Thursday, November 26, 2015

नदी


भाषा, संस्कृति औ समयचक्र पर किताब लिखना मुश्किल नहीं है, मुश्किल है जितना स्वयं को समझना। और राजीव रंजन प्रसाद यह ढोंग-प्रपंच करें इससे अच्छा है उसे गोली मार दी जाए।

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उस दिन हम-तुम एक नदी के किनारे बैठ गए। घंटो बाद हमने एक-दूसरे को देखा। मुसकाए। फिर खामोश हो गए। नदी बहती रही। शांत, बिल्कुल स्थिर-चित्त। ऐसा क्यों होता है प्रायः। फुरसत के क्षणों में हमारे भीतर आवाज़ ही नहीं होती। हम दोनों इस मामले में बददिमाग हैं। इस तरह कहीं होता है, हम साथ हों; पर बात न हो। वह भी घंटों चुपचाप वक़्त गुजर जाने दें। लम्हा-दर-लम्हा। यह कौन-सा सुकून और इंतमिनान है जो मौन को सिराहने रख जि़न्दा होता है।

मैं नहीं बोलता, ठीक; तुम क्यों नहीं बोलती। कोई भी या कैसी भी बात क्यों नहीं शुरू करना चाहती तुम। और कुछ नहीं, तो नदी के बहाने कुछ कहना चाहो। आस-पास बजते सुमधुर संगीत के सहारे कुछ कहना चाहो। और कुछ नहीं तो पूछ लो सही, ‘क्या सोच रहे हो....,’

यार! इस मुल्क में राजनीति के आगे भी जि़ंदगी है, बहारें हैं, तो और ऐसी ढेरों बात जो अख़बार के ख़बर की तरह झूठी, गलाबाज और भ्रामक नहीं है। टेलीविजन की तरह नकली और सनसनीखेज नहीं है। क्यों हमारा समय दूसरे के कहने पर शुरू होता है और उन्हीं के इशारे पर ख़त्म। वजूद हमारा भी तो है। हम अपनी वज़न का गला क्यों घोंट देना चाहते हैं। क्यों दूसरों का कहा सच मानते हैं और अपना देखा और महसूसा हुआ झूठ।

यह आपसी दूरिया और मन के बीच अंतरालें शायद इसीलिए हैं। हम बंध से गए हैं दूसरों के खूंटों से। उनके नियम-कानून, विधान और संविधान से। हममें से सब अकेले हो गए हैं। सब अपने-अपने बारे में सोचने लगे हैं। प्यार और भाईचारा का माखौल-सा बना दिया गया है। गांधी की टोपी चुटकुलो की भाषा बोल रहे हैं। हम शरीर, कठ-काठी, देह-भुजा आदि से इंसान जरूर हैं; लेकिन भीतर से हैवान, दुष्ट हो गए हैं।  

यह नदी जिसके किनारे हम बैठे हैं। साफ है। कल भी साफ थी और उसके पिछले दिनों भी। यदि महीने और सालों की अंतराल को एक मान लें, तो वह खारेपन से लैस कभी दिखी ही नहीं। शायद नदी इसलिए ऐसी की ऐसी है क्योंकि उसका अध्यापक प्रकृति है। प्रकृति समस्त जीव-जगत का नेता है। उसके नेतृत्व में संगति, संतुलन, समन्वय, सामंजस्य, समायोजन है; किन्तु ध्रुवीकरण, तुष्टीकरण, राजनीतिक चोंचले, प्रपंच आदि नहीं है।

ओह! हम प्रकृति क्या उसका प्रतिरूप तक नहीं हो सकते हैं। हम हवसी, बर्बर, अमानुष, असहिष्णु हो सकते हैं; लेकिन प्रकृति की तरह नेता नहीं। नेता होना अपने को कुल में से ‘माइनस’ करना है जबकि आज नेता का अर्थ अपने को ‘सरप्लस’ करना है। हम संगमरमर के घरों में रहते हुए आदमियत की परिभाषा बनाना चाहते हैं। मानो आदमीपन ‘फ्राइड राइस’ हो जिसे तेल-नमक-मिर्च के अतिरिक्त अनेकानेक चीजों को मिलाकर करीने से परोसा जाना है।

