Saturday, January 24, 2015

मि. बराक ओबामा से 'मन की बात'

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‘भारत में कैसी सरकारी शिक्षा, किसके लिए सरकारी शिक्षा और क्यों दी जा रही है सरकारी शिक्षा?’ 
शीर्षक से अपने अतिथि और विश्व के सबसे ताकतवर राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष मि. बराक ओबामा को
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोधार्थी राजीव रंजन प्रसाद द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट
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विषेष सन्दर्भ: भारतीय सरकारी शिक्षा-तंत्र और सरकारी शैक्षणिक-क्रियाकलाप
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(अमेरिकी भाषा-तंत्र इतना विकसित है कि वह गुजराती तक समझ लेता है, तो फिर हिंदी से क्या गुरेज !)

‘‘भारत में शिक्षा के स्तर में लगातार सुधार हो रहा है जो भविष्य के बेहतर होने की उम्मीद जगाता है। अब ज्यादा बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। जल्दी ही फ्री एजुकेशन का बिल पास होने की उम्मीद है और इससे हर बच्चे तक शिक्षा को पहुँचाया जा सकेगा। शिक्षा क्षेत्र में भविष्य को ध्यान में रखकर ही कई अहम बदलाव किए गए हैं। आईआईटी को यूनिवर्सिटी बनाने पर विचार चल रहा है। कई और आईआईटी खुल रहे हैं। शिक्षा में सुधार के लिए कई अहम कदम उठाए जाने हैं। हम जल्द ही इस पर एक रिपोर्ट देने जा रहे हैं।’’ जाने-माने भारतीय शिक्षाविद् प्रो. यशपाल ने यही कोई पांच साल पहले(2009) यह बात कही थी। आज सन् 2014 में उनकी रिपोर्ट के साथ एक और रिपोर्ट नत्थी(इम्बेडेड) है; और वह है अमेरिकी रिपोर्ट कार्ड। अमेरिका के आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय के आव्रजन एवं सीमा शुल्क प्रवर्तन द्वारा अन्तरराष्ट्रीय छात्रों के बारे में जारी की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि-‘‘सात अक्तूबर तक अमेरिका में एक लाख चैतीस हजार दो सौ बानवे भारतीय छात्र पढ़ रहे थे। अमेरिका में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या दरअसल, अफ्रीका, उत्तर अमेरिका, यूरोप जैसे किसी भी अन्य क्षेत्र में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या से ज्यादा है।’’

प्रायः अकादमिक पिछड़ेपन और शैक्षणिक गुणवत्ता को लेकर हिन्दुस्तानी जनमानस द्वंद्वग्रस्त रहते हैं। अतएव, उपर्युक्त सन्दर्भ कईयों के लिए प्रसन्नता-सूचक और आह्लादप्रदायक कहे जा सकते है; लेकिन प्रश्न यह भी है कि हमारी शिक्षा-प्रणाली कुल के बावजूद आज की तारीख़ में अपनी देसी जमीन पर पेट के बल लोटती/रेंगती हुई ही क्यों दिखाई दे रही है? भारतीय शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल की मानें, तो ‘‘एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों की रचना तो बहुत सुन्दर ढंग से की गई है; लेकिन उसके अनुरूप शिक्षकों को तैयार करने के लिए अध्यापक शिक्षण का कार्यक्रम आज भी मैकाले के रटंत विद्या वाले आधार पर चलाया जा रहा है। एनसीईआरटी ने भी अपने अध्यापन शिक्षण के कार्यक्रम में बदलाव नहीं किए। ऐसे में वे इस पुस्तक को कैसे बच्चे को पढ़ाएंगे, यह एक बड़ा सवाल है।’’ सवाल यह भी है कि जब शिक्षाविज्ञानियों का प्रबुद्ध तबका ही भारतीय शिक्षा-पद्धति के मौजूदा प्रारूप से नाखु़श है और वह इस शैक्षणिक-व्यवस्था और शिक्षा-नीति को असंगत, त्रुटिपूर्ण और अव्यावहारिक मान चुका है, तो फिर इसे चलायमान बनाए रखने पर इतना जोर क्यों दिया जा रहा है? यह भी प्रतिप्रश्न उपजना स्वाभाविक है कि इस यथास्थिति(एजेण्डा/पैटर्न/सिस्टम) से आखिर किस वर्ग या तबके का हित सर्वाधिक सधने वाला है या फिर इन दिनों सध रहा है? प्रश्न यह भी उठता है कि ज़ाहिर सचाई और उजागर आँकड़ों के उलट ‘ग्रेस माक्र्स’ दे-देकर हम अपनी शिक्षा-व्यवस्था को आखिरकार क्यों जिलाए हुए हैं? तिस पर तुर्रा यह है कि ज्ञात तथ्यों के मुताबिक सन् 1938 में ही भारत में शिक्षा प्रसार विभाग का विधिवत गठन किया गया था और श्री नारायण चतुर्वेदी पहले प्रसार अधिकारी बनाये गए थे। उस समय से अब तक न जाने कितनी सोते और जलधाराएँ इस शिक्षा-सागर से फूटी होंगी, आगे निकली होंगी और यात्रा के एक लम्बे वितान से होते हुए सहस्त्राब्दी के इस दूसरे दशक में अपना आतिथ्य स्वीकार की होंगी। ‘स्कूल चलें हम’ और ‘सब पढ़े, सब बढ़े’ के कोरे नारे एवं अभियान के साथ सहस्त्राब्दी-उत्सव सवा अरब आबादी वाले इस देश ने छककर मनाया है; फिर भी आज शिक्षा की स्थिति यह है कि समाचारपत्र, टेलीविज़न और अन्यान्य सभ्रान्त-जनमाध्यमों(सोशल मीडिया, ब्लाॅग्स, ट्यिूटर, फेसबुक आदि) में प्रायः भारतीय षिक्षण-संस्थानों, अकादमियों, विष्वविद्यालयों आदि के बारे में नकारात्मक बातें ही अधिक देखने-सुनने को मिल रही हैं। सरकार की अक्षमता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि वह जितने लोगों को हर वर्ष अध्यापकीय-पात्रता सम्बन्धी प्रमाण-पत्र सौंपती है; उतने लोगों को भी भविष्य में नौकरी देने के नाम पर हाथ खड़े कर लेती है।

स्वाधीनता के छह दशक बीत जाने के बावजूद भारतीय परिक्षेत्र का बहुसंख्यक हिस्सा अपनी बुनियादी जरूरतों और मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। कृषक क्षेत्रों के हाल-हालात और दयनीय हैं। पिछले दिनों केन्द्र को सौंपी गई खुफ़िया ब्यूरों की एक रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र के अलावा तेलंगाना, कर्नाटक, पंजाब में भी किसानों के खुदकुशी यानी आत्महत्या के मामले बढ़े हैं, वहीं गुजरात, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में भी ऐसी घटनाएँ दर्ज की गई हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि किसानों के खुदकुशी के पीछे सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि जैसे फौरी कारण तो हैं ही, पर दूसरे आयाम भी हैं जिन्हें कुदरती नहीं कहा जा सकता। किसानों पर कर्ज के बोझ, उन्हें पैदावार का वाजिब दाम न मिलने और कर नीति की विसंगतियों से लेकर आयात-निर्यात के ग़लत फैसलों तक, रिपोर्ट ने संकट के अनेक कारण गिनाए हैं। वास्तविकता यह है कि भारतीय जनमानस देसी शासन की दुव्र्यवस्था की शिकार है। वह अपने ज़िन्दा रहने की जिद, जद्दोजहद और जुगाड़ के बीच नप-पिस-खिंच रही है। अतः उसे यह कहाँ पता होगा कि एक स्कूल शिक्षक या काॅलेज में पढ़ाते प्राध्यापक को सरकार तनख़्वाह और भत्ते कितने देती है; बच्चों के अन्दर कथित नवाचार और नवोन्मेष का भाव सिरजने के नाम पर वह सलाना कुल कितनी रकम खरच रही है? पढ़ाने के नाम पर न पढ़ाते अध्यापकों-प्राध्यापकों पर सरकारी खर्च कितना बैठ रहा है?

