Thursday, February 27, 2014

मैं, विक्रम और अजीरा माँ




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Monday, February 10, 2014

‘तोड़ती पत्थर’: संवेदन, संघात एवं सम्प्रेषण

तोड़ती पत्थर
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वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
            वह तोड़ती पत्थर
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार-
सामने तरुमालिका, अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गमिर्यों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गईं;
          प्रायः हुई दुपहर-
            वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खाई रोई नहीं;
सजा सहज सितार,
सुनो मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर;
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
            ‘‘मैं तोड़ती पत्थर।’’
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कविता ‘तोड़ती पत्थर’ सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने लिखी है। इस कविता का रचना-काल सन् 1935 ई0 बताया जाता है। यह वह समय है, जब देश गुलाम था। सनद रहे कि इस परतंत्र ज़माने में स्वाधीन-अधिकारों का प्रयोग-प्रदर्शन आज की तरह खुलेआम कर पाना संभव नहीं था। जिन चीजों का चलन आज आम है; उसके लिए उस समय ‘काले पानी की सजा’ मुक़र्रर थी। यथा-सरकार-विरोधी नारे, कटुक्तियाँ, काले ध्वज, आरोप-प्रत्यारोप इत्यादि। देश में कई जगहों पर औपनिवेशिक-शासन विरोधी लहरें थीं भी, तो वे सब के सब छिंटपुट ही थीं। वह भी अपने कार्यपद्धति तथा सांगठनिक ढाँचे में बिल्कुल बेतरतीब और अनियंत्रित। इस कठिन घड़ी में इलाहाबाद राजनीतिक चेतना के उन्नयन का एक प्रमुख राजनीतिक केन्द्र बनकर उभरा था। परिस्थिति-वैपरित्य की उस घड़ी में इस कविता का लिखा जाना अप्रत्याशित अथवा आश्चर्यजनक नहीं है। यह श्रमशील समाज की राजनीतिक संचेतना की मुखर अभिव्यक्ति है जो अपना स्वाधीन-पथ निर्मित करने में कर्मरत है। इस कविता का आरंभिक पंक्ति ही दृश्य में प्रतिरोध की पूर्ण-परिधि रच देता है:

                वह तोड़ती पत्थर
                देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
                                वह तोड़ती पत्थर

यहाँ ‘वह’ शब्द का पुरुष-शैली में कर्तरि प्रयोग हुआ है जो अंत तक जाते-जाते मैं-शैली में परिणत हो जाता है। ‘वह तोड़ती पत्थर’ कर्ता, क्रिया और कर्म का बिल्कुल ठस और ठोस प्रयोग है जो अपनी हर दूसरी या अगली आवृति में इसके प्रभाव के गूँज-अनुगूँज को गहरा कर देता है; उसे अत्यन्त मारक बना देता हे। इस पंक्ति में संवेदनात्मक तनाव है जो स्थिर या बद्धमूल नहीं है। स्फोट, संवेदन, संधात इत्यादि का आपसी संयोजन कविता की शैली में जो प्रतिपाद्य प्रस्तुत करते हैं वह-सम्प्रेषणीयता के धरातल पर चेतना की उच्च मनोभूमि है। इस भावबोधि आलिंगन में सामूहिकता-बोध की वास्तविक सम्पृक्ति एवं साहचर्य भी घुलामिला हुआ है। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि निराला की इस कविता में भाव-फ़लक का पाट व्यापक, विस्तृत और बहुआयामी है, तो भाषा का प्रयोग उतना ही न्यूनतम। भाषा के वातायन से संवेदना की भूमि पर ताँक-झाँक करना निराला को पसंद नहीं है। दरअसल, ‘‘छायावादी काव्य-विधान के अन्तर्गत भाषिक-योजना का यह विशिष्टतम रूप निराला के अद्भुत कवि-व्यक्तित्व की पहचान कराता है। इस सम्बन्ध में कवि-आलोचक विनोद शाही की स्वीकारोक्ति देखी जा सकती है-‘‘सामूहिक-सामाजिक श्रम सृजन की दैहिक-जैविक लयात्मकता की ज़मीन को खो देने वाले अपने इस युग में मैं काव्य की ज़मीन को अगर खोज भी पाऊँगा, तो भी क्या वह पर्याप्त द्वंद्वात्मक जीवन्तता पा सकेगी?...छायावादी दौर में इसीलिए हमने ‘पीड़ा’ में अपनी आत्मा को उद्घाटित होते पाया था। अब हम शोषित या अमानवीयकृत जन की पीड़ा में सहभागी होकर आत्मलय में पुनप्रविष्ट होने के लिए जैसे अपने समय में एक झरोखा-सा बनाते हैं। परन्तु यह कितना अपर्याप्त है-यह कहने की जरूरत नहीं।

गुलामी के बाहरी-भीतरी तीर-तरकश से लहुलूहान भारतीय-मन का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व यह कविता जिस रूप में उभारती है; उसे महसूसने के लिए किसी विशेष आँख, उपकरण अथवा काव्य-सिद्धान्त पढ़े होने की जरूरत नहीं है। ‘तोड़ती पत्थर’ कविता वस्तुतः भारत के सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक चेतना का संलयन है। यह प्रतिरोध की ऐसी समीकृत भाषा है जिसमें करुणा का क्रंदन-विलाप बिल्कुल नहीं है। इस कविता में निराला सामूहिकता-बोध के परास को भाषा में आवृत करने का प्रयत्न करते हैं। यह किसी प्रेम-पिपासु प्रेमी का कविता में उद्विगन या विकलतापूर्ण प्रणय-निवेदन हरग़िज नहीं है:

                देखा मुझे उस दृष्टि से
                जो मार खाई रोई नहीं;

दरअसल, सौन्दर्यात्मक अनुभूति भी स्थिर नहीं है। नंदकिशोर नवल की दृष्टि में-‘‘सौन्दर्य-बोध में परिवर्तन के साथ वह भी परिवर्तित होती चलती है, जिसका प्रमाण यह है कि विभिन्न युगों में ही नहीं, विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में रची गई प्रेम-कविताओं का सौन्दर्यात्मक आस्वाद अलग-अलग है।’’ यहाँ हमें इस कविता के रचना’परिवेश को भी अपने विचार के घेरे में शामिल करना चाहिए। परतंत्र भारत की जिस मनोभूमि की यह कविता है; उस समय सामाजिक अंदरखाने में अन्याय, शोषण, लूट, हिंसा और अराजकता की पटरी पर केवल ब्रिटिशों का कब्जा नहीं था। जाति-भेद तथा वर्ग-विभेद को बढ़ावा देने वाले भारतीय सामंतवादियों ने भी ब्रिटिशों से संधि-गठजोड़ कर ली थी। तद्युगीन राजनीतिक नेतृत्व(महात्मा गाँधी, नेहरू, सुभाष, आम्बेदकर, पटेल इत्यादि) यह समझ रहा था कि सामाजिक खाई, गैर-बराबरी, छुआछूत, असामाजिक-अनैतिक कृत्य इत्यादि का ख़ात्मा किया जाना अत्यावश्यक है; लेकिन इसके लिए किए जाने वाले राजनीतिक प्रयास नाक़ाफी थे। आम जन-जीवन दिन-प्रतिदिन कठिनतम होता जा रहा था। सब लोग भीतर ही भीतर कसमसा रहे थे, टूट और बिखर रहे थे; किन्तु यह छटपटाहट आज़ाद मक़ाम और वाज़िब हक़-हक़ूक हासिल करने के लिए पर्याप्त नहीं थी।

