Tuesday, December 19, 2017

जवाबदेह सरकार आगामी जरूरत

!! सम्पादकीय!!

शुक्रवार; 19 दिसम्बर, 2017; ईटानगर

जवाबदेह सरकार आगामी जरूरत

कर्मवीर मनुष्य के जीवन में उपलब्धियाँ हैं, तो व्याधियाँ यानी बाधाएँ भी अनगिनत हैं। अवांछित और अनपेक्षित बदलाव का होना तो जैसे तय बात है। असल बात जो है वह यह कि हम अपनी मुसीबतों से निपटते कैसे हैं। समक्ष खड़ी परेशानियों से पार कैसे पाते हैं। कई बार ‘जान बची तो लाखों पाये’ की नौबत आ जाती है। किन्तु बच जाने के बाद हम कैंसे बचे हैं इसको बिसरा देते हैं। जीत पर जश्न हमारी प्रवृत्ति है। कई बार आवश्यकता से अधिक कुहराम मचाना जन्मसिद्ध अधिकार मान बैठते हैं। संकट की घड़ी में परिस्थितियों से छुटकारा पाने की छटपटाहट देखते बनती है। पर अच्छे दिन आते ही बीते अनुभव से सीख लेने की जगह अपनी ही हाथों अपने को गुदगुदी करने लग जाते हैं। हमारा अहंकार और गुरुर आड़े आ जाता है। हम परिणामवादी नज़रिए से सोचना शुरू कर देते हैं। हालिया गुजरात चुनाव ‘कवरेज़’ में मीडिया का रसूख़ छककर बोला। काॅरपोरेटी मीडिया के आगे अधिसंख्य नेतागण सिवाय लम्पटई दिखाने के कोई उल्लेखनीय भूमिका में नज़र नहीं आये। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अतिनाटकीयता का फ़ालतू अध्याय खोला, तो राहुल गाँधी पहली बार आलोचनात्मक राजनीति के पाठ से सही मायने में जुड़ते दिखाई दिए। नरेन्द्र मोदी की तुलना में उनकी भाषा और शैली दोनों में ताज्जुबकारी अंतर नज़र आया। वे विपक्षी पार्टी के साथ तंज की नए मुहावरेदानी में सार्थक ‘डिस्कोर्स’ करने में संलग्न रहे। अब तक राहुल गाँधी नरेन्द्र मोदी के ‘बिग इमेजिनेशन’ के आगे घुटने टेकते रहे हैं। लेकिन इस बार मुकाबले में राहुल गाँधी का प्रचारवादी रवैया बेहद संतुलित और स्थायी-भाव लिए रहा। दुःखद किन्तु सचाई है कि अन्य नेतागण राजनीतिक तमीज़ से बात करने से कन्नी काट गये। गुजरात में हुए विकास को ‘जैनुइन’ तरीके से जनता के समक्ष लाया जाये या कि ‘वाइब्रेंट गुजरात’ की वास्तविकता से आमजन को रू-ब-रू कराया जाए; इसका ‘होमवर्क’ बीजेपी नेताओं ने करना जरूरी नहीं समझा था। कुल के बाद भी भाजपा जीती है, तो इसका यह अर्थ कतई नहीं कि उसके नेताओं ने गलतियाँ नहीं की या कि वे सचमुच बहुत योग्य रणनीतिकार साबित हुए हैं। राजनीति में व्यक्ति-विशेष को श्रेय देने की परम्परा कांग्रेस ने शुरू की थी। आज भाजपा खुद इसी प्रभाव में है।

इन प्रवृत्तियों को राजनीतिक शब्दावली में कहा जाता है-अवसरवाद, समझौतापरस्ती, तुष्टिकरण, ध्रुवीकरण इत्यादि। कांग्रेस की फ़ितरत या कह लें कि उसकी पुरानी मानसिकता ऐसी ही रही है। लेकिन इस बार गुजरात चुनाव में कांग्रेस ने अलग तेवर, तरीके और तज़रबे से लड़ा। चुनाव में उसकी चहुँओर प्रशंसा दर्शनीय है। आलोचना करने वाली दृष्टियाँ राहुल गाँधी के ‘परफार्मेंस’ को बोनस अंक दे रही हैं तो यह अन्यथा नहीं है। कई सारे राजनीतिक विश्लेषक राहुल की बदली हुई भाषा और कहनशैली का जिक्र करते दिखे हैं। लगभग सबने यह माना है कि अब तक राहुल गाँधी अपनी परछाई के पीछे से बोलते थे। किन्तु इस बार उन्होंने सामने से बोलने का साहस जुटाया है। उनका इस तरह हिम्मतगर होना आगामी चुनावों के लिए शुभ-चिन्ह् है। सच कहें, तो यह बनते हुए राहुल की नई ‘सेल्फी’ है जिसमें परिपक्वता के नए ‘डिम्पल’ उभार ले रहे हैं। इसको कायम रखना टेढ़ी खीर है। अक्सर नेतागण जिनकी वजह से जीते उनको फौरी तरीके से याद करते हैं। बाद बाकी उन्हें भुला देना ही अपनी राजनीतिक सफलता का एकमात्र फ़लसफ़ा मानते हैं। सोचते हैं, संकट में पड़ना हमारी नियति हैं। जब संकट के ओले बरसेंगे, तो फिर संकटमोचन को याद कर लेंगे। पार्टी कार्यकर्ताओं में यह ‘परसेप्शन’ न बने इसको लेकर राहुल गाँधी को मुस्तैदी दिखानी होगी। राहुल गाँधी इस ‘चुनौती’ को जितनी भली-भाँति समझेंगे उनके कांग्रेस अध्यक्ष की पारी उतनी ही मजबूत, सुदृढ़ और पार्टी के लिए कारगर साबित होगी। ध्यान देना होगा कि आजकल नेता चमत्कारी होने को लेकर फ़िक्रमंद अधिक हो चले हैं। उनका कहना-सुनना, सोचना-समझना, जानना-बूझना जनता की भाषा में नहीं विज्ञापन और मीडिया की भाषा में प्रचारित-प्रक्षेपित है। अब टेलीविज़न डिबेट ‘आॅरिजनल’ की जगह ‘फे़क’ अधिक मालूम दे रहे हैं। यह नेतृत्वगत भेड़चाल की शनिदशा है जिसका प्रकोप सभी दलों के ऊपर है। प्रचारवादी राजनीति के इस युग में लोकप्रियता का ‘वन मैन शो’ शनि के साढ़े साती की माफ़िक ही ख़तरनाक है; लेकिन अक्सर चुनावों में सिक्का इनका ही चलता है। अतएव, नेता हो या पार्टी कार्यकर्ता हरेक व्यक्ति को यह समझना होगा कि राजनीतिक चुनौतियों और पार्टीगत कठिनाइयों से निपटना आसान काम नहीं है। समझदारी यही है कि राजनीतिक दल अपनी जवाबदेही और अपनी पद-गरिमा को लेकर पहले से सजग-सतर्क रहे। क्योंकि इस तरह की सावधानियाँ आत्मबल पैदा करने का काम करते हैं। द्रष्टव्य है कि नेतृत्व की दिशा सही होने पर अंदर-बाहर कई छोरों से संकल्पवान, निष्ठावान सहयोग-समर्थन मिलते हैं। जवाबदेह जनता स्वयं बढ़-चढ़ कर वैसे राजनीतिज्ञों को जिताती हैं जिनके लिए राजनीति सेवा और कर्तव्य का धराधाम हो, सद्भावना का मंदिर हो, संभावना का द्वार हो।