दरअसल, आमजन तो इस मूल प्रश्न का उत्तर जानने मात्र को उत्सुक-बेताब है कि आखिर कुल बुद्धिवादी टिटिमा के बावजूद भारतीय शिक्षा-संस्थानों की सूरत बिगड़ैल क्यों है? उनमें बेहतरी के आसार क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं? सरकारी विद्यालयों-विश्वविद्यालयों का तंत्र इतना लचर और लस्त-पस्त क्यों है? यह लोकतंत्र भारतीय जनता को पेट और दिमाग दोनों से भूखे रखने-मारने की जुगत में क्यों भिड़ा हुआ है? क्या कारण है कि भारतीय योग्यता/प्रतिभा अपने होने की कीमत अपने ऊपर जबरिया अंग्रेजीपन लाद/थोप कर चुकाने को अभिशप्त है?(भारत में उच्चशिक्षा में नियुक्ति के लिए अंग्रेजी बोलना आना पहली शर्त है) लिहाजा, उन युवाओं के भविष्य खटाई में पड़ रहे हैं; और नैसर्गिक प्रतिभा कुंठित होते जा रहे हैं जिनकी पूरी शिक्षा-दीक्षा अपनी मातृभाषा में हुई है, जिन्हें अंग्रेजी पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला है। ऐसे में कोई हिन्दी अथवा हिन्दीतर भाषाभाषी विद्यार्थी अपने हमव्यस्क के संग-साथ अंग्रेजी में प्रतिस्पर्धा करने अथवा उनकी पाठ्यक्रम और वेषभूषा नीति का नकल कर पाने में कैसे सक्षम हो सकता है; एक सोचनीय विषय है। एनसीईआरटी के निदेशक रह चुके प्रख्यात शिक्षाविद् जगमोहन सिंह राजपूत यहाँ ठीक सवाल पूछते हैं कि एक स्वतंत्र, सार्वभौमिक सत्ता-संपन्न राष्ट्र, जिसके पास अनेक सक्षम भाषाओं और संस्कृति का अद्वितीय भंडार हो, अपने युवाओं के अपनी भाषा में अपनी योग्यता सिद्ध करने से वंचित करेगा? लेकिन यह विडम्बना की बलिहारी ही है कि नीतिगत बाध्यताओं और सरकारी शासनादेशों की मजबूरियों को दिखाकर सरकारी पहरुए प्रायः यह खुलकर विज्ञापित करते हैं कि-‘शुद्धता/विशुद्धता का वास्तविक मानदंड और निर्णय का प्रामाणिक आधार अंग्रेजी भाषा, लिपि और उसकी अपनी बरती जाने वाली ब्रिटिशिया(अब अमेरिकन)कार्यशैली, क्रियाकलाप, वर्तनी और शब्दावली ही होंगे?’

इस जगह प्रो. यशपाल का ही एक कथन याद आता है जो उन्होंने यही कोई एक दशक पहले(मार्च, 2004) शिक्षा के सन्दर्भ में लोकतंत्र को उसका मूल दायित्व बताते हुए कही थी-‘‘हमारे देश में लोकतंत्र तो है लेकिन हम समाज में असमानता की भावना को आश्रय दे रहे हैं। हम धर्म, जाति और आय के आधार पर दूसरों से अलग दिखना चाहते हैं। हमारे लोकतंत्र के कई अंग इसी हीनभावना से ग्रस्त हैं। यह हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विफलता है कि वह आज तक अपनी जनता को शिक्षित करने के लिए शिक्षा की बुनियादी संरचना विकसित नहीं कर पाया है।’’ पांच सालों के भीतर(2004-09) प्रो. यशपाल के शब्दार्थ भले बदल गए हों; लेकिन भारतीय शिक्षा जगत की स्थिति आज भी(2014 में) कुछ खास नहीं बदल सकी है। आखिर क्या कारण है कि जहां 1995 ई. में निजी क्षेत्रों में शिक्षण-प्रशिक्षण हेतु 2000 से भी कम शिक्षण संस्थान थे; आज वे 14 हजार के लगभग हो चले हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक रिपोर्ट के मुताबिक उनकी गुणवत्ता मानक/स्तरीय नहीं है, तो भी वे दिन-दुगनी-रात चैगुनी की गति से फल-फूल रहे हैं। आज भी सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का टोटा है और कुछेक राज्यों में तो पचासेक विद्यार्थियों पर सिर्फ एक शिक्षक का हिसाब(50ः1) फिट बैठता है। यदि समग्रता में शैक्षणिक हाल-हालातों का जायज़ा लेना हो, तो विश्वविद्यालीय अकादमिक संस्थानों की ओर रूख करना आवश्यक होगा। राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रमाणन परिषद(नैक) द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट में इस सचाई को बड़ी साफगोई से स्वीकार किया गया है कि देश में बमुश्किल सौ से भी कम विश्वविद्यालय गुणवत्ता परीक्षण की कसौटी पर खरे उतरे हैं, जबकि कड़ी मशक्कत के बाद देश भर में से छाँटे गए सिर्फ 2910 काॅलेज ही ‘नैक’ के मानदण्ड पर खरे उतर सके हैं अथवा तत्सम्बन्धी अर्हताओं को पूरा किया है।

यहां भारतीय शिक्षा नीति का उपयुक्त विश्लेषण-मूल्यांकन करना समीचीन होगा, ताकि इसके मूल कारणों के तह तक पहुँचा जा सके। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी (नई)शिक्षा नीति पुरानेपन का शिकार हो गई है या फिर नएपन की भौड़ी चाहत(‘थोथा चना बाजे घना’ कहावत वाले अंदाज में) ने पुरानी नींव को ही अपनी जड़ यानी बुनियाद से बेदखल कर दिया है? यदि पुराना वर्तमान का भार वहन करने में समर्थ है, तो वह व्यर्थ कतई नहीं है। अपनी परम्परा को पुरातन कहकर छोड़ा नहीं जा सकता है। क्योंकि परम्परा कोई थोपी हुई चीज नहीं है; यह विकास और बदलाव की स्वाभाविक प्रक्रिया है। बकौल मृणाल पाण्डेय, ‘‘भारतीय परम्परा ने इसीलिए चिन्तकों और विश्वासियों में फर्क किया है। हमारे यहाँ बुद्ध, महावीर से लेकर गाँधी तथा जेपी तक चिन्तकों के शुरू किये उदारवाद-विवादों, विश्लेषणों और खंडन-मण्डन से ही परम्परा और धर्म दोनों की सनातन धारा की गहराईयाँ छानी गई और उनका कूड़ा-कचरा हटाया जाता रहा है। ज्ञान की धारा को परिष्कृत करने और उसके प्रवाह को निरन्तर बनाने को ऐसी विधियाँ आज भी प्रामाणिक हैं और उनकी पहचान यही है कि अंततः वे प्रगतिशील हैं। वे बंधन नहीं रचतीं, बंधनों से मुक्त करती हैं।....गाँधी का धर्म भी उनकी राजनीति की नैतिकता का मूलाधार और उसकी भीतरी ताकत का स्रोत रहता आया है। उस तरह की शक्ति के बिना साहित्य और कलाएँ ही नहीं, राजनीति और प्रशासन भी कैसे अनैतिक, स्वार्थी और दमनकारी बन जाते हैं, इसके प्रमाण हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं।’’ लेकिन ये बातें दुविधाग्रस्त/भ्रमित भारतीय समाज के पल्ले नहीं पड़ रही है। विडम्बना यह भी है कि हम परम्परा को ठीक ढंग से जानते-पहचानते ही नहीं है। और इस जानकारी के न होने का मुख्य कारण अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी स्थानीयता, अपने लोग, अपने समाज और राष्ट्र से हमारा दिन-ब-दिन लगाव अथवा अपनेपन के अहसास का कमत्तर होते जाना है। यानी हममें से अधिसंख्य लोग यह भूल चुके हैं कि परम्परा दरअसल सामूहिक विमर्श, संवाद, सह-अस्तित्व, संघर्ष और किसी हद तक आत्मदान का परिणाम है। परम्परा बदलते कालक्रम, बाहरी सम्पर्क, नवीन सम्पर्क, नूतन ज्ञान, वैचारिक समृद्धि, विकास के अवसर और जीवन-संघर्ष के बदलते रूपों का नाम है। यह भी कि परम्पराएं प्रायः धर्म-मजहब की छत्रछाया में जीती, पलती तथा विकसित होती हैं। यहां धर्म-मजहब का अर्थ-अभिप्राय विश्वदृष्टि की सार्वभौम चेतना से है, उसका सम्बन्ध वैश्विक मानवतावाद से है। अक्सर संकुचित दायरे में परिभाषित की जाने वाली वर्गीय-सामुदायिक अवधारणा और साम्प्रदायिक अलगाव राजनीति-प्रेरित होती हैं। इस किस्म की असहिष्णु मानसिकता और अलगाववादी सोच देश में पिछड़ेपन को बनाए रखने अथवा आमजन पर अपना वर्चस्व-प्रभुत्व थोपने का प्रमुख औजार मात्र है। दम्भपूर्ण सामन्ती एवं पुरोहितवादी सोच-स्वप्न इसी माध्यम से पनपती-फुनगती हैं; हमें लोकतंत्र के जुमले में ‘स्वतन्त्रता’, ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ का पाठ पढ़ाकर फाँसती हैं; जबकि वे स्वयं शीतकक्षों(एयरकंडिशनिंग रूम) में ऐश-मौज कर रही होती हैं। इन्हीं का पहुँचा पकड़कर ऐय्याश नौकरशाह, बौद्धिक पुरोहित और शिक्षा नीति निर्धारकों का गट-गुट शिक्षा-माफिया बने फिरते हैं; जबकि समूचा देष अपने नौनिहालों के हाल पर रो रहा होता है।

