Tuesday, November 30, 2010

मानव-संचार : मानव-मन की पटकथा


आधुनिक संचार-पद्धति द्वारा अर्जित सर्वोत्तम उपलब्धियाँ; एक ओर, मौलिक प्राकृतिक खोजों एवं मानवीय प्रयासों पर आधारित है जिस कारण यह अधिकाधिक विकसित स्वरूप ग्रहण करते हुए समाज पर सशक्त प्रभाव डाल रहा है। दूसरी ओर, संचारगत उपलब्धियाँ मनुष्य मात्र से जुड़ी हुई हैं। आज इसका प्रभाव सार्वजनिक जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में दृष्टिगत है। संचार सम्बन्धी वैज्ञानिक चिंतन से प्राप्त ये तकनीकी उपलब्धियाँ मानवजाति के इतिहास की विभिन्न मंजिलों अथवा पड़ावों के यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती हैं। मिस्र के पिरामिडों के निर्माताओं की तकनीकी क्षमता को, माया जाति की संस्कृति को हम सराहे बिना नहीं रह सकते हैं और इसी तरह हम पुरातात्त्विक खोजों से मिले सैंधव एवं हड़प्पा सभ्यता के साक्ष्यों या फिर प्राचीन यूनानी-रोमन इमारतों के मलबे को श्रद्धापूर्वक देख सकते हैं। यही नहीं पुराने ज़माने में प्रचलित धूप-घड़ी, दिशासूचक यंत्र, गुफाचित्र, भित्तिचित्र, शिलालेख, दूत, हकहारा आदि ऐसे सूचना-स्रोत हैं जो मानव सभ्यता के विभिन्न अंग-उपांगों का इतिहास-बोध कराते हैं।
निर्विवाद सत्य है कि समय की वेगवान उड़ान आधुनिक संचार-प्रक्रिया की अंतर्निहित शक्ति है। यह शक्ति ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परिवर्तन का कालजयी सूचक व संकेत भी है। यदि विख्यात अमेरिकी संचार व समाजशास्त्री अल्विन टोफ्लर की मानें तो ‘‘मानवजाति के अस्तित्व का कालगत अन्तर्संम्बन्ध बेहद दिलचस्प है। उनके मुताबिक गत पचास हजार सालों को पीढ़ियों की संख्या से मापा जाए(जिनकी औसतन अवधि आज 62 वर्ष है), तो कुल जमा ऐसी पीढ़ियाँ लगभग 800 हैं। उनमें से प्रथम 650 पीढ़ियाँ गुफाओं में रहती थीं। केवल 70 पीढ़ियों के जीवन-काल मंे ही लिपि विद्यमान थी जो पारस्परिक सम्पर्क को संभव बनाने में सक्षम थे। सिर्फ छह पीढ़ियों को विद्युत-मोटर का ज्ञान था। आज अस्तित्वमान अधिकतर भौतिक तथा आत्मिक
मूल्यों की सर्जना वर्तमान पीढ़ी के जीवनकाल में हुई है।’’
इसमें दो मत नहीं है कि आज विज्ञान तथा तकनीक आधारित संचार की अन्योन्यक्रिया इतनी प्रगाढ़ और प्रबल है कि इसे आधुनिक सूचना-क्रांति की प्रक्रिया कहना समीचीन होगा। इलेत्रिक युग का प्रवक्ता कहे जाने वाले कनाडा मूल के प्रसिद्ध संचार समाजशास्त्री मार्शल मैकलुहान ‘संचार’ की अर्थगत विशेषता बताते हुए कहते हैं कि ‘‘संचार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत संयुक्त कार्य और परस्पर समझ कायम होती है। यह सार्वजनिक जीवन के समस्त पक्षों-आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक संरचना और संस्कृति-को निश्चित कर देता है।’’
इस संदर्भ में मैकलुहान संचार-साधनों का जो अर्थ लगाते हैं, वह बड़ा व्यापक है। सभ्यता के पूर्ववर्ती अवधि को मैकलुहान ने मानवजाति के ‘बचपन’ की अवधि एवं कबीली समाज का युग कहा है जिसके स्थान पर ध्वनिप्रधान लिपि का युग आकर हज़ारों वर्षों तक कायम रहा। वह युग ‘युवावस्था’ में मानवजाति के संक्रमण का द्योतक भी सिद्ध हुआ। अपनी भूमिका में विस्मरणीय गुतेनबर्ग द्वारा 15वीं सदी के मध्य में किये गए अविष्कार ने ‘द्वितीय युवास्था’ का सूत्रपात किया जो ध्वनिप्रधान लिपि के आधार पर स्थापित मुद्रण यंत्र के रूप में पहचाना गया। अंत में टेलीविज़न के अभ्युदय से मानवजाति ने विद्युत सभ्यता के युग में पदार्पण किया। सभ्यता की सतत् प्रगति में वर्तमान चरण को मार्शल मैकलुहान ने मानवजाति के ‘तृतीय युवावस्था’ की संज्ञा दी है।
ऐतिहासिक प्रगति में मनुष्य की भूमिका के सम्बन्ध मंे मैकलुहान का मत विचारणीय है। उनका मानना है कि ‘‘संचार-साधन अपने आप में सार्वजनिक संक्रियाओं को प्रभावित नहीं कर सकते हैं। उनकी परिवर्तनकामी क्षमता केवल तब प्रकट होती है जब वे व्यक्ति के इन्द्रियों के साथ जुड़े होते हैं। अतः संचार के समस्त कृत्रिम साधन मानव के अनुपूरक अंग हैं जो मानव के तत्सम्बन्धी अंगों के कार्य को उत्साहित अथवा प्रबलित ही नहीं करते, बल्कि उसके इर्द-गिर्द के परिवेश को भी बदल देते हैं।’’ यानी संचार-साधनों मंे हो रहे बदलाव समकालीन समाज को बुनियादी तौर पर नयी संस्कृति की उत्पत्ति की ओर ले जाते हैं और इस तरह सामंतवाद, समाजवाद, गाँधीवाद, मानववाद, साम्राज्यवाद या फिर नव-साम्राज्यवाद के बीच का स्वाभाविक भेद या अंतर लगभग मिट जाता है। इस तरह हम देख पाते हैं कि संचार के साधनों में तकनीकी नवीनताएँ सभ्यता की समग्र गति पर सार्वभौमिक एवं युगांतकारी छाप डालती हैं। संचार के मनोवैज्ञानिक पहलू पर विचारते हुए यह सदैव ध्यान में रखने योग्य है कि संचार-तकनीक का विकास विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं के अन्तर्गत होता है। वह केवल सामाजिक दृष्टि से तटस्थ नहीं है, बल्कि उनकी उन्नति सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक सम्बन्धों के प्रकार तथा स्वरूप से भी प्रभावित होती हैं।(जारी...)

Monday, November 29, 2010

शायद मैं बड़ा हो गया हूँ

-श्रीकांत मनु

रात को सोने के बाद
और सुबह जगने से पहले
चलती थी तब
ट्रेन
छुक-छुक कर
सीटी देकर
घर के सामने वाली सड़क पर
जिस पर चला करते थे
जीप, बस-ट्रक दिनभर।

लेदरे के नीचे
टेढ़ी टांग वाली एक झलंगी खटिया पर
हल्की नींद में
सुनाई पड़ती थी
तेज होती,
धीमी होती
सीटी की आवाज़
कभी पूरब से, कभी पश्चिम से,
मुझे पता था कि ये ट्रेन
मेरे सोने का इंतजार करती है
और जागने से पहले
चक्कर काटती रहती है
मेरे घर के चारों ओर।

सामने कुछ दूर
एक काले रंग का हाथी
बैठता था
सूँढ़ लिटाकर
बिना हिल-डुले, पत्थर-सा
सिर दिखता था बड़ा सुंदर,
सोचता था
उठता होगा
रात को सोने के बाद
और सुबह जागने से पहले।

मील भर दूर नदी की
कल-कल, छल-छल सुनाई पड़ती थी तब
आधी नींद में भी
पुआल पर बिछी एक ठंडी साड़ी पर,

सोचता था
छूती होगी उसकी लहरें
मेरे घर को रात को सोने के बाद
और सुबह जागने से पहले,
कभी-कभी तो लगता था
तैरेगा मेरा घर
पानी की लहरों पर
सुबह जगने के भी बाद।
पूरब के ओटे पर बैठकर
कलेवा करता था तब
टीन के कटोरे में,
और दिखती थी आसमान में
एक थाली से निकलती
कई रंग-बिरंगी थालियाँ
नाचती हुई
सुबह जगने के बाद।

अब रात आती नहीं कभी
सब सच साफ दिखता है
दिन के उजाले में,
वह सच
जो कभी रहा ही नहीं,
आज पता है
मुझे
बहुत दूर है
रेल की पटरी
उत्तर में,
पहाड़ी है एक
जो उठ नहीं सकती,
और एक पहाड़ी नदी है
जिसकी लहरें
छू नहीं सकती
मेरा घर कभी,
सूरज अब सूरज जैसा दिखता है
न थाल है, न रंग है
और न चकरी की तरह घूमता है,
शायद मैं बड़ा हो गया हूँ
सोचता हूँ
बड़ा होना भी क्या इतना जरूरी था?

(श्रीकांत मनु के नाम से लोकप्रिय श्रीमन्ननारायण शुक्ल सम्प्रति राजकीय इन्टर गोविन्द उच्च विद्यालय, गढ़वा, झारखण्ड में शिक्षक-पद पर कार्यरत हैं। अपनी अंदरूनी संवेदनाओं को शब्दों में बड़ी सूक्ष्मता के साथ पिरो ले जाने वाले श्रीकांत मनु की अनेकों कविताएँ, कहानियाँ और विचारोत्तेजक आलेख कई ख्यातनाम पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।)

Friday, November 26, 2010

ओ माय गॉड! यह बत्ती तो गुल हो गई



‘‘...15वें लोकसभा चुनाव के शपथग्रहण समारोह में हिन्दी में शपथ लेकर पूरे देश का मन मोह लेने वाली पूर्वोतर की युवा सांसद अगाथा संगमा आज अखबारी और टेलीविजन परिदृश्य से गायब दिखती हैं। अन्य युवा नेताओं मसलन प्रदीप कुमार मांझी, अशोक तंवर, मीनाक्षी नटराजन, मौसम नूर, जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट मानों ‘बक्कफुट’ पर ‘शिफ्ट’ कर दिए गये हैं जबकि कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी की हर तरफ ‘जय हो’ रही है। उन्हें पुनरोदय और पुनर्जागरण का सूत्रधार भी कहा जाने लगा है। खासकर बिहार और उत्तर प्रदेष््रा में वह बदलाव के संवाहक के रूप में प्रचारित हैं। इन दोनों प्रान्तों में आगामी विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस क्या गुल खिलाती है, यह देखा जाना अभी बाकी है।’’
(मासिक पत्रिका ‘सबलोग’ के अप्रैल, 2010 अंक में प्रकाशित स्वयं के आलेख से लिया गया अंश)

Wednesday, November 24, 2010

राहुल जी, हर जिले-कस्बे में ‘एयरपोर्ट’ क्यों नहीं है...?