अरे! तुम तो रोने लगी। टपटप...टपटप आंसू। उसका रंग लाल नहीं है। वह खून नहीं है। सिर्फ पानी की बूंदों वाला आंसू है जो तुम्हारे न चाहते हुए भी लरक रहा है। मैंने देखा, पर कहने से चूक गया। रो तो मैं भी रहा था। यह ख्याल तब आया जब तुम्हारे हाथ मेरे आंखों के नीचे के गीले अंश को सहला रहे थे। दोनों को अपने रोने का अहसास नहीं। बस रोए जा रहे थे। 

क्या हमारा रोना निरर्थक है। जैसे मेरा अब तक का लिखना सार्थक नहीं रहा। किसके लिए हम खुद को उपदेशक की भूमिका में रखते हैं। क्यों हम चाहते हैं कि सब प्रकृति की तरह पाक और पवित्र हों; चारों तरफ अमन, चैन, सुख, शांति और समृद्धि हो। लोकरंग, लोक-परंपरा, लोक-अनुभव आदि से भीने-गुंथीं जीवनचर्या हो। क्यों हम दूसरों को कुछ भी होने का छूट देना नहीं चाहते; क्यों हम दूसरों की गलतियों पर इतना सारा बोझ अपने मन पर लिए फिरते हैं। क्यों हम चाहते हैं कि लोग हमें कुछ न दें; लेकिन अपने साथ अपने समान रहने का मौका दें। हम नामकरण से क्यों डरते हैं। क्या शब्दार्थ ही मूल संकट के जड़ में है। नामकरण न हो, तो क्या भेद-अभेद मिट जाएगा। समानता-असमानता के फर्क मिट जाएगा। 

वर्ण, जाति, धर्म नहीं होगा; लेकिन अपने चमड़े का रंग कैसे बदल पाएंगे। नस्लीय भेदभाव से खुद को कैसे बचा पाएंगे। ओह! प्रकृति ने काश नदी की तरह बनाया होताः रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन। तब हम दोनों को आपस में बोलने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती हम आॅक्सीजन और हाइड्रोजन की तरह आपस में संयुक्त एवं सम्पृक्त होते है।

अहा! ऐसा होता, तो कितना अच्छा होता......




Friday, November 20, 2015

ओसिगा: गल्प में नवग्रह

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ओसिगा एक ग्रह का नाम है। इस ग्रह पर बसी आबादी बहुत अधिक तो नहीं; लेकिन तकरीबन साढ़े पाँच लाख है। लोग धरतीनुमा नगर-महानगर या गाँव-कस्बे की जगह गुफाओं में करीने से रहते हैं। उनकी सज-धज से आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता लजा जाए। ओसिगा की भाषा और लिपि सांकेतिक और चित्रात्मक है। ध्वनियों का बहुत कम इस्तेमाल होता है। मूक भाषा-प्रयोग के पीछे मुख्य वजह आॅक्सीजन की मात्रा का वायुमंडल में कम होना है।

यहाँ की साम्राज्ञी आनियो आना हैं। उनकी देा बेटियाँ हैं। बड़ी का नाम आना ओरि है, तो छोटी का नाम आनो आया। दोनों साम्राज्ञी की बेटी होने का तनिक गुरूर नहीं रखती हैं। वह सबसे सामान्य व्यवहार करती हैं और लोग भी उसी तरह उनसे लाड़पूर्वक बातचीत करते हैं। वह अन्य बच्चों से जरा भी विशेष नहीं दिखाई देती हैं। यह खासियत वहाँ के राजशाही के चरित्र को दर्शाता है जिसमें वह कायदे से रचे-बुने गए हैं।

ओसिगा में जनतंत्र है और लोग सामूहिकता को वरीयता देते हैं। खून-खराबा का नामो-निशान नहीं है तथा प्रकृति ही एकमात्र देवता है। खान-पान में हरी पतियों का प्रयोग सर्वाधिक होता है जिन्हें वे उबाल कर खाते हैं। वह विभिन्न पौधों से जायकेदार रस निकालते हैं और उसे पृथ्वीवासियों की तरह जूस के रूप में इस्तेमाल करते हैं। पेड़-पौधे पृथ्वी की तरह ही हैं; लेकिन वे कद में बौने अधिक हैं। वह बहुत जल्दी फल-फूल से लद जाते हैं। सूरज की रोशनी सालों भर पृथ्वी की तरह ही कम-अधिक होती-रहती और मौसम-ऋतुएँ बदल जाते हैं। दिन-रात मिलाकर पृथ्वी से चार से छह घंटे कम होते हैं। लेकिन यहां के लोग पर्याप्त नींद लेते हैं; किन्तु काम भी फुर्तीले ढंग से करते हैं। युवाओं में सबसे अधिक कार्य करने की क्षमता देखी जा सकती है। शारीरिक और मानसिक श्रम में कोई श्रम-मूल्य का विभाजन नहीं है।

