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एक अनुसंधित्सु
की हैसियत से जब आठ
साल एक व्यक्ति के
पीछे भागे हों। जिसके शादी रचाने की ख़बर से
लेकर गर्लफ्रेंड के साथ दिखने
तक के सनसनीखेज जर्नलिज़्म
का आस्वाद लिया हो; उसके बारे में कितना भी कम तो
क्या-क्या नहीं जानते होंगे आप?
मैंने
2009 में युवा राजनीतिज्ञों पर शोध-कार्य
शुरू की तो मेरे
शोध का ‘की-वर्ड’ था- युवा राजनीतिज्ञ संचारक। राहुल गाँधी को मैंने जब
भी ट्रैस करना चाहा, वे मेरे प्रशंसा
के घेरे से बाहर रहे।
इतना अधिक कच्चापन और उनके बोलने
में बेशऊरपन था कि मैं
उनकी बजाय नरेन्द्र मोदी को बेहतर और
बढ़िया संचारक मानता रहा। अरविन्द केजरीवाल शुरू से खटकते रहे।
उनका मतलबीपन अक्सर ज़ाहिर होता रहा। अख़िलेश से उम्मीद जगी,
पर उनके ठेठपन में ‘पाॅलिटिक्ल रोमांस’ अपने पिताजी मुलायम सिंह का शुक्रिया अदा
करते हुए परिवार के बरास्ते पत्नी
डिंपल यादव तक लरजती रही।
भाजपा में युवा होना मतलब नरेन्द्र मोदी है और बाकियों
का नामोनिशान नहीं है; तो दूसरी तरफ
कांग्रेस में राहुल गाँधी का ‘वन मैन शो’
ही सुपरहिट है; बाकी तमाशबीन हैं। चाहे वह कितने भी
दिखने में सुन्दर, सलोने, स्मार्ट और इंटेलीजेंट दिखाई
पड़ते हों वे राहुल गाँधी के कृपापात्र हैं
और कुछ नहीं।
मुख्यधारा
की राजनीति में प्रवक्ताओं तक की पूरी
खेप देखकर हताश तो नहीं हुआ;
किन्तु भाजपा के लिए पूजनीय
प्रवक्ता संबित पात्रा से लेकर आम
आदमी पार्टी के मनोज तिवारी
की भाँति गुड-स्किल इंटरटेनर कुमार विश्वास तक की यात्रा
तय की। युवा राजनीतिज्ञों की खोज में मैंने
मीनाक्षी नटराजन से होते हुए शाइना एनसी. तक पूरी भूमिका के साथ गया; पर उनकी पार्टी
में मजबूत स्थिति न देख कुछ अच्छी उम्मीद की फ़सल अपने शोध-प्रबंध में नहीं बो सका।
कुछ दिनों तक छवि राजावत और कविता कृष्णन के प्रति ख़बरों की भाँति दिवानगी रही, पर
शाम ढलते ही उत्साह ढेर हो गया।
निष्कर्ष
तक आते-आते मैं जान चुका कि सारे युवा
दाल के दही हैं
जिनसे मक्ख़न निकाला जा चुका है।
बस उनकी उपयोगिता ख़मीर बनाने के लिए है।
अन्य पार्टियों में वामदल के युवा नेता
जेएनयू छात्रसंघ चुनाव तक सिमित है;
नहीं तो वामपंथी छात्र
अन्य जगहों पर जो यहाँ
से पढ़कर निकले हैं वे भी पूँजीवाद
के चटोर उपभोक्ता हैं। कुछ अपवाद हो सकते हैं जिनमें
से कुछ को तो कायदे से नौकरी भी नसीब न हुई होगी। कुछ विद्रोही जी की तरह लड़ाका हों
लेकिन जिसके रहने का ठिकाना और मृत्यु की शैय्या दोनों खुली आकाश रही हो; चेतना से
भरे-पूरे किन्तु जन-समर्थन में ‘बैकफुट’ पर खड़े ऐसे दिलेर के साथ कौन और कितने
करोड़ लोग खड़ा होगा भला? बीएचयू, इलाहाबाद, पटना आदि इलाकों में छात्रगण युवा हैं, तो
पर वे युवा क्यों हैं; यह उनको पता नहीं है। इसके बाद की तारीख़ में युवाओं के भीतर
से खंगालने अथवा उनसे पूछने-पछने के निमित खोदियाने की जरूरत नहीं है।
अतः जो मिला
उसी के साथ शोध-प्रबंध का इति-श्री हो चुका है। कारण कि इसी बीच मुझे नौकरी