बिहार चुनाव में नेतागण आए तो फिर उसी तरह आए, जैसे पिछली दफा आये थे। राहुल गाँधी से लोगों की उम्मीदें कुछ ज्यादा ही थीं। लोगों को उड़नखटौला से अलग कुछ खास देखने की चाह थी लेकिन वो इस बार भी उसी तरह आये, जैसे पिछली दफा आये थे। अब लोगों के ज़ेहन में एक सवाल उठ खड़ा हुआ है कि राहुल जी, हर जिले-कस्बे में ‘एयरपोर्ट’ क्यों नहीं है...? दृश्य बदले जा सकते हैं लेकिन आँख तो नहीं बदले जा सकते न! और बदलेंगे भी तो कितनी आँखें बदलेंगे, भाई! करीब-करीब हर आँख में पीड़ा, चूभन और किरकिरी है। जनता के पास कहने के मौके कम हैं, सो उसकी आँखों ने जो देखा बस उसी को बेलागलपेट कह दिया है। आजकल तो अपनी पीड़ा सबके सामने कहना भी बाजारू विज्ञापन माना जाने लगा है। इसीलिए जनता की जुबान ज्यादातर बंद ही रहती है। कुछ खास तरह के अक्लमंद लोग ऐसे चुपाधारी जनता से कुछ बुलवा लेते हैं। फिर उसी को राजनीतिक चुनाव-प्रबंधन के तहत मंचासीन नेता के सामने पेश कर देते हैं। पुर्जा मिलते ही अमुक नेता के भाषण और बयानबाजी में गर्जन-तर्जन के भाव-बिंब बढ़ जाते हैं। तेवर आक्रामक हो उठते हैं और आवाज़ तल्ख़। अग्रिम पंक्ति में तालियाँ बजती हैं। शोर की भाषा में नारे लगते हैं। पीछे बैठी जनता उन तालियों को सुन-देखकर अचंभित होती है। जबकि उसके खुद के बोल और तालियों के थाप अंत तक संज्ञाशून्य बने रहते हैं। ये सारी बातें कोई रहस्य या तिलिस्म नहीं है। क्योंकि वर्तमान की राजनीति में रहस्यमय कुछ नहीं होता है। न चुनाव में और न ही चुनाव परिणाम में। दरअसल, जब किसी व्यक्ति का मोहभंग होता है तो सारी दुनिया ही उसे रहस्यमयी लगने लगती है। ऐसे में अब चाहे आप शून्य से शुरू कीजिए या सैकड़े से। गिनती की पहली शर्त है कि हर अंक की हैसियत आपको कंठस्थ हो। अन्यथा जैसे परीक्षा में पास-फेल का खेल जबर्दस्त है। उसी तरह राजनीतिज्ञों के भविष्य भी पलटी मार सकते हैं। अतः आधुनिक राजनीति के इस गणितीय समीकरण में सारे गोटी एकदम दुरुस्त और बिल्कुल फिट होने चाहिए।
जैसा कि कहा जा रहा है, पिछली सरकार ने बिहार में विकास के नाम पर लोगों को ठगा है, झाँसे में रख उनके आँख में धूल झाोंका है। सुन-सुनकर विवेकवान हुई जनता की विवेक जागी है वह राहुल गाँधी की प्रतीक्षा में है। अफसोस! वो आए भी, और चले भी गए। लेकिन कोई खास अंतर नहीं दिखा उनमें और अन्य पार्टियों में। बाँस-खंबे और बल्ले से छेंके मैदान की ओर देखते हुए राहुल गाँधी कहाँ सोच रहे होंगे कि जनता उनके लिए मैदान में घंटों खड़ी है। उन्हें सुनने को लालायित है। वहीं भीड़ में खड़ी जनता व्याकुल नेत्रों से अपने देश के भावी प्रधानमंत्री को किसी और निगाह से देख रही है। वह उनसे निवेदनपूर्वक यह कहने को सोच रही है कि अब आपको इस तरह जनता के बीच में सरेआम नहीं आना चाहिए। आप तो फिल्म ‘दबंग’ के लोकप्रिय गाने की भाँति ‘अमिया’ से ‘आम’ हो चले हैं। अर्थात खास से भी खासमखास। लिहाजा, राहुल गाँधी को जनता अपने बीच हवाई जहाज से आते हुए देखना चाह रही है। दिली-इच्छा है कि उनके जिला-शहर में राहुल गाँधी एक एयरपोर्ट बनवा दें। अभी तक किसी सरकार ने इस बारे में नहीं सोचा। जनता प्रज्ञावान है। उसे पता है कि राहुल गाँधी अगली बार वर्ष 2014 में फिर बिहार आएँगे। उस समय तक तो एयरपोर्ट बनकर अवश्य ही तैयार हो जाने चाहिए। वैसे यह राज्य-सरकार के बूते से बाहर की बात है। नहीं तो, बिहार में अद्भुत विकास का तमगा लिए फिर रही नीतीश सरकार खुद ही सारा कुछ ‘मैनेज’ कर देती। यों भी आजकल चुनावी प्रचार में उड़नखटौला यानी हेलीकॉप्टर से तो हर झंडुबाम नेता आ रहा है। ‘हर साल की भाँति इस साल भी’ की तर्ज पर भाषण दे रहा है और धूल उड़ाता गायब हो जा रहा है।