नतीजतन, समय के ऐसे कठिनतम काल में निराला ने विद्रोह, प्रतिरोध तथा चेतना की राग को भास्वरित किया। हम देख पाते हैं कि तनाव के गहरे संघात और व्याकुल-भावविह्नल आन्तरिक संवेदन के भीतरी स्फोट ने निराला के व्यक्तित्व को मानव-मुक्तिधर्मी रचना के पक्ष में प्रक्षिप्त अधिक किया है। निराला अपनी दृष्टि में हर तरह की स्वतंत्रता को जरूरी मानते हैं। इसके लिए वे यथास्थितिवादी बनने का हिमायती नहीं थे। इसीलिए उनकी अंतश्चेतना में विद्रोह का स्वर और नैरन्तर्य मुखर दिखता है। कविता ‘तोड़ती पत्थर’ में इस कवि-रूप का सूक्ष्मतम एवं प्रभावशाली प्रयोग दिखाई देता है। अतः यह सिर्फ मानवीय रुझान की कविता नहीं है। सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से देखें, तो इस कविता की लोक-संवेदना व्यापकतर है। रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों को थोड़े बदले हुए लहजे में कहें, तो यह कविता ऐसी है जो मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य की भावभूमि पर ले जाती है। अस्तु, कविता में जिस श्रमशील स्त्री के बारे में वर्णन है; वह समाज की सच्ची उद्घोषिका है, सिर्फ कविता की पात्रीय नायिका या नेत्री नहीं कही जा सकती है। वह मेहनतकश लोगों की आख्याता(नैरेटर) की भूमिका में है। वह अपने हाथों से देशकाल, समय-समाज, स्थिति-परिस्थिति इत्यादि के भीतर जमे पानी और गाद-खरांद को उबीछना चाहती है। अतएव, संवेदना के संघात और शक्ति-संलयन द्वारा यह स्त्री अभिव्यक्ति का अपना व्यक्तिगत राग गाने को व्याकुल है। अर्थात् वह अपनी ही तरह से हर प्रकार की दासता से मुक्ति का राह तलाश रही है। उसकी यह जीवटता दृश्य में मौन ज़बान के साथ अवतरित होती है जिसका सौन्दर्य पत्थर के टूटने में है; पत्थर के पत्थर बने रहने में हरग़िज नहीं है:

                वह तोड़ती पत्थर
                देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
                                वह तोड़ती पत्थर

भौतिक धरातल पर इस कविता में वर्तमान की सत्ता भले ही निहित न हो, पर व्याकरणिक काल-बोध के स्तर पर इसकी सत्ता असंदिग्ध है और वह वस्तुतः ‘अब’ और ‘आज’ की व्यवस्था के महाविनाशक स्वरूप, शिथिल वातावरण-जगत और संज्ञाशून्य संवेदनहीन जड़ लोगों को लक्ष्य  किये हुए है। यहाँ ‘तोडना’ शब्द की अभिव्यंजना उपयुक्त है। यह व्युत्पन्न एकर्मक क्रिया है। मूल शब्द है-‘तोड़ना’। यह क्रिया-रूप इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इससे अस्तित्वपरक-पूरकसहित संचेतना का शाब्दिक द्योतन होता है जो क्रियाशील और गतिशील दोनों है। इस स्थिति-चित्रण की एक बड़ी विडम्बना यह है कि इसमें कार्य तो हो रहे हैं-लगातार और निरन्तर। लेकिन, वह गणनातीत है; महत्त्व गौण अथवा दूसरे दरजे का है। वैज्ञानिक शब्दावली में कहें, तो कार्य के लिए दूरी तय किया जाना या कि कर्ता की पूर्ववर्ती-परवर्ती स्थिति में फेरफार होना आवश्यक है। इसका लक्ष्यार्थ सिर्फ पत्थर तोड़ने से नहीं है। यह बात सभी जानते हैं। लेकिन इसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष-स्त्री-संवेदना की मर्मस्पर्शी सूक्ष्म पड़ताल है। यह कविता भाषा की गोलाई में सिर्फ लैंगिक-भेद की जाँच नहीं करती है; बल्कि यह उस समय-समाज की अतिवादी निरंकुश और सामंती चेतना पर भी तेज प्रहार करती है जिनकी वजह से आभिजात्यविहीन स्त्रियाँ दुहरी-तिहरी-चैहरी अनगिनत कष्ट-दुःख झेलती हैं या झेलने को अभिशप्त बनी हुई हैं:

                देखा मुझे उस दृष्टि से
                जो मार खाई रोई नहीं;

निराला इस कविता में यह भी साफ-साफ अभिव्यक्त कर देना चाहते हैं कि यह स्त्री वर्ग-विभेद की दासता और संत्रास को भी समान रूप से झेल रही है। उन्होंने संकेत किया है कि उसके बदन का रंग श्याम है। यानी वह आभिजात्य वर्ग अथवा कथित तौर पर ऊँची जाति की बिरादरी से नहीं आती है। निराला की दृष्टि में जब संवेदना-संघात का तीव्र संपोषण होता है, तो सम्प्रेषण-विधान के अन्तर्गत चयनित शब्द नये अर्थच्छाया, भाव-भंगिमा और जीवन-रूप से तदाकर करने लगते हैं। उन्हें ‘वह’ स्त्री अपनी उम्र और काया के हिसाब से न सिर्फ सम्पूणर्ता लिए दिखती है; बल्कि उन्हें उसका हृदय निर्मल, निष्कलुष और बिल्कुल ही निद्र्वंद्व दिखाई देता है। यह सचाई है कि सौन्दर्यात्मक आभा-कांति उसके शरीर से आभासित/प्रकाशित हो रही हैं; लेकिन कवि उसके सौन्दर्यात्मक-बोध के ऊपर श्रम-बोध का भार/बोझ(सहज दायित्व के नाम पर नानाविध) अधिक देख रहा होता है जिस कार्य में उसने अपना मन, मौन, भावना और हृदय सबकुछ रोप दिया है:

                श्याम तन, भर बँधा यौवन,
                नत नयन, प्रिय कर्म-रत मन,

निराला अपनी इस कविता में प्रकृति का चित्रण जिस मनोभाव से करते हैं, वह सहज अनुगम्य अथवा सामान्य नहीं है। वे प्रकृति को उसकी विकारलता और भयावहता के साथ चित्रित करते हैं। यह चित्रण भावक/बोधक के भीतर के संवेदन-तंत्र को झिंझोड़ कर रख देता है; मानों दाँत के दर्द के बीच कनकना पानी घोंट लिया गया हो। यह पारिस्थितिकी का अमोघ दबाव है जिसे एक स्त्री बराबर दुःख-संत्रास झेलते हुए भी अपने ध्येय को पूर्ण करने में तल्लीन है:

                चढ़ रही थी धूप;
                गमिर्यों के दिन,
                दिवा का तमतमाता रूप;
                उठी झुलसाती हुई लू,
                रुई ज्यों जलती हुई भू,
                गर्द चिनगीं छा गईं;
                         प्रायः हुई दुपहर-
                            वह तोड़ती पत्थर।

प्रकृति के जिस असह्î और कष्टप्रद रूप को निराला अपनी कविता में गहरा कर रहे हैं; उनकी भाव-संवेदना से बनी-बुनी वह स्त्री उसके ऊपर भी हथौड़ा का परोक्ष प्रहार बार-बार करती दिखती है। प्राकृतिक तांड़वों-झंझावतों के बीच वह स्त्री न सिर्फ केन्द्रीय भूमिका में है; बल्कि वह नेतृत्व भी कर रही है। इसीलिए अंतिम पंक्ति में निराला ने दुपहर होने की बात को स्वाभाविक मानते हुए हल्का किया है-‘प्रायः हुई दोपहर’। लेकिन, अगली पंक्ति को उसके साथ संयुक्त कर उसकी शक्ति और कर्मरत होने के संकल्प-विकल्पयुक्त होने की चेतना को धारदार बनाया है-‘वह तोड़ती पत्थर’। प्रकृति और मानव के श्रम-संघर्ष और उनके बीच का चेतनाशील प्रतिरोध कम देखने को मिलती है। आज की रचनाशीलता के सन्दर्भ में विजेन्द्र की यह टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है-‘‘आज की कविता में प्रकृति का विलुप्त होना हमारे भाव-विपन्न होने का संकेत है।’’ जबकि निराला की कविता में यह संगति-अन्विति बेजोड़ है। ‘तोड़ती पत्थर’ कविता में निराला की कवि-दृष्टि प्रथमतः दूरतम-स्थिति के साथ पूरे घटना-जीवन पर नुमायां होती है। वह पहले प्रकृति के वैपरित्य-परिवेश को अपनी आसान-पकड़ में लेते हैं; तदुपरान्त ही उनकी दृष्टि उस स्त्री के व्यक्तित्व-बोध का संज्ञान ले पाती है।इसीलिए वह आरंभ सहानुभूतिक वक्तव्य-शैली में करते हैं:

