Saturday, April 30, 2011

अपना-अपना आकाश

चन्द्रसेनजीत मिश्र


सभी को नहीं मिल पाता
अवसर
खुले आकाश के तले
अधलेटे निहारने का मौका
टिमटिमाते तारों को।

जिन्हंे है पूरा अवकाश
तारों और चाँद को निहारने की
उन्हें नहीं मिल पाता
भरपेट भोजन।

और जिनके पास
होता है
रोटियों का ढेर
उन्हें खुले आसमान के
तारें नसीब नहीं होते।

(युवाकवि चन्द्रसेनजीत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता) के स्नातकोत्तर के विद्यार्थी हैं। अंतस की हलचल को अपनी दृष्टि, अनुभव और संवेदना की धरातल पर परखते हुए उसे शब्दों में ढालने का उनका प्रयास अनोखा है, चाहे यदा-कदा ही सही। ब्लाॅग ‘इस बार’ में पढि़ए उनकी कविता ‘अपना-अपना आकाश’)

नवाचार अधारित टिकाऊ ग्रामीण विकास एवं राजनीतिक इच्छाशक्ति: संचार जागरूकता की असीम संभावनाएँ


आज भारतीय गाँव ‘ग्लोबल गाँव’ की भूमिका में है। कहना न होगा कि ग्रामीण समाज की उपस्थिति ‘सूचना राजमार्ग’ को निरंतर विस्तार दे रहा है। एक ओर दूरसंचार साधनों की धमक बढ़ी है तो दूसरी ओर आँकड़ों में नियमित वृद्धि जारी है। जून 2010 तक की स्थिति के मुताबिक ग्रामीण फोन घनत्व 26.4 है जो ग्रामीण सशक्तिकरण को दर्शाता है। मौजूदा समय देश में 98 लाख ब्राॅडबैंड कनेक्शन उपलब्ध हैं जिनमें से 6 लाख गाँवों में लगे हैं। यह संचार साधनों द्वारा फैलाये गए जन-जागरूकता सम्बन्धी अभियान का हिस्सा है जिसने ग्रामीण परिवेश को विज्ञान, प्रौद्योगिकी और तकनीक के व्यावहारिक ज्ञान से परिचित कराया है। संचारगत इसी विकास को संचारशास्त्री एल्विन टाॅफ्लर ‘तीसरी लहर’ की संज्ञा देते हैं। और यही नवाचार है। नवाचार मानव-संसाधन को कुशल एवं दक्ष होने का अवसर देता है। आम-आदमी की सक्रिय सहभागिता ने ‘सकल नवाचार सूचकांक’ को पूर्णांक बनाना संभव कर दिया है। असल में नवाचार एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। इसका मुख्य उद्देश्य मानव-संसाधन के लिए अधिकाधिक साधन और अवसर का सृजन करना है। इस संदर्भ में विकासमूलक तकनीकी विकास पद्धति के अतिरिक्त राजनीतिक प्रयास अपनाने की जरूरत सर्वाधिक है। ग्रामीण क्षेत्र, कृषि, वानिकी और छोटे कुटीर उद्योगों में ऊर्जा स्रोत कच्चे माल की तरह है जिसे नवाचारयुक्त तकनीकी साधनों से काफी हद तक आपूर्ति संभव है। मुख्यतौर पर इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, जिस ऊर्जा-आवश्यकता की महत्ता का संसद में बखान करते हुए युवा राजनीतिज्ञ राहुल गांधी महाराष्ट्र की उस ग्रामीण स्त्री का जिक्र करते हैं जिसका नाम कलावती है। ऊर्जा की पहुँच संभव होने से ग्रामीण समाज को कई जटिल समस्याओं यथा; बाढ़, सूखा एवं कष्टसाध्य श्रम से छुटकारा मिल जाएगा। ऊर्जा अधारित तकनीक, जो टिकाऊ ग्रामीण विकास की धुरी है, नवाचार द्वारा सौ-फीसदी संभव है। गाँवों को शहरों के विकास से काटकर भारतीय भूभाग के समग्र विकास की संकल्पना हरगि़ज़ नहीं की जा सकती है। इस संदर्भ में जनमाध्यमों द्वारा सूचना, शिक्षा एवं वैज्ञानिक तकनीकी ज्ञान का अभिसरण आवश्यक है। देश में कागजी परिकल्पना और आधारहीन परियोजनाओं की परिपाटी बहुत है। बेहतर भविष्य की संकल्पना और टिकाऊ ग्रामीण विकास की दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति महत्त्वपूर्ण कारक है, क्योंकि नवाचार की प्रयोजनीयता और उपादेयता असीम संभावनाओं को जमीनी अधार प्रदान कर सकने में पूर्णतः सक्षम है।

