Sunday, December 17, 2017

मीडियावी राजनीति का उपद्रव और उपाय

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राजीव रंजन प्रसाद
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(हजारों बातों की फेहरिस्त में, सैकड़ों विचारों के रहते हुए भी लिखना खुद का शगल है कि पागलपन; नहीं समझ पाया। यह जानते हुए भी लिखना कि इसको आज की पीढ़ी की दृष्टि में ख़ारिज हो जाना है....मैं लिखता चला गया!

आधुनिक जनसमाज चाहे वह आम हो या खास, मीडिया पर विश्वास करता है। यह विश्वसनीयता बड़ी चीज है। इसे इस तरह देखें कि यह ‘मीडिया-क्रिडियबिलिटी’ ही है जिस कारण मीडिया लोक-दायरे में टिकी-बनी हुई है। बाकी तो जो है सो है। जैसे-‘कंटेंट’, ‘फाॅर्म’, ‘न्यूज़’, ‘व्यूज़’ ‘इन्फाॅर्मेशन’, ‘एजुकेशन’, ‘इंटरटेनमेंट’ ‘एडवोटोरियल’, ‘पेड’, ‘सरोगट’, ‘इम्बेडेड’ इत्यादि। मीडिया के जानकारों की माने तो सकारात्मक चीजें जनमाध्यम द्वारा सम्प्रेषित सबसे कम हो रही हैं। वहीं नकारात्मक चीजों की उपस्थिति, आवृत्ति और उपद्रव में बेतहाशा बढ़ोतरी जारी है। मौजूदा मीडिया-बाज़ार में जिन शब्दावलियों की बहुतायत है उनसे आम हित कतई नहीं सध सकता है। क्योंकि वह किसानों की आत्महत्या से लेकर रोज़ाना की महंगाई, स्वास्थ्य और शिक्षा की समस्या, शांति और सुरक्षा के प्रश्न, जागरूकता एवं सशक्तिकरण के मुद्दे इत्यादि तक को कारोबारी नज़रिए से देखने-ताकने का आदी है। सचाई यही है कि मीडिया के विभिन्न बहसों, संवादों, चर्चाओं आदि में प्रदर्शित जनवाद जाली है। संवेदना-सरोकार की घोषणा हवाई है। ज़ाहिर प्रतिरोध दिखावटी है, तो विभिन्न चैनलों पर चलने वाले बहस-मुबाहिसों का पूरा मज़मून प्रायोजित अथवा ‘पेडेड’ है। 