कई मर्तबा ऐसे सत्तासीन लोग राष्ट्रीय नायकों की (नकली)प्रशंसा और मातृ-देश की जीवन-शैली और लोक-संस्कृति को दूसरों से बेहतर बताकर नस्लीय अहंकार हमारे मन-मस्तिष्क में जबरिया पेसते हैं। लेकिन देशभक्ति की यह नकली भावना हमारे संस्कार को समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने की बजाए हमारे घमण्ड को बचपन से लेकर वृद्ध अवस्था तक पोसती है। इसी तरह की विद्रूप एवं विसंगतिपूर्ण स्थिति सामाजिक समानता, न्याय और समान भागीदारी को लेकर रचे-बुने जाते हैं। विशेषतया भारतीय अकादमिक ढाँचें में जातीय व्यवस्था का ‘आॅक्टोपस’ की तरह पनपना अपनेआप में घनघोर अराजकता और अन्याय का संकेतक है। नतीजतन, ‘‘भारत में कबीर, सावित्रीबाई फुले, ज्योतिबा फुले, शाहूजी, पेरियार आदि जननायकों का विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों से लगभग गायब होना यही बताता है कि भारतीय अकादमिक जगत में सामाजिक न्याय, हिस्सेदारी जैसे गंभीर मसलों पर किस तरह के और कौन लोग बैठे हुए हैं। इसी भेदभावमूलक समाज से निकल कर बराबरी की बात करने वाले इन विचारकों के विचारों को बौद्धिक विमर्श में जगह देने की बजाय आज इस बात में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई देती है कि कैसे इस शिक्षा-व्यवस्था के सवर्णवादी चरित्र को बरकरार रखा जाए।’’ ऐसे में यदि यह सवाल उठने लगे कि उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थियों को सामाजिक समरसता और वर्गीय भेदभाव के उन्मूलक निर्गुण संतों के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए, तो स्थिति और भी अजीबोगरीब और असुविधाजनक हो जाएगी। यानी अपौरुषय वेद के बखानियों के लिए वेद के अतिरिक्त उपनिषद्, पुराण, मिथक, जातक कथाएँ, हितोपदेश आदि का गुणगान-पाठचर्या स्वीकार्य है लेकिन अपनी देसी माटी में जन्में साधारण संत-समाजियों का फ़साने में ज़िक्र भी सनातनी जिह्वाधारियों और शाश्वत कर्मकांडियों के लिए किसी अपशकुन से कम नहीं है। ऐसे में यह कहाँ संभव दिखाई देता है कि आप कमाल, कमाली, पद्मनाभ, तत्त्वा, जीवा, संतज्ञानी, जागूदास, भागोदास, सुरतगोपाल, धर्मदास, दादूदयाल, भीखा साहब, पलटू साहब, मलूकदास, दयाबाई, सहजोबाई आदि निगुण संतगुनियों पर अकादमिक सेमिनार-वर्कशाप कराने के अतिरिक्त इन्हें अकादमिक महत्त्व और प्रतिष्ठा भी दिला सकें जिसके वे पूर्णतया हकदार या कहें दावेदार हैं।

यह सचाई है कि ‘‘भारत के चीन के मुकाबले पिछड़ने का मुख्य कारण उसके द्वारा जनतांत्रिक व्यवस्था को अपनाना है। भारत ने जनतंत्र जरूर अपनाया है। मगर वह वास्तविकता कम, औपचारिकता ज्यादा है। जनतांत्रिक-सांविधानिक कमजोरी के मुख्य कारण भ्रष्ट्राचार, अफसरशाही, असहिष्णुता और विवेकहीन दृष्टिकोण है। देश कैसे आगे बढ़ सकता है जब कायदे-कानून और विवेक के बदले आधारहीन विश्वासों को नीतियों और निर्णयों का आधार बनाया जाता हो? नागरिक-नागरिक के बीच जाति, क्षेत्र, भाषा, लिंग और धर्म के आधार पर भेद किया जाता हो? यहाँ भाषा और धर्म के भेद जबर्दस्त है। स्वाधीनतापूर्व धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ और स्वाधीनता के बाद भाषा के बँटवारे ने राष्ट्र का अंतःविभाजन राज्यों में किया। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि दुनिया का कोई भी देश बिना धर्म को राजनीति और शासन से अलग रखे आगे नहीं बढ़ा है। यूरोप के पुनर्जागरण और प्रबोधनकाल के इतिहास को हम देखकर कुछ सबक ले सकते हैं। फ्रांस में वाल्तेयर, रूसों आदि और इंगलैण्ड में फ्रांसिस बेकन आदि ने जो कुछ लिखा उनकी वहां आर्थिक आधुनिकीकरण का मार्ग प्रशस्त करने में कम भूमिका नहीं रही। हमारे यहां इसके विपरीत दकियानुसी विचारों और उनके पोषक तथाकथित संतों, स्वामियों, आचार्यों, तांत्रिकों, मुल्ला-मालवियों और नेताओं को राज्य के कार्यों और नीतियों पर प्रभाव डालने की खुली छूट है। ऐसा इटली में भी नहीं होता जहां पोप विराजमान है।’’ इसी प्रकार भाषा का प्रश्न गौरतलब है। आजकल जिस तरह अकादमिक संस्थानों के बाहर-भीतर अंग्रेजी का बोलबाला जोरदार है; वह वस्तुतः भारतीय भाषा-व्यवहार, सम्पर्क और जनसंचार की वास्तविक वस्तुस्थिति नहीं है। साहित्यकार और चिंतक विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में यह बात रखें, तो ‘‘अंग्रेजी का वर्चस्व सबसे निम्न अंक पर पहुंचता है चुनाव के दिनों में। और राजनैतिक नेताओं का भारतीय भाषा प्रेम चुनावी सभाओं में मुखर होता है। उस समय अंग्रेजी समर्थक अंग्रेजी, अखबारों, रेडियो या दूरदर्शन में ही छिपते-छपते हैं। और यही हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं की वास्तविक शक्ति है। भारत की कितनी जनता हिंदी समझती है या नहीं। वास्तविक हिंदी भाषी क्षेत्र की सीमा और उसका विस्तार कितना है, इस सबका ठीक-ठाक पता चुनाव में चलता है। हमारे लोकतांत्रिक ढांचे की सबसे जीवंत चीज चुनाव हैं-बेशक कुछ कमियों, खामियों के बावजूद।’’

