Sunday, September 4, 2011

सिनेमाई ज़मीन पर ‘फ़सल’ का सफल प्रदर्शन

कपोल-समीक्षा

बीते पखवाड़े रिलीज हुई फिल्म ‘फ़सल’ ने रिकार्डतोड़ लोकप्रियता हासिल की है। सिनेमाघरों और मल्टीकाम्पलेक्सों में फिल्म-टिकट को लेकर भारी गहमागहमी और हाउसफुल की स्थिति है। बेहद पेशेवर माने जाने वाले ख़बरिया-चैनल भी इस फिल्म को पूरी गंभीरता के साथ नोटिस ले रहे हैं। चौबीसों घंटे समाचार प्रसारित करने वाले इन निजी चैनलों पर घंटों चर्चाओं का दौर चल रहा है। हिन्दी मीडिया के साथ-साथ अंग्रेजी मीडिया ने भी इस फिल्म को ‘ऐतिहासिक फिल्म’ कहा है जिसने भारतीय किसानों की वास्तविक स्थिति और विडम्बना को हू-ब-हू सिनेमा के परदे पर उतारने का जोखिम उठाया है।

वहीं युवा निर्देशक राजीव रंजन जो अपनी इस पहली फिल्म के प्रदर्शन को लेकर बेहद चिन्तित थे; इस घड़ी निश्चिंत मुद्रा में अपनी फिल्म से जुड़ी ख़बरों को देख-सुन एवं गुन रहे हैं। बॉलीवुड-बाज़ार में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाला मीडिल क्लास इस फिल्म को इस तरह सर आँखों पर बिठा लेगा; यह भरोसा खुद निर्देशक राजीव रंजन को नहीं था। हाई-प्रोफाइल जीवनशैली को परदे पर देख हर्षित-रोमांचित होने का आदी बन चुका मध्यवर्ग फिल्म ‘फसल’ को देखकर ऐसी अप्रत्याशित एवं त्वरित प्रतिक्रिया देगा; यह अपनेआप में जितना हैरतअंगेज है, उतना ही सुखद भी।

संगीत के धुन और गाने के बोल जो काफी पहले ही चर्चा में आ गए थे; दर्शकों को दिल से झूमाते हैं। इसमें ज़मीन से गहरा जुड़ाव है, तो आत्मीयता का थाप भी है जो किसानी-समाज के सत्व को प्रकट करता है। खासकर युवा कवि अनुज लुगुन के लिखे गीत ‘महुआई इस गंध में मैं रंग गई पिया संग’ ने दर्शकों के मन-दिल को सर्वाधिक छुआ है।

युवा पटकथाकार प्रमोद कुमार बर्णवाल लिखित पटकथा ‘फ़सल’ के बाबत निर्देशक राजीव रंजन विस्तार से बताते हुए कहते हैं-‘‘‘इन दिनों किसानों की दशा-दुर्दशा पर कुहराम थोकभाव मच रहे हैं, लेकिन उनकी बेहतरी के लिए उन समस्याओं का कोई समाधान नहीं निकाला जा रहा है जिनसे वे बुरी तरह पीड़ित और त्रस्त हैं। इस फिल्म की पटकथा इसी थीम पर आधारित है जिसका नायक एक मामूली पत्रकार है जो ग्रामीण पत्रकारिता करना चाहता है, और जिसका रोल-मॉडल पी0 साईनाथ हैं जो एक प्रतिष्ठित ग्रामीण पत्रकार हैं। आगामी भविष्य में किसी दिन उनसे मिलने का आस संजोये नायक गाँव-गाँव घूमता है। ग्रामीण लोगों से मिलता है, उनसे बातचीत करता है, उनका दुखड़ा सुनता है।

उसे ताज्जुब होता है कि गाँव के लोग तमाम विडम्बनाओं के बावजूद उत्सवधर्मी हैं। पर्व-त्योहार के मौकों पर उनमें आपसी मेल-बहोर तथा सौहार्द जबर्दस्त है। उल्लास का रंग है, तो सपनों का सजीला संसार भी। लेकिन अफसोस की नायक द्वारा भेजी गईं ख़बरें समाचार-पत्रों में स्थान कम पाती हैं या कभी-कभी उसे सीधे तौर पर ना तक कह दिया जाता है जिससे उसके भीतर नैराश्य भाव पैदा होने लगता है।

इसी बीच उसे एक नामीगिरामी मैग्ज़ीन की ओर से एक असाइनमेन्ट मिलता है। प्रख्यात साहित्यकार जिनकी जन्मभूमि तीर्थस्थल की भाँति पाठ्यक्रमों में दर्ज है; के ऊपर आवरण-कथा कवर करने को कहा जाता है जहाँ नायिका पहले से मौजूद है। वह वहाँ एक स्कूल खोलना चाहती है, लेकिन कई किस्म की अड़चने हैं जिसकी वजह से वह हाथ आगे नहीं बढ़ा पा रही है। लेकिन वह अपने सोच के प्रति इतनी दृढ़प्रतीज्ञ है कि वह अपने इस योजना को यों ही अधर में छोड़ लौटना भी नहीं चाहती है जबकि घरवालों का भारी दबाव है जो संभ्रान्त परिवार के लोग हैं, और नायिका का भाई खुद भी एक प्रतिष्ठित समाचार-पत्र का मालिक है। यहीं पर नायक और नायिका की आपसी मुलाकात होती है। मुफ़लिसी में दिन काट रहे नायक की नायिका मदद करना चाहती है जिसके लिए नायक राजी नहीं है।

संघर्ष करते नायक की ख़बरों को नायिका का भाई अपने पत्र में जगह देता है क्योंकि नायिका से उसके सम्पर्क और अपनापन धीरे-धीरे एकाकार होने लगे हैं। रिपोर्ट के माध्यम से गाँवों की ज़मीनी सचाई उजागर होते ही सफेदपोश और पूँजीपति घरानों में यकायक कुहराम मच जाता है और कहानी अपने हाई-एक्सट्रीम पर पहुँचती है जहाँ शोषण के औजार के रूप में भयानक व्यवस्था का वर्तमान चरित्र उभरकर सामने आता है। इस प्रकार कहानी देशकाल के चरित्र को सधे अन्दाज में पकड़ती हुई आगे बढ़ती है जो अंत तक जाते-जाते एक ऐसे विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर लेती है जिसके केन्द्र में आज का किसान और उसकी उजरती किसानी-दुनिया है। सवालों के घेरे में मौजूदा राजनीति है, समाज है, और साहित्य के ठिकाने और धर्म-संस्कृति के ठेकेदार हैं।

Saturday, July 30, 2011

सॉरी, ब्रेक टू बी जारी....,

'इस बार' ब्लॉग के मोडरेटर इन दिनों साथी ब्लोगरों के ब्लॉग को पढने में व्यस्त है..., सो अपनी बात फिर कभी; यदि जरूरत पड़ी तो.

Wednesday, July 20, 2011

Monday, July 18, 2011

भेंट


हे सावनी शक्ति, आप हो तो मैं हूँ। आपके आधार की भूमि पर ही मैं चेतस हँू। सजग और सचेत हँू। आपके भीतर काल की एकरसता से उपजी तनाव और बेचैनी जिसके प्रति संवेदनशील होना मेरा दायित्व सह धर्म है; को मैं समझता हँू ठीक-ठीक। लेकिन बात समझने से ही नहीं बनती है। बूझ लेने से ही समाधान नहीं हो जाता है। उसके लिए प्रयास की दिशा में निरंतर समय को बोना पड़ता है। पौधे में फलि लगने के बाद भी उसकी निगरानी आवश्यक है। अभिष्ट लक्ष्य हासिल कर लेने की जीद या कहें अभिलाषा मेरी खुद की गढ़ी हुई है; लेकिन मेरे इस स्वप्न में आप समानधर्मा सहभागिनी हैं जिसे मैं अपना ‘बेहतरीन’ भेंट करने का आकांक्षी हँू।

Friday, July 15, 2011

‘कवि के साथ’ काव्य-पाठ कार्यक्रम में अनुज लुगुन



Friday, July 15 · 7:00pm - 8:00pm
Location
गुलमोहर हॉल, इंडिया हैबिटैट सेंटर
लोधी रोड

'कवि के साथ' इंडिया हैबिटैट सेंटर द्वारा शुरू की जा रही काव्य-पाठ की कार्यक्रम- श्रृंखला है. इसका आयोजन हर दूसरे माह में होगा.इसमें हर बार हिंदी कविता की दो पीढ़ियां एक साथ मंच पर होंगी. पाठ के बाद श्रोता उपस्थित कवियों से सीधी बातचीत कर सकते हैं.

'कवि के साथ' के पहले आयोजन में
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि कुँवर नारायण,
युवा कवि अरुण देव और अनुज लुगुन
...


अनुज लुगुन की कविताएँ

जूड़ा के फूल

छोड़ दो हमारी जमीन पर
अपनी भाषा की खेती करना
हमारी जूड़ाओं में
नहीं शोभते इसके फूल,
हमारी घनी
काली जुड़ाओं में शोभते हैं
जंगल के फूल
जंगली फूलों से ही
हमारी जुड़ाओं का सार है,
काले बादलों के बीच
पूर्णिमा की चाँद की तरह
ये मुस्काराते हैं।
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सबसे बड़ा आश्चर्य

सबसे बड़ा आश्चर्य वह नहीं
जिसे हम देखना चाहते हों
और देख नहीं पाते
जैसे देश के सबसे पिछड़े क्षेत्र में बैठकर
देखना चाहते हों
ताजमहल या एफिल टावर।

सबसे बड़ा आश्चर्य वह नहीं
जो अंतरिक्ष से भी दीख पड़े
तिनके की तरह ही सही
जैसे दिखाई पड़ता है चीन की दीवार।

सबसे बड़ा आश्चर्य यह नहीं
कि कितनी कलात्मकता से बनाया गया है
ताजमहल या एफिल टावर।

वे हाथ जो नंगे पैर
आवेशित धूप में
बालू, सीमेंट से काढ़ लेते हैं
ताजमहल की-सी कलात्मकता
या, खड़ी कर देते हैं चीन की दीवार
जिनके स्मरण में होता है काम के बाद
रात में उनकी पत्नियों के हाथों
तवे पर इठलाती रोटियाँ
जिसके स्वाद का सीधा संबंध
उनके पेट से होता है
सबसे बड़ा आश्चर्य होता है,
जिसको पाने की जद्दोजहद में
रोज ईंटों से दबती हैं अंगुलियाँ
और अंगुलियाँ हैं जो
ईंटों का शुक्रिया अदा करती हैं।

सबसे बड़ा आश्चर्य होता है रोटी
जो तरसी आँखों के सामने
दूसरों के हाथ खेलती दिखाई देती है
और आँखें केवल देखती रह जाती हैं
जिसके होने मात्र के आभास से
पृथ्वी सम लगती है ग्लोब की तरह
नहीं तो यहाँ भी काँटे हैं
खाईयाँ हैं, ऊबड़-खाबड़
बिल्कुल पृथ्वी की तरह।
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सुनो

माँ के वक्ष-सा
भू पर बिखरे पर्वत
आसमान को थाह लेने की आकांक्षा में
ज़मीन पर खड़े वृक्ष
धूप में सूखती नदी के गीले केश
पान कराते हैं जो दैनिक
चिड़ियों और जानवरों के आहट से संगीत
मूक खड़े कह रहे हैं
कातर दृष्टि से-

मत ललकारों हमें
मूक हैं किन्तु
अपना अधिकार मालूम है
जो भी प्रतिक्रिया होगी
वह प्रतिशोध नहीं
हक की लड़ाई होगी
क्यों तोड़ रहे हो
हमारे घरौन्दों को
हमें क्यों सिमटा कर रख देना चाहते हो
क्या ये जग केवल तुम्हारा है?

न तेरा न मेरा
हम दोनों का यह संसार
कुछ कहता हमसे मूक संसार।

संवेदन शून्य हम नहीं
हममें भी पीड़ा है
यह तुम्हारी विवेकता का प्रमाण नहीं
शान्त, निर्दोष को छेड़ते हो
हमें भी उन्मुक्त उड़ान की चाह है
जितना पर काटोगे
हम उतना ही फड़केंगे।

सुधार लो अपना चाल-चलन व्यवहार
हमारे साथ खुद भी मिट जाओगे
न हो जंग आर-पार
कुछ कहता हमसे मूक संसार।

परीक्षा उचित है किन्तु
अपनी सीमा में
हमारे धैर्य का बाँध जब टूटेगा
टूटेगा मानव तुमपर
टपदाओं का पहाड़
हाथ ऊपर उठेंगें
आँखें बन्द होंगी
किन्तु इस दिखावे से कुछ न होगा
पूजना हो तो
अपने अस्तित्व को पूजो
जो हमसे जुड़ा है।

बांट लें आपस में प्यार
दोनों का यह अधिकार
कुछ कहता हमसे मूक संसार।

Wednesday, July 13, 2011

मुंबई में बम-विस्फोट, 20 जानें गईं



मुंबई में इस वक्त हाई-अलर्ट है। लोगों से शांति बनाये रखने की अपील जारी है। मृतकों की संख्या को ले कर गलतबयानी न हो इसका जिम्मा मुंबई नियंत्रण कक्ष पर है। मुंबई कन्ट्रोल रुम से प्राप्त जानकारी के मुताबिक 20 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि घायलों की संख्या 100 के ऊपर है। दुख और शोक जताने वालों में भारतीय राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से ले कर पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी तक गहरी संवेदना व्यक्त कर रहे हैं।

यह महज संयोग नहीं है कि 13 जुलाई को कसाब का 24वाँ जन्मदिन पड़ता है जो 26/11 मुंबई हमले का मुख्य अभियुक्त है। जन्मदिन की यह तारीख़ खून से सना हो; आतंकी हमलावर इस तथ्य को जानते थे। उन्होंने जानबूझकर इस दिन को चुना; ताकि भारतीय आवाम बौखलाए। लोकतांत्रिक सरकार जिसमें त्वरित निर्णय लेने की क्षमता का घोर अभाव है; ने कसाब मामले में हीला-हवाली की हद कर दी है। सरकार से ज्यादा चेतस दहशतगर्द हैं जो ताल ठोंक कर भारतीय सत्ता के सामने चुनौती खड़ी कर रहे हैं।

जिस मामले में काफी पहले फैसला सुनाया जाना चाहिए था; आज उस आतंकी को बंदीगृह में ऐशोआराम की ऐसी जिन्दगी बख़्शी जा रही है जिस पर सलाना खर्च का बजट करोड़ों में है। आज शाम पौने 7 बजे मुंबई के दादर कबूतरख़ाना, ओपेरा हाउस और ज़वेरी बाज़ार इलाके में बम विस्फोट हुए जिनमें जान-माल की भारी क्षति तो हुई ही; इसके अलावे मुंबई को भी दहशत के माहौल में नजरबंद कर दिया। इस वक्त मरहम के सारे शब्द बेमानी हैं। वर्णमालाओं के अर्थ निसार हैं। दरअसल, अचानक आतंकी गर्दो-गुब्बार से सन गई मुंबई की जिन्दगी अगले ही दिन से बिल्कुल पटरी पर आ जाएगी, कहना जल्दबाजी होगी। भूलना नहीं चाहिए कि भूख-प्यास रोज की जरूरत है, तो शांति-सुकून भी पल-पल कीमती है।

जो लोग इतिहास को याद रखते हैं या जो उसके भुक्तभोगी है; उनके लिए यह मंजर बेहद खौफनाक और त्रासदपूर्ण है। इस घड़ी अधिकांश लोग जनमाध्यमों पर निर्भर हैं। मीडिया ही एकमात्र विश्वस्त सूत्र है। सूचना-प्रदायक इन साधनों को काफी एहतियात बरतने की जरूरत है।

क्योंकि यह घटनाक्रम भारत के आंतरिक सम्प्रभुता और रक्षा-प्रणाली से सीधे जुड़ी हुई है। मुंबई ऐसे कई हौलनाक हमलों का साक्षी रहा है। देश की खुफिया एजेंसियाँ भले अपनी वाहवाही में सोलह-शृंगार करें; लेकिन आज उनकी तंत्रगत खामियाँ जगजाहिर हो चुकी है। भारतीय सुरक्षा-व्यवस्था में सेंधमारी करते हुए इस तरह के घटनाओं को अंजाम देना पूरे देश में कायम खुफिया-तंत्र की साख और उसकी विश्वसनीयता पर बट्टा लगाता है।

Sunday, July 10, 2011

प्रेमचन्द के गाँव लमही से लौटते हुए




रात को बारिश हुई थी, हल्की बूंदाबूंदी के साथ। सुबह में मौसम का तापमान बिना थर्मामीटर डाले जी को ठंडक पहुँचा रहा था। दिमाग में लगा दिशासूचक यंत्र हमें जल्द से जल्द उस ओर ले जाने को उत्सुक-उतावला था जो साहित्यिक दुनिया में सुपरिचित नाम है अर्थात आमोख़ास सभी जानते हैं-‘लमही’ को। कथाकार प्रेमचन्द का गाँव लमही कितनों को जानता है या किस-किस को जानता है? यह सवाल जरा टेढ़ा है।

