Monday, January 26, 2015

इस बार 'पीके' का दिमाग मरम्मत पर है...तनका ढेरका लम्बइया वाला wait pls

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इस गणतंत्र के आधे उम्र के लगभग हो चले हैं; लेकिन ससूरी कोई काम नहीं मिला। 
बेगारी में लिख-पढ़ के आप सबन के कपार दुखाई दिए; अब आप भी  राहत चाहत हौ, तो हम कही देत हैं कि हमके इरादा भी तोहन के माथा चाटे के नाई है। असल में ई गोला पर जो आदमी है न सब रंग देखत है; लेकिन जब माने के कहौ, तो अपनी दूजी रंग दिखावे लागत हौ....तो फाइनली हम डिसाइड किया कि अपन लोगन के अपनही रंग में रंगे देवे के और खुश होवे देवे के, 
तो भारत मइया की जय!!!
जरका चिचियाई के कहो...का रजीबा जैसा मरियल बोलत हौ?
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अपने देव-दीप के लिए यह कविता

इन ढलानों पर वसंत आएगा
- मंगलेश डबराल

इन ढलानों पर वसंत आएगा
हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को
फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुँधुवाता खाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफिर की तरह
गुजरता रहेगा अँधकार

चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर से उभरेगा झाँकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जाएगा जैसे बीते साल की बर्फ
शिखरों से टूटते आएँगे फूल
अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान
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भारतीय नेता प्रधानमंत्री हैं, ओबामा हमारे ‘गाॅडफादर’ नहीं हो सकते!

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अकूत पैसे और सुविधाएं मिलने पर भी बुद्धिजीवियों के लिए वैचारिक नंगापन नामुमकिन है!
यह अलग बात है कि हमारे पास बुद्धिजीवी हैं कितने?
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 राजीव रंजन प्रसाद 

लेफ्टिनेंट हडसन फिरंगी था। यह वही शख़्स था जिसने बहादुर शाह जफ़र के दोनों पुत्रों को मौत के घाट उतार दिया था। सन् सनतावन की पराजय ने मुगल बादशाहियत के अंतिम नायक बहादुर शाह जफ़र को लगभग निहत्था कर दिया था। शासक की इस स्थिति पर हडसन ने उसका माखौल उड़ाते हुए कहा था-
‘दमदमे में दम नहीं, अब खैर मांगो जान की/ ऐ जफ़र ठंडी हुई शमशीर हिन्दुस्तान की।’ 
जफ़र का उस समय कहा बड़बोलेपन और झूठी शान की निशानी मानी गई थी, जफ़र का जवाब था-
‘गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की/तख़्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की।’
विश्व-भूगोल में इन दिनों लंदन की हैसियत अमेरिकी ताकत के आगे बौनी है, तो क्या यह मानें की आज भारतीय बुलंदी की गूंज अमेरिका पूरे धैर्य के साथ सुन रहा है और उसका सर्वशक्तिमान राष्ट्राध्यक्ष भारतीय प्रधानमंत्री के साथ कहकहे लगाने में मशरूफ़ है। आज मोदी बराक ओबामा के संग-साथ गलबहियां करते दिखाई दे रहे हैं। ...तो क्या भारतीय जनमानस को नाहक चिंताओं और अपनी जिंदगी के जद्दोजहद के बीच भविष्य के फिक्र से मुक्त हो जाना चाहिए। यह सोचते हुए कि हमारे देश का नेतृत्व और आलाकमान उस अमेरिका के साथ बराबरी पर खड़ा है जिसके राष्ट्राध्यक्ष के समक्ष खड़े होने के लिए ठोस व्यक्तित्व होना जरूरी है। टेलीविज़न के अपने बयान में बराक ओबामा मोदीजी की तारीफ़ ही नहीं करते हैं; बल्कि जादू ऐसा कि वह अपनी पत्नी मिशेल ओबामा तक को ‘फैशन आइकाॅन’ के मामले में दूसरे पायदान पर रख रहे हैं। उनके मुताबिक दुनिया को फैशन का पहला सितारा मोदी के रूप में मिल गया है। दोनों एक-दूसरे को हमनाम सम्बोधन के साथ पुकार रहे हैं। यारीपन का बेमिसाल दौर टेलीविज़न पर देखते हुए मुझे तो यह लगने लगा है कि आज के ज़माने में ऐसा मित्र भाग्यशालियों को ही मिलते हैं; तो क्या मोदी भाग्यशाली हैं? क्या यह कमेस्ट्री भारत की बदहाल भौतिकी और गणित(भूख, गरीबी, निम्न स्तरीय अशिक्षा, भाषा-वर्चस्व, चिकित्सा-सुविधा, पेयजल संकट, बिजली, पर्यावरण, उन्नत प्रौद्योगिकीगत समझौते, सैन्य करार आदि के मसले को स्वयं में समेटे हुए) को आमूल-चूल बदल देंगी।

ईमानपेश मीडियाविदों और देश के समाजविज्ञानियों और राजनीतिक विश्लेषकों से राजनीति के इस नए हुक्केबाजी या दोस्ताना अंदाज पर आगे-पीछे नहीं तत्काल प्रकाश डालने की दरख़्वास्त है। ताकि हम सच को एक वस्तुनिष्ठ और प्रायोगिक व वैज्ञानिक प्रक्रिया एवं विश्लेषण के तहत देख सकें; उनका मूल्यांकन कर सकें और देश की अपनी बड़ी आबादी के लिए एक सफल संदेश दे सकें। अगर सचाई इन दृश्योंमें कूट-कूट कर भरी है तो यह जागरूक और शिक्षित लोगों का पहला कर्तव्य है कि वे अपनी जनता को सबकुछ साफ-साफ बताएं। उन्हें बताएं कि टेलीविज़न पर उतरा चेहरे का यह रंग सिर्फ तकनीकी करिश्मों का नतीजा/परिणाम नहीं है; बल्कि पूर्णतया समावेशी तथा सर्वजनीन विकास पर केन्द्रित है। जल्द ही मुल्क में नया स्वराज आएगा; अच्छे दिन की घड़ियां टिक-टिक करेंगी; और अमेरिका की तरह हम भी अपनी बड़ी आबादी की महत्त्वाकांक्षाओं को नई क्षितिज प्रदान करेंगे। यह खास और विशेष ‘सिविल सोसायटी’ के लिए शर्तिया अवसर पैदा करने के विपरीत सब हाथों को काम देगा और विकास की नई सुनहली इबारत लिखेगा। बुद्धिजीवियों से आग्रह है कि वे शब्दों की हेराफेरी कर देश की जनता को बरगलाकर राजनीति करने वालों से दूर रहने को कहें या उनकी दलीलों पर विश्वास न करने की उनमें सप्रयास जागरूकता पैदा करें। आज का वर्तमान परिदृश्य जितना रोमांचक और अतिशय सुखदायी प्रतीत हो रहा है, तो कल के लिए भी ऐसी आश्वस्ति की जा सकती है या नहीं उसका आप मूल्यांकन करें, उस पर सीधे संवाद और चर्चा-परिचर्चा करें। पूरी दुनिया को यह जताएं कि यह कमेस्ट्री जनता की जीवनरक्षक मिशनरी तैयार करने में जुटी है; न कि उसके लिए जहरीले गैस का टैंकर खड़ा करने का मन बना रही है। 
 
यदि आप आज की तारीख में यह नहीं कर सकें; उपर्युक्त बाते सही तरीके से नहीं बता सकें या उन्हें अपने भरोसे में ले सके; तो निश्चय जानिए कि आपका ज्ञानवान और मार्गदर्शक होने का पाखंड और अधिक दिन नहीं चलने वाला है। आपके प्रतिमान निष्फल होने वाले हैं; और आप कृतध्न शासक से पहले देश की जनता द्वारा शापित होंगे। 
 
अभिव्यक्ति का सांविधानिक अधिकार प्राप्त देश के पढ़े-लिखें और जागरूक लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि सावधान-मुद्रा में मुर्गे भी बांग नहीं देते; हम तो इंसान हैं।
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Sunday, January 25, 2015

पुनर्रचना के निकष पर एक लड़की

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लड़की कुदरती तौर पर लड़कों के समान ही प्रसव-वेदना देते हुए स्त्री-कोख़ से जन्मती  हैं। लेकिन लड़की अपने जन्म के बाद बार-बार रची-बुनी जाती हैं; जबकि लड़कों को जिलाया-बढ़ाया जाता है। स्त्रियों के लिए समाज की आंखों में रंगीनियत के चादर बहुपाट में फैले दिखाई देते हैं जिनके लिए खुद उसका मापदंड और निकष बेहद भेदभावपूर्ण, विषमताजनक और लिंगभेद पर आधारित है। भारतीय समाज आधुनिक इस मामले में है कि भारतीय मर्द पहले से अब अधिक उच्छश्रृंख्ल और असभ्य आचरण वाले हो गए हैं; जबकि स्त्रियों के लिए हमारे सोच का पारा/तापमन अभी भी मध्ययुगीन ज़माने की है। हम उन्हें बोलने देना नहीं चाहते, क्योंकि उनके बोलते ही हमसब मर्दों की कलई खुल जानी तय है। लेकिन अब यह जोर-दबाव एकतरफा नहीं रह गया है। औरतों ने अपना मोर्चा खोल दिया है। वह बाज़ार में घुसने लगी हैं; बाज़ार पर अधिकार ज़माने लगी और बाज़ार को अपनी इच्छानुसार अपने इशारे पर सम्बोधित भी करने लगी हैं। संभव है, मर्दों की ज़मात के इंसानी खोल में भेड़िए जो अपने खुंखार रवैए और हिंसक वारदातों के लिए जाने जाते हैं; इन स्त्रियों पर टूट पड़े; लेकिन पानी सर के उपर से निकल चुका है। अतः स्त्रियां भी अपने कदम पीछे खींचने के बजाए सीधे मुकाबला करने के लिए ताल ठोंकने में जुटी है। अब तक नैतिकता का एकतरफा पाठ किया जाता रहा है और स्त्रियां मन-मार कर सुनने को अभिशप्त रही हैं। अब समीकरण और रसायन सब पलट गए हैं। आज औरते कहेंगी और मर्दों को उनकी सुनना पड़ेगा। क्यों?

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‘‘समाज उसके लिए रंगमंच है
 और कला उसकी मेधा की क्रीड़ा है
 वह कलाकार होने के साथ मनुष्य भी है
 कहना कितनी बड़ी पीड़ा है।’’
            -डाॅ. रामदरश मिश्र

एक लड़की का अभिनयकुशल होना; कला में निष्णात होना; उसके मनुष्य होने की निशानी नहीं है। तो फिर उसके होने सम्बन्धी निशान या तारक-बिन्दु क्या है? पहचान की हाँडी में सीझती ऐसी ही लड़कियों के बारे में प्रो. कृष्ण कुमार बड़ी शिद्दत से विचार करते दिखाई देते हैं। ‘लड़की की पुनर्रचना’(hindisamay.com) नामक अपने लेख में वे एक लड़की की आत्मा, मस्तिष्क, मन और देह सबकी आपबीती अपनी कानों से सुनते हैं; तब जा कर उसे व्यक्तिगत विचार-सरणि में ढालते हैं, उसे एक मेखमाला का रूप, आकार या कि कोई ‘नज़रिया’ नाम देते हैं। उनका खुद का यह मानना है कि अध्यापकीय पेशे से जुड़े होने के कारण वे कई लड़कियों को काफी करीब से देखते रहे हैं जो सयाने होने की दहलीज पर होती हैं; जिन्हें समाज रच रहा होता है क्षण-प्रतिक्षण। बकौल प्रो. कृष्ण, ‘‘मैंने अपने अध्यापक जीवन में हजारों लड़कियों को पढ़ाया है; उनमें से ऐसी बहुत कम देखी हैं जिन पर किशोरावस्था के नाटकीय मोड़ पर लगे घाव साफ-साफ न दिखते हों। अपनी शख़्सियत को ले कर आश्वस्त लड़कियाँ सैकड़ों में एक मिलती हैं। उनमें निहित क्षमताएँ विभिन्न संस्थाओं के वातावरण में किस हद तक थोड़ा-बहुत खिल पाती हैं, यह एक कठिन प्रश्न है।’’

यह प्रश्न सचमुच कठिन है, क्योंकि समाज और पुरुष दोनों में दुरःभिसन्धि बनी हुई है। जिस कारण लड़कियाँ अपने ही दुःख और संत्रास का सही ‘डायग्नोसिस’ करने का अधिकारिणी नहीं हंै। ऐसे में, उनकी तड़प और हुक का गोलार्द्ध काफी विस्तृत और व्यापक हो जाता है। विडम्बना यह है कि सामाजिक नैतिकता का दहन-दोहन अधिसंख्य पुरुष करते हैं जबकि अग्निपरीक्षा से गुजरती लड़कियाँ हैं। यह भेदभाव मिथकीय परम्परा तक में अभिव्याप्त है। भारतीय वाड.मय में राम जैसे व्यक्तित्व को वीरता, साहस, तर्क, बुद्धि, वाग्मिता, देवत्व आदि के निकष पर श्रेष्ठ घोषित किया गया है जिन पर सीता जैसी राजपुत्री पहली ही नज़र में रीझ(कहीं ऐसा तो नहीं कि यह केवल कवि-मन का हृदय-प्रसंग हो) जाती हंै। राजा जनक के यह कहने पर कि-‘वीर विहीन मही मैं जानी।’ राम के निजभ्राता लक्ष्मण की भुजा फड़कती है और वे प्रत्युŸार क्या देते हैं, यह छोड़िए; जिस अन्दाज़ में वे कहते हैं उसका वर्णन अद्भुत है-‘‘लषण सकोप बचन जब बोले, डगमगानि महि दिग्गज डोले।’

प्रसंगवश यहाँ यह तर्क करना वाज़िब होगा कि जब प्राणियों में देवतुल्य राम जैसा पुरुष लोकलाज और लोकनिन्दा की डर से सीता को वन में छोड़ने के लिए लक्ष्मण से कहता है, तब लक्ष्मण की अनुश्रवण-शक्ति कहाँ चली जाती है? यह ताज़्जुब और खोज दोनों का विषय है। यहाँ तक कि जनसमाज में भी इस प्रसंग को लेकर कहीं कोई असंगति उत्पन्न होते नहीं दिखाई देता है। इस मिथकीय इतिहास के बिरवे भारतीय समाज में इतनी चालाकी से रोपे गए हैं कि वह अब विषवृक्ष का रूप धारण कर चुका है। प्रो. कृष्ण जनसमाज के इस चालाकी भरे वातावरण का हवाला देते हुए कहते हैं-‘‘चूड़ी की दुकान में प्रवेश करते समय लड़कियों की सामाजिक ढलाई का कार्यक्रम एक खास मुकाम पह पहुँच जाता है। जब कोई लड़की चूड़ियों के रंग और डिजाइन की विविधता देखती है, दुकान में रखी चूड़ियों की विपूल राशि में से अपने लिए चूड़ियाँ चुनती है, उन्हें पहनने के लिए अपने हाथ दुकानदार के हाथों के सामने पेश करती है, तो वह संस्कृति के एक लम्बे एजेण्डा की तामील कर रही होती है।’’

यह तामील एक लड़की के दिमाग में इस तरह टँका होता है कि वह इन बंधनों से ही ताउम्र सबसे ज्यादा प्रेम करती दिखाई देती है। यथा-फ्राॅक के गोल घेरे, ओढ़नी के चौड़े पाट, समीज-सलवार पर काढ़ा हुआ कसीदा, साड़ी पर रंगीन बाॅर्डर या छापदार डिजाइन इत्यादि। परिधान का मामला सुलटता है, तो हाथ, पैर, होंठ, आँख, चेहरे को रंगने-पोतने की बारी आ जाती है। इसके बाद फिर आभूषण का मामला सामने आ खड़ा होता है। लड़की खुद पर यही सब वारती हुई कब सयानी हो आती है, पता तक नहीं चलता है। एक लड़की बचपन के भेदभाव और अनदेखेपन को शायद ही नोटिस करती हो। उसे सर्वप्रथम इस दोहरेपन का अहसास तब होता है जब वह अपने देह में कई प्रकार के बदलाव उमगते हुए देखती है; उसे अपने ही वय के लड़कों के संगत में रहने से अलगाया जाने लगता है; यह करो और वह न करो की शब्दावली में जब उस पर एक के बाद एक चीजें थोपी जाने लगती है; या उसके हँसी-बोली के नाप को बड़े तो बड़े छोटे तक तय और नियंत्रित करने लगते हैं; उस घड़ी लड़की की पीड़ा कितनी कष्टप्रद और असह्î होती है? उसकी आत्मा पर कैसी और किस तरह की रेघारी या खरोचें उगी होती हैं; इस बारे में स्त्रियाँ ही सटीक और निष्पक्ष अभिव्यक्ति दे सकती हैं। नितान्त निजी मौके पर स्त्रियों के सन्दर्भ में अधिसंख्य पुरुष खोखले सिद्ध होते हैं जबकि स्त्रियाँ तब भी उनके प्रति आशावान और गहरे संवेदनाओं से सम्बलित होती हैं। स्त्रियों की भाषा में प्रायः वक्रता अधिक होती है, कटुता नाममात्र भी नहीं।

वर्तमान 21वीं शताब्दी के इस खुले माहौल की बात करें, तो आज भी पितृसत्तात्मक समाज लड़कियों के खुलापन को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। कोई लड़की जैसे ही किसी दुर्घटना या मानवीय-दुव्र्यवहार का शिकार होती है। तथाकथित शुभेच्छु-जन लड़कियों को सामान्य वस्त्र नहीं चादर लपेटकर चलने की सलाह देते नजर आ जाते हैं। लड़कियों को ले कर समाज के मन में असुरक्षा-बोध और अकर्मण्यता दोनों जबर्दस्त है। लैंगिक भेदभाव की पराकाष्ठा ऐसी कि घुप्प अन्धेरी रात में ‘फिल्मी शो’ देखकर लौटता लड़का चारदिवारी फाँदकर घर में घुस सकता है; लेकिन, एक लड़की अन्जोरिया रात में भी अपनी सहेली की शादी से अकेली वापिस नहीं लौट सकती है। यदि लौटती दिख गई, तो कहने वाला टोला-मोहल्ला अगले दिन दरवाजे पर हाज़िर होंगे, ‘युग-ज़माना ख़राब है, और राऊर बिटिया....., भगवान! न करे कि....,’’

किसी भी लड़की के लिए ये वाक्य सुभाषितानी नहीं कहे जा सकते है। दरअसल, यह एक प्रकार की सामाजिक-मानसिक कुंठा है जो लड़कियों को बेड़ियों में जकड़ कर ही उनकी स्वतन्त्रता को परिभाषित करता है। उनकी दृष्टि में एक लड़की का तर्कशील या विचारवान होना(जिसे प्रायः शहराती बुद्धि का मान लिया जाता है) भारतीय समाज के लिए बाँस का फूल होने जैसा है जिसके बारे में बहुश्रुत है कि यह किसी बड़ी विपत्ति या अपशकुन का द्योतक है। ऐसे में उस लड़की को तत्काल सामाजिक अपकृति या समाज के लिए खतरा घोषित कर देना आमबात है। यही कारण है कि बहुसंख्यक लड़कियाँ खुद ही मन मारकर मौन रहना सीख जाती हैं या कि अपनी ही देह में लज़्जा और संकोच को एक आवरण की तरह लपेट कर अपनेआप में सिकुड़ी-सिमटी रहने लगती है। उनके भीतर डर या खौफ इस कदर व्याप्त होता है कि उन्हें लगता है कि वह जैसे ही परिधान बदलेंगी या कि अपने पोशाक की नाप में कटौती करेंगी; नैतिक-ठेकेदार उन्हें ग़लत करार दे देंगे। और कुछ नहीं तो कोई शोहदा सरेराह यह कहता मिल ही जाएगा-‘तनी-सा जिंस ढिला करऽऽऽ...,’

