Saturday, February 23, 2013

पुनर्रचना के निकष पर एक लड़की


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‘‘समाज उसके लिए रंगमंच है
 और कला उसकी मेधा की क्रीड़ा है
 वह कलाकार होने के साथ मनुष्य भी है
 कहना कितनी बड़ी पीड़ा है।’’
            -डाॅ. रामदरश मिश्र

एक लड़की का अभिनयकुशल होना; कला में निष्णात होना; उसके मनुष्य होने की निशानी नहीं है। तो फिर उसके होने सम्बन्धी निशान या तारक-बिन्दु क्या है? पहचान की हाँडी में सीझती ऐसी ही लड़कियों के बारे में प्रो. कृष्ण कुमार बड़ी शिद्दत से विचार करते दिखाई देते हैं। ‘लड़की की पुनर्रचना’(hindisamay.com) नामक अपने लेख में वे एक लड़की की आत्मा, मस्तिष्क, मन और देह सबकी आपबीती अपनी कानों से सुनते हैं; तब जा कर उसे व्यक्तिगत विचार-सरणि में ढालते हैं, उसे एक मेखमाला का रूप, आकार या कि कोई ‘नज़रिया’ नाम देते हैं। उनका खुद का यह मानना है कि अध्यापकीय पेशे से जुड़े होने के कारण वे कई लड़कियों को काफी करीब से देखते रहे हैं जो सयाने होने की दहलीज पर होती हैं; जिन्हें समाज रच रहा होता है क्षण-प्रतिक्षण। बकौल प्रो. कृष्ण, ‘‘मैंने अपने अध्यापक जीवन में हजारों लड़कियों को पढ़ाया है; उनमें से ऐसी बहुत कम देखी हैं जिन पर किशोरावस्था के नाटकीय मोड़ पर लगे घाव साफ-साफ न दिखते हों। अपनी शख़्सियत को ले कर आश्वस्त लड़कियाँ सैकड़ों में एक मिलती हैं। उनमें निहित क्षमताएँ विभिन्न संस्थाओं के वातावरण में किस हद तक थोड़ा-बहुत खिल पाती हैं, यह एक कठिन प्रश्न है।’’

यह प्रश्न सचमुच कठिन है, क्योंकि समाज और पुरुष दोनों में दुरःभिसन्धि बनी हुई है। जिस कारण लड़कियाँ अपने ही दुःख और संत्रास का सही ‘डायग्नोसिस’ करने का अधिकारिणी नहीं हंै। ऐसे में, उनकी तड़प और हुक का गोलार्द्ध काफी विस्तृत और व्यापक हो जाता है। विडम्बना यह है कि सामाजिक नैतिकता का दहन-दोहन अधिसंख्य पुरुष करते हैं जबकि अग्निपरीक्षा से गुजरती लड़कियाँ हैं। यह भेदभाव मिथकीय परम्परा तक में अभिव्याप्त है। भारतीय वाड.मय में राम जैसे व्यक्तित्व को वीरता, साहस, तर्क, बुद्धि, वाग्मिता, देवत्व आदि के निकष पर श्रेष्ठ घोषित किया गया है जिन पर सीता जैसी राजपुत्री पहली ही नज़र में रीझ(कहीं ऐसा तो नहीं कि यह केवल कवि-मन का हृदय-प्रसंग हो) जाती हंै। राजा जनक के यह कहने पर कि-‘वीर विहीन मही मैं जानी।’ राम के निजभ्राता लक्ष्मण की भुजा फड़कती है और वे प्रत्युŸार क्या देते हैं, यह छोड़िए; जिस अन्दाज़ में वे कहते हैं उसका वर्णन अद्भुत है-‘‘लषण सकोप बचन जब बोले, डगमगानि महि दिग्गज डोले।’

प्रसंगवश यहाँ यह तर्क करना वाज़िब होगा कि जब प्राणियों में देवतुल्य राम जैसा पुरुष लोकलाज और लोकनिन्दा की डर से सीता को वन में छोड़ने के लिए लक्ष्मण से कहता है, तब लक्ष्मण की अनुश्रवण-शक्ति कहाँ चली जाती है? यह ताज़्जुब और खोज दोनों का विषय है। यहाँ तक कि जनसमाज में भी इस प्रसंग को लेकर कहीं कोई असंगति उत्पन्न होते नहीं दिखाई देता है। इस मिथकीय इतिहास के बिरवे भारतीय समाज में इतनी चालाकी से रोपे गए हैं कि वह अब विषवृक्ष का रूप धारण कर चुका है। प्रो. कृष्ण जनसमाज के इस चालाकी भरे वातावरण का हवाला देते हुए कहते हैं-‘‘चूड़ी की दुकान में प्रवेश करते समय लड़कियों की सामाजिक ढलाई का कार्यक्रम एक खास मुकाम पह पहुँच जाता है। जब कोई लड़की चूड़ियों के रंग और डिजाइन की विविधता देखती है, दुकान में रखी चूड़ियों की विपूल राशि में से अपने लिए चूड़ियाँ चुनती है, उन्हें पहनने के लिए अपने हाथ दुकानदार के हाथों के सामने पेश करती है, तो वह संस्कृति के एक लम्बे एजेण्डा की तामील कर रही होती है।’’

यह तामील एक लड़की के दिमाग में इस तरह टँका होता है कि वह इन बंधनों से ही ताउम्र सबसे ज्यादा प्रेम करती दिखाई देती है। यथा-फ्राॅक के गोल घेरे, ओढ़नी के चौड़े पाट, समीज-सलवार पर काढ़ा हुआ कसीदा, साड़ी पर रंगीन बाॅर्डर या छापदार डिजाइन इत्यादि। परिधान का मामला सुलटता है, तो हाथ, पैर, होंठ, आँख, चेहरे को रंगने-पोतने की बारी आ जाती है। इसके बाद फिर आभूषण का मामला सामने आ खड़ा होता है। लड़की खुद पर यही सब वारती हुई कब सयानी हो आती है, पता तक नहीं चलता है। एक लड़की बचपन के भेदभाव और अनदेखेपन को शायद ही नोटिस करती हो। उसे सर्वप्रथम इस दोहरेपन का अहसास तब होता है जब वह अपने देह में कई प्रकार के बदलाव उमगते हुए देखती है; उसे अपने ही वय के लड़कों के संगत में रहने से अलगाया जाने लगता है; यह करो और वह न करो की शब्दावली में जब उस पर एक के बाद एक चीजें थोपी जाने लगती है; या उसके हँसी-बोली के नाप को बड़े तो बड़े छोटे तक तय और नियंत्रित करने लगते हैं; उस घड़ी लड़की की पीड़ा कितनी कष्टप्रद और असह्î होती है? उसकी आत्मा पर कैसी और किस तरह की रेघारी या खरोचें उगी होती हैं; इस बारे में स्त्रियाँ ही सटीक और निष्पक्ष अभिव्यक्ति दे सकती हैं। नितान्त निजी मौके पर स्त्रियों के सन्दर्भ में अधिसंख्य पुरुष खोखले सिद्ध होते हैं जबकि स्त्रियाँ तब भी उनके प्रति आशावान और गहरे संवेदनाओं से सम्बलित होती हैं। स्त्रियों की भाषा में प्रायः वक्रता अधिक होती है, कटुता नाममात्र भी नहीं।