                वह तोड़ती पत्थर;
                देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
                                वह तोड़ती पत्थर

किन्तु, जब वह उस स्त्री के साथ संवेदनात्मक सामीप्य-बोध स्थापित कर लेते हैं तो उनके अपने ही व्यक्तित्व-रूप का व्यक्तित्वांतरण हो जाता है। कविता की अंतिम पंक्ति की दृष्टि-रेखा, बिम्ब-बोध, राग-चेतना, लय, नाद, ओज और ध्वन्यातमक माधुर्य अद्भुत रचनात्मक आलम्बन लिए हुये दिखाई देने लगता है। निराला इस पंक्ति में अपने अधिकतम योग, निकटतम-सम्पर्क एवं आनुभाविक-संवेदना के उछाह के साथ मौजूद हैं :

                एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर;
                ढुलक माथे से गिरे सीकर,
                लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
                                ‘‘मैं तोड़ती पत्थर।’’

उसे अपने होने और अपने द्वारा किए जाने वाले कर्म का पूर्ण भान है। वह अन्याय के विरुद्ध विरुदावली नहीं गाती है। वह दीर्घकालिक योजना को कार्यरूप में परिणत होते देखना चाहती है। कवि ने ‘गुरु हथौड़ा’ कह शक्ति की केन्द्रीकृत सर्जना एवं उसकी अभिव्यंजना बड़े व्यापक और उच्चतर मनोभाव के साथ की है। हथौड़े के प्रहार में उसकी आज़ादी के साकार होते बिंब है; अन्याय से मुक्ति है, वेदना से छुटकारा है; और सबसे अधिक अपने स्त्री-छवि के शक्ति-स्वरूपा होने का आत्मविश्वास है जो उसे प्रकृति के समान सर्जक और संहारक दोनों होने का गौरव-बोध प्रदान किया है। यहाँ ‘हथौड़ा हाथ’ दो भिन्न शब्द होते हुए भी यहाँ पूरक-संगति भाव का द्योतन करते हैं:
              
                गुरु हथौड़ा हाथ,
                करती बार-बार प्रहार-
                सामने तरुमालिका, अट्टालिका, प्राकार।

 इस तरह हम देख पाते हैं कि अपनी इस कविता में निराला माधुर्य और ओज का गज़ब सहमेल करते हैं। यह उनकी कवि-प्रकृति के सर्वथा अनुकूल है। प्रायः हम देखते हैं कि निराला की कविताओं में प्रयोग सबसे अधिक निर्भीक और बहुलांश है। परम्परा के प्रति वहाँ निष्ठा है, तो विद्रोह भी। इसीलिए छायावाद के रंगमंच पर उनकी ख्याति विद्रोही चेतना के कवि के रूप में मुखरित होती है। निराला की एक बड़ी विशिष्टता यह थी कि वे अपनी ख्यातियों एवं उपलब्धियों से भी समान रूप से विद्रोह करते थे। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कवि-व्यक्तित्व के इस गुणधर्म को बड़ी सूक्ष्मता से पकड़ा है-‘‘निराला का सम्पूर्ण काव्य-व्यक्तित्व ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ की उस अवधारणा में से जैसे विकसित हुआ है जिसे कवि के समकालीन और प्रसिद्ध समीक्षक रामचन्द्र शुक्ल ने आनंद की साधनावस्था की उच्चतम रचना-भूमि का कारक तत्त्व स्वीकार किया है। निराला के ये सभी रूप अपने-अपने ढंग से आकर्षक हैं, यद्यपि उनमें से कई एक-दूसरे के प्रतिरोधी दिखाई देते हैं। ये काव्य-स्तर परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया में निराला के कवि व्यक्तित्व को और जीवंत तथा गतिशील बनाए रखते हैं। हिन्दी कविता के इतिहास में वैविध्य की यह काव्य-प्रक्रिया अपने आप में अतुलनीय है।’’

यहाँ ‘तोड़ती पत्थर’ की भाषा-संवेदना, समय से संघात एवं संवाद; भाषाई उर्वरता, सम्प्रेषण एवं सम्प्रेषणीय धरातल इत्यादि रामस्वरूप चतुर्वेदी के विचारों की पुष्टि में सहायक बनती  हैं। वास्तव में, निराला की अनुभूति कई रूपच्छटाओं में अभिव्यक्त हुई दिखती हैं। समझने की दृष्टि से प्रायः उन्हें दो रूपों में देखा जाता है-सामान्य रूप और विशिष्ट रूप। सामान्य रूप भी सहज ग्राह््य नहीं है। उस अनुभूति तक पहुँचने के लिए सहृदयता आवश्यक है।


Saturday, February 8, 2014

डायरी-अंश : 26 जनवरी की पूर्व संध्या पर पिता का सम्बोधन अपने बेटों के नाम

प्रिय देव-दीप, 

हम एक गणतन्त्र राष्ट्र के नागरिक हैं। उस बृहद गणतन्त्र के नागरिक जिसकी आबादी सवा अरब का आँकड़ा पार कर चुकी है। आज जिस भारत को हम अंधाधुंध शहरीकरण, मशीनीकरण, आधुनिकीकरण के दौड़ में बेतहाशा भागते देख रहे हैं; वह मुल्क आज से 66 साल पूर्व स्वाधीन भी नहीं था; हमने इसे हासिल किया। ‘टच स्क्रीन’ और ‘वेराइटी-वेराइटी चाॅकलेट फ्लेवर’ के इस ज़माने में यह अनुमान कर पाना भी कठिन हो सकता है कि काले पानी की सजा पाने वाले हिन्दुस्तानियों के लिए पानी के काले होने का अर्थ उस वक्त क्या हुआ करता था? महात्मा गाँधी जैसे एक वृद्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व में ऐसा क्या कुछ जादू था कि आमोखास सभी उनकी पगडंडियों को समीप से गुजरते ही चूम लेने को बेचैन...व्याकुल हो उठते थे। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन, इतिहास की एक ऐसी सचाई है जिसे जाने बगैर भारत के अंतरिक्ष में जाने, उपग्रह संचार व्यवस्था हासिल करने तथा आधुनिक से उत्तर आधुनिक समाज बनने तक की कहानी को जी पाना नामुमकिन है। जीने के लिए हमारे भीतर भारतीय मन, मस्तिष्क, संस्कार और देशप्रेम का जज़्बा चाहिए।
 
देव-दीप, हमें उन भारतीयों के बारे में जानना ही चाहिए जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को काटा है; ब्रिटिश हुकूमत से सीधी टक्कर ली है; यातना और प्रताड़ना के मार सहे हैं; लेकिन सत्य के लिए, स्वराज के लिए; अपनी स्वतन्त्रता के लिए अंत तक डटे रहे हैं...अडिग...अविचल। आजादी की इस लड़ाई में देश के लिए अनेकों ने कुर्बानियाँ दी है; अनगिनत लोगों ने घर-बार छोड़कर तिलक, गाँधी, भगत, सुभाष, श्रीअरविन्द, विनोबा, नेहरु, आम्बेडकर जैसे जननेताओं के पथ पर खुद को बिछाया है; कईयों ने नेताजी सुभाष बोस के आह्वान पर ‘आजाद हिन्द फौज’ के क्रान्तिकारी दस्ते में शामिल होना अपना गौरव समझा है।
 