ओसिगा में स्त्री-पुरुष में भेद नहीं है। बच्चे बुजुर्ग की तरह सम्मानित हैं। बच्चों को भगवान का रूप माना जाता है। बच्चों को सीखाने का काम ओरियनो नामक समूह करता है जिसका मुखिया ओरिना होता है। ओरिनों की मण्डली को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि वह ओसिगा में प्रकृति के बाद प्रथम पथ-प्रदर्शक होता है। साम्राज्ञी और उनके सिपहसालार अपने बच्चों को वहीं पढ़ाते हैं। वहां योग्यता परीक्षा के लिए व्यावहारिक क्षमता एवं कार्य प्रदर्शन को मानक माना जाता है।.....

Thursday, November 19, 2015

मेरी गौरेया




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पढ़ती है गौरेया
कहाँ अक्षर.....?
लिखती है गौरेया
कहाँ लिपि.....?
भाषा और माध्यम की भेद भी
कहाँ जानती है गौरेया?
मेरी गौरेया
नहीं माँगती है दाना-पानी के सिवा कुछ भी ‘एक्स्ट्रा’
अपने लिए, खुद के लिए
पिछले 12 सालों से मेरी गौरेया
मेरे साथ है
और मैं अपनी गौरेया से बेफिक्र
सुबह से शाम तक
आरम्भ से अनन्त तक
लस्त-पस्त हूँ
अक्षर, लिपि और भाषा में
आज गौरेया ने पिराते मन से कहा है-
यह बियाबान जंगल
जिससे तुम आदमी होने की तमीज सीखते हो
जार दो, फेंक दो, बहा दो पानी में
और उड़ चलो आकाश में
उस असली राह पर
जहाँ रोशनाई रहती है
अनन्त...अनन्त....अनन्त बनी हुई!!

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-राजीव रंजन प्रसाद

Tuesday, October 27, 2015

चुनाव में सब जीतेंगे, हारेगा सिर्फ बिहार

रजीबा की राय
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इन दिनों बिहार की जनता धर्मसंकट में है। इस बार चुनावी दंगल ‘कथित विकास’ और ‘प्रायोजित विकास’ के बीच है। यह संकट इसलिए भी गहराता जा रहा है, क्योंकि जंगलराज के ‘मास्टरमाइंड’ इन दिनों नए गठजोड़-गठबंधन के साथ बिहार की जनता के आगे ‘वोट’ के लिए हथेली पसारे खड़े हैं। केन्द्र की भकुआहट भी बढ़ी हुई है। येन-केन-प्रकारेण विजयी लहर देखने-दुहराने की लालसा केन्द्र सरकार में जबर्दस्त दिखाई दे रही है। लिहाजा, वह सबकुछ कर रही है या करना चाह रही है जिससे बिहार में भाजपा की वापसी सुनिश्चित हो सके। छोटे मोदी यानी सुशील कुमार मोदी स्वयं इस ताक में हैं। उनका स्वप्न नाजायज़ भी नहीं है। भारत पिछले वर्ष ‘घर-घर मोदी’ के नारे पर ‘विजयी शंखनाद’ या ‘विजयी हुंकार’ कर चुका है। वैसे असली बिहार के रहवासियों से ‘मेक इन इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ के किरदारों का पासंग/घलुआ भर भी रिश्ता-नाता नहीं है। लेकिन आज की ‘आभासी दुनिया’ में स्वस्थ एवं जीवंत रिश्ते-नातों को तव्वज़ों भी कौन देता है? चूँकि मोदी सरकार अपनी छवि-प्रोत्साहन को लेकर बेहद आतुर एवं आक्रामक रवैया अपनाती है; इसलिए बिहार की जनता के सामने उसने जो भी दाँव चला है; वह उसकी अपनी राजनीतिक योग्यता एवं प्रतिभा के अनुकूल ही है। 