आज हमसब इक्कीसवीं सदी के जिस मुहाने पर खड़े हैं वह परीक्षा की घड़ी है। यह बात इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि इन दिनों विज्ञान एवं तकनीक आधारित संचार-अभिवृत्तयाँ भेड़चाल के हवाले है। हमारा नेता ही हमारी सामूहिक हत्या के षड़यंत्र में शामिल है। वह सरकारी ख़जाने को नहीं हमारी जन-अस्मिता को लूट रहा है। उसकी हवेली-कोठी का आलीशान होना-बनना आम-अवाम के रक्त चूसने का नतीजा है। राजनीतिज्ञों के भीतर पसरा ‘वीआईपीवाद’ राष्ट्रीय परिसंपत्ति की सीधी लूट है। गंभीरतापूर्वक सोचें, तो आत्मसजग तथा स्वतंत्र मीडिया की अनुपस्थिति के कारण आज पूरा राजनीतिक-तंत्र और राजनीतिज्ञों की जमात रीढ़विहीन हो गई है। भारतीय राजनीति का यह लकवाग्रस्त नेतृत्व राष्ट्र को लगातार पीछे की ओर धकेल रहा है, तो वहीं मुनाफ़ाखोर मीडिया के कारण जन-संवाद की ज़मीन ऊसर बनती जा रही ही। विकासमूलक, प्रगतिशील और परिवर्तनकामी राजनीति के नारे अथवा जुमले विभिन्न राजनीतिक अवसरों पर उछाले अवश्य जा रहे हैं, लेकिन भारतीय आत्मा ग्लानि और हूक से अटी पड़ी है। विद्रूप यह है कि मीडिया और राजनीति ने आपसी साँठ-गाँठ से मीडियावी राजनीति का एक ‘काॅकटेल’ बना लिया है। पहले मीडिया की बात करें, तो मीडिया में घटनाओं की संख्या बढ़ी है, तो उनका विश्लेषण गायब हो गया है। टेलीविज़न स्क्रीन पर उगते-उभरते घटनाओं की रफ़्तार में तेजी आई है, तो समाचार-प्रस्तोताओं (एंकरों) के रपट पढ़ने की शैली में अंतर साफ दृष्टिगोचर है। कहना न होगा कि आजकल सबकुछ फौरन और फटाफट के ‘फ्लेवर’ में है। लेकिन कुल ‘मास्टरस्पीड’ के बावजूद अधूरापन ही पकड़ में आ रहा है यानी मीडिया द्वारा प्रस्तुत सामग्री में अब भी बहुत कुछ ‘मिसिंग’ है। इसका पहला कारण मीडिया का दृष्टिकोण-दोष है जो किसी भी मुद्दे पर चयनित अथवा संकेतित रवैया अपनाती है। वह उन घटनाओं, मुद्दों, समस्याओं आदि से किनारा कर लेती है जिनसे उनका व्यावसायिक नुकसान होने का अंदेशा होता है। वह अपनी रायशुमारी में अलग अथवा अलहदा दिखने के लिए ऐसा कोई ‘रिस्क’ लेना नहीं चाहती हैं जिससे होने वाले हानि की भरपाई असंभव हो। हिन्दुस्तानी मीडिया इसी भय से पार पाने ख़ातिर धनलोलुप और सत्ताधारी राजनीति का ‘सुप्रीम गाइड’ बन चुकी है। आज की मीडिया व्यक्तित्वहीन राजनीति के रक्षार्थ अपने पत्रकारीय-विवेक को तिलांजलि देने से भी नहीं हिचक रही है। नतीजा यह है कि, ‘‘जिसे मीडिया आर्थिक सुधार कहता है वह सुधार नहीं नीतियों में बुनियादी परिवर्तन है। इसमें आम लोगों की जगह वर्ग-विशेष का पूरी अर्थव्यवस्था पर कब्ज़ा होता है। श्रम-सुधार नहीं है, यह श्रमिकों की वर्षों-वर्षों के बाद, लाखों कुर्बानियों के बाद हासिल अधिकारों को छीनना है।’’ 