5 अक्तूबर 1959 को लमही ग्राम में तत्कालिन राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद का आना हुआ था जिनके साथ में प्रदेश मुख्यमंत्री सम्पूर्णांनंद भी पधारे थे। इस मौके पर बंगभाषा के सिद्धहस्त साहित्यकार ताराशंकर जी वंद्योपाध्याय ने भी शिरक़त की थी। यह जानकारी प्रेमचन्द स्मारक भवन में प्रवेश करने पर मिलती है। नागिरी प्रचारिणी सभा द्वारा विज्ञापित इस सूचना में यह भी जिक्र है कि यह आयोजन गोविन्द वल्लभ पंत और हजारी प्रसाद द्विवेदी की अगुवाई में संपन्न हुआ था जिसका उद्देश्य लमही ग्राम में एक ऐसे स्मारक भवन का शिलान्यास करना था जो इस कलम के सिपाही की सच्ची श्रद्धाजंलि हो। बाद के वसीयतदारों ने इस गाँव को क्या-क्या भेंट दी है; यह नजदीक से देखना-जानना रौंगटे खड़े करने के माफिक है।


भूमण्डलीकरण की आँधी ने लमही के वातावरण को विषाक्त कर दिया है। गाँव की जमीन पर पूँजीदारों का कब्जा है। नए-नए प्लॉटों की शतरंज बिछाई जा रही है। बाप-दादों की जमीन को बचाकर रखे लोग अपनी झोपड़पट्टी में निढाल और बेसुध पड़े हैं। नशे में डूबोकर गरीब-गुरबा की जमीन-ज़ायदाद हड़प लेना आज एक नई रवायत है। गाँव में ही शराब की भट्ठी खुल गई है जो भर-भर पाउच दारू पिलाकर भोले-भाले गरीबों को उनके पुरखों की ज़मीन से बेदखल करने पर उतारू है। गाँव को बाहर से आये लोग जोत रहे हैं। किसी समय गुलज़ार रहने वाले खेत-खलिहान और बाग-बगीचे आज विरान हैं।


उस जगह दो-चार पेड़ हैं; कटी हुई बँसवारी हैं; बाबा भोलेनाथ का आधुनिक पेन्ट से पुता हुआ मन्दिर है। ईश्वरीय महिमा को बखानते दोहा-चौपाई हैं। ये सारी चीजें मुंशी प्रेमचन्द के पैदाइशी घर की गोद में हैं जिससे लगी सड़क लमही से ऐढ़े की ओर जाती है। इस सड़क की जद में बनवारीपुर, फ़कीरपुर, आदमपुर आदि गाँव हैं। धूल-धक्कड़ से सने इस रास्ते की कहानी अजीब है। मरम्मत के बाद दुरुस्त हुई पक्की सड़क प्रेमचन्द के पैतृक घर के सामने अचानक अर्द्धविराम लेती हुई दिखाई पड़ती है। दूसरे गाँव के राहगीर कहते हैं कि यदि मुंशी प्रेमचन्द का जन्म हमारे गाँव में हुआ होता, तो सरकार यह सड़क वहाँ तक जरूर चकाचक बनवाती।

गाँव में थोड़ी दूर टहरिए, तो सड़क किनारे ही अरविन्द जनरल एण्ड प्रोविजन स्टोर है। दुकान में पेप्सी, सेवन-अप, डियू, मैरिन्डा और स्लाइश के नए पेय-संस्करण है। यहाँ एक्वाफाइन वाटर भी मिलता है। ग़नीमत है बिजली कम जाती है, इसलिए इनकी बिक्री को ले कर टोटा नहीं है। दो मिनट की बैठकी में हम यह जान लेते हैं कि टेलीविज़न पर क्या कुछ चल रहा है। धारावाहिकों के नाम और उनके पात्र के बारे में उस घर के सभी लोग जानते हैं। पात्रों के नाम तो जुबानी याद है-मानव, अर्चना, अहम, राधिका, गोपी, कोकिला, नव्या, अनंत आदि-आदि। सरस्वती शिक्षा निकेतन में पढ़ने वाली 11वीं कक्षा की अंकिता पूछने पर बताती हैं-‘जी-टीवी पर चलने वाले सीरियलों में पवित्र रिश्ता और छोटी बहू पसंद है। स्टार प्लस पर साथिया धारावाहिक भी रोज देखती हैं।’ प्रेमचन्द के गाँव की अंकिता ने मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य को भी पढ़ा है। गोदान का नाम लेती हुई वह बताती है कि निर्मला उपन्यास का टेलीविजन रूपांतरण उसने दूरदर्शन पर देखा है। मंत्र कहानी का मंचन भी देख चुकी है जिसे वाराणसी स्थित सनबीम कॉन्वेन्ट स्कूल के बच्चों ने मंचित किया था। इससे पहले हमारी बातचीत विद्या से हुई थी जो सुधाकर महिला कॉलेज से स्नातक कर रही है। बोलने में तेजतर्रार विद्या कथाकार प्रेमचन्द के विषय में पूछने पर ज्यादा बोल नहीं पाती है। वह कहती है-प्रेमचन्द की कहानियों या पात्रों का नाम भले ही उसे तत्काल ध्यान न आ रहा हो; लेकिन उसने प्रेमचन्द को पढ़ा अवश्य है।

लोक-जीवन के चितेरे कथाकार प्रेमचन्द के गाँव की यह हालत देख हमें प्रेमचन्द की कहानी ‘मैकू’ की याद बरबस हो आती है। लेकिन, अब और तब में भारी अंतर है। चेहरे बदल गए हैं। चरित्र भी उलट गए हैं। मैंकू की जगह हमारी भेंट शेख सुलेमान उर्फ नक्कू से होती है जो पुलिस को गरियाता है। अपनी बहादुरी के किस्से सुनाते हुए चक्कू दिखाता है। एक सांस में मकदूम शाह दरगाह में स्थित 6 मजारों के बारे में जानकारी देता है। दरगाह से बाहर आते वक्त बाबा कमालुदिन सईद उर्फ कमाल पण्डित के बारे में बताता है। थोड़ी दूर पर पहुँच वह सड़क के समीप लगे मुर्दा-हैण्डपम्प को देख सहसा कह उठता है-‘आप ताड़ी पी सकते हो आसानी से, पानी के लिए तो कसरत ही उपाय है।’

हँसी-हँसी में अंदरूनी टीस व्यक्त कर चुका नक्कू गाँव में पानी की दिक्कतदारी को ले कर रोता है। अचानक बाँह पकड़ता है। खुदे हुए तालाबों की ओर ले जाता है जो बेहद गहरी खुदी हुई हैं। हाथ से इशारा कर जो हमें इशारे में बताता है; उसका भाव है-‘बिन पानी सब सून’। नक्कू यही नहीं रूकता है। वह खेतों की दुर्दशा को अपनी भाषा में वाणी देता है-‘बहिनी ना भईया, खेत चर गई गईया।’ 87 वर्षीय नक्कू के चेहरे पर उभरे ये दिली कसक इतने तीक्ष्ण और धारदार हैं कि वे हमें अंदर तक वेध डालते हैं।

भूमण्डलीकरण की फांस प्रेमचन्द के किसानों के गले में किस कदर कस चुकी है? इसकी शिद्दत से पड़ताल करने पर ही हम जान पाते हैं कि शहरीकरण की वेष में आए इस अजगरी दानव ने गाँवों के मूल बुनियाद को ही ‘हाइजैक’ कर लिया है। लमही का पानीदार समाज इस घड़ी पानी के संकट से जूझ रहा है। गाँव में 8-10 नलकूप हैं, सभी मरे पड़े हैं। एक की बनवाई हजार रुपए से ऊपर बैठती है। आपसी चन्दे की रकम से वे इन्हें कभी का बनवा लेते, लेकिन पानी का ‘लेयर’ इतना भाग गया है कि वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते हैं। जिन घरों में ‘समरसेबुल पम्प’ लगे हैं; वे ही इस घड़ी भाग्य-विधाता हैं। सरकारी योजना के अन्तर्गत साढे़ आठ लाख की रकम से लमही सरोवर का सौन्दर्यीकरण किया गया है जो गाँव वालों की निगाह में गोईंठा में घी सुखाने जैसा है। सरोवर से सटे हुए एक हाई-मास्ट लगा है जिसका सिर्फ ऊँचा-लम्बा कद ही देखने योग्य है, रोशनी बिल्कुल नदारद। पानी के संकट पर बात करते हुए अनुराग पान भण्डार और टी स्टॉल के विजय पटेल बताते हैं कि-‘सरकार 160 फिट से नीचे ‘बोरिंग’ कराती नहीं; और पानी है कि एक बार जो नीचे गई, तो फिर आती नहीं। अब कंठ झुराये या मवेशी-मवाल पानी की खातिर जमीन पर बेतरह लोटें; आदमी कर्म भर ही कोशिश करेगा न! बाद बाकी अल्लाह-दईया या ईश्वर को जो चाहे सो मंजूर।’

प्रकट भाव में लोग भले कुछ नहीं कहना चाहते हों; लेकिन उनकी आँखें सीधी सवाल करती है-प्रेमचन्द के गाँव में अब प्रेमचन्द के स्वप्न नहीं उनके पात्र बसते हैं। नए किस्म के ठाकुर और जमींदार। घीसू, माधव, हल्कू, धनिया और होरी भी। लमही में बीतते लम्हें हमें एक के बाद एक कई पात्रों से परिचय करा रहे हैं। नीम्बू की चाय पीते हुए हम उन चेहरों को निहार रहे हैं जो हमें इस आस से घूर रहे हैं कि बबुआन लोग(पढ़े-लिखे लोग) कुछ करेंगे; जबकि हम अन्दर से हिचकी महसूस कर रहे हैं। पानी की आस में कठोर हो गई जमीन पैदावार के नाम पर एकफसली गेहूँ देती है। धान को हिक भर पानी चाहिए। कई सालों से बरसात झमाझम हो कहाँ रही है? पर्याप्त पानी न मिलने से किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है; इसलिए खेतों में धान की रोपाई लगभग रोक दी गई है।

उनका एक सवाल यह भी है कि मुंशी प्रेमचन्द की 125 वीं जयंती के सुअवसर पर पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव आये थे। अमरवाणी की तरह घोषणाएँ की। ग्रामीणों से अनेकों योजनाओं की रूपरेखा के बारे में वादा किया। बाद बाकी नील-बट्टा-सन्नाटा। सरकार क्या गई, योजनाएँ अधर में लटकी रह गई। प्रेमचन्द शोध संस्थान समिति को मिले 2 करोड़ रुपए ने साहित्यिक जमात में उम्मीद की लकीर खींची थी। लोगों ने यह मान लिया था कि अब प्रेमचन्द के गाँव लमही के दिन बहुरेंगे। दूरगामी नीति के तहत कुछ ऐसे कार्य होंगे जिससे प्रेमचन्द के साहित्य-समाज को संबल मिलेगा। लोग मुंशी प्रेमचन्द को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए जरूरी शोध करेंगे। उनकी कृतियों को जन-मिलाप के बीच ले जाने के लिए सुनियोजित अभियान चलायेंगे। लेकिन शोध-संस्थान अभी भी कथित जमीन प्रकरण में उलझा है। बीएचयू हिन्दी विभाग के प्रो0विजय बहादुर सिंह जो कि प्रेमचन्द शोध संस्थान समिति के समन्वयक हैं; बताते हैं कि-‘राज्य सरकार के द्वारा जमीन केन्द्र को स्थांतरित न किए जाने की वजह से ही सारा कार्य अधर में लटका है।’ इस बारे में बनारस के कथाकार श्याम बिहारी श्यामल का कहना है कि-‘राजनीति में गाँधी के इस्तेमाल की तरह राजनेता प्रेमचन्द का भी इस्तेमाल करते हैं। प्रेमचन्द के साहित्य से किसी को कोई मतलब नहीं। सरकार को कोई मुकम्मल व्यवस्था करनी चाहिए। प्रेमचन्द साहित्य के प्रतिमान हैं।’

इस बारे में जब हमने कवि ज्ञानेन्द्रपति की राय जाननी चाही, तो उन्होंने अपनी दिली उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि-‘रविन्द्रनाथ ठाकुर के बाद प्रेमचन्द भारत के देश-विदेश में सर्वाधिक आद्रिक साहित्यकार हैं। उनकी जन्मस्थली लमही में उनके गौरव के अनुकूल स्मारक का निर्माण एक ज़माने से प्रतिक्षित है। आधे-अधूरे मन से किए जाने वाले काम जल्द पूरे नहीं होते। स्मारक अद्रेय बनें, लेकिन उचित है कि हिन्दी और उर्दू दोनों सहोदरा भाषाओं के कथा साहित्य के आदि-पुरुष के रूप में मान्य प्रेमचन्द के निमित निर्मित स्मारक-सह-शोध केन्द्र स्थापत्य के धरातल पर भी हमारी साझी जीवन-संस्कृति को रूपायित करे। वैसा कायदे से हो पाए, तो काशी का केवल धार्मिक नगरी से अधिक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक नगरी का स्वरूप मूर्त्त हो जिसका उजागर होना हमारी सामाजिक जिन्दगी को भी एक अलग ढंग से रौशन करेगा।’

यही बात सुरेश चन्द्र दूबे जो कि मुंशी प्रेमचन्द स्मारक के संरक्षणकर्ता हैं और प्रेमचन्द मेमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं; कहते हैं-‘पहले अनाज की खेती होती थी। अब पैसे की खेती होती है। सबकुछ किसानों के खिलाफ है। सरकार, हवा-पानी और प्रकृति सबकुछ खि़लाफ है किसान के। प्रेमचन्द का पात्र सूरदास अन्धा था। उसे मारा-पीटा गया और उसका घर जला दिया गया। अब का किसान आँख वाला है; जिसे इतनी यातना दी जा रही है कि वह आत्महत्या कर ले रहा है। यह समय प्रेमचन्द के समय से भी खतरनाक है। लोग जयंती के मौके पर जुटते हैं। कई प्रकार से फौरी मदद की बात कहते हैं। लमही को हेरिटेज गाँव बनाने के बारे में कई सालों से सुन रहा हँू जो महज घोषणाओं के नाम पर छलावा है। मुंशी प्रेमचन्द स्मारक का समरसेबुल ख़राब है, लेकिन उसके मरम्मत के लिए कोई आर्थिक पहल नहीं की जा रही है।’

सुरेश चन्द्र दूबे के साथ मुंशी प्रेमचन्द स्मारक-परिसर में बैठने के बाद लगता है जैसे किसी स्वचालित पुस्तक का पाठ सुन रहे हैं। वह बतलाते हैं कि प्रेमचन्द की कहानियाँ ही सही अर्थों में भारतीयता की पहचान हैं, पर्याय हैं। प्रेमचन्द कहानीकार बाद में थे; पहले वे खुद कहानी थे। उनकी सारी कहानियाँ उनके रूह से निकली है। स्मारक-परिसर में ही सुरेश जी ने एक पुस्तकालय खोल रखी है। पढ़ने के इच्छुक लोगों को वह निःशुल्क पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। सुरेश चन्द्र जी हिन्दुस्तानी अर्थात हिन्दी-उर्दू ज़बान के हिमायती हैं। वे लमही में ‘प्रेमचन्द उर्दू शिक्षण संस्थान’ के अध्यक्ष हैं। इस संस्थान की सबसे बड़ी खूबी के बारे में वे बताते हैं कि हिन्दू बच्चे उसी भाव से उर्दू पढ़ने आते हैं जिस भाव से मुस्लिम। वे कविता के लहजे में कहते हैं-‘दिल है कि भावों से भरा है/घर है कि अभावों से भरा है।’

इस घड़ी लमही ग्राम में बैठे हुए हम लोग समय की ओर ताकते हैं। धूप सीधी से आड़ी-तिरछी हो चली है। कुछ ही मिनटों में 4 बजेंगे। बातचीत में ऐसे मशगूल हुए कि भूख की परवाह ही नहीं रही। बस, हम पानी पीते हुए बातों में मशगूल रह गए। उस समय हमारी बेचैनी पानी की जबर्दस्त किल्लत को ले कर अधिक थी। सरकार के कागजी ठिकानों पर ‘लमही’ का नाम निर्मल ग्राम के रूप में अंकित है। लेकिन यहाँ कुछ भी नार्मल नहीं है। गाँव में शिक्षा का स्तर संतोषजनक नहीं है। प्रेमचन्द स्मारक से सटे हुए ही प्रेमचन्द शिक्षण संस्थान है जिसे यूपी बोर्ड से मान्यता मिली हुई है; इस घड़ी बंद है।
लमही में ही प्राइवेट प्रैक्टिसनर डॉ0 आन्नद कुमार कहते हैं-‘आज अगर प्रेमचन्द जिन्दा होते, तो उनको हार्ट अटैक हो जाता। दूसरे गाँव की छोड़िए इस गाँव के लोग ही नहीं जानते हैं कि मुंशी प्रेमचन्द कौन थे? साहित्य से यहाँ के लोग दूर हैं। जबकि शहर के लोग प्रेमचन्द के कथा-कहानी और उपन्यास पर डिग्री धारण कर रहे हैं। असल में यहाँ के लोगों की समस्या बीहड़ है। रोजगार के नाम पर औना-पौना मजूरी है। ऐसे जिन्दगी जीने वालों से आप क्या साहित्य की बात करेंगे? उनके लिए तो यह महज लिखुआ-पढुआ बतरस है।’ लगे हाथ एक दूसरे सज्जन कह जाते हैं-‘जिस कथाकार को दलितों का देवता कहा गया है। उसकी सुध सुश्री मुख्यमंत्री खुद क्यों नहीं ले रही हैं जबकि वह तो दलितों की सर्वमान्य नेता हैं?’