कहने को तो हम 21वीं सदी के उत्तर आधुनिक समाज में हैं लेकिन प्रकटतः लैंगिक भेद, असुरक्षा-बोध, भेदभाव, दोहरापन, लांछन, सामूहिक बलात्कार इत्यादि की शिकार लड़कियाँ ही सबसे अधिक हैं। वे मौन रहकर सबकुछ करते रहने के लिए स्वतन्त्र हैं जबकि अपने मन का कुछ भी न करने के लिए अभिशप्त हैं। प्रायः लड़कियों के जिस सौन्दर्य-बोध का गुणगान/महागान किया जाता है, वह उनका नैसर्गिक गुण कम आरोपित-कर्म ज्यादा है। आभूषण धारण करने के लिए शरीर-छेदन की जिस पीड़ाजनक प्रणाली से उन्हें गुजरना होता है; वह उनकी स्वैच्छिक चयन-प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। दरअसल, ये रवायतें एक लड़की को सामाजिक उŸाराधिकार में प्राप्त है। आमोखास सभी वर्ग में आधी-आबादी को सामाजिक कारागार के भीतर ही कुलरक्षिता के रूप में अधिष्ठित किया गया है। एक लड़की अपनी कर्म-चेतना में चाहे कितना भी प्रखर, गुणी, निष्णात अथवा पारंगत क्यों न हो; वह लैंगिक-पूर्वग्रह और लैंगिक-भेदभाव से बच कम ही पाती है।

अपने इर्द-गिर्द को ही प्रतिदर्शात्मक इकाई मानकर देखें, तो कमोबेश सभी लड़की जवाबदेहियों का पठार आजीवन ढोते हुए मिल जाएंगी जबकि उनका श्रम-मूल्य ‘भारहीनता’ का शिकार है। उस पर आरोपित पारिवरिक एवं सामाजिक गुरुत्वाकर्षल बल(g और G) पीड़ाजनक है। एक लड़की भ्रम और भुलावे की जिस परिधि में जन्म के बाद से निरन्तर चक्कर काटती है, एक दिन यकायक उसे उस वृत्तीय-परिक्षेत्र से बाहर कर दिया जाता है। सोने, ओढ़न,े बिछाने का मामूली साजोसमान दे कर किसी लड़की के सम्पूर्ण मानवीय अधिकार को छीन लेना सरासर अन्याय नही ंतो और क्या है? लेकिन, न्याय की परिभाषा गढ़ने वाले होते, तो आखिरकार पुरुष ही हैं; अतः सामाजिक अन्याय उन्हीं के हितों का समर्थक और मुखापेक्षी बना हुआ है।

पितृसत्तात्मक समाज अपनी प्रवृत्ति और निर्णय में कितना पक्षपाती है; कवयित्री अनामिका का मत इसे समझने की दृष्टि से उपयुक्त है-‘‘स्त्रियों का दोहन क्यूंकि दोहरा होता है(विस्थापन का दुःख, यौन शोषण के नए सिलसिले एक साथ झेलने पड़ते हैं उन्हें), अपनी मूल भाषा से उनका लगाव भी दोहरा हो जाता है। यही कारण है कि अपनी सन्तति को क्षेत्रीय लोककथाएँ, लोरियाँ, पहेलियाँ और चुटकुले वे भरपूर सुनाती हैं। वैसे भी अतृप्त मनुष्य ही बोलना चाहता है, पर संरचनागत दबाव कुछ ऐसे होते हैं कि जो कहना चाहता है, साफ कह नहीं पाता और कई दरारें निकल आती हैं। शब्द और शब्द के अनन्तर जिसमें कई अर्थ-छवियाँ फँसी पड़ी होती हैं। स्त्रियाँ इस अतृप्ति का उपाय अधिक सर्जनात्मक और हँसमुख ढंग से कर लेती हैं। जिसे भी अधिक त्रास झेलने होते हैं, वह विपरीत परिस्थिति में भी मस्त रहना सीख जाता है।’’

कवयित्री अनामिका अपने आकलन में दुरुस्त हैं। आज हर लड़की वाकई अपने मनुष्य होने के पूरेपन को जीना चाहती है। अतएव, उसकी मस्ती और हँसी-ठिठोली में जागृति का रंग गहरा है। ‘गंगा से वोल्गा’ तक यात्रा कर चुकी ये लड़कियाँ प्रवाह में बहते जाने के विपरीत जीवनधारा में हमेशा बने रहने की इच्छुक हैं। देखना होगा कि वे शरीर उघाड़ने वाली (अप)संस्कृति का ‘कोर मेम्बर’ नहीं हैं जबकि अपनी स्वाधीनता के उजास में उन्हें अपनी आत्मा, मन, दिमाग और देह सब को मुक्त छोड़ देना क़बूल है। इन आधुनिक लड़कियों के स्वभाव में जो बेलाग-बेलौसपन दिखाई दे रहा है; वह मुक्ति का मुक्तकंठ पाठ है। ‘माइलस्टोन’ पर बिना आँख रखें आगे बढ़ती इन लड़कियों के सामने दुश्वारियाँ पहले से कहीं अधिक है, चुनौतियाँ और संघर्ष तो और भी असीमित। कुल के बावजूद निर्भय-निडर इनमें से अधिसंख्य साहसी और आत्मविश्वासी लड़कियाँ ज्ञान और चेतना का ‘कोलाज’ या कि ‘मास्टर काॅपी’ बनाने में लड़कों से काफी आगे हैं।

वैश्वीकरण के इस संकटकालीन दौर में यह भी स्पष्ट दिख रहा है कि ‘मार्केट कारपोरेटलिज़्म’ इन लड़कियों को वस्तु-छवि या कि ‘कमोडिटी’ के रूप में भुनाने की जबर्दस्त जुगत में है। बाज़ारवादी ताकतें उनकी आजादी को अलग ढंग से विज्ञापित/विरुपित कर रही हैं जिसमें उन्हें आंशिक सफलता भी प्राप्त है। तब भी बहुसंख्यक भारतीय तरुणी इन सम्मोहनास्त्रों से स्वयं को बरका ले जाने या बचाए रखने में सफल हैं। असल में, उपभोक्तावादी संस्कृति के मकड़जाल से खुद को बरका ले जाना इन लड़कियों के प्रखर चेतना और उपयुक्त निर्णय-क्षमता का प्रतीकीकरण है जो ‘डाउ जोन्स’(अमेरिकी प्रकाशन व वित्त सूचना संघ) से नहीं तय हो रही होती है। यह तो तय उनसे भी नहीं हो रही होती है जो नैतिकता के झण्डाबदार हैं या कि सामाजिक व्यासपीठ पर आसीन हैं। भूमण्डलीकृत विश्व का उपभोक्ता माने जाने के कारण यूँ तो पूरी दुनिया इन लड़कियों के कदमों का वजन नाप और तौल रही है; लेकिन, पुनर्रचना के निकष पर सवार ये लड़कियाँ अपनी गति, ऊर्जा और संभाव्य चेतना से निरन्मर अपना कदम आगे की ओर बढ़ा रही हैं। यद्यपि तराजू की तौल पर लड़कियों का वजन लगातार वजनदार सिद्ध हो रहा है, तथापि ये लड़कियाँ झूठी गुमान की जगह गर्वीली मुसकान के साथ हाट-बाज़ार में बैठी हुई चूड़ीहारिनों के आगे अपनी दोनों हाथ बढ़ाए हुए मानों कह रही है...रिंग-रिंग-रिंगा....2 रिंग-रिंग-रिंगा...रिंगा-रिंग।  

गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य पर व्यावहारिक सुभाषितानी

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कहा गया है-‘विद्या सर्वाथ साधनम्’’। 
यह भी कहा गया है कि विद्या वही है जो हमें बंधन से मुक्त करती है। 
यह भी कि ‘Learn for Live’।
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लेकिन इन सद्विचारों का अवगाहन, पालन और अनुसरण करने के लिए पेट में दाना चाहिए। चिड़ियां या पंक्षी भी भोजन की खोज-तलाश में आसमान-जमीन, डाल और पेड़ बदल देते हैं या बदल देने के लिए विवश होते हैं।
किसी भी मनुष्य के लिए ज़िदा होने का प्रश्न तथाकथित सुसभ्य और सुसंस्कृत मनुष्य होने से अधिक महत्त्वपूर्ण है। अतः अपनी जहां कीमत मिले काम करो और न मिले तो कहो ब...ब्बाय इंस्टिट्युशन! चाहे वह गुरुकुल ही क्यों न हो?
Happy Republic Day



ओ रजीबा!

हाइवे फिल्म का गाना सुन!

‘आली...आली...आली...ओ....,
जुगनी ओ...’

Mathematical Communication : Formulation & Ethnical entity of Universe


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New Approach of Natural Science 
By 
राजीव रंजन प्रसाद 
गणित हमारे लिए कठिन है, और जटिल भी।

हममें से कितने हैं जो 5 को बाइन
री में बदलना जानते हैं या कि बाइनरी से अंक में बदलने के सूत्र से अवगत हैं; लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आप कंप्यूटर ही नहीं चला सकते या स्मार्ट फोन पर ‘मैसेजिंग’ नहीं कर सकते। यह एक-दूसरे से अभिन्न होते हुए भी व्यावहारिक स्तर पर उपयोगितावादी तरजीह के हिसाब से हमारे दिमाग द्वारा नोटिस में लिए जाते हैं। मतलब कोई चीज जिस सिद्धान्त पर टिकी हुई है, उसे जाने बगैर भी आप उठ सकते हैं; चल सकते हैं, दौड़-भाग सकते हैं; यहां तक कि सो यानी आराम भी फरमा सकते हैं।
दरअसल, गणित को हमेशा हमारे समाज ने चलता ढंग से लिया है। वे(हम आधुनिक मनुष्य) यह जान पाने की ओर कभी प्रवृत्त नहीं होते कि गणित ही सभी विधाओं का मूलाधार है और मानवजातीय विकास की सारी रूपरेखा एवं जटिल संरचनाएं इसी बीजक में कैद हैं। ज्योतिष जो आजकल अपने दंभ और अहमन्यतावादी दृष्टिकोण के कारण मनुष्यों का भाग्यफल बांचने तक सीमित है; वास्तविक अर्थों में दुनिया की निर्मिति के बारे में सबसे सही और उपयुक्त जानकारीअपने गर्भ में ही छुपा रखा है। 
एक बात लें, वह यह कि पहले का मनुष्य अधिक ताकतवर था; उसके पास कार्य करने की अधिक क्षमता थी; वजन उठा सकने का अधिक सामथ्र्य था और गहराई में डूबकर अधिक चिंतन-मनन द्वारा मानसिक संतुष्टि हासिल कर पाने के उसे अनेकानेक गुण पता थे। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि हम पहले की तुलना में अधिक अस्वस्थ, बीमार और स्वयं को थके-हारे महसूस कर रहे हैं। इसका कारण है कि हमारा गणित हिसाब गड़बड़ हो गया है और हम उसमें सुधार के बारे में नहीं सोच रहे हैं। इस गणित का व्यावहारिक ज्ञान उत्तरोत्तर किताबी होते गए हैं; और यह विषय दिमागी कसरत और दांव-पेंच के अलावा कुछ नहीं माना जाने लगा है। जबकि सचाई है कि हम सिर्फ एक सप्ताह अपने सांस लेने की रफ्तार में बढ़ोतरी कर दें अथवा अपनी क्रियाशीलता में इज़ाफा कर दें, तो ताज्जुबकारी परिणाम देखने को मिलेंगे। हां, इसके लिए कुछ समय सूर्य के प्रकाश का सम्पर्क बहुत जरूरी है। 

तकनीकी-प्रौद्योगिकी के इस ज़माने में गणित को सभी मनुष्यों के जीवन का अंग-उपांग मानने की बजाए इंजीनियरों के दिमाग को चलाने वाला खुरापाती ज्ञान घोषित कर चुके हैं। यह ग़लत धारणा हमारे मन-मस्तिष्क में पैठे होने के कारण हम एक हद तक कामयाब तो हो रहें हैं; लेकिन काफी हद तक पिछड़ते भी जा रहे हैं।

आइए इस पर सिलसिलवार ढंग से बात करने का मन बनाएं। पर आज इतना ही।

दृश्य में भाव, शब्द और अर्थ => Visual Analysis : Obama vs Modi

राजीव रंजन प्रसाद
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दूरमनोभाषावैज्ञानिक रिपोर्ट

धीमे कदमों के साथ सयंत बर्ताव बरतते हुए दोनों अचानक कैमरे के विजुअल में उभर आते हैं।
बराक ओबामा और नरेन्द्र मोदी।

हैदराबाद हाउस के बाहर का यह खूबसूरत नज़ारा दोनों की आगवानी में सजीले पौधों और चित्ताकर्षक वातावरण से भरा-पूरा है। दोनों नेता इस बीच अनौपचारिक बातचीत करने में जुट गए हैं। बात की शुरुआत इर्द-गिर्द के दृश्यों के मुआयना करने से होती है। फिर बातचीज चीजों को देखने और उनके बारे में धारणा बनाने के सांस्कृतिक स्वभाव और प्रकृति पर केन्द्रित हो जाती है। नरेन्द्र मोदी अपनी मिथकों और प्रतीकों के बारे में उनके जबर्दस्त संदेशवाहक होने की बात कहते हैं। फिर व्यक्तिगत पसंद-नापसंद पर बात उतर आती है। यह सबकुछ बड़े ही सहज ढंग से दृश्य में घटित हो रहा है। सयंत, सन्तुलित और सतर्क निगााहों के साथ नरेन्द्र मोदी अपने हाव-भाव, देहभाषा, बोल-वचन कह रहे हैं। उन्हें पता है कि वह इस घड़ी पूरी दुनिया की निगाहबानी में अपने को रख पाने में सफल हो गए हैं। पत्रकारों का हुजूम दूर-दूर तक नज़र न आने के बावजूद उनकी बराक ओबामा के साथ मौजूदगी को पूरी दुनिया देख रही है।

नरेन्द्र मोदी का अधिकतम प्रयास है कि वह पूरे दृश्य में अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ मित्रवत व्यवहार करते दिखें; बेतक्कलुफ़ी के साथ खुलकर हंसते-बोलते नज़र आए। ओबामा भी मंजे अभिनयकार की तरह नरेन्द्र मोदी के रणनीति के मुताबिक कैमरे में खुद को शूट होने दे रहे हैं। बराक ओबामा थोड़े अधिक चैकस और सावधानी बरत रहे हैं। उनके रवैए में बीच-बीच में गंभीरता उभर आ रहा है।

नरेन्द्र मोदी के साथ वह चहलकदमी करते हुए एक और बढ़ते हैं। पहले से तयशुदा ढंग से उन दोनों के बैठने का इंतजाम किया गया है। दोनों नेता शाही कुर्सियों के करीब हैं। मोदीजी आसन ग्रहण करते हैं। बराक ओबामा भी समयानुकल व्यवहार दर्शाते हुए बैठ चुके हैं। नरेन्द्र मोदी चाय काढ़ने के लिए नक्काशीदार शाही केतली से गर्म दूध कप में उड़ेलते हैं और बराक ओबामा की ओर बढ़ा देते हैं।

बराक ओबामा के हाथों में घुमाव और गति दोनों अधिक है। वह हर चीज को विस्तार देते हुए अपनी ओर खींच लेते है। नरेन्द्र मोदी ध्यान से सुन रहे होने का बेहतर मुद्रा बनाते हैं। वे जब कहते हैं, तो उनके भाव-भंगिमा और देह-भाषा से शब्दार्थ निकाले जा सकते हैं; उसमें इंगित करने या कराने का भाव अधिक होता है। नरेन्द्र मोदी अपनी देहभाषा में कम समय में फुर्ती के साथ अधिक कहने का प्रयास कर रहे होते हैं। उन्हें पता होता है कि यदि कम समय में अधिक करतब नहीं दिखाया गया, तो वह फिर कैनवास में दूसरे दरजे का ‘रोल-मेकर’ होंगे; और नरेन्द्र मोदी को यह होना कतई पसंद नहीं है। इस घड़ी जिस जगह पर नरेन्द्र मोदी और बराक ओबामा चाय-बात 'सर्व' कर रहे हैं; वह पूर्णतया प्रायोजित दृश्य है। दोनों जानते हैं कि यहां बात ‘लाइन बिट्विन’ नहीं होने हैं। इस नाते यहां दोनों के सहज इंसानी सरोकार, भाव और भाषा ही शेयर होना है। बेमिसाल व्यक्तित्व के धनी दोनों नेताओं की बड़ी खासियत यह है कि दोनों अपने भाव-भंगिमा में खुशी का भरपूर इज़हार करने में पीछे नहीं रहते हैं। चाहे यह सायास घटित हो या अनायास।

भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी को ‘विज़ुअल लीडर’ कहा जाना सही होगा। वह अपने साथ शामिल होने वाले हर एक चीज को औकात में, सही मात्रा और सन्तुलन में रखते हैं। वह अपनी कमजोरी जानते हैं कि यदि एक बार उनकी चीजों पर से नियंत्रण छूट गई, तो उनके पास संभाल सकने की वैसी स्थिति और विकल्प है और न ही उतने ‘पेसेन्स’। इसलिए नरेन्द्र मोदी सार्वजनिक आइने में आने से पूर्व ‘होमवर्क’ पर अधिक ध्यान देते हैं।

वस्तुतः नरेन्द्र मोदी जिन्हें विज़ुअल माकेटिंग का उस्ताद माना जाता है; वे जान रहे हैं कि इन दृश्यों की कीमत कलात्मक प्रोट्रेटों, चित्रों अथवा आकृतियों से कई गुना अधिक है। नरेन्द्र मोदी यह जानते हैं कि देश की जनता के लिए इस घड़ी वे देवता के मानिंद हैं। पूरे देश में उनके नाम के चर्चे हैं, मीडिया में डंके हैं और पूरा देश उनके हर एक कहे-सुने शब्द से स्वयं को कृत-कृत महसूस कर रहा है। अतः मि. बराक ओबामा के बहाने वे दिल्ली के मतदाताओं को भी साध रहे हैं; उन्हें यह अहसास करा रहे हैं कि तुम्हारा नेता देखों कितना बेजोड़ और शक्तिशाली है कि जिसे पूरी दुनिया सर्वशक्तिमान मानती है; वह उससे बराबरी के दरजे पर लाकर उसे आमने-सामने बातचीत कर रहा है। क्या इतनी नजदिकीयात आज से पहले अन्य सरकारें दिखा पाई हैं? क्या अन्य सरकारें सिवाए अमेरिका के आगे झुकने अथवा सजदा करने का कुछ ठोस और निर्णायक कर सकी हैं?