आज की विवेकी जनता ईमानदार कोशिश करने वालों को सबसे पहले और सर्वाधिक तरज़ीह देती है। भारतीय संस्कार और जीवन-दर्शन में पगी जनता की दृष्टि में कर्मण्यता की शक्ति ही किसी राष्ट्र की असल जमापूँजी है, तमाम विडम्बनाओं के बावजूद उसके सुरक्षित बचे रहने की मुख्य शर्त हैं। कई बार स्वयं अपने बारे में हमारा मूल्यांकन, नियामक सर्वथा भिन्न होता है। कर्मनिष्ठ व्यक्ति इस भिन्नता को भली-भाँति जानता है। दरअसल, आत्मचेतस होने का असली गुण यही है कि वह विजय के हर्षोल्लास के वक़्त भी अपनी मुर्खता और कमजोरी की खरी-खरी आलोचना करे और इस ग़लती पर बहस करने की बजाए उसे स्वीकारने का साहस जुटाए। राजनीति में इस गुणधर्म का होना राजनीतिक परम्परा को दीर्घायु बनाना है। इससे वैचारिक ठोसपन का पता चलता है। क्योंकि जनपक्ष की प्रस्तावना ही लोकतंत्र का केन्द्रीय-मर्म है। इतिहास साक्षी है, जिन भी नेताओं में पद की लालसा बेतहाशा रही, वह पद पाते ही अपना कब्र खोदने में लग गए। सत्ता के मद में उनका राजनीतिक कद छोटा होता गया। अस्तु, वर्तमानजीवी कई नेताओं का इतिहास में स्थान रत्ती भर नहीं है। कभी जिनके नाम का राजनीति में डंका बजता था, आज पार्टी में उनकी उपस्थिति तक को ‘नोटिस’ नहीं लिया जा रहा है। सो आज जिनके नाम की चर्चाएँ हैं, लोगों में हुंकार-जयजयकार हैं; वह देर-सवेर गुमनामी के अंधेरे कुएँ में दफ़न हो सकते हैं, कहा नहीं जा सकता हैं। कांग्रेस-भाजपा ही नहीं कई राष्ट्रीय दलों के कद्दावर नेता गवाह हैं जिनकी लोकप्रियता बीते दिनों चरम पर थीं, असर करिश्माई था; आज वे परिदृश्य से गायब हैं। फ़िलहाल गुजरात और हिमाचल दोनों प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी को मिला जनादेश सौ फ़ीसदी इस पार्टी की जीत है। इसका श्रेय आधा-अधूरा नहीं, बल्कि पूरा का पूरा नरेन्द्र मोदी के ‘वन मैन शो’ वाली भाजपा को ही मिलना चाहिए। कांग्रेस के हार का गुणगान अथवा महिमामंडन उचित नहीं होगा। यह और बात है, आगामी लोकसभा चुनाव से पूर्व होने वाले सभी प्रादेशिक चुनावों में कांग्रेस का पलड़ा भारी रहने वाला है। राहुल गाँधी ने इतना भरोसा जगा दी है।

नोट: प्रयोजनमूलक हिंदी के विद्यार्थियों के लिए सम्पादकीय-लेखन का माॅडल

Monday, December 18, 2017

राहुल गाँधी Vs नरेन्द्र मोदी

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राजीव रंजन प्रसाद

आधुनिक भारतीय राजनीति का कैनवास बड़ा है। संविधान और संसद इस जनतांत्रिक व्यवस्था की हृदयस्थली है। विभिन्न निकायों और स्तरों पर नियतकालीन चुनाव होते हैं। सामान्य-असामान्य जीत और हार अलग चीज है। विजयोत्सव मनाइए या महामातम, चुनाव परिणाम के बाद इस तरह के दौर से गुजरना हर एक राजनीतिक दल की नियति है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आमोंखास हर एक नागरिक सांविधानिक तरीके से अपना जनप्रतिनिधि चुनता है। केन्द्र और राज्य में एक ही अथवा भिन्न दलों का नेतृत्व स्वीकार करता है। कहना न होगा कि यह भारतीय जनतंत्र की असल ताकत है, सत्ता और शक्ति का महासंगम है। किसी लोकतंत्र में उपलब्ध जनपक्ष का यह रवैया उसके बौद्धिक विवेक का परिचायक है। भारत जैसे विशाल किन्तु मजबूत जनतंत्र में विभिन्न संस्थाओं, समूहों तथा दलों की आपसी एकजुटजा स्तुत्य है। विभिन्न दलों की बात करें, तो उनका अपना चुनाव-क्षेत्र है, अलग-अलग वैचारिक परिपाटियाँ, हस्तक्षेप और मतभेद है। भारत की जनता सबका समादर करती है। चुनाव के मौके पर अपनी सीधी भागीदारी सुनिश्चित कर अपना उच्चतम दायित्व निभाती है। दरअसल, भारतीय जनता का अपने मताधिकार का प्रयोग राजनीति दलों के हार-जीत से बड़ी चीज है। सरदार और मुखिया चुने जाने से महती कार्य है। यह नारों में ढलने और नारा बन जाने से सर्वथा भिन्न मूल्य-बोध है। राजनीति का मुख्य जंतर मतदान है। इसका शब्दार्थ जो लोकतंत्र में ध्वनित होता है वह है-‘सीधी भागीदारी और प्रत्यक्ष हस्तक्षेप’। इसीलिए राजनीतिविज्ञानी जनता को लोकतंत्र का वास्तुकार मानते हैं। अपनी इच्छानुसार किसी एक को चुनना साहस का काम है, उसके पक्ष में हो जाना जनता के स्वाधीन आत्मबल का परिचायक है। जनता की स्वतंत्र अस्मिता का ज्ञापन मूलतया इसी बात से होता है कि वह अपना नेता चुनती किसको है। जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिरूप है। कहा जाता है-यथा राजा, तथा प्रजा। जबकि आधुनिक शब्दावली में जनप्रतिनिधि जनता की प्रतिकृति है। 