देखना होगा कि चुनावी बाइन बाँटने में अव्वल राजनीतिक पार्टियाँ चंदा वसूली के तर्ज पर बिहार में वोट की राजनीति करती है। वह बिहार की जनता से जड़ से जुड़े होने का लाख दावा करें; किन्तु जनता अंततः लालफिताशाही और नौकरशाही के भेंट चढ़ जाती है। बिहार पिछले कई वर्षों से विकास के ताक में है; लेकिन अभी तक बिहारवासियों तक विकास की आस ही पहुँच सकी है। राजनीतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव में इस बात का उल्लेख विशेष तौर पर किया था। आज यह आस भी बिहार की जनता को दगा देने लगा है। नीतीश सरकार ने उम्मीदगी के पंख कुतरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा हावी होने के बाद नीतीश कुमार की सकारात्मक एवं प्रभावी राजनीति ने कलटी मार लिया। नतीजतन, बिहार आज ऐसे अंधमोड़ पर आ खड़ा हुआ है जिसके दावेदार बहुत हैं; लेकिन नवनिर्माण की योग्यता किसी में नहीं है। 

विडम्बना ही कहा जाना चाहिए कि आज की राजनीति में जनमानस को ‘भीड़’ के रूप में चित्रित या वर्णित  करने का चलन बढ़ गया है। लोक-गौरव या लोक-गरिमा जैसे शब्दार्थ अपना अर्थपूर्ण महत्त्व एवं हस्तक्षेप खो चुके हैं। इस घड़ी बिहार को विज्ञापनी विजय की दरकार है जिसकी घोषणा अगले माह नवम्बर के दूसरे सप्ताह में होगी। जीत-हार राजनीतिक दल में तयशुदा चीज है। लेकिन इस जीत का रास्ता सिर्फ जश्नफ़रोशी तक सीमित है। क्योंकि आज की तारीख़ में बिहार में अधिसंख्य नेता राजनीतिज्ञ नहीं, जातिज्ञ हैं। वह उसी की उपज और पैदावार हैं। ये जातिवादी राजनीतिज्ञ जब मठाधीश हो जाते हैं, तब उनके संतान-संततियों को राजसुख का (स्वतःस्फूर्त)सुअवसर मिल जाता है।

यानी बिहार में ‘हर बार की तरह इस बार, ऐसा ही हुआ था पिछली बार’ एक ऐसा प्रचलित मुहावरा है जिससे बिहारवासी त्रस्त नहीं हैं; बल्कि इन प्रवृत्तियों के स्थायी भाव बन चुके हैं। इसी स्थायी भाव को इस वक्त संचारी भाव में बदलने का खेल थोकभाव हो रहा है। बिहार कितना बदलेगा और कैसे बदलेगा इसका ‘रोडमैप’ जो राजनीतिज्ञ इस समय आईने की तरह चमका रहे हैं; चुनाव-परिणाम आने के बाद वे ही खुद इसका इस्तेमाल ‘पेपरवाॅश’ की तरह करेंगे। आजकल अख़बारों, विभिन्नि पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविज़न या अन्य वैकल्पिक जनमाध्यमों में बिहार को लेकर जो बहस-मुबाहिसे चल रहे हैं; आधे नवम्बर के बाद पूरी तरह न सही लेकिन लगभग गायब हो जाएँगे। 

एक गायब होते देश में जो भी होगा वह देखने की चीज होगी। फिलहाल बिहार के सूरतेहाल में बदनसीबी ही लिखी जाती रही है। किसी नसीबवाले की तलाश में पिक्चर अभी जारी है...! 

अतः देखते रहिए, तमाशा मेरे आगे!

Thursday, October 22, 2015

मेहरारू के नाम ख़त

रजीबा की पाती
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प्रिय मोहतरमा,