लमही के निवासी सटीक विश्लेषण करते हैं। क्या यह वही गाँव है जहाँ कथाकार प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1980 को हुआ और जिन्हें लोग हरिजन, दलित और पिछड़े वर्ग का मसीहा मानते हैं। ऐसे में क्या गरीब-गुरबों की नेता कही जानेवाली प्रदेश मुख्यमंत्री मायावती को यहाँ नहीं आना चाहिए था? कथाकार श्योराज सिंह बेचैन के शब्दों में कहें, तो-‘प्रेमचन्द भले हरिजन एवं दलितों के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर सके हों लेकिन उस ज़माने में वही एकमात्र विकल्प थे जिन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर इस वर्ग की पीड़ा, शोषण और जातिगत त्रासदी को स्वर दिया। उन्हें अपने हक की प्रतिकार के लिए मानसिक संचेतना दी।’ कहानी ‘हिंसा परमो धर्मः’ में प्रेमचन्द अपने पात्र का पाठक से जिस रूप में शिनाख़्त कराते हैं; वह कहनशैली बेमिसाल है-‘मुमकिन न था कि किसी गरीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाए। फिर चाहे कोई उसे मार ही डाले, वह हिमायत करने से बाज नहीं आता था।’ प्रेमचन्द के लेखन का कैनवास बड़ा है। दृष्टि सूक्ष्म और अत्यंत गहरी। वे अपने देशकाल से गहरे संपृक्त होने की वजह से सामान्य भाषाशैली में तल्ख़ बात भी सीधी ज़बान में आसानी से कह ले गए। कथाकार श्योराज सिंह बेचैन आगे कहते हैं-‘प्रेमचन्द के ज़माने में लमही से ही स्वामी अच्यूतानंद दलितों का अख़बार ‘आदि हिन्दू’ निकाल रहे थे। स्वामी जी डॉ0 आम्बेदकर के काफी नजदीक थे।’

बातचीत के दरम्यान ही यह पता चलता है कि गाँव के जुझारू लड़कों ने मिलकर एक मंडली बनाई है-युवा नेहरू मण्डली। इस मण्डली में शामिल अधिकांश लड़के 20 से 30 वर्ष की उम्र के हैं। इस मण्डली के अध्यक्ष सूर्यबली पटेल बताते हैं कि अभी ज्यादा दिन नहीं हुए इस मण्डली को गठित हुए। गाँव के ही अरविन्द कुमार राजभर को सचिव बनाया गया है। वही इसके परिकल्पनाकार भी हैं। सामूहिक साफ-सफाई का कार्य सबलोग आपस में मिलजुल कर करते हैं। गाँव के बच्चों में शिक्षा के प्रति रुझान है, लेकिन जागरूकता कम है। इसे ले कर वे सामाजिक-अभियान छेड़ना चाहते हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक मौके पर बिना बुलाये ही मदद करने के लिए पहुँच जाते हैं। प्रेमचन्द द्वार के समीप प्याऊ लगाया गया है, ताकि राहगीर अपनी प्यास बुझा सके। बातचीत करते युवाओं में उत्साह का ग्राफ उच्चतम था। उन्होंने बताया कि वैसे तो बहुत कुछ करने के लिए सोच रखा है; लेकिन साथ में कोई फंड या निजी अनुदान न होने की वजह से वे अपनी सीमाओं का विस्तार कर पाने में असमर्थ हैं। फिर भी गाँव में इस मण्डली ने लोगों के बीच प्रेम-व्यवहार का जो धागा बुना है; उससे लमही ग्राम के निर्मल मन की तसदीक आसानी से की जा सकती है। गाँव के लड़कों ने बातचीत के दौरान ही हमें दशहरा के समय होने वाले रामलीला के बारे में बताया। उनका कहना था कि लमही गाँव को उस घड़ी और भी करीब से देखा-परखा जा सकता है। रामलीला के दिनों में मेले की रौनक और बहार रहती है। दुर्गापूजा में दशमी के रोज जबर्दस्त मेला लगता है। गाँव को खूब सजाया जाता है। लोग जरूरी कारज छोड़कर उस रोज मेला घूमने आते हैं। यह गाँव अभाव और अकालग्रस्त है, लेकिन इंसानी मामलों में कोई जोड़ नहीं है। सभी एक-दूसरे की सदैव मदद करने के लिए तैयार रहते हैं।

अब हम लौटना चाहते थे। लमही की हाल-बयानी पन्ने पर दर्ज़ करने के लिए। लौटते वक्त लमही के मुख्य द्वार से सामना हुआ जिसके भीतर घुसते ही दोनों तरफ पार्क बने हुए दिखें। पार्क में छाँह कम है, लेकिन सजावटी पौधे अधिक। आज़मगढ़ जाने वाले मुख्य मार्ग पर बनारस से करीब 5 मील की दूरी पर यह मुख्य द्वार अवस्थित है। निर्जीव शक्ल में स्थापित मूर्तियाँ जो प्रेमचन्द के कहानियों के पात्रों पर रुपायित थे; द्वार के दोनों ओर लगे हुए थें।
वहाँ से काशी पहुँचने के लिए पाण्डेयपुर गोलम्बर तक जाना काफी मशक्कत भरा कार्य था, क्योंकि सड़क के बीचोंबीच एक टैग लटका मिला-‘निर्माण कार्य जारी है।’ निर्माण की यह अफलातून-संस्कृति(बेढंगा बदलाव) कई सांस्कृतिक संकेतों, प्रतीकों एवं सूत्रों को कैसे हम से छीन ले रही है; इसका गवाह है-पाण्डेयपुर चौराहा जहाँ लगी कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की प्रतिमा अब नदारद है। जिस जगह को देखने के साथ ही यह अन्दाज हो जाता था कि अब मुंशी प्रेमचन्द की ज़मीन हमसे कितने फ़र्लांग दूर हैं? आज उसकी जगह पर फ्लाईओवर के ‘हाथीपाँव’ मौजूद हैं। भौतिक बदलाव आदमी के आन्तरिक भूगोल को कितना बदल देता है; इसको हम साफ़ महसूस कर रहे थे? यही नहीं, कालजयी रचनाओं को सिरजने वाले मुंशी प्रेमचन्द के गाँव लमही से लौटते हुए और भी बहुत-सी चीजें हमें मथ रही थी। हम खिन्न अधिक थे, प्रसन्नचित्त कम। वहाँ के लोगों ने हमसे जिस अपनापा और आत्मीयता के साथ बातचीत की थी; हम उसके मुरीद अवश्य थे। लेकिन हमारी स्मृति-पोटली में कई ऐसी स्मृतियाँ भी थीं जो दुखदायी और मन को पीर देने वाली थीं।

कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का गाँव पानी की समस्या से बेहाल है; खेत-ज़मीन बदहाल है; खास अवसरों पर आयोजित साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम भी महज़ तारीख़ों की खूंटी पर टंगे हैं, लेकिन बाद बाकी लमही की सुध लेने की फिक्र कहाँ किसी को है? सुनने को मिला कि विश्वभर के लोग वहाँ मुंशी प्रेमचन्द की जन्मस्थली का दर्शन करने पहुँचते हैं; लेकिन उनके रहाव-ठहराव के लिए कोई प्रबंध नहीं है। यानी वहाँ जाने वाले अपने लौटने की बोरिया-बिस्तर पहले से ही तय कर ले जाते हैं। हम भी लौट रहे थे; अपनी दुनिया में; अपनी भाषा में। हम लौट रहे थे; उन शब्दों के अर्थ और भाव-बिम्ब में जिसे बनारस के युवा कवि रामाज्ञा शशिधर की कविता ‘खेत’ साफ़ जबान में हमारे समय, समाज, संस्कृति और देशकाल-परिवेश की शिनाख़्त करती हुई दिखाई पड़ती है; उन्हें सार्थक और समर्थ आवाज़ देती है-‘खेत से आते हैं फाँसी के धागे/खेत से आती है सल्फास की टिकिया/खेत से आते हैं श्रद्धांजलि के फूल/खेत से आता है सफेद कफ़न/खेत से सिर्फ रोटी नहीं आती।’

Thursday, July 7, 2011

लोक-चितेरा फिल्मकार मणि कौल और बॉलीवुड


क्या फिल्म सिर्फ कथा आधारित अभिनय एवं प्रदर्शन का साधन भर है? क्या फिल्म शहरी-संस्कृति और उसके भौड़े भेड़चाल का नुमांइदा भर है? क्या फिल्मी-संसार अर्थात बॉलीवुड महज एक समर्थं प्लेटफार्म भर है जहाँ से अकूत धन ‘मैजिक रोल’ की तरह रातोंरात बनाया जा सकता है?

गोया! फिल्म यथार्थ में क्या है; इसे लोक-चितेरा निर्देशक मणि कौल ने बखूबी समझा। इस घड़ी उनके निधन पर फौरी श्रद्धांजलि देने वालों का टोटा नहीं है, किंतु आज जरूरत है उनके काम की टोह की; असली मूल्यांकन की, देशकाल और समय सापेक्ष वस्तुपरक विश्लेषण की।

ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि परदे पर लोक-परिन्दे उतारने का ‘रिस्क’ लिया था मणि कौल ने। ऐसे परिन्दे जिनके पैर ही पर थे जो आसमान में नहीं ज़मीन पर ज्यादा दृढ़ता से टिकते थे। फिल्म ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘नौकर की कमीज़’, ‘दुविधा’, ‘घासीराम कोतवाल’, ‘सतह से उठता आदमी’, ‘इडियट’, ‘सिद्धेश्वरी’ जैसी फिल्में जो रंग उभारती-उकेरती है उसमें सोलह-आना भारतीयता का पुट है। ये फिल्में भारतीय सिनेमा में बढ़ती विदेशी सूट, साइट और लोकेशन की अपसंस्कृति को आईना दिखाती हैं; साथ ही सच का लकीर पकड़ दिर्घायु होने की कामना करती हैं।

वास्तव में मंजे और सिद्ध निर्देशक के रूप में मणि कौल भारतीय सिनेमा में एक नवीन लहर के प्रणेता थे। बाज़ार-वर्चस्व के चलन को ख़ारिज करने वाले मणि कौल अपनी फिल्मों के लिए जितना भारत में नहीं जाने-सराहे गए, उससे कहीं अधिक उनके कद्रदान विदेशी धरती पर थे। ऐसे शख़्सियत की जिन्दगी भर की कमाई को अंजुरी भर श्रद्धांजलि में समेटने से होना-हवाना कुछ नहीं है सिवाय औपचारिक रस्म-अदायगी के। अतः उनके द्वारा फिल्मांकित फिल्मों के कथावस्तु, संवाद-योजना, दृश्य-बिम्बों और अभिनीत चरित्रों के अभिव्यक्ति-विधानों पर थोड़ा रूककर सोचने-विचारने तथ बहस-मुबाहिसे की जरूरत है।

Saturday, June 18, 2011

19 जून, जन्मदिन और राहुल गाँधी





आज राहुल गाँधी का जन्मदिन है। पिछले साल ‘राहुल जन्मदिवस’ पूरे रूआब के साथ मना था। हमारे शहर वाराणसी में भी ‘केक’ कटे थे। अख़बार के कतरन बताते हैं कि 10-जनपथ पर जश्न का माहौल था। लेकिन इस साल स्थितियाँ पलटी मारी हुई दिख रही हैं। राहुल गाँधी मीडिया-पटल से लापता हैं। उन्हें जन्मदिन की बधाईयाँ देने वाले बेचैन हैं। आज के दिन मैंने उनके लिए एक स्क्रिप्ट लिखा है; ताकि वे जनता के सामने अपने जन्मदिन के मौके पर बाँच सके। अगर उनकी ख़बर लगे, तो यह स्क्रिप्ट आप उन्हें पढ़ा देना अवश्य:

‘‘प्यारे देशवासियों, योगगुरु रामदेव अपने किए की सजा भुगत रहे हैं। उन जैसों का यही हश्र होना चाहिए। बाबा रामदेव की मंशा ग़लत थी। वह सत्याग्रह के नाम पर लोकतंत्र को बंधक बनाना चाहते थे। दिल्ली पुलिस ने समय रहते नहीं खदेड़ा होता, तो बाबा रामदेव संघ के साथ मिलीभगत कर पूरे कानून-तंत्र की धज्जियाँ उड़ाकर रख देते। संघ और भाजपा से उनके रिश्ते कैसे हैं? यह देश की जनता जान चुकी है। जनता जागरूक है। वह भारतीय राजनीतिज्ञों का नस-नस पहचानती है।

इस देश के लिए मेरी दादी और पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने जान दिए हैं। मेरे पिता ने अपना बलिदान दिया है। मेरी माँ ने प्रधानमंत्री पद का लोभ नहीं किया। सिर्फ इसलिए कि वे जनता के लिए बनी हैं। कांग्रेस पार्टी अकेली ऐसी पार्टी है जो सही और गलत में भेद करना जानती है। कांग्रेस जैसी जनसेवी पार्टी को आज बुरा कहने वाले खुद कहाँ दूध के धुले हैं? लूटेरों और अपराधियों की पार्टी है बसपा जिसका जंगलराज है यूपी में। भट्टा-पारसौल का उदाहरण मेरे सामने है। अगर मैं और मेरी पार्टी के लोग समय से इस गाँव का दौरा नहीं किए होते; अपनी बात को प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह के समक्ष नहीं रखते, तो शायद ही वहाँ घटित पुलिसिया जुल्म का भयावह चेहरा सामने आ पाता। शायद! ही बड़े पैमाने पर लोगों के मारे जाने तथा ग्रामीण औरतों के साथ हुए दुर्व्यवहार की ख़बर प्रकट हो पाती।

बिहार में भले ही कांग्रेस को जनता ने वोट नहीं दिया हो। लेकिन वहाँ की जनता ने कांग्रेस को नकारा नहीं है। कांग्रेस की साख आज भी बिहार में बेजोड़ है। अगली विधानसभा चुनाव में जनता हिसाब बराबर कर देगी। नितिश सरकार का कथित विकास का प्रोपोगेण्डा फेल होगा और प्रांतीय सत्ता में कांग्रेस बहुमत से काबिज होगी। बिहार में चल रहे भाजपा-जद(यू) गठबंधन को केन्द्र ने करोड़ों-करोड़ रुपयों का फंड भेजा है। नितिश सरकार अपने ग़िरबान में नहीं झाँकती है। विकास कार्य करने में वह खुद अक्षम है। ये पार्टियाँ अपने भीतर की बुराइयों से नहीं निपटना चाहती हैं। उल्टे कांग्रेस के ऊपर धावा बोलती हैं। यह जानते हुए कि कांग्रेस पार्टी देश की सबसे पुरानी पार्टी है। स्वाधीनता संग्राम में उसकी प्राथमिक भूमिका रही है। आजादी मिलनेे के बाद देश को औद्योगिक क्रांति, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति से होते हुए संचार क्रांति के द्वार तक पहुँचाने वाली पार्टी कांग्रेस ही है। गौरवशाली परम्परा वाली इस पार्टी पर जनता को आज भी सबसे अधिक भरोसा है। मनमोहन सिंह जैसे ईमानदार छवि वाले नेता अन्य पार्टियों में शायद ही हों। भाजपा भी पाक-साफ नहीं है। बसपा, सपा, राजद, लोजपा, जद(यू) और वामदल कांग्रेस पार्टी से प्रतिस्पर्धा अवश्य करते हैं; लेकिन जनता हमारे साफ-सुथरी छवि के सादगीपसंद नेताओं को ही लायक समझती है।

तमाम आलोचनाओं, आरोपों और छींटाकशी के बावजूद कांग्रेस का कोई जोड़ नहीं है। आप ही सोचिए, गरीबों, मजदूरों, किसानों की पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अगर सही नहीं होती, तो जनता मुर्ख नहीं है जो उसे जनादेश सौंपती। उसके किए को सराहती और दुबारा-तिबारा संसद में पहुँचाने खातिर पूर्ण बहुमत प्रदान करती।

भाइयों, यूपी विधानसभा चुनाव में अगली बारी कांग्रेसियों की है। हमारी पार्टी को प्रचार की जरूरत नहीं है। हमें खुशी है कि प्रांतीय मोर्चा संभालने वाली प्रखर वक्ता और बुद्धिजीवी नेता रीता बहुगुणा जोशी जी हमारे साथ है। जनता उनकी आत्मीयता भरे मुसकान की कायल है। वे जमीन से जुड़ी हुई नेता हैं। उनके नेतृत्व में मिशन-2012 में कांग्रेस का प्रदेश की सत्ता पर सौ-फीसदी काबिज़ होना तय है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस ने जो भी काम किए हैं; सब के सब जमीन से जुड़े हैं। कांग्रेस पार्टी में जनता की अगाध निष्ठा है। क्योंकि कांग्रेस पार्टी आमआदमी की पार्टी है। उनके दुख-दर्द में हमेशा साथ रहने वाली पार्टी है।