भारत का बहुसांस्कृतिक परिवेश बृहदाकार है। स्वाधीनता के दिनों में यहाँ जो राजनीतिक-संस्कृति विकसित हुई, राजनीतिक चेतना का विकास हुआ; वह वर्तमान राजनीति के लिए आधारस्तंभ कही जानी चाहिए। कांग्रेस का जन्म और उसके हाथ में राजनीतिक सत्ता का हस्तांतरण वंशवाद का प्रतीक-शास्त्र नहीं कहा जाएगा। सन् 1951-52 के आम-चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कांग्रेसी-राष्ट्रीयता का संवाहक होने के नाते जनादेश का अधिकारिणी बनी। असल बात तो यह कि भारतीय राजनीति में वंशवादी ढर्रे को राजनीति के नेहरुवियन माॅडल ने शुरू किया था जिसका ‘लेटेस्ट वर्ज़न’ राहुल गाँधी हैं। राहुल गाँधी को जनता ने कितना स्वीकारा या कि उन्हें हाथों-हाथ लिया; यह बात और तथ्य किसी से छुपी नहीं है। राहुल वंशवाद से ताल्लुक रखने के कारण राजनीतिक कोपभाजन का शिकार खूब हुए। उन पर शब्दों के कड़े डंडे बरसाये गए। किसी ने उन्हें ‘पप्पू’ कहा, तो किसी ने ‘अनिच्छुक राजनीतिज्ञ’। कांग्रेस ने भी प्रायोजित तरीके से राहुल नाम का सिक्का चलाने का हरसंभव कोशिश की, पर भारतीय जनता ने रहमदिली नहीं दिखाई। इसकी मुख्य वजह राहुल गाँधी द्वारा जनता को ठगा जाना था। वर्ष 2004 के बाद 2009 ई. में केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी अवश्य; पर अपने कार्यकाल में उसने सत्ता का मजाक बनाकर रख दिया। जनादेश से इस खिलवाड़ को घपले, घोटाले, भ्रष्टाचार, महंगाई, अशिक्षा, कुशासन, असुरक्षा, अपराध, अशांति इत्यादि के रूप चिह्नित करना सुविधाजनक होगा।

2014 ई. में कांग्रेस की भद्द पीटी। उसका जगह लिया भाजपा के ‘अच्छे दिन’ ने। आज देश के 19 राज्यों में ‘अच्छे दिन’ है। केन्द्र सहित 19 राज्यों में सियासी कमान संभाल रही भारतीय जनता पार्टी के इस उपलब्धि का एकमात्र श्रेय जिस व्यक्ति को जाता है वह है-नरेन्द्र मोदी। कहने वाले कह सकते हैं कि एक तरफ कांग्रेस के असफलता के सर्जक राहुल गाँधी  हैं, तो दूसरी ओर सफलता के पर्याय बन चुके नरेन्द्र मोदी हैं। 

शोधकर्ता होने के नाते प्रचारवादी राजनीति से इतर सचाई की खोज के लिए हमने कुछ प्रश्नों को दागना शुरू किया। जैसे-क्या राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी ये दो ही नाम देश के तक़दीर हैं? क्या इन्हीं दोनों से भारतीय भाव-विचार, अभिमत-प्रतिक्रिया संचालित हैं? क्या इन दोनों का कहा मानना-सुनना हिन्दुस्तान की नियति बन चुकी है? यदि इन दोनों राजनीतिज्ञों के व्यक्तित्व, व्यवहार, नेतृत्व, भाषा, भाषण, भूमिका, प्रभाव, जनपक्षधरता, जन-जुड़ाव, जन-संवेदना, राजनीतिक ज्ञान, सामरिक सहभागिता, वैश्विक सम्बन्धों इत्यादि का जायज़ा लें, इनका समग्र तथा सम्पूर्ण तुलनात्मक अध्ययन करें तो कुछ और प्रश्न स्वाभाविक रूप से इस प्रसंग में जुड़ जाते हैं। जैसे-क्या राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी का ‘वन मैन शो’ एक के लिए ख़राब तो दूसरे के लिए अच्छा है? क्या ओछी भाषा में संभाषण की राजनीति राहुल गाँधी की पार्टी करती है, नरेन्द्र मोदी का राजनीतिक दल बिल्कुल पाक-साफ़ है? क्या राहुल गाँधी ने कांग्रेस की नैया डूबो दी है, तो वहीं नरेन्द्र मोदी के ‘न्यू मीडिया’ माॅडल से भारतवासियों के दिन बहुरे हैं? क्या वंशवाद कांग्रेस की अपनी जन्मना बीमारी है और अन्य राजनीतिक पार्टियाँ इनसे बिल्कुल अछूती हैं? इत्यादि। 

देखिए, हर नागरिक अपने राजनेता को अपना नायक मानता है। देशबंधु नागरिक अपने नेता की सुनता है और नेता के कहेनुसार आचरण भी करता है। बोलता हुआ राजनीतिज्ञ चाहे जिस किसी पार्टी का हो उसका बोलना उसकी असलियत को ज़ाहिर करता है। लोक-दायरे में बोलने-चालने और सुनने-समझने की इस रवायत को संचार की शब्दावली में ‘संचारकत्व’ कहते हैं। संचारकत्व में माहिर राजनेता किसी भी दल, मत या विचारधारा का हो सकता है; इसमें कोई इकलौता ‘रूल आॅफ थम्ब’ नहीं है। वैसे भी भारत में कांग्रेस, भाजपा, बसपा, वामदल, समाजवादी पार्टी आदि मुख्य पार्टियों के अतिरिक्त दर्जनों राजनीतिक गठबंधन एवं संगठनहैं। रोचक तथ्य यह है कि भारत में आज सैकड़ो अज्ञात पंजीकृत दल हैं।.....,

(शेष बाद में

Sunday, December 17, 2017

मीडियावी राजनीति का उपद्रव और उपाय

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राजीव रंजन प्रसाद
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(हजारों बातों की फेहरिस्त में, सैकड़ों विचारों के रहते हुए भी लिखना खुद का शगल है कि पागलपन; नहीं समझ पाया। यह जानते हुए भी लिखना कि इसको आज की पीढ़ी की दृष्टि में ख़ारिज हो जाना है....मैं लिखता चला गया!

आधुनिक जनसमाज चाहे वह आम हो या खास, मीडिया पर विश्वास करता है। यह विश्वसनीयता बड़ी चीज है। इसे इस तरह देखें कि यह ‘मीडिया-क्रिडियबिलिटी’ ही है जिस कारण मीडिया लोक-दायरे में टिकी-बनी हुई है। बाकी तो जो है सो है। जैसे-‘कंटेंट’, ‘फाॅर्म’, ‘न्यूज़’, ‘व्यूज़’ ‘इन्फाॅर्मेशन’, ‘एजुकेशन’, ‘इंटरटेनमेंट’ ‘एडवोटोरियल’, ‘पेड’, ‘सरोगट’, ‘इम्बेडेड’ इत्यादि। मीडिया के जानकारों की माने तो सकारात्मक चीजें जनमाध्यम द्वारा सम्प्रेषित सबसे कम हो रही हैं। वहीं नकारात्मक चीजों की उपस्थिति, आवृत्ति और उपद्रव में बेतहाशा बढ़ोतरी जारी है। मौजूदा मीडिया-बाज़ार में जिन शब्दावलियों की बहुतायत है उनसे आम हित कतई नहीं सध सकता है। क्योंकि वह किसानों की आत्महत्या से लेकर रोज़ाना की महंगाई, स्वास्थ्य और शिक्षा की समस्या, शांति और सुरक्षा के प्रश्न, जागरूकता एवं सशक्तिकरण के मुद्दे इत्यादि तक को कारोबारी नज़रिए से देखने-ताकने का आदी है। सचाई यही है कि मीडिया के विभिन्न बहसों, संवादों, चर्चाओं आदि में प्रदर्शित जनवाद जाली है। संवेदना-सरोकार की घोषणा हवाई है। ज़ाहिर प्रतिरोध दिखावटी है, तो विभिन्न चैनलों पर चलने वाले बहस-मुबाहिसों का पूरा मज़मून प्रायोजित अथवा ‘पेडेड’ है। 