फिलहाल हमारा फोकस इन दोनों शख़्सियतों के व्यक्तित्व पर है। क्योंकि कैमरे के दृश्य द्वारा भारत का सम्पूर्ण जगत जैसे अनकहे सवालों का जवाब पा रहा हो या वह इस सम्मोहन में इस कदर डूब-उतरा रहा है कि उसे न तो अभी अपनी बदहाली पर रोना आ रहा है और न ही भूख, गरीबी, स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य अत्यावश्यक जरूरतों पर ही ध्यान जा-टिक पा रहा है।

इस वक्त जैसे सबकुछ पल भर के लिए ठहर-सा गया हो। सिर्फ दो ही हस्तियां गतिमान-गतिशील दिखाई दे रही हैं; एक नरेन्द्र मोदी और दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा। ओबामा पहले ही यह जता चुके हैं कि वे भारत में अपने लिए किये गए भव्य स्वागत से अभिभूत हैं।

अभी कुछ घंटे पहले जब बराक ओबामा को लिए हुए भारतीय प्रधानमंत्री हैदराबाद हाउस के गलियारे में प्रकट हुए, तो उनकी चहलकदमी में अजब का निखार और चेहरे पर अद्भुत प्रसन्नता के भाव थे। दोनों गर्मजोशी से मिले। नरेन्द्र मोदी से हाथ मिलाते बराक ओबामा के हाथ नरेन्द्र मोदी का पीठ स्पर्श कर रहे थे। कैमरे की खासियत ही यह है कि वह कहन के मामले में सच से अधिक साफगोई बरतती हैं। कई बार कलाात्मक चमात्कार इस तकनीक के माध्यम से यथार्थ या सचाई को ‘लार्जर दैन लाइफ’ बना देते हैं।

हैदराबाद हाउस में अंदर गुफ्तगू करने जाते समय भी बराक ओबामा के हाथ सहसा नरेन्द्र मोदी के पीठ की ओर बढ़ गए थे; मानों दृश्य के संकेत मौन में कह रहे हों-‘बहुत खूब, बरखुरदार....आप और आपके सारे इंतजमात बेहद दुरुस्त और परफेक्ट टाइमिंग वाले हैं।’’





आपको बता दें कि हैदराबाद हाउस का यह प्रांगण अपनी बेमिशाल खूबसूरत और बेहद करीने रंगरोगन के लिए जाना जाता है।खूबसूरती एक ऐसी चीज है जो सबको बांध लेती है। टेलीविज़न चैनल वाले तुरत-फुरत में इन दृश्यों के लिए मुहावरों गढ़ रहे हैं।; जुबान के भीतर से कोई नया शब्दावली टटोल रहे हैं, जिसे यहां चस्पा कर वो अपनी टीआरपी बढ़ा सके। महाकवरेज में अहर्निश जुटी भारतीय मीडिया के पास ईमान-धर्म नाम की कोई चीज बची नहीं है। वह ‘पैसा फेंक तमाशा देख’ फलसफ़े को अपना चुकी है। भारतीय मीडिया का मतलब है दिल्ली और दिल्ली का मतलब है-'ग्लोबल मीडिया'।

भारतीय सन्दर्भों में यह एक सचाई है कि भारतीय मीडिया से अधिक ताकतवर है-गूगल, ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सप...क्योंकि उसकी पहुंच, रुतबा और प्रभाव उससे कई गुना अधिक है। देश की जनता भी इतनी मूढ़ नहीं है। वह जान चुकी है कि उनकी जिंदगी लोकतंत्र, मीडिया और न्यायालय के बगैर नहीं चल सकती है; इसलिए उसने इन ताकतों से पंगा लेना अथवा मुंह लड़ाना छोड़ दिया है। यह जनता का अपने तरीके का गांधीवादी प्रतिक्रिया है जिसे बुद्धिवादी जन अपनी-अपनी तरह से परिभाषित कर रहे हैं। अब देश में कहीं कोई विरोध नहीं, प्रतिरोध नहीं, आन्दोलन नहीं, गुस्सा नहीं और न ही युवा-आक्रोश। ऐसा लग रहा है मानों एक साथ सब की मती मारी गई है। युवा-प्रतिरोध पिज्जा-बर्गर वाली और रेव-पार्टी में ठुमके लगाने वाली हो गई है। भारत का पढ़ा-लिखा तबका फैशनबाज, लड़कीबाज या फिर छोटा-बड़ा कारोबारी है। वहीं दूसरी ओर, गांव टेलीविजन के भूगोल-प्रसारण क्षेत्र का हिस्सा नहीं है। अतः ग्रामीण जनता की ख़बरें मीडिया में तब आती है जब वे जहरीली शराब पीकर मरते हैं या कि पी. साईनाथ जैसा पत्रकार यह ठान लेता है कि उसे ख़बर तो हर कीमत पर गांव से ही लानी और करनी है। नतीजतन सवा करोड़ आबादी वाले इस देश को कुछ हजार लोग मिलकर चला रहे हैं; अपना झंडा गाड़ते हुए पूरी दुनिया में अपनी कामयाबी का परचम लहरा रहे हैं। मीडिया उन्हीं की गले की घंटी बनी हुई बड़ी होशियारी से लगातार बज रही है। देश ख़बरों के बरास्ते 24x7 की चाल से चल रहा है। चरैवति-चरैवति।

फिलहाल हैदराबाद हाउस के प्रांगण की चाय-पार्टी समाप्त हो ली है। नरेन्द्र मोदी उठने का मुद्रा बनाते हुए सीधे खड़े होते हैं; और मि. बराक ओबामा से कहते हैं-‘आइए, चला जाए!’

मि. ओबामा हामी भरते हैं-‘हां जी, चलिए सबकुछ आपके अनुसार बिल्कुल समय से और मुझे लगता है आपके इच्छा के तहत सब ठीक-ठाक ही रहा।’

नरेन्द्र मोदी ठठाकर हंस देते हैं। कैमरा उनकी चहलकदमी पर पैन होता हुआ उन्हें दूर जाने दे रहा है। दोनों चहलकदमी के साथ जिस रास्ते दो-तीन सीड़ियों से नीचे उतरे थे; जाने लगते हैं।

Saturday, January 24, 2015

स्मृति ईरानी: एक आदर्श बहू का राष्ट्रीय आदर्श और राजनीतिक गुरु बनने का सफ़रनामा

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मैंने कहा-‘अमेरिकन राष्ट्रपति पर एक गरीब मुल्क को इतना रुपया सिर्फ आगवानी और आतिथ्य में खर्च नहीं करना चाहिए!’
उन्होंने कहा-इसी सोच के कारण आप जैसे लोग हमेशा परेशान-सा दिखते हैं। देश की जनता को दुःख-तकलीफ हो नहीं रही; बस आप ही को खूब चिचियाहट है।’’
बनारसी स्टाइल में गरियाए, तो चूतिए सब ऐसे बोलते हैं जैसे खुद कल ही देश का गवर्नर बनने वाले हैं या उन्हें मि. बराक ओबामा के साथ मैत्री-भोज में बुलाहट आने वाला है। छोड़ो गुरु, पढ़ो आप स्मृति ईरानी के बारे में।
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नोट: राजनीति के अपने सार्वजनिक कैरियर की दृष्टि से बिजनेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित स्मृति ईरानी के जीवन एवं व्यक्तित्व से सम्बन्धित बातें महत्त्वपूर्ण हैं। खासतौर से युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के व्यक्तित्व, व्यवहार तथा नेतृत्व के सन्दर्भ में यह रिपोर्ट खुद मेरे लिए बेहद जरूरी एवं उपयोगी है। पत्रकार वीनू संधू और कविता चैधरी की यह रिपोर्ट स्मृति ईरानी की परवरिश, शिक्षा-दीक्षा, टेलीविज़न की दुनिया में सफल अदाकारी तथा उससे मिली अथवा अर्जित की गई लोकप्रियता आदि की ऐसी ही गंभीर पड़ताल करती हैं। यही नहीं यह आलेख स्मृति ईरानी के राजनीतिक समाजीकरण और सक्रियता के मद्देनज़र हाल की कामयाबियों पर भी दृष्टिपात करने में सफल है। आज की तारीख़ में स्मृति ईरानी भारतीय जनता पार्टी का ग्लैमर्स चेहरा मात्र नहीं हैं। वह चुनावों के दौरान मज़मा/भीड़ जुटाने वाली स्टार प्रचारक सिर्फ नहीं हैं; बल्कि आज वह बतौर लोकसभा सांसद जिस पद पर काबिज़ हैं; उसका लोकतांत्रिक एवं सांविधानिक महत्त्व अपनेआप में बहुत विशिष्ट और कहीं अधिक बड़ा है। निवर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी का जीवन-प्रसंग, उतार-चढ़ाव और सफलता-असफलता पर अलग से भी और बातें की जानी चाहिए; और वह संभव भी है। फिलहाल पत्रकार वीनू संधू और कविता चैधरी की यह रिपोर्ट:

बात वर्ष 2000 के शुरुआती दिनों की है, जब छोटे पर्दे के नामचीन बैनर बालाजी टेलिफिल्म्स की क्रिएटिव डायरेक्टर एकता कपूर की नजर एक युवती पर टिक गई। वह युवती उन दिनों बतौर मॉडल संघर्ष के दौर से गुजर रही थी और दो साल पहले मिस इंडिया प्रतियोगिता के फाइनल तक पहुंच चुकी थी। उस युवती का नाम था स्मृति मल्होत्रा। उस वक्त उन्हें देखकर किसी के जेहन में यह खयाल भी नहीं आया होगा कि वह पारंपरिक भारतीय बहू के किरदार में भी ढल सकती हैं। एक ऐसी बहू, जिसे देश में हजारों-लाखों माता-पिता अपने घर लाना चाहेंगे। लेकिन एकता कपूर ठान चुकी थीं कि उनके नए धारावाहिक ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ में स्मृति की तुलसी की मुख्य भूमिका निभाएंगी। ईरानी बिना ऑडिशन दिए ही इस किरदार के लिए चुन लगी गईं और पूरा धारावाहिक उनके इर्द-गिर्द ही घूमता रहा। चैदह साल बाद इतिहास एक बार फिर खुद को दोहरा रहा है। लेकिन इस बार मंच टेलिविजन का नहीं है बल्कि सियासत का है। कुछ समय पहले तक सियासी गलियारों में स्मृति (जो 2001 में विवाह के बाद मल्होत्रा के बजाय स्मृति ईरानी कहलाती हैं) का खास कद नहीं था और उन्हें बिना जनाधार की नेता कहा जाता था। लेकिन अचानक वह मानव संसाधन विकास मंत्रालय की कमान संभालने लगी हैं। उनकी उम्र महज 38 साल है और वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल की सबसे युवा सदस्य हैं।

ईरानी ने शुरुआत में ही समझ लिया था कि सत्ता में आने वालों के साथ रहना कितना अहम होता है। दिसंबर 2004 में उन्होंने मोदी के खिलाफ मोर्चा खोला था और कहा था कि-‘‘अगर गुजरात दंगों के मामले में मोदी राज्य के मुख्यमंत्री का पद नहीं छोड़ते हैं तो वह आमरण अनशन पर बैठ जाएंगी।’’ लेकिन उसी रात भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से फटकार खाने के बाद उन्होंने अपना बयान ‘बिना शर्त’ वापस ले लिया। हालांकि मोदी को आसानी से भूलने वाला या माफ करने वाला नहीं माना जाता, लेकिन ईरानी को अपवाद कहा जा सकता है, जो बेहद दुर्लभ है। मोदी ने उन्हें माफ ही नहीं किया बल्कि हरेक मौके पर वह उन्हें अपनी छोटी बहन कहकर भी पुकारते हैं। दोनों के बीच सुलह फरवरी 2005 में वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी के घर पर रात के खाने के दौरान हुई। खबरिया चैनलों के कैमरों के आगे मोदी ने उसी रात ईरानी के सिर पर हाथ रखा और उन्हें ‘गुजरात की बेटी’ कह दिया। उसके बाद से ही स्मृति का कद लगातार बढ़ता गया।
स्मृति बहुत जल्दी यह भांप जाती हैं कि किसकी सरपरस्ती में रहना सही होगा। प्रमोद महाजन के साथ काम करते हुए 2001 में उन्हें पार्टी की युवा शाखा की महाराष्ट्र इकाई का अध्यक्ष बना दिया गया। बाद में वह भाजपा महिला मोर्चा की अध्यक्ष बन गईं और 2013 में भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के पद तक पहुंच गईं। उन्हें पार्टी का गोवा प्रभारी बनाया गया और उसके बाद तमाम पुराने और कद्दावर पार्टी नेताओं को पछाड़ते हुए वह गुजरात से राज्य सभा में भी दाखिल हो गईं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की कमान मिलते ही स्मृति सबसे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर पहुंच गईं, जिसने उनकी नियुक्ति पर सवाल उठाए थे। हालांकि यह कहना भी नाइंसाफी होगी कि ईरानी को कामयाबी केवल इसीलिए मिली क्योंकि वह सही वक्त पर सही व्यक्ति के साथ सही जगह मौजूद थीं। शायद यह भांपने का हुनर भी उनके भीतर सालों की जद्दोजहद के बाद आया है। ईरानी दिल्ली के एक मध्यवर्गीय परिवार से आती हैं। उनकी मां बंगाली हैं और पिता पंजाबी। उनके पिता का कूरियर का काम था। बचपन में ईरानी काफी मृदुभाषी थीं और सादगी से रहती थीं। लेकिन 16 साल की उम्र में उनकी शख्सियत एकाएक बदल गई। उन्होंने नाटकों में काम करना शुरू कर दिया और उसके बाद कॉलेज की पढ़ाई भी छोड़ दी। उन्होंने पत्राचार से स्नातक की पढ़ाई करने का फैसला किया। जब वह 22 साल की थीं तो उन्हें मिस इंडिया प्रतियोगिता के लिए चुन लिया गया। ईरानी ने अपने पिता से 2 लाख रुपये उधार लिए और प्रतियोगिता के लिए पोशाक बनवाने के इरादे से डिजाइनर मनीष मल्होत्रा के स्टूडियो में पहुंच गईं। मल्होत्रा कहते हैं, ‘मुझे वह दोस्ताना, जोशीली, केंद्रित और प्रेरित लड़की लगी थीं।’

ईरानी मिस इंडिया की प्रतियोगिता नहीं जीत पाईं और उनके ऊपर ढेर सारा कर्ज भी चढ़ गया। वह हताश थीं, लेकिन झुकने को तैयार नहीं थीं। इसीलिए उन्होंने बांद्रा में मैकडॉनल्ड के आउटलेट में काम करना शुरू कर दिया, जहां उनका काम लोगों की बर्गर की प्लेट देना था और मेज तथा फर्श साफ करना भी। कुछ वक्त के लिए उन्होंने दिल्ली के मशहूर पटरी बाजार जनपथ पर सौंदर्य प्रसाधन भी बेचे। उन्होंने संघर्ष किया और उसी संघर्ष से सीख भी ली। आखिरकार एक दिन एकता कपूर की नजर उन पर पड़ गई। उसके बाद वह वीरानी परिवार की बहू तुलसी वीरानी बन गईं। उसी वक्त उन्हें समझ आया कि छवि यानी छाप की कितनी अहमियत होती है और यह बात वह कभी भूली नहीं हैं। शायद छवि की ही बात है कि वह संसद में लाल रंग की बड़ी सी बिंदी लगाए, मांग में सिंदूर भरे, सलीके से साड़ी पहने और उस पर भाजपा के चिह्न कमल का बिल्ला लगाए दिखती हैं। दस साल पहले जब दिल्ली के चांदनी चैक में उन्होंने कांग्रेस के कपिल सिब्बल के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़ा था तब भी वह इसी रूप में नजर आई थीं। उस वक्त वह जहां भी जाती थीं, भीड़ ‘घर-घर की कहानी, तुलसी वीरानी’ का नारा बुलंद करती रहती थी। हालांकि स्मृति चुनाव हार गई थीं, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा था। उन्होंने कहा था, ‘अब आपको मैं पहले से ज्यादा नजर आऊंगी।’

एक दशक बाद जिंदगी की सुई उसी जगह लौट आई है। ईरानी की शैक्षिक योग्यताओं पर पिछले दिनों अच्छी खासी बहस हुई है, लेकिन सच यही है कि वह उस मंत्रालय की कमान संभाल रही हैं, जो कुछ हफ्ते पहले तक सिब्बल के हाथ में था। 2004 में शायद ही किसी बड़ी राजनीतिक हस्ती ने उनके लिए चुनाव प्रचार किया था। उस वक्त उनके पति जुबिन ईरानी ही साये की तरह उनके साथ रहते थे। जुबिन उनके बचपन के मित्र हैं और 2001 में दोनों ने विवाह किया। उनके दो बच्चे हैं और जुबिन को पिछली पत्नी से एक बेटी भी है, जिसे ईरानी अपनी बेटी की ही तरह प्यार करती हैं। उनके पति ने 2004 में कहा था, ‘आगे चलकर राजनीति ही उनका मैदान होगी। उनके भीतर बहुत ऊर्जा है और वह घंटों काम करती रह सकती हैं।’ जुबिन की बात गलत नहीं है। कम से कम इस बार के चुनावों में अमेठी में तो यही दिखा। भाजपा के अमेठी मीडिया प्रभारी और स्मृति के चुनाव प्रबंधक गोविंद सिंह चैहान बताते हैं, ‘37 दिन में उन्होंने 1,617 में से 1,200 बूथों का दौरा कर लिया। इतने कम वक्त में ही उन्हें हजारों भाजपा कार्यकर्ताओं के नाम याद हो गए थे।’ अमेठी के भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए स्मृति उनकी ‘दीदी’ थीं। इसे संयोग ही कहेंगे कि वहां के कांग्रेस कार्यकर्ता राहुल गांधी को ‘भैया’ कहते हैं। एक बार एक कार्यकर्ता ने गलती से स्मृति को ‘मैडम’ कह दिया तो उन्होंने फौरन पलटकर कहा, ‘मैडम तो सोनिया गांधी हैं। मैं आपकी दीदी हूं।’

मानव संसाधन विकास मंत्रालय का दफ्तर राजधानी के शास्त्री भवन के ‘सी’ विंग में हैं। वहां वह तुलसी के किरदार में ही नजर आती हैं, जिनके हाथ में पूरे मंत्रालय की चाबियां हैं। भाजपा के ही एक नेता कहते हैं कि उन्होंने सब कुछ अपनी कुंडली में ले रखा है। बहरहाल ईरानी के मातहत यह मंत्रालय पूरी तरह काबू में है। वहां के कर्मचारी उनके हाव-भाव समझने में जुटे हैं। मसलन उन्हें पता होना चाहिए कि उनकी मुस्कान अगर आंखों में नहीं झलक रही तो वह मुस्कान नहीं बल्कि चेतावनी है। अहमदाबाद हवाई अड्डे पर एक भाजपा कार्यकर्ता के साथ ऐसा ही हुआ, जब उसने सामान उठाने में ईरानी की मदद करनी चाही। उन्होंने फर्राटेदार गुजराती में उसे डपटते हुए कहा, ‘तमने खबर छे, हू मारो लगेज जातेच उपाड़ू छू’ यानी तुम्हें पता है, मैं अपना सामान खुद उठाना पसंद करती हूं। हंसी-मजाक उनके वश की बात नहीं लगती। उन्होंने ‘मणिबेन डॉट कॉम’ नाम के धारावाहिक में हास्य भूमिका में हाथ आजमाए थे, लेकिन दर्शकों ने उन्हें पसंद नहीं किया। हाल ही में वह लाइफ इज ओके चैनल पर प्रकाषित होने वाले लोकप्रिय जनहित कार्यक्रम ‘सावधान इंडिया’ में बतौर प्रस्तोता दिखाई दी थीं। बतौर मंत्री उनके 90 दिन पूरे होने वाले हैं, लेकिन किसी वक्त भाजपा की आवाज बन चुकी ईरानी ने इस दौरान एक भी संवाददाता सम्मेलन नहीं किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के चार साल के पाठ्यक्रम पर जब विवाद चरम पर था, उस वक्त भी उन्होंने पत्रकारों से सीधे बात नहीं की। एक बार मीडिया के पास एक आमंत्रण पहुंच गया, जिसमें शिक्षा के बारे में जिला सूचना तंत्र की वार्षिक सांख्यिकी रिपोर्ट जारी करने की बात लिखी थी। न्योता अभी पहुंचा ही था कि आनन फानन में पत्र सूचना कार्यालय का एक और संदेश आ गया कि इस कार्यक्रम में मीडिया का प्रवेश नहीं हो सकता। बाद में बहाना बनाया गया कि किसी कर्मचारी की गलती से यह न्योता मीडिया के पास पहुंच गया है।