जिस दिन योगगुरु रामदेव ने दिल्ली में कुहराम मचाया। मैं हतप्रभ रह गया। एक सामान्य मसले को जिस ढंग से गंभीर और भीषण मामला बनाने की षड़यंत्र रची गई। जनता की पार्टी को बदनाम करने की साजिश हुई। काले धन को ले कर भगवा पोशाक वालों ने ऐसा बवेला मचाया कि दिल्ली के सभ्य जनता को भारी कोफ्त हुई। जिस देश की राजधानी में सबकुछ शांतिपूर्ण तरीके से होता है। लोग रोजमर्रा की जिन्दगी में सुकून की सांसे लेते हैं। उस वातावरण को बाबा रामदेव के भीड़बाजों ने विषाक्त कर दिया। मेहनतकश दिल्लीवासियों की नींद हराम कर दी। यह तो अच्छा हुआ कि ‘हेल्दी दिल्ली’ का स्वप्न देखने वाली दिल्ली सरकार ने समय रहते ठोस कार्रवाई की। नौटंकीबाज बाबा रामदेव को रामलीला मैदान से बाहर निकाल फेंका। कई दिनों तक बाबा के ‘मीडिया सेटरों’ ने कांग्रेस पार्टी को लक्ष्य कर दिन-दिन भर जनभावना भड़काने वाले कथा बाँचें। इलेक्ट्रानिक माध्यम पर भौंडे ढंग से दिल्ली पुलिस की छवि खराब करने वाली ख़बरें प्रकाशित की जो कि अपने दायरे में एकदम सही और उपयुक्त कार्रवाई करने का ज़ज़्बा दिखाया है।

इस पूरे घटनाक्रम में देश बिल्कुल शांत रहा। कहीं कोई जुलूस-प्रदर्शन नहीं हुए। जनता में जनाक्रोश भी नहीं दिखा। दरअसल, विपक्षी पार्टियाँ कांग्रेस की सफेदी से डरती है। वे जानती हैं कि काला धन जैसा कोई मामला ही नहीं है। जिन लोगों के पैसे स्विस बैंकों में जमा है; उसकी छानबीन जारी है। कांग्रेस अगर भ्रष्ट होती, तो सुरेश कलमाड़ी, ए0 राजा और कनिमोझी जैसे भ्रष्टाचार का आरोप झेलते लोगों को जेल के सलाखों के पीछे नहीं डालती। कांग्रेस देश में बेहतर कल का निर्माण करना चाहती है। हर व्यक्ति को रोजगार देने को दृढ़संकल्प है। भूख, गरीबी, बीमारी, अकाल, सूखा, बाढ़, महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वह ठोस प्रयास करने में जुटी है। ऐसी नेकनाम पार्टी को बदनाम करने पर तुली पार्टियों को जनता अवश्य सबक सिखाएगी। यह निश्चित है।

भाइयों, दिल्ली पुलिस की बहादुरी को दाद देनी होगी जिसने चंद घंटों में रामलीला मैदान से उन अराजक तत्त्वों को बाहर खदेड़ दिया जिसका लीडर खुले मंच से सशस्त्र सेना बनाने की बात करता है। कांग्रेस पार्टी ऐसी नहीं है। वह नीड़ का निर्माण करना चाहती है। सभी वर्ग के लोगों का उत्थान। कांग्रेस जाति तोड़ो अभियान का समर्थक है। धर्म और संप्रदाय के नाम पर फसाद करने वाली पार्टी नहीं है कांग्रेस।

हिन्दुस्तान की जनता को मालूम है कि बाकी पार्टियाँ झूठी हैं, मक्कार और लंपट है। इसीलिए कांग्रेस ही सत्ता का स्थायी हकदार है। कांग्रेस देसी जनसमर्थन वाली पार्टी है। इसके प्रायोजक पूँजीपति नहीं है। औधोगिक घरानों से चंदा-उगाही करना इस पार्टी को नहीं आता है। तभी तो, कांग्रेस अपने देश की जनपक्षधर हाथों पर भरोसा करते हुए शासन-व्यवस्था में बनी रहती है। यह छुपा तथ्य नहीं है कि कांग्रेस में नाजायज़ पैसों की आमद-आवक शून्य है। अधिकांश सांसद जमीनी सरोकार से जुड़े जमीनी लोग हैं। उनकी अर्जित संपति जनता का विश्वास है। हमारी पार्टी जनता के बीच काम करते हुए दिखना चाहती है। वह करोड़पति सांसदों से लदी-फदी पार्टी नहीं है। कांग्रेस महात्मा गाँधी की संतान है जिनका फ़लसफ़ा था-‘सादा जीवन, उच्च विचार।’ हम नाजायज ढंग से बटोरे गए सम्पति के खिलाफ हैं। ऐय्याशी हमारा जन-धर्म नहीं है। कांग्रेस पार्टी का एजेण्डा वैचारिक स्तर पर खुला है। हम ‘गाँधी जी के जंतर’ को ध्येय-वाक्य समझते हैं।

वहीं अन्य पार्टियों को देखिए, वे तो इसी में आकंठ डूबी हैं। उनका एक ही मकसद; येन-केन-प्रकारेण पैसा बनाना है। चाहे देश जाए जहन्नुम में। जबकि कांग्रेस हिन्दुस्तान को जन्नत बनाने का स्वप्न देखती है। जहाँ-जहाँ केन्द्र-प्रान्त का कांग्रेसी सह-अस्तित्व है; वहाँ विकास और समृद्धि का रौनक देख लीजिए। अंतर से साफ पता चल जाएगा कि कांग्रेस हिन्दुस्तान का सूरत बदलने में कितने जोर-शोर से जुटी है। कांग्रेस पार्टी चाहती है कि भारतीय राजनीति में कम लोग रहे, लेकिन अच्छे लोग रहें। सच्चे और ईमानदार लोग रहें। समझदार और युवा लोग रहंे।

दरअसल, कांग्रेस समता की मूरत है। भाईचारा और बंधुत्व उसके रग-रग में प्रवाहित हैं। कांग्रेस शुरू से गंगा-यमुना तहजीब की हिमायती है। गरीबों पर जुल्म ढाने की हिमाकत देश की सभी छोटी-बड़ी पार्टियाँ करती हैं; अपवाद सिर्फ एक कांग्रेस है। कांग्रेसी कार्यकर्ता की ईमानदारी देख लोग दंग रह जाते हैं। आज भी सादगी इन पार्टी कैडरों के आचरण में कूट-कूट कर भरी है। लोग अपनापन के लहजे में कांग्रेस से अपने निकट सम्बन्धों का हवाला देते हैं। कांग्रेस इकलौती ऐसी पार्टी है जिसके आलाकमान से 10-जनपथ में मिलना आसान है। सोनिया जी त्याग की प्रतिमूर्ति हैं। वे धैर्य से लोगों की पीड़ा और व्यथा सुनती हैं। उनके लिए तत्काल उपाय करती हैं। पिछले कई वर्षों से मनमोहन सिंह पर आरोप-दर-आरोप लगते रहे हैं। जबकि उन्होंने आज देश को क्या नहीं दिया है?

हम अपने शहर में मॉल और मल्टीप्लेक्स देख रहे हैं। सड़कों का नवीनीकरण और चौड़ीकरण होते देख रहे हैं। विद्युत की निरंतरता बनी हुई है सो अलग। अब गाँव के लोग भी टेलीविजन पर ‘वर्ल्ड कप’ और ‘आईपीएल’ देख रहे हैं। उनके लिए नरेगा-मनरेगा जैसे विकल्प हैं जो उन्हें किसी कीमत पर भूखों नहीं मरने दे सकते हैं। बच्चों की मुफ्त शिक्षा के अतिरिक्त उत्तम खाने का प्रबंध है। स्त्रियों में जागृति के लिए कांग्रेस ने कई दिलचस्प कार्यक्रम शुरू किए हैं। पंचवर्षीय योजनाओं में भारत हमेशा लक्ष्य के करीब पहुँचने में सफल रहा है।

कांग्रेस सादगीपसंद राजनीतिज्ञों को टिकट देता है। गुंडा, मवाली, अपराधी और हत्या के आरोपी कांग्रेसी दल में शामिल नहीं है। तमाम राजनीतिक उठापटक के बावजूद जनता कांग्रेस को ही चुनेगी। काला धन के मसले पर हवाई किला बाँधने वाली भाजपा और बसपा जैसी पार्टियों ने हमारे देश की धन-संपदा को बड़ी बेदर्दी से लूटा है। इन पार्टियों ने जल-जंगल और जमीन को विदेशी बाज़ार के हवाले कर दिया है। देश को गुलाम बनाने की संस्कृति भाजपा और बसपा ने ही सिरजा है। सपा भी सार्गिद है, लेकिन उसकी हैसियत उस जोड़ की नहीं है कि वह चुनावों में कोई मजबूत तोड़ पैदा कर सके। ऐसे में कांग्रेस ही इन साम्प्रदायिक ताकतों और बुर्जुआ पार्टियों के मुख़ालफत में सही विकल्प हो सकती है। कांग्रेस को यदि देश के अल्पसंख्यक बिन मांगे वोट देते हैं, तो सिर्फ इन वजहों से कि कांग्रेस अपनी विचारधारा में सर्वाधिक निरपेक्ष और दृष्टिसम्पन्न पार्टी है।

अतः बाबा रामदेव के खिलाफ की गई कार्रवाई सही है। मैं चुप था, क्योंकि देश की जनता जान रही थी कि यह सारा मामला प्रायोजित है। बाबा रामदेव के अनुयायियों के माध्यम से देश की सबसे विश्वसनीय पार्टी को बदनाम करने की साजिश है। यह वह तरीका है जिससे देश में हो रहे अच्छे कामों से ध्यान भटकाया जा सके। जनता के भीतर फैल रहे संतोष और प्रसन्नता को झुठलाया जा सके। लेकिन यह कहने की बात नहीं है कि देश की जनता कांग्रेस को छोड़कर किसी दूसरे पार्टी के बारे में बात करना तो दूर कल्पना भी नहीं करती है। कांग्रेस को यह भली-भाँति पता है कि जिस तरह रामलीला मैदान में दिल्ली पुलिस ने बाबा रामदेव को उनकी औकात बता दी है; वैसे ही अगर जनता चाह गई तो कांग्रेस किला भी ढूह में बदल जाएगी। लेकिन ऐसा जनता करना क्यों चाहेगी? यह प्रश्न अतिमहत्त्वपूर्ण है।’’

Wednesday, June 15, 2011

स्वप्न, हक़ीकत और जवाब की टोह

प्रकृति:

‘‘तेज आँधी। चक्रवाती तुफान। लगातार बारिश। जलस्तर में वृद्धि। बाढ़ग्रस्त क्षेत्र। ज्वालामुखी का भीषण लावा। राख से ढँकता आसमानी परत। बिजली, पानी और भोजन की अभूतपूर्व किल्लत। संचार नेटवर्क ध्वस्त। प्राकृतिक निर्वासन का दुख। जीवन अस्त-व्यस्त। दुनिया संकटग्रस्त।’’

स्त्री:

‘‘यौन हिंसा में वृद्धि। बाल यौन-शोषण का बढ़ता ग्राफ। एमएमएस कांड और साइबर सेक्स। हाइयर सोसायटी में स्त्रियों का देह-बाजार। परोक्ष वेश्यावृति पर जोर। शारीरिक और मानसिक चोट। स्त्रियों के लिए उसूल की सलाखें। अमानवीय प्रतिबंध। दोहरी जिन्दगी जीने को अभिशप्त महिलाएँ। पुरुष समाज में औरतों की स्थिति नारकीय। पितृसत्तात्मक वर्चस्व। ’’

समाज:

‘‘पारिवारिक बिखराव। अवसादपूर्ण अकेलापन। असीम अतृप्त इच्छाएँ। भोग-लिप्सा की संस्कृति। भागमभाग की आभासी दुनिया। स्वयं के सराहे जाने की महत्त्वाकांक्षा। अचानक ‘ब्रेकअप’। मानवीय कटाव, दुराव और छिपाव की बढ़ती प्रवृत्ति। चाय-कॉफी और हैलो-हाय की संस्कृति। उत्सवधर्मी जीवन से विमुख जीवन-परम्परा। लोक-भाषा, लोकवृत्ति और लोक-संस्कृति से पलायन। सामाजिक-सांस्कृतिक विरूपण और टेलीविजन संसार। न्यू मीडिया के फाँस से उपजी सूचनागत अनिवार्यता में जरूरी के सापेक्ष अनावश्यक शोर व कोलाहल ज्यादा। अन्तर्द्वंद्व और अन्तर्कलह की बादशाहत। सामूहिकता-बोध का लोप। सिकुड़ता सामाजिक-विन्यास।’’

प्रिय देव-दीप,

मुआफी! चहूँगा बेटे, जब तुम दोनों भ्रूण-रूप में माँ के गर्भ में पल रहे थे बारी-बारी से। आपसी अंतराल के दो-वर्षीय अंतर के बीच। उस घड़ी मैं तुम्हारी माँ के साथ जो सपने देख रहा था; वे यह नहीं थे। एक भी स्थिति आज से मेल नहीं खा रही हैं। फिर हमारे स्वप्न क्या थे? तुम्हारे आने की प्रतीक्षा में लिखी गई इबारतें कौन-सी थी? यह तो वे भी नहीं बता सकते हैं जो आज अभी-अभी मेरी तरह पिता बन जाने के गर्व से पुलकित होंगे; औरतें जो माँ बन जाने की सूचना से आह्लादित होंगी। जानता हँू इसके बाद तुम्हारा सवाल राजनीतिक भ्रष्टाचार को ले कर होगा। पूँजीगत नव्य बदलाव के दौर में तीसरी दुनिया में होने वाले आमूल परिवर्तन को ले कर होगा। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के लिए नित घटते ‘स्पेस’ को ले कर होगा। ये दौर ही अंतहीन सवालों से घिरने का है। उन तक़रीरों को सुनने का है जिस सम्बन्ध में शायद ही पूर्व में सोचा हो।

फिलहाल, इस प्रश्न को उन्मुक्त छोड़ देते हैं। कोई तो होगा ही ऐसा जो मुझे तुम्हें बताने योग्य समर्थ सुझाव या मशविरा देगा.....,

कांग्रेस का अवनमन-काल




आजकल राजनीति में एक नई संस्कृति विकसित हुई है-‘पॉलिटिकल नेकेडनेस’ अर्थात राजनीतिक नंगई। इस मामले में कमोबेश सभी दल समानधर्मा हैं। सन् 1885 ई0 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसके गौरवपूर्ण अतीत की समृद्ध परम्परा हमारे समाज में मौजूद है; वह भी इस संस्कृति की मुख्य किरदार है। उसकी क्षमता अकूत है, तो गति-मति अतुलनीय। भाजपा अपने जिस साम्प्रदायिक चेहरे का ‘फील गुड’ कराती हुई सत्ता से बेदख़ल हुई थी; अब वहाँ पूँजीपति परिजनों, औद्योगिक घरानों और सत्तासीन मातहतों का कब्जा है। समाचार पत्रों में चर्चित राबर्ट बढेरा एक सुपरिचित(?) नाम है। ए0 राजा, कनिमोझी, सुरेश कलमाड़ी और नीरा राडिया खास चेहरे हैं। यानी ‘हमाम में सब नंगे हैं’ और ‘हर शाख पर उल्लू बैठा है’ जैसी कहावत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में चरितार्थ हो चुकी है। ‘हर कुएँ में भांग पड़ी है’ वाली कहावत भी दिलचस्प है। सभी राजनीतिक दलों में ‘रिले रेस’ इस बात को ले कर अधिक है कि किस कुनबे का गार्जियन कितना सौम्य, विनम्र और सहज है? ताकि अपनी लंपटई और लंठई को उस श्ख़्सियत की नेकनियती के लबादे में भुनाया जा सके। भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आसान शिकार हैं। के0 करुणानिधि, बीएस येदुरप्पा, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह, बुद्धदेव भट्टाचार्य, सुश्री मायावती उनके आगे कहीं नहीं टिकते हैं।

जनता से छल करती कांग्रेस में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कांग्रेस आलाकमान का दुलरूआ बने रहना, उनके इसी ख़ासियत की तसदीक करता है। संपादक शशि शेखर की राय में-‘‘मनमोहन सिंह इस देश के सबसे काबिल और ईमानदार सत्ता नायकों में गिने जाते हैं, हमेशा गिने जाएंगे। पर लगातार दूसरी बार हम उन्हें रह-रहकर मजबूर होते देखते हैं। क्षेत्रीय दल अपनी बैसाखियों के बदले में उनके रास्ते में रोड़े अटकाते हैं और अपनी शर्ते मनवाते हैं।’’ राजीव नगर के बुराड़ी में अखिल भारतीस कांग्रेस कमेटी की ओर से आयोजित 83वें महाधिवेशन में प्रधानमंत्री महोदय का भाषण गौरतलब है-‘‘आज के दिन हमें यह सोचना चाहिए कि महात्मा गाँधी, पण्डित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और मौलाना आज़ाद जैसे महान नेताओं ने जिन गौरवशाली परम्पराओं की शुरूआत की, उन पर हम किस तरह से चल सकते हैं। सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी की परम्परा, धर्मनिरपेक्षता और सहनशीलता की परम्परा और एक मजबूत और नया भारत बनाने के लिए काम करने की परम्परा।’’