Friday, April 29, 2011

जहाँ अनशन रोज हो रहे हैं

भारत की सामाजिक-पारिस्थितिक तंत्र और राजनीतिक भूगोल अरब जगत से भिन्न होने के बावजूद एक जैसी ही संक्रामक बीमारी से ग्रस्त है। यमन, ट्यूनीशिया, मिस्र और लीबिया जैसे हालात भले यहाँ देखने को न मिले, किंतु शोषित-दमित बहुसंख्यक जनता की आँखों में क्षोभ, असंतोष, पीड़ा और आक्रोश समान रूप से देखे जा सकते हैं। विश्व-पटल पर आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरते भारत के बारे में यह कहना कि भारत भविष्य का छत्रपति राष्ट्र है, सही है। लेकिन, देश की शासकीय व्यवस्था में व्याप्त अराजकता और भ्रष्टाचार की ‘अकथ कहानी’ इस देश की कमजोरी को ही प्रदर्शित करता है। जनता भ्रष्टाचार के इस गणितीय 'हाईएस्ट काॅमन फैक्टर' से बिल्कुल आजि़ज़ आ चुकी है।
विषबेल की भाँति पैर जमाए भ्रष्टाचार से भारत का प्रत्येक नागरिक दुःखी, त्रस्त एवं पीडि़त है। इस प्रवृत्ति से निजात पाने की छटपटाहट और बेचैनी सभी वर्गों में एकसमान देखी जा रही है। वे कारोबारी घराने जिनकी नेता, मंत्री, अफसर व हुक्मरानों से खूब छनती है; आज वे भी पूरी ठाठ से अण्णा हजारे के साथ खड़े हैं। उन्हें अपने पेशे की मर्यादा का भान है जिस पर भ्रष्टाचार न केवल भारी पड़ रहा है, अपितु उनके पारंपरिक धंधे को भी निगलता जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अन्तरराष्ट्रीय काॅरपोरेट घरानों के बढ़ते आवक और दबाव से त्रस्त भारतीय व्यवसाय लगभग मरणासन्न स्थिति में पहुँच चुके हैं। वैश्वीकरण की शब्दावली में भारतीय समाज का शोषण-दोहन जिस अनैतिक और अमर्यादित ढंग से जारी है, उस पर विराम लगाने की दिशा में अण्णा हजारे की पहलकदमी ऐतिहासिक तथा स्तुतियोग्य है।
आजकल अधिकाधिक मुनाफा की संस्कृति ने जिस प्रतिस्पर्धी उपभोक्तावादी समाज को निर्मित किया है, उसकी चोट असह्î है। पश्चिमी विकास-माॅडल पर आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था में पूँजी का संकेन्द्रण कुछ खास लोगों के लिए हितकर है जबकि शेष के लिए घातक है। ऐसे दुर्दिन में सरकारी तंत्र का जनता की समस्याओं से पलायन अचंभित करता है। लोकतंत्र के मूल स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों का भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा होना, खतरे का सूचक है।
हाल के दिनों में भ्रष्टाचार सम्बन्धी खुलासों की बाढ़ ने ‘हरि अनंत, हरि-कथा अनंता’ की शक्ल में सरकार की पीठ थपथपायी है। सरकारी संरक्षण प्राप्त संचार मंत्री ए0 राजा के 2-जी स्पेक्ट्रम मामले ने तो सरकारी तंत्र का पोल खोलकर ही रख दिया है। वस्तुतः इस सौदेबाजी में टाटा-अंबानी की मिलीभगत का खुलासा तो हुआ ही है; इसके अलावे राडिया-टेप प्रकरण से इस बात की भी तसदीक हो चुकी है कि मीडिया किस तरह अतिगोपनीय संसदीय मामलों में भी हस्तक्षेपकारी भूमिका निभा रही है। मीडिया पर यह आरोप की केन्द्रीय मंत्रियों के फेरबदल और मंत्री पद पाने सम्बन्धी अर्हता और मानदण्ड का निर्धारक वह खुद है, प्रथम द्रष्टया तर्कसंगत भले न लगे; किंतु सत्य यही है। इस सन्दर्भ में विकीलिक्स के ‘केबलगेट उद्भेदन’ को इतनी आसानी से खारिज कर देना संभव नहीं है। बेहद चर्चित सीवीसी मामले में पी0जे0 थाॅमस का हटाया जाना और इसको लेकर सरकार की हुई किरकिरी इस बात का संकेत है कि भ्रष्टाचार जैसे संवेदनशील मुद्दे को लेकर सरकार कतई गंभीर नहीं है।
ऊँचें पदों पर आसीन लोग भ्रष्टाचार में शामिल न होने पाए इसी प्रवृत्ति की रोकथाम के लिए सन् 1967 में पहली दफा लोकपाल की स्थापना की गई जिसे सन् 1969 में लोकसभा ने पारित भी कर दिया था। अपनी नियमावली, संरचना और विधि-नियमन की दृष्टि में इस लचर कानून का वर्तमान में कोई औचित्य समझ में नहीं आता है। प्रशासनिक सुधार आयोग की अनुशंसा पर बने इस विधेयक में इतनी खामियाँ हैं कि इसके माध्यम से भ्रष्टाचार के मामले पर अंकुश लगा पाना संभव नहीं है। अनशन के माध्यम से भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की अगुवाई कर रहे अण्णा हजारे का कहना था कि जन लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाने वाली संयुक्त समिति में 50 फीसदी अधिकारियों और बाकी 50 फीसदी में नागरिकों और विद्वानों को शामिल किया जाए; जिसके लिए सरकार अनशन-पूर्व तैयार नहीं थी। नागरिक समाज की ओर से जिन पाँच प्रतिनिधि सदस्यों के नाम संयुक्त कमिटी में प्रस्तावित हैं; वे खुद दूध के धुले हैं या नहीं, यह एक अलग विचार और बहस का गंभीर मुद्दा है जिन पर हाल के दिनों में खूब हो-हल्ला मचा है।
अप्रैल महीने की 5 तारीख को 74 वर्षीय वयोवृद्ध गाँधीवादी एवं सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे दिल्ली के जंतर-मंतर पर लोकव्यापी अनशन पर डटे तो चंद दिनों के भीतर सरकार की कंपकंपी छूट गई। आनन-फानन में जिस तरह से जन लोकपाल बिल की अधिसूचना जारी हुई; वह अनशन की अप्रत्याशित ताकत की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। भारत में सत्याग्रह, अनशन या भूख-हड़ताल कोई नई इबारत नहीं है। महात्मा गाँधी इसके प्रवत्र्तक रह चुके हैं, तो भगत सिंह तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद प्रबल अनुसरणकर्ता। मणिपुर प्रान्त में आज भी अनशन पर डटी इरोम शर्मिला एक अनोखी मिसाल हैं जो पिछले 10 वर्षों से अनशन पर हैं।
आज पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ समवेत स्वर में विरोध का बिगुल फूँक चुका है। इस जनज्वार के पीछे जो भावना सन्निहित है; वह इस बात की तसदीक है कि देशवासी भ्रष्टाचार के चंगुल से मुक्त होने खातिर छटपटा रहे हैं। उनकी इसी विकलता को अण्णा हजारे ने वाणी दी है। मुक्तिकामी अभियान की दिशा में आमरण अनशन का आह्वान किया। अनशन का असर पूरे देश में इस असाधारण शैली में होगा, इसका अंदाजा प्रेस और मीडिया की छोडि़ए खुद उन राजनीतिज्ञों को भी नहीं था जो अरसे से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। प्रतिरोध के स्वर को संगत दिशा और गति देने के लिए इससे पहले भी कई मर्तबा पहलकदमी किए जा चुके हैं; पर सर्वमान्य अगुवा नेता की कमी थी। इसी वर्ष महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि के मौके पर ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ अभियान के तत्त्वाधान में पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट हुआ जो कि विस्मयकारी था।
बहरहाल, हम भारतीयों को यह समझना होगा कि अनशन कोई शिगूफा नहीं है। यह अपनी बात मनवाने का किसी किस्म का ‘शार्टकट’ भी नहीं है। यह एक जन-अभियान है जिसमें पूरे देश की भागीदारी अपेक्षित है। इस आन्दोलन में उन लोगों को भी शामिल किए जाने की जरूरत है जो हाशिए पर हैं। जिनके घरों में हर क्षण, हर घंटे, हर रोज अनशन जारी है। बस देखने की दृष्टि चाहिए। जिस घर में गरीबी से ऊबकर विवाहिता अपने बच्चों सहित जान दे देती है; उस घर में उस रोज चूल्हा नहीं जलता है। यानी परोक्ष अनशन। जिस घर का लाडला बेरोजगारी से उपजी निराशा से खुदकुशी कर लेता है; उस घर में भी सभी परिजन अनशन पर ही होते हैं। कालाहाण्डी, पलामू, विदर्भ, दंतेवाड़ा, बस्तर, दादरी, सिंगूर या फिर नियमागिरि जैसे सैकड़ों परिक्षेत्र ऐसे हैं जहाँ हर रोज किसी न किसी कारण से अनियतकालीन अनशन चालू है। अनशन वही वर्ग कर रहा है जो वंचित, प्रताडि़त और घोर उपेक्षा का शिकार है। अलक्षित अनशन पर अरसे से डटा यह तबका भ्रष्टाचार की मार से सर्वाधिक बेज़ार है। दरअसल, इनका परोक्ष अनशन इसलिए चर्चित या प्रभावशाली नहीं है क्योंकि अण्णा-अनशन की भाँति इनके पास कोई प्रायोजक(दानकर्ता) नहीं है। सुविधा और साधनहीन इस वर्ग के पास भ्रष्टाचार के खिलाफ तकनीकी अभियानों(एसएमएस/फोन मिसकाॅल्स/सोशल साइट्स) का कोई मजबूत ‘नेटवर्क’ नहीं है। और, न ही गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला मीडिया उनके पास है जो अपने कवरेज में अनशन के मूल मुद्दों से पलायन करता है। हमें ध्यान देना होगा कि यह वही मीडिया है जो बि़लावजह अण्णा हजारे को ‘सुपरमैन हीरो’ साबित कर एक अवांछित किस्म के अतिरेक को जन्म देता है।