वर्तमान 21वीं शताब्दी के इस खुले माहौल की बात करें, तो आज भी पितृसत्तात्मक समाज लड़कियों के खुलापन को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। कोई लड़की जैसे ही किसी दुर्घटना या मानवीय-दुव्र्यवहार का शिकार होती है। तथाकथित शुभेच्छु-जन लड़कियों को सामान्य वस्त्र नहीं चादर लपेटकर चलने की सलाह देते नजर आ जाते हैं। लड़कियों को ले कर समाज के मन में असुरक्षा-बोध और अकर्मण्यता दोनों जबर्दस्त है। लैंगिक भेदभाव की पराकाष्ठा ऐसी कि घुप्प अन्धेरी रात में ‘फिल्मी शो’ देखकर लौटता लड़का चारदिवारी फाँदकर घर में घुस सकता है; लेकिन, एक लड़की अन्जोरिया रात में भी अपनी सहेली की शादी से अकेली वापिस नहीं लौट सकती है। यदि लौटती दिख गई, तो कहने वाला टोला-मोहल्ला अगले दिन दरवाजे पर हाज़िर होंगे, ‘युग-ज़माना ख़राब है, और राऊर बिटिया....., भगवान! न करे कि....,’’

किसी भी लड़की के लिए ये वाक्य सुभाषितानी नहीं कहे जा सकते है। दरअसल, यह एक प्रकार की सामाजिक-मानसिक कुंठा है जो लड़कियों को बेड़ियों में जकड़ कर ही उनकी स्वतन्त्रता को परिभाषित करता है। उनकी दृष्टि में एक लड़की का तर्कशील या विचारवान होना(जिसे प्रायः शहराती बुद्धि का मान लिया जाता है) भारतीय समाज के लिए बाँस का फूल होने जैसा है जिसके बारे में बहुश्रुत है कि यह किसी बड़ी विपत्ति या अपशकुन का द्योतक है। ऐसे में उस लड़की को तत्काल सामाजिक अपकृति या समाज के लिए खतरा घोषित कर देना आमबात है। यही कारण है कि बहुसंख्यक लड़कियाँ खुद ही मन मारकर मौन रहना सीख जाती हैं या कि अपनी ही देह में लज़्जा और संकोच को एक आवरण की तरह लपेट कर अपनेआप में सिकुड़ी-सिमटी रहने लगती है। उनके भीतर डर या खौफ इस कदर व्याप्त होता है कि उन्हें लगता है कि वह जैसे ही परिधान बदलेंगी या कि अपने पोशाक की नाप में कटौती करेंगी; नैतिक-ठेकेदार उन्हें ग़लत करार दे देंगे। और कुछ नहीं तो कोई शोहदा सरेराह यह कहता मिल ही जाएगा-‘तनी-सा जिंस ढिला करऽऽऽ...,’

कहने को तो हम 21वीं सदी के उत्तर आधुनिक समाज में हैं लेकिन प्रकटतः लैंगिक भेद, असुरक्षा-बोध, भेदभाव, दोहरापन, लांछन, सामूहिक बलात्कार इत्यादि की शिकार लड़कियाँ ही सबसे अधिक हैं। वे मौन रहकर सबकुछ करते रहने के लिए स्वतन्त्र हैं जबकि अपने मन का कुछ भी न करने के लिए अभिशप्त हैं। प्रायः लड़कियों के जिस सौन्दर्य-बोध का गुणगान/महागान किया जाता है, वह उनका नैसर्गिक गुण कम आरोपित-कर्म ज्यादा है। आभूषण धारण करने के लिए शरीर-छेदन की जिस पीड़ाजनक प्रणाली से उन्हें गुजरना होता है; वह उनकी स्वैच्छिक चयन-प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। दरअसल, ये रवायतें एक लड़की को सामाजिक उŸाराधिकार में प्राप्त है। आमोखास सभी वर्ग में आधी-आबादी को सामाजिक कारागार के भीतर ही कुलरक्षिता के रूप में अधिष्ठित किया गया है। एक लड़की अपनी कर्म-चेतना में चाहे कितना भी प्रखर, गुणी, निष्णात अथवा पारंगत क्यों न हो; वह लैंगिक-पूर्वग्रह और लैंगिक-भेदभाव से बच कम ही पाती है।

अपने इर्द-गिर्द को ही प्रतिदर्शात्मक इकाई मानकर देखें, तो कमोबेश सभी लड़की जवाबदेहियों का पठार आजीवन ढोते हुए मिल जाएंगी जबकि उनका श्रम-मूल्य ‘भारहीनता’ का शिकार है। उस पर आरोपित पारिवरिक एवं सामाजिक गुरुत्वाकर्षल बल(g और G) पीड़ाजनक है। एक लड़की भ्रम और भुलावे की जिस परिधि में जन्म के बाद से निरन्तर चक्कर काटती है, एक दिन यकायक उसे उस वृत्तीय-परिक्षेत्र से बाहर कर दिया जाता है। सोने, ओढ़न,े बिछाने का मामूली साजोसमान दे कर किसी लड़की के सम्पूर्ण मानवीय अधिकार को छीन लेना सरासर अन्याय नही ंतो और क्या है? लेकिन, न्याय की परिभाषा गढ़ने वाले होते, तो आखिरकार पुरुष ही हैं; अतः सामाजिक अन्याय उन्हीं के हितों का समर्थक और मुखापेक्षी बना हुआ है।

पितृसत्तात्मक समाज अपनी प्रवृत्ति और निर्णय में कितना पक्षपाती है; कवयित्री अनामिका का मत इसे समझने की दृष्टि से उपयुक्त है-‘‘स्त्रियों का दोहन क्यूंकि दोहरा होता है(विस्थापन का दुःख, यौन शोषण के नए सिलसिले एक साथ झेलने पड़ते हैं उन्हें), अपनी मूल भाषा से उनका लगाव भी दोहरा हो जाता है। यही कारण है कि अपनी सन्तति को क्षेत्रीय लोककथाएँ, लोरियाँ, पहेलियाँ और चुटकुले वे भरपूर सुनाती हैं। वैसे भी अतृप्त मनुष्य ही बोलना चाहता है, पर संरचनागत दबाव कुछ ऐसे होते हैं कि जो कहना चाहता है, साफ कह नहीं पाता और कई दरारें निकल आती हैं। शब्द और शब्द के अनन्तर जिसमें कई अर्थ-छवियाँ फँसी पड़ी होती हैं। स्त्रियाँ इस अतृप्ति का उपाय अधिक सर्जनात्मक और हँसमुख ढंग से कर लेती हैं। जिसे भी अधिक त्रास झेलने होते हैं, वह विपरीत परिस्थिति में भी मस्त रहना सीख जाता है।’’