एक और पक्ष की बात करें, तो उन्नत तकनीकी-प्रौद्योगिकी ने मीडिया को पहले की तुलना में अधिक शक्तिमान बना दिया है। परिणामतः टेलीविज़न स्क्रीन पर दिखने वाले विजुअल्स ‘स्टील फोटोग्राफ’ से ज्यादा ‘पाॅवरफुल’ बन चुके हैं। टेलीविज़न ने इन अर्थों में अख़बार-कल्चर को पछाड़ा हे। वैसे इस ‘पाॅवर-गेम’ में अख़बार खुद भी निर्दोष नहीं हैं। दरअसल, मार्केट-फिलाॅसफी का दबाव मीडिया के सभी माध्यमों पर है। यानी नए-पुराने सारे संचार-माध्यम गड्मगड्ड हो गए हैं। उनका जनपक्षीय रवैया और रवायत मीडिया-बाज़ार द्वारा नियंत्रित-निर्धारित हो चुकी है। इतिहास-बोध से कटे और स्मृतिविहीन इन प्रेस-छवियों का अपना आडम्बर है, तो वितंडावाद भी। प्रेस अनुकूलित राजनीति तो सर्वाधिक संक्रमित है। कई दृष्टियों में तो वह मीडिया-बाज़ार की असल धोबीघाट है। सब जानते हैं कि आजकल राजनीति में ‘वन मैन शो’ का चलन है। हर दल अपने नेता को ‘हिरोइज़्म’ के शक्ल में उभार रहा है क्योंकि ‘रियल पाॅलिटिक्स’ गायब है। नेतृत्व का संकट इतना गहरा है कि जनता-जनार्दन अंधविश्वास की हद तक अर्थहीन शब्दों की जादूगिरी में अपना सर्वस्व (नेक-नियत, ईमान, पहचान, संवेदना, विचार, व्यवहार, चरित्र इत्यादि) झोंक चुका है। पहले लोकवृत्त (पब्लिक स्फियर) की गरिमा सार्वभौम होती थी जहाँ से जनता अपने नेता का कहा सिर्फ सुन नहीं सकती थी, अपितु उनसे सीधे संवाद कर पाती थी। अब ये मंच टिवट्र, व्हाट्स-अप, फेसबुक, ब्लाॅग, वेबसाइट, यू-ट्युब, हैंगआउट, इंस्टाग्राम इत्यादि आभासी बैटल-फील्ड में तब्दील हो गए हैं। यहाँ मिनट-टू-मिनट अपडेट है। आपसी हमले, आरोप-प्रत्यारोप या कि सवाल-जवाब हैं। लेकिन इसमें कितनी हकीकत और कितना फ़साना है? यह प्रश्न सिरे से गायब है। भाषा तो इस कदर दोयम और अर्थहीन हो चली है कि मर्यादा की सभी भंगिमाएँ अपने होने पर विलाप कर रही हैं। 

सत्ता के मुलाज़िमों अथवा सरकारी सुविधाभोगियों के लिए मीडियावी राजनीति हानिप्रद नहीं है। जबकि संघर्षरत जनता, ख़ासकर संघर्ष में हिस्सा ले रहे किसानों, आन्दोलनरत श्रमिकों एवं छात्रों के लिए यह जीवन-मरण के प्रश्न सरीख़ा है। विशेषकर युवाओं पर मीडियावी राजनीति की मार सबसे अधिक पड़ रही है। गोया, जिन चेहरों को इन दिनों ‘युवा’ कहा जा रहा है उनमें से अधिसंख्य के लिए मीडियावी राजनीति आज भी अबूझ पहेली है। वह राष्ट्र-राज्य के समीकरण को आज भी नहीं समझ पाया है। यह और बात है कि मीडिया और राजनीति के समूचे छल-छद्म-फ़रेब का शिकार ये युवजन ही सर्वाधिक हैं। युवाओं की एक दूसरी ज़मात भी है। यानी किसी न किसी रूप में आधुनिक राजनीति का संस्कार पाए या फिर छात्र-राजनीति से मुख्यधारा की राजनीति में दाखि़ल हुए ऐसे युवा जो राजनीति को ‘वन मैन शो’ का पर्याय मानते हैं। उनकी दृष्टि में, राजनीति एक ‘पाॅवर गेम’ है या फिर ‘माइंड वार’। मीडियावी राजनीति दूसरी पंक्ति में शामिल इन्हीं युवाओं को सर्वाधिक लुभाता है। अन्यथा, राजनीति से पहली प्रजाति के युवाओं का बहुत लेना-देना नहीं है। शेष जन-साधारण की बात करें, तो मीडियावी राजनीति उनको ‘इंटरटेन’ कर रही है या फिर उन्हें तरह-तरह से ‘इनगे़ज’ रखने में जुटी है।