ईरानी के मंत्री बनने के कुछ दिन बाद ही पत्रकारों का एक जत्था शास्त्री भवन के दूसरे तल पर उनके दफ्तर में उनसे मिलने पहुंच गया था। उन्हें देखते ही स्मृति का पारा चढ़ गया। जो पत्रकार उनसे अनौपचारिक मुलाकात करते हैं, उन्हें भी अपने सेलफोन, कलम और नोटबुक कमरे के बाहर छोडने पड़ते हैं। डीयू में चार वर्षीय पाठ्यक्रम पर जब तीखा विवाद चल रहा था, उस वक्त उन्होंने यही कहा कि वह मामले में दखल नहीं देंगी और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ही आखिरी फैसला करेगा। लेकिन यूजीसी के चेयरमैन वेद प्रकाश का उस हफ्ते शास्त्री भवन में आना-जाना लगा ही रहा। जाहिर है कि आयोग इस दौरान मंत्रालय से ही निर्देश लेता रहा कि उसे क्या करना है। ईरानी उन दिनों डीयू के कुलपति दिनेश सिंह से भी मिलती रहीं। ईरानी ने एक बार कहा था कि वह नई भूमिकाओं में दिखती रहना चाहती हैं। अब तक तो वह इस काम में कामयाब भी रही हैं। इस साल के आखिर में आप उन्हें एकदम नई भूमिका में देख सकते हैं। फिल्म अभिनेत्री असिन की मां की भूमिका में। जी हां, वह बॉलिवुड में अपनी पारी की शुरुआत करने जा रही हैं। उनकी पहली फिल्म ‘ऑल इज वेल’ है, जिसमें अभिषेक बच्चन और ऋषि कपूर भी हैं।
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युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के व्यक्तित्व, व्यवहार और नेतृत्व आदि को केन्द्रीय आधार मानकर शोध-कार्य कर रहे शोध-छात्र राजीव रंजन प्रसाद की अतिरिक्त टिप्पणी :

भारतीय राजनीति में पद की महिमा अपरंपार है। जनमानस हर उस व्यक्ति का पांव पूजती है जिसे येन-केन-प्रकारेण महिमामंडित किया गया हो; प्रचार के बलबूते स्थापित किया गया है। राजनीति में राजनीतिज्ञों का कद तेजी से घटा है; लेकिन पेट और पाॅकेट अप्रत्याशित ढंग से भारी हुए हैं। ऐसे में आप चाहे जितने भी मनोवैज्ञानिक, मनोसामाजिक, मनोशास्त्रिक, मनोसंचारिक शोध-अन्वेषण, अनुसंन्धान, गवेषणा करा लीजिए और अपना उचित मंतव्य निष्कर्ष रूप में शोध-ग्रंथ में दर्ज कर लीजिए। अंततः ये कागजी आंकड़े, सूचना-संसाधन, संदेश, टिप्पणियां, साक्षात्कार, प्रश्नानावली, आलेख, विश्लेषण, संश्लेषण; सबका निचोड़ यही है कि इससे होना-जाना कुछ नहीं है। वह भी तब जब वह आपको अपनी योग्यता पर मिलने वाली शोध-अध्येतावृत्ति तक महीनों रूला-तड़पा कर देती है जिसके बारे में किसी से कहो, तो कहेंगे-‘भाई आजकल यही चलन में है।’ दरअसल, आजकल कामयाबी का जनेऊ पहनने के लिए उन्हीं लोगों के पैर पड़ना/लोटना पड़ता है जिन्होंने भले संस्कृति और सभ्यता पर एक किताब भी बमुश्किल से पढ़ी हो; लेकिन दुनिया भर की सभ्यताओं और संस्कृतियों पर बोलने का अधिकार उन्हें प्राप्त है, आमंत्रण और भौतिक आह-जाह से भी वही तथाकथित विप्रजन लदे-फदे हैं। बाकी बचे लोग जिनकी जुबान बंद है वह राम-श्याम-घनश्याम की कृपा से जितने दिन जिंदा रह सके रहे; अन्यथा राम नाम सत्य, तो दुनियावी क्रियाकर्म है। खैर! दुखयारियों के लिए जिग़र मुरादाबादी का मुफ़लिसी में अपनी पीठ थपथपाता यह लाजवाब मिसरा देखिए:
‘‘आपस में उलझते हैं अब शेखों बिरहमन,
काबा न किसी का है न बुतखाना किसी का।’’

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मि. बराक ओबामा से 'मन की बात'

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‘भारत में कैसी सरकारी शिक्षा, किसके लिए सरकारी शिक्षा और क्यों दी जा रही है सरकारी शिक्षा?’ 
शीर्षक से अपने अतिथि और विश्व के सबसे ताकतवर राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष मि. बराक ओबामा को
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोधार्थी राजीव रंजन प्रसाद द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट
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विषेष सन्दर्भ: भारतीय सरकारी शिक्षा-तंत्र और सरकारी शैक्षणिक-क्रियाकलाप
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(अमेरिकी भाषा-तंत्र इतना विकसित है कि वह गुजराती तक समझ लेता है, तो फिर हिंदी से क्या गुरेज !)

‘‘भारत में शिक्षा के स्तर में लगातार सुधार हो रहा है जो भविष्य के बेहतर होने की उम्मीद जगाता है। अब ज्यादा बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। जल्दी ही फ्री एजुकेशन का बिल पास होने की उम्मीद है और इससे हर बच्चे तक शिक्षा को पहुँचाया जा सकेगा। शिक्षा क्षेत्र में भविष्य को ध्यान में रखकर ही कई अहम बदलाव किए गए हैं। आईआईटी को यूनिवर्सिटी बनाने पर विचार चल रहा है। कई और आईआईटी खुल रहे हैं। शिक्षा में सुधार के लिए कई अहम कदम उठाए जाने हैं। हम जल्द ही इस पर एक रिपोर्ट देने जा रहे हैं।’’ जाने-माने भारतीय शिक्षाविद् प्रो. यशपाल ने यही कोई पांच साल पहले(2009) यह बात कही थी। आज सन् 2014 में उनकी रिपोर्ट के साथ एक और रिपोर्ट नत्थी(इम्बेडेड) है; और वह है अमेरिकी रिपोर्ट कार्ड। अमेरिका के आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय के आव्रजन एवं सीमा शुल्क प्रवर्तन द्वारा अन्तरराष्ट्रीय छात्रों के बारे में जारी की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि-‘‘सात अक्तूबर तक अमेरिका में एक लाख चैतीस हजार दो सौ बानवे भारतीय छात्र पढ़ रहे थे। अमेरिका में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या दरअसल, अफ्रीका, उत्तर अमेरिका, यूरोप जैसे किसी भी अन्य क्षेत्र में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या से ज्यादा है।’’

प्रायः अकादमिक पिछड़ेपन और शैक्षणिक गुणवत्ता को लेकर हिन्दुस्तानी जनमानस द्वंद्वग्रस्त रहते हैं। अतएव, उपर्युक्त सन्दर्भ कईयों के लिए प्रसन्नता-सूचक और आह्लादप्रदायक कहे जा सकते है; लेकिन प्रश्न यह भी है कि हमारी शिक्षा-प्रणाली कुल के बावजूद आज की तारीख़ में अपनी देसी जमीन पर पेट के बल लोटती/रेंगती हुई ही क्यों दिखाई दे रही है? भारतीय शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल की मानें, तो ‘‘एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों की रचना तो बहुत सुन्दर ढंग से की गई है; लेकिन उसके अनुरूप शिक्षकों को तैयार करने के लिए अध्यापक शिक्षण का कार्यक्रम आज भी मैकाले के रटंत विद्या वाले आधार पर चलाया जा रहा है। एनसीईआरटी ने भी अपने अध्यापन शिक्षण के कार्यक्रम में बदलाव नहीं किए। ऐसे में वे इस पुस्तक को कैसे बच्चे को पढ़ाएंगे, यह एक बड़ा सवाल है।’’ सवाल यह भी है कि जब शिक्षाविज्ञानियों का प्रबुद्ध तबका ही भारतीय शिक्षा-पद्धति के मौजूदा प्रारूप से नाखु़श है और वह इस शैक्षणिक-व्यवस्था और शिक्षा-नीति को असंगत, त्रुटिपूर्ण और अव्यावहारिक मान चुका है, तो फिर इसे चलायमान बनाए रखने पर इतना जोर क्यों दिया जा रहा है? यह भी प्रतिप्रश्न उपजना स्वाभाविक है कि इस यथास्थिति(एजेण्डा/पैटर्न/सिस्टम) से आखिर किस वर्ग या तबके का हित सर्वाधिक सधने वाला है या फिर इन दिनों सध रहा है? प्रश्न यह भी उठता है कि ज़ाहिर सचाई और उजागर आँकड़ों के उलट ‘ग्रेस माक्र्स’ दे-देकर हम अपनी शिक्षा-व्यवस्था को आखिरकार क्यों जिलाए हुए हैं? तिस पर तुर्रा यह है कि ज्ञात तथ्यों के मुताबिक सन् 1938 में ही भारत में शिक्षा प्रसार विभाग का विधिवत गठन किया गया था और श्री नारायण चतुर्वेदी पहले प्रसार अधिकारी बनाये गए थे। उस समय से अब तक न जाने कितनी सोते और जलधाराएँ इस शिक्षा-सागर से फूटी होंगी, आगे निकली होंगी और यात्रा के एक लम्बे वितान से होते हुए सहस्त्राब्दी के इस दूसरे दशक में अपना आतिथ्य स्वीकार की होंगी। ‘स्कूल चलें हम’ और ‘सब पढ़े, सब बढ़े’ के कोरे नारे एवं अभियान के साथ सहस्त्राब्दी-उत्सव सवा अरब आबादी वाले इस देश ने छककर मनाया है; फिर भी आज शिक्षा की स्थिति यह है कि समाचारपत्र, टेलीविज़न और अन्यान्य सभ्रान्त-जनमाध्यमों(सोशल मीडिया, ब्लाॅग्स, ट्यिूटर, फेसबुक आदि) में प्रायः भारतीय षिक्षण-संस्थानों, अकादमियों, विष्वविद्यालयों आदि के बारे में नकारात्मक बातें ही अधिक देखने-सुनने को मिल रही हैं। सरकार की अक्षमता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि वह जितने लोगों को हर वर्ष अध्यापकीय-पात्रता सम्बन्धी प्रमाण-पत्र सौंपती है; उतने लोगों को भी भविष्य में नौकरी देने के नाम पर हाथ खड़े कर लेती है।

स्वाधीनता के छह दशक बीत जाने के बावजूद भारतीय परिक्षेत्र का बहुसंख्यक हिस्सा अपनी बुनियादी जरूरतों और मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। कृषक क्षेत्रों के हाल-हालात और दयनीय हैं। पिछले दिनों केन्द्र को सौंपी गई खुफ़िया ब्यूरों की एक रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र के अलावा तेलंगाना, कर्नाटक, पंजाब में भी किसानों के खुदकुशी यानी आत्महत्या के मामले बढ़े हैं, वहीं गुजरात, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में भी ऐसी घटनाएँ दर्ज की गई हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि किसानों के खुदकुशी के पीछे सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि जैसे फौरी कारण तो हैं ही, पर दूसरे आयाम भी हैं जिन्हें कुदरती नहीं कहा जा सकता। किसानों पर कर्ज के बोझ, उन्हें पैदावार का वाजिब दाम न मिलने और कर नीति की विसंगतियों से लेकर आयात-निर्यात के ग़लत फैसलों तक, रिपोर्ट ने संकट के अनेक कारण गिनाए हैं। वास्तविकता यह है कि भारतीय जनमानस देसी शासन की दुव्र्यवस्था की शिकार है। वह अपने ज़िन्दा रहने की जिद, जद्दोजहद और जुगाड़ के बीच नप-पिस-खिंच रही है। अतः उसे यह कहाँ पता होगा कि एक स्कूल शिक्षक या काॅलेज में पढ़ाते प्राध्यापक को सरकार तनख़्वाह और भत्ते कितने देती है; बच्चों के अन्दर कथित नवाचार और नवोन्मेष का भाव सिरजने के नाम पर वह सलाना कुल कितनी रकम खरच रही है? पढ़ाने के नाम पर न पढ़ाते अध्यापकों-प्राध्यापकों पर सरकारी खर्च कितना बैठ रहा है?

दरअसल, आमजन तो इस मूल प्रश्न का उत्तर जानने मात्र को उत्सुक-बेताब है कि आखिर कुल बुद्धिवादी टिटिमा के बावजूद भारतीय शिक्षा-संस्थानों की सूरत बिगड़ैल क्यों है? उनमें बेहतरी के आसार क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं? सरकारी विद्यालयों-विश्वविद्यालयों का तंत्र इतना लचर और लस्त-पस्त क्यों है? यह लोकतंत्र भारतीय जनता को पेट और दिमाग दोनों से भूखे रखने-मारने की जुगत में क्यों भिड़ा हुआ है? क्या कारण है कि भारतीय योग्यता/प्रतिभा अपने होने की कीमत अपने ऊपर जबरिया अंग्रेजीपन लाद/थोप कर चुकाने को अभिशप्त है?(भारत में उच्चशिक्षा में नियुक्ति के लिए अंग्रेजी बोलना आना पहली शर्त है) लिहाजा, उन युवाओं के भविष्य खटाई में पड़ रहे हैं; और नैसर्गिक प्रतिभा कुंठित होते जा रहे हैं जिनकी पूरी शिक्षा-दीक्षा अपनी मातृभाषा में हुई है, जिन्हें अंग्रेजी पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला है। ऐसे में कोई हिन्दी अथवा हिन्दीतर भाषाभाषी विद्यार्थी अपने हमव्यस्क के संग-साथ अंग्रेजी में प्रतिस्पर्धा करने अथवा उनकी पाठ्यक्रम और वेषभूषा नीति का नकल कर पाने में कैसे सक्षम हो सकता है; एक सोचनीय विषय है। एनसीईआरटी के निदेशक रह चुके प्रख्यात शिक्षाविद् जगमोहन सिंह राजपूत यहाँ ठीक सवाल पूछते हैं कि एक स्वतंत्र, सार्वभौमिक सत्ता-संपन्न राष्ट्र, जिसके पास अनेक सक्षम भाषाओं और संस्कृति का अद्वितीय भंडार हो, अपने युवाओं के अपनी भाषा में अपनी योग्यता सिद्ध करने से वंचित करेगा? लेकिन यह विडम्बना की बलिहारी ही है कि नीतिगत बाध्यताओं और सरकारी शासनादेशों की मजबूरियों को दिखाकर सरकारी पहरुए प्रायः यह खुलकर विज्ञापित करते हैं कि-‘शुद्धता/विशुद्धता का वास्तविक मानदंड और निर्णय का प्रामाणिक आधार अंग्रेजी भाषा, लिपि और उसकी अपनी बरती जाने वाली ब्रिटिशिया(अब अमेरिकन)कार्यशैली, क्रियाकलाप, वर्तनी और शब्दावली ही होंगे?’

इस जगह प्रो. यशपाल का ही एक कथन याद आता है जो उन्होंने यही कोई एक दशक पहले(मार्च, 2004) शिक्षा के सन्दर्भ में लोकतंत्र को उसका मूल दायित्व बताते हुए कही थी-‘‘हमारे देश में लोकतंत्र तो है लेकिन हम समाज में असमानता की भावना को आश्रय दे रहे हैं। हम धर्म, जाति और आय के आधार पर दूसरों से अलग दिखना चाहते हैं। हमारे लोकतंत्र के कई अंग इसी हीनभावना से ग्रस्त हैं। यह हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विफलता है कि वह आज तक अपनी जनता को शिक्षित करने के लिए शिक्षा की बुनियादी संरचना विकसित नहीं कर पाया है।’’ पांच सालों के भीतर(2004-09) प्रो. यशपाल के शब्दार्थ भले बदल गए हों; लेकिन भारतीय शिक्षा जगत की स्थिति आज भी(2014 में) कुछ खास नहीं बदल सकी है। आखिर क्या कारण है कि जहां 1995 ई. में निजी क्षेत्रों में शिक्षण-प्रशिक्षण हेतु 2000 से भी कम शिक्षण संस्थान थे; आज वे 14 हजार के लगभग हो चले हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक रिपोर्ट के मुताबिक उनकी गुणवत्ता मानक/स्तरीय नहीं है, तो भी वे दिन-दुगनी-रात चैगुनी की गति से फल-फूल रहे हैं। आज भी सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का टोटा है और कुछेक राज्यों में तो पचासेक विद्यार्थियों पर सिर्फ एक शिक्षक का हिसाब(50ः1) फिट बैठता है। यदि समग्रता में शैक्षणिक हाल-हालातों का जायज़ा लेना हो, तो विश्वविद्यालीय अकादमिक संस्थानों की ओर रूख करना आवश्यक होगा। राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रमाणन परिषद(नैक) द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट में इस सचाई को बड़ी साफगोई से स्वीकार किया गया है कि देश में बमुश्किल सौ से भी कम विश्वविद्यालय गुणवत्ता परीक्षण की कसौटी पर खरे उतरे हैं, जबकि कड़ी मशक्कत के बाद देश भर में से छाँटे गए सिर्फ 2910 काॅलेज ही ‘नैक’ के मानदण्ड पर खरे उतर सके हैं अथवा तत्सम्बन्धी अर्हताओं को पूरा किया है।