कवयित्री अनामिका अपने आकलन में दुरुस्त हैं। आज हर लड़की वाकई अपने मनुष्य होने के पूरेपन को जीना चाहती है। अतएव, उसकी मस्ती और हँसी-ठिठोली में जागृति का रंग गहरा है। ‘गंगा से वोल्गा’ तक यात्रा कर चुकी ये लड़कियाँ प्रवाह में बहते जाने के विपरीत जीवनधारा में हमेशा बने रहने की इच्छुक हैं। देखना होगा कि वे शरीर उघाड़ने वाली (अप)संस्कृति का ‘कोर मेम्बर’ नहीं हैं जबकि अपनी स्वाधीनता के उजास में उन्हें अपनी आत्मा, मन, दिमाग और देह सब को मुक्त छोड़ देना क़बूल है। इन आधुनिक लड़कियों के स्वभाव में जो बेलाग-बेलौसपन दिखाई दे रहा है; वह मुक्ति का मुक्तकंठ पाठ है। ‘माइलस्टोन’ पर बिना आँख रखें आगे बढ़ती इन लड़कियों के सामने दुश्वारियाँ पहले से कहीं अधिक है, चुनौतियाँ और संघर्ष तो और भी असीमित। कुल के बावजूद निर्भय-निडर इनमें से अधिसंख्य साहसी और आत्मविश्वासी लड़कियाँ ज्ञान और चेतना का ‘कोलाज’ या कि ‘मास्टर काॅपी’ बनाने में लड़कों से काफी आगे हैं।

वैश्वीकरण के इस संकटकालीन दौर में यह भी स्पष्ट दिख रहा है कि ‘मार्केट कारपोरेटलिज़्म’ इन लड़कियों को वस्तु-छवि या कि ‘कमोडिटी’ के रूप में भुनाने की जबर्दस्त जुगत में है। बाज़ारवादी ताकतें उनकी आजादी को अलग ढंग से विज्ञापित/विरुपित कर रही हैं जिसमें उन्हें आंशिक सफलता भी प्राप्त है। तब भी बहुसंख्यक भारतीय तरुणी इन सम्मोहनास्त्रों से स्वयं को बरका ले जाने या बचाए रखने में सफल हैं। असल में, उपभोक्तावादी संस्कृति के मकड़जाल से खुद को बरका ले जाना इन लड़कियों के प्रखर चेतना और उपयुक्त निर्णय-क्षमता का प्रतीकीकरण है जो ‘डाउ जोन्स’(अमेरिकी प्रकाशन व वित्त सूचना संघ) से नहीं तय हो रही होती है। यह तो तय उनसे भी नहीं हो रही होती है जो नैतिकता के झण्डाबदार हैं या कि सामाजिक व्यासपीठ पर आसीन हैं। भूमण्डलीकृत विश्व का उपभोक्ता माने जाने के कारण यूँ तो पूरी दुनिया इन लड़कियों के कदमों का वजन नाप और तौल रही है; लेकिन, पुनर्रचना के निकष पर सवार ये लड़कियाँ अपनी गति, ऊर्जा और संभाव्य चेतना से निरन्मर अपना कदम आगे की ओर बढ़ा रही हैं। यद्यपि तराजू की तौल पर लड़कियों का वजन लगातार वजनदार सिद्ध हो रहा है, तथापि ये लड़कियाँ झूठी गुमान की जगह गर्वीली मुसकान के साथ हाट-बाज़ार में बैठी हुई चूड़ीहारिनों के आगे अपनी दोनों हाथ बढ़ाए हुए मानों कह रही है...रिंग-रिंग-रिंगा....2 रिंग-रिंग-रिंगा...रिंगा-रिंग।   



हिम्मत


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यदि किसी दिन
आसमान टंगा मिले
छत की तरह
तुम्हें अपने ही घर में

तो राजीव!
तुममें इतनी हिम्मत होनी चाहिए
कि कहो आसमान से
जाओ अपनी जगह जाओ
और मेरे बच्चों को
आँगन में खेलने दो

वे मेरे प्यासे होने पर
दो अँजुरी जल काढ़ लेंगे
तुममें से ही

यार! उसके लिए तुम्हें मेरे पाॅकेट में समाने की जरूरत नहीं है।

Saturday, February 16, 2013

भारतीय युवा और समाज:

भारतीय सन्दर्भ में यह विविधता या कि विभिन्नता सर्वाधिक बहुआयामी अथवा बहुपक्षीय है। विस्तृत सामाजिक एवं राजनीतिक रंगपटल के बावजूद सब में एक समानधर्मा अभिलक्षण विद्यमान है-लोकतांत्रिक विचारों, विशेषतः वैज्ञानिक समाजवाद, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य, प्रगतिशील मूल्य, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन; संभाव्य चेतना, विद्रोह की संस्कृति, नेतृत्व, अभिव्यक्ति के नैसर्गिक गुणधर्म तथा राष्ट्रों के बीच मैत्री व शान्ति के लिए संघर्ष इत्यादि। उपर्युक्त बिन्दु अहम और महŸवपूर्ण कहे जा सकते हैं क्योंकि भारत में युवा राजनीति का फलक काफी विस्तृत और व्यापक है। कई अर्थों में भिन्न तथा विशिष्ट भी। राजनीतिक स्तर पर प्रदर्शित इस भिन्नता एवं विशिष्टता के लिए सामाजिक स्तरण काफी हद तक जिम्मेदार है। यह स्तरण लिंग, वयस्, वर्ग, जाति इत्यादि स्थूल-सूक्ष्म विभेदक इकाईयों में बँटी हुई है। देखना होगा कि सामाजिक स्तरण की दृष्टि से किसी युवक का वर्गीय उद्गम एवं समाज की सामाजिक संरचना में स्थान प्रमुख विभेदकारी कारक है। विरोधी वर्गों और स्तरों में विभाजित समाज में ये भेद सर्वाधिक मुखर होते हैं। परिणामस्वरूप सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ, एक ही आयु वर्ग के भीतर भी बहुत हद तक व्यक्ति के समाजमूलक उद्गम, सामाजिक स्तर, शिक्षा, लिंग एवं अन्य विशिष्टताओं द्वारा निर्धारित होती है।
  
भारत के सन्दर्भ में देखें, तो भारत की आधी आबादी का युवा होना भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए महŸवपूर्ण प्रस्थापन है। सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक 25 की अवस्था वाले युवाओं की तादाद लगभग 32 प्रतिशत थी। संयुक्त राष्ट्र की जनगणना रिपोर्ट(2007) कहती है कि 2030 तक विश्व की 65 फीसद आबादी 35 वर्ष से कम अवस्था के युवाओं की होगी। यह भी दिलचस्प तथ्य है कि भारत में 2020 तक औसत युवा की अवस्था 29 वर्ष होगी। लेकिन, आँकड़ों के इस तथ्यगत भूगोल से आह्लादित होने के अतिरिक्त यह भी देखना होगा कि इसमें से कितने प्रतिशत युवा ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों में अव्वल हैं; आचरण और व्यवहार में क्रियाशील हैं; कल्पना, विचार और दृष्टि-चेतना में महŸवाकांक्षी हंै; या कि उनमें राजनीतिक संचेतना और राजनीतिक समाजीकरण सम्बन्धी जुड़ाव और अभिव्यक्ति पर्याप्त है। ऐसा इसलिए कि ‘‘युवजन मानसिकता की कुछ विशेषताएँ होती हैं, जैसे कि स्वतन्त्रता एवं स्वाग्रह, स्वयं की सम्भावनाओं का अधि-मूल्यांकन, पूर्णतावाद एवं अन्य जो स्वयं को जानने व शिक्षित करने तथा अत्यन्त विविध क्षेत्रों में अपनी योग्यताओं और संभावनाओं को कार्यान्वित करने के अपने प्रयासों को अतिरिक्त महŸव प्रदान करती हैं।’’(युवजन और राजनीति, व्लदीमिर कुल्तीगिन) युवावस्था की सर्वप्रमुख चारित्रिक विशेषता संभवतः यह तथ्य है कि नवयुवक जीवन के विविध क्षेत्रों में विभिन्न विकल्पों का सामना करते हैं और उन्हें कार्यान्वित करते हैं। यथा-सामाजिक, राजनीतिक, व्यावसायिक, पारिवारिक इत्यादि। युवजन के लिए ये सभी जीवन के सक्रिय स्वभाव और व्यवहार हैं जिसका तात्पर्य है-ज्ञान, कुशलता और प्रतिबद्ध कार्रवाई तथा इन तीन तŸवों की घनिष्ठ पारस्परिक क्रिया।