उनमें से कोई भी आज हमारे साथ नहीं है। हमारे बीच नहीं है। लेकिन, उन्हीं के संघर्ष और प्रतिरोध की संचेतना से प्राप्त आज़ादी को हम सब जी अवश्य रहे हैं। स्वाधीन राष्ट्र की परिकल्पना में शासन-व्यवस्था के जिस लोकतांत्रिक ढाँचे को हमने स्वीकार और आत्मसात किया है; भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी प्राण की आहुति देने वाले, समस्त बलिदानियों का यह एकमात्र स्वप्न था। 15 अगस्त, 1947 की शुभ बेला में भारत को आज़ादी प्राप्त हुई। कुछ ही वर्षों के भीतर हम एक गणतन्त्र राष्ट्र के नागरिक भी बन गए...वह शुभ दिन आज ही का दिन है। 26 जनवरी, 1950 को हमारे स्वाधीन देश में एक लिखित संविधान ने मूर्त रूप ग्रहण किया। प्रत्येक नागरिक को सांविधानिक अधिकार मिले, तो नागरिक कर्तव्यों को भी उसमें विशेष स्थान प्राप्त हुआ। अब यह हमारे ऊपर है कि हम अधिकारों के लिए लड़ते या मोर्चा ठानते हैं कि सर्वप्रथम कर्तव्यों का अनुपालन करते हैं।
 
गणतन्त्र राष्ट्र के रूप में हिन्दुस्तान की कीर्ति अक्षय, तो प्रतिष्ठा चतुर्दिक है। गणतन्त्र दिवस राष्ट्रीय उत्सव है। एक ऐसा उत्सव जो हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अवलम्ब है। हम सम्प्रभुता-सम्पन्न राष्ट्र के नागरिक हैं; इस सार्वभौम सत्य को आज के दिन आकार लेते हुए देखा जा सकता है। आज के दिन स्वयं को भारतवासी कहते हुए हम और आप सभी गौरवान्वित होते हैं; खुद को कृत्-कृत् महसूस करते हैं। भीतरी अनुभूति का विराट फलक आज के दिन सभी भारतीयों में एकमेक हो जाता है...लगता है जैसे एक दरिया समन्दर होने को है। यह समन्वित चेतना, एकीकृत व्यक्तित्व आज भारतीय अवाम में जिस तरह अंगड़ाई लेते हुए, विहसते हुए, प्रसन्न और प्रफुल्लित होते हुए दिखाई दे रही है....हम भारतवासियों की खातिर निश्चय ही यह वास्तविक प्रकाश-पूँज है, राष्ट्र-दीपक है।
 
देव-दीप, आज इस पावन दिन के उपलक्ष्य में, देश-प्रदेश में हर जगह सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक बहुविध कार्यक्रम सम्पन्न किए जा रहे हैं। कला, दर्शन, साहित्य हो या संगीत; सभी का मूलभाव अथवा ध्येय अपने राष्ट्रीय अस्मिता, गौरव, परम्परा और संस्कृति को अभिव्यक्त करना है। यह अभिव्यक्ति असीम का ससीम में रूपान्तरण है। यह अभिव्यक्ति अनन्त और असीमित का सूक्ष्म से स्थूल में कायाकल्प है। यह अभिव्यक्ति ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ का प्रकृति-प्राणी में परकायाप्रवेश है। हम इस अभिव्यक्ति के बहाने उन महŸवपूर्ण संकेतों, प्रतीकों, चिह्नों तथा मिथकों को जानते हैं, उनसे जुड़ते हैं जिनका योग बीते युग, काल और समय में ऐतिहासिक/अनिर्वचनीय रहा है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इन सभी का महत्त्व, सामान्य या विशिष्ट; साधारण या असाधारण; शान्त या मद्धिम; देश, काल और पात्र के सापेक्षतः निर्धारित होता है। स्वदेशी आन्दोलन, स्वराज, सत्य-अहिंसा, सत्याग्रह, सांगठनिक राजनीतिक शक्ति एवं संचेतना इत्यादि स्वातंत्र्योत्तर कालावधि में विशेष अर्थ, महŸव और स्थान रखते थे; आज उनका सन्दर्भ बदल गया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य या आज के बदले हुए सन्दर्भ में आज़ादी या गणतन्त्र का वही अर्थ नहीं है जो स्वाधीनता प्राप्ति के समय की पीढ़ी के लिए मान्य अथवा प्रचलित था। उन दिनों राष्ट्रीय दिवस एक जुनून, एक आवेग की भाँति भारतीय मानस को स्पन्दित/तरंगित करता था। जबकि आज 26 जनवरी, 15 अगस्त या 2 अक्तूबर, सब के सब ‘हाॅली डे सेलिब्रेशन’ या ‘छुट्टी-व्यापार’ मात्र बनकर रह गए हैं।
  
भारतीय भूगोल के हिसाब से देशकाल और वातावरण की विभिन्नता जगजाहिर है। व्यक्तिगत जीवन के अतिरिक्त समाज, संस्कृति, भाषा, लिंग, वय, वर्ग, जाति, धर्म इत्यादि में भी पर्याप्त अंतर है, ....विभेद है। लेकिन यह वैविध्य या विविधता ही हिन्दुस्तान की असली जीवन-सम्पदा है; जीवन-राग, संगीत और प्रकृति है। लाल किला का ऐतिहासिक प्राचीर जहाँ से भारत के राष्ट्राध्यक्ष...माननीय राष्ट्रपति देश को सम्बोधित करते हैं; को समीप से सलामी ठोंकती झाँकियाँ भारत के अन्तर्जगत और अन्तर्मन का झरोखा है, खिड़की है। यह भारत के विशाल गणतन्त्र का एक ऐसा जीवन्त कोलाज है जहाँ से बहुभाषाभाषी और बहुसांस्कृतिक भारतीय समाज अपना परिचय प्राप्त करता है। क्षणमात्र के लिए ही सही यह शुभ दिन हमारे मन-मन्दिर के समक्ष एक भव्य रंगमंच उपस्थित कर देता है। अपने देसीपन, भारतीयपन को जिन्दादिली से जीने वाले बहुसंख्यक भारतीय तमाम संकट, विपदा, अन्याय, शोषण को सहते हुए; प्रतिरोध की लकीर खींचते हुए इसी गणतन्त्र भारत में शानपूर्वक जीवित हैं; सरकारी निकम्मेपन, अक्षमता और धूर्तता के बावजूद सही-सलामत हैं। साधारण सामाजिकी और सांस्कृतिकी में जीवनबसर करते इन लोगों की उत्सवधर्मिता और सामूहिकता असाधारण है। अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरत के लिए वे स्वनिर्भर...आत्मनिर्भर हैं। उन्हें अमेरिका या यूरोप की ओर देखने की जरूरत नहीं है।
 
देव-दीप, 26 जनवरी का दिन शुभ और महत्त्वपूर्ण क्योंकर है...कमोबेश हम सब जानते हैं। हमें संभवतः पता है...भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के बारे में। उन स्वतन्त्रतासेनानियों के बारे में जिन्होंने 1857 ई0 की पहली जनक्रान्ति से ले कर 1947 ई0 तक अनवरत ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया। नामों की अनगिन सूची में शामिल ऐसे सदाशयी लोगों का आज़ादी के आन्दोलन, संघर्ष, संग्राम, लड़ाई में स्वयं को होम कर देना राष्ट्रीय निष्ठा की सर्वश्रेष्ठ निशानी है। देशप्रेम का अप्रतिम उदाहरण जिस पर भरोसा करना आज की पीढ़ी के लिए आसान बिल्कुल नहीं है। उनकी आहुति या बलिदान स्वराज की जिस परिकल्पना को भेंट थी...समर्पित थी...आज उसी स्वराज या स्वाधीन भारत के स्वतन्त्र नागरिक के रूप में हमारा अपना अस्तित्व है। उनकी आत्मा में भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना बसी हुई थी....‘हम भारत के लोग, भारत को...’। यानी 26 जनवरी 1950 के ठिक पहले तक हम बिखरे हुए जन थे; हम रियासत, जमीन्दारी, काश्तकारी द्वारा अलगाए गए लोग थे; जाति, धर्म और भाषा में बंटे हुए इंसान थे; किन्तु 26 जनवरी के दिन भारतीय संविधान ने हिन्दुस्तानियों के समक्ष भविष्य का जो नया द्वार खोला...उस सिंहद्वार पर लिखा था-‘स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व से युक्त गणतन्त्र भारत’।
 