आज हमसब इक्कीसवीं सदी के जिस मुहाने पर खड़े हैं वह परीक्षा की घड़ी है। यह बात इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि इन दिनों विज्ञान एवं तकनीक आधारित संचार-अभिवृत्तयाँ भेड़चाल के हवाले है। हमारा नेता ही हमारी सामूहिक हत्या के षड़यंत्र में शामिल है। वह सरकारी ख़जाने को नहीं हमारी जन-अस्मिता को लूट रहा है। उसकी हवेली-कोठी का आलीशान होना-बनना आम-अवाम के रक्त चूसने का नतीजा है। राजनीतिज्ञों के भीतर पसरा ‘वीआईपीवाद’ राष्ट्रीय परिसंपत्ति की सीधी लूट है। गंभीरतापूर्वक सोचें, तो आत्मसजग तथा स्वतंत्र मीडिया की अनुपस्थिति के कारण आज पूरा राजनीतिक-तंत्र और राजनीतिज्ञों की जमात रीढ़विहीन हो गई है। भारतीय राजनीति का यह लकवाग्रस्त नेतृत्व राष्ट्र को लगातार पीछे की ओर धकेल रहा है, तो वहीं मुनाफ़ाखोर मीडिया के कारण जन-संवाद की ज़मीन ऊसर बनती जा रही ही। विकासमूलक, प्रगतिशील और परिवर्तनकामी राजनीति के नारे अथवा जुमले विभिन्न राजनीतिक अवसरों पर उछाले अवश्य जा रहे हैं, लेकिन भारतीय आत्मा ग्लानि और हूक से अटी पड़ी है। विद्रूप यह है कि मीडिया और राजनीति ने आपसी साँठ-गाँठ से मीडियावी राजनीति का एक ‘काॅकटेल’ बना लिया है। पहले मीडिया की बात करें, तो मीडिया में घटनाओं की संख्या बढ़ी है, तो उनका विश्लेषण गायब हो गया है। टेलीविज़न स्क्रीन पर उगते-उभरते घटनाओं की रफ़्तार में तेजी आई है, तो समाचार-प्रस्तोताओं (एंकरों) के रपट पढ़ने की शैली में अंतर साफ दृष्टिगोचर है। कहना न होगा कि आजकल सबकुछ फौरन और फटाफट के ‘फ्लेवर’ में है। लेकिन कुल ‘मास्टरस्पीड’ के बावजूद अधूरापन ही पकड़ में आ रहा है यानी मीडिया द्वारा प्रस्तुत सामग्री में अब भी बहुत कुछ ‘मिसिंग’ है। इसका पहला कारण मीडिया का दृष्टिकोण-दोष है जो किसी भी मुद्दे पर चयनित अथवा संकेतित रवैया अपनाती है। वह उन घटनाओं, मुद्दों, समस्याओं आदि से किनारा कर लेती है जिनसे उनका व्यावसायिक नुकसान होने का अंदेशा होता है। वह अपनी रायशुमारी में अलग अथवा अलहदा दिखने के लिए ऐसा कोई ‘रिस्क’ लेना नहीं चाहती हैं जिससे होने वाले हानि की भरपाई असंभव हो। हिन्दुस्तानी मीडिया इसी भय से पार पाने ख़ातिर धनलोलुप और सत्ताधारी राजनीति का ‘सुप्रीम गाइड’ बन चुकी है। आज की मीडिया व्यक्तित्वहीन राजनीति के रक्षार्थ अपने पत्रकारीय-विवेक को तिलांजलि देने से भी नहीं हिचक रही है। नतीजा यह है कि, ‘‘जिसे मीडिया आर्थिक सुधार कहता है वह सुधार नहीं नीतियों में बुनियादी परिवर्तन है। इसमें आम लोगों की जगह वर्ग-विशेष का पूरी अर्थव्यवस्था पर कब्ज़ा होता है। श्रम-सुधार नहीं है, यह श्रमिकों की वर्षों-वर्षों के बाद, लाखों कुर्बानियों के बाद हासिल अधिकारों को छीनना है।’’ 

एक और पक्ष की बात करें, तो उन्नत तकनीकी-प्रौद्योगिकी ने मीडिया को पहले की तुलना में अधिक शक्तिमान बना दिया है। परिणामतः टेलीविज़न स्क्रीन पर दिखने वाले विजुअल्स ‘स्टील फोटोग्राफ’ से ज्यादा ‘पाॅवरफुल’ बन चुके हैं। टेलीविज़न ने इन अर्थों में अख़बार-कल्चर को पछाड़ा हे। वैसे इस ‘पाॅवर-गेम’ में अख़बार खुद भी निर्दोष नहीं हैं। दरअसल, मार्केट-फिलाॅसफी का दबाव मीडिया के सभी माध्यमों पर है। यानी नए-पुराने सारे संचार-माध्यम गड्मगड्ड हो गए हैं। उनका जनपक्षीय रवैया और रवायत मीडिया-बाज़ार द्वारा नियंत्रित-निर्धारित हो चुकी है। इतिहास-बोध से कटे और स्मृतिविहीन इन प्रेस-छवियों का अपना आडम्बर है, तो वितंडावाद भी। प्रेस अनुकूलित राजनीति तो सर्वाधिक संक्रमित है। कई दृष्टियों में तो वह मीडिया-बाज़ार की असल धोबीघाट है। सब जानते हैं कि आजकल राजनीति में ‘वन मैन शो’ का चलन है। हर दल अपने नेता को ‘हिरोइज़्म’ के शक्ल में उभार रहा है क्योंकि ‘रियल पाॅलिटिक्स’ गायब है। नेतृत्व का संकट इतना गहरा है कि जनता-जनार्दन अंधविश्वास की हद तक अर्थहीन शब्दों की जादूगिरी में अपना सर्वस्व (नेक-नियत, ईमान, पहचान, संवेदना, विचार, व्यवहार, चरित्र इत्यादि) झोंक चुका है। पहले लोकवृत्त (पब्लिक स्फियर) की गरिमा सार्वभौम होती थी जहाँ से जनता अपने नेता का कहा सिर्फ सुन नहीं सकती थी, अपितु उनसे सीधे संवाद कर पाती थी। अब ये मंच टिवट्र, व्हाट्स-अप, फेसबुक, ब्लाॅग, वेबसाइट, यू-ट्युब, हैंगआउट, इंस्टाग्राम इत्यादि आभासी बैटल-फील्ड में तब्दील हो गए हैं। यहाँ मिनट-टू-मिनट अपडेट है। आपसी हमले, आरोप-प्रत्यारोप या कि सवाल-जवाब हैं। लेकिन इसमें कितनी हकीकत और कितना फ़साना है? यह प्रश्न सिरे से गायब है। भाषा तो इस कदर दोयम और अर्थहीन हो चली है कि मर्यादा की सभी भंगिमाएँ अपने होने पर विलाप कर रही हैं। 