साफगोई से कहें, तो मीडिया-बाज़ार पर सवार राजनीति इक्कीसवीं सदी का ईजाद है। यह अपने दर्शकों के लिए राजनीति को दर्शनीय बनाती है, तो दूसरी तरफ मीडिया उनमें राजनीति के प्रति घृणा उपजाने का काम बखूबी करती है। शिक्षित और जागरूक जनता की ख़ीज, ऊब, चिढ़, तकलीफ़, चिंताओं आदि को यही मीडिया प्रतिक्रियावादी होने-बनने को उकसाती है। यह मीडिया का ‘डैमेज कंट्रोल’ है जिसका आरोहण वह ‘बिट’, ‘बाइट’, ‘वाॅयस ओवर’, ‘पीटूसी’ आदि के माध्यम से करती है। पूँजीवादी मीडिया के अंदरुनी जोड़-तोड़, मिलीभगत, गुणा-गणित से जनता को सबसे अधिक नुकसान होता है। जनता भी बँटी हुई जनता है। प्रभाव, पैठ एवं पहुँच वाली वह जनता मौन है जो लाभुक स्थिति में है। शेष अधिसंख्य आबादी जिनके ऊपर खतरा सबसे अधिक मंडरा रहा है, वह टेलीविज़न स्क्रीन से बाहर है। वैसे भी हाशिए पर मौजूद लोगों को हासिल बहुत ही कम और अपर्याप्त होता है। भले वह आधार-कार्ड सबसे पहले बनवाती हो या कि अपना बैंक अकाउंट पूरी तत्परता से खुलवाती हो। मीडिया गाहे-बगाहे इनके बीच अपना कैमरा ‘पैन’ करता अवश्य है, किन्तु जल्द ही उसे अहसास हो जाता है। सुंदर-स्वच्छ भारत की बहुआयामी (स्मार्ट एंड ग्रेटर)छवि में ये दृश्य-छवियाँ बेहद अनाकर्षक मालूम देती हैं। टेलीविज़न धारावाहिकों के महा-एपिसोड से इतर देशवासियों की ये असल कहानी मीडिया रिपोर्टरों को अक़्सर बेहद ठेठ और भदेस मालूम पड़ती है। इसमें उन्हें वह रुमानियत नहीं नज़र आ पाती है जो प्रधानमंत्री के चुनावी भाषण में होता है। राहुल गाँधी के प्रेस-कांफ्रेंस में होता है। अखिलेश यादव के इंटरव्यू या सुब्रह्यमण्यम स्वामी और ओवैसी के बीच चलने वाले डिबेट में होता है। यद्यपि आजादी पाए करोड़ों हिन्दुस्तानियों में आम-अवाम बने रहने वाले लोगों की तादाद संख्याबल में अधिक हैं, पर इनका हाथ आज भी खाली है। बेरोजगारी और बेगारी इन पर रोज़ाना कहर बन टूटती है। महँगाई-डायन इनकी दिनचर्या को नहीं जिंदगी को ही लील जाने को तैयार बैठी रहती है। लड़कियाँ और स्त्रियाँ तो मर्दाना हवस का इस कदर शिकार हो रही हैं, मानों दुष्कर्म-बलात्कार को हम भारतीयों ने चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) के अतिरिक्त पाँचवा पुरुषार्थ घोषित कर दिया है।

ऐसे में हिन्दुस्तानी मीडिया को ‘लोक-प्रहरी’ या ‘चौथा  स्तंभ’ कहना अपनी समझ का मजाक बनाना है। मीडिया विशेषज्ञ अनिल चमड़िया वर्तमान मीडिया की प्रवृत्तियों को दो-टूक लक्ष्य करते हुए कहते हैं-‘‘मीडिया लोकतंत्र की सुरक्षा और उसे मज़बूत करने के लिए खुद को उसी हद तक जिम्मेदार मानती है जिस हद तक बाज़ार उसे इसकी इजाज़त देता है। ज्यादा मुनाफ़ा कमाने में लोकतंत्र आड़े आ रहा हो तो उसे विकृत करने से यह बाज नहीं आती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो इलेक्ट्राॅनिक मीडिया खुद के लिए न्यूज़ पैदा करने की हमेशा योजनाएँ बनाता रहता है। इसके ढेरों उदाहरण दिए जा सकते हैं। कहा जाए कि यही उसकी मुख्य प्रवृत्ति है।’’ बावजूद इसके हमसब में से हर कोई प्रत्यक्ष-परोक्ष, चाहे-अनचाहे या कि गाहे-बगाहे मीडिया से जुड़ा है; मीडिया-बाज़ार की जद में है। हम अपने बुद्धि-विवेक पर भरोसा जताते हुए खुद को इससे जोड़े रखे हुए हैं। वास्तव में, चिपका हुआ न माने तो भी मीडिया-ग्राहकी में हमारा नाम बंधुआ-आॅडिएंस अथवा बंधुआ-व्युअर्स के रूप में शामिल अवश्य है। यह बात इस वजह से भी सोलह आना सच है कि ‘न्यू मीडिया’ और ‘सोशल मीडिया’ के हस्तक्षेप और बढ़ते दख़ल के नाते मास-मीडिया जनसामान्य की ‘जैनुइन’ जरूरत बन चुकी है। 