प्रधानमंत्री जिस परम्परा के अनुशीलन की बात कर रहे हैं; चेतस और सचेत मन से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को उस ओर सोचने ख़ातिर प्रेरित कर रहे है; वास्तव में वह हर एक भारतीय का स्वप्न है। स्वाधीन भारत में साँस लेते हम युवाओं की भी यही सदिच्छा है। सचाई में आस्था रखना और अन्धेरे से निकल रोशनी में आने की सोचना हर भारतीय का विशेषाधिकार है। इस मूल अधिकार का न तो यूपी में सुश्री मायावती ज़िबह कर सकती हैं और न केन्द्र और दिल्ली में काबिज़ कांग्रेस सरकार। भट्टा-पारसौल और दिल्ली के रामलीला मैदान में घटित घटना भारतीय कृषकों, मजदूरों तथा आमोंख़ास सभी के सामने जुल्म और ज्यादती का प्रत्यक्ष दृष्टांत है जिसका विस्तार पूर्व की घटनाओं से खुद-ब-खुद जुड़ती चली जाती हैं; चाहे वह सिंगूर-नंदीग्राम का मामला हो या फिर बस्तर, दंतेवाड़ा, नियमागिरि, पलामू और कालाहाण्डी का। ऐसी तमाम पार्टियाँ जो जनता के ज़ज्बातों पर कुठाराघात कर रही है; उसका हिसाब चुक्ता करना जनता से बेहतर भला और कौन जानता है? बाबा रामदेव ने अनशन भले तोड़ दिया हो, लेकिन प्रकरण का पूर्णतः पटाक्षेप नहीं हुआ है। जनता के जेहन में भ्रष्टाचार और काले धन की वापसी के मुद्दे पर जो मार-ठुकाई दिल्ली पुलिस ने की है; उसकी टीस और अंदरुनी कसक शेष है। जनता इस घटना को बड़ी आसानी से भूल जाएगी; यह सोचना सिर्फ कांग्रेस के भाग्य का बलवती होना ही कहा जा सकता है।

कांग्रेस अक्सर आम-आदमी का ज़ुमला उछालती है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को आम-आदमी की पार्टी बताती है। अपनी दृष्टि को त्रिकालदर्शी साबित करने के लिए जो भावनात्मक संदेश गढ़ती है, वह है-‘‘हम लोगों की ऐसी पार्टी है जिसका गरिमापूर्ण भूतकाल है। हमारी पार्टी भविष्य की पार्टी है, इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह हरेक भारतीय के बीच उम्मीद जगाए रखे। यह हमारी पुकार है और हमारा दायित्व भी है।’’

सोनिया गाँधी पार्टी के भीतर जिस उम्मीद, पुकार और दायित्व-बोध होने की बात कर रही हैं; वे नाहक नहीं है। लेकिन प्रकृत आचरण में जो कुछ घटित हो रहा है; उसे देखें, तो यह भाषण मानों पवित्र शब्दों में प्रस्तावित छलावा मात्र है। यह भूत के साथ धोखा और भविष्य के साथ खिलवाड़ है। यह भारत के उस मानस के साथ अन्याय है जो पण्डित जवाहरलाल नेहरू के इस कथन से गहरे संस्तर तक जुड़ा हुआ है-‘‘भविष्य हमें बुला रहा है। हम किधर जायेंगे और हम क्या करेंगे? हमें आम आदमी, किसानों और मजदूरों के लिए आजादी तथा आगे बढ़ने के अवसर ले जाने होंगे। हमें गरीबी, जलालत और बीमारी को मिटाना होगा। हमें समृद्ध, लोकतांत्रिक तथा प्रगतिशील राष्ट्र का और सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संस्थानों का निर्माण करना होगा, जो प्रत्येक नर-नारी के जीवन में पूर्णता लाने तथा उन्हें सामाजिक न्याय दिलाने में सहायक होंगे।’’
लेकिन आज स्थितियाँ उलट है। कांग्रेस निहत्थों से भिड़ती है; लाठियाँ चमकाती है; यह वही कांग्रेस है जिसकी दिल्ली में सरकार है और अपनी पुलिस को दिल्ली के रामलीला मैदान में आँसू गैस के गोले छोड़ने के लिए आदेश देती है। इस बर्बर कार्रवाई में सैकड़ों लोग लहूलुहान और हजारों लोग घायल होते हैं। जबकि यह सत्याग्रह भ्रष्टाचार के खि़लाफ जन-अभियान था। यह किसी पार्टी विशेष के खिलाफ षड़यंत्र नहीं था जिसका ठीकरा संघ या इसी तरह की अन्य संगठनों के ऊपर मढ़े जाए। इसका मकसद या कहें ध्येय काला धन की वापसी सुनिश्चित करने को ले कर था जो विदेशी बैंकरों में बंद है। लेकिन कांग्रेस इस मुकम्मल अभियान को जिस तरीके से घेरती है; बाबा रामदेव के बहाने पूरे भारतीय जनता की अस्मिता पर चोट करती है; क्या जनता इस सिरफिरे और मदांध सरकार को सबक सिखाने में पीछे रहेगी? इस अनुचित कार्रवाई के पक्ष में कांग्रेस चाहे जितनी तर्क गढ़ ले, उसका खुद को बेदाग साबित कर पाना मुश्किल है। उल्टे यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वैचारिक रूप से रुग्ण हो जाने का अभिलक्षण है। रोष और उत्तेजना के क्षणों में कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के उस दीक्षांत भाषण को बिसार दिया जिसे उन्होंने शांति निकेतन विश्वविद्यालय में रविन्द्रनाथ टैगोर को उद्धृत करते हुए 9 मार्च 1974 को कहा था-‘‘ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोगों का रोष भड़काना एक आसान राजनैतिक तरीका हो सकता है, लेकिन हमारी राजनैतिक गतिविधियों का आधार रोष होना है, तो हमारा मूल उद्देश्य पीछे रह जाता है और उत्तेजना अपने आप में एक लक्ष्य बन जाती है। तब आनुषंगिक विषयों को अनावश्यक महत्व मिलने लगता है तथा विचार और कार्य की समस्त गम्भीरता विनष्ट हो जाती है। ऐसी उत्तेजना शक्ति की नहीं बल्कि दुर्बलता की परिचायक होती है।’’ आज कांग्रेस उसी दुर्बलता से पीड़ित है। वह जन-समाज के खि़लाफ ताकत का प्रयोग कर अपनी जिस अदूरदर्शी राजनीतिक इच्छाशक्ति और दृढ़ता का परिचय दे रही है उसका सामना करने के लिए भारतीय जनता सहर्ष तैयार है।

भारतीय जनता को यह भान हो गया है कि ‘‘समाज या दुनिया को बदलने के लिए सबसे पहले राजसत्ता पर कब्जा करना जरूरी नहीं है। यानी राजसत्ता ही सबकुछ नहीं है। सामाजिक रिश्ते बदलते हैं या बदले जाते हैं, तो राजसत्ता का चरित्र भी बदले बिना नहीं रह सकता है। इस सम्बन्ध में भावी पीढ़ी जॉन हॉलोवे को अनुसरण कर रही है जिसकी एक किताब है-‘चेंज दि वर्ल्ड विदाउट टेकिंग पॉवर।’ आज एक बड़ी बदलाव यह देखने को मिल रही है कि अब किसी एक मुद्दे पर देश के विभिन्न हिस्सों में एक साथ कार्रवाईयाँ होने लगी हैं। इसके पीछे ‘न्यू मीडिया’ का बड़ा हाथ है। संचार क्रांति और सूचना राजमार्ग के गठजोड़ से आज दुनिया जिस तरह ‘इंटीग्रेट’ हो रही है, उससे यह जरूर संभव हो गया है कि एक जगह होने वाला आन्दोलन बहुत तेजी से दूसरी जगहों पर फैल जाता है और वह फिर दुनिया की और-और जगहों में भी हवा, फ़िजा या माहौल बनाने में मददगार होता है।’’ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव इसी बदलाव के प्रतिमान हैं जिन्होंने पूरे भारत को वर्ग, लिंग, वय, जाति, भाषा और धर्म से ऊपर उठाते हुए एकसूत्री उद्देश्य में बाँध दिया। बाबा रामदेव में इतनी ताकत है कि 11 लाख क्या 11 करोड़ सेना तैयार कर दें; लेकिन यह विचार-सेना होगी, सशस्त्र सेना हरगिज़ नहीं। इस सन्दर्भ में रेमजे मेकडोनल्ड का कथन ध्यातव्य है-‘समाज विचार के साथ ही आगे बढ़ता है।’

मित्रों, कांग्रेस पार्टी की भीतरी तह का पड़ताल करते हुए यदि हम सन् 1947 के देशकाल में प्रवेश करें, तो हम देखेंगे कि जनतंत्र के लिए राज्य नामक संस्था तो दिक्कत पैदा करती ही है। लेकिन शायद उससे भी ज्यादा दिक्कत पैदा करती है-राजनीतिक दल नामक संस्था। इसीलिए 1947 में महात्मा गाँधी ने पार्टी रहित जनतंत्र की बात कही थी जिसके समर्थन में एम0 एन0 राय भी थे। इन्हीं विचारों को आगे बढ़ाते हुए जयप्रकाश नारायण ने पार्टी रहित जनतंत्र की बात की और उसी आधार पर ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का नारा दिया। इन सभी को भविष्य में पार्टी के निरंकुश होने का भय सता रहा था। हाल में घटित कांग्रेसी कारगुजारियों ने इस भय को आज सबल बना दिया है।

कहना न होगा कि भारतीय राजनीति में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सुदीर्घ परम्परा रही है। किसी ज़माने में कांग्रेस पार्टी आचरण की शुद्धता और पवित्रता का पर्याय थी। आज वह खुद विधर्मी हो चली है। कथाकार मुंशी प्रेमचन्द आज के समय होते, तो क्या ऐसा लिख पाते-‘‘कांग्रेसवाले किसी पर हाथ नहीं उठाते. चाहे कोई उन्हें मार ही डाले. नहीं तो उस दिन जुलूस में दस-बारह चौकीदारों की मजाल थी कि दस हजार आदमियों को पीट कर रख देते. चार तो वहीं ठंडे हो गए थे, मगर एक ने हाथ नहीं उठाया. इनके जो महात्मा हैं, वह बड़े भारी फ़कीर हैं. उनका हुक्म है कि चुपके से मार खा लो, लड़ाई मत करो.’’ मुंशी प्रेमचन्द लिखित कहानी ‘मैकू’ आज प्रासंगिक है। स्वाधीनतापूर्व लिखी गई इस कहानी में प्रेमचन्द कांग्रेसजनों की बडाई करते नहीं थकते हैं। उनका पात्र मैकू जब यह संवाद बोलता है, तो उसकी दृढ़ता उस पात्र की ही नहीं खुद प्रेमचन्द की दृढ़ता को प्रकाशित करती है। कांग्रेस ने कितनी जल्दी अपने स्मृतियों से हाथ छुड़ा लिया है या फिर उन स्मृतियों से उभरने वाली जनसेवी हाथ की आकृति को स्याह कर दिया है; इस बारे में ज्यादा चिन्तन या अनुसंधान की जरूरत नहीं है।

कांग्रेस में अवतरित कुछ नए प्रणेताओं(?) ने खुलेआम कहना शुरू कर दिया है कि बाबा रामदेव सरकार को ‘ब्लैकमेल’ या फिर जनता से धोखाधड़ी कर रहे थे। प्रश्न है कि इस कथित आरोप को जनता अपने खिलाफ की गई ठोस कार्रवाई के उचित विकल्प के रूप में कैसे सही मान ले? आन्दोलन की शुरूआत से पहले योगगुरु के दिल्ली आगमन के समय तीन-तीन कांग्रेसी मंत्रियों का एयरपोर्ट जाना; किस प्रोटोकॉल के अन्तर्गत आता है? क्यों नहीं बाबा रामदेव को वहीं से बैरंग लौटा दिया गया था? सौ-टके का एक सवाल यह भी है कि दिल्ली के रामलीला मैदान में जिस घड़ी सबकुछ सामान्य ढंग से घटित हो रहा था। दिल्ली पुलिस को बिलावज़ह ‘पॉवर’ दिखाने की अनुमति आख़िरकार क्यों दी गई? अब कांग्रेसी दलील की भाषा चाहे जो हो, असल में कांग्रेस की यह कार्रवाई जनमानस की चेतना पर एक परोक्ष प्रहार है। सीधी चेतावनी है उन देशवासियों को जो चेतना में जीवित हैं; मूल्यों की एकता में विश्वास करने वाले हैं; साथ ही देश की मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा पर आँच न आए; इस तरफ़दारी में खुद को होम कर देने वाले हैं। दरअसल, सामूहिक गोलबंदी का यह जनज्वार कांग्रेसी चूलें हिलाने में समर्थ है; कांगेसी सियासतदारों को यह भान हो लिया था।

मित्रवर, यह कांग्रेस का अवनमन-काल है। दृष्टिकोण में अंतर और पार्टी नीतियों में हो रहे घटोतरी विकास का सूचक है। पूँजी समर्थित गठजोड़ से बनी यूपीए सरकार अब गाँधी-नेहरू की पार्टी नहीं है। विचलन का कोण इतना अधिक एकान्तर हो गया है कि स्वाधीनताकालीन कांग्रेस से आज के कांग्रेस की तुलना ही बेमानी है। ए0 ओ0 ह्यूम जो कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक थे; उनकी दिली इच्छा थी कि वह खुद को भारत के मूल निवासी के रूप में देखें। उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है-‘आई लूक अपॉन माईसेल्फ एज ए नैटिव ऑफ इंडिया।’ वस्तुतः ह्यूम किसानों से गहरे संस्तर तक जुड़े थे। भारतीय किसानों की दुर्दशा को लेकर उन्होंने सन् 1879 ई0 में ‘एग्रीकल्चरल रिफार्म इन इण्डिया’ नामक पुस्तक लिखी थी। वे वृक्षारोपण के हिमायती थे। उनका मानना था कि अधिकाधिक वृक्षारोपण एक ऐसी शाश्वत व्यवस्था है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बरकरार रहती है और सुखाड़ की नौबत नहीं आती है। उन दिनों भारत के बहुलांश भूभाग सूखे और अकाल के चपेट में होते थें। बाद के स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस की भूमिका के बारे में विशद वर्णन करना अपनेआप में एक मुकम्मल शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत करना है।

ऐसे दूरदर्शी चिन्तकों के मार्गदर्शन में पुष्ट-संपुष्ट हुई पार्टी को भारतीय स्वाधीनता का ‘प्रथम कदम’ जिन भारतीयों ने माना; आज उसी कांग्रेसी जत्थे के लोग कांग्रेस पार्टी की लूटिया डूबोने में जुटे हैं। आज कांग्रेस के भीतर नेहरू जैसे व्यक्तित्व की आभा मद्धिम-मलिन है जबकि इन्दिरा गाँधी के बाद आई हुई पीढ़ी का वर्चस्व और हस्तक्षेप अधिक। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साइट पर जाइये, तो पाएंगे कि वहाँ ‘इन्दिरायन संस्करण’ का बोलबाला हैं। वेब-पोर्टल के मुख्यपृष्ठ पर डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद, डॉ0 आम्बेदकर, पण्डित जवाहर लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, अबुल कलाम आजाद, लाल बहादुर शास्त्री सरीखे जननेताओं का स्थान गौण है। अगर इन परिवारवादियों के नाम में ‘गाँधी’ शब्द का पुच्छला न लटका होता, तो शायद उनकी तस्वीर को भी कोई तवज्ज़ों नहीं मिलता।

हाल ही में एक दैनिक समाचारपत्र में 21 मई को राजीव गाँधी को श्रद्धाजंलि देते हुए विभिन्न पृष्ठों पर तीन से अधिक विज्ञापन छपे थे; वहीं 27 मई को पण्डित जवाहर लाल नेहरू की पुण्यतिथि के अवसर पर मात्र एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। ये उदाहरण तो सिर्फ संकेत मात्र हैं; ताकि यह जाना जा सके कि कांग्रेस अपनी मूलाधार से कितनी विलग और विचलित हो चुकी है। हर कदम पर भारत बुलंद का सपना देखने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आम आदमी के बढ़ते कदम पर नकेल कसने के लिए किस किस्म का षड़यंत्र रच सकती है; यह 4 जून 2011 को दिल्ली के रामलीला मैदान में घटित घटना से जगजाहिर है?