सत्ता के मुलाज़िमों अथवा सरकारी सुविधाभोगियों के लिए मीडियावी राजनीति हानिप्रद नहीं है। जबकि संघर्षरत जनता, ख़ासकर संघर्ष में हिस्सा ले रहे किसानों, आन्दोलनरत श्रमिकों एवं छात्रों के लिए यह जीवन-मरण के प्रश्न सरीख़ा है। विशेषकर युवाओं पर मीडियावी राजनीति की मार सबसे अधिक पड़ रही है। गोया, जिन चेहरों को इन दिनों ‘युवा’ कहा जा रहा है उनमें से अधिसंख्य के लिए मीडियावी राजनीति आज भी अबूझ पहेली है। वह राष्ट्र-राज्य के समीकरण को आज भी नहीं समझ पाया है। यह और बात है कि मीडिया और राजनीति के समूचे छल-छद्म-फ़रेब का शिकार ये युवजन ही सर्वाधिक हैं। युवाओं की एक दूसरी ज़मात भी है। यानी किसी न किसी रूप में आधुनिक राजनीति का संस्कार पाए या फिर छात्र-राजनीति से मुख्यधारा की राजनीति में दाखि़ल हुए ऐसे युवा जो राजनीति को ‘वन मैन शो’ का पर्याय मानते हैं। उनकी दृष्टि में, राजनीति एक ‘पाॅवर गेम’ है या फिर ‘माइंड वार’। मीडियावी राजनीति दूसरी पंक्ति में शामिल इन्हीं युवाओं को सर्वाधिक लुभाता है। अन्यथा, राजनीति से पहली प्रजाति के युवाओं का बहुत लेना-देना नहीं है। शेष जन-साधारण की बात करें, तो मीडियावी राजनीति उनको ‘इंटरटेन’ कर रही है या फिर उन्हें तरह-तरह से ‘इनगे़ज’ रखने में जुटी है।

साफगोई से कहें, तो मीडिया-बाज़ार पर सवार राजनीति इक्कीसवीं सदी का ईजाद है। यह अपने दर्शकों के लिए राजनीति को दर्शनीय बनाती है, तो दूसरी तरफ मीडिया उनमें राजनीति के प्रति घृणा उपजाने का काम बखूबी करती है। शिक्षित और जागरूक जनता की ख़ीज, ऊब, चिढ़, तकलीफ़, चिंताओं आदि को यही मीडिया प्रतिक्रियावादी होने-बनने को उकसाती है। यह मीडिया का ‘डैमेज कंट्रोल’ है जिसका आरोहण वह ‘बिट’, ‘बाइट’, ‘वाॅयस ओवर’, ‘पीटूसी’ आदि के माध्यम से करती है। पूँजीवादी मीडिया के अंदरुनी जोड़-तोड़, मिलीभगत, गुणा-गणित से जनता को सबसे अधिक नुकसान होता है। जनता भी बँटी हुई जनता है। प्रभाव, पैठ एवं पहुँच वाली वह जनता मौन है जो लाभुक स्थिति में है। शेष अधिसंख्य आबादी जिनके ऊपर खतरा सबसे अधिक मंडरा रहा है, वह टेलीविज़न स्क्रीन से बाहर है। वैसे भी हाशिए पर मौजूद लोगों को हासिल बहुत ही कम और अपर्याप्त होता है। भले वह आधार-कार्ड सबसे पहले बनवाती हो या कि अपना बैंक अकाउंट पूरी तत्परता से खुलवाती हो। मीडिया गाहे-बगाहे इनके बीच अपना कैमरा ‘पैन’ करता अवश्य है, किन्तु जल्द ही उसे अहसास हो जाता है। सुंदर-स्वच्छ भारत की बहुआयामी (स्मार्ट एंड ग्रेटर)छवि में ये दृश्य-छवियाँ बेहद अनाकर्षक मालूम देती हैं। टेलीविज़न धारावाहिकों के महा-एपिसोड से इतर देशवासियों की ये असल कहानी मीडिया रिपोर्टरों को अक़्सर बेहद ठेठ और भदेस मालूम पड़ती है। इसमें उन्हें वह रुमानियत नहीं नज़र आ पाती है जो प्रधानमंत्री के चुनावी भाषण में होता है। राहुल गाँधी के प्रेस-कांफ्रेंस में होता है। अखिलेश यादव के इंटरव्यू या सुब्रह्यमण्यम स्वामी और ओवैसी के बीच चलने वाले डिबेट में होता है। यद्यपि आजादी पाए करोड़ों हिन्दुस्तानियों में आम-अवाम बने रहने वाले लोगों की तादाद संख्याबल में अधिक हैं, पर इनका हाथ आज भी खाली है। बेरोजगारी और बेगारी इन पर रोज़ाना कहर बन टूटती है। महँगाई-डायन इनकी दिनचर्या को नहीं जिंदगी को ही लील जाने को तैयार बैठी रहती है। लड़कियाँ और स्त्रियाँ तो मर्दाना हवस का इस कदर शिकार हो रही हैं, मानों दुष्कर्म-बलात्कार को हम भारतीयों ने चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) के अतिरिक्त पाँचवा पुरुषार्थ घोषित कर दिया है।

ऐसे में हिन्दुस्तानी मीडिया को ‘लोक-प्रहरी’ या ‘चौथा  स्तंभ’ कहना अपनी समझ का मजाक बनाना है। मीडिया विशेषज्ञ अनिल चमड़िया वर्तमान मीडिया की प्रवृत्तियों को दो-टूक लक्ष्य करते हुए कहते हैं-‘‘मीडिया लोकतंत्र की सुरक्षा और उसे मज़बूत करने के लिए खुद को उसी हद तक जिम्मेदार मानती है जिस हद तक बाज़ार उसे इसकी इजाज़त देता है। ज्यादा मुनाफ़ा कमाने में लोकतंत्र आड़े आ रहा हो तो उसे विकृत करने से यह बाज नहीं आती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो इलेक्ट्राॅनिक मीडिया खुद के लिए न्यूज़ पैदा करने की हमेशा योजनाएँ बनाता रहता है। इसके ढेरों उदाहरण दिए जा सकते हैं। कहा जाए कि यही उसकी मुख्य प्रवृत्ति है।’’ बावजूद इसके हमसब में से हर कोई प्रत्यक्ष-परोक्ष, चाहे-अनचाहे या कि गाहे-बगाहे मीडिया से जुड़ा है; मीडिया-बाज़ार की जद में है। हम अपने बुद्धि-विवेक पर भरोसा जताते हुए खुद को इससे जोड़े रखे हुए हैं। वास्तव में, चिपका हुआ न माने तो भी मीडिया-ग्राहकी में हमारा नाम बंधुआ-आॅडिएंस अथवा बंधुआ-व्युअर्स के रूप में शामिल अवश्य है। यह बात इस वजह से भी सोलह आना सच है कि ‘न्यू मीडिया’ और ‘सोशल मीडिया’ के हस्तक्षेप और बढ़ते दख़ल के नाते मास-मीडिया जनसामान्य की ‘जैनुइन’ जरूरत बन चुकी है। 