कल दशहरा था, लेकिन आप साथ में नहीं थी। कितना अकेला हो गया हूँ...मैंआपको देखे चार महीने हो गए और यह पाँचवा बीत जाने को है। मैं यह भी जानता हूँ...आप कहेंगी, यह आप ही का किया-धरा है। हाँ, मैंने आज तक जो कुछ किया-धरा है...अपनी घमंड और गुमान के बिनाह पर ही। आप शुरू से  ‘माइनसमें  रही, घाटे में। तवज्ज़ो छोड़िए, साधारण ध्यान भी मैं रख सका आपका। यह कबूलनामा आपको रिझाने के लिए नहीं है। रिझाया, तो आधुनिकिया प्रेम में जाता है। हम-आप तो शुरू से आज तक जिम्मेदारी में रहे, प्रेम हमारे बीच आजकल माफ़िक पनपा ही कभी नहीं। जब शादी हुई थी, तो बातचीत में काॅल दर एसटीडी की होती थी। घर में सबसे बात हो जाने के बाद आपका नम्बर आता था...तब तक बिल का टांका दस रुपए से ऊपर जा चुका होता था; आप हमारे हूँ-हाँ से मेरे पाॅकेट का मिज़ाज भाँप लेती थीं। इस तरह हमारे-आपके बीच पिछले 12 सालों में अनकहा ही सबकुछ रहा, आज भी है। दुर्भाग्यवश पिछले दिनों अच्छी ख़बर सुनाने या आपकी सूरत भर देख पाने का समय मैं निकाल सका। चाहे परिस्थितियाँ जो रही हों, किन्तु आपका कुसूरवार सिर्फ और सिर्फ मैं ही हूँ।

ओह, सबने अपनी उम्मीदें-आकांक्षाएँ हम पर थोपी-लादी...और हम ढोते रहे। हमने कईयों के लिए सहारा का काम किया, मददगार भी बने। पढ़ाई को मैं अपनी असीम चाहत के बावजूद पूरा समर्पण नहीं दे सका; जैसे आपको आपका पूरा हक। इस अधूरेपन ने मेरी मानसिकता को मजबूत किया, तो कई अर्थो में असहाय भी। मैंने लेखन को अपने जिदपन में जो वक़्त दिया...वह पर्याप्त कभी नहीं रहा। शोधकार्य भी मेरी घरेलू जवाबदेहियों के बीच खींचता रहा। कई अपेक्षाओं पर मैं चाहकर भी खरा नहीं उतर सका। समय का मसखरापन मुझ पर बड़े रूआब से हँसता रहा। मैंने अपने को कई अर्थो-रूपों में नजरअंदाज किया। प्रायोजित हाव-भाव-विचार के साथ दूसरों के सामने प्रस्तुत होता रहा। जो मैं था, उसे मैं सिर्फ लिख अथवा छापे के अक्षर में दर्शा सकता था....ब्यौरेवार या वैचारिक पैनेपन के साथ। लेकिन समय से मुठभेड़ करने की कूव्वत मुझसे जाती रही। औरों जैसा चाकचुक होने या दिखने की लालसा हम दोनों में कभी नहीं रही। लेकिन स्वास्थ्य का ख्याल रख पाने की चूक मैंने जानबूझकर की जिसे आपने हमेशा ग़लत कहा।

मोहतरमा, पिछले वर्ष दीप की तकलीफदेह और लगभग लाइलाज बीमारी ने मुझे एकदम से तोड़ दिया...आपने संभाला। इसके अलावे कुछ लोग साथ रहे। मेरे शोध-निर्देशक की भूमिका भी अहम रही। घर से दूर होने के बाद मैं सचमुच कई अर्थों में काफी दूर हो चुका था, इसका अहसास होने लगा था। मुझसे बिना राय लिए या विचार जाने महत्वपूर्ण निर्णय किए जाने लगे थे। इन दिनों पापा भी चिंताग्रस्त दिखने लगे थे कि  मेरे रिटायर होने के बाद हमारे कुनबे का क्या होगा? यह तनाव जायज था। अपने तीन संतानों की पढ़ाई-लिखाई पर खूब खरचा किया उन्होंने। बड़ा होने के नाते मुझसे अपेक्षा अधिक थी। मेरे अत्यधिक इंतमिनान से वह भरोसे में रहते थे, लेकिन अंतिम समय में यह भरोसा भी टूटने लगा था। बीच वाले भाई ने उनकी इस छटपटाहट को बुरी तरह बढ़ाया, परेशान किया। यही वह समय था जिस क्षण मेरे हाथ से हौसले की रस्सी छूटती जा रही थी। आपने मुझे साहस दिया। हर संभव नैतिक बल भरने का प्रयास किया। दुनिया अपनी रौ में चलती रही।

प्रियतमा, हमारा आठ साल का बच्चा है दीप। वह अभी तक साफ ज़बान में मुझसे नहीं कह पाता है कि पापा, आप कैसे हो? यह दुःखद सचाई है जिससे हम दोनों जूझ रहे हैं। लेकिन हम हारे हुए मोहरे नहीं है या कि दुनियावी मार से पिटे हुए चेहरे! हमे  इन्हीं विपरीत परिस्थितियों से अपने लिए सही राह तलाशनी है। यार!  हम कामयाब जरूर होंगे...आमीन!!