यहां भारतीय शिक्षा नीति का उपयुक्त विश्लेषण-मूल्यांकन करना समीचीन होगा, ताकि इसके मूल कारणों के तह तक पहुँचा जा सके। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी (नई)शिक्षा नीति पुरानेपन का शिकार हो गई है या फिर नएपन की भौड़ी चाहत(‘थोथा चना बाजे घना’ कहावत वाले अंदाज में) ने पुरानी नींव को ही अपनी जड़ यानी बुनियाद से बेदखल कर दिया है? यदि पुराना वर्तमान का भार वहन करने में समर्थ है, तो वह व्यर्थ कतई नहीं है। अपनी परम्परा को पुरातन कहकर छोड़ा नहीं जा सकता है। क्योंकि परम्परा कोई थोपी हुई चीज नहीं है; यह विकास और बदलाव की स्वाभाविक प्रक्रिया है। बकौल मृणाल पाण्डेय, ‘‘भारतीय परम्परा ने इसीलिए चिन्तकों और विश्वासियों में फर्क किया है। हमारे यहाँ बुद्ध, महावीर से लेकर गाँधी तथा जेपी तक चिन्तकों के शुरू किये उदारवाद-विवादों, विश्लेषणों और खंडन-मण्डन से ही परम्परा और धर्म दोनों की सनातन धारा की गहराईयाँ छानी गई और उनका कूड़ा-कचरा हटाया जाता रहा है। ज्ञान की धारा को परिष्कृत करने और उसके प्रवाह को निरन्तर बनाने को ऐसी विधियाँ आज भी प्रामाणिक हैं और उनकी पहचान यही है कि अंततः वे प्रगतिशील हैं। वे बंधन नहीं रचतीं, बंधनों से मुक्त करती हैं।....गाँधी का धर्म भी उनकी राजनीति की नैतिकता का मूलाधार और उसकी भीतरी ताकत का स्रोत रहता आया है। उस तरह की शक्ति के बिना साहित्य और कलाएँ ही नहीं, राजनीति और प्रशासन भी कैसे अनैतिक, स्वार्थी और दमनकारी बन जाते हैं, इसके प्रमाण हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं।’’ लेकिन ये बातें दुविधाग्रस्त/भ्रमित भारतीय समाज के पल्ले नहीं पड़ रही है। विडम्बना यह भी है कि हम परम्परा को ठीक ढंग से जानते-पहचानते ही नहीं है। और इस जानकारी के न होने का मुख्य कारण अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी स्थानीयता, अपने लोग, अपने समाज और राष्ट्र से हमारा दिन-ब-दिन लगाव अथवा अपनेपन के अहसास का कमत्तर होते जाना है। यानी हममें से अधिसंख्य लोग यह भूल चुके हैं कि परम्परा दरअसल सामूहिक विमर्श, संवाद, सह-अस्तित्व, संघर्ष और किसी हद तक आत्मदान का परिणाम है। परम्परा बदलते कालक्रम, बाहरी सम्पर्क, नवीन सम्पर्क, नूतन ज्ञान, वैचारिक समृद्धि, विकास के अवसर और जीवन-संघर्ष के बदलते रूपों का नाम है। यह भी कि परम्पराएं प्रायः धर्म-मजहब की छत्रछाया में जीती, पलती तथा विकसित होती हैं। यहां धर्म-मजहब का अर्थ-अभिप्राय विश्वदृष्टि की सार्वभौम चेतना से है, उसका सम्बन्ध वैश्विक मानवतावाद से है। अक्सर संकुचित दायरे में परिभाषित की जाने वाली वर्गीय-सामुदायिक अवधारणा और साम्प्रदायिक अलगाव राजनीति-प्रेरित होती हैं। इस किस्म की असहिष्णु मानसिकता और अलगाववादी सोच देश में पिछड़ेपन को बनाए रखने अथवा आमजन पर अपना वर्चस्व-प्रभुत्व थोपने का प्रमुख औजार मात्र है। दम्भपूर्ण सामन्ती एवं पुरोहितवादी सोच-स्वप्न इसी माध्यम से पनपती-फुनगती हैं; हमें लोकतंत्र के जुमले में ‘स्वतन्त्रता’, ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ का पाठ पढ़ाकर फाँसती हैं; जबकि वे स्वयं शीतकक्षों(एयरकंडिशनिंग रूम) में ऐश-मौज कर रही होती हैं। इन्हीं का पहुँचा पकड़कर ऐय्याश नौकरशाह, बौद्धिक पुरोहित और शिक्षा नीति निर्धारकों का गट-गुट शिक्षा-माफिया बने फिरते हैं; जबकि समूचा देष अपने नौनिहालों के हाल पर रो रहा होता है।

कई मर्तबा ऐसे सत्तासीन लोग राष्ट्रीय नायकों की (नकली)प्रशंसा और मातृ-देश की जीवन-शैली और लोक-संस्कृति को दूसरों से बेहतर बताकर नस्लीय अहंकार हमारे मन-मस्तिष्क में जबरिया पेसते हैं। लेकिन देशभक्ति की यह नकली भावना हमारे संस्कार को समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने की बजाए हमारे घमण्ड को बचपन से लेकर वृद्ध अवस्था तक पोसती है। इसी तरह की विद्रूप एवं विसंगतिपूर्ण स्थिति सामाजिक समानता, न्याय और समान भागीदारी को लेकर रचे-बुने जाते हैं। विशेषतया भारतीय अकादमिक ढाँचें में जातीय व्यवस्था का ‘आॅक्टोपस’ की तरह पनपना अपनेआप में घनघोर अराजकता और अन्याय का संकेतक है। नतीजतन, ‘‘भारत में कबीर, सावित्रीबाई फुले, ज्योतिबा फुले, शाहूजी, पेरियार आदि जननायकों का विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों से लगभग गायब होना यही बताता है कि भारतीय अकादमिक जगत में सामाजिक न्याय, हिस्सेदारी जैसे गंभीर मसलों पर किस तरह के और कौन लोग बैठे हुए हैं। इसी भेदभावमूलक समाज से निकल कर बराबरी की बात करने वाले इन विचारकों के विचारों को बौद्धिक विमर्श में जगह देने की बजाय आज इस बात में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई देती है कि कैसे इस शिक्षा-व्यवस्था के सवर्णवादी चरित्र को बरकरार रखा जाए।’’ ऐसे में यदि यह सवाल उठने लगे कि उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थियों को सामाजिक समरसता और वर्गीय भेदभाव के उन्मूलक निर्गुण संतों के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए, तो स्थिति और भी अजीबोगरीब और असुविधाजनक हो जाएगी। यानी अपौरुषय वेद के बखानियों के लिए वेद के अतिरिक्त उपनिषद्, पुराण, मिथक, जातक कथाएँ, हितोपदेश आदि का गुणगान-पाठचर्या स्वीकार्य है लेकिन अपनी देसी माटी में जन्में साधारण संत-समाजियों का फ़साने में ज़िक्र भी सनातनी जिह्वाधारियों और शाश्वत कर्मकांडियों के लिए किसी अपशकुन से कम नहीं है। ऐसे में यह कहाँ संभव दिखाई देता है कि आप कमाल, कमाली, पद्मनाभ, तत्त्वा, जीवा, संतज्ञानी, जागूदास, भागोदास, सुरतगोपाल, धर्मदास, दादूदयाल, भीखा साहब, पलटू साहब, मलूकदास, दयाबाई, सहजोबाई आदि निगुण संतगुनियों पर अकादमिक सेमिनार-वर्कशाप कराने के अतिरिक्त इन्हें अकादमिक महत्त्व और प्रतिष्ठा भी दिला सकें जिसके वे पूर्णतया हकदार या कहें दावेदार हैं।

यह सचाई है कि ‘‘भारत के चीन के मुकाबले पिछड़ने का मुख्य कारण उसके द्वारा जनतांत्रिक व्यवस्था को अपनाना है। भारत ने जनतंत्र जरूर अपनाया है। मगर वह वास्तविकता कम, औपचारिकता ज्यादा है। जनतांत्रिक-सांविधानिक कमजोरी के मुख्य कारण भ्रष्ट्राचार, अफसरशाही, असहिष्णुता और विवेकहीन दृष्टिकोण है। देश कैसे आगे बढ़ सकता है जब कायदे-कानून और विवेक के बदले आधारहीन विश्वासों को नीतियों और निर्णयों का आधार बनाया जाता हो? नागरिक-नागरिक के बीच जाति, क्षेत्र, भाषा, लिंग और धर्म के आधार पर भेद किया जाता हो? यहाँ भाषा और धर्म के भेद जबर्दस्त है। स्वाधीनतापूर्व धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ और स्वाधीनता के बाद भाषा के बँटवारे ने राष्ट्र का अंतःविभाजन राज्यों में किया। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि दुनिया का कोई भी देश बिना धर्म को राजनीति और शासन से अलग रखे आगे नहीं बढ़ा है। यूरोप के पुनर्जागरण और प्रबोधनकाल के इतिहास को हम देखकर कुछ सबक ले सकते हैं। फ्रांस में वाल्तेयर, रूसों आदि और इंगलैण्ड में फ्रांसिस बेकन आदि ने जो कुछ लिखा उनकी वहां आर्थिक आधुनिकीकरण का मार्ग प्रशस्त करने में कम भूमिका नहीं रही। हमारे यहां इसके विपरीत दकियानुसी विचारों और उनके पोषक तथाकथित संतों, स्वामियों, आचार्यों, तांत्रिकों, मुल्ला-मालवियों और नेताओं को राज्य के कार्यों और नीतियों पर प्रभाव डालने की खुली छूट है। ऐसा इटली में भी नहीं होता जहां पोप विराजमान है।’’ इसी प्रकार भाषा का प्रश्न गौरतलब है। आजकल जिस तरह अकादमिक संस्थानों के बाहर-भीतर अंग्रेजी का बोलबाला जोरदार है; वह वस्तुतः भारतीय भाषा-व्यवहार, सम्पर्क और जनसंचार की वास्तविक वस्तुस्थिति नहीं है। साहित्यकार और चिंतक विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में यह बात रखें, तो ‘‘अंग्रेजी का वर्चस्व सबसे निम्न अंक पर पहुंचता है चुनाव के दिनों में। और राजनैतिक नेताओं का भारतीय भाषा प्रेम चुनावी सभाओं में मुखर होता है। उस समय अंग्रेजी समर्थक अंग्रेजी, अखबारों, रेडियो या दूरदर्शन में ही छिपते-छपते हैं। और यही हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं की वास्तविक शक्ति है। भारत की कितनी जनता हिंदी समझती है या नहीं। वास्तविक हिंदी भाषी क्षेत्र की सीमा और उसका विस्तार कितना है, इस सबका ठीक-ठाक पता चुनाव में चलता है। हमारे लोकतांत्रिक ढांचे की सबसे जीवंत चीज चुनाव हैं-बेशक कुछ कमियों, खामियों के बावजूद।’’

दरअसल, ‘मनसा वाचा कर्मणा’ के स्तर पर स्खलन अंततः भ्रष्ट आचरण और प्रवृत्तियों को ही प्रश्रय देते हैं। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने ‘आलोचना’ पत्रिका(1967) में इस सम्बन्ध में अपनी अभिव्यक्ति देते हुए लिखा था-‘‘पावन वस्तु कैसे भ्रष्ट होती है इसका उदाहरण है स्वयं विद्या, मानवीय सम्बन्ध किस प्रकार ‘नकद पैसे कौड़ी’ के हृदयशून्य व्यवहार में बदल जाते हैं इसका उदाहरण है गुरु-शिष्य सम्बन्ध, पेशे से श्रद्धा का प्रभामण्डल किस तरह छिन जाता है इसका मूर्तिमान प्रतीक है स्वयं शिक्षक और निरन्तर क्रांतिकारी परिवर्तन का उदाहरण उपकुलपतियों के रोज-रोज परिवर्तन से बढ़ कर और क्या होगा? जिस प्रकार एक जीवन्त सामूहिक शिक्षा-परिवार विश्वविद्यालय नाम की आमूत्र्त इकाई में बदल गया उसे देखकर क्या यह समझने में कोई कठिनाई रह जाती है कि पूंजीपति वर्ग के स्पर्श मात्र से जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है?’’ आधुनिकता के अंधमोह में फंसे लोगों(जिन पर अंग्रेजीयत अथवा पश्चिमीपन आवश्यकता से अधिक हावी है) को हमारे देसी चिंतकों, विचारकों और बौद्धिक लेखकों ने बार-बार आगाह किया है कि शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव के लिए रचनात्मक धरातल पर सर्वप्रथम स्थायी एवं स्थानीय क्रियान्वयन अत्यावश्यक है। यूँ तो दिखावटी या बनावटी लहजे में हमारे देश में शिक्षा का प्रसार करने के लिए तमाम सरकारी कोशिश जारी है; व्यक्तिगत स्तर पर भी शिक्षा-केन्द्रों की स्थापना का प्रयास हो रहा है, लेकिन इन सब धमार्थ या जनसेवार्थ किये जा रहे पुण्यकार्यों के पीछे कोई भी सार्थक नीति नहीं है।

यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि सार्थक सिद्ध होने के लिए संकल्प-विकल्प की चेतना से पूरित होना आवश्यक है। समकालीनता अथवा वर्तमानता से झूठी प्रतिस्पर्धा या अंतःविरोध सही नहीं है लेकिन इनका अंधानुगामी बनना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है। आज विचार-वैपरीत्य से लैस इन अहमन्यतावादी ताकतों से सीधे टकराने की जरूरत है। यह यथार्थ-बोध युवाओं को सबसे पहले होना चाहिए। इस घड़ी ‘ग्लोब’ का सारा-आकाश समतल हुआ दिख रहा है। यानी-‘दि वल्र्ड इज फ्लैट’। ऐसी धारणाओं का वर्चस्व होने से संभव है कि उपर्युक्त बातें ‘यंग फ्लेवर’(युवाओं) के लिए आदर्श साबित नहीं हो, यह दरअसल, हमारी चेतना के असन्तुलित होने की निशानी है। जब व्यक्ति आत्म-चैतन्य की स्थिति में नहीं होता, तो उसे पराधीनता में भी ‘इन्ज़्वाय’ का ही बोध होने लगता है; गैर-बराबरी का गुलामी खटना भी उसे वाज़िब लगने लगता है। वह अपने समय के सवालों, समस्याओं, मुद्दों आदि से साँठ-गाँठ करने लगता है। वह उन सभी चीजों के प्रति किंकर्तव्यविमूढ़ बने रहता है जो उसके सोच के विपरीत पसरे हुए हैं। जबकि वास्तविकता में शिक्षित जनता ज्यादा गहराई से सोचती है और जब जनता सोचना शुरू करती है तो मक्कार सत्ताएं भयानक रूप से ध्वस्त हो जाती हैं। अतः सरकार नहीं चाहती की जनता एक खास ढंग की शिक्षा पाकर एकजुट और एकमत हो सके। बगैर किसी नीति के शिक्षित जनता व्यक्तिगत हितों के सामने सामूहिक हितों की परवाह नहीं करती और इस हालत में किसी एक की हानि को सामूहिक हानि के रूप में भी नहीं देख पाती। आज भारत की जनता सामूहिक हानि को भी व्यक्तिगत धरातल पर लेकर कन्नी काट जाती है, क्योंकि उसे व्यक्ति और समूह को जोड़कर देखने ही नहीं दिया गया है। यह वाक्य अस्सी के दशक में शिक्षा की वर्तमान स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए महेश्वर महान ने कही थी।

समाजमनोविज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो ''भौतिकवाद की अंधी दौड़ मे कहीं न कहीं युवा भी फंसता चला जा रहा है। पश्चिमीकरण के पहनावे और संस्कृति को अपनाने में उसे कोई हिचक नहीं होती है। आज किशोर भी 14-15 वर्ष की आयु में ही ड्रग्स, रेव पार्टी और डिस्कों का आदी हो रहा है। नशे की बढ़ती प्रवृत्ति ने हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों को जन्म दिया है। जिससे इस युवा-शक्ति का कदम अधंकार की तरफ बढता हुआ दिख रहा है। युग तेजी से बदल रहा है, परंपराएं बदल रही है। मूल्यों के प्रति आस्था विघटित हो रही है। तब ऐसा लगता है कि सब कुछ बदल रहा है। इस बदलावपूर्ण स्थिति में बदलाहट-टकराहट टूटने से पूरी युवा पीढ़ी प्रभावित हो रही है। दुःखद आश्चर्य तो यह है कि वर्तमान भौतिकवादी वातावरण में चरित्र-निर्माण की चर्चा बिल्कुल गौण है। राष्ट्र की प्राथमिकता स्वस्थ, प्रतिभाशाली युवा होने चाहिए, न कि यौन-कुण्ठा से ग्रस्त लुंजपुंज विकारी समाज। हम सभी अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, साइंटिस्ट, सी.ए. और न जाने, क्या-क्या तो बनाना चाहते हैं, पर उन्हें चरित्रवान, संस्कारवान बनाना भूल चुके हैं। यदि इस ओर ध्यान दिया जाए, तो विकृत सोच वाली अन्य समस्याएं शेष ही न रहेंगी।’’ हमें थोड़ा स्थिरचित्त होकर सोचना होगा-क्या यही हमारा वास्तविक लोकवृत्त है? स्टीफंस काॅलेज में दाखिला लेने वाले एक विद्यार्थी से एक रिपोर्टर ने संस्कृति के बारे में पूछा, तो उसने सहज ही कहा था-‘‘संस्कृति के बारे में मुझे कुछ भी नहीं मालूम है। पुराने ज़माने के राजा-रानी और लोग जिस ढंग से जीवन जीते थे शायद उसे ही संस्कृति कहते हैं। मैंने महाभारत और रामायण सीरियल टीवी पर देखा है। वे चीजें मुझे संस्कृति के करीब लगती हैं।’’

यह नज़रिया 55 करोड़ की आबादी वाले भारतीय युवजन का प्रतिनिधि सोच हो, यह जरूरी नहीं है; लेकिन यह पूर्णतया सत्य है कि 21वीं शताब्दी का वर्तमान देशकाल उस भूतचक्र से बिल्कुल विच्छिन्न हो चुका है जिसे भारत की सनातनकालीन बुद्धिमता कहते हैं। सांविधानिक तंत्र में लोककल्याण और लोकमंगल की भावना का जिक्र अवश्य है; किन्तु उसका यथार्थबोध और मूल्यबोध तेजी से गायब हो रहा है। आज हम यह भूलते जा रहे हैं कि भारतीय दर्शन जो कि मूलतः ‘सत्य’ और ‘ऋत’ पर टिकी चिन्तन-प्रणाली हैं; की आत्मिक रक्षा कितनी जरूरी है? भारतीय दर्शन की सबसे बड़ी बात यह है कि यह हमारे लोकदृष्टि से निर्मित है; जिसके माध्यम से हमें सत्य का बोध होता है, यथार्थ की वास्तविक प्रतीति होती है। हम जिस ‘सत्यमेव जयते’ को मुण्डकोपनिषद् से लिया गया बताते हैं; उसके बारे में मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि भारतीय दर्शन में सत्य कोई जड़ चीज नहीं है बल्कि वह ऋत यानी संचालक तत्त्व की बीज-प्रकृति अर्थात् व्यवहारजन्य स्वाभाविक अभिव्यक्ति ही है। आधुनिक प्रयोग और प्रगति के वेग को बिना मंदित किए हुए हम थोड़े प्रयासों से अपनी युवा पीढ़ी को संस्कारित कर सकते हैं; उन्हें संभाव्य चेतना के आकाशदीप में स्वतंत्र विचरण करने के लिए उन्मुक्त कर सकते हैं। यह महती जिम्मेदारी पूर्णरूपेण वैज्ञानिक रीति-नीति से निभानी होगी। समकालीन चुनौतियों के मद्देनज़र अपनी युवा पीढ़ी को यह अहसास दिलाना होगा कि ‘‘हमारी संस्कृति में वे सब तत्त्व हैं जिनकी सहायता से हम आधुनिकतम जीवन पूरा किन्तु सम्यक उपभोग कर सकते हैं। यह भी बड़ी शाइस्तगी के साथ उन्हें महसूस कराने होंगे कि यदि हम अपनी श्रेष्ठ संस्कृति में वापिस जाना चाहते हैं तब हमें अंग्रेजी के मोहपाश से मुक्त होकर, अपनी भाषाओं में वापस जाना पड़ेगा। विश्व के श्रेष्ठ विद्वानों यथा शोपेनहार, एल्डस हक्सले, विलियम जोन्स, टी.एस. इलियट, टायनवी, आन्द्रे मालार्मे, जोसेफ कैम्पबेल आदि अनेक श्रेष्ठतम विद्वानों ने, घोषित किया है कि भारतीय दर्शन तथा संस्कृति श्रेष्ठतम है। 