दरअसल, ‘मनसा वाचा कर्मणा’ के स्तर पर स्खलन अंततः भ्रष्ट आचरण और प्रवृत्तियों को ही प्रश्रय देते हैं। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने ‘आलोचना’ पत्रिका(1967) में इस सम्बन्ध में अपनी अभिव्यक्ति देते हुए लिखा था-‘‘पावन वस्तु कैसे भ्रष्ट होती है इसका उदाहरण है स्वयं विद्या, मानवीय सम्बन्ध किस प्रकार ‘नकद पैसे कौड़ी’ के हृदयशून्य व्यवहार में बदल जाते हैं इसका उदाहरण है गुरु-शिष्य सम्बन्ध, पेशे से श्रद्धा का प्रभामण्डल किस तरह छिन जाता है इसका मूर्तिमान प्रतीक है स्वयं शिक्षक और निरन्तर क्रांतिकारी परिवर्तन का उदाहरण उपकुलपतियों के रोज-रोज परिवर्तन से बढ़ कर और क्या होगा? जिस प्रकार एक जीवन्त सामूहिक शिक्षा-परिवार विश्वविद्यालय नाम की आमूत्र्त इकाई में बदल गया उसे देखकर क्या यह समझने में कोई कठिनाई रह जाती है कि पूंजीपति वर्ग के स्पर्श मात्र से जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है?’’ आधुनिकता के अंधमोह में फंसे लोगों(जिन पर अंग्रेजीयत अथवा पश्चिमीपन आवश्यकता से अधिक हावी है) को हमारे देसी चिंतकों, विचारकों और बौद्धिक लेखकों ने बार-बार आगाह किया है कि शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव के लिए रचनात्मक धरातल पर सर्वप्रथम स्थायी एवं स्थानीय क्रियान्वयन अत्यावश्यक है। यूँ तो दिखावटी या बनावटी लहजे में हमारे देश में शिक्षा का प्रसार करने के लिए तमाम सरकारी कोशिश जारी है; व्यक्तिगत स्तर पर भी शिक्षा-केन्द्रों की स्थापना का प्रयास हो रहा है, लेकिन इन सब धमार्थ या जनसेवार्थ किये जा रहे पुण्यकार्यों के पीछे कोई भी सार्थक नीति नहीं है।

यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि सार्थक सिद्ध होने के लिए संकल्प-विकल्प की चेतना से पूरित होना आवश्यक है। समकालीनता अथवा वर्तमानता से झूठी प्रतिस्पर्धा या अंतःविरोध सही नहीं है लेकिन इनका अंधानुगामी बनना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है। आज विचार-वैपरीत्य से लैस इन अहमन्यतावादी ताकतों से सीधे टकराने की जरूरत है। यह यथार्थ-बोध युवाओं को सबसे पहले होना चाहिए। इस घड़ी ‘ग्लोब’ का सारा-आकाश समतल हुआ दिख रहा है। यानी-‘दि वल्र्ड इज फ्लैट’। ऐसी धारणाओं का वर्चस्व होने से संभव है कि उपर्युक्त बातें ‘यंग फ्लेवर’(युवाओं) के लिए आदर्श साबित नहीं हो, यह दरअसल, हमारी चेतना के असन्तुलित होने की निशानी है। जब व्यक्ति आत्म-चैतन्य की स्थिति में नहीं होता, तो उसे पराधीनता में भी ‘इन्ज़्वाय’ का ही बोध होने लगता है; गैर-बराबरी का गुलामी खटना भी उसे वाज़िब लगने लगता है। वह अपने समय के सवालों, समस्याओं, मुद्दों आदि से साँठ-गाँठ करने लगता है। वह उन सभी चीजों के प्रति किंकर्तव्यविमूढ़ बने रहता है जो उसके सोच के विपरीत पसरे हुए हैं। जबकि वास्तविकता में शिक्षित जनता ज्यादा गहराई से सोचती है और जब जनता सोचना शुरू करती है तो मक्कार सत्ताएं भयानक रूप से ध्वस्त हो जाती हैं। अतः सरकार नहीं चाहती की जनता एक खास ढंग की शिक्षा पाकर एकजुट और एकमत हो सके। बगैर किसी नीति के शिक्षित जनता व्यक्तिगत हितों के सामने सामूहिक हितों की परवाह नहीं करती और इस हालत में किसी एक की हानि को सामूहिक हानि के रूप में भी नहीं देख पाती। आज भारत की जनता सामूहिक हानि को भी व्यक्तिगत धरातल पर लेकर कन्नी काट जाती है, क्योंकि उसे व्यक्ति और समूह को जोड़कर देखने ही नहीं दिया गया है। यह वाक्य अस्सी के दशक में शिक्षा की वर्तमान स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए महेश्वर महान ने कही थी।

समाजमनोविज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो ''भौतिकवाद की अंधी दौड़ मे कहीं न कहीं युवा भी फंसता चला जा रहा है। पश्चिमीकरण के पहनावे और संस्कृति को अपनाने में उसे कोई हिचक नहीं होती है। आज किशोर भी 14-15 वर्ष की आयु में ही ड्रग्स, रेव पार्टी और डिस्कों का आदी हो रहा है। नशे की बढ़ती प्रवृत्ति ने हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों को जन्म दिया है। जिससे इस युवा-शक्ति का कदम अधंकार की तरफ बढता हुआ दिख रहा है। युग तेजी से बदल रहा है, परंपराएं बदल रही है। मूल्यों के प्रति आस्था विघटित हो रही है। तब ऐसा लगता है कि सब कुछ बदल रहा है। इस बदलावपूर्ण स्थिति में बदलाहट-टकराहट टूटने से पूरी युवा पीढ़ी प्रभावित हो रही है। दुःखद आश्चर्य तो यह है कि वर्तमान भौतिकवादी वातावरण में चरित्र-निर्माण की चर्चा बिल्कुल गौण है। राष्ट्र की प्राथमिकता स्वस्थ, प्रतिभाशाली युवा होने चाहिए, न कि यौन-कुण्ठा से ग्रस्त लुंजपुंज विकारी समाज। हम सभी अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, साइंटिस्ट, सी.ए. और न जाने, क्या-क्या तो बनाना चाहते हैं, पर उन्हें चरित्रवान, संस्कारवान बनाना भूल चुके हैं। यदि इस ओर ध्यान दिया जाए, तो विकृत सोच वाली अन्य समस्याएं शेष ही न रहेंगी।’’ हमें थोड़ा स्थिरचित्त होकर सोचना होगा-क्या यही हमारा वास्तविक लोकवृत्त है? स्टीफंस काॅलेज में दाखिला लेने वाले एक विद्यार्थी से एक रिपोर्टर ने संस्कृति के बारे में पूछा, तो उसने सहज ही कहा था-‘‘संस्कृति के बारे में मुझे कुछ भी नहीं मालूम है। पुराने ज़माने के राजा-रानी और लोग जिस ढंग से जीवन जीते थे शायद उसे ही संस्कृति कहते हैं। मैंने महाभारत और रामायण सीरियल टीवी पर देखा है। वे चीजें मुझे संस्कृति के करीब लगती हैं।’’