वास्तव में कहें, तो कांग्रेस आलाकमान सोनिया गाँधी कचरे की पेटी पर पालथी मार बैठी हैं। पार्टी नीतियों में संगत तालमेल का अभाव है। विचारवेत्ता सभी हैं, लेकिन परिपक्व विचार किसी में नहीं हैं। कांग्रेस सुप्रिमों की दिशा-निर्देशन वाली यूपीए सरकार अपनी अदूरदर्शिता को ले कर आलोचना की शिकार है। पार्टीगत निर्णय हो या सरकारी क्रियाकलाप; सभी जगह अफरा-तफरी का माहौल है। कोई किसी को सुनने को तैयार नहीं। सभी राजनीतिज्ञों में अपनी बात कूटने या फिर मनवाने की बुरी लत है।

बहरहाल, कांग्रेसी बागडोर जिन हाथों में सौंपा जाना है; राहुल गाँधी उसके घोषित दावेदार तो हैं, किन्तु उन्हें कब, कहाँ और कैसे बोलना है? यह पूर्व निधार्रित है। देश में उनकी छवि को जानबूझकर स्टार-प्रचारक की बनाई गई है। वे लोगों को अपनी अभ्यास-भाषा से प्रभावित कर ले जाते हैं; मीडिया को इसका गुमान है। जबकि सचाई यह है कि जनता आज भी वीएस0 अच्युतानंदन के साथ है जो राहुल गाँधी को ‘अमूल बेबी’ के निकनेम से सम्बोधित करते हैं। महंगाई को गठबंधन की विवशता और भ्रष्टाचार को इस व्यवस्था की विवशता कहने वाले राहुल गाँधी 19 जून को ‘हैप्पी बर्थ डे’ धूमधाम से मना सकते हैं; लेकिन सार्वजनिक स्तर के संवेदनशील मुद्दे पर जुबान नहीं खोल सकते हैं। हाल के दौरों या फिर ‘रोड शो’ में राहुल गाँधी संचार-क्रांति और सूचना-राजमार्ग के बरअक्स भारत में तकनीकी संजाल बिछाने की बात करते हैं। सभी को अंग्रेजी कॉलम पढ़ने का सहूर सिखाने के लिए अंग्रेजी की पैरोकारी भी करते हैं, लेकिन बतौर युवा राजनीतिज्ञ उनकी सम्प्रेषण शैली और वकृत्य कला में लोचा ही लोचा है। क्योंकि उनकी कहनशैली अधिकांशतः ‘टेप्ड’ मालूम पड़ती है। राहुल गाँधी का राजीव गाँधी की तरह प्रखर और ओजस्वी वक्ता नहीं होना; भावी प्रधानमंत्री के लिए बिछे लोक-आवरण में पगबाधा आउट करार दिए जाने की माफिक है। यों तो मुद्दे और विषय जनहित और लोककल्याण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण एवं दूरगामी परिणाम वाले होते हैं; किन्तु ये उद्घोषणाएँ जनता की नज़र में राजनीतिक पैठ जमाने का सशक्त जरिया है।

Tuesday, June 14, 2011

ख़त, आपबीती और मैं

परमआदरणीय पापा एवं मम्मी जी,
सादर प्रणाम!

यूजीसी-नेट का परिणाम आया, तो मेरी बाँछे खिल गई। जनसंचार विषय से जेआरएफ होना मेरी योग्यता की सामाजिक पुष्टि भर नहीं थी। दरअसल, पापा का विश्वास जो मैंने जीत लिया था; मम्मी की आशीर्वाद जो लगी थी; भाईयों के दुलार ने मुझे मेरे परिश्रम का सुफल जो सौंप दिया था। खुशी के इस क्षण में सीमा भी याद आ रही है जिसके अविचल और अगाध प्रेम ने मुझे यह सब कर सकने की हिम्मत दी। देव और दीप की तो मत पूछिए। उनके होने की वजह से जो परोक्ष दबाव(आर्थिक नहीं) महसूस करता था आज उसने मेरे मेहनत करने की लय और त्वरा को बढ़ा दिया है।

पापा, आपके जीवट संघर्ष ने मुझे अकथ प्रेरणा दी है। छोटी-छोटी चीजों का बड़ा ख्याल करने वाले अपने पापा का मैं किन शब्दों में बयान करूँ, मुश्किल है। पैसे की मोल बहुत कीमती है, लेकिन आपने उसे मेरे ऊपर जी भर के लुटाया। शादी के इतने दिनों बाद भी मैं आपके किसी खीज या चिड़चिड़ेपन का शिकार न बना। ऐसे पिता का पुत्र होने का गौरव मिला है, यह सोचते हुए आँखें सजल हो उठती है।

मोती दा, कुलदीप दा, सत्येन्द्र दा, मनोज भैया, श्रीकांत मनु, मेरे चाचा जी, जीजा जी और ससुराल पक्ष सहित मुझसे या मेरे परिवार से जुड़े सभी लोगों का योगदान है इसमें। प्रमोद जी, अरविन्द जी, नीलम जी, मोतीलाल जी, प्रियंका, सोम भैया, अमित भैया, पंकज, सुजाता, अनुज, रणजीत भैया, अफ़जल, अभिषेक, सीमा, रजनीश, कृष्ण सभी का नैतिक समर्थन इस सफलता में अन्तर्निहित है। कुछ लोगों के अस्पर्शी चिढ़ भी मददगार रहे हैं। इनसे अलग छोटे भाई सरीखा ज्ञानवर्द्धन का उल्लेख आवश्यक है; ज्ञान के साथ मैंने आपसी विवेक का जो ताना-बाना बुना है; वह अद्भुत है।

हाल के दिनों में घरेलू कोलाहल से मन अशांत और खिन्न था। शोध करने की अदम्य इच्छा जाती रही थी। मन उचट रहा था, तो मन में उथल-पुथल की ढेरों चक्रवात उफन रहे थे। मम्मी और सीमा के आपसी तारतम्य में संवादहीनता ने मुझे कई मौकों पर बेहद विचलित किया था। मुझे ध्यान है, मेरे आचार्य ने अनबोले और अनकहे अन्दाज में मुझे हिम्मत दी थी। सबकुछ बेहतर हो जाने का भरोसा दिया था। ऐसे गुरुवर के इच्छानुरूप जल्द से जल्द शोध-प्रबन्ध जमा कर सकूं; इसकी उत्कट अभिलाषा है।

राजीव नौकरी के लिए अंधा होना नहीं चाहते हैं। वे तो रोशनी के लिए किरणों का टोही विमान बनना चाहते हैं; यह सचाई आपको भी मालूम है और मेरे आचार्य को भी। आज से सिर्फ शोध-सम्बिन्धित कार्य होंगे, शेष कुछ नहीं।

घर में सुकून और सलामती हो। सीमा मम्मी को खुश और प्रसन्न रखे। देव-दीप धमाल की अपनी आदत से दादा को छकाए। रवि-धीरज मेहनत करते जाने की सलाह को अमल में लाएँ, यही मीठी इच्छा है मन में मेरी। आने पर घर में ठाकुर अनुकूल चन्द्र जी का सत्संग हो; इस सम्बन्ध में वहीं पहुँचकर सलाह करूंगा।

फ़िलहाल इतना ही, विशेष मिलने पर।
आपका राजीव

Friday, June 10, 2011

नौकरी का जुगाड़-‘एक वैवाहिक जिम्मेदारी’



कलम चलाने वाले बहुतेरे हैं जो इस आस में लिख रहे हैं कि देश के हाल-ओ-हालात सुधरेंगे। उल्टे बाबा रामदेव की हालत बिगड़ रही है। इस अप्रत्याशित समाचार ने मुझे अंदर तक भिंगो दिया.मैं विकल हुआ लिखने को कि यह तो सरकार की ज्यादती है। अचानक उसी घड़ी मोहतरमा का फोन आना था। दो-तीन बार काटा; क्योंकि दिमाग में बाबा-मंथन चल रहा था. मोबाइल कॉल की उधर से ‘रिपिटेशन’ बढ़ते देख, सोचा कि इनको एकाध-शब्द में निपटा ही लूँ।

फोन उठाते ही उनके सवाल से सामना हुआ-‘क्या चल रहा है?’
मैंने झट से कहा-‘यूजीसी नेट की तैयारी।’

सुनकर अच्छा लगा होगा, तभी तो वह बड़े भाव के साथ ‘गुडनाइट’ कहने को उद्धत हुई थी कि मेरे जीभ ने सच बतलाने की नंगई कर दी-‘सच कहूँ, तो अभी जी नहीं लग रहा था। बाबा रामदेव की बिगड़ती हालत के बारे में सुन बेचैन हँू। एक बंदा हमारे लिए सरकार से भिड़ गया है। अन्न-जल छोड़ दिया है। ऐसे दिव्य-संत के समर्थन में मुझ जैसे लिखनेवाले कुछ न लिखें, तो धिक्कार है। नाहक ही पत्रकारिता में ‘गोल्ड मेडल’ ले रखा है। रोज़-रोज़ तो अपना कोर्स-सिलेबस पढ़ना ही है।’’

फोन कट चुका था। सोचा इतना झाँसेदार कहने का असर सकारात्मक ही पड़ा होगा। एक कॉल लगाकर उनकी दिली राय जान लेने की इच्छा मेरे मन में प्रबल हो उठी। लेकिन मैं शत-प्रतिशत ग़लत था। उनका उधर से लगभग फटकारने के अंदाज में स्वर सुनाई दिया-‘इहे कमाई काम देगा न!’

मुझे लगा कि वैवाहिक जिम्मेदारी और नौकरी का जुगाड़ मेरे लिए पहला मोर्चा है। किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत और एम0 एफ0 हुसैन जैसों का आना-जाना दूसरा। और जहाँ तक बात बाबा रामदेव की है, तो ब्लॉगों पर विचारों की आवाजाही सहित उनके सेहत को लेकर फिक्रमंद लोगों की आवक इस घड़ी अकालग्रस्त नहीं है। देश में चिन्तक-बौद्धिक राज भर के हैं। संपादक, प्रबंधक, नेता-परेता, अफसर-मंत्री और न जाने कितने गांज भर के लिखने वाले दिग्गज लोग हैं। सभी पहुँचे हुए आसमानी जन हैं। अपनी बातों के दमखम, तर्कशीलता और सुझाव-सलाह से देश में नव्य-बदलाव लाने वाले। लेकिन मेरे पास क्या है...? यह जानने के लिए मैं अपना नाम गुगल सर्च इंजन में डालकर देखता हँू....! ’

Thursday, June 9, 2011

एम0 एफ0 हुसैन के मरने पर फिदा होना देश का!



कंग्राच्यूलेट एम0 एफ0 हुसैन कि आप हिन्दुस्तान की सरज़मी पर नहीं हुए दफ़न। मरे भी तो इंगलैण्ड में। 95 वर्ष की लंबी उम्र के साथ। आपका मरना आर्यावर्त के लिए न तो खेद का विषय है और न ही राष्ट्रीय क्षति का। आपका मरना तो विश्व-क्षति(भारत छोड़कर) है। यों भी देशनिकाला पाए इंसान के मरने पर भला देश में कैसा शोक और कैसा मातम? फ़िलहाल घड़ियाली आँसू बहाने वालों को अपनी चारित्रिक निष्ठा का डीएनए टेस्ट अवश्य कराना चाहिए। आप वर्षों इस देश में रहे; यहाँ की जमीन, जल, मिट्टी, हवा-बतास और प्रकाश से ताल्लुकात रखा; किन्तु गोया आपने इस देश में पैठे हिन्दू-भूगोल को वस्तुतः समझने की कोशिश नहीं की। आप क्या नहीं जान रहे होंगे कि राष्ट्रप्रेमी हिन्दू अपने देवी-देवताओं का अपमान किन्हीं शर्तों पर बर्दाश्त नहीं करते हैं; वे तो इन देवी-देवताओं की चरणधूली तक को गंगाजल समझकर सहर्ष पी जाते हैं। हुसैन जी! क्या आपको नहीं पता था कि इन महत्त्वपूर्ण देवी-देवताओं का विभिन्न पर्व-त्योहार के मौके पर आत्मिक जुलूस और पदयात्रा निकालना बेहद सुखद और प्रितिकर होता है? आप भले आस्तिक न हों; किन्तु यह एक अटल सचाई है कि हिन्दू देवी-देवताओं के दैवीय-कृपा से भारत का एक भी हिन्दू धर्मावलम्बी अछूता नहीं है। वह आज तक भ्रष्ट और बेईमान न हो सका है। ऐसे महान और महानतम हिन्दू राष्ट्र की आत्मा इन्हीं देवी-देवताओं के भीतर वास करती है; बाकी तो जीवित लाश हैं। सन् 1996 में आपने यही पर ‘बरियार’ ग़लती कर दी। हिन्दू देवी-देवताओं की नग्न तस्वीरें बनाने की धृष्टता कर आपने भले कला और सौन्दर्य की असीम(?) ऊँचाई प्राप्त कर ली हो...लेकिन आपने असल में हिन्दू धर्म के मूल मर्यादा का चीरहरण कर डाला। भारत जैसे राष्ट्र में भ्रष्ट, बेईमान, अपराधी, माफिया, जमीन्दार और गुण्डा-बदमाश बहुतायत हैं; लेकिन वे हिन्दू नहीं है। भाजपा या संघ रात-दिन चिल्लाते है कि ये सारे असामाजिक जंतु जो जन्मजात दोमुँहे और दूरंगी जात के संकर पैदाइश हैं; को दर-बदर किया जाए। ये लोग कथित तौर पर हिन्दू धर्मावलम्बी तो हैं; लेकिन धार्मिक चित्त, प्रवृत्ति और संचेतना के नहीं हैं। अतएव, आपके मरने पर देश के हिन्दू न तो शोकाकुल हैं और न ही चिन्तित। उल्टे डर है कि कहीं आपको भारत में भी 'भारत का पिकासो’ उपाधि से विभूषित न कर दिया जाए!

Wednesday, June 8, 2011

इस अन्धेरे समय में....!




‘‘शब्द कितने भी अर्थवान क्यों न हो? उजाले के बिना उनका अस्तित्व नहीं है। लिखे हरफ़ पढ़ने के लिए उजास चाहिए। मन की उजास। आत्मा की उजास। मानवीय मनोवृत्तियों एवं प्रवृत्तियों का उजास। अच्छा कहने और ईमानदार जीने की संकल्पना का उजास। दरअसल, वेद-सूक्ति हो या नैतिक-सुभाषितानी; सभी में उजास ही तो एकमात्र लक्षित भाव है। भारतीय संस्कृति में यह भाव साकार और निराकार दोनों रूपों में उपस्थित है। बस मन के अतल गहराईयों में उतरने का जज़्बा चाहिए। साहस चाहिए अपने देशकाल की परिस्थितियों एवं पारिस्थितिक तंत्र से मुकाबला करने के लिए।’’

इस अन्धेरे समय में गुरुवर आपकी यह सीख मेरे लिए प्रेरणा है। इन्तहान की घड़ी में ‘स्ट्रूमेन्ट बॉक्स’ है। वैसे समय में जब देश का जीवन-दर्शन रीत रहा है। सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का दूसरी ज़बान में विरुपण जारी है। देसी भाषा और बोली-बात निजी शैक्षिक केन्द्रों से बहिष्कृत हो मरघट पहुँचाए जा चुके हैं। मैं आपके इन्हीं प्रेरणा के उजास में स्वयं को सींचा हुआ महसूस कर रहा हँू।

मैं आपके व्यक्तित्व के अनुकरणीय गुणों से गहरे संपृक्त हँू। लेकिन कई अर्थों में भिन्न और विरोधी भी। यह मेरे अर्जित सामाजिक सरोकार की देन हैं, तो वंशानुगत अर्जित संस्कार की मूल परिणति। यह जरूरी भी है, क्योंकि ग्रहणकर्त्ता को अपना कर्त्ता भाव नहीं भूलना चाहिए जैसे दाता को अपनी सीमाएँ और मर्यादाएँ।

अतः इस अन्धेरे समय में भी आपकी प्रेरणाओं से संबल प्राप्त करते हुए मैं आपके द्वारा दुहराये जाने वाले इन पंक्तियों पर पूरी ठाठ से मुसकरा सकता हँू-‘बस के दुश्वार है हर काम का आसां होना/आदमी को भी मय्यसर नहीं इंसान होना’।

Tuesday, June 7, 2011







(बाल साहित्यकार वैद्यनाथ झा द्वारा लिखित बाल कहानी-संग्रह ‘छतरी में छेद’ की समीक्षा जल्द ही ब्लॉग ‘इस बार’ में प्रकाश्य-राजीव रंजन प्रसाद)

Monday, June 6, 2011

सिंहावलोकन

राहुल गाँधी का मिशन-2012 हुआ गोलपोस्ट से बाहर



शीर्षक देख लग रहा होगा कि इस पंक्ति का लेखक अति-उत्साह का मारा है। उसकी राजनीतिक समझ गहरी नहीं है। सोच भी दूरदर्शी न हो कर तात्कालिक अधिक है। जो कह लें; बर्दाश्त है। यह प्राक्कल्पित समाचार है जिसमें सही निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए सभी संभाव्य परिणामों पर विचार करना ही पड़ता है। प्रस्तुत है उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव के लिए विज्ञापित मिशन-2012 की एक ‘हाइपोथेसिस रिपोर्ट’ ।

अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सुश्री मायावती पुनश्चः सत्ता पर काबिज होंगी। फिर प्रांतीय शासन में कथित लूट का डंका बजेगा, मूर्तियाँ बनेंगी। हाँ, भाजपा एक बार फिर शंखनाद कर पाने में पिछड़ जाएगी। कांग्रेस का तो सूपड़ा ही साफ। सपा धड़ा को एक बार फिर जनता के विश्वास के लिए दर-दर भटकना होगा। सत्ता से उतर जाने के बाद वापसी कितनी मुश्किल हो जाती है-माननीय मुलायम सिंह यादव से बेहतर भला कौन जान सकता है?