हाल के दिनों में मीडिया की ‘टोटली-पाॅलिटिक्स’ पर थोड़ा रूक-थमकर बात करने की जरूरत है। ख़ासकर ‘वन मैन शो’ का बढ़ता ग्लैमर्स देखने योग्य है। इन्हें टीवी स्टाइल में देखना-सुनना (इनकोड-डिकोड) जितना मजेदार है उसकी सचाई उतनी ही भयावह है। हालिया चुनाव में भाषा की बदली हुई भाव-भंगिमा का विचारणीय पहलू यह है कि ये सारे कारामात मीडिया-मुनाफें की अंतहीन खेप और माँग के हिसाब से पूरी की जा रही हैं। कहावत है, आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इस तर्ज़ पर कहें, तो मीडिया हमारे आँखदार होने का फायदा उठा रही है। उसे पता है कि आदमी चीजों को देखने का वाज़िब एवं गैर-वाज़िब कीमत चुक्ता कर सकता है। अतएव, मीडियावी राजनीति ने हमारी इसी मनोवृत्ति का फायदा उठाना शुरू कर दिया है। रंगमंचीय अभिनेताओं को मात देते भारतीय राजनेताओं ने हमारी इसी जरुरीयात पर धावा बोल दिया है। अब फौजी कार्रवाई नहीं ज़बानी दावा है। आँकड़ों के बोल-बच्चन है। हम अपनी पहचान को भूलकर कब स्वयं को कांग्रेस का ‘कैडर’ मान लेते हैं; पता ही नहीं चलता है। भाजपा के राजनीतिक कार्यकलापों को देखते-सुनते हुए एकबारगी कब हम ‘संघी कार्यकर्ता’ बन चुके होते हैं, मालूम ही नहीं देता है। 

यह मानी हुई बात है कि मीडिया द्वारा प्रस्तुत सामग्री (आवाज़-दृश्य-छविभाषा) में अकूत बल है, तो आवृत्ति भी जबर्दस्त है। इसमें मात्रा है और परिमाण भी है। विशेषकर ‘न्यू मीडिया’ आभासी होते हुए भी विश्वासी अधिक है। कई बार यह जानते हुए भी कि कारपोरेटी मीडिया से मिलने वाली सूचनाओं, तथ्यों, संदेशों, आँकड़ों आदि का चयन समग्र का प्रतिनिधित्व नहीं करता है या कि उनके द्वारा प्रदत आँकड़ा सम्पूर्ण प्रत्यक्षीकरण से प्राप्त तथ्य नहीं है; हम उनके ख़िलाफ जाने की बजाय उनके प्रस्तुति के रंग में रंग जाते हैं। प्र्रायः हमारे द्वारा मीडिया की प्रायोजित प्रस्तुति का ही सामान्यीकरण कर दिया जाता है जो किसी भी दृष्टि से वैध नहीं है। यह विवशता कह लें या कि अपने स्वार्थहित में अनुकूलन, मीडिया के साँचे में हमारा ढला व्यक्तित्व अंततः अपना स्वतंत्र नागरिक अधिकार और कर्तव्य-बोध खो देता है। हमारे अंध-समर्थन के बलबूते मजबूत बनता मीडिया हमारी ही आँखों के सामने से हमारे जनतंत्र का अपहरण कर ले जाता है और उसकी जगह एक मायावी प्रतिरूप (माॅडल) लाकर खड़ा कर देता है। ताकतवर बनता रईस मीडिया चालाकीपूर्वक सीरियस बातों को भी सनसनीखेज तेवर या इसके ठीक उलट उन्हें हल्का बनाकर परोसने लग जाता है। यह सच है कि देर-सवेर हम यह महसूस करेंगे कि आज का मीडिया हमारे प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावहीन बनाने में पूरे एजेंडे के साथ जुटा है। मीडिया का छल यह है कि उसने भारतीयता के सामूहिक-बल को एक इकाई मान लिया है जो आत्मबल और दृढ़संकल्प से सर्वथा रहित महज़ एक पैमाना मात्र है, हक़ीकत हरग़िज नहीं। अर्थात् आज का मीडिया-बाज़ार एक व्यक्ति के बहाने पूरे समाज पर अपना धौंस जमाने की कोशिश में है क्योंकि वह सब को एक ही तरह दूसरे का नकल मान लिया है। वास्तव में उसका मुख्य ‘टारगेट’ हमारी व्यक्ति-सत्ता का विलोपीकरण और सामाजिक-सत्ता का ह्रास है। 