जनता का आदेश बना बिहार जनादेश

बिहार की जनता तथाकथित ‘बीमारू प्रदेश’ में रह भले रही हो लेकिन वह बीमार नहीं है। वह अपना आग-पाछ सब जानती है। बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम से अभिभूत नीतीश सरकार को इस जीत की व्याख्या इसी रूप में करनी चाहिए। अपने राजनीतिक साहस और वैकल्पिक सोच की बदौलत मजबूत जनादेश पाये नीतीश कुमार के लिए आगे की राह कंटिकापूर्ण है। यह एक चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी है जिसकी उलटी गिनती बैण्ड-बाजे, पटाखे और आतिशबाजी का दौर थमते ही शुरू हो जाएगी। आँकड़े बताते हैं कि जद(यू)-भाजपा गठबंधन को कुल 243 सीटों में से 206 सीट हासिल हुए हैं; वहीं कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी को केवल 4 सीट नसीब हुए हैं। यह परिणाम इस मायने में भी महत्त्वपूर्ण है कि पिछली दफा नवंबर 2005 में मुख्यमंत्री पद पर आसीन नीतीश कुमार को सिर्फ 143 सीटें ही मिली थीं जिसमें इस बार बढ़ोतरी हुई है। गठबंधन में शामिल भाजपा को पिछले चुनाव की तुलना में जहाँ 36 सीटें अधिक मिली हैं वहीं जद(यू) ने 27 सीटे और हथिया ली है। इस तरह भाजपा 91 विधानसभा सीटों के साथ फायदे में है तो जद(यू) का पलड़ा 115 सीट प्राप्त कर फिलहाल बेहद मजबूत स्थिति में है।
विधानसभा सीटों के ये बदले आँकड़े अप्रत्याशित नमूने भर नहीं हैं। असल में, ये बनते-बदलते बिहार के विकास और सुशासन की एक ऐसी तस्वीर है जो प्रदेश के राजनीतिक पृष्ठिभूमि और चुनावी रणनीति को खोलकर रख देता है। यह बिहार में उभरता हुआ एक नए ढंग का जातिगत समीकरण है जिसमें जाति को छोड़कर जातिगत तमाम प्रवृत्तियाँ अंतर्निहित हैं। नीतीश-नरेन्द्र मोदी विवाद से हुए लाभ का योग तो इसमें है ही, साथ ही यह हिन्दुत्व के खिलाफ और हिन्दुत्व के साथ का भी एक ऐसा मामला है जिसमें दो पाटियाँ एक साथ खड़ी होकर भी साथ-साथ नहीं थीं। इन दोनों के बीच इतना महीन अंतर है कि अब भाजपा के हिन्दुत्व का मतलब भी विकास कहा जाने लगा है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी इसे विकासपरक हिन्दुत्व कहते नहीं अघा रहे हैं। हालिया चुनावी परिणाम बिहार में प्रचारित अति पिछड़ी जाति और महादलित अभियान के विकासपरक मुद्दे में बदल दिए जाने का भी नतीजा है। अल्पसंख्यक वर्ग को बड़ी होशियारी से अपने बहाव में शामिल कर ले जाने का प्रतिफल है। यह मीडिया द्वारा फैलाया गया एक ऐसा मजेदार स्टंट है जिसकी ऊँची नाक पकड़कर नीतीश सरकार ने जनता के सामने यह कह सकने का साहस जुटाया था कि क्या उनके द्वारा कराए गए विकास-कार्य का कोई मोल नहीं है? इस बहुप्रचारित विकास के खोल में ढांक-तोप कर जिन चीजों को रखा गया था अगर नीतीश सरकार उसे हर हाल में ख़त्म नहीं करती तो यह जिन्न नीतीश सरकार और बिहार दोनों के सेहत के लिए नुकसानदेह सिद्ध हो सकता है।
बहरहाल, ऐतिहासिक जनादेश पाए नीतीश कुमार का यह कहना बेहद अर्थपूर्ण है कि-‘जनता ने उन्हें जनादेश देकर एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है’। इस एकपक्षीय जीत के पार्टीगत निहितार्थ चाहे जो भी निकाले जाए लेकिन जनता की निगाह में नीतीश कुमार का कद निश्चित ही बढ़ा है। उधर रामभरोसे संपूर्ण जीत की दावा करती बड़ी पार्टियाँ जिनमें कांग्रेस, बसपा, राजद और लोजपा आदि शामिल हैं; को जनता ने फिलहाल ‘डायवर्जन रूट’ से बिहार विधानसभा पैठा दिया है। केन्द्र की कांग्रेस सरकार बिहार में करिश्मा करने से पूरी तरह चूक गई है। दूसरी ओर बिहार में वापसी का राजनीतिक-कौतुक रचते राजद-लोजपा गठबंधन की जो भद्द पिटी है, उससे राजनीतिक चुनाव विश्लेषकों को सीख लेना जरूरी है। बसपा ने कुल 243 विधानसभा सीटों में से 239 पर अपने उम्मीदवार खड़े कर बहादुरी दिखाने का स्वांग रचा था, किंतु चुनाव परिणाम ने उसे जिस तरह निराश किया है उसके मद्देनज़र उत्तर प्रदेश की राजनीति पर इस करारी हार का गहरा असर पड़ने वाला है। अन्य दलों में वामदल काफी सकते में हैं, उसकी चिंताजनक स्थिति को देखते हुए बिहार में उसके भविष्य के बारे में भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी। जैसा कि चुनाव पूर्व कयास लगाए जा रहे थे जद(यू)-भाजपा गठबंधन इस बार भी बिहार में एक बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकती है, लेकिन चुनावी-दौड़ में शामिल अन्य पार्टियाँ इस कदर ‘फ्रिज’ हो जाएंगी इसका अनुमान कम ही लोगों को था। बिहार में पुश्तैनी राजनीति का दंभ भरने वाले लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी की दोतरफा हार ने राजद अध्यक्ष को गहरा आघात पहुँचाया है। सोनपुर और राघोपुर विधानसभा सीटों से एक साथ खड़ी राबड़ी देवी को वहाँ की जनता ने पूरी तरह खारिज कर दिया है। कुछ ऐसी ही गत रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा की है। महत्त्वाकांक्षी पासवान के दोनों भाई रामचंद्र पासवान और पशुपति कुमार पारस तो हारे ही उनके दोनों दामादों का भी कोई पूछनहार नहीं मिला। सबसे दिलचस्प बात तो यह रही कि चुनाव के दरम्यान भारी भीड़ देख सीना चौड़ा किए सभी पार्टी के राजनीतिज्ञों को जनता ने बड़े ही धैर्य से सुना, तालियाँ बजायी और जनसमर्थन दिए जाने का वादा भी किया, लेकिन फैसले की घड़ी में जनता ने चुनाव में खड़े उम्मीदवारों की बत्ती गुल कर दी।
बिहार चुनाव-प्रचार के दौरान एक मौके पर कांग्रेस के मीडिया युवराज राहुल गाँधी ने पूरे रूआब के साथ कहा था कि पिछली सरकार ने बिहार में विकास के नाम पर लोगों को ठगा है, झाँसे में रख उनके आँख में धूल झोंका है। होनहार राहुल गाँधी के इस कहे का समझदार जनता पर असर पड़ा होगा, यह परिणाम देखकर नहीं लगता है। बता दें कि इस बार कांग्रेस ने अकेले दम पर 243 उम्मीदवारों को खड़े करने का ज़ज़्बा जुटाया था। राहुल गाँधी खुद ‘स्टार प्रचारक’ की भूमिका में 119 चुनावी दौरे में शामिल हुए थे। बाँस-खंबे और बल्ले से छेंके मैदान में भारी भीड़ जमा देखकर राहुल गाँधी को अच्छे परिणाम आने की उम्मीद थी। चुनाव-प्रचार के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उपस्थिति ने इस आस को बढ़ाने में और भी मदद की।
यदि मान भी लें कि कांग्रेस की सोच में पूर्ण सत्ता या बहुमत हासिल होने जैसी कोई बात नहीं थी तो भी इतना तय है कि उसे अपनी पार्टी के इस कदर हार का अंदाजा नहीं ही रहा होगा। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कैसर की हार से कांग्रेस के मीडिया-प्रभारी तक आतंकित हैं। हैरत की बात है कि इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अपनी पुरानी जनाधार से भी हाथ धो चुकी है। इस चुनाव में मात्र चौका जड़ ऑल-आउट हो गए कांग्रेसी राजनीतिज्ञों को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी किस भाव से हौसला देंगी, यह देखा जाना अभी शेष है। फौरी तौर पर जमीनी स्तर पर कार्यशील कांग्रेसियों ने पारंपरिक दस्तूर निभाते हुए हार की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर थोप ली है। लेकिन चुनाव विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों को यह पता है कि बिहार विधानसभा चुनाव में सारे कांग्रेसी दिग्गज और होनहार हार चुके हैं जबकि समझदार जनता जीत चुकी है। बिहार कांग्रेस चुनाव प्रभारी मुकुल वासनिक ने त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए जो कहा वह गौरतलब है-‘‘मैं नहीं समझता कि बिहार में राहुल गाँधी का करिश्मा नहीं चला. राहुल के सभी चुनावी सभाओं में काफी भीड़ उमड़ती रही. वे जनसभाओं में बेहद अच्छा बोले और निश्चित रूप से कार्यकर्ताओं में उन्होंने जोश भरा. लेकिन जहाँ तक चुनावी परिणाम का सवाल है, ये अलग मुद्दा हैं. इनका विश्लेषण अलग से किया जाएगा.’’
जो भी हो फिलहाल कांग्रेस को आत्ममंथन एवं मूल्यांकन की सख्त जरूरत है। उसे अभी से सोचना शुरू कर देना चाहिए कि आखिरकार उसके सामने ऐसी नौबत ही क्यों उत्पन्न हुई कि कांग्रेस आलाकमान सोनिया गाँधी बिहार में शून्य से शुरुआत करने की सोच रही हैं। पिछले 50 वर्षों में जिस राज्य में अकेले कांग्रेस के 17 मुख्यमंत्री सत्ता-सुख भोग चुके हों वहाँ एकबारगी इस कदर सूपड़ा साफ होना चकित करता है। ध्यान देने योग्य है कि यह चुनाव परिणाम कांग्रेस के उस चर्चित विज्ञापन की भी पोल खोलता है जिसमें इस पंक्ति को विशेष महत्त्व के साथ गढ़ा गया था-‘अब देश की रफ़्तार से जुड़ेगा बिहार’। बिहार की जनता को बुद्धू बक्से के सामने बैठकर इस विज्ञापन का आस्वाद लेते जरूर देखा गया होगा। पर उसने चुना उन्हीं को जिन्हें वह पहले से ठान चुकी थी। इस बाबत जद(यू) के प्रदेश अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी द्वारा कहे गए उस सवाल को दोहराना उचित होगा कि ‘कांग्रेस आखिर देश के किस रफ़्तार से जुड़ने की बात कर रही है? क्या उस रफ़्तार से जिसके अनुसार देश की विकास दर बिहार के विकास दर से 2 फीसदी कम ही है?’।
एक और बात जिस ओर इशारा किया जाना महत्त्वपूर्ण है वह यह कि बिहार विधानसभा चुनाव में प्रत्यक्षतः दिख रहा एकतरफा जीत सिर्फ नीतीश सरकार की जीत नहीं है। जद(यू)-भाजपा गठबंधन तो महज विजेता भर है। असली जीत का हकदार तो बिहार की वो महिलाएँ हैं जिन्होंने पुरुषोचित्त विवेक की जगह आत्मविवेक से काम लिया और वोट उन्हीं उम्मीदवारों को सुपुर्द किया जिनसे उनकी दृष्टि मेल खाती थी। इसमें दो राय नहीं है कि उन्होंने अपना बेशकीमती मत उसी पार्टी को देना वाज़िब समझा जो वास्तविक काम को प्राथमिकता देता हो। गरीबी, बीमारी और तकलीफदेह जिंदगी से छुटकारा दिलाने में समर्थं हो। दलदल भरे पगडंडियों को कामयाब सड़क में बदल देने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हो। ऐसी साफ-सुथरी पार्टी हो कि गाँव-देहात तक की बिटिया निर्भय शिक्षा पाने शहर की राह पकड़ सके। ऐसी पार्टी सिर्फ नरेगा-मनरेगा में खर्च हो रहे करोड़ों-करोड़ की रकम का मात्र हवाला भर न द,े बल्कि उसे सही आदमी तक पहुँचने के लिए भी वचनबद्ध हो।
इस तरह बिहार की सजग और जागरूक महिलाओं ने पिछले पाँच सालों के दरम्यान जिस सच को पूरी शिद्दत से महसूस किया था, उसी के आधार पर नीतीश शासन के जीत की पटकथा लिख दी। इस बार महिलाएँ चुनाव को लेकर कितनी उत्साहित थीं? इसका अंदाजा बेलाग बोलते इन आँकड़ों से लगाया जा सकता है कि महिलाओं ने कुल 60 फीसदी वोट दिए जो पुरुष वोट की तुलना में करीब छह फीसदी अधिक था। एक और बात बता दें कि पिछले विधानसभा चुनाव में जहाँ कुल 46 फीसदी मतदान हुए थे वहीं इस मर्तबा कुल 51 फीसदी मतदान हुए हैं। नीतीश की इस शानदार जीत में चुनाव आयोग की भूमिका भी जबर्दस्त रही। छह चरणों में संपन्न इस चुनाव के बीच में लंबे अंतराल का होना एक बड़ा ‘फैक्टर’ साबित हुआ जिससे नीतीश कुमार अपने प्रचार को संक्षिप्त करने की बजाय अधिक से अधिक विधानसभा क्षेत्रों का दौरा संभव कर सके।
अंत में, इस चुनाव परिणाम का थोड़ा मीडिया की दृष्टि से विश्लेषण करें तो इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में ‘हेडलेस जर्नलिज्म’ करने वालों की चाँदी रही जिस कारण अटकलबाजियों का घटाघोप हावी दिखा। प्रतिष्ठित अख़बारों ने भी ख़बरों के स्तर पर एहतियात बरतने से परहेज की। हालाँकि उनकी उन पार्टीगत मीडिया-मैनेजरों से खूब छनी जो बिहार में होनहारों की छवि आरोपित कर करिश्मा करने को इच्छुक थे। लेकिन बिहार की समझदार जनता ने अंततः उनकी ही बैण्ड बजा दी। उनका ज्योतिष-शास्त्र फेल हो गया। इसमें दो मत नहीं है कि जब जनता फैसला करती है तो वह अपनी प्रकृति और प्रभाव में कुछ ज्यादा ही नृशंस और क्रूर होती है। इस बात को धनबलि, बाहुबलि और अपराधिक छवि वाले नेताओं के न जीत पाने के संदर्भ में अच्छी तरह समझा जा सकता है। यह जनादेश जनता का अर्थंपूर्ण आदेश है जिससे पराजीतों को ही नहीं नीतीश कुमार को भी सबक लेनी होगी। इस चुनाव में नीतीश खेमें के हारे मंत्रियों का जो हश्र जनता ने किया है, उसका ग्राफ और न बढ़ पाए यह तय करना नीतीश सरकार की नैतिक-जिम्मेदारी है। निःसंदेह आज बिहार एक बार फिर बदलाव की भूमि पर आसीन है। उम्मीदों का दीप प्रज्ज्वलित हो उठा है। जनता में आस की लहर है। नीतीश शासन के ऐिसे में वरिष्ठ चुनाव विश्लेषक योगेन्द्र यादव द्वारा कहा एक वाक्य स्मरण हो रहा है जिसे उन्होने पूरे चुनाव-काल के समय बिहार का दौरा करते हुए बीबीसी हिन्दी को उपलब्ध कराया था-‘विकास बहुत बड़ी शब्द है। बिहार में अंतिम व्यक्ति तक विकास भले न पहुँची हो, आस जरूर पहुँची है। ये क्या कम है?’’