भारत की 21वीं सदी, युवा मानसिकता की उपर्युक्त दृष्टि का अनुसमर्थक है। समर्थन की मुख्य वजहे निम्नांकित हैं-समाज में युवकों की विशिष्ट स्थिति, इसके मूल्यों एवं आदर्शों का सक्रिय आत्मसात्करण, सम्प्रेषण व सम्प्रेषणपरक अभिप्रेरण, पारस्परिक सम्बन्धों के विभिन्न पहलुओं के लिए तदनुरूप प्रयास इत्यादि। युवजन चेतना की ये और अन्य विशिष्टताएँ राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया को समझने और युवजन आन्दोलनों और संगठनों के विकास की गत्यात्मकता की खोज करने के लिए बहुत जरूरी है। यद्यपि भारतीय युवा आबादी का बहुलांश सामाजिक-आर्थिक विषमता और अभाव का शिकार है, उनके पास अपनी शक्ति और ज्ञान का उपयोग करने के पर्याप्त अवसर नहीं हैं और वह अपनी स्थिति की असहायता से पीड़ित है; तथापि पूर्व की अपेक्षा वर्तमान पीढ़ी के समक्ष मौके अनगिनत हैं। शिक्षा सम्बन्धी व्यापक जागरूकता और जनमाध्यम प्रसार ने जिस नए वर्ग को निर्मित किया है उसके लिए जाति और समुदायगत मतभेद विस्मृत हो गए हैं, अब आर्थिक वर्ग उनके लिए महŸव रखता है। दरअसल, शहरी भारतीय युवा, शिक्षित और सामाजिक सरोकारों के साथ उदीयमान मध्यवर्ग भी है। निश्चित आय-स्रोत वाले इस शहरी मध्यवर्ग में सोशल मीडिया के उपयोगकर्ताओं की संख्या 2011 के नवम्बर में तीन करोड़ अस्सी लाख थी, जो अब बढ़कर 6 करोड़ पचास लाख हो गई है। वर्तमान में इन्टरनेट प्रयोग करने वाले उपयोगकर्ताओं की संख्या लगभग 14 करोड़ है जिनमें से 75 फीसद तादाद 35 वर्ष से कम आयु के युवाओं की है। इसी तरह टेलीकाॅम क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव देखे जा सकते हैं जिसके एक अनुमान के मुताबिक देश में कुल 93.4 करोड़ मोबाइलधारक हैं।
   
उपर्युक्त तकनीकी एवं प्रौद्योगिकीय विकास आज के आधुनिक भारत का उजला पक्ष है जिसे समग्रता में देखने की जरूरत है। भारतीय युवा-वर्ग में शामिल उस विशाल समूह को भी ध्यान में रखना चाहिए जो होश संभालते ही अपना और अपने परिवार का पेट पालने के काम में लग जाते हैं। उन्हें इस बात का अवसर ही नहीं मिलता कि वे यह सोचें कि वे युवा हो गए हैं। युवा होने के नाते उनके लिए भी जीवन के ऐसे बहुत से दरवाजे खुलने चाहिए जिनके द्वारा वे अपने व्यक्तित्व का समग्र विकास कर सकें। यह एक कटु सचाई है कि ‘‘गरीब घरों के जो नौजवान काॅलेजों-विश्वविद्यालयों के कैम्पसों तक नहीं पहुँच पाते, उन्हें उनकी जिन्दगी ही यह सबक सिखला देती है कि पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में शिक्षा और रोजगार का विशेषाधिकार, ज्यादातर मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुए लोगों के लिए ही सुरक्षित है। उदारीकरण-निजीकरण के इस दौर मंे, शिक्षा ज्यादा से ज्यादा धनी लोगों द्वारा खरीदी जा सकने वाली और पूँजीपतियों द्वारा बेची जाने वाली चीज बनती जा रही है। आम घरों के लड़के छोटे शहरों-कस्बों के काॅलेजों से जो डिग्रियाँ हासिल करते हैं, वे नौकरी दिलाने की दृष्टि से एकदम बेकार होती हैं और शिक्षा की गुणवŸाा की दृष्टि से भी उनका कोई मोल नहीं होता।’’(क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन; आह्वान)
   
बहरहाल, 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक की दहलीज पर खड़ा भारत आर्थिक विकास(?) और समृद्धि(?)़ के निर्णायक दौर में है। यह कथित आर्थिक-आत्मनिर्भरता लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन की देन है। आज की पीढ़ी आधुनिक शब्दावली में जिसे एल.पी.जी. कहते नहीं अघा रही है, वह मुख्यतः अपनी राष्ट्रीय सम्प्रभुता, ज़मीन और भूगोल का बिना शर्त पाश्चात्यीकरण है। आज की युवा पीढ़ी जिनमें से 84 फीसद का मानना है कि वे शिक्षा, आय और जीवनस्तर के मामले में अपने माँ-बाप से अधिक बेहतर जीवन जी रहे हैं; के समक्ष दूसरे किस्म की चुनौतियाँ भी सर्वाधिक है। एक बड़ा प्रश्न तो हाल के दिनों में सामाजिक-सांस्कृतिक समंजन को लेकर उभरा है। आज समाज के समक्ष जो सबसे बड़ा आसन्न संकट है; वह है-पुरानी और नई पीढ़ियों के बीच उŸारोŸार बढ़ता ‘जैनरेशन गैप’। पुरानी पीढ़ी का मानना है कि वह नई पीढ़ी की अपेक्षा नैतिक रूप से ज़्यादा दृढ़निश्चयी और जवाबदेह है जबकि नई पीढ़ी इस धारणा को पुरानी पीढ़ी का ‘आत्मविलाप’ कहकर ख़ारिज़ कर रही है। आज की युवा पीढ़ी स्वयं को पुरातनपंथी अथवा रूढ़िवादी धड़ों से अलग करके देखती है। यह विषय बहसतलब है क्योंकि नई पीढ़ी अपने आचार, विचार और व्यवहार में जिन अधुनातन(?) प्रवृŸिायों का अनुसरणकर्ता है; उसमें आधुनिकता सम्बन्धी मूल संप्रत्यय ही अनुपस्थित है। वहीं सामाजिक वर्जनाओं, बंदिशों तथा शुचिता के प्रश्न को लेकर भयाक्रान्त पुरानी पीढ़ी के अन्दर भी अपनी पारम्परिक सोच और मानसिकता से उबरने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती है जबकि नई पीढ़ी इस तरह के किसी भी ‘सोशल इथिक्स’ या ‘सोशल पैटर्न’ के प्रति न तो संवेदनशील है और न ही आग्रही है। दो पीढ़ियों के बीच का यह अनमेलपन संवादहीनता की जिस स्थिति को सिरज रहा है; उसे किसी एक के लिए भी हितकर नहीं कहा जा सकता है।   