लुके-छिपे तौर पर यह षड़यंत्र कई दशकों से जारी है जिसके आगे निवर्तमान राजनीति अपना घुटना टेक चुकी है। मीडिया का यह खुला खेल फरुर्खाबादी जनमत तथा जनपक्ष के अनुरूप नहीं बैठता है, पर अफ़सोस इसके समर्थन में गवाही हमें ही देना होता है, इनकी सुरक्षा-संरक्षा में अपना ही हाथ उठना होता है। क्योंकि हमलोग माॅल, मल्टीप्लेक्स, मल्टीस्टोरज, मल्टीकल्चर, मल्टीइकोनाॅमी आदि की गिरफ़्त में हैं। हम इनसे बाहर नहीं हो सकते हैं, क्योंकि परिधि के बाहर होने का एकमात्र अर्थ निरर्थक हो जाना है। पूरी दुनिया में भूमंडलीकरण की दुदुंभी बज रही है। इसमें शामिल होना हमारी अनिवार्यता है और विवशता भी। तब भी इसकी आलोचना जरूरी है क्योंकि इसने पूरे राष्ट्रीय एकता, बहुसांस्कृतिक सत्ता और बहुभाषिकता के लोक-विरासत को बहिष्कृत कर दिया है। अब बोला जा रहा भी शोर है, बोले का जवाबी काट भी वैचारिक ऊधम है। अतः सावधानी और सजगता ही जनसत्ता के बचे होने का उपयुक्त विकल्प है। ज़ाहिर तौर पर हमें मीडिया-बाज़ार की इस चालू संस्कृति के खि़लाफ साफ़ किन्तु संयम के साथ बोलना होगा। बौद्धिक-एवं तार्किक रणनीति के साथ समग्र एकजुटता दिखानी होगी। चुप्पी तोड़ आवाज़ बाहर लाने की यह कवायद इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसी में हमारा जनतांत्रिक वज़ूद और सांविधानिक औचित्य सुरक्षित है। हमसब को यह खतरा मोल लेना पड़ेगा इस सचाई को जानते हुए भी कि हमारा सर्वाधिक हित मीडिया और राजनीति (मीडियावी राजनीति का ‘काॅकटेल’ नहीं) दोनों से सध रहा है। सूचना, शिक्षा, मनोरंजन, नई आवाज़ें, नए दृश्य, नवीन सूचना, अद्यतन जानकारी आदि इसी बरास्ते हमें मिल रहे हैं, हम तक पहुँच रहे हैं। इसलिए मीडिया को पूरी तरह ग़लत बताना या कि राजनीति को पूर्णतया ख़ारिज करना सही नहीं होगा; पर इसका अंध-समर्थन भी उचित नहीं है। 