Sunday, April 24, 2011

सौ टके की एक-एक बात



1. आम-आदमी रोजमर्रा की ढेरों छोटी-बड़ी मुश्किलों से घिरा है। इन समस्याओं को सरकारी मुलाजिमों ने और भी सुरसाकार बना डाला है। कागजी धरातल पर इन सेवकगणों की ताकत भले गौण दिखती हो किंतु जनता की जेब पर सर्वप्रथम गैरकानुनी हाथ यही फेरते हैं। कहाँ एक ओर जनता जिंदगी की मूलभूत जरूरतों से महरुम है। असमय अपने आत्मीयों को खो रही है; वहीं दूसरी ओर नया बना धनाढ्य वर्ग व्यक्तिकेन्द्रित ‘पूँजी की पराकाष्ठा’ पर बिछे जा रहा है।

2. भूख-प्यास से विकल इन समुदायों की समस्या अत्यंत विकराल है। राहत के जो संसाधन मौजूद हैं वे भी या तो सीमित हैं या फिर अपर्याप्त। तीस पर सरकार के नीति-नियंता नोच-खसोट के नए-नए तरीके ईजाद कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के आवरण में लिप्त नेता-हुक्मरानों की धनलिप्सा जगजाहिर हैं जिससे उनके पार्टी-एजेण्डे पर छिड़के खुशबूदार इत्र कोई प्रभाव न छोड़ पा रहे हैं। सामाजिक-राजनीतिक विभिन्न पहलूओं की सूक्ष्म पड़ताल के साथ बारीक विश्लेषण करें तो चैंकाने योग्य निष्कर्ष सामने आते हैं। उनमें से एक तो यही कि शासकीय कर्मचारियों की लूट-शाखा सर्वाधिक समृद्ध है। ये सरकारी बाबू सदैव उन रास्तों को चैाड़ा करने के फिराक में रहते हैं जिस मार्ग से अधिकतम सरकारी राशि की निकासी सबसे सुविधाजनक है।

3. यह लूट की चादर इतनी चौरस है कि इसमें भ्रष्टाचार के असीम आँकड़े आसानी से समा सकते हैं। भ्रष्टाचार की बात निकली तो आपको बता दें कि आपमें से जो लोग भी भ्रष्टाचार के दैत्य से परिचित हैं उनमें से बहुलांश इन प्रवृत्तियों को खत्म करने की दिशा में पहलकदमी करते दिख रहे हैं। यह पहलकदमी फौरी तौर पर समाजसेवी अण्णा के अनशन वाले फलसफे की उपज न हो तो भी लोकहित में इसका महत्व अत्यंत विशिष्ट है। आचरण की शुद्धता या चरित्र की शुचिता के प्रश्न पर हम कितने भी ढोल पीट लें, बाकी सचाई यही है कि भ्रष्टाचार के काले अक्षरों को मिटाना तभी संभव है जब जनभागीदारी समग्र मानवीय चेतना के साथ एकजुट हो।