Thursday, February 14, 2013

स्वाधीन, चेतस और बहुरंगा युवजन

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अस्सी के दशक में संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 1985 को ‘अन्तरराष्ट्रीय युवजन वर्ष’ के रूप में मनाने की घोषणा की थी। 12 अगस्त संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अन्तरराष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में घोषित है। इस घोषाणा के पीछे मूल उद्देश्य बीसवीं शताब्दी के युवकों की अत्यन्त विविधतापूर्ण और परस्पर विरोधी सामाजिक गतिविधियों को लक्षित करना था। साथ ही, सामाजिक परिवर्तन में युवाओं की उस भूमिका को चिह्नित करना था जिसके बगैर यह पटकथा पूरी ही नहीं की जा सकती है। युवावस्था गहन समाजीकरण की अवधि है। आधुनिक विज्ञान समाजीकरण को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित करता है जिसके दौरान व्यक्ति समाज के एक पूर्ण और समान सदस्य के रूप में कार्य करने हेतु अपनी भूमिका निर्धारित करता है और ज्ञान सन्दर्भित आवश्यक मानकों और मूल्यों की सुनिश्चित एवं सुस्पष्ट पद्धति ग्रहण करता है।
    इस सन्दर्भ में जवरीमल्ल पारख का यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि युवावस्था कर्म की अवस्था है; लेकिन, यह अवस्था विवेक और विश्वास की भी अवस्था है। यह दुनिया को एक बेहतर दुनिया बनाने के संघर्ष में शामिल होने की अवस्था भी है और यही अवस्था दूसरों को कोहनियों से धकेलकर अपने लिए ज्यादा से ज्यादा जगह घेरने की भी अवस्था है। वस्तुतः किसी भी तरह के समाज में युवा वर्ग अपने लिए जगह चाहता है। अपनी प्रतिभा और अपनी क्षमता के अनुरूप अपनी भूमिका चाहता है। यह भूमिका स्वार्थों को पूरा करने तक सीमित रहती है या व्यापक समाज के हित में इसका विस्तार देखा जा रहा है, यह प्रश्न भी कम महŸवपूर्ण नहीं है। जब हम व्यापक हित की बात करते हैं तो इसका अर्थ यह भी है कि इसे धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि द्वारा सीमित नहीं किया जा रहा है। ऐसी कोई भी संकीर्णता जो आत्मा को उन्मुक्त होकर विचरण करने से और अपने सर्वोŸाम को प्रकट होने से रोकती है, तो युवाओं की ऊर्जा ऐसे मार्गों से निकलने लगेगी जिससे किसी भी समाज में न शान्ति रह सकती है और न ही उसका विकास हो सकता है।(युवा अंक, नया पथ)
    यह निर्विवाद तथ्य है कि अपनी प्रकृति और व्यवहार में युवजन की सक्रियता एवं उसकी मानसिक क्रियाशीलता अन्य वय के बनिस्ब़त सर्वाधिक तीव्र और प्रतिक्रियावादी होती है। उनमें जोश एवं वर्गीय अंतःप्रवृŸिा की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है। वास्तविक अर्थों में यह वय उन्मुक्तता, ऊर्जस्विता और नवोन्मेष का धारक है। तब भी युवजन किसे मानें? यह प्रश्न महŸवपूर्ण है। सन् 2011 में विश्व बैंक ने जीवन-विस्तार(लाइफ स्पैन) से सम्बन्धित एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में जीवन-प्रत्याशा सकारात्मक अभिवृद्धि के साथ औसत लगभग 65 वर्ष है। इस बढ़ोतरी के मद्देनज़र देखें, तो युवाओं के वय-निर्धारण के लिए पूर्व में जो मानक तय किए गए हैं, उन्हें 25-35 आयु-वर्ग से बढ़ाकर अब 35-45 आयु-वर्ग मानना उपयुक्त कहा जा सकता है। यद्यपि व्यक्तित्व के अनुरूप युवामन की कोटियाँ अनगिनत है, तथापि अधिसंख्य युवा अपने जीवन, कर्म, विचार और व्यवहार में अप्रत्याशित साम्य-संतुलन प्रदर्शित करते हंै। सार्वजनिक जीवन में युवाओं का यह प्रयत्न स्वाधीनता, समता एवं आधुनिक भावबोध से अनुप्राणित है जो उनके लिए सबसे बड़ा मूल्य है और सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना का मूलाधार भी।
    आधुनिक समाज में युवजन ‘स्वयं में’ एक वर्ग बन चुका है, लेकिन अभी स्वयं के लिए स्वतन्त्र नेतृत्व की भूमिका में नहीं है। राजनीति की मुख्यधारा में युवाओं की भागीदारी आज भी चिन्ताजनक बनी हुई है। वर्तमान में ज्वलंत सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को उठाने वाले जनान्दोलनों में युवा पीढ़ी की सहभागिता बढ़ी है। देखना होगा कि ऐसे किसी भी आन्दोलनों में से एक भी आन्दोलन नौजवानों की, जिनका इन देशों की जनसंख्या में काफी बड़ा भाग शामिल है, सशक्त और प्रायः निर्णायक भागीदारी के बिना नहीं फैला, बढ़ा। आज इन देशों में नवसाम्राज्यवादी ताकतों से मुक़ाबला करने और आर्थिक पिछड़ापन ख़त्म करने हेतु छेड़े गए जनसंघर्ष में युवजन  चालक-शक्ति(प्राइम मूवर) की भूमिका में है जबकि यह सचाई है कि युवजन समजातीय समूह नहीं है।




(जारी....)

Thursday, February 7, 2013

मरम्मत


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‘दिमाग मरम्मत पर है...शान्ति बनाएँ रखें’
असुविधा के लिए खेद है!