Tuesday, November 23, 2010

स्त्री.वेदना का कारुणिक चित्रण


काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग द्वारा प्रस्तुत ‘माध्वी’ नाटक का मंचन स्वतंत्रता भवन में किया गया। अंग्रेजी विभाग के शोध-छात्र पिनाक शंकर भट्टाचार्य के निर्देशन में मंचित इस नाटक की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगायी जा सकती है कि मंत्रमुग्ध दर्शकों ने नाटक के दौरान खूब तालियां बजायी। माध्वी की मुख्य भूमिका निभा रही स्वाति अपने उत्कृष्ट अभिनय से दर्शकों का मन मोह लेने में सफल रही, वहीं मुनिकुमार गालव का अभिनय कर रहे सायन ने अपने चरित्र को जीवंत बना नाटक में प्राण फूँक दिया। राजा ययाति की भूमिका में मनीष एवं ऋषि विश्वामित्र की भूमिका में उमेश को दर्शकों ने तालियों से खूब सराहा। सूत्रधार के रूप में अभिनय कर रहे तुषनिम और अनिंदिता ने नाटक के सभी चरित्रों एवं पात्रों से दर्शकों को शुरू से अंत तक जोड़े रखा। अन्य सहयोगी कलाकारों में अमर, ऋतपथिक, आनंद, मिथुन, दिव्येन्दु, अभय और सुमित्र की भूमिका जबर्दस्त रही जिनकी छोटी से छोटी भूमिका को देख दर्शक रोमांचित और भावविभोर थे। संगीत के सुंदर संगत से वातावरण को मोहक बनाने का काम विदिशा और अर्पिता ने किया। नाट्य-मंचन के दौरान अभिनय-परिवेश को प्रभावी बनाने में अभिषक देव के प्रकाश-सज्जा का योगदान महत्वपूर्ण था जिससे पात्रों द्वारा अभिनित सूक्ष्म भावों और उनके भीतरी अंतर्द्वंद्व को समझने में मदद मिली।
मशहूर कथाकार भीष्म साहनी द्वारा लिखित नाटक ‘माध्वी’ का अंग्रेजी में अनुवाद प्रो0 आलोक भल्ला ने 2002 में किया जिसके अब तक अनगिनत नाट्य मंचन हो चुके हैं।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ‘माध्वी’ का नाट्य-मंचन काशी के सांस्कृतिक गौरव की पहचान है। ‘माध्वी’ महाभारत के उद्योग पर्व से ली गई एक संवेदनशील कथा है जिसमें कथा नायिका माध्वी एक पितृसतात्मक समाज में विडंबनापूर्ण जीवन जीने को अभिशप्त है। पुरुषार्थ दंभ के प्रबल आवेग में माध्वी के खुद का कोई अस्तित्व नहीं। माध्वी अपने महत्वाकांक्षी पिता राजा ययाति द्वारा मुनिकुमार गालव को भेंट कर दी जाती है क्योंकि वह मुनिकुमार गालव के 800 अश्वमेधी घोड़ों की याचना को पूरा नहीं कर पाता है। दूसरी ओर मुनिकुमार गालव ऋषि विश्वामित्र को गुरुदक्षिणा के रूप में 800 अश्वमेधी घोड़ों को देने के लिए वचनबद्ध है। माध्वी को पा कर मुनिकुमार गालव यह सोचता है कि अब उसके पास एकमात्र माध्वी ही वह साधन है जिसके द्वारा वह अपने गुरु के वचन को पूर्ण कर सकता है। अतिसुंदर रूपवती माध्वी को नव-यौवन प्राप्ति का आशिर्वाद मिला है साथ ही यह भी कि माध्वी के गर्भ से उत्पन्न बालक भविष्य में एक प्रतापी सम्राट होगा। मुनिकुमार गालव माध्वी को लेकर आर्यावत के उन सम्राटों के पास जाता है जो माध्वी के बदले उसे 800 अश्वमेधी घोड़े प्रदान कर सके। कई राजाओं को पति रूप मे स्वीकारने को विवश माध्वी हर जगह मानसिक एवं शारीरिक प्रताड़ना को झेलती है। उसे अपने ममत्व और वात्सल्य का भी त्याग करना पड़ता है। सबसे कारुणिक स्थिति तब उत्पन्न होती है जब बेबस माध्वी भावहीन मुद्रा में ऋषि विश्वामित्र तक को वरण कर लेती है क्योंकि मुनिकुमार गालव माध्वी को कई राजाओं को सौंपकर भी 800 अश्वमेधी घोड़ों को नहीं जुटा पाता है। यह पूरी कहानी माध्वी के इर्द-गिर्द घूमती हुई इस सच को उजागर करती है कि हर पुरुष स्त्री देह को अपनी इच्छापूर्ति का साधन-मात्र समझता है। उसे स्त्री मन, बुद्धि, आत्मा और चेतना का ख्याल नहीं होता है। वह सौंदर्य का उपासक तो है किंतु वह स्त्री के ऊपर स्वछंद शासन की भी अदम्य इच्छा रखता है।

ख़बर है पूर्वी एशिया में आग लगी है


दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया के आपस में सुधरते सम्बन्धों को तेज झटका लगा है। नवंबर माह के अंतिम सप्ताह के बीच हुए भीषण गोलेबारी की वजह से दोनों देशों में भारी तबाही मची है। योंग्पेयोंग टापू में आग की लपटें हैं। आसमान में धुएँ की धौंकनी जल रही है। आरोप-प्रत्यारोप के मध्य दोनों देश एकदूसरे पर लगातार तोप से गोले दाग रहे हैं। दक्षिण कोरिया को अमेरिका का समर्थन हासिल है। वह उत्तर कोरिया पर 200 गोले दागने के आरोप मढ़ रहा है। इस कथित हमले में अपने दो सैनिकों के मारे जाने को लेकर दक्षिण कोरिया तैश में है। उसके पास अपने देश से दागे गोले का हिसाब नहीं है जो योंग्पेयोंग टापू में धधकता दिख रहा है। बीबीसी ने अपने वेबसाइट पर इससे सम्बन्धित कुछ फुटेज अपलोड किए हैं जिसे दक्षिण कोरिया के सभ्य नागरिकों द्वारा कैमरे में कैद करते हुए देखा जा सकता है। बीबीसी ने उन तस्वीरों को भी जारी किया है जिसमें उत्तर कोरिया के सैनिक शांत, स्थिर और खुशमिजाज नजर आ रहे हैं। उनके चेहरे पर हिंसा, आक्रामकता और क्रूरता के कोई लक्षण नहीं मौजूद है। खबर में यह चेतावनी अवश्य है कि-‘‘अगर उसे उकसाया गया तो वह ‘पवित्र युद्ध’ छेड़ सकता है।’’ इस चेतावनी का असर दक्षिण कोरिया से ज्यादा अमेरिका में देखने को मिल रहा है। अमेरिका ने दक्षिण कोरिया के साथ मिलकर संयुक्त सैन्य अभ्यास शुरू कर दिए हैं। दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति ली मयूंग बाक ने सेना प्रमुख को ‘हाई एलर्ट’ कर रखा है कि उत्तर कोरिया की अगली किसी भी कार्रवाई का जवाब उसके मिसाइल बेस पर हमले द्वारा किया जाएगा। इस बाबत उत्तर कोरिया की प्रतिक्रिया क्या है? इसका कहीं कोई जिक्र ख़बर में नहीं है।
इस सन्दर्भ में भारतीय प्रायद्धीप में ख़बरें जिस रूप में आ रही हैं उससे बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है। इतना अवश्य पता चल रहा है कि पूर्वी एशिया में आग लगी है। पीले सागर से सटे उत्तर-दक्षिण कोरिया के सीमाई क्षेत्र योंग्पेयोंग में उठ रहा धुँआ गहरा हो रहा है जिसे 1953 ई0 के बाद के सबसे बड़े टकराहट के रूप में चिह्नित किया गया है। इस समूचे विवाद में सबसे अहम सवाल ख़बर की निष्पक्षता को लेकर है। प्रायः उत्तर कोरिया को कठघरे में खड़ा कर उसके ऊपर आरोप मढ़ देना आसान होता है। संवेदनशील सीमाई विवाद के मामले में इस तरह के एकतरफा दृष्टिकोण अपनाये जाने से बचना जरूरी है। भूलना नहीं चाहिए कि उत्तर कोरिया ने गोले दागकर हमला करने से पहले दक्षिण कोरिया से यह जानना चाहा था कि क्या योंग्पेयोंग में जारी दक्षिण कोरिया और अमेरिका का संयुक्त सैन्याभ्यास उसके देश पर किये जाने वाले हमले की तैयारी हैं? इस सम्बन्ध में बारीकी से विश्लेषण किए जाने की जरूरत है तथा जनमाध्यों द्वारा इन दोनों देश के बीच के इस हालिया विवाद के संदर्भ में काफी एहतियात बरतने की भी आवश्यकता है।
अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन उत्तर कोरिया को आगाह करते हुए अन्तरराष्ट्रीय समाज से बड़ी साफगोई से कहती दिख रही हैं कि ‘‘उत्तर कोरिया का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा की वह वर्तमान में क्या फैसला लेता है?’’ अपने वक्तव्यों में संप्रभु अमेरिका किसी राष्ट्र-विशेष के अंदरूनी मामले में ऐसे बयान जारी करने के लिए स्वतंत्र है। ईराक, ईरान और तालिबान की तरह उत्तर कोरिया भी अमेरिकी काली-सूची में शामिल हैं। अमेरिका की राजनीतिक-मंशा असल में क्या है और वह अपने चरित्र में कितना सच्चा और नेक है इसका ज्ञान दरअसल ऐसे ही मौके पर होता है। अमेरिका हमेशा किसी न किसी बहाने की ताक में रहता है। बता दें कि उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया
के बीच का विवाद उस समय फिर शुरू हुआ था जब कथित तौर पर उत्तर कोरिया पर यह आरोप मढ़ा गया कि उसने जानबूझकर दक्षिण कोरिया के चचान नामक सैन्य पोत को समुद्र में डूबो दिया है। 26 मार्च को घटित इस घटना मंे 46 लोगों की मौत हो गई थी। इस मामले में गठित अन्तरराष्ट्रीय जाँच एजेंसी ने इस बात की पुष्टि की थी कि यह सैन्यपोत कथित तौर पर उत्तर कोरिया से दागे गए टोरपीडो की वजह से जलमग्न हो गया था। इस जाँच कमेटी में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और स्वीडन के विशेषज्ञ शामिल थे।
हाल के बदलते घटनाक्रमों के बीच यह भी आशंका जतायी जा रही है कि उत्तर कोरिया में इन दिनों ऊपरी शीर्ष राजनीति में बदलाव होने के संकेत हैं। उत्तर कोरिया के शासक किंम जोंग इल ने राजनीतिक नेतृत्व का कमान अपने बेटे किंम जोंग उन को देने का मन बना लिया है। ऐसे बदलाव के क्षण में उत्तर कोरिया एक ओर विश्वमंच पर अपने ताकत का अहसास कराने के उद्देश्य से ऐसा कर रहा है तो दूसरी ओर वह दक्षिण कोरिया पर अपना दबाव ढीला होने देना नहीं चाहता है। फिलहाल पूर्वी एशिया में जारी यह हिंसक गतिरोध पूरे विश्व बिरादरी के लिए खतरनाक है। यह सीधे-सीधे अमेरिका के राजनीतिक कुटनीति में सफल हो जाने का सूचक है जिसके तहत वह अपार संभावनायुक्त एशिया में अपनी सैन्य-धाक को पुख्ता कर सकने में सफल सिद्ध होगा। इस पूरे घटनाक्रम के बीच चीन की चुप्पी के भी कई अर्थ लगाए जा रहे हैं जो परोक्ष रूप से उत्तर कोरिया के वामपंथी सरकार को अपना समर्थन देता है। यह समर्थन अमेरिका को चूभती है क्योंकि उसके दक्षिण कोरिया से रिश्ते काफी याराने हैं। वास्तव में यह लड़ाई चीन और अमेरिका के आपसी वर्चस्व की है। वहीं जापान उत्तर कोरिया की बढ़ती ताकत से सकते में है, वह अपने देश के मंत्रियों को किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहने को कह चुका है।
गौरतलब है कि अमेरिका के छोटे-बड़े देशों से दोस्ती कुछ अलग किस्म के होते हैं। वह हर देश के साथ नये समीकरण, नये अंदाज के साथ गढ़ता है। जिस देश की हैसियत जैसी होती है, उसके रिश्ते भी उतने ही महत्त्वपूर्ण और दिलचस्प होते हैं। भारत से दिखती उसकी दाँतकटी दोस्ती और पिछले दिनों हुई अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की शाही यात्रा भी कुछ इसी ढंग की थी। दरअसल, भारत के साथ अमेरिका की बढ़ती मित्रता का असली निहितार्थ इस आबादी-बहुल राष्ट्र में अपना पूँजी-तंत्र बहाल करना है। लिहाजा, वह कभी पाकिस्तान को घुड़की दिखाता है तो कभी उसे अन्तरराष्ट्रीय मंच से डपटता है। लेकिन मंच से उतरते ही दोनों देश उसे एकसमान दिखने लगते हैं।
वैसे भी अमेरिका के लिए दोनों देशों से तालमेल संतुलित रखना जरूरी भी है क्योंकि पाकिस्तान एक ऐसा ‘सॉफ्ट कार्नर’ है जिसके कंधे पर चढ़कर वह भारत के मानचित्र में अपनी गिद्धदृष्टि रख सकता है। लेकिन उत्तर कोरिया भारतीय महाद्वीप नहीं है। वहाँ अमेरिकी दाल नहीं गलती। छोटी मुँह बड़ी बात कहने का आदी उत्तरी कोरिया साम्राज्यवादी ताकतों को खरे शब्दों में दुत्कारता और चुनौती देता है। उसे राष्ट्र की आत्मसत्ता प्यारी है। उत्तर कोरिया के सोच-दृष्टि भी पारंपरिक है। वहाँ बाज़ारवादी प्रवृत्तियों की पैठ न के बराबर हैं। वह अमेरिका का पिछलग्गू बन विश्व बैंक और व्हाइट हाउस से ‘ग्रीन कार्ड’ हथियाने का अभिलासी नहीं है। इसीलिए वह अमेरिकी हित और साम्राज्य-प्रसार की कुटिल नीतियों को बॉयकाट करता है। हाल के दिनों में उत्तर कोरिया द्वारा शुरू आपसी सहमति बनाने की कवायद ठीक कहे जा सकते हैं। उत्तर कोरिया दक्षिण कोरिया से अपने समस्त विवाद निपटाने खातिर छह पक्षीय वार्ता करने का पक्षधर है जिसमें उत्तरी-दक्षिणी कोरिया के अतिरिक्त चीन, अमेरिका, जापान और रूस भी शामिल हों। लेकिन अभी विश्व बिरादरी इस संदर्भ में तत्काल कोई पहल करने को इच्छुक नहीं दिख रही जिससे वहाँ के हालात और तनावपूर्ण स्थिति शांत और स्थिर होने का नाम नहीं ले रहे हैं।
संकटपूर्ण इस घड़ी में अमेरिका के शीर्ष सैन्य अधिकारी एडमिरल मार्क मुलेन उत्तर कोरिया को भले कड़े शब्दों में चेता रहे हों पर वह किसी भय या दुश्चिंता की परवाह कर घुटने टेकने को अभ्यस्त नहीं है। मुलेन हाल ही में उत्तर कोरिया से यात्रा कर लौटे स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक सिगफ्राइड हैकर के उस रिपोर्ट का खुलासा कर रहे हैं जिसके मुताबिक उत्तर कोरिया इन दिनों तेजी से बम बनाने में इस्तेमाल होने वाले बेहद परिस्कृत संबर्दि्धत यूरेनियम का भारी मात्रा में उत्पादन करने में जुटा है। कहना न होगा कि कुछ वर्षों पहले अमेरिका ने इसी तरह के भ्रामक और अपुष्ट दावे को लक्षित कर ईराक पर हमला बोला था जहाँ उसके आतंक के चिह्न अभी भी मौजूद हैं। उत्तर कोरिया के विदेश मामले के विशेषज्ञ सांग दिए संुग ने अपने एक वक्तव्य में इस बात का खुलासा किया है कि यह कार्रवाई अमेरिका के उस अड़ियल रवैये पर दबाव बनाने का हिस्सा है जो हाल के दिनों में उत्तर कोरिया विरोधी रवैए के रूप में देखा जा सकता है। अपनी सफाई में सुंग ने इस बात का भी हवाला दिया है कि अन्तरराष्ट्रीय चिंता को देखते हुए युरेनियम संवर्द्धन का कार्यक्रम रोक दिया गया है। सच्चाई जो हो फिलहाल इस घड़ी तीसरी दुनिया के सभी राष्ट्र चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसे में अब समय ही बताएगा कि आने वाले दिनों में अपने ऊँचे सिर के सहारे धौंस झाड़ता अमेरिकी ऊँट किस करवट बैठेगा?