युवा चेहरे के बल पर राजनीति करते पार्टियों में सपा प्रत्याशी अखिलेश यादव सुघड़ चेहरे के धनी हैं। साफ-साफ ढंग से जनता को सम्बोधित भी कर लेते हैं; किन्तु राजनीति की जमीनी समझ में कच्चे हैं। उधर वरुण ‘मैच्योर’ तो हैं, लेकिन उनकी दिग्गज नेताओं के बीच दाल कम गलती है। कसमसाहट की सारी सरहदें उनके ज़ुबान में गोला-बारूद बन फूटता है। सहज स्वाभाव के अनुभवी वरुण के लिए आवश्यक है कि वह भाजपा नित गठबंधन के भीतर युवा चेहरों को उभारने और उन्हें यथोचित स्पेस दिए जाने को लेकर मन बनाएँ। सर्वजन का मुखापेक्षी बनने के लिए भाजपा को हिन्दूत्व का मुद्दा त्यागना होगा। उम्रदराज राजनीतिज्ञों पर तरस खाने की बजाय युवाओं को अधिक मौके देने होंगे। सत्ता का बागडोर युवा हाथ में सौंपे जाने से भाजपा में जो आमूल बदलाव आएंगे उसका दूरगामी परिणाम देखने को मिलेगा। सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव में होंगे जिसके लिए उसकी दावेदारी का ग्राफ सर्वाधिक है।

वहीं मुलायम सिंह यादव को संयम और संतुलन के साथ अपना ‘वोट बैंक’ और मजबूत जनाधार फिर से वापिस लाना होगा। सेलिब्रेटी चेहरे के बदौलत जनता को झाँसा देना अब आसान नहीं रहा है। ‘अमर फैक्टर’ के इस लोकप्रिय भूलावे का पोल खुल चुका है। अमर सिंह खुद भी आज हास्यास्पद स्थिति में राजनीति में डटे हुए हैं। प्रखर समाजवादी चिन्तक लोहिया की दृष्टि से भिन्न राजनीतिक आधार और जमीन पर राजनीति कर रही समाजवादी पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि जातिगत समीकरण अब बीते कल की बात हो गई है। जनता की प्राथमिकताएँ तेजी से बदली है। जागरूकता के नए तेवर विकसित हुए हैं तो विरोध एवं गतिरोध के शक्तिशाली स्वर भी फूटे हैं जिसकी चाह राज-समाज की टिकाऊ विकास और सक्षम राजसत्ता को समर्पित है। जनता अब लोहिया के इस कथन का अर्थ जान चुकी है-‘जिन्दा कौंमे पाँच साल इंतजार नहीं करती हैं।’

उत्तर प्रदेश में ‘मिशन-2012’ पर कांग्रेस का जोर सर्वाधिक था। लेकिन बिहार की भाँति यूपी में भी राहुल अनहोनी के शिकार हो गए। यूथ-ब्रिगेड का गुब्बार फुस्स हो गया। दिग्गी राजा के बड़बोलेपन जहाँ यूपी कांग्रेस को ले डूबी; वहीं रीता बहुगुणा जोशी की नाकर्षक छवि ने कांग्रेस को एकदम से ‘बैकफुट’ पर ला खड़ा किया। याद है, 14 अप्रैल 2010 को कांग्रेस ने यूपी के आम्बेडकर नगर में एक जोरदार रैली का आह्वान किया था जिसमें राहुल गाँधी के यूथ ब्रिगेड द्वारा पूरे यूपी में परिभ्रमण किया जाना तय था। चंद रोज के भीतर ही इस कांग्रेसी-रथ को आगे जाने से रोक दिया गया। पारस्परिक टकराहट, मतभेद और मारपीट से उपजे अप्रत्याशित समीकरण ने कांग्रेसी मंगलाचरण में व्यवधान उत्पन्न कर दिया था। आज जब राहुल गाँधी करारी हार स्वीकार चुके हैं; उनकी सन् 2014 में प्रधानमंत्री बनने की संभावना संदिग्ध है। आशंका तो यह भी जतायी जाने लगी है कि कहीं देश की जनता केन्द्र से भी कांग्रेस को बेदखल न कर दे। ऐसा होना ताज्जुब भी नहीं कहा जाएगा; क्योंकि जनता में कांग्रेसी जनाधार के लोप होने के पीछे का असली वजह केन्द्र सरकार का निरंकुश होना है। कई मुद्दों पर उसकी नीतियाँ बेहद अस्पष्ट एवं उलझाऊ किस्म के रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ज्यादा मुखर दिखने वाली सोनिया गाँधी को जनता ने शुरूआत के दिनों में काफी सराहा और सर आँखों पर बिठा रखा था; किन्तु सत्तासीन सरकार ने जुल्म की इंतहा कर दी। राष्ट्रमंडल खेल में व्याप्त भ्रष्टाचार से ले कर 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में कांग्रेस ने अपना जो ढुलमुल स्टेण्ड रखा और जनलोकपाल बिल के मसौदे को पूरी तरह स्वीकारने में जिस ढंग से आनाकानी की; उससे जनता के बीच उसकी साख में तीव्र गिरावट आई।

रोचक तथ्य यह है कि नोयडा भूमि अधिग्रहण मामले में भट्टा-पारसौल पहुँचे राहुल गाँधी ने प्रांतीय सरकार पर किस्म-किस्म के आरोप मढ़े थे। ग्रामीणों के ऊपर हुए पुलिसिया कार्रवाई को बर्बर एवं अमानवीय करार देते हुए उन्होंने सार्वजनिक बयान में कहा था कि वह खुद को भारतीय कहते हुए शर्म महसूस कर रहे हैं। महीना भी नहीं बीते कि दिल्ली के रामलीला मैदान में इससे भी बर्बर घटना दुहरायी गई। उस वक्त राहुल गाँधी का शर्मो-हया इस कदर हवाई हो चुका था कि उन्होंने 36 से 48 घंटे बीत जाने के बावजूद एक लकीर तक नहीं बोला। उनकी ‘फैन्स’ कही जाने वाली करोड़-करोड़ जनता ने उसी वक्त राहुल गाँधी को सबक सिखाने का संकल्प ले लिया था। दरअसल, वर्ष 2011 में कांग्रेस ने बाबा रामदेव के जनान्दोलन को कुचलने का अतिरिक्त दुस्सहास दिखाया, तो जनता एकदम से सिहर गई। उस घड़ी आन्दोलन की रौ में बही जनता दिल्ली के रामलीला मैदान में इस अभियान के साथ पहुँची कि वह अपने देश को भ्रष्टाचारमुक्त करने की दिशा में सार्थक योगदान कर सके। 4 जून 2011 की अर्धरात्रि में दिल्ली पुलिस ने केन्द्र सरकार के इशारे पर जो तांडवलीला रचा; वह आज भी शरीर में झुरझुरी और थरथर्राहट पैदा कर देने के लिए काफी है।

अपनी ही ग़लत निर्णयों की वजह से अप्रासंगिक हो गई कांग्रेस ने इस धर्मनिरपेक्ष मुल्क में भाजपा से अलग एक ऐसे राष्ट्रीय पार्टी के गठन की आवश्कता को अपरिहार्य बना दिया है जिसके बगैर भारतीय द्वीप में वैकल्पिक सोच तथा राजनीतिक संचेतना से परिपूरित राजनीति का अस्तित्व संभव नहीं है। लाख जतन के बावजूद राहुल गाँधी को सही ढंग से लाँच न कर पाई कांग्रेस अब प्रियंका गाँधी की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है। भय है कि कहीं कांग्रेस प्रियंका गाँधी को ‘दूसरी इन्दिरा’ के रूप में प्रचारित करना न शुरू कर दे। अब चाहे जो हो यूपी की निर्णायक सत्ता से कांग्रेस का जाना इस बात का संकेत है कि जनता यथास्थितिवादी न हो कर परिवर्तनकामी है। फिलहाल सत्ता में बमुश्किल से बहुमत प्राप्त करने में सफल रही मायावती की ताजपोशी भले आश्वस्पिरक हों; लेकिन उनकी पार्टी लंबे रेस का घोड़ा साबित हो इसके लिए अथक मेहनत और अतिरिक्त प्रयास की सख़्त जरूरत है।

आज पत्रकारिता के समक्ष तोप मुक़ाबिल है!


इस घड़ी बाबा रामदेव के प्रयासों की वस्तुपरक एवं निष्पक्ष आलोचकीय बहस-मुबाहिसे की आवश्यकता है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि बाबा रामदेव को कई लोग कई तरह से विज्ञापित-आरोपित कर रहे हैं। कोई कह रहा है-संघ के हैं रामदेव, तो कोई उन्हें महाठग कह अपनी तबीयत दुरुस्त कर रहा है। कई तो उन्हें गाँधी के गणवेष में जनता के सामने परोसने के लिए विकल हैं। बदले हुए इस घटनाक्रम में मुद्दे से पलायन कर चुकी सरकार और स्वयं बाबा रामदेव एक-दूसरे के ख़िलाफ जुबानी तलवार भाँज रहे हैं। 4 जून को अचानक बदले घटनाक्रम को केन्द्र सरकार बाबा रामदेव द्वारा भीतरी राजनीतिक स्तर पर किए गए समझौते से साफ मुकर जाने को जिम्मेदार ठहरा रही है।

फ़िलहाल इस पूरे मामले की चश्मदीद गवाह बनी जनता(सर्वाधिक लुटी-पिटी) की हालत नाजुक एवं दयनीय है। कहावत है-चाकू तरबूजे पर गिरे या तरबूज चाकू कर; कटना तो तरबूजा का ही तय है। विद्यार्थी मीडिया का हँू, इसलिए याद आ रहा है मुझे नॉम चोमेस्की का ‘प्रोपगेण्डा मॉडल’। मूल मुद्दे से पलायन कर नए गैरजरूरी मुद्दे को प्रक्षेपित करना इस मॉडल का मूलाधार है। कलतक जो जनता भ्रष्टाचार, काले धन की वापसी, पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमत, महँगाई, खेतिहर भूमियों को जबरन किए जा रहे अधिग्रहण, शासकीय लापरवाही और राजनीतिक इच्छााशक्ति में आ रहे गिरा वट को ले कर उखड़ी हुई थी; आज उसी जनता के सामने बाबा रामदेव की प्रतिष्ठा भला जीवन-मरण का प्रश्न कैसे बन गई? कल की तारीख़ में बाबा रामदेव अगर कांग्रेस और कांग्रेसी आलाकमान(जिन्हें वे अपनी मौत के लिए जवाबदेह घोषित करते हैं) के साथ सुलह-समझौता(!) कर लें, तो इस जनज्वार में शामिल जनता का क्या होगा? ऐसा सोचना या घटित होना आज के बहुरुपिए समाज में नामुमकिन नहीं है। लेकिन एक बात तो साफ हो गई है कि यूपीए सरकार के भीतर नैतिक गिरावट चरम पर है और उसका आत्मबल चूक गया है। कहावत है-चोर की दाढ़ी में तिनका। कांग्रेस सरकार की गत आज उसी चोर की भाँति है जो ग़लत है लेकिन खुद को मुँहचोर साबित होने देना नहीं चाहती है।

इस समय रामलीला मैदान चर्चा का ‘हॉट स्पॉट’ है जैसे ओसामा की मौत के बाद शहर एबटाबाद चर्चा में आन प्रकट हुआ था। लेकिन महज चर्चा से मुल्क की चौहद्दी नहीं बदलती है। क्रूर प्रशासकों एवं शोषक नीति-नियंताओं का ख़ात्मा भी सिर्फ ख़बरों में मर-खप जाने से नहीं होता है। बदलाव के मुहाने पर आ पहुँचा राष्ट्र हमसे हमारे विवेक-परीक्षण के लिए समय माँग रहा है। मुझे जहाँ तक लगता है-यह बात तो आनी-जानी है; कहकर हम कहकहा भले लगा लें; किन्तु आज का दिन जब इतिहास बनेगा तो हमारी भूमिका गुमनाम जोकर्ची के अतिरिक्त कुछ नहीं होगी। मीडियावी इतिहास के ‘सर्च इंजन’ में तलाश तो राहुल गाँधी की भी होगी जिनको दिल्ली के राजीवनगर बुराड़ी में आयोजित कांग्रेस के 83वें महाधिवेशन में कहते सुना गया था-‘‘आम-आदमी चाहे वह गरीब हो अथवा धनी। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई हो, शिक्षित हो अथवा अशिक्षित। यदि वह देश की प्रणाली से जुड़ा हुआ नहीं है तो वह एक आम-आदमी है। उनमें पर्याप्त क्षमता, बुद्धि और शक्ति है। वह अपने जीवन के हर दिन इस देश के निर्माण में लगा रहता है; परन्तु हमारी प्रणाली हर कदम पर उन्हें कुचलती रहती है….,’’

आमोंख़ास के इस आन्दोलन को खुद राहुल गाँधी के सरकारी-तंत्र द्वारा बेतरह कुचले जाने को जनमाध्यम किस रूप में प्रचारित-प्रसारित करें, यह सोचना न केवल पत्रकारों के लिए महत्त्वपूर्ण है; अपितु योग्य राजनीतिक विश्लेषकों, चिन्तकों और बुद्धिजीवियों की ख़ातिर भी आपद धर्म है। सरकार की इस बर्बर और दुस्साहसी पुलिसिया-कार्रवाई को सिर्फ और सिर्फ हिक भर कोस कर काम चला लेना क्या पत्रकारीय मर्यादा की दृष्टि से उपयुक्त है? या फिर ऐसे प्रकरण भविष्य में फिर कभी नमूदार न हों; इस दिशा में समुचित रूपरेखा और सुचिन्तित व्याख्या प्रस्तुत किया जाना ही पत्रकारीय बिरादरी का प्राथमिक लक्ष्य माना जाए? सबसे बड़ा रोना यह है कि मीडिया खुद भी इस वक्त संशय में है। मीडिया यह तय कर पाने में असमर्थ है कि एक साधु-सन्यासी के आन्दोलन को देसी जनान्दोलन कहा जाए या कि नहीं? पुलिसिया कार्रवाई का वह खुलकर मज्ज़मत करे, या फिर बाबा को उनकी हद बताए कि वह राजनीति करने की बजाय योग करें; वही बेहतर है। ऐसे अन्तर्द्वंद्व की घड़ी में क्या हो समयानुकल पत्रकारिता? यह प्रश्न है जिसमें यक्ष ही यक्ष कुंडली मारे बैठे हैं।

बाबा रामदेव द्वारा काले धन की वापसी सुनिश्चित करने को लेकर रामलीला मैदान में जिस तामझाम के साथ भव्य सत्याग्रह की शुरूआत हुई उसका इस तरीके से ढूह में तब्दील हो जाना स्वयं मीडियाजनों को हतप्रभ करता है। आपातकाल के समय जीवित होश नहीं रखने वाले मुझ जैसे अभागे के लिए यह अनदेखी-अनबीती सचाई है। पत्रकारिता का विद्यार्थी होने के नाते मुझे मेरे गुरुवर प्रो0 अवधेश नारायण मिश्र की एक सीख याद आ रही है जिसका आशय था-‘एक पत्रकार द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली स्याही कितनी भी स्याह क्यों न हो? उसके माध्यम से निरूपित शब्दों के अर्थ, भाव, बिम्ब, प्रोक्ति, उद्देश्य और प्रेरणा कभी स्याह नहीं होते हैं।’’ सारतः अपने अग्रज-पत्रकारों से इस बारे में सूक्ष्म एवं बारीक विश्लेषण की अपेक्षा बेमानी नहीं है जो दुध का दुध और पानी का पानी अलग कर इस परोक्ष आपातकाल की त्रासद दौर से मुक्ति दिला सकते है।

बहरहाल, बाबा रामदेव के समर्थन में जिस तरह लोग भड़के हुए हैं; उसी तरह उन पर पलटवार करने वाले लोग भी बोल-बोलने को आमदा हैं। कुछ लोग उनके राजनीति में आने की बात को ‘अनैतिक प्रोपगेण्डा’ घोषित कर चुके हैं। उन्हें सुझाव दिए जा रहे हैं कि साधु-सन्यासियों को अपने तपोबल और ज्ञानमण्डल का निवेश गुरुकुल में करना चाहिए; न कि सड़कों पर। सड़क तो राष्ट्रमण्डल के आयोजन के लिए है। 10, जनपथ पर आने-जाने के लिए है। स्वधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस के आयोजन में शामिल होने वाले सैन्य-परेड के लिए है। यह उनके स्वागत के लिए है जिन्हें वह इच्छित ढंग से पद्म श्री और पद्म विभूषण जैसे पुरस्कार से नवाज़ती है। यह सड़क आईपीएल और मल्टीनेशनल कंपनियों के उत्पाद लाँचिंग और ब्राण्ड-प्रमोशन के लिए है। यह सड़क उन सबके लिए है जो मोटी तनख्वाह पाते हैं और वीकेण्ड में सैर-सपाटा करने के आदी हो चुके हैं। यह उन चेहरों का राह तकने के लिए है जो सेलिब्रेटी हैं, उद्योगपति हैं या फिर नेता-मंत्री और नौकरशाह।

तभी तो बाबा रामदेव को यह घुसपैठ काफी मंहगी पड़ी। जनता के स्वर का सारथी बन वह दिल्ली के रामलीला मैदान तो पहुँच गए; किन्तु उन्होंने सरकार के असरदार दरबारियों से हुई भेंट-मुलाकात में क्या कुछ सुना-गुना, यह सार्वजनिक तौर पर जनता को बताना जरूरी नहीं समझा। यही गच्चा खा गए बाबा रामदेव। उन्होंने जल्दबाजी के आवरण में जो कबूलनामा कबूल की; वही उनके शांति-कपोत रूपी इस जनआन्दोलन को ले उड़ा, और बाबा रामदेव हाथ मलते रह गए। एकमात्र इस चूक ने उनसे सम्बन्धित तरह-तरह के अफवाहों का बाज़ार गर्म कर दिया।