काशी की अस्सी


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अस्सी घाट
तीनों लोक से प्यारी काशी में है
जो वहाँ सिगरेट पीते हैं
तीनों लोक का मजा लेते हैं
जो वहाँ गाली देते हैं
तीनों लोक से प्यारी गाली देते हैं
जो वहाँ बोलते हैं
तीनों लोक से दमदार बोलते हैं
क्या आपने देखी है, काशी की अस्सी
जो तीनों लोक से प्यारी काशी में है।

नदी


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प्यास लगी
तो बचे-खुचे धैर्य के साथ
पसरी रेत पर
जरूरतमंद रेत ने
नदी के प्यास को
अपनी प्यास की भूख समझ
खा लिया
नदी ने उफ! तक नहीं की
अंतिम क्षण तक
नदी कहती रही थी
‘मैं सिर्फ नदी नहीं हँू
हँू रेत की माँ’

घर के आँगन में
एक बेटी जन्मी है
सुना है
उसका भी नाम है-‘नदी’ 

जब तक नदी है
संभावनाएँ अनन्त हैं
और रेत के पास मौके अनगिनत।

निजी रियासत बनते विश्वविद्यालय


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अध्यापकीय पेशे से जुड़े ज्ञानावलम्बियों का धुर्त होना अक्षम्य है। लेकिन, वे आज निरपराध घोषित हैं। गुणवत्ता के मानक पर फिसड्डी साबित हो रहे विश्वविद्यालयों के बारे में जताई जा रही चिन्ता फिजू़ल नहीं है। राष्ट्रपति भवन में हाल ही में आयोजित केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के सम्मेलन में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने इस बाबत बेहद अफसोस जताया है। उनकी मुख्य चिन्ता यह है कि हालिया सर्वेक्षण से उजागर तथ्य में यह कहा जा रहा है कि विश्व के टाॅप 200 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। प्रश्न है कि जब उच्च शिक्षा में अध्यापकों की नियुक्ति में ही बड़ी धांधली हो रही है, तो फिर अन्य सम्बन्धित चीजों के अप्रभावित रहने की गुंजाइश ही क्या बचती है? उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यापक के रूप में नियुक्त हो रहे अधिसंख्य अभ्यर्थी साँठ-गाँठ और जुगाड़-पैरवी में उस्ताद हैं। उनकी ‘मास्टरी’ सम्बन्धित विषय या अनुशासन में नगण्य है। लेकिन, उनके चयन के पीछे जो गणित या समीकरण है; वह नेटवर्क बेहद प्रभावशाली और ऊपरी पहुँच का है।    

पिछले दिनों खुद के साथ घटित एक वाक्या यह पंक्तिलेखक प्रस्तुत करना चाहता है। 30 अक्तूबर, 2012 को हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय में इंटरव्यू होना तय था। पत्रकारिता एवं सर्जनात्मक लेखन पाठ्यक्रम में अस्सिटेंट प्रोफसर पद के लिए आरक्षित कोटे से चयन होना निश्चित था। हिन्दी पत्रकारिता के व्यावहारिक पक्ष को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से चलाए जा रहे प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता) पाठ्यक्रम से परास्नातक यह पंक्तिलेख जनसंचार एवं पत्रकारिता विषय में राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा 2010 में ही उतीर्ण कर चुका है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में कनिष्ठ शोध अध्येता के रूप में अनुसन्धानरत इस पंक्तिलेखक को उस समय तगड़ा झटका लगा जब उससे इंटरव्यूकर्ता यह पूछ बैठे कि यहाँ आने से पहले आपको यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए था कि इस पाठ्यक्रम के निर्देश की भाषा सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी है।

यह सवाल तब किए गए जब यह पंक्तिलेखक पी.पी.टी. प्रजेन्टेशन के लिए 12 स्लाइड्स अंग्रेजी-हिन्दी मिश्रित भाषा में इस विषयवस्तु को आधार बनाकर प्रस्तुत था कि 21वीं शताब्दी में नानाविध चुनौतियों और संकटों से घिरी पत्रकारिता को सर्जनात्मक लेखन से जोड़े जाने की आवश्यकता क्योंकर है? वे इस बात को मानने से ही इंकार कर रहे थे कि हिन्दी भाषा जनसंचार और पत्रकारिता जैसे पश्चिमी माॅडल को ‘कैरी’ करने में सक्षम है। आई. सी. टी. के ‘इनोवेशन’(नवाचार) और ‘कन्वर्जेंस’(अभिसरण) आधारित इस युग में हिन्दी की उपयोगिता कहानी, कविता, उपन्यास इत्यादि साहित्यिक विधाओं या रचना-कर्म से भिन्न भी कुछ हो सकती है; इसको लेकर वे पूर्णतः आश्वस्त नहीं थे। स्पष्टतः फिल्म, विज्ञापन, सांस्कृतिक-व्यापार व अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध, सूचना-समाज इत्यादि में हिन्दी के माध्यम से हो रहे अभूतपूर्व और हस्तक्षेपकारी बदलाव उनकी आँखों से ओझल थे। वह भी तब जबकि हिन्दी मीडिया सेक्टर उत्तरोत्तर ‘बूम’ पर है। यानी वैसे संभावनाशील समय में जब हिन्दी जीवन के हर क्षेत्र, विषय और सन्दर्भ में निर्णायक भूमिका निभा रहा है; हिन्दी को लेकर यह कुंठा कैस सही ठहरायी जा सकती है?

इससे पूर्व में बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने भी इस पंक्तिलेखक को इंटरव्यू में शामिल होने नहीं दिया था। जबकि न्यूनतम योग्यता वाले अभ्यर्थी तक को बुलावा-पत्र भेजे गए थे। इस बाबत पूछने पर उनका साफ तर्क था कि यूजीसी आपको पात्रता दे चुका है, इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि आप हमारे विश्वविद्यालय के चयन-कमिटी के मानक को भी ‘फुलफिल’ कर लें। उन्होने एक नया झूठ गढ़ा, वह यह कि प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता) जैसा कोई भी पाठ्यक्रम यूजीसी से सम्बद्ध नहीं है।

खुद की मेहनत पर गुमान करने वाले इस पंक्तिलेखक को उस समय भारी सदमा पहुँचा था। वजह कि एक ओर किसी विद्यार्थी की गुणवत्ता को सराहते हुए ‘जेआरएफ’ का तमगा दिया जाता है, तो दूसरी ओर उसके साथ यूजीसी के तय मानकों से अलग ‘पैटर्न’ पर खड़ा करते हुए विश्वविद्यालय के नए रियासदार भयंकर कुचक्र भी रचते हैं?

खैर, ज्ञान सदैव भावुकता से परे होता है। संकल्प-विकल्प और विवेक-विक्षोभ से पूरित मेरे अन्तर्मन के लिए मंजिल इससे काफी आगे है। 

Monday, February 4, 2013

अभ्युत्तथान: फिल्म स्क्रिप्ट का आॅउटनोट्स


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नयनतारा उन भारतीय महिलाओं में से है जो अपने बच्चों के सुरक्षित भविष्य को लेकर फिक्रमंद रहती है। अस्थायी नौकरी के बीच नयनतारा तलाकशुदा ज़िन्दगी जी रही है। रोहन उसका बेटा है और रोहिणी बेटी। नयनतारा काॅलोनी के मानिंद लोगों से बहुत कम कमाती है, लेकिन रोजमर्रा के खर्च में कटौती बेहिसाब करती है।

उसका सपना है कि रोहन और रोहिणी सोसाइटी के पब्लिक स्कूल में पढ़े। लेकिन वहाँ दाखिला नहीं मिलती है। स्कूल से निराश हो कर लौट रही नयनतारा की मुलाकात वार्डेन कालिन्दी से संयोगवश तब होती है जब उसका पति उसे स्कूल छोड़ने या तलाक देने के लिए कह रहा होता है।