Monday, November 22, 2010

भुलावे का इतिहास-भूगोल


जब मैं छोटी उम्र का था तो देश के भूगोल से परिचित था। चौहद्दियाँ ज़बानी याद थी। किस कोने में कौन-सा देश, खाड़ी और समंदर है, सब पता था। कोई पूछता तो आवाज़ के सुर-ताल बदल जाया करते। कहन-शैली में शोखी और गर्वीलापन इस कदर हावी हो जाता कि लगता जैसे मैं चाँद पर उतरा पहला अंतरीक्ष यात्री नील आर्म स्ट्रांग हँू। और सामने वाले को यह बताना चाहता हँू कि देखो मैंने अपनी हथेली चाँद के सर पर रख दी है। उस समय दिमाग की पोटली छोटी थी। पर उसमें इतिहास-भूगोल की बातें ढेरों अटती थीं। हिसाब की भी किताब थी जिसमें समकोण न्यूनकोण से बड़ा तो अवश्य था किंतु वह खुद अधिककोण से छोटा होता था। यह अंतर इतनी साफ थी कि काग़ज पर चाँद-मीटर रख कर मनमाफिक कोण बनाने में मुझे बेहद मजा आता। जब मेरी बढ़ती उम्र चार्ल्स डार्विन के ‘विकासवाद के सिद्धांत’ को पढ़ने की हुई तो लगा जैसे अब मैं सयाने होने के लिए अनुकूलित हो रहा हूँ। मेरे बोल के गंध और सोच की त्वरा में फर्क आ रहा है।
मुझे याद है, उस समय भी मेरा साबका राजनीति से नहीं पड़ा था। राजनीति की बात मैं नागरिकशास्त्र से समझा करता था। वैसे यह मेरे महत्त्व का विषय कभी नहीं रहा। इतिहास-भूगोल में मन इतना रमता कि इच्छा होती रमता जोगी बन जाऊँ। राजा प्रसेनजित के प्राचीन काल में अँगुलीमाल और गौतम बुद्ध के किस्से पढ़तकर रोमांचित हो जाया करता था। लगता कि काश! महात्मा बुद्ध मुझे भी ‘तोड़ो नहीं जोड़ो’ की तरह कोई शिक्षाप्रद उपदेश देते। ऐसा सोचने में मुझे मजा आता था, सो खूब सोचता और मन ही मन आह्लाद से भी भर उठता। इतिहास में यूरोपियन सिकन्दर और भारतीय राजा पुरु के लड़ाई वाले वृतांत भी मुझे खूब जमते थे। चक्रवर्ती सम्राट अशोक की ‘संघम् शरणम् गच्छामि’ वाली कथा भी रुचिकर लगती थी। मोहनजोदड़ो को मुर्दों का टीला कहा जाता है, यह बात जब पता चली तो मैंने अपने शमशान को भी मोहनजोदड़ो कहना शुरू कर दिया। साथी कहते कि किताबों का इतिहास बीता हुआ सच होता है। मैं सोचता तो फिर आदमी जो जी रहा होता है, वह क्या होता है? क्या वह किसी विषय के अन्तर्गत नहीं आता है? जवाब पाने की टोह में गुरुजी को टटोलता तो वह उलटे मुझे ही डपट दिया करते। उनके मुताबिक इतिहास-भूगोल भुलावे की चीज है।
लिहाजा, कक्षा में सायंस की धौंकनी में अयस्क पिघलाया जाता और लोहा अपकर्षण विधि से पुस्तकों से रट्टा लगाकर निकाला जाता। लेकिन यह किताबी ज्ञान मुझे सुहाती कम बौराती ज्यादा थी। खीज होती तो कह देता कि प्रकाश में सात रंग हैं, ये तो हम इन्द्रधनुष देखकर भी जान जाते हैं। आप कभी प्रिज्म से गुजारकर दिखाइए तब न जाने? मास्साहब की नज़रें टेढ़ी हो जाती और मेरी बोलती बंद। ये कुछ विशिष्ट कारण थे जिसने मेरे अंदर विज्ञान से लगाव कम अलगाव को ज्यादा प्रोत्साहित किया। सब कहते यह लड़का देखने में शांत भले हो किंतु दिमाग से छिछोरा है। इसके दिमाग की पटरी ठीक नहीं है।
देखिए, मैं कहते-कहते अपनी बात से फिसल गया। यह मेरी ही नहीं इस उत्तर आधुनिक समय-समाज की ही विडंबना है कि हम जो कुछ सार्थक ढंग से कहना चाह रहे हों उसकी शुरूआत तो बड़े तामझाम और धमाकेदार ढंग से करते हैं लेकिन आधे रास्ते में पहुँचते ही नेति-नेति कहना शुरू कर देते हैं। आप देख नहीं रहे कि कला, साहित्य, संस्कृति या कोई भी विषय-विधा अपने स्वभाव और प्रकृति में खुद ही जटिल संरचना से घिरी है।
खैर, बचपन में मैं होशियार था यह ख्याल आज भी मेरे मन से नहीं बिसरता है। कुंभ तो साल में एकबार लगता है जबकि मैं अपने मन के कुम्भ में हर रोज अनगिनत बार डुबकी लगाता हँू। ऐसा इस वजह से है कि आज की तारीख में मैं एक ‘रोड साइड रोमियो’ हँू। देश के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में शोधरत विद्यार्थी हँू। पिछले 8 सालों से शादीशुदा भी। मेरा बड़ा वाला बाबू मेरे सामने ककहारा याद करता है। मोबाइल पर खुशी-खुशी वन-टू सुनाता है। जिस उम्र में हम ‘माँ शारदे कहाँ तुम वीणा बजा रही हो’ प्रार्थना करते थे उस उम्र में वह ‘मुर्गा मोबाइल बोले कू-कू हो कू’ विथ ब्रेकडांस करके दिखाता है। यानी वो हर सूरत में मुझसे ज्यादा आगे है, अव्वल है। विश्वास मानिए, जब किसी व्यक्ति के सामने अपने ही बच्चे से प्रतिस्पर्धा करने की नौबत आ जाती है तो उसके लिए खुद अपने बचपन के तह में उतरकर आत्मटोह लेना शायद! अनिवार्य विवशता जान पड़ता है।