अतः राजनीतिक संचेतना के निर्माण और कायम औपनिवेशिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में स्वतन्त्रताप्रेमी भारतीयों, शहीद रणबांकुरों और परिवर्तनकामी राजनीति के नेतृत्वकर्ताओं ने जिस त्याग, समर्पण और निष्ठा का परिचय दिया है...उसे इतिहास के पन्नों में नहीं अपने दिल में स्थान दिए जाने की जरूरत है। क्योंकि यह शुभ दिन हमें पूर्णरूपेण स्वाधीन...स्वतन्त्र होने के अहसास से भरता है। यह दिन हमें आजादी के उन परवानों की याद दिलाता है जिन्होंने अपनी समस्त ऊर्जा, शक्ति, शौर्य और साहस को अपने राष्ट्र पर न्योछावर कर दिया है। राष्ट्रनिर्माण की अभिलाषा में अपना सर्वस्व सौंप देने का जो उदाŸा भाव उन वीर सपूतों में था...आज के कठिन समय में हमें उनसे प्रेरणा लेने की आवश्यकता है।

यह समय कठिन इन अर्थों में है कि भारत विकास और समृद्धि की दिशा में बढ़ नहीं रहा है, बह रहा है। यह बहाव अनियंत्रित है। बाह्î पूँजी के संक्रमण और दबाव पर आधारित है। आर्थिक विषमता ने दो वर्गों के बीच की खाई को बढ़ा दिया है। भारतीय राजनीति पर आज अधिसंख्य पूँजीदारों का कब्जा है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व में परिवारवादियों का सिक्का जमा हुआ है। भाई-भतीजावाद चरम पर है, तो धनबल का बोलबाला भ्रष्टाचार का विषकुण्ड बन बजबजा रहा है। समाज और संस्कृति के स्तर पर मूल्यों का क्षरण और नैतिकता के उल्लंघन का मामला आए दिन प्रकाश में है।
 
आज व्यक्तिवाद की संस्कृति ने उत्तर आधुनिक भारतीय-मन को यंत्रवत बना दिया है। देसी भूमि पर एफडीआई, वालमार्ट, सेज, विश्व बैंक इत्यादि का चतुर्दिक हमला भारतीय शासन-व्यवस्था और नेतृत्व की विफलता का परिचायक है। आमोखास सभी में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ गुस्सा, आक्रोश और असंतोष जबर्दस्त है। अण्णा हजारे की मुहिम ने पिछले वर्ष पूरे देश के जनमानस को आलोड़ित करके रख दिया था। इसी तरह स्त्रियों के सशक्तिकरण के बिगुल बुलन्द करने के बावजूद आधी आबादी पुरुषिया कुण्ठा और मानसिकता से बुरी तरह उत्पीड़ित है। उन पर हो रहे ताबड़तोड़ हमले लैंगिक भेदभाव की नंगी सचाई है। नतीजतन, इस घड़ी स्त्रियाँ बड़े पैमाने पर हिंसा, हत्या, बलात्कार और अन्य प्रकार के शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना की शिकार है। कुछ दिन पहले दिल्ली गैंगरेप की हैवानियत भरी करतूत के खिलाफ पूरे देश को हमने बागी, उग्र और आक्रोशित होते हुए अपनी आँखों से देखा है।
 
आज अपने ही मुल्क में गणतन्त्र किस कदर गौणतन्त्र में बदल चुका है। यह हम सब को देखना होगा। भारत की वास्तविक प्रगति या समृद्धि अपनी परम्परा-विरासत को तज कर आगे बढ़ने में नहीं है। हमें अपने राष्ट्रीय गौरव के विरासत को सहेजना होगा। नवसाम्राज्यवादी मुल्कों ने वैश्विकरण के मुहावरे में बाज़ारवाद का मकड़जाल फैला रखा है...उसमें राजनीतिक दखल/दबंगई का जोर है...जबकि समर्थ राजनीतिक व्यक्तिव और कुशल-प्रवीण नेतृत्व का सर्वथा अभाव है। आज की भारतीय राजनीति में चिन्तन भी ‘पाॅवरगेम’ हो गया है जिसमें ‘पोजिशन’ में बदलाव होते देखा जा सकता है, लेकिन चित्तवृत्ति में बदलाव नहीं हो पाता है।
 
देव-दीप, भारतीय गणतन्त्र का यह शुभ और महत्त्वपूर्ण दिन हमारी खुशहाली और प्रसन्नता का प्रतीक बने, इसके लिए जरूरी है कि हम अपने समय के सवालों, मुद्दों, समस्याओं और अन्तर्विरोधों से सीधे टकराए। युगीन यथार्थ और युगीन चेतना से आमजन को परिचित करायें। आज गणतन्त्र दिवस के बारे में नहीं गणतन्त्र में हो रहे आमूल-चूल बदलाव की स्थिति और पारिस्थितिकी के बारे में प्रश्न खड़े करने की आवश्यकता है। वर्तमान में पसरी जड़ता और यथास्थितिवाद के खिलाफ़ नई अमराई....पीढ़ी को बागी बिगुल फूंकने की जरूरत है।

Saturday, February 1, 2014

इस बार 'आप' से शुरू

आम-आदमी पार्टी : जनान्दोलन से जिन-जिन तक
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दशक पहले एक फिल्म आई थी। उन दिनों हमारे वय-उम्र के लड़के बड़े गुमान से पूछते फिरते थे-‘हम आप के हैं कौन?’ रेडिमेड जवाब लड़कों के पास ही तैयार रहता था-‘सलमान खान!’ आज देश की जनता ‘आप’(आम-आदमी पार्टी) से यही सवाल पूछ रही है; लेकिन-गंभीरतापूर्वक, संजीदगी के साथ और पूरे आत्मविशास से। इसका जवाब(अरविन्द केजरीवाल) छिछरोई भरे लहजे में मजाकिया ढंग से देना ‘आप’ को महंगा पड़ सकता है। खुदा-न-ख़ास्ते ऐसा हुआ, तो समझिए-‘आप स्वाहा आप’। देखना होगा कि यह पार्टी अपनी कई अंदरूनी विसंगतियों का शिकार है। हिन्दी भाषा में नामकृत आम-आदमी पार्टी का अभी तक हिन्दी में कोई वेबासाइट नहीं है। उल्टे ‘आप’ लोकसभा चुनाव की उम्मीदवारी के लिए आम-आदमी को उसी वेबसाइट पर भेज रही है जहाँ उसकी संस्कृति, समाज, दर्शन, चिन्तन और साहित्य की अभिव्यक्ति का मुख्य औज़ार अपनी भाषा का रूप-रंग-चेहरा ही नहीं है। यहाँ अंग्रेजी में जानने के लिए उद्देश्य और विचारधारा के नाम पर ढोल का खोल है-‘जनलोकपाल बिल’ या ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’; सफलता का केजरीवाल-सूत्र; तस्वीरों में ‘आप’ सरकार के नेताओं के करारे-फोटोग्राफ; और सोशल मीडिया के फटाफट टाँके जाने वाले अपडेट्स। आम-आदमी का उसमें नाम मुद्रित है, लेकिन वह किसी भावमुद्रा में कहीं नहीं है।