     किसी भी देश की शिक्षा-नीति के प्रचार-प्रसार और अभिसरण(कन्वर्जेंस) में जनमाध्यमों(मीडिया) की भूमिका असंदिग्ध है। फिर भी आज जिस तरह भारतीय मीडियाशास्त्री मार्शल मैकलुहान के कहे ‘मीडियम इज दि मैसेज’ के प्रति अतिशय उतावलापन दिखाते हैं वह यथार्थ कम विभ्रम अधिक नज़र आता है। आज की प्रचारवादी संस्कृति ने मीडियावी वातावरण और उनके द्वारा परोसे जा रहे विषयवस्तु को इस कदर भोज्य/भोग्य बना दिया है कि उससे किसी किस्म की मौलिकता, नवीनता, तथ्यपरकता, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता, पारदर्षिता आदि समाचारीय अंतःदृष्टि की अपेक्षा करना ही सही नहीं है। वरिष्ठ प्राध्यापक और मीडियाविद् हेमंत जोशी मीडिया की अहमियत और उसकी भूमिका को शिक्षा के सन्दर्भ में जिस तरह देखते हैं वह बेहद उल्लेखनीय है-‘‘अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता की कमान संभालते ही कुमारमंगलम बिड़ला और अनिल अंबानी के नेतृत्व में कुछ बुद्धिजीवियों से भविष्य की शिक्षा नीति पर दस्तावेज तैयार करवाया था। यहाँ इस बात का जिक्र इसलिए आवश्यक है कि हम जनतंत्र और प्रशासन के बीच की कड़ी को देख सकें और इस बात की भी जाँच कर सकें कि इन दोनों को अधिक या कम जनतांत्रिक बनाने में मीडिया की क्या भूमिका होती है। जब देश में शिक्षा दिन-ब-दिन महंगी होती जा रही है, शिक्षा का स्तर गिरता दिखाई पड़ रहा है और सरकार बड़ी संख्या में विश्वविद्यालय, आई.आई.टी. और मेडिकल कॉलेज खोलने का निर्णय ले रही है, तब पुरानी संस्थाओं को समाप्त करके एक नई समेकित संस्था बनाने का विचार तो नेक है, लेकिन वह कहाँ तक व्यावहारिक है इस पर विचार करने की आवश्यकता है। किसी भी राष्ट्रीय स्तर के विमर्श में अधिकाधिक लोगों की भागीदारी मीडिया के बिना संभव नहीं है। विश्व भर में आजकल सुशासन की जो अवधारणा बनी है, उसमें नागरिक समाज की भागीदारी पर विशेष जोर दिया जा रहा है। अनेक स्तरों पर देश-विदेश में स्वयंसेवी संगठन ऐसे कई काम कर रहे हैं, जो सरकारों को करने चाहिए। इसके अलावा अनेक संस्थाए एवं लोग विभिन्न सामाजिक मुद्दों की वकालत और प्रचार के काम में भी लगे हुए हैं। एक समय था, जब लॉबिंग करना अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन आजकल यह सकारात्मक काम माना जाने लगा है। सरकारें भी नीतियां बनाने के लिए संबंधित लोगों से व्यापक तौर पर विचार-विमर्श करती हैं। कई बार तो ऐसी नीतियों का जिक्र सरकारें संचार माध्यमों के जरिए इसलिए भी करती हैं ताकि जनता के मूड को भाँपा जा सके। इसके विपरीत सरकारों के कई निर्णयों पर जब जनाक्रोश उभर कर आता है तो मीडिया उस पर आम बहस का माहौल तैयार करता है, जिसके फलस्वरूप कई बार सरकारों को अपने निर्णय वापस लेने पड़ते हैं या उन पर फिर से विचार करने को बाध्य होना पड़ता है। आरक्षण का मुद्दा हो, कोल्ड ड्रिंक्स में जहरीले पदार्थो का मामला हो या हाल ही में समलैंगिक लोगों की आजादी का मसला हो, यह सभी जनतंत्र और प्रशासन में मीडिया की भूमिका को रेखांकित करते हैं। ऐसे माहौल में मीडिया शोध चुपचाप अकेले क्यों हो और लोगों को इसकी जानकारिया भी क्यों न मुहैया करवाई जाए?’’
   
हर सत्ता चाहे वह अच्छी हो या बुरी उसके पीछे कोई न कोई शक्ति क्रियाशील या कि कार्यरत अवश्य रहती हैं। यह क्रियाशीलता जिस किसी भी व्यस्था(लोकतांत्रिक, समाजवादी, पूँजीवादी) के अन्तर्गत चालित क्यों न हों वह वहाँ किसी न किसी मूल्य(अपमूल्य) या संस्कृति(अपसंस्कृति) को अवश्य जन्मती हैं। वर्तमान समय में हम जिस वैश्विक समझदारी(?) से अपने देश का धंधाकरण/सौदाकरण कर रहे हैं उस में प्रभुत्त्व और वर्चस्व की राजनीति है न कि अखिल भारतीय संकल्पना या विश्वदृष्टि। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री भारत के मूल संकल्पना की रक्षा हेतु स्वयं को प्रतिबद्ध बताते थे; इसकी बानगी यह उदाहरण है कि ‘संविधान’ पारित होने के बाद उनसे पूछा गया कि आपकी सर्वोच्च प्राथमिकता क्या होगी? पंडित नेहरू ने जवाब में कहा कि-‘‘देश के सभी लोगों को सामाजिक समानता के साथ-साथ आर्थिक समानता दिलाना ही हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है।’’ लेकिन दुर्भाग्यवश पंडित नेहरू अपनी वचनाबद्धता को निभाने से रह गए। इंदिरा गाँधी को राजनीतिक प्रोत्साहन और नेतृत्व देने का जिम्मा उन्होंने चाहे जिस भी परिस्थिति में सौंपा हो; लेकिन यह निर्णय देशहित में कतई नहीं कहा जा सकता है। पंडित नेहरू के बाद भारत की राजनीति में वंशवाद की कोख से उपजे नेताओं को वरीयता देने का जो अजीबोगरीब चलन शुरू हुआ वह आज तक इसी नाते कायम है कि यह अपनी मूल प्रकृति और व्यवहारगत चेतना में समानतावादी एवं समन्वयवादी भारतीय संकल्पना के सर्वथा खि़लाफ है; और एक प्रकार की बुर्जुआवादी/सामन्ती अवधारणा है।

सार्वभौम-सत्तावादी भारतीय चेतना के अभाव में आज पूरी दुनिया जिस साम्बन्धिक-चक्रवात में फँसी है उसमें अलगाव, अजनबीपन, अमानवीकरण, अव-वैयक्तिकरण, पाश्विकीकरण, छिछोरापन, दासता, अपराध, हिंसा, युद्ध इत्यादि का जबर्दस्त जमघट है। भौतिक-संसाधनों के बटोर(एकत्रिकरण) से सम्बन्धित यह कुकुरमुता-रोग उन युवाओं में सर्वाधिक है जो भव्यता और दिव्यता के आग्रही हैं; जिनमें दिखावा और प्रदर्शन के नाम पर चंद मिनटों में हजारों उड़ाने की ताकत इफ़रात(सुपरफ्लूयस) हैं। यह संक्रामक-रोग हमारे उन कथित युवा बौद्धिकों को भी लग चुका है जो शब्द उलीच-उलीच कर साम्राज्यवाद/नवसाम्राज्यवाद के विरुद्ध हंगामा खड़ा करते हैं, कोहराम मचाते हैं लेकिन हर रात सोते हैं विदेशी ब्राॅण्ड का शूप/बियर/वाइन इत्यादि पीकर। उनके भीतर काफी कुछ बेतरतीब ढंग से लगातार टूट रहा होता है; कुंठाएँ भीतर ही भीतर फैल रही होती है....वे क्षण-क्षण अपनेआप में घुट रहे होते हैं; लेकिन किसी कीमत पर अपनी तकलीफ़-परेशानी किसी से साझा करना नहीं चाहते हैं। अपनी इन्हीं नकारात्मक मनोवृत्तियों-मनोविकारों को किसी भी तरह उजागर न कर पाने के कारण हमारे अधिसंख्य युवा नशे के लती हैं; सेक्स के आदी हैं; और आये दिन आक्रोश और आवेश के आवेग में अपने को बरबाद कर रहे हैं। चिंता, तनाव, अवसाद और कुंठा के बीच ऊब-चूब करती यह युवापीढ़ी बात-बात पर चीखती है, सरेआम मारपीट और गाली-गलौज करने पर उतारू हो जाती हैं....कहीं-कहीं तो वे बेहद खतरनाक स्थिति तक हिंसक हो उठते हैं और कई मर्तबा कुछ भी न सूझने की स्थिति में आत्महत्या करने तक का निर्णय ले लेते हैं।

इस समस्या को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो स्वार्थो की टकराहट का अंतिम फैसला हिंसा और हत्या के आधार पर ही निर्णित होता है। इसे हम अपने इर्द-गिर्द घट रही छोटी-बड़ी उन तमाम घटनाओं से जोड़कर देख सकते हैं जिनका आये दिन समाचारों में वर्णन मिलता है; टेलीविज़न में जिसके विडियो‘ज दिखाए जाते हैं। अमरीका-इराक-सीरिया प्रकरण में भी इन्हीं प्रवृत्तियों का दुहराव या कहें अंधानुकरण है जिसका अधिकाधिक फायदा साम्राज्यवादी राष्ट्र उठाते हैं। वैयक्तिक वर्चस्व का यह पूरा खेल बाज़ार के लिए खेला जा रहा है जिसमें सिक्का उसी की चलती और जमती है जो मन-बुद्धि-चित्त से पूर्णतः स्वतंत्र होता है। लेकिन, यह भी देखना होगा कि जब सामूहिकता और सामाजिकता की हमारी भावना का आधार सम्पूर्ण सृष्टि की एकात्मक अनुभूति पर टिके होते हैं, तो हमारी तर्कप्रणाली और मूल्यचेतना के स्वर-गूँज बिल्कुल बदल जाते हैं। हमारे भीतर विश्वदृष्टिकोण के भाव उमगने लग जाते हैं क्योंकि हमारा मन, चित्त और अंतःकरण सब का सब लोकतांत्रिक हो उठता है। भारत के सन्दर्भ में फिल्मकार श्याम बेनेगल ने बड़ी ही मानीखे़ज बात कही है-‘‘भारत की जनता अपने विचारों और आत्मा से जनतांत्रिक है; मगर इस देश की राजनीतिक पार्टियाँ लोकतंत्र विरोधी हैं।’’ यानी राजनीति जिस पर सामाजिक परिवर्तन का दारोमदार होता है जो कि हमारे सामाजिक आचरण पर सबसे अधिक प्रभाव डालती है और उसे बदलने की चेष्टा करती है; के बारे में एक अनुभवी निर्देशक का यह कथन भारतीय लोकतंत्र की आत्मा को निश्चय ही व्यथित करने वाला है। इसी तरह की कुछ बातें लोकनायक जयप्रकाश नें कहा था कि-‘‘लोकतंत्र में सात क्रांतियां शामिल है-राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक क्रांति। आज की राजनीतिक नेतृत्व में इसमें से एक भी परिवर्तनकामी अथवा क्रान्तिकारी चेतना नहीं शामिल है।’’ विशेषतया भारी निराशा शिक्षा के उपनिवेशीकरण को लेकर है। यह चिंता आज जितनी तल्ख है; दूरदर्शी चिन्तकों-विचारकों ने कई दशक पूर्व ही इस पर गम्भरतापूर्वक सोचना-विचारना और दो-टूक जबान में बोलना व सवाल उठाना शुरू कर दिया था। महेश्वर महान के शब्दों में-‘‘शहरी स्कूलों में में शिक्षा-क्षेत्र में प्रसारित औपनिवेशिक पूंजीवाद का बोलबाला है और गांव के ग्रामीण विद्यालय में सामन्तवादी मध्युगीनता की प्रचुरता। इसी वजह से एक ही पाठ्यक्रम और एक ही कक्षा के दो विद्यार्थी एक-दूसरे से कोसों दूर है। हिन्दुस्तान की शिक्षा को हर दूसरी व्यवस्था और भावना की तरह दो किस्मों में बांटकर इस पूरे देश को सवा अरब इकाइयों में तोड़ देने का षड़यन्त्र किया गया है ताकि सरकार इंतमीनान से निहित स्वार्थो की कार्य-सिद्धि कर सके। निराशा के इस महाकुम्भ के बावजूद यह याद रखना आवश्यक है कि नेतृत्व हमेशा वर्तमान में घटित और फलित होता है; लेकिन मौजूदा राजनीति में सार्थक, समर्थ और स्वस्थ नेतृत्व से नातेदारी ख़त्त्म हो चुकी है। अब हर जगह भेड़ियाधसान है..एक ही खटिया..एक ही मचान है। खैर! साहित्यकार नीलाभ के शब्दों में इसे शाब्दिक-रूप दें तो-‘खतरा परछाई की तरह/हमारे साथ है/चमकते हुए प्रभा-मण्डल की तरह/हमारे सिर पर मंडराता है/पीछे वाली रोशनी में कभी-कभार/हमारे आगे दिखाई देता है नेतृत्व की तरह।’

युवा-नेतृत्व के संकट पर विचार करते हुए यह स्मरण रखना जरूरी है कि जिस युवा को हम मनोमय, तेजोमय, ऊर्जस्वी, तेजस्वी, मनस्वी, तपस्वी...पता नहीं क्या-क्या मानते हैं; आज वह युवा जिमखाने में हैं, बियरबार में हैं, डिस्कोथिक, रैम्प, फिल्म, सेना, काॅरपोरेट, अकादमिक संस्थानों में है....लेकिन वह लोकतंत्र में यहाँ-वहाँ कहीं भी नहीं हैं। क्योंकर? इस पर विस्तार से मन-मस्तिष्क को मथना और इस समस्या के केन्द्रबिन्दु पर चोट करना बेहद जरूरी है। यहां यह बात पुनः दुहराना जरूरी है कि अपनी संस्कृति, परम्परा, पहचान और विरासत को बीते जमाने की घिसी-पिटी या सड़ी-गली बात कहकर भूल जाना सही नहीं है। भूत हमारे स्मृति का हिस्सा है। हमारे अनुभवकोष का अंग-उपांग है। वह अदृश्य और अप्रत्यक्ष जरूर है; लेकिन, है हमारे चेतन-अवचेतन का निद्र्वंद्व संकल्प-विकल्प ही। हम किसी चीज को कैसे देखते हैं, उसके बारे में किस प्रकार विचार करते हैं और भाषा में कैसे अपनी अभिव्यक्ति देते हैं; यह पूर्णतः व्यक्तिगत संस्कार पर आधृत है। वस्तुतः हर व्यक्ति अपने आस-पास के परिवेश-वातावरण का भोक्ता होता है। आत्मधारणा और प्रत्यक्षीकरण की इस प्रक्रिया के दौरान सक्रिय, गतिशील, तीव्रतापूर्ण एवं नैरन्तर्ययुक्त आन्तरिक कारकों या कि मानसिक सम्प्रत्ययों द्वारा उसका प्रभावित होना स्वाभाविक है। जागतिक कार्यकलापों में हमारी सहभागिता हमारे चेतस या चैतन्य होने का निश्चय ही प्रमाण है। हमारा मस्तिष्क चूँकि चेतनशील है, संवेदना के आरोह-अवरोह से सम्पृक्त है; इसलिए अनुभूत सत्य का आलोड़न/अवलम्बन हमारे अन्दर ठीक उसी प्रकार अनवरत होते रहता है जैसे अपने भीतर साँस भरने और छोड़ने की प्रकृति-प्रदत क्रिया। इस क्रिया-रूप तक पहुँचने के लिए हमें अंतःकरण के स्तर पर खूब पापड़ बेलने पड़ते हैं। चिन्तन जिसे हम आन्तरिक सम्भाषण कहते हैं सबसे पहले भीतरी स्फुरण/स्फोट के माध्यम से ही अपनी जीवन-यात्रा प्रारम्भ करते हैं। यह सत्तवस्त मन से सत्तवस्त वृत्ति में परिणत होते हैं, उसके बाद सत्तवस्त चित्त, फिर सत्तवस्त संकल्प, फिर सत्तवस्त वाणी और इस तरह उनका अंतिम अवगाहन ‘सत्तवस्त क्रिया’ के रूप में होता है। मानव अंतःक्रिया के ये रूप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पुरुषार्थ में तमस, राजस और सत्व का किस अनुपात में समावेश है- इससे भी निर्धारित होता है।

यदि यहां भारतीय मन की मनोभाषिकी पर दृष्टिपात करें, तो यह सोच पाना अपनेआप में ताज्जुबकारी है कि मानव-अंतःक्रिया और भाषिक-चिन्तन के अन्तर्गत भावों, संवेगों अथवा मानसिक सम्प्रत्ययों का आविर्भाव, तिरोभाव या उनका पुनः आविर्भाव का नैरन्तर्य इतने निर्बाध ढंग से बना कैसे रहता है? अन्तःकरण की ये समस्त वृत्तियाँ अथवा व्यापर हमारे चित्त का हिस्सा बनकर शब्द-शक्ति के रूप में अभिव्यक्त कैसे होती हैं? दरअसल, शब्दों में निहित अर्थ का बोध जिस शक्ति के द्वारा संचालित होता है उसे शब्द-शक्ति कहते हैं। यह शक्ति आज चार रूपों में स्वीकार्य है-क) अभिधा शक्ति, ख) तात्पर्या शक्ति, ग) लक्षणा शक्ति और घ) व्यंजना शक्ति। हमारे सांस्कृतिक-साहित्यिक विधानों और ज्ञान-दर्षन में अभिधा शक्ति को ज्ञान का पर्यायवाची समझा जाता है तो इसी तरह तात्पर्या शक्ति, लक्षणा शक्ति और व्यंजना शक्ति को क्रमषः क्रिया, इच्छा और आनन्द का पर्याय अथवा प्रतिरूप कहा गया है। वस्तुतः शैव-दर्शन की इन प्रख्यात चार शक्तियों-ज्ञान, क्रिया, इच्छा और आनन्द को अभिनवगुप्त ने अपनी दार्शनिक दृष्टि के अनुसार चतुर्शक्तियों के रूप में मान्यता दी है। यहाँ दार्शनिक शब्द का अर्थ ज्ञानोपलब्धि की प्रक्रिया में शामिल तत्त्ववेता से है जो उपलब्ध ज्ञान से साक्षात्कार करता है, किन्तु सन्तुष्ट नहीं होता है। दर्शन शब्द का अर्थ परम सत्य की प्राप्ति है। यह जीवन की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है। वह केवल ऐन्द्रिय अनुभव से संतुष्ट नहीं होता और बौद्धिक प्रक्रिया एवं तात्त्विक विश्लेषण द्वारा जीवन के वास्तविक जीवन का ज्ञान कराता है। यह ज्ञान बहुविध रूपों-प्रकारों में संयोजित हो सकता है। भारतीय चिन्तन-परम्परा में प्रसिद्ध षड्दर्शन प्रमुख है। यथा-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त इत्यादि। ज्ञान के भी कई स्तर हैं-भेद, अभेद और भेदाभेद। अतः अनुभूति रहित ज्ञान से या वाक्य ज्ञान होने मात्र से परम उपलब्धि नहीं प्राप्त हो सकती है। इसलिए भी कहा जाता है-‘इल्म होने से शायरी नहीं आ जाती’। वाक्प्रवीण या अभिव्यक्तिकुशल होना व्यक्तित्व-व्यवहार की एक विशिष्ट स्थिति मात्र है; इसके माध्यम से आप ज्ञान-मीमांसा के चिन्तन-क्षेत्र में भी अग्रगण्य या उत्तीर्ण हों जाएँ, यह शर्तिया जरूरी नहीं है।