Sunday, November 21, 2010

अब 11 बजे के बाद दिखेगा इंसाफ


एक किशोर अपने उम्र का अतिक्रमण करते हुए दोस्तों से कह रहा था, ‘‘यार जब ‘यस’ और ‘नो’ में हाँ वाला विकल्प चुनते ही मैं मजे से पोर्नोग्राफी देख लेता हँू तो फिर यह पूछने का क्या मतलब कि क्या आपकी उम्र 18 वर्ष से कम है।’ यह पूछना क्योंकर जरूरी है इसके जवाब से हम सभी वाकिफ हैं। देखिए, सेक्स करने की इच्छा और साजो-सामान लगभग सभी जीवित प्राणियों को कुदरती तौर पर मिले हैं। लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक बाध्यताएँ/मान्यताएँ रद्दोबदल की तमाम गुंजाइशों को देखते हुए भी खुल्लमखुल्ला देह-सम्बन्ध बनाने की इजाजत नहीं देती। संचार मंत्रालय तो उसी समाज का कृत-दास है। इसीलिए उसने हाल में अश्लिलता के आरोप में चर्चित दो कार्यक्रमों ‘राखी का इंसाफ’ और ‘बीग बॉस’ को रात्रि 11 बजे के बाद ही दिखाए जाने की ताकीद की है। इस फैसले से ऐसे कार्यक्रमों को बेधड़क दिखलाने की जो पूँजीवादी प्रवृति आजकल विकसित हुई है, को अंकुश लगेगा। सो इस फैसले पर ज्यादा चिल्लपों या हो-हल्ला मचाना समीचीन नहीं कहा जा सकता है।
देखिए, हम सोच में कितने भी उत्तर आधुनिक क्यों न हों? अपने बेटे या बेटी के सामने क्या किसी अजनबी व्यक्ति के सामने भी खुद की ही बीवी से देह-सम्बन्ध नहीं बना सकते हैं। यानी मर्यादा आदमी को हद में रहना ही नहीं सिखलाती बल्कि अपने भीतर छिपी अमानुषिक प्रवृति का निदान भी करती है। हमारे बच्चे कब क्या देखेंगे यह सरकारी मंत्रालय तय करेगा कि हम खुद, यह विवकेधर्मी कसौटी हम सभी के भीतर होने चाहिए। बिप करते शब्द लोकमानस में अनंत काल तक स्थायी बने रहेंगे तब भी उन्हें बेरोकटोक प्रसारित करना सही नहीं है। ऐसे कार्यक्रम आदमी का सच और अंदर की असलियत सामने लाने का सामर्थ्य रखती है। ये कार्यक्रम ही व्यक्ति-व्यक्ति के व्यक्तित्व को अलागते हैं। यह साबित करते हैं कि किन कारणों से राखी सावंत या बीग बॉस वाले ठेके के किराएदार ऐश्वर्या या काजोल नहीं बन सकते। गांधी, नेहरू, दिलीप कुमार, लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन, शबाना आजमी और सचिन तेन्दुलकर बनना तो मृगमरीचका ही ठहरा। सो इस मुद्दे पर बहसबाजी करते लोगों को सोचना चाहिए कि किसी चोर के बारात में शामिल सारे लोग चोर हों जरूरी नहीं। अतः इस फैसले को अतिरेक में ले जाकर विश्लेषित करना वाजिब नहीं कहा जा सकता। मैं तो उस व्यक्ति का हमेशा समर्थन करूंगा जो खुद हत्या और हिंसा में लिप्त है किंतु अपने बच्चों को यह आदर्श शिक्षा देता है कि ‘हिंसा और अपराध करना पाप है।’ ऐसा इसलिए कि वह कम से कम अपने आगे की पीढ़ी में अपने अमानवीय ‘रक्तबीज’ का अंकुर तो नहीं बो रहा न! सो इस फैसले को ‘पोर्नोग्राफी कल्चर’ का मंगलाचरण मानना कम से कम मेरी अल्प-समझ से तो मुनासिब नहीं है।

देशी-भाषा में बोली-बात


हिन्दी दिवस बीत गया। पर मेरे जेहन में एक बात अटकी रह गई है। कोई बात किसी दिवस के भरोसे क्यों छोड़ी जाए? हिन्दी दिवस पर ही हिन्दी की बात क्यों हो? हिन्दी सप्ताह या पखवाड़ा तभी क्यों मनाएँ, जब घोषित तारीख-दिवस आस-पास या करीब हो। हमें बोलने की आजादी है अर्थात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। दूसरे शब्दों में कहें तो सांविधानिक रूप से मिले मौलिक अधिकार का अनुच्छेद 19(अ) वाला पैरा। हाँ तो खैर, आजकल खूब हो-हल्ला होता दिख रहा है कि अपनी भाषा का सिर-पैर बचाईए। क्या तो अंग्रेजी से खतरा है। पैंताने से सिराहने आ बैठी है यह गोरी-नस्ल की तथाकथित अक्लमंद जुबान। लोगबाग यह भी कहने लगे हैं कि घोर निर्लज्जता के ऐसे दिन आ गए हैं कि टेलीविज़न चैनलों पर हिन्दी की तो बोली-बात ही बंद हो चुकी है। मेहमान-मेज़बान वाले दिलचस्प कार्यक्रमों को अंग्रजीदां होस्टों-गेस्टों ने हथिया लिया है। सरकारी समाचार बोलते जीव भी हिन्दी में खुद को ‘अनईजी’ फिल कर रहे हैं वहीं अंग्रेजी भाषा में उनकी जुबान फर्राटा दौड़ती है। रेडियो के कामगारों की भी यही गत है। हिन्दी बोलते हुए जरा-सा असहज हुए नहीं कि खट से अंग्रेजी में टिपियाना शुरू कर दिए।
अब दूरदर्शन और विविध भारती के दिन भी लद गए। श्रोताओं और दर्शकों के सामने ‘ऑप्शन’ की भरमार है। झख मारकर सारी बात हिन्दी में सुनने से अच्छा है कि रेडियो मिर्ची सुने या रेडियो मंत्रा। नाम पर मत जाइए। यह पूँजी-तंत्री शब्दशास्त्र है जो मंगलाचरण तो ठेठ हिन्दुस्तानी परंपरा में करता है। बाद बाकी उसका अपना राज है, अपना साम्राज्य। हिन्दी दीवार पर टंगी है-‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जब होंगे सोचते होंगे कि क्या पते की बात कह डाली है मैने। उनकी कृति ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ पढ़कर सयानी हुई जनता आज सोच रही है काश! भारतेन्दु ने यह दुराग्रह नहीं किया होता तो देश का बच्चा-बच्चा उन्नतशील एवं सभ्यजनीन अंग्रेजी का कृत-दास होता। यदि राजा राममोहन राय विदेशी ज्ञान और साहित्य पर मोहित थे तो कुछ तो वजहें जरूर रही होंगी।

जो हो, समय के साथ समझदार होती जनता राहुल गांधी के पलटन में शामिल होने लगी है। दक्षभाषा के मामले में भिखमंगी जनता को ‘फ्यूचरटैगी प्राइम मिनिस्टर’ राहुल गांधी अंग्रेजी सीखाना चाहते हैं। भोली जनता भी भाषा वाले मामले में थोड़ा सभ्य होने को सोचने लगी है ताकि भविष्य में कभी एशियाड या ओलम्पिक हों तो उन्हें राष्ट्रमंडल खेल की तरह दर-बदर न होना पड़े। भाषा के सिपहसलारों ने ही अंग्रेजी न जानने की वजह से खेप के खेप लोगों को दिल्ली से बाहर का रास्ता दिखा दिया। मेरा तो मानना है कि ग़म खाए व्यक्ति को कुछ नया करने का गुमान अधिक होता है। सो उसने अंग्रेजी सीखने खातिर ठान लिया है तो बस-‘फैसला जिन्दाबाद’। वैसे भी-‘एक दफा किया होगा या कई दफा गुस्ताख़ी तुमने, यों कोई लड़की बेवफा नहीं होती’।
फिर भी ज्यादा सोचिए या घबराइए नहीं। मन को तसल्ली दीजिए कि जो होगा ठीक होगा। भाषा मरेगी नहीं, जिंदा रहेगी। हिन्द का जय होगा, तो हिन्दी का भी जय होगा। बराक ओबामा के मुँह से ‘जय हिन्द’ और ‘धन्यवाद’ सुनकर गर्व से अपना कान सहलाइए। इस तरह अपन का राष्ट्र हिन्दी में राष्ट्रगान गाता रहेगा। खड़ी बोली ही नहीं, खाटी देशी-भाषा में गपियाता रहेगा। मातृभाषा, जनभाषा, संपर्क भाषा, राष्ट्रभाषा, राजभाषा सभी नामों का मंगल होगा। संविधान में श्रेष्ठ भाषा के रूप में शामिल हिन्दी को ऐसे कैसे कोई निकाल बाहर कर देगा। गुदड़ी के लालों ने इस अनमोल भाषा को संविधान में एक-दो नहीं दसियों अनुच्छेद मंे बांधा है। विवेकमनुजों ने धाराओं-उपधाराओं में पिरोया है। अगर आपकी इच्छा विश्वास-बहाल करने की हो तो अनुच्छेद 120, अनुच्छेद 210, अनुच्छेद 343 से लगातार 350 तक को पलट लें। हिन्दी भाषा की अहमियत कितनी बड़ी है और इसके वर्द्धन-संवर्द्धन के लिए संविधान में लिखित रूप से क्या-क्या रोचक उपक्रम किए हैं, सबका ब्रह्मज्ञान हो जाएगा।
तब आप खुद सस्वर शैली में कहेंगे कि क्षय-रोग लगे उन कलमुँहों को जो अपनी देशीपन में बोली-बात बंद हो जाने के कहकहे लगाते हैं। आमआदमी के जुबान की भाषा छिन जाने की आशंका जताते हैं। कहने वालों को इतिहास बताने की जरूरत है। सामान्य ज्ञान के किताबों में बहुपठित राजभाषा आयोग और उसके कमेटियों द्वारा लागू सिफारिशों से उन डाहजरों को परिचित कराने की आवश्यकता है। और कुछ नहीं तो देश में राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण द्वारा निकाले गए इस तथ्य को बताने की आवश्यकता है जिसमें देश के 10 सर्वाधिक प्रसार-संख्या वाले अखबारों में सब के सब हिन्दी के है।
तो सवाल है कि हिन्दी दिवस मनाने की जरूरत किसकों है? फलतुआ में आयोजन-समारोह के नाम पर ढनर-ढनर, हुम्म-हाम और कोंय-कोंय करने का औचित्य क्या है? देशवासी हिन्दी-भाषा के लिए कोई क्रांति या जन-आंदोलन करने से तो रहे। अभी उनके पेट में अन्न का दाना नहीं है। राशनकार्ड वाले अनाज के लिए ही छीनाझपटी और मारामारी की नौबत है। भूखे पेट खलिहर बैठे इन जरूरतमंदों के लिए अपनी हैसियत भूलाने वाली शराब भी धोखेबाज लगती है। वह भी इनके जीते रहने का पक्षधर नहीं है। ये बदनसीब जो कि सौ फीसदी भारतीय नागरिक हैं जिनके पास बाजप्ता वोटर कार्ड, लाल-पीला कार्ड, नरेगा-मनरेगा कार्ड मौजूद है; भाषा के नाम पर चलते गणित को भले न जानते हों लेकिन बोलंेगे तो अपनी ही भाषा और बोली-आवाज़ में। अपनी भाषा में गरियाना-रिरियाना तो इनका मानों जन्मसिद्ध अधिकार है। ऐसे लोगों के साथ सबसे बड़ी विडंबना यह है कि ये मांगते हैं अपनेआप से दूर जाने के लिए, अपना दुःख भुलाने के लिए चंद मोहलत तो उन्हें थमा दी जाती है जहरीली शराब जिसे पी कर ये केवल टुन्न भर नहीं होते, हमेशा के लिए टन बोल जाते हैं। यह टन-टन पूरे देश में जारी है। गुगलसर्चकों के लिए विदर्भ, बुंदेलखण्ड, पलामू, कालाहाण्डी, सिंगूर, नंदीग्राम, बस्तर और दंतेवाड़ा तो सिर्फ चर्चित भूगोल भर है।
असल में हमारे सामने सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि भाषा पर भाषणबाजी करने की बजाए क्यों न सबसे पहले ऐसे लोगों को बचाएँ जिनके मरते ही मर जाती है भाषा। उजड़ जाता है लोक-जीवन से जुड़ा एक भरा-पूरा संसार। याद रखिए, इनके मरने से देश को राष्ट्रीय क्षति भले न होती हो सिवाय अखबारों में रती भर जगह छेंकने वाले एक गुमनाम ख़बर के। लेकिन देर है अंधेर नहीं कि आप जिस दिन अमेरिका और इंडिया में फर्क करना भूल जाएँगे। एक लंबी मियाद के बाद जब ताजमहल, चारमीनार, इण्डिया गेट, बनारस के घाट आदि का अस्तित्व न बचेगा। उस वक्त ये ही लोग आपके खोज, अनुसंधान और शोध का विषय होंगे। उनके होने के चिह्न तलाशेंगे आप। भाषा, बोली और न जाने ढेरों चीज आप चाहेंगे किसी भी तरह जान लेना ताकि अपनी भारतीयता को आप औरों से अलगा सके। किंतु अफसोस! आपके प्रयास असफल होंगे। और आप हताश-निराश और बदहवाश नजर आएंगे। क्योंकि बदले शब्दों, लिपियों और भाषाओं के सहारे हम उनलोगों तक कतई नहीं पहुँच पाएंगे जिन्हें गुमनाम मौत बाँटने के बाद हमने किसी किस्म का ताजमहल या दरगाह उनके लिए नहीं बनवाया। सो उनके जाते ही मिट गई देशी संस्कृति, लोक संस्कार और मिठास घुली बोली-बात।