हाल के दिनों में मीडिया की ‘टोटली-पाॅलिटिक्स’ पर थोड़ा रूक-थमकर बात करने की जरूरत है। ख़ासकर ‘वन मैन शो’ का बढ़ता ग्लैमर्स देखने योग्य है। इन्हें टीवी स्टाइल में देखना-सुनना (इनकोड-डिकोड) जितना मजेदार है उसकी सचाई उतनी ही भयावह है। हालिया चुनाव में भाषा की बदली हुई भाव-भंगिमा का विचारणीय पहलू यह है कि ये सारे कारामात मीडिया-मुनाफें की अंतहीन खेप और माँग के हिसाब से पूरी की जा रही हैं। कहावत है, आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इस तर्ज़ पर कहें, तो मीडिया हमारे आँखदार होने का फायदा उठा रही है। उसे पता है कि आदमी चीजों को देखने का वाज़िब एवं गैर-वाज़िब कीमत चुक्ता कर सकता है। अतएव, मीडियावी राजनीति ने हमारी इसी मनोवृत्ति का फायदा उठाना शुरू कर दिया है। रंगमंचीय अभिनेताओं को मात देते भारतीय राजनेताओं ने हमारी इसी जरुरीयात पर धावा बोल दिया है। अब फौजी कार्रवाई नहीं ज़बानी दावा है। आँकड़ों के बोल-बच्चन है। हम अपनी पहचान को भूलकर कब स्वयं को कांग्रेस का ‘कैडर’ मान लेते हैं; पता ही नहीं चलता है। भाजपा के राजनीतिक कार्यकलापों को देखते-सुनते हुए एकबारगी कब हम ‘संघी कार्यकर्ता’ बन चुके होते हैं, मालूम ही नहीं देता है। 

यह मानी हुई बात है कि मीडिया द्वारा प्रस्तुत सामग्री (आवाज़-दृश्य-छविभाषा) में अकूत बल है, तो आवृत्ति भी जबर्दस्त है। इसमें मात्रा है और परिमाण भी है। विशेषकर ‘न्यू मीडिया’ आभासी होते हुए भी विश्वासी अधिक है। कई बार यह जानते हुए भी कि कारपोरेटी मीडिया से मिलने वाली सूचनाओं, तथ्यों, संदेशों, आँकड़ों आदि का चयन समग्र का प्रतिनिधित्व नहीं करता है या कि उनके द्वारा प्रदत आँकड़ा सम्पूर्ण प्रत्यक्षीकरण से प्राप्त तथ्य नहीं है; हम उनके ख़िलाफ जाने की बजाय उनके प्रस्तुति के रंग में रंग जाते हैं। प्र्रायः हमारे द्वारा मीडिया की प्रायोजित प्रस्तुति का ही सामान्यीकरण कर दिया जाता है जो किसी भी दृष्टि से वैध नहीं है। यह विवशता कह लें या कि अपने स्वार्थहित में अनुकूलन, मीडिया के साँचे में हमारा ढला व्यक्तित्व अंततः अपना स्वतंत्र नागरिक अधिकार और कर्तव्य-बोध खो देता है। हमारे अंध-समर्थन के बलबूते मजबूत बनता मीडिया हमारी ही आँखों के सामने से हमारे जनतंत्र का अपहरण कर ले जाता है और उसकी जगह एक मायावी प्रतिरूप (माॅडल) लाकर खड़ा कर देता है। ताकतवर बनता रईस मीडिया चालाकीपूर्वक सीरियस बातों को भी सनसनीखेज तेवर या इसके ठीक उलट उन्हें हल्का बनाकर परोसने लग जाता है। यह सच है कि देर-सवेर हम यह महसूस करेंगे कि आज का मीडिया हमारे प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावहीन बनाने में पूरे एजेंडे के साथ जुटा है। मीडिया का छल यह है कि उसने भारतीयता के सामूहिक-बल को एक इकाई मान लिया है जो आत्मबल और दृढ़संकल्प से सर्वथा रहित महज़ एक पैमाना मात्र है, हक़ीकत हरग़िज नहीं। अर्थात् आज का मीडिया-बाज़ार एक व्यक्ति के बहाने पूरे समाज पर अपना धौंस जमाने की कोशिश में है क्योंकि वह सब को एक ही तरह दूसरे का नकल मान लिया है। वास्तव में उसका मुख्य ‘टारगेट’ हमारी व्यक्ति-सत्ता का विलोपीकरण और सामाजिक-सत्ता का ह्रास है। 

लुके-छिपे तौर पर यह षड़यंत्र कई दशकों से जारी है जिसके आगे निवर्तमान राजनीति अपना घुटना टेक चुकी है। मीडिया का यह खुला खेल फरुर्खाबादी जनमत तथा जनपक्ष के अनुरूप नहीं बैठता है, पर अफ़सोस इसके समर्थन में गवाही हमें ही देना होता है, इनकी सुरक्षा-संरक्षा में अपना ही हाथ उठना होता है। क्योंकि हमलोग माॅल, मल्टीप्लेक्स, मल्टीस्टोरज, मल्टीकल्चर, मल्टीइकोनाॅमी आदि की गिरफ़्त में हैं। हम इनसे बाहर नहीं हो सकते हैं, क्योंकि परिधि के बाहर होने का एकमात्र अर्थ निरर्थक हो जाना है। पूरी दुनिया में भूमंडलीकरण की दुदुंभी बज रही है। इसमें शामिल होना हमारी अनिवार्यता है और विवशता भी। तब भी इसकी आलोचना जरूरी है क्योंकि इसने पूरे राष्ट्रीय एकता, बहुसांस्कृतिक सत्ता और बहुभाषिकता के लोक-विरासत को बहिष्कृत कर दिया है। अब बोला जा रहा भी शोर है, बोले का जवाबी काट भी वैचारिक ऊधम है। अतः सावधानी और सजगता ही जनसत्ता के बचे होने का उपयुक्त विकल्प है। ज़ाहिर तौर पर हमें मीडिया-बाज़ार की इस चालू संस्कृति के खि़लाफ साफ़ किन्तु संयम के साथ बोलना होगा। बौद्धिक-एवं तार्किक रणनीति के साथ समग्र एकजुटता दिखानी होगी। चुप्पी तोड़ आवाज़ बाहर लाने की यह कवायद इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसी में हमारा जनतांत्रिक वज़ूद और सांविधानिक औचित्य सुरक्षित है। हमसब को यह खतरा मोल लेना पड़ेगा इस सचाई को जानते हुए भी कि हमारा सर्वाधिक हित मीडिया और राजनीति (मीडियावी राजनीति का ‘काॅकटेल’ नहीं) दोनों से सध रहा है। सूचना, शिक्षा, मनोरंजन, नई आवाज़ें, नए दृश्य, नवीन सूचना, अद्यतन जानकारी आदि इसी बरास्ते हमें मिल रहे हैं, हम तक पहुँच रहे हैं। इसलिए मीडिया को पूरी तरह ग़लत बताना या कि राजनीति को पूर्णतया ख़ारिज करना सही नहीं होगा; पर इसका अंध-समर्थन भी उचित नहीं है। 