सूझ और समझ की ऐसी कमी खतरनाक तो है ही, भरभराकर गिरने और ढूह में तब्दील होने को न्योंतती भी हैं। मीडियावी प्रचार को आम-आदमी पार्टी जिस तरह विशेष महत्त्व दे रही है; या जनमाध्यमों के रंगारंग-विस्तार(न्यू मीडिया, सोशल मीडिया इत्यादि) को गले लगा रही है; वह प्रलोभन मात्र है। ‘आप’ का यह आभासी छल और छद्म तकनीकी-प्रौद्योगिकी का प्रपंच-मात्र है जो निजता का ख्याल कम अंतर्निजता का अतिक्रमण और अपहरण अधिक करती है। इन आधुनिक जनमाध्यमों में आमजन के बारे में ‘थेसिस व एंटी-थेसिस’ पर्याप्त मात्रा में मिल जाएँगे; लेकिन उनकी मुश्किलातों, दुःख-तकलीफों, शोषण, उत्पीड़न इत्यादि का समाधान-निवारण करने में ये नवमाध्यम सक्षम कम और निरुपाय अधिक हैं। अरविन्द केजरीवाल को वस्तुतः यह जानकारी अवश्य होनी चाहिए कि भावनात्मक-सम्मोहन का राजनीतिक काव्य-शास्त्र रचकर दिल्ली में सरकार बनाई जा सकती है; लेकिन दिल्ली के आम-आदमी को अपनाने या सही अर्थों में उसके भीतर पैठने का सही तरीका यह नहीं है। ‘आप’ को अभी ज़मीनी स्तर पर और कड़ी मेहनत और लम्बी लड़ाई लडे जाने की जरूरत है। भाषा और आँकड़े में खेल करना जिन पार्टियों को आता है; उन्हें ही पराजित कर ‘आप’ की पार्टी दिल्ली में सत्तासीन हुई है। आम-आदमी पार्टी’ की यह ऐलानिया घोषणा कि वह देश भर में 300 लोकसभा सीटों के लिए अपने जनप्रतिनिधियों को खड़ा करेगी; अन्य पारम्परिक पार्टियों के ऐंठ और एकाधिकार की प्रवृत्ति पर सीधा प्रहार है। यह खुद आम-आदमी पार्टी के लिए भी बड़ी चुनौती है। अतः आम-आदमी पार्टी को अपने समस्त दरारों को समय रहते पाटने/दुरुस्त करने होंगे; अपने बड़बोलेपन या फौरी हाजिरजवाबी की आदत से परहेज करना सीखना होगा। अरविन्द केजरीवाल को इन सब बातों का पूर्णरूपेण भान है। वे स्वीकार करते हैं-‘‘अगर हमसे कुछ भूल हुई, तो जनता हमें कभी माफ नहीं करेगी।’’
 
अतः आज अधिक जरूरी है-आम-आदमी की मूलभूत जरूरतों की पहचान, उन तक सुविधाओं को हर हाल में सीधे पहुँचाने की जिद्दी धुन और त्वरित पहलकदमी; लोगों के मन-दिल पर जमे उस गाद-गंदगी को साफ-सुथरा करने की तबीयत/नियत जिन्हें पिछली सरकार ने चमकाऊ सड़क और हाथीपाँव वाले फ्लाई-ओवरों की ओट में ढाँक-तोप दिया है। यह सही है कि ‘आप’ सरकार के सामने चुनौतियों एवं संघर्षों का पहाड़ खड़ा है जिसे तोड़कर समतल-सपाट बनाने है। इसके अतिरिक्त नई संभावना और उम्मीद को भी तलाशने-तराशने होंगे; ताकि आम-आदमी अपनी साधारण खोली में असाधारण बनते कठिनाइयों(नाम लेने की जरूरत नहीं है!) को साध सके। आम-आदमी पार्टी को वादों का पुलिन्दा दिखाने अथवा दिखावे का रिपोर्ट-कार्ड पेश करने की जरूरत नहीं है। आज जरूरत है, तो काम-दर-काम किये जाने की। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर पार्टी के सांगठनिक ढाँचे को विवेकसम्मत ढंग से खड़ा/तैयार करने की अनिवार्यता है। इसके अतिरिक्त अपने कार्यपद्धति में ईमानदारी, शुचिता, पारदर्शिता और निष्पक्षता का समावेशन आवश्यक है; ताकि यह पार्टी अपनी सत्ता-शक्ति में गिने-चुने लोगों का मुखापेक्षी या समर्थक पार्टी बनकर न रह जाए। सामान्यतः मुँहामुँही(फेस टू फेस) यह पार्टी जनान्दोलन से जन्मी हुई पार्टी कही जाती है; जबकि सचाई यह है कि यह पार्टी जनान्दोलन की भावना से उत्प्रेरित(पैशनेट) मात्र है; उसकी पैदाइश हरग़िज नहीं है। इसका गठन मूलतः दिल्ली-केन्द्रीत बौद्धिक-विमर्श से संभव हुआ है जो अपने सिद्धान्त और विचारधारा में देश की सांविधानिक राजनीति को ‘वैकल्पिक एवं जनपक्षीय’ बनाने पर सहमत एवं एकमत है। यूँ तो दिल्ली की कोठी में बैठकर वैचारिक मुआयना कर लेने से देश की राजनीति का सर्वहाराकरण अथवा केन्द्रीय सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो जाना संभव नहीं है। लेकिन, इस दिशा में सोचा जाना परिवर्तनकामी राजनीति के लिए नींव में ईंट के पत्थर रखने से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
 
आधुनिक शासन प्रणाली में शासन, परिवर्तन और नवीनीकरण की योजना को महत्त्व प्राप्त है। उसमें यह भी जुड़ा हुआ है कि नई राजनीतिक संस्कृति की रूपरेखा तबतक तैयार नहीं की जा सकती है, जबतक कि उस पार्टी की प्रतिबद्धता सार्वभौमिक, संपोषणीय और जनपक्षधर न हो। राजनीतिक शब्दावली में प्रतिबद्धता विचारधारा और जीवन-दृष्टि के सहमेल से बनता है। इसे आपसी साझेदारी से निष्पन्न एक आंतरिक उद्भावना भी कह सकते हैं। यथा-भावना, संवेदना, चेतना, अनुभूति, विचार आदि। इन सबों का राजनीति में अर्थपूर्ण, सक्रिय एवं प्रयोगशील होना वास्तव में ‘राजनीति का मानवीकरण’ होना है। ये राजनीतिक आचरण, अभिव्यक्ति और व्यवहार को नियंत्रित करते हैं और उसे निर्धारित भी। अतः आम-आदमी की अपेक्षाओं-आकांक्षाओं का बारात लेकर निकले अरविन्द केजरीवाल को भाग्यवादी(मैं अब भगवान में विश्वास करने लगा हूँ) होने के बरअक़्स यथार्थ दृष्टिकोण और ठोस वैचारिकी आधारित ‘माॅडल’ अपनाने की जरूरत है। देसी भाषा या शब्दावली में उन्हें ऐसी दीर्घकालिक योजनाओं के क्रियान्वयन पर मुहर लगाने होंगे जो आम-आदमी की जीवन-रक्षा और जीवन-मूल्य से जुड़े बुनियादी प्रश्नों को हल करता हो; मेहनतकश जनता की सांस्कृतिक चेतना का उन्नयन और उनके बुद्धि-विवेक को माँजता हो; अकंुठित और तेजवान ‘युवा पीढ़ी’ का निर्माण करता हो।
 
उपर्युक्त पक्षों पर विचार करने के लिए आम-आदमी पार्टी को सर्वप्रथम आमजन के हृदय को आलोड़ित करना होगा; मस्तिष्क में संवेदनशीलता और ज्ञानात्मक आन्दोलन के बीज बोने होंगे। दरअसल, भौतिक विकास से पूर्व आम-आदमी के मानस का विकास राजनीतिक परिकल्पना को सम्पूर्ण और समग्र बनाने की मूल कुंजी है। इस परिप्रेक्ष्य पर सुचिंतित विचार और जन-संवाद की स्वस्थ प्रक्रिया अपनाया जाना आवश्यक है। ‘आप’ के लिए यह कार्य आसान नहीं है। यह मुश्किल तब और बढ़ जाती है जब कोई व्यक्ति इस तरह के चुनौतीपूर्ण राजनीतिक नेतृत्व की शुरूआत अपेक्षाओं-आकाक्षाओं के जनबहुल समर्थन को लक्ष्य करते हुए आरंभ करता है। इस घड़ी भारतीय राजनीतिक दलों के पास विचारधारा के नाम पर ‘रेकची’(खुदरा पैसा) तक नहीं बचे हैं। लगभग सभी पार्टियाँ चुनावी घोषणापत्र में जो तमाम लोकलुभावन वादें करती हैं; उनके बारे में उनका अपना ही कोई साफ नज़रिया, निजी राय अथवा स्पष्ट नीति नहीं है। यह बात यहाँ इसलिए कही जा रही है कि ‘आम-आदमी पार्टी’ के कार्यनीति में भी समन्वय-संतुलन का अभाव साफ दिखाई दे रहा है। उसके ‘रोडमैप’ में दूरदर्शिता और सर्वग्राही सोच की कड़ी नदारद है; नेतृत्व-क्षमता सुगठित योजना के अभाव में तात्कालिक निर्णय करने को बाध्य दिखाई दे रही है। यह दशा सिर्फ पार्टी के लिए ही नहीं पूरे देश के लिए किसी अपशकुन से कम नहीं है। आम-आदमी पार्टी के राजनीतिज्ञों को यह समझना होगा कि बड़े सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के लिए बड़ा पराक्रम किया जाना जरूरी नहीं है। इस घड़ी जरूरत है-सयंम और धीरज के साथ आम-आदमी की मनस्वी-भूमि को सींचने की, उसमें आवश्यकतानुसार चेतनशील विचारों-भावनाओं का खाद-पानी देने की, सजग भाव के साथ देख-ताक करते हुए उनकी कठिनाई-समस्या को पूरी संवेदनशीलता के साथ समझने की। इस तरह के साधनों पर यत्नपूर्वक विचार करने से ही आम-आदमी पार्टी उस लक्ष्य को हासिल कर सकती है जो आम-आदमी पार्टी के ‘मेनिफेस्टो’ में शामिल है या उन्हें शामिल किए जाने की जरूरत है।
 