इक सपने में देशकाल



सपना हर कोई देखता है। आज मैंने भी देखा। बस देखने में अंतर था। वह यह कि एक मोटा-मलंद आदमी बार-बार सपने देखने को कह रहा था। मानो सपना न हुआ मिस्र का पिरामिड या फिर फ्रांस का एफिल टॉवर या अमेरिका का स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी। खैर, अभी मैं आपका सामान्य ज्ञान बढ़ोतरी का जिम्मा नहीं ले सकता। सो सीधे सपने वाली बात पर आता हँू। जी हाँ, तो मैं कह रहा था यह कि सपना मुझे ऐसे दिखा रहा था वह मोटा-मलंद जैसे मदारी वाले दिखाते हैं बंदर-नाच के साथ। सपेरे दिखाते हैं जिंदा साँप का जादू-खेल। लो आपका मन है तो उस्ताद और जमूरे को भी उदाहरण में शामिल कर लो। अपन के देशी-जेबी में उदाहरणों की कमी थोड़े है। एक घोटाले का नाम लिया नहीं कि दूसरा नाम जबरिया जबान पर चढ़ बैठता है। मधु कोड़ा का घोटाला वाला कागजी घोड़ा अभी रेस में आगे चल ही रहा था कि स्पेक्ट्रम घोटाले ने उसे धर दबोचा। रेस का दस्तूर ही ऐसा है कि आगे निकलने वाला विजेता ही होता है। अभी ए. राजा विजयी मुसकान के मालिक हैं। देश के लिए उन्होंने काफी कुछ किया-धरा है। जनता उन्हें निष्पाप और निष्कलंक अवश्य साबित करेगी।
दरअसल, हर विजेता को कुछ अलग हटकर पाने के लिए बहुत कुछ गवांना पड़ता है। ए. राजा के सिराहने से संचार-मंत्री पद गया तो क्या गया भला। बस पैरों तले दबी हैसियत बरकरार रहे। फिर तो वह न्याय के लिए हर किस्म का वार-बौछार सह लेंगे। वैसे भी घोटाला की परंपरा कागज में जीती है, उसी की खाती है। और उसी की नमक भी अदा करती है। फिलहाल देश की जनता को ताज्जुब है कि सरकार क्यों इस तरह आंय-बांय बतिया रही है। मनमोहन सिंह तो ऐसे बयानबाजी कर रहे हैं जैसे कि उनकी पगड़ी उछाल दी गई हो। वे कहते फिर रहे हैं-‘किसी भी भ्रष्टाचारी को नहीं बख्शा जाएगा।’ सपने में भी मुझे हँसी आती है कि देखो, ये ऐसे कह रहे हैं जैसे देश का प्रधानमंत्री नहीं जैसे कोई मुषक-छाप ब्लॉगबाज बोल रहा हो।
देश में समस्या कम है, शोर अधिक। मुद्दे कम है किंतु राजनीतिज्ञों में हल्लाबोल मादा ज्यादा। होने को तो चवन्नी से अठन्नी कुछ है नहीं। बस खेल शुरू न हुआ कि गुल्ली-डंडा जैसा पाद पदाने का उपक्रम छेड़ दिया। सब्र करो भाई, इतनी महीनी से मुहिम छेड़ दोगे तो फिर देश में रामराज हो जाएगा। स्वराज गया तेल लेने। लेकिन अब कहने वाले को तो रोका नहीं जा सकता न! और नींद में, वो भी सपने में हों तो और भी कुछ नहीं कहा जा सकता। कौन खलल डालने जाए अपनी नींद में। नेकबंदगी का फ्लैगमार्च कर ओलम्पिक पदक थोड़े मिल जाएगा। सूचना का अधिकार तो मिल ही नहीं रहा, हाँ, बदले में मौत अवश्य मिल जा रही है। सोचजनक है न मेरी बात। आप सोचते हुए सो जाइए। विश्वास है कि आपको भी कोई मोटा-मलंद सपना जरूर दिखाएगा। हो सकता है आपको कोई परी-काया सपने दिखाए। मेरी सीमाएँ हैं कि मैं जैसा हँू वैसा ही शख्स मुझे सपना दिखाने को तैयार होता है। आप सबकी हैसियत तो माशाअल्लाह बेहद अच्छी है। सो आप स्वपनसुंदरी के साथ सपने में रमण करें। विश्वास है आप जो देखेंगे उससे देश का भला ही होगा। जैसे देश का भला हो रहा है आजकल धड़ल्ले से।

Saturday, November 20, 2010

कठघरे में इंसाफनेत्री


‘इमेजिन टीवी’ पर एक ‘रियलिटी शो’ शुरू हुआ है है-‘राखी का इंसाफ’। हर तरह के लड़ाई-झगड़े और अडं़गे-पचड़े जो अक्सर मियां-बीवी के आपसी तनातनी और तू-तू-मैं-मैं की उपज होती हैं, को अब इंसाफनेत्री राखी सावंत सलटाएँगी। हाल ही में राखी के फैसले से आहत हुए एक व्यक्ति की मौत ने इस कार्यक्रम की लोकप्रियता को बढ़ाने में काफी मदद की। इस घटनाक्रम के बाद मीडिया बाज़ार में इस कार्यक्रम की चवन्नी हैसियत को बढ़िया ‘ब्रेक’ मिला, लिहाजा यह कार्यक्रम जल्दी ही अधिकांश लोगों की निगाह में आ गया है। इससे पहले भी राखी कई मजेदार ‘स्टंट’ कर चुकी हैं जिसकी चर्चा ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह है। लोकतांत्रिक भारत का न्याय-नियंता और अपने सर्वाधिकारों में संप्रभु सुप्रिम कोर्ट को अचरज होना चाहिए कि जो न्याय-तंत्र बीसियों बर्षों से इंसाफ की आस में झोल खाते मामलों को ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ के प्रावधान के बाद भी नहीं निपटा सका है, उसे एक रियलिटी शो अपने स्व-प्रयास से रफा-दफा करने के लिए कमरकस खड़ा है। ऐसे में भला किसी को क्या गुरेज? लेकिन अफसोस! ऐसे कार्यक्रम अपने नाम में चाहे कितने भी धाँसू क्यों न होते हों, उनके साथ का पूँजी-तंत्र अपने चरित्र में बेहद अमानवीय तथा पेशेवर होता है।
स्त्री-पुरुष सम्बन्ध नैतिक और मानवीय हों शायद इसी अवधारणा को दृष्टिगत रखते हुए समाज ने विवाह-संस्था की स्थापना की होगी जो आज रिश्तों में दुराव-अलगाव और सम्बन्ध-विच्चछेद की नौबत से दो-चार है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जो बहुरानी-पतुरिया पति की मार, सास के जार और ननद-जेठानी के ताने-उलाहने को सहती हुई अपनेआप में दुबकी-सिमटी रहती थी या कि अंदर ही अंदर कुढ़ रही होती थी
वह आज टेलीविज़न परदे पर चिंघाड़ रही है। राखी के सामने न्याय की गुहार लगाती इन पीड़िताओं को अपने पल्लू का होश भले न रहता हो किंतु टेलीविज़न स्क्रीन पर तेवर में आक्रामक दिखने की इनकी लालसा प्रबल होती है। यह बदलाव हर सूरत में काबिलेगौर है जिसे ‘स्त्री-विमर्श’ के लंबरदारों द्वारा भी नोटिस में लिया जाना चाहिए।
ऐसे कार्यक्रम किन वजहों से तथा किस उद्देश्य की पूर्ति हेतु टेलीविज़न चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं, यह भी विचारणीय है। पूँजी-केन्द्रित बाज़ार थोक मुनाफे को वरीयता देता है। उसके लिए हर चीज वरणीय है बशर्ते उसमें ‘कमोडिटी’ बनने की कुव्वत हो। मजे की बात है कि राखी की मार्केट वैल्यू इधर के दिनों में जिस तरह बढ़ी है उस नजरिए से ‘राखी का इंसाफ’ सही समय पर लांच हुआ है। बहुचर्चित ‘मीका-राखी प्रकरण’ के बाद राखी ने बेहतरीन वापसी की है और खुद को बाज़ार के हिसाब से उन्नत भी किया है। वह ‘पब्लिक’ का मिजाज भाँप चुकी हैं तभी तो उनके बोल में शारीरिक हाव-भाव की तरह ही ‘बोल्डनेस’ नज़र आ रही है। वह इंसाफनेत्री बन कर किसी मामले को कितनी भी संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ क्यों न सुनती दिखंें जब फैसले की बारी आती है तो वह बोलती वही हैं जिसका बोला जाना पहले से तय है। हाल ही में ‘इंटरेस्टिंग’ तरीके से दिखाए गए सुनीता सिंह और देव भारद्वाज विवाद ने तब तूल पकड़ लिया जब यह मालूम चला कि उनका आपसी विवाद न केवल पहले से प्रायोजित था, बल्कि परदे के पीछे हुई सौदेबाजी का भी इसमें महनीय योगदान था।
आजकल टेलीविजन चैनलों पर जिस तरह के वाहियात कार्यक्रमों को दिखाने की होड़ है, उसको देखते हुए इन मुद्दों पर सार्थक तथा मुक्कमल बहस की सख्त जरूरत है। क्योंकि प्राइम टाइम के अन्तर्गत दिखाये जाने वाले ऐसे कार्यक्रमों को सिर्फ उच्छश्रृंख्लिता का पर्याय या फिर विकृत मनोभाव एवं मनोदशा का सूचक मानकर समाधिस्थ हो लेना न तो स्वयं के हित में है और न ही जनहित में। विवेकशील एवं प्रज्ञावान भारतीय खुद ही तय करें कि इस बारे में किए जाने वाले उपक्रम क्यों और कितना जरूरी है?

