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इस गणतंत्र के आधे उम्र के लगभग हो चले हैं; लेकिन ससूरी कोई काम नहीं मिला।
बेगारी में लिख-पढ़ के आप सबन के कपार दुखाई दिए; अब आप भी राहत चाहत हौ, तो हम कही देत हैं कि हमके इरादा भी तोहन के माथा चाटे के नाई है। असल में ई गोला पर जो आदमी है न सब रंग देखत है; लेकिन जब माने के कहौ, तो अपनी दूजी रंग दिखावे लागत हौ....तो फाइनली हम डिसाइड किया कि अपन लोगन के अपनही रंग में रंगे देवे के और खुश होवे देवे के,
तो भारत मइया की जय!!!
जरका चिचियाई के कहो...का रजीबा जैसा मरियल बोलत हौ?
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अपने देव-दीप के लिए यह कविता
इन ढलानों पर वसंत आएगा
- मंगलेश डबराल
इन ढलानों पर वसंत आएगा
हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को
फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुँधुवाता खाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफिर की तरह
गुजरता रहेगा अँधकार
चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर से उभरेगा झाँकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जाएगा जैसे बीते साल की बर्फ
शिखरों से टूटते आएँगे फूल
अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान
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- मंगलेश डबराल
इन ढलानों पर वसंत आएगा
हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को
फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुँधुवाता खाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफिर की तरह
गुजरता रहेगा अँधकार
चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर से उभरेगा झाँकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जाएगा जैसे बीते साल की बर्फ
शिखरों से टूटते आएँगे फूल
अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान
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