, नरेगा-मनरेगा कार्ड मौजूद है; भाषा के नाम पर चलते गणित को भले न जानते हों लेकिन बोलंेगे तो अपनी ही भाषा और बोली-आवाज़ में। अपनी भाषा में गरियाना-रिरियाना तो इनका मानों जन्मसिद्ध अधिकार है। ऐसे लोगों के साथ सबसे बड़ी विडंबना यह है कि ये मांगते हैं अपनेआप से दूर जाने के लिए, अपना दुःख भुलाने के लिए चंद मोहलत तो उन्हें थमा दी जाती है जहरीली शराब जिसे पी कर ये केवल टुन्न भर नहीं होते, हमेशा के लिए टन बोल जाते हैं। यह टन-टन पूरे देश में जारी है। गुगलसर्चकों के लिए विदर्भ, बुंदेलखण्ड, पलामू, कालाहाण्डी, सिंगूर, नंदीग्राम, बस्तर और दंतेवाड़ा तो सिर्फ चर्चित भूगोल भर है।
असल में हमारे सामने सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि भाषा पर भाषणबाजी करने की बजाए क्यों न सबसे पहले ऐसे लोगों को बचाएँ जिनके मरते ही मर जाती है भाषा। उजड़ जाता है लोक-जीवन से जुड़ा एक भरा-पूरा संसार। याद रखिए, इनके मरने से देश को राष्ट्रीय क्षति भले न होती हो सिवाय अखबारों में रती भर जगह छेंकने वाले एक गुमनाम ख़बर के। लेकिन देर है अंधेर नहीं कि आप जिस दिन अमेरिका और इंडिया में फर्क करना भूल जाएँगे। एक लंबी मियाद के बाद जब ताजमहल, चारमीनार, इण्डिया गेट, बनारस के घाट आदि का अस्तित्व न बचेगा। उस वक्त ये ही लोग आपके खोज, अनुसंधान और शोध का विषय होंगे। उनके होने के चिह्न तलाशेंगे आप। भाषा, बोली और न जाने ढेरों चीज आप चाहेंगे किसी भी तरह जान लेना ताकि अपनी भारतीयता को आप औरों से अलगा सके। किंतु अफसोस! आपके प्रयास असफल होंगे। और आप हताश-निराश और बदहवाश नजर आएंगे। क्योंकि बदले शब्दों, लिपियों और भाषाओं के सहारे हम उनलोगों तक कतई नहीं पहुँच पाएंगे जिन्हें गुमनाम मौत बाँटने के बाद हमने किसी किस्म का ताजमहल या दरगाह उनके लिए नहीं बनवाया। सो उनके जाते ही मिट गई देशी संस्कृति, लोक संस्कार और मिठास घुली बोली-बात।

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