यह नज़रिया 55 करोड़ की आबादी वाले भारतीय युवजन का प्रतिनिधि सोच हो, यह जरूरी नहीं है; लेकिन यह पूर्णतया सत्य है कि 21वीं शताब्दी का वर्तमान देशकाल उस भूतचक्र से बिल्कुल विच्छिन्न हो चुका है जिसे भारत की सनातनकालीन बुद्धिमता कहते हैं। सांविधानिक तंत्र में लोककल्याण और लोकमंगल की भावना का जिक्र अवश्य है; किन्तु उसका यथार्थबोध और मूल्यबोध तेजी से गायब हो रहा है। आज हम यह भूलते जा रहे हैं कि भारतीय दर्शन जो कि मूलतः ‘सत्य’ और ‘ऋत’ पर टिकी चिन्तन-प्रणाली हैं; की आत्मिक रक्षा कितनी जरूरी है? भारतीय दर्शन की सबसे बड़ी बात यह है कि यह हमारे लोकदृष्टि से निर्मित है; जिसके माध्यम से हमें सत्य का बोध होता है, यथार्थ की वास्तविक प्रतीति होती है। हम जिस ‘सत्यमेव जयते’ को मुण्डकोपनिषद् से लिया गया बताते हैं; उसके बारे में मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि भारतीय दर्शन में सत्य कोई जड़ चीज नहीं है बल्कि वह ऋत यानी संचालक तत्त्व की बीज-प्रकृति अर्थात् व्यवहारजन्य स्वाभाविक अभिव्यक्ति ही है। आधुनिक प्रयोग और प्रगति के वेग को बिना मंदित किए हुए हम थोड़े प्रयासों से अपनी युवा पीढ़ी को संस्कारित कर सकते हैं; उन्हें संभाव्य चेतना के आकाशदीप में स्वतंत्र विचरण करने के लिए उन्मुक्त कर सकते हैं। यह महती जिम्मेदारी पूर्णरूपेण वैज्ञानिक रीति-नीति से निभानी होगी। समकालीन चुनौतियों के मद्देनज़र अपनी युवा पीढ़ी को यह अहसास दिलाना होगा कि ‘‘हमारी संस्कृति में वे सब तत्त्व हैं जिनकी सहायता से हम आधुनिकतम जीवन पूरा किन्तु सम्यक उपभोग कर सकते हैं। यह भी बड़ी शाइस्तगी के साथ उन्हें महसूस कराने होंगे कि यदि हम अपनी श्रेष्ठ संस्कृति में वापिस जाना चाहते हैं तब हमें अंग्रेजी के मोहपाश से मुक्त होकर, अपनी भाषाओं में वापस जाना पड़ेगा। विश्व के श्रेष्ठ विद्वानों यथा शोपेनहार, एल्डस हक्सले, विलियम जोन्स, टी.एस. इलियट, टायनवी, आन्द्रे मालार्मे, जोसेफ कैम्पबेल आदि अनेक श्रेष्ठतम विद्वानों ने, घोषित किया है कि भारतीय दर्शन तथा संस्कृति श्रेष्ठतम है। 

     किसी भी देश की शिक्षा-नीति के प्रचार-प्रसार और अभिसरण(कन्वर्जेंस) में जनमाध्यमों(मीडिया) की भूमिका असंदिग्ध है। फिर भी आज जिस तरह भारतीय मीडियाशास्त्री मार्शल मैकलुहान के कहे ‘मीडियम इज दि मैसेज’ के प्रति अतिशय उतावलापन दिखाते हैं वह यथार्थ कम विभ्रम अधिक नज़र आता है। आज की प्रचारवादी संस्कृति ने मीडियावी वातावरण और उनके द्वारा परोसे जा रहे विषयवस्तु को इस कदर भोज्य/भोग्य बना दिया है कि उससे किसी किस्म की मौलिकता, नवीनता, तथ्यपरकता, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता, पारदर्षिता आदि समाचारीय अंतःदृष्टि की अपेक्षा करना ही सही नहीं है। वरिष्ठ प्राध्यापक और मीडियाविद् हेमंत जोशी मीडिया की अहमियत और उसकी भूमिका को शिक्षा के सन्दर्भ में जिस तरह देखते हैं वह बेहद उल्लेखनीय है-‘‘अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता की कमान संभालते ही कुमारमंगलम बिड़ला और अनिल अंबानी के नेतृत्व में कुछ बुद्धिजीवियों से भविष्य की शिक्षा नीति पर दस्तावेज तैयार करवाया था। यहाँ इस बात का जिक्र इसलिए आवश्यक है कि हम जनतंत्र और प्रशासन के बीच की कड़ी को देख सकें और इस बात की भी जाँच कर सकें कि इन दोनों को अधिक या कम जनतांत्रिक बनाने में मीडिया की क्या भूमिका होती है। जब देश में शिक्षा दिन-ब-दिन महंगी होती जा रही है, शिक्षा का स्तर गिरता दिखाई पड़ रहा है और सरकार बड़ी संख्या में विश्वविद्यालय, आई.आई.टी. और मेडिकल कॉलेज खोलने का निर्णय ले रही है, तब पुरानी संस्थाओं को समाप्त करके एक नई समेकित संस्था बनाने का विचार तो नेक है, लेकिन वह कहाँ तक व्यावहारिक है इस पर विचार करने की आवश्यकता है। किसी भी राष्ट्रीय स्तर के विमर्श में अधिकाधिक लोगों की भागीदारी मीडिया के बिना संभव नहीं है। विश्व भर में आजकल सुशासन की जो अवधारणा बनी है, उसमें नागरिक समाज की भागीदारी पर विशेष जोर दिया जा रहा है। अनेक स्तरों पर देश-विदेश में स्वयंसेवी संगठन ऐसे कई काम कर रहे हैं, जो सरकारों को करने चाहिए। इसके अलावा अनेक संस्थाए एवं लोग विभिन्न सामाजिक मुद्दों की वकालत और प्रचार के काम में भी लगे हुए हैं। एक समय था, जब लॉबिंग करना अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन आजकल यह सकारात्मक काम माना जाने लगा है। सरकारें भी नीतियां बनाने के लिए संबंधित लोगों से व्यापक तौर पर विचार-विमर्श करती हैं। कई बार तो ऐसी नीतियों का जिक्र सरकारें संचार माध्यमों के जरिए इसलिए भी करती हैं ताकि जनता के मूड को भाँपा जा सके। इसके विपरीत सरकारों के कई निर्णयों पर जब जनाक्रोश उभर कर आता है तो मीडिया उस पर आम बहस का माहौल तैयार करता है, जिसके फलस्वरूप कई बार सरकारों को अपने निर्णय वापस लेने पड़ते हैं या उन पर फिर से विचार करने को बाध्य होना पड़ता है। आरक्षण का मुद्दा हो, कोल्ड ड्रिंक्स में जहरीले पदार्थो का मामला हो या हाल ही में समलैंगिक लोगों की आजादी का मसला हो, यह सभी जनतंत्र और प्रशासन में मीडिया की भूमिका को रेखांकित करते हैं। ऐसे माहौल में मीडिया शोध चुपचाप अकेले क्यों हो और लोगों को इसकी जानकारिया भी क्यों न मुहैया करवाई जाए?’’
   
हर सत्ता चाहे वह अच्छी हो या बुरी उसके पीछे कोई न कोई शक्ति क्रियाशील या कि कार्यरत अवश्य रहती हैं। यह क्रियाशीलता जिस किसी भी व्यस्था(लोकतांत्रिक, समाजवादी, पूँजीवादी) के अन्तर्गत चालित क्यों न हों वह वहाँ किसी न किसी मूल्य(अपमूल्य) या संस्कृति(अपसंस्कृति) को अवश्य जन्मती हैं। वर्तमान समय में हम जिस वैश्विक समझदारी(?) से अपने देश का धंधाकरण/सौदाकरण कर रहे हैं उस में प्रभुत्त्व और वर्चस्व की राजनीति है न कि अखिल भारतीय संकल्पना या विश्वदृष्टि। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री भारत के मूल संकल्पना की रक्षा हेतु स्वयं को प्रतिबद्ध बताते थे; इसकी बानगी यह उदाहरण है कि ‘संविधान’ पारित होने के बाद उनसे पूछा गया कि आपकी सर्वोच्च प्राथमिकता क्या होगी? पंडित नेहरू ने जवाब में कहा कि-‘‘देश के सभी लोगों को सामाजिक समानता के साथ-साथ आर्थिक समानता दिलाना ही हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है।’’ लेकिन दुर्भाग्यवश पंडित नेहरू अपनी वचनाबद्धता को निभाने से रह गए। इंदिरा गाँधी को राजनीतिक प्रोत्साहन और नेतृत्व देने का जिम्मा उन्होंने चाहे जिस भी परिस्थिति में सौंपा हो; लेकिन यह निर्णय देशहित में कतई नहीं कहा जा सकता है। पंडित नेहरू के बाद भारत की राजनीति में वंशवाद की कोख से उपजे नेताओं को वरीयता देने का जो अजीबोगरीब चलन शुरू हुआ वह आज तक इसी नाते कायम है कि यह अपनी मूल प्रकृति और व्यवहारगत चेतना में समानतावादी एवं समन्वयवादी भारतीय संकल्पना के सर्वथा खि़लाफ है; और एक प्रकार की बुर्जुआवादी/सामन्ती अवधारणा है।