तुम्हारा ही

रजीबा 

Tuesday, October 13, 2015

इसी शिक्षा-व्यवस्था में मोक्ष

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रजीबा की क्लास

चिढ़, ऊब, निराशा, तनाव, कुंठा, असंतोष, आक्रोश इस व्यवस्था की देन है। यह उपज आजकल चक्रवृद्धि ब्याज पर है। शिक्षा-व्यवस्था के पालने में इसे और भली-भाँति पाला-पोसा जा रहा है। अकादमिक स्तर पर शैक्षणिक गुणवत्ता, दक्षता, कौशल, मूल्य-निर्माण, नैतिकता, चरित्र-गठन आदि बीते ज़माने की बात हो गई हैं। आप प्रश्न नहीं पूछने के लिए अभिशप्त हैं। सवाल खड़े करने पर चालू व्यवस्था पर गाज गिरती है वह असहज होने लगती है। वह सहज है जब चारों तरफ मौन पसरा है, सर्वत्र शांति है। पाठ और पाठ्यक्रम की भयावह परिस्थितियों को निर्मित कर विद्यार्थियों की चेतना को निष्प्राण बनाया जा रहा है तो उनकी क्रियाशीलता को बाधित किया जा रहा है। अकादमिकजनों की पुरातनपंथी पुरखों ने हमेशा दूसरों के किए को आदर्श माना। वह स्वयं करने से बचते रहे। वह हर सुविधाओं की मौज में शामिल होने को लालायित और व्यग्र दिखाई पड़ते हैं; किन्तु अपनी मौलिकता अथवा व्यक्तिगत प्रतिभा को उन्होंने तिलाजंलि दे रखा है। ऐसे में आज का यक्ष मौनधर्मा नहीं तमाशबीन और किंकर्तव्यविमूढ़ है।

ऐसी शिक्षा-व्यवस्था में जो नए लोग जु़ड़ रहे हैं या अपना योगदान देने हेतु शामिल कर लिए गए हैं; उनकी स्थिति और भी बद्तर है। वह कुछ नया करने की सोच सकते हैं या सोच रहे हैं, तो उनके सामने इतनी कठिन परिस्थितियाँ खड़ी कर दी जा रही हैं कि आपका जिबह होना तय है। उदाहरण के लिए यदि कहीं प्रोफेशनल कोर्स चल रहे हैं, तो उसके लिए व्यवस्था एक रुपए खर्च करने को तैयार नहीं है। यदि व्यवस्था तैयार है, तो इस अकादमिक-जगत के पुरनिए कुछ न करने की ठान चुके हैं। ऐसे में नए लोगों के सामने सांसत यह है कि वह भी तमाशबीन हों अन्यथा उनकी सांस की डोर थम जानी तय है। 

कोई बात अभिधा में कहनी हो, तो उच्च शिक्षा की मौजूदा परिस्थितियों ने ज्ञान की वास्तविक चेतना का अपहरण कर लिया है। अब सिर्फ रंग-रोगन है, कृत्रिम प्रकाश है तो बुद्धिजीवियों के रंगे-पुते चेहरे हैं....! ये लोग मृत नहीं हैं बल्कि सजीव हैं। यह बात इसलिए दावे के साथ कही जा सकती है कि उनकी तनख़्वाह उन्हें हर माह मिल रही है। वे गाड़ी-बंगला-बैंक-बैलेंस बना-बढ़ा रहे हैं। जो यह नहीं कर सके हैं या कर पा रहे हैं वे इस ताक और फि़राक में जुटे हैं। इस तरह आजकल अकादमिकजनों की चाँदी या सोना नहीं, हीरा है और सभी विलक्षण प्रतिभा के धनी और होनहार हैं। उनकी मोटी एपीआई है, आईएसबीएन है या फिर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं का मोटा-तगड़ा छपा हुआ बंडल है। यही सब भविष्य के भरोसे, भाव एवं भाग्य हैं जिनके आधार पर भारतीय शिक्षा-व्यवस्था को अपनी विरासत, परम्परा या पुरखों की लाज को बचाकर रखना है।

स्वाहा....स्वाहा...स्वाहा!!!

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...