4. मध्यप्रदेश में पिछले सात महीने से लागू लोकसेवा गारंटी अधिनियम का जिक्र करते हुए पत्रकार मनोज जिन महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कराना चाहते हैं उन्हें चाहकर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। उनका सुझाव गौरतलब हैं कि भ्रष्टाचार पर चोट जरूरी है लेकिन यह जानना तो और भी जरूरी है कि हम सही चोट कहाँ करे? ‘सौ सुनार की, एक लुहार की’ कहावत के तर्ज पर किए जाने वाले प्रहार से भ्रष्टाचार के रवे निश्चित रूप से कमजोर होंगे; साथ ही इसमें लिप्त भ्रष्ट लोगों के ऊपर वाजिब कार्रवाई भी संभव हो सकेगी।

5. भ्रष्टाचार के जिन सुकोमल प्रतीत होते पौधों की ओर पत्रकार मनोज इशारा करते दिख रहे हैं; उन्हें वटवृक्ष बनने से रोकने की जिम्मेदारी हमारी है। देशवासियों की संचित ऊर्जा का अपव्यय किसी कीमत पर न हो, इस ओर हम ध्यान दें तथा भ्रष्टाचार के निवारण हेतु संकल्पयुक्त अभियान को दिशा दें; यह बेहद जरूरी है। मध्यप्रदेश में चालित लोकसेवा गारंटी अधिनियम की तरह अन्य प्रान्तों में इस कानून-प्रावधान को लागू किया जाना अपनेआप में एक बेहतर कल की तलाश है जिसमें हिस्सेदारी का मतलब अपने साथी, समाज, संस्कृति और सामुदायिक विश्व के प्रति जवाबदेह बनना है।

Saturday, April 23, 2011

परीक्षा में फेल, न नेट हुए न जे0 आर0 एफ0

उम्मीद हरी-भरी थी कि इस बार खालिस पास न होंगे बल्कि जे0 आर0 एफ0 अवार्ड होगा. परिणाम आया तो पेटकुनिया सो कर घंटों से रो रहे हैं. मेहनत का सिला यह कि पाँचवी बार यूजीसी-नेट में ‘मन भर गदहे’ का सर्टिफिकेट मिल गया. घरवालों ने कहा कि क्या पढ़ते हो कि कुल जमा 200 में से 80-90 अंक भी नहीं आ रहे हैं। घास-फूस लिखोगे तो परीक्षक क्या खाक नंबर देगा. खर-पतवार लिखो और उम्मीद करो रुपली अंकों की. प्रतिभाशाली पास कर गए, बचे गंवार तुम जैसे श्रेणी के लोग. काम के न काज के, सेर भर अनाज के. केतली में चाय बेचो या फेरी करते हुए चायछनी. पढ़ाई-लिखाई तुम्हारे वश की बात नहीं. शादी कर ही दिया है. बच्चे भी पैदा कर ही लिए हो. अब गृहस्थी में मन रमाओ. देश-चिंता छोड़ कर घर-बार में हिया लगाओ. दो-अन्नी से चवन्नी या अठन्नी जो बना सको, तत्काल बनाना शुरू कर दो.

अब कौन इन्हें समझाए कि पिछली दफा मैं थोड़ा-सा के लिए चूक गया था. ‘जनसंचार एवं पत्रकारिता’ विषय में नेट/जे0आर0एफ0 होना आसान बात नहीं है. अंग्रेजी माध्यम से लिखने वाले तो बाजी मार भी ले जाते हैं. हिन्दी माध्यम से लिखकर पास होने वालों की अक्सर नानी याद आ जाती है. मुझ से कम जानकार अंग्रेजी में बढि़या अंक पा जाते हैं. किस्मत है, माया है.

लेकिन घरवाले पूछते हैं कि इस बार संपूर्ण परिणाम में कुल कितने नेट और कितने जे0आर0एफ0 हुए. मैं गिनती करता हँू, हजार से ऊपर बैठते हैं. बताता हँू तो घरवाले कहते हैं कि बबुआ अपने एम0ए0 के गोल्ड मेडल का आमलेट बनाकर खुद ही खाओ, लेकिन हमें चखाओ मत. दुनिया भर के लड़के पास हो कर देश का नाम रौशन कर रहे हैं, और एक तुम छछलोल हो कि बिना किए-धरे सबकुछ पाने कव स्वांग रच रहे हो.

कुछ दिनों बाद सबकुछ सामान्य. अगले माह फिर यूजीसी नेट की परीक्षा तय है. प्रवेश पत्र भी मिल चुका है. उम्मीद फिर हरे-भरे हो चले हैं.....सोच है, छठी बार तो दांव लगेगा ही ससूर...!

Friday, April 22, 2011

वेबजगत की काम-वीरांगनाएँ




तन से सुघड़।
मन से खुली।
अल्हड़। बिंदास।
सुपर्ब। फण्टास्टिक।
चोखा। माल।
किस्म-किस्म के जिस्म। रुपली पर नहीं, रुपहले पर्दे पर। कम एण्ड ओपन दि डोर। लोकलाज नहीं। शर्म या लिहाज नहीं। फटाफट टाइप। और चेहरे देखने शुरू। फोटो का धंधा। दृश्य का धंधा। नंगई और खुलेपन का बाज़ार। उपभोक्ता जो की-बोर्ड पर क्लिक के समय अपनी उम्र 18 से पार आंकता है। घंटों इंटरनेट पर। पोर्न साइटों पर। कामोत्तेजक चित्र एवं दृश्यों के साथ। काम-भावना से उन्मत इन क्लिपों में आपकी मर्जी पर तकनीकी दुनिया में समाया ‘आभासी लोक’ मनमर्जी करने लगता है। हम रिश्तों को भूल जाते हैं। सम्बोधन का अर्थ से सम्बन्ध-विच्छेदन हो जाता है। हर स्त्री जिसका फोटो पोर्नोग्राफी में चस्पा है, उनका मांसल शरीर और देह का उभार हमारे लहू के तापमान को बढ़ा देता है। आपके एक क्लिक पर सैकड़ों फोटो उभरते हैं स्क्रीन पर। वहीं हजारों उससे ‘डिफरेंट’ तस्वीरें हमारे मन में बनने लगती हैं। यह भी एक किस्म की अकथ कहानी है। आइए इसका एक सिरा पकड़ पड़ताल करें और देखें कि वेबजगत की इन काम-वीरांगनाओं की असली असलियत क्या है....?