Sunday, November 7, 2010

सांस्कृतिक प्रतीक और अनुवाद



आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उत्तर आधुनिकता ‘ब्रिकोलेज सिस्टम’ को आत्मसात कर रहा है जिसमें भिन्न-भिन्न संस्कृतियों को आपस में जोड़ा गया है। ‘पेस्टीच कल्चर’ का भारतीयकरण जनसमाज में ‘संस्कृति के अनुवाद’ अर्थात ‘ट्रांसलेसन टू कल्चर’ के माध्यम से हो रहा है। वर्तमान संदर्भों में अनुवाद की दृष्टि से सांस्कृतिक प्रतीकों का महत्त्व बढ़ा है। भारतीय टेलीविज़न-लोक में प्रयुक्त कार्टून चरित्रों के लिए पौराणिक सांस्कृतिक प्रतीकों को चुनना संस्कृति के अनुवाद का एक विशिष्ट उदाहरण है। विदेशों में ‘टॉम एण्ड जैरी’, ‘मिकी माउस’, ‘टेल्स पिन’, ‘डोनाल्ड डक’ आदि कार्टून चरित्रों को गढ़ा गया। बच्चों को विशेष प्रिय जंतु-चरित्रों में मानवीय-गुण और स्वाभाव डालकर और अधिक प्रभावी बनाने की चेष्टा हुई। इस नए ढांचे को ‘ही-मैन’, ‘बैट-मैन’ जैसे ‘सुपर हीरो’ की भांति पहचान मिली। पूंजी-तंत्र को सबल बनाने में इन चरित्र नायकों की भूमिका उल्लेखनीय रही जिसे बाद में भारतीय जनमाध्यम ने संस्कृति के अनुवाद द्वारा अपने कार्टून-चरित्रों में अपना लिया।

विदेशी कार्टून चरित्रों की तर्ज पर भारतीय संस्कृति में लोकआस्था से जुड़े वैसे सांस्कृतिक प्रतीकों को खोजा गया जो बाल मनोरंजन के लिए सटीक नायक तो हो ही साथ ही संवेदनशील और अबोध बालमन को अपनी बहाव में बहा ले जाने में भी सक्षम हांे। ऐसे अनूठे नायक हनुमान और गणेश के रूप में मिले। ये प्रतीक ऐसे ‘इम्पटी सिम्बल’ की भूमिका में प्रस्तुत किए गए जो बच्चों के भीतर मनोरंजन, कौतुहल, उत्तेजना और चिपकू प्रवृति को बढ़ा सकें। उत्तर आधुनिक वातावरण में विकसित हुए इस संस्कृति के अनुवाद की प्रकृति ने पूंजी-तंत्र के ‘ग्लोबल टेम्परामेंट’ के अनुसार भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को अंततः अपने मीडियावी लोक में खींच लिया। अपनी बनावट-रचना में भंगुर अर्थात ‘ब्रिकोलेज’ हनुमान और गणेश जैसे ‘सुपर हीरो’ चरित्रों को जनमान्यता तुरंत मिल गई क्योंकि ये सांस्कृतिक प्रतीक भारतीय संस्कृति में सकारात्मक छवि के रूप में चित्रित हैं। ये अप्रासंगिक इसलिए भी नहीं हो सकते थे क्योंकि वैश्विक मीडिया ने इन्हें ‘टॉम एण्ड जैरी’, ‘मिकी माउस’ आदि लोकप्रिय चरित्रों के बरअक्स खड़ा किया था।
नतीजतन, आज मनुष्य की ‘ग्लोबल’ अवधारणा संस्कृति के अनुवाद के माध्यम से पूरे विश्व में फैल रही है तथा पूंजी-केन्द्रित नव-साम्राज्यवाद द्वारा भारतीय जनमाध्यमों में प्रकट भी हो रही है। वस्तुतः पूंजी-तंत्र बड़ी चालाकी से विदशी कार्टून चरित्रों को भारतीय पौराणिकता के खांचे में रखकर उन्हें लोकप्रिय बना रहा है। हमें बदलाव के इस पहलू को भी देखना होगा कि हमारे मूल्यबोध, आदर्श और आस्था के प्रतिमान माने जाने वाले सांस्कृतिक प्रतीक बड़ी आसानी से मनोरंजक तत्त्वों में बदल दिए जा रहे हैं। लिहाजा, उत्तर आधुनिक भारतीय समाज इस पूंजी-आधारित दबाव को सायास/अनायास न केवल आत्मसात करने को तैयार है अपितु सांस्कृतिक प्रतीकों के अनुवाद को अनिवार्य भी मान चुका है।

Thursday, November 4, 2010

वैश्विक मीडिया के घेरे में भारतीय संस्कृति


विश्व की तमाम संस्कृतियाँ परंपरा का अंग हैं जिसमंे साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान, धर्म, दर्शन और राजनीति सभी समाहित हैै। संस्कृति सदैव अपनी एक विशिष्ट भावभूमि के साथ भाषा में अभिव्यक्त होती है। बोले गए शब्दों में अपने क्षेत्र, जमीन, मौसम, संवेदना और भावना का असर होता है। सांस्कृतिक गौरव और विरासत भाषा को समृद्ध तथा विचार को परिपक्व बनाते हैं। संस्कृति सम्प्रेषण हेतु भाषा को उपकरण की भाँति साधती है जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक संचेतना का प्रचार-प्रसार संभव हो पाता है। आज भारत में देशज-संस्कृति और पश्चिमीकृत संस्कृति के बीच का फाँक निरंतर गहरा हो रहा है। एक तरफ तकनीक और प्रौद्यौगिकी आधारित विकास करवट ले रहा है तो दूसरी ओर भारतीय मूल्यबोध, नैतिकता, सदाचार, सयंम, अनुशासन, सद्भाव और संतोष जैसे पुरातन मूल्य कमजोर एवं विघटित हो रहे हैं। आज ज्ञान, तथ्य और जानकारियों की कसौटी स्वयं भी पूर्वग्रह से प्रेरित है जो हमें भाषांतरण, लिप्यंतरण या कहें कि अनुवाद द्धारा प्राप्य है।
मनुष्य की ‘ग्लोबल’ अवधारणा संचारगत विभेद, नस्लीय दृष्टिकोण और सांस्कृतिक विषमता की वजह से खटाई में है। सूचना-राजमार्ग पर नव-साम्राज्यवादी ताकतों का वर्चस्व अधिक है। अन्तरराष्ट्रीय संवाद और सह-सम्बन्ध को स्थापित करने वाली सांस्कृतिक गतिविधियाँ यथा-धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, संगीत, रेडियो, सिनेमा और टेलीविज़न भी इस कदर दूषित हैं कि उन्हें किसी कीमत पर निष्पक्ष और निरपेक्ष नहीं माना जा सकता है। नतीजतन, पूँजी और बाजार का वर्चस्व मनुष्य के वैचारिकी पर हमला बोल रहे हैं। संस्कृति के पुराने मापदंड और विचारधारायें जिसमें मानवीयता के अतिरिक्त देश, काल और परिवेश की सामाजिकता भी महत्वपूर्ण थीं। आज उनका तेजी से विध्वंस या सत्यानाश हुआ है। सवाल यह है कि ‘क्या इस तरह की बनावटी संस्कृति, जो हमारे खून में, हमारी परंपराओं में रची-बसी नहीं है, ओढ़कर हम क्या किसी मुकाम पर पहुँच पाएंगे या फिर एक ऐसी अधकचरी संस्कृति का विकास करेंगे जो न हमें घर का छोड़गे न घाट का।’(सचिदानन्द सिन्हा, आउटलुक)
1980 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्थापित मैक्ब्राइड कमीशन ने सूचनाओं-जानकारियों के मुक्त-प्रवाह सम्बन्धी रिपार्ट पेश की ताकि जनमाध्यमों द्वारा प्रचारित-प्रसारित संदेशों की वस्तुनिष्ठता और विश्वसनीयता के बारे में कोई संशय न हो। यह पहलकदमी भारत के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत के पास खुद भी संचार-तंत्र सम्बन्धी आत्मनिर्भरता नहीं है। चंद गिने-चुने विदेशी एजेंसियों पर आश्रित होने की वजह से वही सूचना और जानकारी भारत तक पहुंच पाती है जो ये साम्राज्यवादी देश देना या परोसना चाहते हैं। लगभग 1 अरब 20 करोड़ आबादी वाला देश भारत आज भी पूरे विश्व का वही मानचित्र और राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक भूगोल जान-समझ रहा है जो पश्चिमी राष्ट्रों के नीतियों-रणनीतियों के अनुकूल हैं। जनमाध्यमों की इस पक्षपातपूर्ण रवैए से भारतीय बौद्धिकों और चिंतकों में गहरा क्षोभ व्यापत है जो सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव के समर्थंक उन्हीं अर्थों में हैं जो संस्कृति के मूल चरित्र और स्वाभाव में किसी तरह का प्रभाव न डालता हो क्योंकि संस्कृति केवल भौतिक परिस्थितियों के परिवर्तनों का ही संवाहक या सूचक भर नहीं है बल्कि शरीर के साथ मन, आत्मा, बुद्धि और चेतना सबके लिए मेरूदण्ड समान है।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...