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बनारस शहर कवियों का गढ़ है। आभावान कवियों को देखकर कई जन कवि हो जाते हैं। संगत से गुण होत है, संगत से गुण जात वाली कहावत। या कहें संगत का रंगत।
दरअसल, मेंहदी जिसकी हथेली पर रची जाती है उसी पर अपना रंग नहीं छोड़ती, बल्कि मेंहदी लगाने वाले हाथ को भी रंगीन कर देती है, जरा-मर्रा। और यह किसी तरह का चोरकटई भी नहीं है।
एक दिन इस गढ़ में कविता-प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। सभी से प्रविष्टियाँ माँगी गई। मैं ठहरा हिन्दी पत्रकार। कविता देख-पढ़ लेता हँू। सूझती कतई नहीं। और कविता वैसे भी हृदय का मामला है। मस्तिष्क का खेल नहीं।
खैर, सोचा कि कविता के लिए क्या कोई नियम-कानून है। मालूम नहीं। सो, लिखा और भेज दी। कविताएँ एक की जगह तीन थीं।
1.
उनकी तनख़्वाह
चालीस हजार है
लेकिन, जब भी वे चाय पीते हैं
पैसा मुझे देनी पड़ती है
वे सिर्फ कहते हैं, गुरु! महंगाई डायन खाए जात है।
2.
अस्सी घाट
तीनों लोक से प्यारी काशी में है
जो वहाँ सिगरेट पीते हैं
तीनों लोक का मजा लेते हैं
जो वहाँ गाली देते हैं
तीनों लोक से प्यारी गाली देते हैं
जो वहाँ बोलते हैं
तीनों लोक से दमदार बोलते हैं
क्या आपने देखी है, काशी की अस्सी
जो तीनों लोक से प्यारी काशी में है।
3.
मेरे सात साल के बेटे देव ने एक दिन पूछा
डाॅक्टर के बीमार होने पर
उसकी इलाज कौन करता है
मैंने उसके सवाल से पिण्ड छुड़ाने के लिए कहा-भगवान
और भगवान के बीमार होने पर, उसने फिर पूछा
मैंने कहा-‘मैं’
लेकिन, आप तो कभी जाते नहीं; बोला देव
आज उसे ले कर मंदिर आया
उसने पूछा, भगवान की बीमारी आप कब तक ठीक कर दोगे
मैं अचकचा गया
बगल की महिला ने कहा
बेटे! भगवान सबकी बीमारी ठीक करते हैं
आपसे किसने कहा कि भगवान बीमार है
और उसे ठीक करने की जरूरत है
देव ने मेरी ओर देखा
कहा कुछ भी नहीं, हँस दिया सिर्फ
दरअसल, देव ने मेरी झूठ पकड़ ली थी
और यह पहली बार नहीं हुआ था।
आज इन तीनों कविेताओं के पुरस्कृत होने की सूचना मिली है। लोग कह रहे हैं-कविता के गढ़(?) में तुम्हारे कवि हो जाने का अंदेशा हमें पहले से थी।
हे! भगवान, लोगों ने मेरा लिखा पढ़-पढ़कर मुझे कवि मान लिया। नोबल पुरस्कार के आयोजकों आप कहाँ हो।
बनारस शहर कवियों का गढ़ है। आभावान कवियों को देखकर कई जन कवि हो जाते हैं। संगत से गुण होत है, संगत से गुण जात वाली कहावत। या कहें संगत का रंगत।
दरअसल, मेंहदी जिसकी हथेली पर रची जाती है उसी पर अपना रंग नहीं छोड़ती, बल्कि मेंहदी लगाने वाले हाथ को भी रंगीन कर देती है, जरा-मर्रा। और यह किसी तरह का चोरकटई भी नहीं है।
एक दिन इस गढ़ में कविता-प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। सभी से प्रविष्टियाँ माँगी गई। मैं ठहरा हिन्दी पत्रकार। कविता देख-पढ़ लेता हँू। सूझती कतई नहीं। और कविता वैसे भी हृदय का मामला है। मस्तिष्क का खेल नहीं।
खैर, सोचा कि कविता के लिए क्या कोई नियम-कानून है। मालूम नहीं। सो, लिखा और भेज दी। कविताएँ एक की जगह तीन थीं।
1.
उनकी तनख़्वाह
चालीस हजार है
लेकिन, जब भी वे चाय पीते हैं
पैसा मुझे देनी पड़ती है
वे सिर्फ कहते हैं, गुरु! महंगाई डायन खाए जात है।
2.
अस्सी घाट
तीनों लोक से प्यारी काशी में है
जो वहाँ सिगरेट पीते हैं
तीनों लोक का मजा लेते हैं
जो वहाँ गाली देते हैं
तीनों लोक से प्यारी गाली देते हैं
जो वहाँ बोलते हैं
तीनों लोक से दमदार बोलते हैं
क्या आपने देखी है, काशी की अस्सी
जो तीनों लोक से प्यारी काशी में है।
3.
मेरे सात साल के बेटे देव ने एक दिन पूछा
डाॅक्टर के बीमार होने पर
उसकी इलाज कौन करता है
मैंने उसके सवाल से पिण्ड छुड़ाने के लिए कहा-भगवान
और भगवान के बीमार होने पर, उसने फिर पूछा
मैंने कहा-‘मैं’
लेकिन, आप तो कभी जाते नहीं; बोला देव
आज उसे ले कर मंदिर आया
उसने पूछा, भगवान की बीमारी आप कब तक ठीक कर दोगे
मैं अचकचा गया
बगल की महिला ने कहा
बेटे! भगवान सबकी बीमारी ठीक करते हैं
आपसे किसने कहा कि भगवान बीमार है
और उसे ठीक करने की जरूरत है
देव ने मेरी ओर देखा
कहा कुछ भी नहीं, हँस दिया सिर्फ
दरअसल, देव ने मेरी झूठ पकड़ ली थी
और यह पहली बार नहीं हुआ था।
आज इन तीनों कविेताओं के पुरस्कृत होने की सूचना मिली है। लोग कह रहे हैं-कविता के गढ़(?) में तुम्हारे कवि हो जाने का अंदेशा हमें पहले से थी।
हे! भगवान, लोगों ने मेरा लिखा पढ़-पढ़कर मुझे कवि मान लिया। नोबल पुरस्कार के आयोजकों आप कहाँ हो।
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