खुद तलाकशुदा नयनतारा परेशानहाल कालिन्दी से अपना जीवनगाथा शेयर करती है। वह बताती है कि वह पहले से कितना बेहतर और मानसिक रूप से खुद को संतुष्ट एवं सुरक्षित महसूस कर रही है। कालिन्दी जिसकी अर्सी नाम की 6 साल की बेटी है; वह नयनतारा के हौसले और साहस को देखकर उसी समय अपने पति को स्पष्ट शब्दों में तलाक के लिए हाँ कह देती है।

नयनतारा जो निम्न मध्यवर्गीय परिवार से है जब उच्च मध्यवर्गीय परिवार की कालिन्दी के सम्पर्क में आती है तो उसे अहसास हो जाता है कि धन होने से घर में सामान बढ़ जाता है; संस्कार या मानसिकता बदलती है। यह जरूरी नहीं है। हर पुरुष तो नहीं, लेकिन, भारत के अधिसंख्य पुरुष श्रेष्ठताबोध की ग्रन्थि से ग्रस्त रहता ही रहता है।

नयनतारा के बच्चों का स्कूल में प्रवेश कालिन्दी के सहयोग से हो जाता है। नयनतारा भावातिरेक और खुशी में एक गीत गाती है। कालिन्दी गीत सुनती है, तो जिज्ञासाभाव से उसे और कुरेदती है। नयनतारा बताती है कि उसे ढेरों लोकगीत याद हैं जो उसने बचपन में सुन रखा है।

कालिन्दी नयनतारा के साथ मिलकर एक प्लान बनाती है। दोनों मिलकर सारे गीतों का कलेक्शन करती हैं। नयनतारा अपने हमउम्र औरतों से भी कालिन्दी को मिलाती है। इस तरह एक किताब का फार्मेट तैयार होता है। पुस्तक का नाम लाख माथापच्ची के बावजूद वे नहीं तय कर पाती हैं। हरीश रावत जो एक बड़ा प्रकाशक है; कालिन्दी का दोस्त है। वह इस पुस्तक के प्रकाशन का सारा खर्च उठाने को तैयार हो जाता है।

नयनतारा कालिन्दी को आगाह करती है। हरीश की आँख ठीक है लेकिन उसकी पुतली उसे प्रायः ग़लत ढंग से घूरती है। कालिन्दी हरीश के बड़प्पन और महानता का किस्से सुनाती है कि दोनों काॅलेज के फ्रेण्ड हैं। एक-दूसरे के बीच ग़लत कुछ हो ही नहीं सकता है। 


कालिन्दी को जल्द ही अहसास हो जाता है। नयनतारा सही कह रही थी। वह नयनतारा से माफी मांगती है। अब प्रकाशन के लिए दोनों चन्दा जुटाती है। दूसरे प्रकाशकों से मिलती है, लेकिन हरीश के स्टेटस से प्रभावित लोग पुस्तक छापने के लिए तैयार नहीं होते हैं। प्रकाशन संस्थान में व्याप्त भ्रष्टाचार और बाज़ार का मकड़जाल उजागर होता है।

हरीश कालिन्दी को फिर आॅफर करता है। मुहमांगी रकम देने की पेशकश करता है। बात नहीं बनती, तो चतुराईपूर्वक नयनतारा को बदनाम करता है। नयनतारा की बेटी रोहिणी को स्कूल में एक लड़के से कथित प्रेम के आरोप में निष्कासित कर दिया जाता है। नयनतारा का लड़का रोहन ग़लत संगत में पड़ पैसे का दुरुपयोग कर रहा होता है। सिगरेट पीने की लत उसे लग चुकी है।

कालिन्दी और नयनतारा इस कठिन समय में भी हिम्मत नहीं छोड़ती हैं। अपने पुस्तक के प्रकाशन के लिए पैसे एकजुट कर रही होती हैं कि एक दिन कालिन्दी की लड़की अर्सी सिढ़ियों से लुढ़ककर गिर जाती है। गंभीर चोट की वजह से अस्पताल के आइसीयू में रखा गया है।

वहीं नयनतारा कालिन्दी को हौसला आफजाई के लिए एक गीत गाती है। पूरा अस्पताल इसमें शामिल होता है। डाॅ0 अभय जो उस अस्पताल के मशहूर न्यूरो-फिजिशियन हैं, नयनतारा के गीत के बोल सुन भावुक हो जाते हैं। वे कालिन्दी और नयनतारा की हरसंभव मदद करते हैं। पुस्तक का नाम एक मीटिंग में तीनों मिलकर ‘अभ्युत्तथान’ रखते हैं।

डाॅ0 अभय का दोस्त अकुल एक बहुत बड़े प्रकाशन कंपनी में है। वह कालिन्दी और नयनतारा को उसके पास भेजता है। दोनों साफगोई के साथ इस पुस्तक को लेकर हुई सारी परेशानी अकुल से शेयर करती है। अकुल अपने बाॅस से मिलवाने के लिए नयनतारा और कालिन्दी को ले जाता है। वहाँ डाॅ0 हरीश पहले से पहुँचा है और उसकी प्रकाशन कंपनी के मालिक से तिखी झड़प हो रही है। वह बाहर गुस्से में निकलता है। सामने नयनतारा और कालिन्दी को देख एकबारगी चौंक जाता है।

अतुल अपने बाॅस से नयनतारा और कालिन्दी को मिलाता है। हरीश के बारे में दोनों ने अतुल को अभी-अभी ही बताया होता है, सो वह बड़ी होशियारी से इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए राजी कर लेता है।

पुस्तक छप जाती है। लेकिन उसके बिकने का संकट सामने आता है। कालिन्दी और नयनतारा को समझ में आता है कि पुस्तकों की बिकावली के लिए भी गणित और समीकरण दुरुस्त होने चाहिए।

इस समस्या का हल भी निकल जाता है। रोहन, रोहिणी और अर्सी इसका बीड़ा उठाते हैं। तीनों गीत गाते हुए नुक्कड़-प्रदर्शन करते हैं। कालिन्दी और नयनतारा उस पुस्तक की प्रतियाँ बेच रही होती हैं।

देखते-देखते पुस्तक ‘अभ्युŸथान’ की सभी प्रतियाँ बिक जाती हैं। कालिन्दी और नयनतारा को एक व्यावहारिक ज्ञान होता है। भारत में पुस्तक के पाठकों की कमी नहीं है। बल्कि पुस्तक माफियाओं ने लेखकों/साहित्यकारों की आत्मा को खरीद लिया है। लेखक, साहित्यकार या बुद्धिजीवी सार्वजनिक जीवन में नहीं बोलते हैं। उन्हें प्रायोजित कार्यक्रमों, विश्वविद्यालय गोष्ठियों तथा निजी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थानों-संगठनों ने हथिया लिया है या वे इन पूँजीबाड़ों के गिरफ्त में अपनी वास्तविक चेतना नष्ट कर चुके हैं।

कालिन्दी और नयनतारा ने अभ्युत्तथान नाम से पुस्तकशाला खोल दिया है। वे पुस्तकों को ‘भाव एवं विचारों का जनसंग्राम’ मानते हुए पूरे देश के पाठकों को जागरूक करने का बीड़ा उठाती हैं।