बहरहाल, देशहित में सभी को एक बिन्दु पर पहुँचने की जरूरत है। अलग-अलग नहीं बल्कि एकसाथ मिलजुल कर बहस-मुबाहिसे, संवाद-विमर्श, बतकही-विचार इत्यादि को धारदार बनाने की आवश्यकता है। वैज्ञानिक ढंग से ऐसे कार्यकलापों के पीछे छुपी असल मंशा को खोजने-खंगालने की जरूरत है जिनमें आत्ममुग्ध राष्ट्रवाद की बजाय स्वबोध से प्रेरित राष्ट्रवाद की महक-खुशबू भीनी हो। मीडिया-शोधार्थियों को इसी बरास्ते शोध-अनुसंधान की सच्ची परिपाटी शुरू करने के लिए सोचना होगा, अन्यथा विश्व के काॅरपोरेट चंगुल में भारत का फँसना या शिकार हो जाना तय है। अस्तु, ठहर कर सोचिए तो यह सच है कि आजकल प्रत्येक व्यक्ति संचार-साधनों को ‘इंटरटेन’ कर रहा है। वह अपनी अंदर-बाहर की व्यस्तताओं और तकलीफ़ों के बीच टेलीविज़न को ‘पेन बाम’ की तरह आज़मा रहा है। अब तो समाचार-पत्र या कि उसके ई-संस्करण को पढ़ना-देखना भी उसके लिए स्वयं को ‘फील गुड’ कराने जैसा है। अब तो सिनेमा में वह बात बची नहीं, टेलीविज़न ने उनका सारा ‘इसेंस’ निचोड़ डाला है। इसी तरह रेडियो के दिन लदे न हों, तो भी वहाँ विचार की जगह ‘आइटम सांग’ अधिक बजने लगे हैं। सो अपने तईं यह सोचना ही फ़िजूल है कि हमलोग जो कुछ देख-सुन रहे हैं उसमें ग्रहण करने योग्य ‘सूचना’, ‘शिक्षा’ एवं ‘मनोरजंन’ कि मात्रा उचित एवं उपयुक्त परिमाण में है। अब तो हम प्रस्तुति को प्रस्तुत सामग्री से अधिक वरीयता दे रहे हैं। हम ‘आई मोड’ में हैं यानी आँख से ही हम संचार के ‘रन-वे’ पर सरपट दौड़ रहे हैं। स्मार्ट-फोन ने आँखों की पुतलियों का ‘मूवमेंट’ ख़तरनाक तरीके से बढ़ा दिया है। अब तो वाक्य भी शब्द-शैली में बनने लगे हैं जिनकी अर्थवत्ता ‘हाँ’ और ‘ना’ में ज्यादा तरज़ीह पा रही है। अन्य चलन में ‘इमोजियों’ की ताबड़तोड़ प्रस्तुति ने ‘संकेत-विधान’ का नया शास्त्र रच डाला है। 

प्रश्न है, तो क्या उपाय हो? असल में यह सन्मार्ग अपनी पीढ़ी को खुद ही सोचना और सुझाना है। हमें यह नहीं भूलना होगा कि कुल मर्यादाहीनता और अवसरवाद के लिज़लिज़ाते वातावरण के बावजूद कुछ लोग बचे हैं जिनके कहन का अंदाज नया है। प्रभाव सार्थक है। कई ऐसे जानदार लोग हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों से आते हैं किन्तु उनका किया-धरा कहा-सुना ताज्जुबकारी है। वे कथावस्तु से लेकर रिपोर्टिंग की शैली तक में दिलचस्प हैं। वे भरोसेमंद हैं और विश्वसनीय भी। अतएव, भारतीय लोकवृत्त को मीडियावी राजनीति को प्रश्नांकित करने और समयसंवादी योजना के साथ आगे बढ़ने के लिए आपसी सहयोग पहले भी अपेक्षित थी और आज भी उतनी ही शिद्दत से है।

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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...