(आप पढ़ सकेंगे ‘इस बार’ में जल्द ही - राजीव रंजन प्रसाद)

युवा राजनीतिज्ञों का मनोभाषिक संचार : शोध-पड़ताल

राजीव रंजन प्रसाद

समकालीन भारतीय राजनीति में ‘युवा राजनीतिज्ञ’ शब्द राजनीतिक प्रतिनिधित्व का एक महत्वपूर्ण घटक है, जिसमें संचार-सम्बन्धी सक्रियता सबसे प्रबल मानी गई है। सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से ‘युवा राजनीतिज्ञ’ का सफल या असफल होना कुछ निश्चित कारकों पर निर्भर करता है। उदाहरणार्थ-व्यक्ति विशेष के आचरण और व्यवहार मंे प्रदर्शित मूल-प्रवृत्तियाँ, व्यक्तित्व, भाषिक व्यवहार, संज्ञानात्मक प्रत्यक्षीकरण एवं बोध, शैक्षिक-पृष्ठभूमि, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण, देश-काल-परिवेश से जुड़ाव, राजनीतिक परम्परा, विरासत से अंतःसम्बन्ध आदि-आदि। इस नाते किसी युवा राजनीतिज्ञ के व्यक्तित्व या आचरण-व्यवहार में प्रदर्शित अभिरुचि, अभिव्यक्ति के स्तर, ग्रहणशीलता के गुण और अनुभूति-संवेग संबंधी सभी प्रत्ययमूलक क्रियाएं उसके मन-मस्तिष्क की आवश्यक परिघटना मानी जाती हैं, जो संचार-संपादन के लिए अनिवार्य हैं।
संचार मनुष्य की प्राथमिक एवं अनिवार्य आवश्यकता है। संचार के माध्यम से मनुष्य अपने सामाजिक सम्बन्धों का न केवल निर्माण करता है, अपितु अपने व्यक्तित्व और सहसम्बन्धों का भी विस्तार करता है। विशेषकर राजनीति में संचार और संचारक का स्थान अन्यतम है क्योंकि संवादहीनता की स्थिति एकीकृत राष्ट्र, राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय संगठन, संस्थागत व्यवस्था, सुदृढ़ सामाजिक समूह आदि महत्त्वपूर्ण सत्ता-इकाइयों तक को छिन्न-भिन्न कर सकती है। अतः नेतृत्व की दृष्टि से व्यक्ति का व्यक्तित्व अगर प्रधान माना जाता है तो सिर्फ इसी कारण कि प्रभावी व्यक्तित्व सम्प्रेषण-कौशल के महत्त्व को समझता है जिसके कारण संवादहीनता की स्थिति ही नहीं उपजती। किसी भी नेतृत्व को सही दिशा-दृष्टि दे पाना तब तक संभव नहीं है जब तक उसमें सक्रियता और गतिशीलता का ओज और प्रभाव न हो। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ‘अतीत की नींव पर भविष्य का निर्माण’ जैसी विज्ञापन-पंक्ति गढ़ना इसी संवादहीनता को ख़त्म करने की कवायद है ताकि वह अपने मतदाताओं, कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों को पार्टी के गौरवशाली इतिहास और विरासत से परिचित करा सके; साथ ही उन्हें मनोनुकूल दिशा में प्रेरित भी कर सके।
विदित है कि संचार का केन्द्रीय तत्त्व सूचना है जो शक्ति का अक्षय स्रोत और भाषा का गत्यात्मक पहलू है। भाषा वह जरूरी साधन है, जिसके द्वारा मानव-समुदाय परस्पर विचार-विनिमय करता है। यह कुछ निश्चित प्रारूपों, कुछ निश्चित नियमों और परंपराओं के माध्यम से हस्तांतरित होने वाली प्रक्रिया है। किसी व्यक्ति विशेष के संदर्भ में प्रयुक्त भाषा के मनोविज्ञान को समझना जितना जरूरी है, उतना ही समाज-भाषा के विविध आयामों को भी। साथ ही, भाषिक मनोविज्ञान अर्थात मनोभाषिकी को संचार-दृष्टि से जोड़ा जाना क्योंकर महत्वपूर्ण है, प्राचीन भारतीय वैयाकरणों और आधुनिक भाषाविदों के भाषा सम्बन्धी चिन्तन का आधुनिक संदर्भ क्या है, यह जानना भी दिलचस्प है।
प्रथमतः मनुष्य का सीधा सामना दूसरे व्यक्ति के बाह्य रूप से होता है। एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति को जानना-समझना संचार का प्रत्यक्षपरक पहलू है जिसे व्यक्ति के मनोभाषिक पक्ष के माध्यम से जाना-समझा जा सकता है। मनोभाषिक पक्ष के अध्ययन से तात्पर्य विश्लेषण-प्रक्रिया के उस संदर्भ से है कि संचार अथवा संवाद के समय अमुक व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में क्या-क्या घटित होता है? भाषिक-स्तरण की भूमिका कैसी है जो मूलतः लिंग, वयस्, वर्ग, जाति, विषय एवं प्रयोजन पर आधारित होती हैं? भाषिक विविधता और उसके प्रभावशीलता को कूट अन्तरण, कूट मिश्रण आदि के आधार पर किस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है; यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है? भाषा के परोक्ष सहयोगी के रूप में अवाचिक क्रियाएँ किस हद तक और किन कारणों से महत्वपूर्ण हैं; इसकी खोजबिन भी आवश्यक है? इतना ही नहीं, समाज भाषाविज्ञान और मनोभाषाविज्ञान के लिए आज दो प्रश्न विशेष महत्त्व के हैं कि भाषा के माध्यम से हम अपने भिन्न-भिन्न व्यवहारों को साधते कैसे हैं और एक खास तरह से साधते हैं, तो क्यों? यदि इसे युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के संदर्भ में केन्द्रित कर कहा जाए तो यह आकलन नितान्त संभव है कि राहुल गांधी, वरुण गांधी क्यों नहीं हैं और वरुण गांधी अखिलेश यादव क्यों नहीं?