इस प्रकार मनुष्य अपनी बाहरी समानान्तर दुनिया से जो भी चयन करता है; वह अपनी मौलिक ‘रुचि’ और ‘आकांक्षा’ के अनुरूप ही करता है। यह रुचि और आकांक्षा अपनी परिस्थियों से ही नहीं, जातीय और पारम्परिक स्वभाव से भी प्रेरित होती हैं। ऐसे में अपने व्यक्तित्व और चिन्तन में जो ‘स्वीकार’ और ‘प्रभाव’ नया अथवा आयातित दिखाई पड़ते हैं; वे अपनी ही जातीय चेतना, संस्कार और स्वभाव का मूलांश होते हैं। कार्ल गुस्ताव जुंग ने सामूहिक अवचेतन(कलेक्टिव कन्शियसनेस) की बात की है। जुंग द्वारा भिन्न-भिन्न जातियों, नस्लों एवं राष्ट्रों के बीच चिन्तन-क्षेत्र में खोजी गई विशेषताओं एवं समान गुणधर्मिता की स्थिति की अभिव्यक्ति से विभिन्न जातियों एवं राष्ट्रों के बीच परस्पर सौहार्द भावना, बंधुत्व एवं सहकारिता को जो बढ़ावा मिला है तथा परस्पर विरोधी जातियों, धर्मों, मतावलम्बियों एवं मान्यताओं के बीच जिन संघर्षों एवं तनावों के बीच कमी आई है, वह निःसंदेह विश्व के लिए समन्वयकारी-मंगलकारी प्रवृत्ति का सहज-विकास है जिससे सम्पूर्ण विश्व में परस्पर समानता, भाईचारा, सहयोग एवं सामंजस्य भावना की अभिवृद्धि हुई है। यह अलग बात है कि आज भी यदि कोई इस ब्रिटिश शिगूफे़ में विश्वास करता हो कि दुनिया भर के मनुष्यों को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने का ठिका ‘द व्हाइट मैन बर्डेन’ वाले मुहावरे को जाता है तो इसे हास्यास्पद कहना ही उचित होगा। वस्तुतः विश्व-मानव की निर्मिति में भारतीय जनमानस का योगदान कमतर नहीं है। बासबूत बात करें, तो ‘‘एक तरफ जब ब्रिटिश साम्राज्यवादी अपनी नीतियों से भारत की औद्योगिक उन्नति को बाधित कर रहे थे। दूसरी ओर प्राच्यविद्यावादी बुद्धिजीवी प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद योरोपीय भाषाओं में कर रहे थे। कालिदास के नाटकों के अनुवादों के अलावा ‘उपनिषद’, ‘हितोपदेश’ और ‘मनुस्मृति’ का अनुवाद क्रमशः एक्वेंटिल दुपेरान, विलियम जोन्स और चाल्र्स विलकिन्स जैसे ओरिएंटलिस्ट कर रहे थे। 1784 में ‘एशियाटिक सोसायटी’ और 1798 में ‘ओरिएंटल सेमीनरी’ की स्थापना ने प्राच्यवादियों की परियोजना को गति प्रदान की।’’ भाषाविज्ञानी ब्लूमफील्ड ने ठीक ही लक्ष्य किया है कि भारतीय लोककथाएँ पश्चिम में पहुँच कर कोट-पैंट-टाई धारी बन जाती हैं तो अरब देशों में पहुँचकर इस्लामिक चोला पहन लेती हैं। लिहाजा, ईसप की कहानियों पर हितोपदेश के प्रभाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं। इस तरह अंग्रेजों ने सिर्फ बेशकीमती सामानों, हीरे-जवाहरातों, सोने, चाँदियों आदि की लूट-मार नहीं मचाई; और न ही सिर्फ यहाँ की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस नहीं किया है अपितु उन्होंने अपनी अधिकतम सीमा में बौद्धिक सम्पदा की लूट, नकल और अपनी भाषा में दस्तावेजीकरण भी किया। आज की युवा पीढ़ी पश्चिमी शब्दावली ‘नाॅलेज हेजेमनी’ या ‘इंटेलेक्चुअल पोपर्टी राइट’ पर प्रायः लोट-पोट होती दिखाई देती है या कि पश्चिम स्वयं भी पूरे जोर-शोर से इन बातों को प्रचारित-प्रसारित करता है जबकि आज के इस वैश्विक युग में भारत का सांस्कृतिक अवदान भी यूरोप, अमेरिका आदि से कम हरग़िज नहीं है। इन्हीं सब कारणों से प्रसिद्ध चिंतक एडवर्ड सईद ने पूर्व के बारे में पश्चिम के ज्ञान को तथ्यों और वास्तविकताओं पर आधारित नहीं माना है।

अतः आज यह चिंता व्यक्त करना कि भारत का एक भी विष्वविद्यालय विश्वस्तरीय विश्ववविद्यालयों की सूची में 200 के वरीय क्रमांक में क्यों शामिल नहीं है...हास्यास्पद और बिल्कुल बेमानी है। दरअसल, हमें तो यह सोचना होगा कि स्वाधीन भारत में आज तक एक भी विष्वविद्यालय ऐसा क्यों नहीं बन पाया जो ‘फ्रैंकफुर्त स्कूल’, ‘टोरंटो स्कूल’, ‘शिकागो स्कूल’ आदि से खुद को बीस साबित कर सके? आर्थिक उदारीकरण की नींव पर बने शीशमहल से आम-भारतीयों को क्या-कुछ हासिल हुआ है; इस बारे में पूरी शिद्दत और संवेदनशीलता के साथ विचार किए जाने की जरूरत है। डिजिटलीकरण के अतिउत्साह और ‘डिजिटल इंडिया’ के मुहावरे में हमारा मुल्क अपना सबकुछ जो अब तक का सर्वश्रेष्ठ रहा है ‘ग्लोबल वल्र्ड’ को भेंट कर देने को आतुर दिख रहा है, लेकिन पश्चिम अपना सामान्य-ज्ञान साझा करने से पूर्व भी अपने बौद्धिक संपदा अधिकार की चिंता पहले करता है विश्व बिरादरी की फिक्र बाद में। मिसाल के तौर पर देखें, तो अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के कार्यकाल के दौरान ‘सत्य’ पर पाबंदी लगाने की अजीबोगरीब परम्परा विकसित की गई थी। हाल के दिनों में यह रहस्योद्घाटन किया गया है कि बुश प्रशासन ने अमेरिका में कई महत्त्वपूर्ण शोध कार्यों में रुकावट डाल रखी थी। बुश प्रशासन जिन रिसर्चों को ठीक नहीं मानता था, उन रिसर्चों के प्रकाशन पर उसने रोक लगा दी थी। ऐसी ही एक रिपोर्ट धूम्रपान के सम्बन्ध में थी, जिसमें यह नतीजा निकाला गया था कि सिगरेट के धुँए का थोड़ा भी सम्पर्क हानिकारक हो सकता है।

पश्चिम के प्रति हमेशा नेकनियति का ख़्याल रखने वाले उच्चबौद्धिक भारतीयों/शिक्षितों को इन सब उदाहरणों से कब सीख मिलेगी, यह देखना अभी बाकी है। लेकिन इतना तो तय है कि यह सारा खेल अक्सर नई आर्थिक नीति या उदारीकरण केन्द्रित ‘एलपीजी’ मुहावरे के अन्तर्गत खेला जाता है। परन्तु हम इन बातों को जानबूझकर बिसार देते हैं क्योकि हमारे तात्कालिक हित सध रहे होते हैं। एक दशक पहले ही समाचरपत्रों में यह बात लगभग उजागर हो गई थी कि इस देश में विदेशी कम्पनियों का घुसपैठ, विकास और आक्रमण तेजी से हुआ है; लेकिन इन कम्पनियों द्वारा रोजगार सृजन डेढ़ फीसदी ही रही है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने विकास के नाम पर वर्षों के हमारे हुनर और हस्तशिल्प को रौंदा है। इन उद्योगों में लगे करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी तक छीन ली है। आधुनिकीकरण की सबसे ज्यादा मार कारीगरों, दस्तकारों, देशी व कुटीर उद्योगों पर पड़ी है। कुल्हड़ की जगह कम्पनियाँ गिलास बनाने लगी हैं, तो कुम्हार की आमदनी का बट्टा लगना तय है। फलों का रस डिब्बा बंद करके बेचने के लिए विदेशी कम्पनियाँ आएंगी तो फल बेचने वाले लोग ही परेषान होंगे। एडीडास, ब्यूमा, ड्यूक, लोटो विदेशी कम्पनियों के भारत में सिले हुए कपड़ों के क्षेत्र में आ जाने से लाखों दर्जियों की आजीविका छिन गयी है। इन्हीं कम्पनियों के भारत में खेल-सामान बनाने के क्षेत्र में घुस जाने से जालंधर के खेल-उत्पादन सामान के क्षेत्र में 60 हजार कुशल श्रमिकों के रोजगार का खतरा उत्पन्न हो गया है...बाटा जैसे जूतों के चलन ने देष के लाखों मोचियों को बर्बाद किया है। विमकों ने बरेली व शिवकासी के माचिस उद्योग में लगे हजारों श्रमिकों का भविष्य अंधकार में कर दिया है।’’

पनी तमाम बेतरतीबी के बावजूद आखिर में यह कहना वाजिब होगा कि उपर्युक्त विश्लेषण शिक्षा-जगत में व्याप्त कुहरिले पर केन्द्रित है। इस जगह यह कहना अब जरूरी हो गया है कि अभी हमारे देश को जनचिंतक श्रीअरविंद के शब्दों में उध्र्वारोही चेतना की जरूरत है; गाँधी के ग्राम-स्वराज सम्बन्धी सोच को साकार करने की आवश्यकता है; यहाँ मुक्तिबोध की शैली में बँधी-गूँथी संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन के पारस्परिक सहमेल-संवाद को उत्तरोत्तर समृद्ध एवं समुन्नत बनाए जाने की अनवार्यता है; और यह भी कि पश्चिमी अहमन्यतावाद से पीड़ित-प्रभावित-प्रकम्पित होने की बजाए स्वयं साधे और अपने अंतःकरण की सुनें। 

आने वाला कल अत्यन्त विकट और संकटग्रस्त है, यह अमेरिका के लिए जितना सत्य है; भारत के लिए भी उतना ही।
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फर्जी नेता नहीं हैं सुब्रह्मण्यम स्वामी

सुब्रह्मण्यम ने किया खुलासा, नेहरू ने करवायी सुभाषचंद्र बोस की हत्या

 http://www.prabhatkhabar.com/news/national/subramanian-swamy-jawaharlal-nehru-subhash-chandra-bose-murder-stalin-conspiracy/292848.html

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राजीव रंजन प्रसाद

मेरी दृष्टि में फर्जी नेता नहीं हैं सुब्रह्मण्यम स्वामी । अंतः जो कहा होगा बासबूत कहा होगा।  प्रभात ख़बर(यह अख़बार नवभारत टाइम्स से अधिक विश्वसनीय है) में प्रकाशित समाचार के मुताबिक-'सुभाषचंद्र बोस की हत्या नेहरू ने करवायी'।  दरअसल, हमेशा स्वदेशी का राग जपने वाली भारतीय जनता पार्टी  फिरंगी सोच की नहीं है!  वह सुभाष जी को आजादी का सच्चा नायक मानती है। वह मानती है कि सुभाष चन्द्र बोस गरीबों के समर्थक थे। वे भारतीय स्वतन्त्रता में आमजन की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानते थे, न कि कोट में फूल लटकाने वाले चोचलेदार नेताओं को। वह नेहरू की तरह अभिजात्य और गुलामी के दिनों में भी सम्पन्न कतई न थे।

देश की जनता को हमेशा बड़ी जाति के नेताओं ने और तथाकथित झंडाबदार स्वतन्त्रता सेनानियो ने ठगा है। इन्होंने देशवासियों में जातिगत वैमनश्यता और धार्मिक अलगाव जान-बूझकर फैलाई है और हमशा श्रेष्ठताग्रंथि से काम लिया है। ये जनविरोधी ताकतें गांधी का नाम जिंदगी भर बांचते-उलीचते रहे; लेकिन देश की गरीब जनता के लिए क्या किया है। ये लोग टाटा, अंबानी, बिड़ला के साथ देश भर में विकास का जाल बिछाते रहे और खुद सरकारी पैसे पर ऐशागह में अपनी सलामती के लिए संभावना जोहते रहे। इन्होंने हमेशा झूठ-मूठ का विकास का ठिंठोरा पीटा है; लेकिन देश के लिए किया कुछ नहीं है। इस मामले में नरेन्द्र मोदी सरकार अच्छी है। वह वादा कर रही है कि अब किसी भी पुलिस थाने में अपराध, हत्या, दुष्कर्म, लूट, भ्रष्टाचार और अन्य वारदातों के आंकड़े में इजाफा हुआ, तो खैर नहीं। यह पहली बार हो रहा है कि नेताओं को संसद में जितने दिन उपस्थित रहेंगे उतने ही दिन की तनख़्वाह देने का प्रावधान किया जा रहा है। इसी तरह दवाओं को जानबूझकर महंगे कीमत पर बेचने और लोगों को महंगी दवाएं ही खरीदने पर मजबूर करने के लिए सम्बन्धित डाॅक्टरों को दंडित करने का फ़रमान जारी करने पर विचार किया जा रहा है। पिछलें दिनों धर्म के नाम पर नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से खफा कुछ भाजपाइयों ने जानबूझकर धार्मिक संकीर्णता फैलाने वाला कृत्य किया जिसे माननीय प्रधानमंत्री ने चपत लगाई है।

कहना न होगा कि  नेहरू राज से लेकर मनमोहन राज तक जो अराजकता और सरकारी भ्रष्टाचार की लूट थी, उसे मोदी सरकार हर हाल में जिस तरह खत्म करने के लिए कटिबद्ध दिखाई दे रही है; वह सचमुच भारत के नवनिर्माण की दिशा में ठोस कदम है। वह अपने सभी मंत्रालयों पर गहरी निगरानी रखने का हरसंभव प्रयास करती दिखाई दे रही है। इसी राह में वीआईपी कल्चर है जिसमें भारी कटौती किए जाने का संकेत अपनेआप में एक बड़ी और निर्णायक कदम है। माननीय प्रधानमंत्री ने हाल ही में हर सांसद को एक गांव लेने का नया उदाहरण पेश किया है। वह जानते है कि गांव की खुशहाली ही देश के विकास का सर्वोत्तम रास्ता है।

दरअसल, मोदी पंडितो का आदर भले करते हों, लेकिन पंडिताई की भाषा नहीं बोलते हैं। वह ज़मीनी बात करते हैं; वे ज़मीन को मां मानते हैं और वह नहीं चाहते की कांग्रेस के द्वारा पैदा की गई गरीबी को वह भी ढोए। यह पूरे देश पर कलंक है जो चेहरे पर कालिख पुते होने से अधिक गाढ़ा है। पिछले छह दशकों में कांग्रेस ने भारत की शिक्षा, स्वास्थ्य ,कृषि औ परिवहन सेवा को पूरी तरह नष्ट-विनष्ट कर दिया है। लेकिन अब नीति आयोग के अन्तर्गत नरेन्द्र मोदी ने सबको समान और समुचित शिक्षा उपलब्ध कराने का जो दावा किया है, वह जल्द ही साकार होगा। नरेन्द्र मोदी ने रेडियो पर प्रसारित अपने ‘मन की बात’ में देश की जनता से सीधे सम्पर्क किया है। वे उनसे सीधे संवाद करने के पक्षधर हैं। उन्होंने देश की जनता को सीधे प्रधानमंत्री से अपनी बात कहने का सुअवसर दिया है। वह नहीं चाहते हैं कि देश का विभाजन अमीर और गरीब दो वर्गों में हो। एक करोड़पति हो, तो एक को हजारों का भी टोटा हो। इसीलिए वे सरकारी नेताओं के सम्पतियों को भी राष्ट्र की सार्वजनिक सम्पति घोषित किए जाने की वकालत करते हैं। यदि ऐसा सच हुआ, तो एक भी ऐसा नेता न हो जो भ्रष्टाचार में संलिप्त होगा।

नरेन्द्र मोदी ने ज़मीन से राजनीति शुरू की है और वह अपना पांव हमेशा ज़मीन पर ही टिकाए रखना चाहते हैं। ऐसा नेता और नेतृत्व भाजपा ने संभव कर दिखाया है क्योंकि उसके पास सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे साफ छवि के तेज-तर्रार नेता हैं जिन्होंने पिछले दिनों ए. राजा को कठघरे में पहुंचाया था। इस बीच दिल्ली में भाजपा ने किरण बेदी को खड़ा किया है जो भारतीय महिलाओं की आइकाॅन/रोल-माॅडल हैं। किरण बेदी जो हमेशा जनता के बीच से सवाल उठाती रही हैं और यह पूछती रहीं हैं कि ‘ग़लती किसकी?’ यदि वह खुद शासन में आई तो दिल्ली का भला न करेंगी यह सोचा भी नहीं जाना चाहिए; क्योंकि नरेन्द्र मोदी को आदमी की परख है। और जो आदमी को सही अर्थों में पहचानना जानता है; वही जन-प्रतिनिधि कहलाने के योग्य है।

अब पूरे देश को दूसरे के कहे पर सोचने की आवश्यकता नहीं है। उसे यह देखने की जरूरत है कि वह क्या है और वह स्वयं अपनी जरूरियात पूरी कर पाने में कितना और किस प्रकार सफल है। यदि पहले से माहौल बदला है। उसकी आर्थिक चिंता दूर हुई है। बिटिया के शादी का फिक्र समाप्त हुआ है। बच्चे अपनी उम्मीद के अनुरूप पढ़ाई कर पाने का मार्ग और अवसर पा रहे हैं, तो सच जानिए कि देश में अच्छे दिन आ गए हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार ने पिछले आठ महीने में अपनी योजनाओं का दस्तावेजीकरण कर लिया है; बस अब भाजपा के नेताओं को अपना काम करना शुरू करना है।

हमें फिलहाल भाजपा के नियत और नस्ल पर शक नहीं करना चाहिए।

Friday, January 23, 2015

भाषा के हलवाई

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माफ करना डियर, जरूरत पड़ने पर सम्पर्क की जाएगी।
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''हमारे लिए जनता गौण नहीं, बल्कि वह गण है, समस्त सांविधानिक अधिकार दिए जाने के लिए वह हमारी गणना में भी है....और देवताओं का देवता वह गणपति है....; ऐसा मैं हमेशा कहता रहा हूं...और आज भी खुलेआम कह रहा हूं।''

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जिस शख्स ने यह कहा था। वह जनप्रतिनिधि हैं। लेकिन उसने जो कहकर वाहवाही बटोरी थी वह उस काबिल नौज़वान के दिमाग की उपज थी जिसने हिन्दी में पत्रकारिता की है, अध्यापकी का परीक्षा उत्तीर्ण किया है। लेकिन आजकल बेरोजगार है। इन दिनों इस-उस की बेगारी खट रहा है। सब उससे कहते हैं कि समझौता करो, झूठ एक सफल कार्रवाई है। अहंकारी इस लड़के ने दरेरा देकर अपनी बात मनवानी चाहिए, उसे सबने अपनी ज़मात और महफ़िल से बाहर कर दिया। आज वह सड़क का आदमी है। आम-आदमी पार्टी का आम-आदमी नहीं जो चाहे जितना सच बोले; लेकिन है तो करोड़पति ही न!