‘आप’ की सीमाओं को रेखांकित करते हुए समाज-चिन्तक बद्री नारायण ने जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है, वाजिब है-‘‘आम आदमी पार्टी में एक तो मध्य वर्ग का वह युवा शामिल है जो या तो बेकार है या नौकरी के लिए प्रतियोगिता देते-देते थक गया है, रोजी-रोटी के लिए एनजीओ वगैरह बनाकर रोजी भी कमा रहा है, एक्टिविज़्म भी कर रहा है; ‘आदर्श’ स्थापित करने में आत्मसुख से भी आह्लादित है। दूसरा है, 1990 के दशक के बाद की उदारवादी व्यवस्था में पैदा हुआ युवा जो चाहता है कि जीवन में न कोई जद्दोजहद हो और न कोई जिम्मेदारी, सब कुछ कंप्यूटर और एसएमएस से ही हो जाए। फिर वे रिटायर्ड लोग हैं जो खुद भले ही नैतिक रहे हों या नहीं, पर हमेशा नैतिकता के मुल्लमें में जीते हैं जो ‘माॅर्निंग वाॅकर एसोसिएशन’ के सदस्य भी हैं। इन सबको आम आदमी पार्टी जैसी राजनीति में अपने लिए जगह दिख रही है। इस नए ‘आम-आदमी’ के अर्थ में वे किसान, खेत, मजदूर, गँवई गरीब, दलित वगैरह नहीं हैं जिन्हें पारम्परिक रूप से जनता माना जाता है। इस आम-आदमी में वह तबका नहीं है जिसकी राजनीति सिर्फ आर्थिक जरूरतों से नहीं, बल्कि अपने सम्मान की चाह से भी संचालित होती है।’’
 
अपेक्षा की जानी चाहिए कि ‘आप’ पार्टी इस कहे का मूल भावार्थ समझेगी और वह सघन विचार-विमर्श, खुले संवाद एवं व्यावहारिक आलोचनाओं से पीछे नहीं हटेगी। बदलाव की राजनीति के लिए ‘सोच की ज़मीन’ पर महंगेदार दिखावटी ‘टाइल्स’ बिठाने की जरूरत नहीं होती है; अपितु जरूरत होती है, वैचारिक एवं संवाद-प्रधान राजनीतिक-संस्कृति को फलने-फूलने और उसे विकसित होने देने की। दरअसल, विभिन्न विचारधारात्मक आधार को सर्वग्राही और समावेशी रूप देना वास्तव में पार्टी का सोद्देश्य एजेंडा होना चाहिए; ताकि धर्म, जाति, भाषा, समुदाय, क्षेत्र, लिंग, वर्ग, वय इत्यादि में बँटी जनता को ‘एक सोच के नींव तले’ खड़ा किया जा सके। पिछले सात दशकों से जनतंत्र के भुलावे में पिसते आम-आदमी की ज़िन्दगी में क्रान्तिक बदलाव दीर्घकालीन आयोजनों द्वारा ही संभव है। ये आयोजन वस्तुस्थिति एवं वस्तुदृष्टि दोनों में क्रमिक/विकसनशील बदलाव लाने का हरसंभव प्रयत्न करते हैं; यथास्थिति की हर स्थिति को ऐसे व्यवस्थित करते हैं कि वस्तु नया रूप धारण कर ले, पुरानी अवस्था की हर स्थिति नया अनुभव दे; ताकि हमारी ग्लानि और गन्दगी से भरी ज़िन्दगी एक न्यायपूर्ण, शुद्ध और सुन्दर ज़िन्दगी जी सके। इस घड़ी आम आदमी पार्टी को चाहिए कि वह अपने नपे-तुले घोषणापत्र या पार्टी एजेण्डे को जनतांत्रिक विचारों एवं विश्वदृष्टि आधारित मूल्यों की संजीवीनी पिलाए। राजनीतिक विश्लेषक पवन कुमार गुप्त सही संकेत करते हैं-‘‘केजरीवाल की राजनीति तभी अलग होगी जब वे सिर्फ तत्कालिक मामलों में न उलझें और दीर्घकालीन राजनीति और मुद्दों पर भी उनकी नज़र बराबर रहे। आज परिस्थिति और चारों तरफ के दबाव ही ऐसे हैं कि हर वक्त तात्कालिकता हावी हो जाती है।’’ 
 
विशेषतया राष्ट्रीय-राजनीति में मजबूत पैठ बनाने के लिए ‘आम आदमी पार्टी’ को अपनी कार्य-योजना को ठीक-ठीक क्रियान्वित किए जाने की जरूरत है। इसके लिए ‘पोपुलरिज्म’ की सतही मानसिकता से उबरना भी एक शर्त है। ख़ासकर इस तरह के टें-टें-ट्विट करने की कोई जरूरत ही नहीं है-‘‘पार्टी बना के बता, कैंडीडेट ढँूढ के बता, पैसा ला के बता, जीत के बता, सरकार बना के बता, कानून ला के बता....ओये तुम सिर्फ चैलेंज करते जाओ और हम करते जाएँ।’(कुमार विश्वास)’ दरअसल, चंद मिनटों-घंटों में आम आदमी को लखपति-करोड़पति बनाने का हुनर ‘केबीसी ब्रांड’ अमिताभ बच्चन के पास है। इसे अपनाने की जरूरत ‘आप’ को नहीं है। आरोप-प्रत्यारोप, आलोचना-आक्षेप की भौड़ी संस्कृति वर्तमान राजनीतिक दलों के रोजमर्रा का हुक्का-पानी बन चुके हंै; फिलहाल यह उन्हें ही गुड़गुड़ाने दीजिए। इस वक़्त ‘आप’ को अपने बारे में जनसमाज द्वारा किए जा रहे आकलन-मूल्यांकन पर सोचने-विचारने की जरूरत है; उस आम-आदमी से सीधे संवाद और बातचीत करने की आवश्यकता है जिसने आपको अपना ‘नेतृत्व’ सौंप दिल्ली में सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया है। श्रेष्ठताग्रंथि की शिकार अन्य सनातनी पार्टियों की तरह ‘आप’ भी भंजौटी भाँजने लगे, तो फिर आपका भी वही हश्र होगा जैसा दूसरों की हम देख रहे हैं।
 