सार्वभौम-सत्तावादी भारतीय चेतना के अभाव में आज पूरी दुनिया जिस साम्बन्धिक-चक्रवात में फँसी है उसमें अलगाव, अजनबीपन, अमानवीकरण, अव-वैयक्तिकरण, पाश्विकीकरण, छिछोरापन, दासता, अपराध, हिंसा, युद्ध इत्यादि का जबर्दस्त जमघट है। भौतिक-संसाधनों के बटोर(एकत्रिकरण) से सम्बन्धित यह कुकुरमुता-रोग उन युवाओं में सर्वाधिक है जो भव्यता और दिव्यता के आग्रही हैं; जिनमें दिखावा और प्रदर्शन के नाम पर चंद मिनटों में हजारों उड़ाने की ताकत इफ़रात(सुपरफ्लूयस) हैं। यह संक्रामक-रोग हमारे उन कथित युवा बौद्धिकों को भी लग चुका है जो शब्द उलीच-उलीच कर साम्राज्यवाद/नवसाम्राज्यवाद के विरुद्ध हंगामा खड़ा करते हैं, कोहराम मचाते हैं लेकिन हर रात सोते हैं विदेशी ब्राॅण्ड का शूप/बियर/वाइन इत्यादि पीकर। उनके भीतर काफी कुछ बेतरतीब ढंग से लगातार टूट रहा होता है; कुंठाएँ भीतर ही भीतर फैल रही होती है....वे क्षण-क्षण अपनेआप में घुट रहे होते हैं; लेकिन किसी कीमत पर अपनी तकलीफ़-परेशानी किसी से साझा करना नहीं चाहते हैं। अपनी इन्हीं नकारात्मक मनोवृत्तियों-मनोविकारों को किसी भी तरह उजागर न कर पाने के कारण हमारे अधिसंख्य युवा नशे के लती हैं; सेक्स के आदी हैं; और आये दिन आक्रोश और आवेश के आवेग में अपने को बरबाद कर रहे हैं। चिंता, तनाव, अवसाद और कुंठा के बीच ऊब-चूब करती यह युवापीढ़ी बात-बात पर चीखती है, सरेआम मारपीट और गाली-गलौज करने पर उतारू हो जाती हैं....कहीं-कहीं तो वे बेहद खतरनाक स्थिति तक हिंसक हो उठते हैं और कई मर्तबा कुछ भी न सूझने की स्थिति में आत्महत्या करने तक का निर्णय ले लेते हैं।

इस समस्या को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो स्वार्थो की टकराहट का अंतिम फैसला हिंसा और हत्या के आधार पर ही निर्णित होता है। इसे हम अपने इर्द-गिर्द घट रही छोटी-बड़ी उन तमाम घटनाओं से जोड़कर देख सकते हैं जिनका आये दिन समाचारों में वर्णन मिलता है; टेलीविज़न में जिसके विडियो‘ज दिखाए जाते हैं। अमरीका-इराक-सीरिया प्रकरण में भी इन्हीं प्रवृत्तियों का दुहराव या कहें अंधानुकरण है जिसका अधिकाधिक फायदा साम्राज्यवादी राष्ट्र उठाते हैं। वैयक्तिक वर्चस्व का यह पूरा खेल बाज़ार के लिए खेला जा रहा है जिसमें सिक्का उसी की चलती और जमती है जो मन-बुद्धि-चित्त से पूर्णतः स्वतंत्र होता है। लेकिन, यह भी देखना होगा कि जब सामूहिकता और सामाजिकता की हमारी भावना का आधार सम्पूर्ण सृष्टि की एकात्मक अनुभूति पर टिके होते हैं, तो हमारी तर्कप्रणाली और मूल्यचेतना के स्वर-गूँज बिल्कुल बदल जाते हैं। हमारे भीतर विश्वदृष्टिकोण के भाव उमगने लग जाते हैं क्योंकि हमारा मन, चित्त और अंतःकरण सब का सब लोकतांत्रिक हो उठता है। भारत के सन्दर्भ में फिल्मकार श्याम बेनेगल ने बड़ी ही मानीखे़ज बात कही है-‘‘भारत की जनता अपने विचारों और आत्मा से जनतांत्रिक है; मगर इस देश की राजनीतिक पार्टियाँ लोकतंत्र विरोधी हैं।’’ यानी राजनीति जिस पर सामाजिक परिवर्तन का दारोमदार होता है जो कि हमारे सामाजिक आचरण पर सबसे अधिक प्रभाव डालती है और उसे बदलने की चेष्टा करती है; के बारे में एक अनुभवी निर्देशक का यह कथन भारतीय लोकतंत्र की आत्मा को निश्चय ही व्यथित करने वाला है। इसी तरह की कुछ बातें लोकनायक जयप्रकाश नें कहा था कि-‘‘लोकतंत्र में सात क्रांतियां शामिल है-राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक क्रांति। आज की राजनीतिक नेतृत्व में इसमें से एक भी परिवर्तनकामी अथवा क्रान्तिकारी चेतना नहीं शामिल है।’’ विशेषतया भारी निराशा शिक्षा के उपनिवेशीकरण को लेकर है। यह चिंता आज जितनी तल्ख है; दूरदर्शी चिन्तकों-विचारकों ने कई दशक पूर्व ही इस पर गम्भरतापूर्वक सोचना-विचारना और दो-टूक जबान में बोलना व सवाल उठाना शुरू कर दिया था। महेश्वर महान के शब्दों में-‘‘शहरी स्कूलों में में शिक्षा-क्षेत्र में प्रसारित औपनिवेशिक पूंजीवाद का बोलबाला है और गांव के ग्रामीण विद्यालय में सामन्तवादी मध्युगीनता की प्रचुरता। इसी वजह से एक ही पाठ्यक्रम और एक ही कक्षा के दो विद्यार्थी एक-दूसरे से कोसों दूर है। हिन्दुस्तान की शिक्षा को हर दूसरी व्यवस्था और भावना की तरह दो किस्मों में बांटकर इस पूरे देश को सवा अरब इकाइयों में तोड़ देने का षड़यन्त्र किया गया है ताकि सरकार इंतमीनान से निहित स्वार्थो की कार्य-सिद्धि कर सके। निराशा के इस महाकुम्भ के बावजूद यह याद रखना आवश्यक है कि नेतृत्व हमेशा वर्तमान में घटित और फलित होता है; लेकिन मौजूदा राजनीति में सार्थक, समर्थ और स्वस्थ नेतृत्व से नातेदारी ख़त्त्म हो चुकी है। अब हर जगह भेड़ियाधसान है..एक ही खटिया..एक ही मचान है। खैर! साहित्यकार नीलाभ के शब्दों में इसे शाब्दिक-रूप दें तो-‘खतरा परछाई की तरह/हमारे साथ है/चमकते हुए प्रभा-मण्डल की तरह/हमारे सिर पर मंडराता है/पीछे वाली रोशनी में कभी-कभार/हमारे आगे दिखाई देता है नेतृत्व की तरह।’

