Thursday, February 7, 2013

निजी रियासत बनते विश्वविद्यालय


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अध्यापकीय पेशे से जुड़े ज्ञानावलम्बियों का धुर्त होना अक्षम्य है। लेकिन, वे आज निरपराध घोषित हैं। गुणवत्ता के मानक पर फिसड्डी साबित हो रहे विश्वविद्यालयों के बारे में जताई जा रही चिन्ता फिजू़ल नहीं है। राष्ट्रपति भवन में हाल ही में आयोजित केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के सम्मेलन में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने इस बाबत बेहद अफसोस जताया है। उनकी मुख्य चिन्ता यह है कि हालिया सर्वेक्षण से उजागर तथ्य में यह कहा जा रहा है कि विश्व के टाॅप 200 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। प्रश्न है कि जब उच्च शिक्षा में अध्यापकों की नियुक्ति में ही बड़ी धांधली हो रही है, तो फिर अन्य सम्बन्धित चीजों के अप्रभावित रहने की गुंजाइश ही क्या बचती है? उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यापक के रूप में नियुक्त हो रहे अधिसंख्य अभ्यर्थी साँठ-गाँठ और जुगाड़-पैरवी में उस्ताद हैं। उनकी ‘मास्टरी’ सम्बन्धित विषय या अनुशासन में नगण्य है। लेकिन, उनके चयन के पीछे जो गणित या समीकरण है; वह नेटवर्क बेहद प्रभावशाली और ऊपरी पहुँच का है।    

पिछले दिनों खुद के साथ घटित एक वाक्या यह पंक्तिलेखक प्रस्तुत करना चाहता है। 30 अक्तूबर, 2012 को हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय में इंटरव्यू होना तय था। पत्रकारिता एवं सर्जनात्मक लेखन पाठ्यक्रम में अस्सिटेंट प्रोफसर पद के लिए आरक्षित कोटे से चयन होना निश्चित था। हिन्दी पत्रकारिता के व्यावहारिक पक्ष को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से चलाए जा रहे प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता) पाठ्यक्रम से परास्नातक यह पंक्तिलेख जनसंचार एवं पत्रकारिता विषय में राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा 2010 में ही उतीर्ण कर चुका है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में कनिष्ठ शोध अध्येता के रूप में अनुसन्धानरत इस पंक्तिलेखक को उस समय तगड़ा झटका लगा जब उससे इंटरव्यूकर्ता यह पूछ बैठे कि यहाँ आने से पहले आपको यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए था कि इस पाठ्यक्रम के निर्देश की भाषा सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी है।

यह सवाल तब किए गए जब यह पंक्तिलेखक पी.पी.टी. प्रजेन्टेशन के लिए 12 स्लाइड्स अंग्रेजी-हिन्दी मिश्रित भाषा में इस विषयवस्तु को आधार बनाकर प्रस्तुत था कि 21वीं शताब्दी में नानाविध चुनौतियों और संकटों से घिरी पत्रकारिता को सर्जनात्मक लेखन से जोड़े जाने की आवश्यकता क्योंकर है? वे इस बात को मानने से ही इंकार कर रहे थे कि हिन्दी भाषा जनसंचार और पत्रकारिता जैसे पश्चिमी माॅडल को ‘कैरी’ करने में सक्षम है। आई. सी. टी. के ‘इनोवेशन’(नवाचार) और ‘कन्वर्जेंस’(अभिसरण) आधारित इस युग में हिन्दी की उपयोगिता कहानी, कविता, उपन्यास इत्यादि साहित्यिक विधाओं या रचना-कर्म से भिन्न भी कुछ हो सकती है; इसको लेकर वे पूर्णतः आश्वस्त नहीं थे। स्पष्टतः फिल्म, विज्ञापन, सांस्कृतिक-व्यापार व अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध, सूचना-समाज इत्यादि में हिन्दी के माध्यम से हो रहे अभूतपूर्व और हस्तक्षेपकारी बदलाव उनकी आँखों से ओझल थे। वह भी तब जबकि हिन्दी मीडिया सेक्टर उत्तरोत्तर ‘बूम’ पर है। यानी वैसे संभावनाशील समय में जब हिन्दी जीवन के हर क्षेत्र, विषय और सन्दर्भ में निर्णायक भूमिका निभा रहा है; हिन्दी को लेकर यह कुंठा कैस सही ठहरायी जा सकती है?

इससे पूर्व में बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने भी इस पंक्तिलेखक को इंटरव्यू में शामिल होने नहीं दिया था। जबकि न्यूनतम योग्यता वाले अभ्यर्थी तक को बुलावा-पत्र भेजे गए थे। इस बाबत पूछने पर उनका साफ तर्क था कि यूजीसी आपको पात्रता दे चुका है, इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि आप हमारे विश्वविद्यालय के चयन-कमिटी के मानक को भी ‘फुलफिल’ कर लें। उन्होने एक नया झूठ गढ़ा, वह यह कि प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता) जैसा कोई भी पाठ्यक्रम यूजीसी से सम्बद्ध नहीं है।

खुद की मेहनत पर गुमान करने वाले इस पंक्तिलेखक को उस समय भारी सदमा पहुँचा था। वजह कि एक ओर किसी विद्यार्थी की गुणवत्ता को सराहते हुए ‘जेआरएफ’ का तमगा दिया जाता है, तो दूसरी ओर उसके साथ यूजीसी के तय मानकों से अलग ‘पैटर्न’ पर खड़ा करते हुए विश्वविद्यालय के नए रियासदार भयंकर कुचक्र भी रचते हैं?

खैर, ज्ञान सदैव भावुकता से परे होता है। संकल्प-विकल्प और विवेक-विक्षोभ से पूरित मेरे अन्तर्मन के लिए मंजिल इससे काफी आगे है। 

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