कहने वाले अपनी बात झोंक रहे हैं कि इस देश में सेलिब्रेटियों की कमी नहीं है; लेकिन वे काले धन के मुद्दे पर चुप हैं तो बाबा रामदेव इतने मुखर क्यों? चिन्तक, बुद्धिजीवी, समाजसेवी और साहित्याकारों की भरी-पूरी फौज है, वे चुप लेकिन बोले तो केवल बाबा रामदेव? कईयों का मानना है कि बाबा रामदेव को श्रेय अतिप्रिय है। बाबा छद्म रचने में उस्ताद अधिक हैं, राष्ट्रीय मुद्दे और चिन्ताओं से जमीनी स्तर पर संपृक्त कम हैं। बाबा रामदेव सदैव मुद्दों को हथियाना जानते हैं। उनका आन्दोलन जनमानस द्वारा नहीं संघ द्वारा प्रायोजित है। अधिकांश लोगों का तो यह भी कहना है कि बाबा रामदेव ने काले धन जैसे संवेदनशील मुद्दें का अनावश्यक राजनीतिकरण कर इस दिशा में ‘अण्णा टीम’ द्वारा किए जा रहे प्रयास को अवरूद्ध कर डाला है। रायशुमारी में शामिल कुछ लोगों का यह भी कहना है कि बाबा रामदेव कांग्रेस, भाजपा, संघ, बसपा और सपा सभी राजनीतिक दलों से ‘कॉमन’ सांठ-गांठ कर अपनी रोटी सेंकने का दोहरा खेल खेलना चाहते हैं। वे जन की बात करते हैं, किन्तु खुद ही सज्जन नहीं है; सो ‘महाजनो येन गत सः पंथा’ की उक्ति से उन्हें विभूषित करना सही नहीं है।

इस घटनाक्रम पर कई ताजा प्रतिक्रियाएँ सामने हैं। जैसे-‘हाय! बाबा को केन्द्र और दिल्ली सरकार ने लिंग परिवर्तन करने पर बाध्य कर दिया गया। भगवा से सलवार-समीज पर उतर आये बाबा।’ हँसकर अपनी फौरी प्रतिक्रिया से अवगत कराते इन सबल युवाओं(पंक्ति लेखक के सापेक्ष) को सरकार की नीचता पर हँसना क्यों नहीं आ रहा है? मौलिक अधिकार जिसे हम सांविधानिक भाषा में ‘अभिव्यक्ति एवं स्वतंत्रता के अधिकार’ के रूप में परिभाषित करते हैं; उस पर धावा बोले जाने को लेकर वे चिन्तित-व्यथित क्यों नहीं हैं? हमारी रक्त-मज्जा में सींची गई चीजों का भूगोल प्रायोजित तरीके से बदला जा रहाहै, वर्तमान में उसे लेकर भी समाज में किसी किस्म का क्षोभ या पीड़ा क्यों नहीं है?

हमें नहीं भूलना चाहिए कि अब आधुनिक सत्ता जन-उत्पीड़न के लिए धारदार हथियार का इस्तेमाल करने की बजाय नीम-बेहोशी में आमआदमी को टुन रखना चाहती है। पूँजी-केन्द्रित सत्ता सीधे-सीधे जान-माल को क्षति भी नहीं पहुँचाती है। वह आपकी शक्ति को कमजोर करने के लिए वातावरण गढ़ती है। ऐसा माहौल तैयार करती है जिसमें आप खुद ही अपनेआप को ‘मिसफिट’ और ‘मिसमैच’ महसूस करने लग जाएँ। पाश्चात्य कलेवर में निर्मित वह ऐसे मारक आयुध प्रयोग में लाती है जो हमें सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों और नैतिक दायित्वों से स्वतः ही विमुख कर डालती है। आचरण और प्रवृत्तियाँ बदल जाती हैं। संस्कार और मूल्यबोध की अभिप्रेरणाएँ निर्वासित हो जाती हैं। यानी आधुनिक सत्ता राजनीतिक पीठों या लोकतांत्रिक पाये पर टिकी न होकर आज नवसाम्राज्यवादी शक्तियों के भीतर विन्यस्त है जिसे अभिजन समाज कहते हैं। इस ‘इलिट क्लास’ के पास इतनी अकूत संपत्ति और शक्ति है कि वह बाबा रामदेव को न केवल रंक से राजा बना सकती है; बल्कि उन्हें सवा अरब की भारतीय जनता के सामने ‘इनकाउन्टर’ भी कर सकती है। आज जनता की संख्या शक्ति का पर्याय नहीं है। आज शक्ति सकेन्द्रित है उन कारपोरेट घरानों में जिसके मुरीद हमारे देश के प्रधानमंत्री और उनके ही जैसे पिच्छलग्गू नेता हैं। इस पूरे दहशतअंगेज आवरण को फिराक के शब्दों में कहना यथेष्ट है-‘रुपया राज करें आदमी बन जाए गुलाम/ऐसी तहज़ीब तो तहज़ीब की रूसवाई है।’

Sunday, June 5, 2011

हमारी पीढ़ी जानती है-ताजो-तख़्त पलटना


2014 के लोकसभा चुनाव में बड़े अंतर से पराजित होने वाली सत्तासीन पार्टी कांग्रेस के बारे में यह भविष्यवाणी जल्दबाजी कही जा सकती है; सो मिशन-2012 के तहत यूपी विधानसभा चुनाव में उसे जनता द्वारा हराना जरूरी है। ऐसा मानना है उन राजनीतिक विश्लेषकों, सामाजिक बुद्धिजीवियों, लेखकों एवं साहित्यकारों का जो उड़ती चीड़िया का पर गिन लेने में उस्ताद हैं। लिफाफा देखकर मजमून भाँप लेने वाले इन चुनावी-पण्डितों ने तो यह भी कायास लगाना शुरू कर दिया है कि अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गिने-चुने दिन ही शेष बचे हैं। ऐसे में प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या राहुल गाँधी का प्रधानमंत्री बनना महज एक दिवास्वप्न साबित होगा? क्या उनके अपने ही सहयोगी-सार्गिदों ने उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना को दुसाध्य बना डाला है? अगर नहीं तो जनता के बीच उसे नित अप्रासंगिक बनाये जाने के पीछे का मूल रहस्य क्या है? क्योंकर राहुल गाँधी को उन संवेदनशील मौके के इर्द-गिर्द फटकने या उस पर तत्कालिक प्रतिक्रिया देने से रोक दिया जाता है जो जनता खासकर युवाओं के बीच उनकी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए नितान्त आवश्यक है।(जारी....)

Saturday, June 4, 2011

भारत में वैचारिक आपताकाल का नया दौर शुरू



जन-समाज, सभ्यता और संस्कृति के ख़िलाफ की गई समस्त साजिशें इतिहास में कैद हैं। बाबा रामदेव की रामलीला मैदान में देर रात हुई गिरफ्तारी इन्हीं अंतहीन साजिशों की परिणती है। यह सरकार के भीतर व्याप्त वैचारिक आपातकाल का नया झरोखा है जो समस्या की संवेदनशीलता को समझने की बजाय तत्कालीन उपाय निकालना महत्त्वपूर्ण समझती है। बीती रात को जिस मुर्खतापूर्ण तरीके से दिल्ली पुलिस ने बाबा रामदेव के समर्थकों को तितर-बितर किया; शांतिपूर्ण ढंग से सत्याग्रह पर जुटे आन्दोलनकारियों को दर-बदर किया; वह देखने-सुनने में रोमांचक और दिलचस्प ख़बर का नमूना हो सकता है, किन्तु वस्तुपरक रिपोर्टिंग करने के आग्रही ख़बरनवीसों के लिए यह हरकत यूपीए सरकार की चूलें हिलाने से कम नहीं है। केन्द्र सरकार की बिखरी हुई देहभाषा से यह साफ जाहिर हो रहा है कि जनता अब उसे बौद्धिक, विवेकवान एवं दृढ़प्रज्ञ पार्टी मानने की भूल नहीं करेगी। इस घड़ी 16 फरवरी, 1907 ई0 को भारतमित्र में प्रकाशित ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ का वह अंश स्मरण हो रहा है-‘‘अब तक लोग यही समझते थे कि विचारवान विवेकी पुरुष जहाँ जाएंगे वहीं विचार और विवेक की रक्षा करेंगे। वह यदि राजनीति में हाथ डालेंगे तो उसकी जटिलताओं को भी दूर कर देंगे। पर बात उल्टी देखने में आती है। राजनीति बड़े-बड़े सत्यवादी साहसी विद्वानों को भी गधा-गधी एक बतलाने वालों के बराबर कर देती है।’’

काले धन की वापसी के मुद्दे पर बाबा रामदेव ने जो सवाल खड़े किए उसका केन्द्र सरकार द्वारा संतुलित और भरोसेमंद जवाब न दिया जाना; सरकार की नियत पर शक करने के लिए बाध्य करता है। स्विस बैंक में अपनी राष्ट्रिय संपति अनैतिक ढंग से जमा है; यह जानते हुए समुचित कार्रवाई न किया जाना बिल्कुल संदिग्ध है। खासकर राहुल गाँधी जैसे लोकविज्ञापित राजनीतिज्ञ जो जनमुद्दों पर अक्सर मायावती से ले कर नीतिश कुमार तक की जुबानी बखिया उधेड़ते दिखते हैं; आज की तारीख में शायद किसी सन्नाटे में लेटे हैं। राहुल गाँधी का ऐसे संवेदनशील समय में चुप रहना अखरता है। उनके भीतर कथित तौर पर दिखते संभावनाओं के आकाशदीप को धुमिल और धंुधला करता है। क्योंकि यूपी चुनाव सर पर है और प्रदेश कांग्रेस पार्टी इस विधानसभा में खुद को रात-दिन जोतने में जुटी है, राहुल गाँधी का काले धन के मुद्दे पर सफेद बोल न बोलना चौंकाता है।


दरअसल, यूपीए सरकार अपनी इस करतूत का सही-सही आकलन-मूल्यांकन कर पाने में असमर्थ है। उसे इस बात का अहसास ही नहीं हो रहा है कि इस वक्त जनता के सामने बाबा रामदेव की इज्जत दाँव पर न लगी हो कर खुद उसकी प्रतिष्ठा-इज्जत दाँव पर है। वैसे भी बाबा रामदेव के जनसमर्थन में जुटी भीड़ हमलावर, आतंकी या फिर असामाजिक कार्यों में संलग्न जत्था नहीं थी। यह जनज्वार तो देश में दैत्याकार रूप ग्रहण करते उस भ्रष्टाचार के मुख़ालफत में स्वतःस्फुर्त आयोजित थी जो काले धन के रूप में स्विस बैंकों में वर्षों से नज़रबंद है। उनकी वापसी के लिए रामलीला मैदान में ऐतिहासिक रूप से जुटना जनता की दृष्टि में बाबा रामदेव को शत-प्रतिशत पाक-साफ सिद्ध करना हरगिज नहीं है। वस्तुतः बाबा रामदेव हों, श्री श्री रविशंकर हों, स्वामि अग्निवेश हों, अण्णा हजारे हों या फिर किरण बेदी व मेधा पाटेकर। जनता को जनमुद्दों के लिए आवाज़ उठाने वाला नागरिक-सत्ता चाहिए। जनता ऐसे व्यक्तित्व के नेतृत्व में सामूहिक आन्दोलन करने के लिए प्रवृत्त होना चाहती है जिसकी बात सरकार भी सुनें और आम जनमानस भी।

बाबा रामदेव इसी के प्रतिमूर्ति थे। जनता उनसे जुड़कर(तमाम व्यक्तिगत असहमतियों एवं मतभेदों के बावजूद) अपने हक के लिए जनमुहिम छेड़ चुकी थी जिसे केन्द्र सरकार और उसके इशारे पर नाचने वाली दिल्ली सरकार ने अचानक धावा बोलकर जबरन ख़त्म करने की चाल चली। यह सीधे-सीधे सांविधानिक प्रावधानों के रूप में प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है। अब जनता सरकार से किन शर्तों पर पूरी निष्ठा के साथ जुड़ी रह सकती है; यह सोचनीय एवं चिन्तन का विषय है।

बहरहाल, सबसे ज्यादा नुकसानदेह यूपीए की पार्टी को ही जमीनी स्तर पर होगी। स्थानीय पार्टी नेता और कैडर किस मुँह के साथ जनता के बीच समर्थन माँगने का चोंगा लिए फिरेंगे; देखने योग्य है। फिरंगी कुटनीतिक आधार और अक्षम राजनीतिक नेतृत्व क्या यूपी में दिग्गी राजा को देखकर वोट देगी जिन्हें सहुर से बोलना भी नहीं आता है। बाबा रामदेव के अनशन को ‘पाँचसितारा अनशन’ बताने वाले दिग्विजय सिंह क्या बताएंगे कि हाल ही में बनारस में हुए महाधिवेशन के दरम्यान उन्होंने पीसीसी कार्यकारिणी की बैठक कहाँ की थी? उनके वरिष्ठ नेता, मंत्री और हुक्मरान कहाँ ठहरे थे? होटल क्लार्क का शाही खर्चा क्या होटल-प्रबंधन ने उनकी पार्टी को सप्रेम भेंट की थी जैसे बाबा रामदेव को भेंट में एक ‘द्वीप’ हाथ लग गया है।

बाबा रामदेव अगर गैरराजनीतिज्ञ होते हुए राजनीति कर रहे हैं तो कहाँ जनता उन्हें भावी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनाने के लिए पागल हुए जा रही है? इस किस्म का घटिया स्टंट प्रचारित करना सिर्फ कांग्रेस जानती है; और पार्टियाँ तो अंदरुनी कलह की मारी खुद ही दौड़ से बाहर हैं। भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित राहुल गाँधी को क्या यहाँ अपना राजनीतिक स्टैण्ड नहीं प्रदर्शित करना चाहिए था? वह भी वैसे जरूरी समय पर जब देश की तकरीबन 55 करोड़ युवा-निगाह उन्हें क्षण-प्रतिक्षण घूर रही है; और वह परिदृश्य से गायब हैं। जागरूक और जुनूनी युवा जब रामलीला मैदान में पुलिस के हिंसक झड़पों का निशाना बन रहे थे। दिल्ली पुलिस उम्र और लिंग का लिहाज किए बगैर लाठीचार्ज कर रही थी, तो क्या उस घड़ी राहुल गाँधी के शरीर में स्पंदन और झुरझुरी होना स्वाभाविक नहीं था? क्या इन बातों को इस वक्त बाबा रामदेव का ‘पाचनचूर्ण’ खाकर पचा लिया जाना ही बुद्धिमत्तापूर्ण आचरण है?

खैर, जो भी हो। एक बात तो तय है कि कांग्रेस के रणनीतिकार और खुद को बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञ मानने वाले पार्टी नेताओं ने कांग्रेसी-पतलून को अचानक ही ढीली कर दी है जिसे चालाक और हमलावर मीडिया ने एकदम से हथिया लिया है। सनसनी के स्वर में ब्रेकिंग न्यूज ‘ओवी वैन’ के ऊपर चढ़ बैठे हैं। जनता देख रही है कि आमआदमी के हित-प्रयासों, मसलों एवं मामलों को ये राजनीतिक सरपरस्त कैसे-कैसे भुना सकते हैं? कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह भले इस घड़ी विजय की रणभेरी बजा रहे हों; दिल्ली के 10-जनपथ पर उत्सव का माहौल तारी हो। लेकिन इस क्षणिक खुशी से आगे भी जहान है जिसे देखने की दूरदृष्टि केवल जनता के पास है। वह आसन्नप्रसवा उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में इस अविवेकी एवं अराजक कार्रवाई का अपने वैचारिक तपोबल से बदला अवश्य लेगी। पाँचसितारा होटलों में कांग्रेस-सरकार चाहे कितने भी दिवास्वप्न देख ले, आगामी दिनों में कांग्रेस पार्टी को इस अभियान को इस तरीके से कुचलना काफी महंगा पड़ेगा।

रामलीला मैदान से लाखों की जमावट-बसावट को हटा देना दिल्ली पुलिस की बहादुरी मानी जा सकती है; लेकिन जनता को झूठी दिलासाओं, भौड़ी नौटंकी वाले सन्देश यात्राओं तथा ख्याली राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक घोषणापत्रों से विचलित कर ले जाना बेहद मुश्किल है। आप अधिक से अधिक पार्टी कैडर बना सकते हैं, किन्तु बहुसंख्यक जनता जो आपके किए कारस्तानियों का यंत्रणा टप्पल, दादरी, भट्टा-पारसौल से ले कर दिल्ली के रामलीला मैदान तक भुगत चुकी है; वह किसी झाँसे और लोभ की आकांक्षी नहीं है। यह तय मानिए बाबा रामदेव फिर कल से अपने अनुयायियों को योग सिखाएंगे। सार्वजनिक मंच से आपके द्वारा किए गए जुल्म की भर्त्सना करेंगे। उनकी पंताजंलि योग पीठ में पहले की माफिक श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहेगा। किन्तु जनता आपको नहीं भूलेगी, नहीं बख्शेगी। जनता आपका पीछा सन 2014 के लोकसभा चुनाव के उस परिणाम तक करेगी जब तक आप देश की जनता के सामने पछाड़ खा जाने की असलियत नहीं स्वीकार लेते हैं।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...