सबसे अहम बात यह है कि भारत की वर्तमान जनतांत्रिक संसदीय प्रणालीजन्य राजनीति यदि जनआंदोलन, जनसरोकार, जनचेतना और जनकल्याण जैसे पारंपरिक मुद्दों से पलायन कर चुकी है, तो इसकी एक मुख्य वजह राजनीतिक युवा नेतृत्व का निष्क्रिय और निष्प्राण होना भी है। भारत में 55 प्रतिशत आबादी युवा-वर्ग की है। फिर भी, लोकतांत्रिक प्रणाली भ्रष्ट और पतनशील है। यह स्थिति इस बात का द्योतक कही जा सकती है कि भारतीय युवा ‘भ्रान्त-स्थिति’ में हैं या फिर ‘युवा नेतृत्व’ सुसुप्तावस्था में है। शक्तिशाली संचार-साधनों की उपलब्धता के बावजूद सार्थक संपर्क-साहचर्य बेहद कमजोर है या फिर संवादहीनता की स्थिति घनघोर है। छात्र-आन्दोलन और विश्वविद्यालय-राजनीति हिंसा, अपराध, माफिया, गुंडागर्दी और असामाजिक तत्त्वों के रूप में चिह्नित है। जनसमाज की निगाह में ऐसे दो-चार प्रतिनिधि युवा राजनीतिज्ञ भी नहीं है, जिन्हें देख कर या वैकल्पिक युवा नेतृत्व को ले कर ताल ठोंकी जा सके।
लिहाजा, भारतीय राजनीति में वंशवाद से उपजे युवा नेताओं की भरमार अवश्य है किंतु आमजन पर प्रभाव नील-बट्टा-सन्नाटा है। शून्य की इस स्थिति में राजनीतिक विरासत द्वारा उभरे ‘युवा नेतृत्व’ से ही जन-अपेक्षायें अधिक हैं। राहुल गांधी की लोकप्रियता इसकी साक्ष्य है। बता दें कि हाल ही में सेंटर फाॅर मीडिया एंड कल्चरल रिसर्च के ताजा सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि राहुल गाँधी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। तकरीबन 33 शहरों में तैंतीस हजार युवाओं के बीच कराये गए इस सर्वेक्षण का निष्कर्ष या दावा कितना सही है? इसका अंदाजा हाल ही में संपन्न हुए बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम से लग सकता है। देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में राहुल गाँधी सरीखे युवा पहुँचते अवश्य हैं; पर परिसर में उनके पहुँचने का प्रभाव कम विरोध का असर ज्यादा देखने को मिलता है। बेशक! युवा-राजनीति में राहुल गाँंधी लोकप्रियता के शीर्ष पर काबिज़ हैं किंतु उनकी पैठ और असर का ग्राफ डवाँडोल है। वजह साफ है कि युवा कांग्रेस का आन्तरिक धड़ा मजबूत स्थिति में नहीं है। विभिन्न प्रांतों में व्याप्त अंदरूनी कलह, खींचतान और वर्चस्व की रस्साकसी ने राहुल गाँधी को दुविधा में डाल रखा है जिससे निपटे बगैर ‘मिशन 2012’ या फिर ‘मिशन 2014’ की बात करना बेमानी है।
ऐसे में युवा-राजनीतिज्ञों के संचार सम्बन्धी गतिविधियों पर आधारित कार्यकलापों का समाज भाषावैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं मूल्यांकन अनिवार्य है। बहुधा इस तरह के शोध में जिन इकाइयों का चयन किया जाता है, उसमें चुने गए राजनीतिज्ञों के जीवनवृŸा के अतिरिक्त व्यावहारिक कार्यकलाप और उपलब्धियों का विवरणवृŸा अधिक होता है, वहीं व्यक्तित्व की आंतरिक संरचना का मापन-मूल्यांकन और विश्लेषण गौण होता है। अक्सर हम उन कारकों को नहीं चिह्नित कर पाते हैं जो किसी व्यक्ति के स्वभाव, आदत या चरित्र के गठन में मुख्य किरदार की भूमिका निभाते हैं। सूक्ष्म और सूक्ष्मतर भाषा में व्यक्त व्यक्तित्व का यह पक्ष मनोभाषिक होता है, जो यह निर्धारित करता है कि किसी जनसमूह में कुछ खास तरह के व्यक्ति के भीतर ही नेतृत्व करने या नेता बनने की योग्यता क्यों प्रबल हो उठती है? ऐसे नेतृत्वकत्र्ताओं की सामाजिक सक्रियता और वैचारिक क्रियाशीलता लोगों को तुरंत अपनी ओर आकर्षित क्यों और किस तरह कर लेती है? इस तरह के शोधपरक कार्यों का उद्देश्य बतौर संचारक युवा राजनीतिज्ञों के मानसिक स्तर, शारीरिक चेष्टाओं और व्यावहारिक क्रियाकलापों के आलोक में संचार सम्बन्धी मनोभाषिक पक्ष का निरीक्षण-परीक्षण करना है।
वस्तुतः व्यक्ति और समाज के मध्य विकासमान उन कारकों को भी आज के युवा राजनीतिज्ञों के संदर्भ में देखने-टटोलने की कोशिश की जानी चाहिए जिनकी परिधि में परम्परा, संस्कृति और आधुनिकता का बदलता परिप्रेक्ष्य शामिल है। यहाँ नित नवीन परिवर्तन के उत्तर-आधुनिक संदर्भ में ‘युवा राजनीतिज्ञों’ के सामाजिक पक्षधरता और संकल्पयुक्त प्रतिबद्धता को सर्वोचित ढंग से समझे जाने का विकल्प भी खुला होना महत्त्वपूर्ण है। भारतीय व पाश्चात्य चिन्तन के बहुआयामी दृष्टिकोणों, जनसंचार माध्यमों की भूमिका, उल्लेखनीय संचार प्रतिदर्शाें तथा भाषा सम्बन्धी भाषिक राजनीति के मुख्य पहलुओं पर केन्द्रित कार्य का होना आज के सन्दर्भों में इसलिए भी अपेक्षित है; ताकि समकालीन युवा राजनीतिज्ञों का समाज भाषावैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण-मूल्यांकन किया जा सके।