बहरहाल, देशहित में सभी को एक बिन्दु पर पहुँचने की जरूरत है। अलग-अलग नहीं बल्कि एकसाथ मिलजुल कर बहस-मुबाहिसे, संवाद-विमर्श, बतकही-विचार इत्यादि को धारदार बनाने की आवश्यकता है। वैज्ञानिक ढंग से ऐसे कार्यकलापों के पीछे छुपी असल मंशा को खोजने-खंगालने की जरूरत है जिनमें आत्ममुग्ध राष्ट्रवाद की बजाय स्वबोध से प्रेरित राष्ट्रवाद की महक-खुशबू भीनी हो। मीडिया-शोधार्थियों को इसी बरास्ते शोध-अनुसंधान की सच्ची परिपाटी शुरू करने के लिए सोचना होगा, अन्यथा विश्व के काॅरपोरेट चंगुल में भारत का फँसना या शिकार हो जाना तय है। अस्तु, ठहर कर सोचिए तो यह सच है कि आजकल प्रत्येक व्यक्ति संचार-साधनों को ‘इंटरटेन’ कर रहा है। वह अपनी अंदर-बाहर की व्यस्तताओं और तकलीफ़ों के बीच टेलीविज़न को ‘पेन बाम’ की तरह आज़मा रहा है। अब तो समाचार-पत्र या कि उसके ई-संस्करण को पढ़ना-देखना भी उसके लिए स्वयं को ‘फील गुड’ कराने जैसा है। अब तो सिनेमा में वह बात बची नहीं, टेलीविज़न ने उनका सारा ‘इसेंस’ निचोड़ डाला है। इसी तरह रेडियो के दिन लदे न हों, तो भी वहाँ विचार की जगह ‘आइटम सांग’ अधिक बजने लगे हैं। सो अपने तईं यह सोचना ही फ़िजूल है कि हमलोग जो कुछ देख-सुन रहे हैं उसमें ग्रहण करने योग्य ‘सूचना’, ‘शिक्षा’ एवं ‘मनोरजंन’ कि मात्रा उचित एवं उपयुक्त परिमाण में है। अब तो हम प्रस्तुति को प्रस्तुत सामग्री से अधिक वरीयता दे रहे हैं। हम ‘आई मोड’ में हैं यानी आँख से ही हम संचार के ‘रन-वे’ पर सरपट दौड़ रहे हैं। स्मार्ट-फोन ने आँखों की पुतलियों का ‘मूवमेंट’ ख़तरनाक तरीके से बढ़ा दिया है। अब तो वाक्य भी शब्द-शैली में बनने लगे हैं जिनकी अर्थवत्ता ‘हाँ’ और ‘ना’ में ज्यादा तरज़ीह पा रही है। अन्य चलन में ‘इमोजियों’ की ताबड़तोड़ प्रस्तुति ने ‘संकेत-विधान’ का नया शास्त्र रच डाला है। 

प्रश्न है, तो क्या उपाय हो? असल में यह सन्मार्ग अपनी पीढ़ी को खुद ही सोचना और सुझाना है। हमें यह नहीं भूलना होगा कि कुल मर्यादाहीनता और अवसरवाद के लिज़लिज़ाते वातावरण के बावजूद कुछ लोग बचे हैं जिनके कहन का अंदाज नया है। प्रभाव सार्थक है। कई ऐसे जानदार लोग हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों से आते हैं किन्तु उनका किया-धरा कहा-सुना ताज्जुबकारी है। वे कथावस्तु से लेकर रिपोर्टिंग की शैली तक में दिलचस्प हैं। वे भरोसेमंद हैं और विश्वसनीय भी। अतएव, भारतीय लोकवृत्त को मीडियावी राजनीति को प्रश्नांकित करने और समयसंवादी योजना के साथ आगे बढ़ने के लिए आपसी सहयोग पहले भी अपेक्षित थी और आज भी उतनी ही शिद्दत से है।

Saturday, December 16, 2017

विज्ञापनी राजनीति के ब्रांड अंबेसडर हैं नरेन्द्र मोदी

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एक व्यक्ति को राज-दरबार दे दो, वह खुद बाकियों से राजा बनने का हक छीन लेगा। 
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Tuesday, December 12, 2017

यह लाइक वाले बात पर इतना बल इसलिए क्योंकि...!

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एक अनुसंधित्सु की हैसियत से जब आठ साल एक व्यक्ति के पीछे भागे हों। जिसके शादी रचाने की ख़बर से लेकर गर्लफ्रेंड के साथ दिखने तक के सनसनीखेज जर्नलिज़्म का आस्वाद लिया हो; उसके बारे में कितना भी कम तो क्या-क्या नहीं जानते होंगे आप?

मैंने 2009 में युवा राजनीतिज्ञों पर शोध-कार्य शुरू की तो मेरे शोध काकी-वर्डथा- युवा राजनीतिज्ञ संचारक राहुल गाँधी को मैंने जब भी ट्रैस करना चाहा, वे मेरे प्रशंसा के घेरे से बाहर रहे। इतना अधिक कच्चापन और उनके बोलने में बेशऊरपन था कि मैं उनकी बजाय नरेन्द्र मोदी को बेहतर और बढ़िया संचारक मानता रहा। अरविन्द केजरीवाल शुरू से खटकते रहे। उनका मतलबीपन अक्सर ज़ाहिर होता रहा। अख़िलेश से उम्मीद जगी, पर उनके ठेठपन मेंपाॅलिटिक्ल रोमांसअपने पिताजी मुलायम सिंह का शुक्रिया अदा करते हुए परिवार के बरास्ते पत्नी डिंपल यादव तक लरजती रही। भाजपा में युवा होना मतलब नरेन्द्र मोदी है और बाकियों का नामोनिशान नहीं है; तो दूसरी तरफ कांग्रेस में राहुल गाँधी कावन मैन शोही सुपरहिट है; बाकी तमाशबीन हैं। चाहे वह कितने भी दिखने में सुन्दर, सलोने, स्मार्ट और इंटेलीजेंट दिखाई पड़ते हों वे राहुल गाँधी के कृपापात्र हैं और कुछ नहीं।

मुख्यधारा की राजनीति में प्रवक्ताओं तक की पूरी खेप देखकर हताश तो नहीं हुआ; किन्तु भाजपा के लिए पूजनीय प्रवक्ता संबित पात्रा से लेकर आम आदमी पार्टी के मनोज तिवारी की भाँति गुड-स्किल इंटरटेनर कुमार विश्वास तक की यात्रा तय की। युवा राजनीतिज्ञों की खोज में मैंने मीनाक्षी नटराजन से होते हुए शाइना एनसी. तक पूरी भूमिका के साथ गया; पर उनकी पार्टी में मजबूत स्थिति न देख कुछ अच्छी उम्मीद की फ़सल अपने शोध-प्रबंध में नहीं बो सका। कुछ दिनों तक छवि राजावत और कविता कृष्णन के प्रति ख़बरों की भाँति दिवानगी रही, पर शाम ढलते ही उत्साह ढेर हो गया।

निष्कर्ष तक आते-आते मैं जान चुका कि सारे युवा दाल के दही हैं जिनसे मक्ख़न निकाला जा चुका है। बस उनकी उपयोगिता ख़मीर बनाने के लिए है। अन्य पार्टियों में वामदल के युवा नेता जेएनयू छात्रसंघ चुनाव तक सिमित है; नहीं तो वामपंथी छात्र अन्य जगहों पर जो यहाँ से पढ़कर निकले हैं वे भी पूँजीवाद के चटोर उपभोक्ता हैं। कुछ अपवाद हो सकते हैं जिनमें से कुछ को तो कायदे से नौकरी भी नसीब न हुई होगी। कुछ विद्रोही जी की तरह लड़ाका हों लेकिन जिसके रहने का ठिकाना और मृत्यु की शैय्या दोनों खुली आकाश रही हो; चेतना से भरे-पूरे किन्तु जन-समर्थन में ‘बैकफुट पर खड़े ऐसे दिलेर के साथ कौन और कितने करोड़ लोग खड़ा होगा भला? बीएचयू, इलाहाबाद, पटना आदि इलाकों में छात्रगण युवा हैं, तो पर वे युवा क्यों हैं; यह उनको पता नहीं है। इसके बाद की तारीख़ में युवाओं के भीतर से खंगालने अथवा उनसे पूछने-पछने के निमित खोदियाने की जरूरत नहीं है।