युवा-नेतृत्व के संकट पर विचार करते हुए यह स्मरण रखना जरूरी है कि जिस युवा को हम मनोमय, तेजोमय, ऊर्जस्वी, तेजस्वी, मनस्वी, तपस्वी...पता नहीं क्या-क्या मानते हैं; आज वह युवा जिमखाने में हैं, बियरबार में हैं, डिस्कोथिक, रैम्प, फिल्म, सेना, काॅरपोरेट, अकादमिक संस्थानों में है....लेकिन वह लोकतंत्र में यहाँ-वहाँ कहीं भी नहीं हैं। क्योंकर? इस पर विस्तार से मन-मस्तिष्क को मथना और इस समस्या के केन्द्रबिन्दु पर चोट करना बेहद जरूरी है। यहां यह बात पुनः दुहराना जरूरी है कि अपनी संस्कृति, परम्परा, पहचान और विरासत को बीते जमाने की घिसी-पिटी या सड़ी-गली बात कहकर भूल जाना सही नहीं है। भूत हमारे स्मृति का हिस्सा है। हमारे अनुभवकोष का अंग-उपांग है। वह अदृश्य और अप्रत्यक्ष जरूर है; लेकिन, है हमारे चेतन-अवचेतन का निद्र्वंद्व संकल्प-विकल्प ही। हम किसी चीज को कैसे देखते हैं, उसके बारे में किस प्रकार विचार करते हैं और भाषा में कैसे अपनी अभिव्यक्ति देते हैं; यह पूर्णतः व्यक्तिगत संस्कार पर आधृत है। वस्तुतः हर व्यक्ति अपने आस-पास के परिवेश-वातावरण का भोक्ता होता है। आत्मधारणा और प्रत्यक्षीकरण की इस प्रक्रिया के दौरान सक्रिय, गतिशील, तीव्रतापूर्ण एवं नैरन्तर्ययुक्त आन्तरिक कारकों या कि मानसिक सम्प्रत्ययों द्वारा उसका प्रभावित होना स्वाभाविक है। जागतिक कार्यकलापों में हमारी सहभागिता हमारे चेतस या चैतन्य होने का निश्चय ही प्रमाण है। हमारा मस्तिष्क चूँकि चेतनशील है, संवेदना के आरोह-अवरोह से सम्पृक्त है; इसलिए अनुभूत सत्य का आलोड़न/अवलम्बन हमारे अन्दर ठीक उसी प्रकार अनवरत होते रहता है जैसे अपने भीतर साँस भरने और छोड़ने की प्रकृति-प्रदत क्रिया। इस क्रिया-रूप तक पहुँचने के लिए हमें अंतःकरण के स्तर पर खूब पापड़ बेलने पड़ते हैं। चिन्तन जिसे हम आन्तरिक सम्भाषण कहते हैं सबसे पहले भीतरी स्फुरण/स्फोट के माध्यम से ही अपनी जीवन-यात्रा प्रारम्भ करते हैं। यह सत्तवस्त मन से सत्तवस्त वृत्ति में परिणत होते हैं, उसके बाद सत्तवस्त चित्त, फिर सत्तवस्त संकल्प, फिर सत्तवस्त वाणी और इस तरह उनका अंतिम अवगाहन ‘सत्तवस्त क्रिया’ के रूप में होता है। मानव अंतःक्रिया के ये रूप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पुरुषार्थ में तमस, राजस और सत्व का किस अनुपात में समावेश है- इससे भी निर्धारित होता है।

यदि यहां भारतीय मन की मनोभाषिकी पर दृष्टिपात करें, तो यह सोच पाना अपनेआप में ताज्जुबकारी है कि मानव-अंतःक्रिया और भाषिक-चिन्तन के अन्तर्गत भावों, संवेगों अथवा मानसिक सम्प्रत्ययों का आविर्भाव, तिरोभाव या उनका पुनः आविर्भाव का नैरन्तर्य इतने निर्बाध ढंग से बना कैसे रहता है? अन्तःकरण की ये समस्त वृत्तियाँ अथवा व्यापर हमारे चित्त का हिस्सा बनकर शब्द-शक्ति के रूप में अभिव्यक्त कैसे होती हैं? दरअसल, शब्दों में निहित अर्थ का बोध जिस शक्ति के द्वारा संचालित होता है उसे शब्द-शक्ति कहते हैं। यह शक्ति आज चार रूपों में स्वीकार्य है-क) अभिधा शक्ति, ख) तात्पर्या शक्ति, ग) लक्षणा शक्ति और घ) व्यंजना शक्ति। हमारे सांस्कृतिक-साहित्यिक विधानों और ज्ञान-दर्षन में अभिधा शक्ति को ज्ञान का पर्यायवाची समझा जाता है तो इसी तरह तात्पर्या शक्ति, लक्षणा शक्ति और व्यंजना शक्ति को क्रमषः क्रिया, इच्छा और आनन्द का पर्याय अथवा प्रतिरूप कहा गया है। वस्तुतः शैव-दर्शन की इन प्रख्यात चार शक्तियों-ज्ञान, क्रिया, इच्छा और आनन्द को अभिनवगुप्त ने अपनी दार्शनिक दृष्टि के अनुसार चतुर्शक्तियों के रूप में मान्यता दी है। यहाँ दार्शनिक शब्द का अर्थ ज्ञानोपलब्धि की प्रक्रिया में शामिल तत्त्ववेता से है जो उपलब्ध ज्ञान से साक्षात्कार करता है, किन्तु सन्तुष्ट नहीं होता है। दर्शन शब्द का अर्थ परम सत्य की प्राप्ति है। यह जीवन की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है। वह केवल ऐन्द्रिय अनुभव से संतुष्ट नहीं होता और बौद्धिक प्रक्रिया एवं तात्त्विक विश्लेषण द्वारा जीवन के वास्तविक जीवन का ज्ञान कराता है। यह ज्ञान बहुविध रूपों-प्रकारों में संयोजित हो सकता है। भारतीय चिन्तन-परम्परा में प्रसिद्ध षड्दर्शन प्रमुख है। यथा-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त इत्यादि। ज्ञान के भी कई स्तर हैं-भेद, अभेद और भेदाभेद। अतः अनुभूति रहित ज्ञान से या वाक्य ज्ञान होने मात्र से परम उपलब्धि नहीं प्राप्त हो सकती है। इसलिए भी कहा जाता है-‘इल्म होने से शायरी नहीं आ जाती’। वाक्प्रवीण या अभिव्यक्तिकुशल होना व्यक्तित्व-व्यवहार की एक विशिष्ट स्थिति मात्र है; इसके माध्यम से आप ज्ञान-मीमांसा के चिन्तन-क्षेत्र में भी अग्रगण्य या उत्तीर्ण हों जाएँ, यह शर्तिया जरूरी नहीं है।