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि संचार के उत्तरोत्तर विकासक्रम ने देश, काल और परिवेश को प्रभावित करने के अतिरिक्त कुछ ऐच्छिक और अनैच्छिक जरूरतों को भी अनिवार्यतः लागू कर दिया है, जो मनुष्य की मूल प्रवृतियों, ऐन्द्रिक आवश्यकताओं और मानवीय क्रियाकलापों में शामिल है। अपने इस शोध-दृष्टि में इन बातों पर सूक्ष्म दृष्टि रखने का प्रयास होगा कि संचार साधनों की होड़ और सहज उपलब्धता की वजह से सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक हर पक्ष प्रभावित हैं। एक ओर, उत्तर आधुनिक संस्कृति का नूतन-नवीन संस्करण संचार क्रांति के एक सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुआ है तो दूसरी ओर संस्कृति और समाज पर नकारात्मक प्रभाव भी दृष्टिगोचर है। भाषा के वर्चस्व और ह्रास में पूंजी और मीडिया तंत्र जिस तरह हावी है, उस आलोक में संसक्ति प्रक्रिया अर्थात वैश्विक और स्थानीय संगठन के बीच प्रगाढ़ता खतरनाक तरीके से बढ़ी है। वर्तमान में राजनीति और सत्ता के हथियार के रूप में भाषा-प्रयोग और भाषा-निर्माण के जो सायास व अनायास प्रक्रम चल रहे हैं, उनके दूरगामी परिणाम होंगे। वस्तुतः जाति, वर्ग, लिंग, संप्रदाय, राजनीति, बाजार आदि से भाषा का गठजोड़ और अन्योन्याश्रित क्रियाएँ; उत्तर आधुनिक समय-समाज और हिन्दी भाषा के लिए विशेष चिंता और चिंतन की विषय है।
भारत के नवनिर्माण में जिन राजनीतिक चिंतक-विचारक राजनेताओं ने समता-समानता-भ्रातृत्व की धुरी पर लोकतंत्र का बुनियादी आधार तैयार किया और अकल्पनीय योगदान दिया, आज पूरे जनतांत्रिक परिदृश्य से गायब हैं। श्रीअरविन्द, तिलक, गांधी, आम्बेडकर, मानवेन्द्रनाथ राय, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण जैसे राजनेताओं का समकालीन राजनीति में उभार, वर्चस्व और लोकप्रियता घटी है तो क्योंकर? समकालीन राजनीतिज्ञों के संदर्भ में बात करें तो जनमाध्यम ही संदेश बन गए हैं और उनकी प्रभावशीलता और उन पर आश्रितता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। अब ‘राजनीति’ संचार के हिसाब से प्रबंधन में तब्दील हो गयी है। इस प्रणाली में राजनीतिक-प्रतिनिधि अपने नेतृत्व द्वारा मानव-संसाधन को निर्देशित-नियंत्रित करते दिख रहे हैं। इस शोध में हमारी एक और समस्या उन युवाओं की हिस्सेदारी और भागीदारी से संबंधित ठोस कारणों की पहचान करना है, जो आमजन के प्रतिनिधि युवा-चेहरा न हो कर वंश-परंपरा की उपज हैं। यह ‘युवा ब्रिगेड’ आमजन की चिंता, तकलीफ, असुरक्षा और संवेदनशील मसलों से जुड़ा हुआ दिखाया तो जा रहा है, पर वस्तुतः है भी या नहीं, और है तो कितना; यह एक गंभीर चिन्तन का विषय है।
राजनीति जिसके बारे में आमफ़हम धारणा है कि यह समाज को बदलता है, की उस रिक्तता की ओर ध्यान दिलाता है, जिसे हम ‘युवा नेतृत्व’ के नाम से जानते हैं। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भारत में अगर किसी वर्ग को दोयम दर्जे पर रखा गया है या फिर संसदीय-प्रांतीय प्रणाली में सक्रिय भागीदार बनने का अवसर या उचित प्रतिनिधित्व एक लम्बे अरसे तक नहीं मिला है तो वह है युवा। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में जनआंदोलन और जनसरोकार की राजनीति का आयाम घटा है और व्यक्तिनिष्ठ दलीय राजनीति का चलन बढ़ा है। ऐसे में जमीन से जुड़े या संघर्ष के मोर्चे पर लड़ने वाले युवा-राजनीतिज्ञ नदारद हैं। उनकी जगह सत्तासीन वंशावली का एकाधिकार है।
बहरहाल, आज ‘सूचना समाज’ और ‘सूचना-राजमार्ग’ मनुष्य के दैनिक क्रियाकलापों के अभिन्न हिस्से बन चुके हैं। मनुष्य का व्यक्तिगत आचरण, व्यवहार, क्रियाशीलता, संज्ञानात्मक प्रत्यक्षीकरण व बोध, पारस्परिक अन्तक्र्रिया, मूल प्रवृत्तियाँ, अनुकरण, प्रेरणा, व्यक्तित्व, नेतृत्व, जनमत और प्रचार सभी संचार हेतु सक्रिय भूमिका में नजर आ रहे हैं, जो मनोभाषिक प्रवृत्तियों का सूक्ष्म प्रदर्शन एवं प्रकटीकरण है। परोक्ष-अपरोक्ष अथवा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर संचार और मनोभाषिक व्यवहार के बीच गहरा अन्तर्सम्बन्ध है, जो व्यक्ति के सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण द्वारा सृजित है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ‘संचार’ और ‘मनोभाषा विज्ञान’ के समेकित रूप-रचना पर उल्लेखनीय शोध का सर्वथा अभाव है। यह विषय अपनी प्रकृति में नवीन ज्ञान की खोज के प्रयास रूप में देखा जाना चाहिए।