पुस्तक बाज़ार से निकलकर लोक से जुड़ती है, तो लोकमंगल की भावना का विस्तार होता है। सभ्यता, संस्कृति, समाज, राजनीति...सभी का अभ्युत्तथान होता है।

कविता पर कहानी

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बनारस शहर कवियों का गढ़ है। आभावान कवियों को देखकर कई जन कवि हो जाते हैं। संगत से गुण होत है, संगत से गुण जात वाली कहावत। या कहें संगत का रंगत।

दरअसल, मेंहदी जिसकी हथेली पर रची जाती है उसी पर अपना रंग नहीं छोड़ती, बल्कि मेंहदी लगाने वाले हाथ को भी रंगीन कर देती है, जरा-मर्रा। और यह किसी तरह का चोरकटई भी नहीं है।

एक दिन इस गढ़ में कविता-प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। सभी से प्रविष्टियाँ माँगी गई। मैं ठहरा हिन्दी पत्रकार। कविता देख-पढ़ लेता हँू। सूझती कतई नहीं। और कविता वैसे भी हृदय का मामला है। मस्तिष्क का खेल नहीं।

खैर, सोचा कि कविता के लिए क्या कोई नियम-कानून है। मालूम नहीं। सो, लिखा और भेज दी। कविताएँ एक की जगह तीन थीं।

1.
उनकी तनख़्वाह
चालीस हजार है
लेकिन, जब भी वे चाय पीते हैं
पैसा मुझे देनी पड़ती है
वे सिर्फ कहते हैं, गुरु! महंगाई डायन खाए जात है।

2.
अस्सी घाट
तीनों लोक से प्यारी काशी में है
जो वहाँ सिगरेट पीते हैं
तीनों लोक का मजा लेते हैं
जो वहाँ गाली देते हैं
तीनों लोक से प्यारी गाली देते हैं
जो वहाँ बोलते हैं
तीनों लोक से दमदार बोलते हैं

क्या आपने देखी है, काशी की अस्सी
जो तीनों लोक से प्यारी काशी में है।

3.

मेरे सात साल के बेटे देव ने एक दिन पूछा
डाॅक्टर के बीमार होने पर
उसकी इलाज कौन करता है
मैंने उसके सवाल से पिण्ड छुड़ाने के लिए कहा-भगवान
और भगवान के बीमार होने पर, उसने फिर पूछा
मैंने कहा-‘मैं’
लेकिन, आप तो कभी जाते नहीं; बोला देव

आज उसे ले कर मंदिर आया
उसने पूछा, भगवान की बीमारी आप कब तक ठीक कर दोगे
मैं अचकचा गया
बगल की महिला ने कहा
बेटे! भगवान सबकी बीमारी ठीक करते हैं
आपसे किसने कहा कि भगवान बीमार है
और उसे ठीक करने की जरूरत है
देव ने मेरी ओर देखा
कहा कुछ भी नहीं, हँस दिया सिर्फ
दरअसल, देव ने मेरी झूठ पकड़ ली थी
और यह पहली बार नहीं हुआ था।

आज इन तीनों कविेताओं के पुरस्कृत होने की सूचना मिली है। लोग कह रहे हैं-कविता के गढ़(?) में तुम्हारे कवि हो जाने का अंदेशा हमें पहले से थी।

हे! भगवान, लोगों ने मेरा लिखा पढ़-पढ़कर मुझे कवि मान लिया। नोबल पुरस्कार के आयोजकों आप कहाँ हो।

जंगल के बारे में


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सच पूछिए
जिस जंगल से
मेरा कोई दरकार नहीं है

उस जंगल के बारे में
मैंने पढ़ा है
यह जाना है
कि वहाँ कोई भव्य शादी नहीं करता
कि वहाँ कोई दिव्य दावत नहीं देता
कि वहाँ कोई एम्स या आईआईटी संस्थान नहीं खुलता
कि वहाँ कोई बिड़ला अपनी मन्दिर नहीं बनाता
कि वहाँ कोई फिल्म समारोह आयोजित नहीं होता
कि वहाँ कोई सूचना-राजमार्ग नहीं पहुँचता
कि वहाँ वैसा कुछ भी नहीं होता
...जो आज के कथित उत्तर आधुनिक समाज में होता है

जबकि वहाँ लोग रहते हैं
जबकि वहाँ जीवन का संकट है
जबकि वहाँ परिस्थितियाँ विकट है

तब भी जंगल में बसे लोग जंगल को प्यार करते है जबर्दस्त

सच पूछिए
जिस जंगल से
मेरा कोई दरकार नहीं है

उस जंगल के बारे में
मैंने पढ़ा है
यह जाना है
कि उनका सीधा सम्बन्ध हमारे मौलिक अधिकार से नहीं है
कि उनका सीधा सम्बन्ध हमारे देश के संविधान और सरकार से नहीं है
कि उनका सीधा सम्बन्ध हमारे विकसित होते शहर से नहीं है
कि उनका सीधा सम्बन्ध हमारे कला, साहित्य, संस्कृति व शिक्षा से नहीं है
कि उनका सीधा सम्बन्ध हमारे अर्थ-व्यापार, शेयर, बीमा व बैंकिंग से नहीं है

जबकि वहाँ लोग रहते हैं
जबकि वहाँ जीवन का संकट है
जबकि वहाँ परिस्थितियाँ विकट है

तब भी जंगल में बसे लोग जंगल को प्यार करते है जबर्दस्त

सच पूछिए
जिस जंगल से
मेरा कोई दरकार नहीं है

उस जंगल के बारे में
मैंने पढ़ा है
यह जाना है
कि वहाँ संगीनों का बोलबाला है
कि वहाँ बाहरी गुर्गे तैनात हैं
कि वहाँ ज़मीनों की लूटमार है
कि वहाँ वह सब है
जिसमें वहाँ के लोगों की मिलीभगत नहीं है

जबकि वहाँ लोग रहते हैं
जबकि वहाँ जीवन का संकट है
जबकि वहाँ परिस्थितियाँ विकट है

तब भी जंगल में बसे लोग जंगल को प्यार करते है जबर्दस्त

सच पूछिए
जिस जंगल से
मेरा कोई दरकार नहीं है

उस जंगल के बारे में
मैंने पढ़ा है
यह जाना है
कि बाहरी लोगों का सम्बन्ध और सरोकार वहाँ की मूल आत्मा से नहीं है
कि बाहरी लोगों का सम्बन्ध वहाँ की भाषा और संवेदना से नहीं है
कि बाहरी लोगों का सम्बन्ध वहाँ की स्थानीय भूगोल और मानचित्र से नहीं है

जबकि वहाँ लोग रहते हैं
जबकि वहाँ जीवन का संकट है
जबकि वहाँ परिस्थितियाँ विकट है

तब भी जंगल में बसे लोग जंगल को प्यार करते है जबर्दस्त

क्या आप भी पढ़ते हैं अख़बारों में जंगल के बारे में
या गढ़ते हैं कविता अपने चेहरे के आइने पर....फेसबुक पर मेरी तरह।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...