इस प्रकार मनुष्य अपनी बाहरी समानान्तर दुनिया से जो भी चयन करता है; वह अपनी मौलिक ‘रुचि’ और ‘आकांक्षा’ के अनुरूप ही करता है। यह रुचि और आकांक्षा अपनी परिस्थियों से ही नहीं, जातीय और पारम्परिक स्वभाव से भी प्रेरित होती हैं। ऐसे में अपने व्यक्तित्व और चिन्तन में जो ‘स्वीकार’ और ‘प्रभाव’ नया अथवा आयातित दिखाई पड़ते हैं; वे अपनी ही जातीय चेतना, संस्कार और स्वभाव का मूलांश होते हैं। कार्ल गुस्ताव जुंग ने सामूहिक अवचेतन(कलेक्टिव कन्शियसनेस) की बात की है। जुंग द्वारा भिन्न-भिन्न जातियों, नस्लों एवं राष्ट्रों के बीच चिन्तन-क्षेत्र में खोजी गई विशेषताओं एवं समान गुणधर्मिता की स्थिति की अभिव्यक्ति से विभिन्न जातियों एवं राष्ट्रों के बीच परस्पर सौहार्द भावना, बंधुत्व एवं सहकारिता को जो बढ़ावा मिला है तथा परस्पर विरोधी जातियों, धर्मों, मतावलम्बियों एवं मान्यताओं के बीच जिन संघर्षों एवं तनावों के बीच कमी आई है, वह निःसंदेह विश्व के लिए समन्वयकारी-मंगलकारी प्रवृत्ति का सहज-विकास है जिससे सम्पूर्ण विश्व में परस्पर समानता, भाईचारा, सहयोग एवं सामंजस्य भावना की अभिवृद्धि हुई है। यह अलग बात है कि आज भी यदि कोई इस ब्रिटिश शिगूफे़ में विश्वास करता हो कि दुनिया भर के मनुष्यों को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने का ठिका ‘द व्हाइट मैन बर्डेन’ वाले मुहावरे को जाता है तो इसे हास्यास्पद कहना ही उचित होगा। वस्तुतः विश्व-मानव की निर्मिति में भारतीय जनमानस का योगदान कमतर नहीं है। बासबूत बात करें, तो ‘‘एक तरफ जब ब्रिटिश साम्राज्यवादी अपनी नीतियों से भारत की औद्योगिक उन्नति को बाधित कर रहे थे। दूसरी ओर प्राच्यविद्यावादी बुद्धिजीवी प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद योरोपीय भाषाओं में कर रहे थे। कालिदास के नाटकों के अनुवादों के अलावा ‘उपनिषद’, ‘हितोपदेश’ और ‘मनुस्मृति’ का अनुवाद क्रमशः एक्वेंटिल दुपेरान, विलियम जोन्स और चाल्र्स विलकिन्स जैसे ओरिएंटलिस्ट कर रहे थे। 1784 में ‘एशियाटिक सोसायटी’ और 1798 में ‘ओरिएंटल सेमीनरी’ की स्थापना ने प्राच्यवादियों की परियोजना को गति प्रदान की।’’ भाषाविज्ञानी ब्लूमफील्ड ने ठीक ही लक्ष्य किया है कि भारतीय लोककथाएँ पश्चिम में पहुँच कर कोट-पैंट-टाई धारी बन जाती हैं तो अरब देशों में पहुँचकर इस्लामिक चोला पहन लेती हैं। लिहाजा, ईसप की कहानियों पर हितोपदेश के प्रभाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं। इस तरह अंग्रेजों ने सिर्फ बेशकीमती सामानों, हीरे-जवाहरातों, सोने, चाँदियों आदि की लूट-मार नहीं मचाई; और न ही सिर्फ यहाँ की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस नहीं किया है अपितु उन्होंने अपनी अधिकतम सीमा में बौद्धिक सम्पदा की लूट, नकल और अपनी भाषा में दस्तावेजीकरण भी किया। आज की युवा पीढ़ी पश्चिमी शब्दावली ‘नाॅलेज हेजेमनी’ या ‘इंटेलेक्चुअल पोपर्टी राइट’ पर प्रायः लोट-पोट होती दिखाई देती है या कि पश्चिम स्वयं भी पूरे जोर-शोर से इन बातों को प्रचारित-प्रसारित करता है जबकि आज के इस वैश्विक युग में भारत का सांस्कृतिक अवदान भी यूरोप, अमेरिका आदि से कम हरग़िज नहीं है। इन्हीं सब कारणों से प्रसिद्ध चिंतक एडवर्ड सईद ने पूर्व के बारे में पश्चिम के ज्ञान को तथ्यों और वास्तविकताओं पर आधारित नहीं माना है।

अतः आज यह चिंता व्यक्त करना कि भारत का एक भी विष्वविद्यालय विश्वस्तरीय विश्ववविद्यालयों की सूची में 200 के वरीय क्रमांक में क्यों शामिल नहीं है...हास्यास्पद और बिल्कुल बेमानी है। दरअसल, हमें तो यह सोचना होगा कि स्वाधीन भारत में आज तक एक भी विष्वविद्यालय ऐसा क्यों नहीं बन पाया जो ‘फ्रैंकफुर्त स्कूल’, ‘टोरंटो स्कूल’, ‘शिकागो स्कूल’ आदि से खुद को बीस साबित कर सके? आर्थिक उदारीकरण की नींव पर बने शीशमहल से आम-भारतीयों को क्या-कुछ हासिल हुआ है; इस बारे में पूरी शिद्दत और संवेदनशीलता के साथ विचार किए जाने की जरूरत है। डिजिटलीकरण के अतिउत्साह और ‘डिजिटल इंडिया’ के मुहावरे में हमारा मुल्क अपना सबकुछ जो अब तक का सर्वश्रेष्ठ रहा है ‘ग्लोबल वल्र्ड’ को भेंट कर देने को आतुर दिख रहा है, लेकिन पश्चिम अपना सामान्य-ज्ञान साझा करने से पूर्व भी अपने बौद्धिक संपदा अधिकार की चिंता पहले करता है विश्व बिरादरी की फिक्र बाद में। मिसाल के तौर पर देखें, तो अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के कार्यकाल के दौरान ‘सत्य’ पर पाबंदी लगाने की अजीबोगरीब परम्परा विकसित की गई थी। हाल के दिनों में यह रहस्योद्घाटन किया गया है कि बुश प्रशासन ने अमेरिका में कई महत्त्वपूर्ण शोध कार्यों में रुकावट डाल रखी थी। बुश प्रशासन जिन रिसर्चों को ठीक नहीं मानता था, उन रिसर्चों के प्रकाशन पर उसने रोक लगा दी थी। ऐसी ही एक रिपोर्ट धूम्रपान के सम्बन्ध में थी, जिसमें यह नतीजा निकाला गया था कि सिगरेट के धुँए का थोड़ा भी सम्पर्क हानिकारक हो सकता है।

पश्चिम के प्रति हमेशा नेकनियति का ख़्याल रखने वाले उच्चबौद्धिक भारतीयों/शिक्षितों को इन सब उदाहरणों से कब सीख मिलेगी, यह देखना अभी बाकी है। लेकिन इतना तो तय है कि यह सारा खेल अक्सर नई आर्थिक नीति या उदारीकरण केन्द्रित ‘एलपीजी’ मुहावरे के अन्तर्गत खेला जाता है। परन्तु हम इन बातों को जानबूझकर बिसार देते हैं क्योकि हमारे तात्कालिक हित सध रहे होते हैं। एक दशक पहले ही समाचरपत्रों में यह बात लगभग उजागर हो गई थी कि इस देश में विदेशी कम्पनियों का घुसपैठ, विकास और आक्रमण तेजी से हुआ है; लेकिन इन कम्पनियों द्वारा रोजगार सृजन डेढ़ फीसदी ही रही है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने विकास के नाम पर वर्षों के हमारे हुनर और हस्तशिल्प को रौंदा है। इन उद्योगों में लगे करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी तक छीन ली है। आधुनिकीकरण की सबसे ज्यादा मार कारीगरों, दस्तकारों, देशी व कुटीर उद्योगों पर पड़ी है। कुल्हड़ की जगह कम्पनियाँ गिलास बनाने लगी हैं, तो कुम्हार की आमदनी का बट्टा लगना तय है। फलों का रस डिब्बा बंद करके बेचने के लिए विदेशी कम्पनियाँ आएंगी तो फल बेचने वाले लोग ही परेषान होंगे। एडीडास, ब्यूमा, ड्यूक, लोटो विदेशी कम्पनियों के भारत में सिले हुए कपड़ों के क्षेत्र में आ जाने से लाखों दर्जियों की आजीविका छिन गयी है। इन्हीं कम्पनियों के भारत में खेल-सामान बनाने के क्षेत्र में घुस जाने से जालंधर के खेल-उत्पादन सामान के क्षेत्र में 60 हजार कुशल श्रमिकों के रोजगार का खतरा उत्पन्न हो गया है...बाटा जैसे जूतों के चलन ने देष के लाखों मोचियों को बर्बाद किया है। विमकों ने बरेली व शिवकासी के माचिस उद्योग में लगे हजारों श्रमिकों का भविष्य अंधकार में कर दिया है।’’

पनी तमाम बेतरतीबी के बावजूद आखिर में यह कहना वाजिब होगा कि उपर्युक्त विश्लेषण शिक्षा-जगत में व्याप्त कुहरिले पर केन्द्रित है। इस जगह यह कहना अब जरूरी हो गया है कि अभी हमारे देश को जनचिंतक श्रीअरविंद के शब्दों में उध्र्वारोही चेतना की जरूरत है; गाँधी के ग्राम-स्वराज सम्बन्धी सोच को साकार करने की आवश्यकता है; यहाँ मुक्तिबोध की शैली में बँधी-गूँथी संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन के पारस्परिक सहमेल-संवाद को उत्तरोत्तर समृद्ध एवं समुन्नत बनाए जाने की अनवार्यता है; और यह भी कि पश्चिमी अहमन्यतावाद से पीड़ित-प्रभावित-प्रकम्पित होने की बजाए स्वयं साधे और अपने अंतःकरण की सुनें। 

आने वाला कल अत्यन्त विकट और संकटग्रस्त है, यह अमेरिका के लिए जितना सत्य है; भारत के लिए भी उतना ही।
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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...