खैर! मरता क्या न करता वाली तर्ज़ पर दिल्ली में रहने का जुगाड़ खोजते हुए; उसे यही काम मिला है। उससे धांसू संवाद लिखने को कहे जाते हैं। प्रति शब्द 10 रुपए का भुगतान किया जाता है।

दो दिन पहले तो उसका एक डाॅयलाॅग इतना पसंद आया कि उन्होंने चट 1000 रुपया थमा दी। लिखा था-‘‘देश की ताकत का रिश्ता जनता के पेट से जुड़ा हुआ है। पेट में जिस तरह छोटी आंत और बड़ी आंत होनी जरूरी है; उसी तरह इस देश में ज़िन्दा रहने के लिए काॅरपोरेट कंपनियों और बहुराष्ट्रीय कारोबारियों की भी जरूरत है। अब उनकी अपनी क्षमता और पाचन-क्रिया पर है कि वह कितना खाती और हजम करती हैं। हमारा काम हाज़मा दुरुस्त रखने का है। और एक और बात जैसे तबीयत शरीर की बिगड़ती-बनती रहती है।...वैसे ही देश की जनसंख्या भी अमीर-गरीब होती रहती है। ज़माना बेहद वहशी, कातिल और क्रूर है। कोरी भावुकता विनाश के कगार पर ही खड़ा कर सकती है, विकास के रास्ते पर कभी नहीं ले जाने देगी। सरकार चलाना बच्चों का खेल नहीं है। और जो इसे खेल मानते हैं उन्हें इस सरकार के डीएनए में जगह नहीं मिल सकती है। देश में तब्दीली तेजी से आये इसके लिए बाज़ारीकरण, भूमंडलीकरण, निजीकरण, अधिग्रहण, विदेशी निवेश सब स्वीकार्य है। यह सच्चाई है जिसे स्वीकारे बिना न तो सीमा पर हम सुरक्षित रह सकते हैं और न ही देश में पेट्रोल, डीजल और गैस के दाम घट सकते हैं। जिन्हें देश की जनता को बरगलाना है, अपने झूठे वादे के लिए भरमाना है, आन्दोलन करना है, तमाशा और अराजकता फैलानी है....वह अपने लिए कोई दूसरा मुल्क चुन लें। हमारा विकास सबके हित और विकास में विश्वास रखता है।...हमें जनता ने चुना है; अभी भी हमें ही चुन रही है; हम दादागिरी करके सत्ता पर काबिज नहीं हुए हैं। अतः हमारी आलोचना का मतलब है जनता की आलोचना...और हम यह किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे। हम किसी को सिस्टम के खिलाफ होने नहीं दे सकते हैं।’’
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यह संवाद काफी चर्चित हुआ। पार्टी के कई लोगों ने मिलकर, फोनकर बधाई दी, तारीफ की। इधर बीच चार दिन से मकान-मालिक किराए के लिए हंगामा खड़ा किए हुए है। इधर बीच काम नहीं मिल रहा है। जिस आदमी ने उस निगोड़े को काम और अच्छे-खासे पैसे दिलाए थे; वह आजकल आगामी चुनाव में व्यस्त है।फोन करो, तो भाईसाब! का टका-सा जवाब सुनाई पड़ता है-'माफ करना डियर, जरूरत पड़ने पर सम्पर्क की जाएगी।'

वह कभी-कभी सोचता है कि इससे तो अच्छा था कि वह मैदा की निमकी बनाता, बेसन का लड्डू गढ़ता या समोसा और जलेबी बेच रहा होता। फिर सोचता है, अच्छा जैसे चुनाव जीतने वाले के अच्छे दिन आए वैसे ही उसकी भी आए।


Thursday, January 22, 2015

स्कूल चलें हम

प्रिय देव-दीप,

बेतरह ख़राब मौसम है। ठिठुरन और गलन भी। लेकिन जगना और स्कूल के लिए तैयार तो होना ही है। आपदोनों को बाहरी वातावरण को देखकर दिली इच्छा नहीं हो रही है कि जगाएं; लेकिन नींद से जगना और सक्रिय होना जरूरी है। क्योंकि आराम की स्थिति आवश्यकता से अधिक होने पर जिंदगी को नीरस यानी बोरिंग बना देती हैं। अतः सुबह-सुबह उठना और फ्रेश हवा में सांस लेने के लिए बिस्तर से बाहर आना हुआ न वाजिब!

देव-दीप, घर से बाहर निकलेंगे, तो ही न यह जान पाएंगे कि बाहर में लोगों की हाल-दशा क्या है? वे ठंड से बचने का क्या और किस तरह उपाय कर रहे हैं? उनके पास उपाय के पर्याप्त साधन मौजूद हैं भी या नहीं। यह सही नहीं है न कि हम रजाई में दुबके रहे और बाहर में लोग ठंड में ठिठुरते हुए अपने काम-धंधे में लगे-जुटे रहे। सामाजिकता दूसरों से जुड़ने के लिए प्रेरित करती है; औरों के गम-दुःख, हंसी और खुशी में शरीक होने का आमंत्रण देती है।

देव-दीप, मनुष्य पैसे से नहीं बन सकता है। यदि ऐसा होता, तो गरीबों-बेसहारों के घर में किलकारी क्यों गूंजती? क्यों उनका घर-आंगन भी बच्चों से हरदम गुलजार हुआ करता। दरअसल, प्रकृति ने सब इंतजाम एकसमान किए हैं। भले किसी औरत के पास चमचमाती साड़ी न हो, भौतिक सुख-सुविधाओं का भंडार न हो; लेकिन जब वह मां बनती है, तो उसे गाय खरीदने की नौबत नहीं आती है। उसके छाती में दूध खुद उतरा जाता है जिसमें दुनिया के सभी पौष्टिक तत्त्वों का मिश्रण होता है, जो बच्चे को सेहतमंद बनाने का जरूरी खुराक साबित होता है।

देव-दीप, मेरा इतना लाम-लिफाफा बांचने का एक लाइन में अर्थ यह है कि हर रोज सुबह-सुबह जगना वास्तविक अर्थों में जागरूक होना है। हमारी इंद्रियां ज्ञान को सबसे करीब से पहचानती है। किताब तो हमें मांजते मात्र हैं; वे हमारे नाक-नक्श बनाते और दुनिया के हिसाब से सवांरते हैं। जैसे तुम्हारी मां करीने से तुमदोनों के बालों में कंघी करती है। तुमदोनों के स्वाद के हिसाब से पूछकर तुम्हारा मन-पसंद आलू-भूजिया, सत्तू-पराठा बनाती है।

....तो चलो, आपदोनों तैयार होओ। आज सुभाष चन्द्र बोस का जन्मदिन है, उन्हें प्रणाम करो, विश करो। उनके बारे में यह जानों कि उन्होंने पहली बार जब रेडियो से भारतवासियों को संबोधित किया था तो भारत के लोगों के ठंडे खून में बिजली उतर आई थी; लोग उन्हें अपने बीच पाने के लिए बेचैन हो उठे थे। ऐसा लोग कहते हैं और लोक के लोग झूठ नहीं बोलते हैं।

देव-दीप, सुभाष चन्द्र बोस की दुःखद मौत हुई इस बारे में आयोजननुमा दुःख जाहिर करने से ज्यादा जरूरी है कि हम उन जैसा होने/बनने की ठानें। कथनी और करनी में साम्य रखे। मानवीय-मूल्यों और दृष्टिकोणों को अधिक से अधिक तरज़िह दें; अपनी आरामतलबी ज़िंदगी से जिरह करें; अपनी पहचान करें; क्योंकि देश का विकास हमारे व्यक्तित्व के रास्ते से ही हो कर जाता है। अतः सर्वप्रथम अपनी छवि साफ रखें, समस्त कलुषित भावनाओं का त्याग करें; उसके बाद बाहरी दुनिया को स्वच्छ बनाने के अभियान में कूद पड़े, संकल्प लें, श्रमदान करें। आमीन!

तुम्हारा पिता
राजीव

जन-प्रतिनिधि

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 मैं ही गांधी, मैं ही भगत...और मैं ही सुभाष चन्द्र बोस
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जो भूखा है
जो नंगा है
जो गरीब है
जो जरूरतमंद है

वह कहां जन-प्रतिनिधि है?

अतः मतदान से पहले
अपने नाम का परचे भरो
चुनाव लड़ो

देशवासियों, मुल्क आजाद है
अपने किस्मत का मालिक खुद बनो!!!

Wednesday, January 21, 2015

भारतवंशी-अमेरिकी जो अमेरिका को ‘सुपर हीरो’ बनाने में रात-दिन जुटे हैं!!!

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 दिक्कत/विडम्बना यह है कि हमारी काबिलियत को दूसरी जगह पहले पहचान और इज्ज़त मिलती है, अपने यहां जिसे जानबूझकर हाशिए पर रखा जाता है।
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 राजीव रंजन प्रसाद
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भारतवासी अमेरिका जाते ही भारतवंशी-अमेरिकी हो जाता हैं। यह होना अपनेआप में गर्व और गौरव का विषय है; भारत और अमेरिका दोनों के लिए। यह अन्तर-सांस्कृतिक मोर्चे पर साझा नेतृत्व है, संयुक्त प्रगतिशीलता का सबूत है।। हाल ही में अमेरिकी नेता बाॅबी जिंदल ने एक अफसोसजनक बयान दिया है जिसे भारतीय समाचारपत्रों ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है। वह यह कि वे खुद को अमेरिकी नेता कहे जाने का ही समर्थक हैं; उन्हें भारतवंशी-अमेरिकी कहलाना पसंद नहीं है। पश्चिमी ज्ञान-तबेले और सूचना-संदेशों को हमेशा वरीयता देने वाले भारत के नामचीन किन्तु व्यक्तित्वहीन अख़बारों को खुद भारतीय अख़बार कहलाने में कहां गर्व और गौरव महसूस होता है। सो यह बात बस आई-गई हो गई। खैर! 

हम भारतीय अमेरिका को हमेशा एक अलग निगाह से देखते हैं। उसका सर्वशक्तिमान चेहरा हमें बेहद लुभाता है और यह सम्मोहन हमें मोहग्रस्त भी बनाए रखता है। ऐसे में हम प्रायः ग्लोबल लीडरशीप की बात करते हैं जिसमें भारतीयों का झंडा बुलंद रहा है और पूरी दुनिया भारतीय योग्यता और काबिलियत का लोहा मानती है, उसकी मुरीद दिखाई देती है। ऐसे में बाॅबी जिंदल का बयान अजीबोगरीब लगना स्वाभाविक है। कोई व्यक्ति यदि उपयुक्त मौके की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाए और उसी दुनिया में पूरी तरह रच-बस जाए, तो भी क्या उसके ‘गुणसूत्र’(क्रोमोसोम) बदल जाएंगे? क्या उसकी आनुवंशिकी में पूर्णतया अन्तर आ जाएगा या कि उनका सामूहिक अचेतन पूरी तरह स्मृतिभ्रशंता का शिकार हो जाएगी? ये ऐसे सवाल हैं जिससे जिरह हर उस भारतीय को करना चाहिए जो मौके की तलाश में दूसरी जगह जाता जरूर है; लेकिन वह अपने जड़ से कटा हुआ नहीं है। वैसे भी अमेरिका आज जिस रूप में सर्वशक्तिमान के ओहदे पर काबिज है, उस अमेरिका को बनाने में भारत का योगदान शब्दों और भाषा में बयान से परे है।

आइए हम अपनी इस बात को तर्क और वस्तृनिष्ठ समझ के आधार पर खंगाले, विश्लेषित करें और अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचें :-
भारत की इस ‘लीडरशीप’ की चर्चा करते हुए अन्तरराष्ट्रीय पहचान की पत्रिका ‘टाइम’ ने यह घोषणा तक कर डाला है कि आने वाले दिनों में दुनिया भर की कंपनियों को सीईओ निर्यात करने के मामले में भारत सबसे अव्वल होगा। इतना ही नहीं, ‘टाइम’ के मुताबिक भारत दुनिया भर के सीईओ के लिए सबसे बेहतरीन प्रशिक्षण केन्द्र भी होगा। यह सही है कि दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत को अपने बड़े बाज़ार के तौर पर देख रही है; लिहाजा वे भारतीय उपभोक्ताओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए भारतीय चेहरों को मौका दे रही हैं; लेकिन उससे बड़ी वजह यह है कि भारतीय अपनी काबिलियत से कंपनियों के शीर्ष पदों पर काबिज़ हो रहे हैं। अन्तरराष्ट्रीय मानव संसाधन विशेषज्ञों का मानना है कि-‘‘भारतीय मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों में भी काम करना नहीं छोड़ते हैं। वे हर हाल में परिणाम देने की कोशिश करते हैं, इसके लिए उन्हें जितनी भी मेहनत करना पड़े, उससे वे पीछे नहीं हटते।’’*


- अमत्र्य सेन:  विदेशों में रहकर भारत का नाम दुनिया में जिन्होंने सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित किया है, वह हैं 1998 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार(वेलफेयर इकोनाॅमिक्स) पाने वाले अमत्र्य सेन। सन् 1999 में अमत्र्य सेन भारत सरकार द्वारा भारत रत्न से नवाजे गए हैं। दिल्ली स्कूल आॅफ इकोनाॅमिक्स से लेकर आॅक्सफोर्ड, हार्वड, कैंब्रिज, कारनेल, स्टैनफोर्ड आदि विश्वविद्यालयों, एमआईटी तथा ट्रिनिटी काॅलेज में रहे सेन न केवल दुनिया के मषहूर अर्थशास्त्री हैं बल्कि आर्थिक सामाजिक विषयों पर गहरी चोट करने वाले विद्वान भी हैं। उनका साहित्य, इतिहास आदि विषयों का भी गहरा अध्ययन है। 80 वर्ष की उम्र के करीब पहुँच रहे सेन दुनिया के कुछ बहुत अच्छे और प्रखर तथा विचारोत्तेजक वक्ताओं में हैं और आज भी उनकी बौद्धिक सक्रियता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है।

- मनोज भार्गव: फोब्र्स पत्रिका के मुताबिक मनोज चार अरब डाॅलर की संपत्ति के साथ अमेरिका के सबसे दौलतमंद भारतीय हैं। सन् 2011 में उन्हें ‘न्यूज़ मेकर आॅफ द इयर’ का अवार्ड मिला था।

ओबामा टीम : जिन्होंने कभी अपनी काबिलियत पर हर मान-सम्मान पाया

§    पाउला गंगोपाध्याय
§    सोनी रामास्वामी
§    अनुज चेंग देसाई
§    सोनल शाह
§    फराह पंडित
§    अंजु भार्गव
§    राजन आनंद
§    निशा देसाई बिस्वाल
§    दीपा गुप्ता
§    अरुणाभ जोशी
§    प्रीत भरारा
§    राजीव शाह
§    अजीत वरदराज पई
§    गीता पासी
§    राजेश डे
§    विवेक मूर्ति
§    इस्लामिक सिद्दिकी
§    रो खन्ना
§    प्रीता बंसल
§    कल्पेन सुरेश मोदी(काल पेन)
§    नील कात्याल

 हकीकत यही है कि दुनिया भर की कई कंपनियों ने पिछले कुछ सालों में भारतीयों को अपनी कमान देनी शुरू की है। यह कई मायनों में भारतीय प्रतिभाओं को विष्व स्तर पर सम्मान से जुड़ा मसला है। दुनिया के हर कोने में अब भारतीय प्रतिभाओं पर न केवल भरोसा किया जा रहा है बल्कि उसे ‘लीडर’ के तौर पर देखने की शुरुआत भी हो चुकी है।
उदाहरणार्थ :जो भारतवंशी अमेरिका को ‘मेड इन अमेरिका’ बनाते हैं

§    रजत गुप्ता        संस्थापक: इंडियन स्कूल आॅफ बिजनेस, हैदराबाद(1997)
§    अंशु जैन                    सह-सीईओ: ड्यूशे बैंक
§    हरीश मानवानी         चीफ आॅपरेटिंग आॅफिसर: यूनीलीवर
§    मानविंदर सिंह बग्गा    सीईओ: मास्टर कार्ड
§    इंदिरा नूई        सीईओ    ः पेप्सीको
§    विक्रम पंडित        सीईओ: सिटी बैंक ग्रुप
§    राकेश कपूर        सीईओ: रेकिट ऐंड बेंसिकजर   
§    संजय झा        सीईओ: मोटरोला
§    अजीत जैन        सीईओ: हाथवे
§    शांतनु नारायण        सीईओ: एडोब
§    पद्मश्री वारियर        मुख्य तकनीकी अधिकारी: सिस्को
§    संजय खोसला        मार्केटिंग हेड: क्राफ्ट फूड्स
§    नरेश अरोरा        मुख्य विपणन अधिकारी: गूगल
§    व्योमेश जोशी        एक्जक्यूटिव वाइस प्रेसीडेंट: एचपी
§    अरुण सरीन        सीईओ: वोडाफोन
§    रश्मि सिन्हा        सीईओ: स्लाइड शेयर

- चर्चित भारतवंशी एवं वैश्विक छवि के लीडर/रोल-माॅडल:

§    बाॅबी जिंदल        ः लुइजियाना प्रांत के गवर्नर कम उम्र में बने
§    नवीन रामगुलाम        ः माॅरिशस के प्रधानमंत्री
§    स्व. कल्पना चावला     ः नासा से जुड़ी अंतरिक्ष यात्री
§    सुनीता विलियम्स    ः लम्बे दिनों(195 दिन) तक अंतरीक्ष प्रवास
§    अमिताव घोष        ः लोकप्रिय लेखक
§    झुंपा लाहिड़ी        ः इंटरप्रेटर आॅफ मेलाॅडीज,  ‘नेमसेक’,  'अनकस्टम्ड अर्थ’,  2000 में पुलित्जर।
§    सलमान रुश्दी        ः ‘मिडनाइट चिल्ड्रेन’ के लिए 1981 में बुकर  पुरस्कार, ‘सैटनिक वर्सेज’, 1988 ।
§    नीरद सी. चैधरी        ः लेखक, उपन्यासकार
§    अनीता देसाई        ः लेखक, उपन्यासकार
§    किरण देसाई        ः लेखक, उपन्यासकार
§    वी. एस. नायपाॅल    ः लेखक, उपन्यासकार, चिंतक
§    जगदीश भगवती        ः अर्थशास्त्री, कोलंबिया विश्ववविद्यालय में प्रोफेसर
§    फरीद जकारिया        ः ख्यातनाम पत्रकार
§    टंूकू वरदराजन        ः ‘न्यूजवीक’ के सम्पादक पद संभाल चुके हैं।
§    राजू नारसेस्ट्री        ‘ ‘वांशिगटन पोस्ट’ के सम्पादक पद संभाल चुके हैं।
§    पीको अय्यर        ः ट्रैवल राइटर
§    मीरा नायर        ः फिल्म निर्देशिका: सलाम बाॅम्बे, माॅनसून वेडिंग,  नेमसेक, हार्वर्ड में शिक्षा-दीक्षा
§    गुरिंदर चड्ढा        ः ‘बेंड इट लाइक बेखम’ की निर्देशिका
§    मनोज नाइट श्यामलन    ः निर्देशक, लेखक, एक्टर
§    शीतल सेठ        ः अभिनेत्री
§    आरती मजूमदार        ः अभिनेत्री
§    लिजा रे            ः अभिनेत्री
§    पद्मा लक्ष्मी        ः अभिनेत्री
§    नोरा जोन्स        ः अभिनेत्री
§    सुधीर पारेख        ः चिकित्सक
§    बाल मुरली अंबाति    ः चिकित्सक
§    सिद्धार्थ मुखर्जी         ः कैंसर फिजिशियन, अपनी कैंसर पर लिखे गए पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित
§    अरुणा नेत्रवली        ः वैज्ञानिक, बेल लेबोरेटरीज के प्रमुख
§    भीखू पारेख        ः राजनीतिक विचारक तथा ब्रिटेन के हाउस आॅफ  लाडर््स के सदस्य
§    चित्तरंजन राणावत    ः प्रसिद्ध हड्डी रोड विशेषज्ञ
§    दीपक चोपड़ा        ः लेखक, डाॅक्टर, लोकप्रिय वक्ता
§    हिंदूजा भाई        ः उद्योगपति
§    लक्ष्मी मित्तल        ः उद्योगपति
§    मधुर जाफरी        ः अभिनेत्री तथा खानपान विषयक लेखिका
§    सईद जाफरी        ः अभिनेता
§    रोहिंटन मिस्त्री        ः अंग्रेजी उपन्यासकार
§    सैम पित्रोदा        ः नीति निर्माता
§    विक्रम सेठ        ः अंग्रेजी उपन्यासकार एवं कवि
§    लार्ड स्वराज पाॅल    ः उद्योगपति तथा लार्ड सभा के सदस्य
§    प्रवाल गुरुंग        ः ड्रेस डिजाइनर
§    विकास खन्ना        ः मास्टर शेफ
§    संत सिंह चटवाल    ः होटल व्यवसायी
§    बिद्दू                           : पाॅप गृरू के नाम से मशहूर
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* शुक्रवार; 06 जुलाई, 2012; पृ. 14

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...