बहरहाल, आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से बेहद कम दिखते इस समय में आम-आदमी पार्टी को भारत की राजनीतिक-संस्कृति को सर्वप्रथम भली-भाँति जानना-समझना होगा। यह कार्य उसे कुछ वैसे ही बड़ी बारीकी/महीनी से करना होगा जैसे हमारे घरों में स्त्रियाँ ऊनी पोशाक या ‘स्वेटर’ घर-दर-घर बुनती-बनाती हैं। क्या हम नहीं जानते हैं कि इस घरेलु बनाव-बुनाव में फौरी आवश्यकता-पूर्ति से अधिक ‘आत्मीयता’(परिश्रम यहाँ गौण मान लिए जाते हैं) और ‘अपनापन’ का उजास और संस्पर्श अधिक घुलामिला होता है। ‘आप’ से इस तरह की भावनात्मक/मानवीय उम्मीद किए जाने के पीछे का तर्क यह है कि भारतवर्ष में अधिसंख्य आम-आदमी देश का मतदाता है; लेकिन, वह अपने वाज़िब हक से बेदख़ल है। देश की बड़ी आबादी सड़कछाप दिलेर(?) है; जो सरकारी बहीखाते के अनुसार चंद रुपल्ली के भरोसे हर रोज ज़िन्दा रहने का उपक्रम करती है। यह वही आम-आदमी है जो घर से दूर महानगरीय ‘रैन बसेरा’ में कैद है, लेकिन आजिविका की विवशता की वजह से वह अपने बेघर होने की सचाई को भी बिसार चंुका है। देश में अनगिनत ऐसे लोग हैं जिन्हें ‘नीलकेणी आधारकार्ड’ हासिल हो गया है, जिसमंे उनके हस्ताक्षर ‘हाशिए का व्यक्ति’ मानकर ही दर्ज किया गया है। ‘आप’ ने आम-आदमी के ऐसे ही टीस, कसक, दुःख और संत्रास को गहराई से समझने का विश्वासोत्पादक ‘प्रचार किया है।
 
ध्यातव्य है कि नेहरू-इंदिरा की सनातनी/विरासती पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस को अरविन्द केजरीवाल की पार्टी ‘आप’ ने नहीं; दिल्लीवासियों के आत्मबल, मनोबल, साहस और दृढ़इच्छाशक्ति ने हराया है। दिल्ली गैंगरेप की शिकार हुई युवती ‘निर्भया’ के समर्थन में दिल्ली की युवा पीढ़ी जब सड़क पर जनसैलाब बन उमड़ी, तो कांग्रेस के कद्दावर(?) नेता पी. चिदम्बरम ने इसे ‘फ्लैश मोब’ कहा था। आज उसी ‘फ्लैश मोब’ ने कांग्रेस की खटिया खड़ी और बिस्तर गोल कर दी है। कांग्रेसी नेता राहुल गाँधी आम-आदमी पार्टी से मिले इस सबक को कितने दिन तक याद रख पाते हैं; यह तो उनकी यादास्त और समझ पर निर्भर करता है; लेकिन, इतना तय है कि यह असफलता कांग्रेस को अपने दाँव और मोहरे दोनों बदलने का ‘अल्टीमेटम’ दे चुकी है। विश्लेषण यह बताते हैं कि कांग्रेस आम-आदमी की निगाह में सिर्फ राजनीतिक नारा और मुहावरा गढ़ने वाली पार्टी बनकर रह गई है। ऐसा क्यों और कैसे हुआ? यहाँ इसका पूरा इतिहास बाँचने की जरूरत नहीं है। दरअसल, कांग्रेस दल की सर्वोपरिता ने इस देश का खासा नुकसान किया है। भूमंडलीकरण और नव-उदारवाद की ओट में कांग्रेस ने भारतीय शासन प्रणाली को केन्द्रीकरण की दिशा में तो मोड़ा ही है; इसके अतिरिक्त इस प्रवृत्ति ने प्रान्तीय और केन्द्रीय स्तर पर नौकरशाही, राजनीतिक दल और पूँजीपति/धनाढ्य वर्ग को बड़ी मात्रा में वेतनों, रिश्वतों और मुनाफों के रूप में बड़ी कमाई अथवा राष्ट्रीय धन के अपहरण की छूट तक प्रदान की है।
 
यह एक गौरतलब पक्ष है कि पिछले 66 सालों से शोषण के बहुविध तरीके आजमाती आ रही केन्द्रीय/प्रान्तीय सरकारों ने सेना तक का प्रयोग गैर-जरूरी तरीके से किया है। भारत का पूँजीपति वर्ग इस तथ्य से भली-भाँति परिचित है कि शोषक वर्ग के हाथ में तोपें और टैंक शोषित वर्ग की सभी युक्तियों का आखिरी जवाब है। पिछले एक दशक से इरोम-शर्मिला अनशन पर इन्हीं कारणों से बैठी हैं; लेकिन सत्ता के पहरुओं ने इरोम की मुश्किलों को बढ़ाया ही है सिवाए कम करने के। स्त्री-अस्मिता सम्बन्धी आधी-आबादी के मसले को सदैव केन्द्रीय-मुद्दे से निकाल-बाहर किया जाता रहा है। इसी तरह आदिवासियों, दलितों एवं पिछड़ेपन के मुद्दे पर सभी राजनीतिक पार्टियाँ राजनीतिक घोषणापत्र पढ़ती जरूर हैं, लेकिन, वे इनके बारे में संवेदनशील हरग़िज नहीं है। इसी तरह भूमिहीन और मजदूर बनते भारतीय किसानों की स्थिति-अवस्थिति दूरगामी निर्णय और ठोस पहलकदमी की मोहताज़ है। लेकिन, देश की बेईमान होती जा रही सत्ता-सियासत के लिए यह गंभीरतम विचारणीय मुद्दा आज भी नहीं है। जबकि रक्षा मामले, सीमा सुरक्षा, विदेश नीति, कूटनीतिक पहलकदमी, औद्योगिक विकास, अंतरिक्ष सशक्तिकरण, तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित विकासमूलक नवाचार, अत्याधुनिक माँगों के अनुरूप सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी भाषा में दक्षता-निर्माण के नाम पर गठित होते संस्थान/कमेटियों इत्यादि से ये ज़मीनी मुद्दे कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। भारतीय राजनीति के इसी अंतर्विरोध को जवाहरलाल नेहरू ने लक्ष्य कर बिल्कुल ही मुनासिब कहा था-‘‘मेरे लिए जो सबसे आश्चर्यजनक था वह यह कि शहरों में इस महान किसान आन्दोलन के प्रति कोई जानकारी नहीं थी। किसी भी अख़बार में इसके बारे में एक भी वाक्य नहीं था। उनकी ग्रामीण क्षेत्रों में कोई रुचि नहीं थी। मैंने पहली बार महसूस किया कि हम अपने लोगों से कितना कटे हुए थे और हम कितनी छोटी-सी दुनिया में उन सबसे अलग रहते, काम करते और आन्दोलन करते थे।’’
 
आज इन्हीं सब सचाईयों को राजनीतिक मुद्दा बनाकर आम-आदमी पार्टी ने पारम्परिक राजनीतिक पार्टियों को चुनौती दिया है। साथ ही, भारतीय जनतांत्रिक प्रणाली में नई संभावना एवं उम्मीद को भी पैदा किया है। आश्चर्य नहीं है कि एक साल के अन्दर बनी आम-आदमी पार्टी ने जिस तरह राजनीति के केन्द्र में काबिज अयोग्य राजनीतिज्ञों को बहिष्कृत कर दिखाया है; वह अपनेआप में बेमिसाल है। यह भारतीय मतदाता के निर्णय और सोच की दृष्टि में आते तेज-क्रमिक किन्तु आक्रामक बदलाव का सूचक है। यह लगभग ध्रुव सत्य है कि सब लोगों को कुछ दिनों के लिए, कुछ लोगों को हमेशा के लिए ठगा जा सकता है, पर सब लोगों को हमेशा के लिए ठगना असंभव है। यानी राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा बन रहे आम-आदमी पार्टी को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जन-सरोकार से सम्बन्धित सभी प्रश्नों से सीधे टकराना होगा। पुनश्चः इस बारे में ‘आप’ को राजनीतिक विचारधारात्मक दृष्टि और बहुआयामी चिन्तन विकसित करने की जरूरत है; क्योंकि इन सबसे निपटे बिना भारत में राजनीतिक बदलाव का आम-आदमीनुमा विचारदृष्टि गढ़ पाना संभव नहीं है।
(यह आलेख 25 दिन पूर्व कहीं भेजने के लिए लिखा था; आज इस अ-छपे को यहां दे रहा हंू. )

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...