मिल चुकी थी, सो शोध से
इंटरेस्ट हटता रहा। अब अपनी जिंदगी
को पे-स्केल के
सहारे दुरुस्त करने की बेचैनी थी।
क्योंकि एक साल के
भीतर मोदी-राज के अच्छे दिन
का परिणाम मेरे सामने था। युवा राजनेता राहुल गाँधी की कटु आलोचना और नरेन्द्र मोदी
के व्यक्तित्व से परिवर्तन का
आगाज देखने वाला मेरा युवा-मन अपनी चेतना
को अपहृत होत देख, आक्रोशित था। बाकी मोदी-राज में शिक्षा
का बड़ा उपकार करते हुए स्मृति ईरानी मानव संसाधन विकास मंत्रालय के इतिहास में
दर्ज हो चुकी थीं
और प्रकाश जावेड़कर भारत में नालन्दा और तक्षशिक्षा देखने
के ब्लूप्रिंट तैयार करवाने में जुट गए थे। हो सकता है कुछ
माह में टाइम, फोब्र्स, न्यूजवीक की रिपोर्ट आ जाए कि विश्व के 200 विश्वविद्यालय में
सब के सब भारत के हैं, शेष जगत अंधकारमय है।
बात युवा
राजनीतिज्ञों पर शोध की; तो नौकरी न मिलने के कारण शोध-कार्य करना मजबूरी थी। लेकिन अब नहीं रही।
वैसे भी भारत में परम्परा बन चुकी है
जो शोध-अनुसन्धान कराए जाते हैं वह दरअसल सूचना
और ज्ञान-समाज के निर्माण के
लिए किराए की कोख की
तरह होती हैं। तुर्रा यह कि बच्चा
जनने के बाद सब
के सब फारिग हो
जाते हैं और अमुक ज्ञान-उत्पाद राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित
कर दिया जाता है।
कुल
लब्बोलुआब कि मरे शोध
करने और न करने,
मेरी किसी की प्रशंसा करने
या न करने से
कुछ बनने-बिगड़ने वाला नहीं था। हम जैसे लोग
या तो संयोगन अपनी
योग्यता के मुताबिक नौकरी
पा जाते हैं या फिर ग्रुप
सी और ग्रुप डी
की नौकरी का आवेदन भरते,
परीक्षा देते, फल का इंतजार
करते हुए दुनिया से रूख़्सत हो
जाते हैं। राजनीति जिसे आप गंदी कहे
या पवित्र, शांत कहे या अशांत; यह
हमारे कहने-सुनने अथवा सोचने-विचारने से नहीं ढहता-भसता। इसके लिए तो सामूहिक बल
और प्रतिरोध की जरूरत पड़ती
है। अन्यथा ये धनपसेरी लोग
जिनके यहाँ परिवारवाद और वंशवाद के
कारखाने लगे हैं हमारी ज़बान ही नहीं उमेठ
सकते हैं बल्कि अगर चाह जाए तो हमारे पेट
में हाथ डाल अतड़ियों से भी उठक-बैठक करवा सकते हैं।
ये
वे नक्षत्र हैं जिनकी तूती चहुँदिश दिशाओं में बोलती हैं। यही वे लोग हैं
जो सबसे कम सभ्यता, संस्कृति,
कला, साहित्य, स्थापत्य, दर्शन, इतिहास आदि के बारे में
जानते हैं पर वे जहाँ और
जो कुछ भी बोल देते
हैं उनका रमणीय और रोचक अनुवाद
आज की मीडिया कर
डालती है। मीडिया पर हम आँख
वारते हैं इसलिए मीडिया हमारे रेटिना तक की खुले
तौर पर खरीद-बिक्री
कर लेती है। भारत में शिव जी तांडव करते
हैं, शनि की साढे़साती लगती
है, संतोषी माँ व्याकुल आत्मा की तरह जगत
में भटकती हैं आदि-आदि तो यह सब
मुगल मीडिया रूपर्ट मर्डोक के फंड और
न्यूज कारपोरेशन के दिशा-निर्देश
में होता है। कुछ दिनों में जागरण्ण और दुर्गा-पूजा
या गणेशोत्सव आदि का ठीका भी
वे ले लें, तो
कोई आश्चर्य नहीं। हमें तो बस
कुछ भी दिखा दो
भगवंतकृपा से देखने के
लिए ही आँख-दीदा
के साथ पैदा हुए हैं।
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