अतः जो मिला उसी के साथ शोध-प्रबंध का इति-श्री हो चुका है। कारण कि इसी बीच मुझे नौकरी मिल चुकी थी, सो शोध से इंटरेस्ट हटता रहा। अब अपनी जिंदगी को पे-स्केल के सहारे दुरुस्त करने की बेचैनी थी। क्योंकि एक साल के भीतर मोदी-राज के अच्छे दिन का परिणाम मेरे सामने था। युवा राजनेता राहुल गाँधी की कटु आलोचना और नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व से परिवर्तन का आगाज देखने वाला मेरा युवा-मन अपनी चेतना को अपहृत होत देख, आक्रोशित था। बाकी मोदी-राज में  शिक्षा का बड़ा उपकार करते हुए स्मृति ईरानी मानव संसाधन विकास मंत्रालय के इतिहास में दर्ज हो चुकी थीं और प्रकाश जावेड़कर भारत में नालन्दा और तक्षशिक्षा देखने के ब्लूप्रिंट तैयार करवाने में जुट गए थे। हो सकता है कुछ माह में टाइम, फोब्र्स, न्यूजवीक की रिपोर्ट आ जाए कि विश्व के 200 विश्वविद्यालय में सब के सब भारत के हैं, शेष जगत अंधकारमय है।

बात युवा राजनीतिज्ञों पर शोध की; तो नौकरी न मिलने के कारण शोध-कार्य करना मजबूरी थी। लेकिन अब नहीं रही। वैसे भी भारत में परम्परा बन चुकी है जो शोध-अनुसन्धान कराए जाते हैं वह दरअसल सूचना और ज्ञान-समाज के निर्माण के लिए किराए की कोख की तरह होती हैं। तुर्रा यह कि बच्चा जनने के बाद सब के सब फारिग हो जाते हैं और अमुक ज्ञान-उत्पाद राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित कर दिया जाता है।

कुल लब्बोलुआब कि मरे शोध करने और करने, मेरी किसी की प्रशंसा करने या करने से कुछ बनने-बिगड़ने वाला नहीं था। हम जैसे लोग या तो संयोगन अपनी योग्यता के मुताबिक नौकरी पा जाते हैं या फिर ग्रुप सी और ग्रुप डी की नौकरी का आवेदन भरते, परीक्षा देते, फल का इंतजार करते हुए दुनिया से रूख़्सत हो जाते हैं। राजनीति जिसे आप गंदी कहे या पवित्र, शांत कहे या अशांत; यह हमारे कहने-सुनने अथवा सोचने-विचारने से नहीं ढहता-भसता। इसके लिए तो सामूहिक बल और प्रतिरोध की जरूरत पड़ती है। अन्यथा ये धनपसेरी लोग जिनके यहाँ परिवारवाद और वंशवाद के कारखाने लगे हैं हमारी ज़बान ही नहीं उमेठ सकते हैं बल्कि अगर चाह जाए तो हमारे पेट में हाथ डाल अतड़ियों से भी उठक-बैठक करवा सकते हैं।

ये वे नक्षत्र हैं जिनकी तूती चहुँदिश दिशाओं में बोलती हैं। यही वे लोग हैं जो सबसे कम सभ्यता, संस्कृति, कला, साहित्य, स्थापत्य, दर्शन, इतिहास आदि के बारे में जानते हैं पर वे जहाँ और जो कुछ भी बोल देते हैं उनका रमणीय और रोचक अनुवाद आज की मीडिया कर डालती है। मीडिया पर हम आँख वारते हैं इसलिए मीडिया हमारे रेटिना तक की खुले तौर पर खरीद-बिक्री कर लेती है। भारत में शिव जी तांडव करते हैं, शनि की साढे़साती लगती है, संतोषी माँ व्याकुल आत्मा की तरह जगत में भटकती हैं आदि-आदि तो यह सब मुगल मीडिया रूपर्ट मर्डोक के फंड और न्यूज कारपोरेशन के दिशा-निर्देश में होता है। कुछ दिनों में जागरण्ण और दुर्गा-पूजा या गणेशोत्सव आदि का ठीका भी वे ले लें, तो कोई आश्चर्य नहीं। हमें  तो बस कुछ भी दिखा दो भगवंतकृपा से देखने के लिए ही आँख-दीदा के साथ पैदा हुए हैं।

एक लाइक मँजते राहुल के लिए

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राहुल गाँधी ने अपना थिंक टैंक और पीआर समूह बदला तो उनकी भाषा और कहन का तेवर तक बदल गया। इसके लिए राहुल गाँधी खातिर एक लाइक तो बनता है।

आप खुद भी देखें कि राहुल गुजरात में असफल रहे, तो भी 2019 में उनका प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व का पर्याय बन जाना संभव है। वह मानकर चलें कि 2019 के आम लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें जबर्दस्त कामयाबी नहीं मिलेगी। वैसे भी उनके पास अभी इस घड़ी खोने के लिए कुछ भी नहीं है।

राहुल गाँधी की निंदा-आलोचना हो चुकी है। अब उनके बनने के दिन हैं। वह अपने ऊपर इसी तरह संयम रखे और नियंत्रित बोलें। वह आजकल जिस तरीके से रूक-थम और नाप-तौल कर बोल रहे हैं, उससे उनके बोल की अर्थवत्ता और कहन का प्रभाव बढ़ा है। अतएव, वह फैसले ही न लें बल्कि देश के समक्ष वह निर्णायक फैसले लेते हुए दिखे भी। मणिशंकर अय्यर प्रकरण में उनकी पहलकदमी काबिलेतारीफ़ है।

इधर बीच मोदी जी बुलेट-ट्रेन के बरास्ते सी-प्लेन में यात्रा कर रहे हैं। और यह वह उपलब्धि है जिसके लिए जनता को आजीवन नतजानु-शतजानु होना चाहिए। असल बात तो यह है कि, 2019 तक मोदी जी के ख़िलाफ कोई सीधी कार्रवाई, आरोप-प्रत्यारोप आदि नहीं होने चाहिए। पूरे देश को 2019 तक भारतीय जनता पार्टी को एकमुश्त सुनने, देखने और समझनेकी जरूरत है।

उनके तमाम एजेंडा-सेटिंग, प्रचार-राजनीति, आदि के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनाव में यदि भारत की युवा पीढ़ी ने उन्हें सत्ता से बेदख़ल कर दिया, तो समझिए भारत की राजनीति ने नई देह-काया पा ली। राहुल गाँधी को तब तक इंतजार करना चाहिए। वह विभिन्न राज्यों की प्रादेशिक इकाइयों को मजबूत करने में जुटे रहे। ईमानदार पहलकदमी के साथ कर्मठ और समर्पित कार्यकर्ताओं को पदस्थापित करें।

आपका भला होगा, फ़िलहाल 18 दिसम्बर की रात आप आतिश जलाने की तैयारी कीजिए। आपने कांग्रेस अध्यक्ष पद जो हथिया ली है!

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...