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रजीबा की क्लास
चिढ़, ऊब, निराशा, तनाव, कुंठा, असंतोष, आक्रोश इस व्यवस्था की देन है। यह उपज आजकल चक्रवृद्धि ब्याज पर है। शिक्षा-व्यवस्था के पालने में इसे और भली-भाँति पाला-पोसा जा रहा है। अकादमिक स्तर पर शैक्षणिक गुणवत्ता, दक्षता, कौशल, मूल्य-निर्माण, नैतिकता, चरित्र-गठन आदि बीते ज़माने की बात हो गई हैं। आप प्रश्न नहीं पूछने के लिए अभिशप्त हैं। सवाल खड़े करने पर चालू व्यवस्था पर गाज गिरती है वह असहज होने लगती है। वह सहज है जब चारों तरफ मौन पसरा है, सर्वत्र शांति है। पाठ और पाठ्यक्रम की भयावह परिस्थितियों को निर्मित कर विद्यार्थियों की चेतना को निष्प्राण बनाया जा रहा है तो उनकी क्रियाशीलता को बाधित किया जा रहा है। अकादमिकजनों की पुरातनपंथी पुरखों ने हमेशा दूसरों के किए को आदर्श माना। वह स्वयं करने से बचते रहे। वह हर सुविधाओं की मौज में शामिल होने को लालायित और व्यग्र दिखाई पड़ते हैं; किन्तु अपनी मौलिकता अथवा व्यक्तिगत प्रतिभा को उन्होंने तिलाजंलि दे रखा है। ऐसे में आज का यक्ष मौनधर्मा नहीं तमाशबीन और किंकर्तव्यविमूढ़ है।
ऐसी शिक्षा-व्यवस्था में जो नए लोग जु़ड़ रहे हैं या अपना योगदान देने हेतु शामिल कर लिए गए हैं; उनकी स्थिति और भी बद्तर है। वह कुछ नया करने की सोच सकते हैं या सोच रहे हैं, तो उनके सामने इतनी कठिन परिस्थितियाँ खड़ी कर दी जा रही हैं कि आपका जिबह होना तय है। उदाहरण के लिए यदि कहीं प्रोफेशनल कोर्स चल रहे हैं, तो उसके लिए व्यवस्था एक रुपए खर्च करने को तैयार नहीं है। यदि व्यवस्था तैयार है, तो इस अकादमिक-जगत के पुरनिए कुछ न करने की ठान चुके हैं। ऐसे में नए लोगों के सामने सांसत यह है कि वह भी तमाशबीन हों अन्यथा उनकी सांस की डोर थम जानी तय है।
कोई बात अभिधा में कहनी हो, तो उच्च शिक्षा की मौजूदा परिस्थितियों ने ज्ञान की वास्तविक चेतना का अपहरण कर लिया है। अब सिर्फ रंग-रोगन है, कृत्रिम प्रकाश है तो बुद्धिजीवियों के रंगे-पुते चेहरे हैं....! ये लोग मृत नहीं हैं बल्कि सजीव हैं। यह बात इसलिए दावे के साथ कही जा सकती है कि उनकी तनख़्वाह उन्हें हर माह मिल रही है। वे गाड़ी-बंगला-बैंक-बैलेंस बना-बढ़ा रहे हैं। जो यह नहीं कर सके हैं या कर पा रहे हैं वे इस ताक और फि़राक में जुटे हैं। इस तरह आजकल अकादमिकजनों की चाँदी या सोना नहीं, हीरा है और सभी विलक्षण प्रतिभा के धनी और होनहार हैं। उनकी मोटी एपीआई है, आईएसबीएन है या फिर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं का मोटा-तगड़ा छपा हुआ बंडल है। यही सब भविष्य के भरोसे, भाव एवं भाग्य हैं जिनके आधार पर भारतीय शिक्षा-व्यवस्था को अपनी विरासत, परम्परा या पुरखों की लाज को बचाकर रखना है।
स्वाहा....स्वाहा...स्वाहा!!!
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