(मीडिया शोधार्थी राजीव रंजन प्रसाद ‘संचार और मनोभाषिकी: युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के विशेष सन्दर्भ में’ विषय पर इस वक्त काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शोध कर रहे हैं।)

ओरहन




सुबह से उल्टा-पुल्टा हो रहा था. मैं मौन था, लेकिन मन चालू.
फोन आया तो खीझ हुई. एक और काम बढ़ गई थी. काॅल सीमा का था. अटेंड करना जरूरी. नही ंतो बाद में ओरहन ही ओरहन. शादी नई हुई होती तो मनाने के हजार नुस्खे इश्तहार की तरह एक के बाद एक परोस देता. हाथ कंगन को आरसी क्या? आजकल दुल्हे को थोकभाव एसएमएस आते हैं कि दुल्हन को कैसे रिझा कर रखें, अपने पर लट्टू कर दें. वहीं लड़कियों को डायरेक्ट काॅल. पतिदेव शनि-महराज न बने यानी कुपित न हों, इसके लिए ये-ये नियामत.
अभी-अभी जो वाक्या घटित हुई थी. उससे सीधी मुठभेड़ कर अपनी बीवी से फोनियाना संभव न था. पत्रकारिता माने जान की आफत. कब चाँद, कब तरेगन दिख जाएंगे, कोई अता-पता नहीं. फिलहाल रिंग दुबारा होते देख मैंने लपककर मोबाइल उठा लिया.
‘हैलो...,’
‘... ... ...’
(माफ करें, मेरा फोन स्विच आफ हो गया है. यह कहानी मोबाइल रिचार्ज होने के बाद सुनाई जाएगी, बशर्ते आप हुंकारी भरने की कृपा करें.)

Tuesday, April 5, 2011

अनशन का हासिल

बहुप्रतीक्षित तारीख 5 अप्रैल।
आज से शुरू है अन्ना हजारे का आमरण अनशन। इस मुहिम में हर देशवासी शामिल है-अपरोक्ष या परोक्ष ढंग से। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सड़ांध और सत्ता के नकारापन को दूर करने के लिए गाँधीवादी चिंतक तथा सामाजिक एक्टिविस्ट 74 वर्षीय अन्ना हजारे ने लोकपाल विधेयक को बिना शर्त लागू किए जाने की खातिर यह मार्ग चुना है।

गाँधी के सिद्धांतों को अडिग आस्था और विश्वास के साथ मानने वाले अन्ना हजारे के साथ इस वक्त तकरीबन 80 हजार लोग शामिल हैं। न्यू मीडिया के फेसबुक संस्करण पर करीब 23 हजार लोग हमराही या हमकदम बन चुके हैं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग 25 लाख लोगों के इस आंदोलन में शामिल होने की आस है। युवा सहित कई सज्जन-लोग पूछ रहे हैं यह अनशन क्यों...? किसलिए...? ...और किसके लिए? बताने वाले बता रहे हैं सबकुछ।

इसी क्रम में नंबर 022615000792 पर एक मिसकाॅल करने का आग्रह भी कर रहे हैं। दिल्ली के जंतर-मंतर पर देश भर से जुटे 200 लोग उपवास के साथ अनशन प्रारंभ करने हेतु कटिबद्ध हैं। इस बात की सूचना मय देशवासियों को विविध माध्यम से दी जा चुकी है और अभी भी दिए जाने की प्रक्रिया जारी है।

अधिकांश भारतीय इस घड़ी उनींदी अवस्था में हैं या फिर अलसाए हुए से। कलतक वे क्रिकेट विश्वकप जीते जाने की प्रसन्नता में रात्रि-जागरण के अभियान में लगे थे। ‘विजयी विश्व तिरंगा प्याारा’ का धुन बजाते हुए खूब हो-हल्ला, हुल्लड़ और आतीशबाजियाँ की थीं। अन्तरराष्ट्रीय निगाह में राष्ट्रगौरव की सबसे बेशकीमती थाती पाए भारतीयों को देश में व्यापत भ्रष्टाचार का भान है, लेकिन वे साफ मौन हैं क्योंकि उन्हें इस बारे में मुँह खोलने के मायने समझ में नहीं आते हैं। देश की संपति-परिसंपति का लूट और बंटाधार जारी है, लेकिन इस बाबत कुछ कहने से जी डरता है कि कहीं स्वयं की मुनाफा वाली जेब न कट जाए।

वे निहाल हैं कि देश के वर्तमान प्रधानमंत्री से लेकर भावी प्रधानमंत्री का टैग लटकाए कांग्रेस युवराज तक उनके साथ क्रिकेटिया जुनून में शामिल हो चुके हैं। सो वे देश की सत्ता, शासन और नौकरशाही के भ्रष्ट आचरण के खिलाफ आयोजित इस अभियान का अर्थ नहीं थाह पा रहे हैं। वे अंदाज रहे हैं, आमरण अनशन का हासिल क्या होगा...? इरोम शर्मीला जो दस वर्षों से ऐसे ही गाँधीवादी सत्याग्रह और आमरण अनशन में मर-खप रही हैं या फिर खुद जंतर-मंतर स्वयं ऐसे कई बिंबों-प्रतीकों का गवाह रहा है, क्या बात कभी सुनी गई?

हम उन्हें आश्वस्त कर रहे हैं, हाँ इस दफा सुनी जाएगी। आपसे गुज़ारिश है कि इस विश्वास और मुहिम की लकीर लंबी करने खातिर आप भी हाँ करें और हमारे इस अभियान को जरूरी संबल दें क्योंकि नई लकीर लक के सहारे आगे नहीं बढ़ती; उसकी उम्र हम लंबी करते हैं।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...