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राजीव रंजन प्रसाद
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यह समय का फेर है कि इन दिनों फ़रेब, जालसाजी, षड़यंत्र, धोखा, ईष्र्या, कटुता, कपटता आदि का बोलबाला है। इसका कारण एक यह भी है कि हमारा व्यक्तित्व अब ‘ह्युमन बिंग’ से ‘डिजिटल बिंग’ में तब्दील हो रहा है। नेट-वेब आधारित तकनीकी-प्रौद्योगिकी आश्रित संजाल ने हमारे व्यक्तित्व को ‘आॅक्टोपस’ की भाँति जकड़ लिया है। अब पूरा राष्ट्र ‘पाॅलिटिक्ल वर्चुअलिटी’ की गोद में है। राजनीति हमें सिखा रही है कि-‘आदर्श जीवन’ क्या है? जन-जन के मन में क्या है? यही नहीं सरकारी-तंत्र का शासकीय-मानस भी अब ‘इवेंट कंटेंट मैसेन्जर’ द्वारा नियंत्रित, निर्धारित है। यदि देश का प्रधानमंत्री योग करते हुए, ‘हाइपर-डेकोरेटेट गार्डेन’ में टहलते हुए, आसन-प्राणायाम में ध्यानमग्न दिखाई दे रहे हैं, तो फिर देशवासियों को दुःख, तकलीफ, कष्ट, जार, क्षोभ, टीस, हुक, कसक, तनाव, अवसाद, ऊब आदि कैसे घेर सकती है? रोजगार, गरीबी, सूखा, हिंसा, अपराध, अशांति, असमानता, सुनियोजित भेदभाव आदि की फिर क्या बिसात? इसीलिए अब घोषित तौर पर टेलीविज़न अथवा अन्य जनमाध्यम में दिख रहा व्यक्तित्व (नरेन्द्र मोदी, विराट कोहली, सलमान खान इत्यादि) ही पूरे देश का तकदीर-तदबीर है। शायद इन्हीं तस्वीरों को देखते हुए अब हम अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं सम्मान को सुरक्षित-संरक्षित रखेंगे। भारतीयता के मूल बीज को अब व्यक्ति नहीं ‘यू ट्यूब’ में अपलोड कर कालजयी बनाया जाएगा। यह आरोप नहीं, बल्कि हम जिस राह पर हमारी निगाहें और बाहें हैं उसकी ‘लाइव रिपोर्टिंग’ है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आज की इस भूमंडलीकृत दुनिया में व्यक्ति के ‘इमेज’ को अधिक महत्त्वपूर्ण मान लिया गया है जबकि भारतीयता की असल कसौटी चरित्र हुआ करती है, छवियाँ नहीं। कारण कि मनुष्य का ‘व्यक्तित्व’ (Personality½ उसके चरित्र, कर्म और संस्कारों का समुच्चय है। व्यक्तित्व में अच्छे और बुरे दोनों पहलू या गुण समाहित होते हैं। सम्पूर्ण व्यक्तित्व में जो अच्छे अवयव हैं, उन्हें मनीषियों ने ‘शील’ नाम दिया है। भारतीय दृष्टि में ‘शील’ की अभिव्यक्ति एवं पहचान का माध्यम ‘धर्म’ या कत्र्तव्य है। ‘धारणात् धर्ममित्याहु’ अर्थात् जो मानव-मूल्य हमें धारण करें, वे धर्म हैं। ‘धर्म’ का कैनवास अत्यन्त विशाल है; यथा: मानुष धर्म, जीवन-धर्म, स्वधर्म, पितृ-धर्म, मातृ-धर्म, गुरु-धर्म इत्यादि। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था कि, ‘इंग्लैण्ड प्रत्येक चीज को ‘पाउण्ड’, ‘शिलिंग’ और ‘पेन्स’ में बताता है तो भारत प्रत्येक बात को धर्म की भाषा में बोलता है’। आधुनिक समाजविज्ञानी मणींद्र नाथ ठाकुर की दृष्टि में, भारतीय ‘‘धर्म जीवन-प्रणाली का अंग होता है; वह जीने की कला है जिसमें आचार-व्यवहार के अलावा प्रकृति, मनुष्य, उनके सम्बन्धों के बारे में विश्व-दृष्टि भी शामिल होती है।’’
समग्रता में समझने की चेष्टा करें, तो व्यक्तित्व अँग्रेजी के ‘Personality’ शब्द के समानार्थी रूप में प्रयुक्त है। व्यक्तित्व लैटिन शब्द ‘Persona’ से निर्मित है। व्यक्तित्व का सम्बन्ध किसी व्यक्ति-विशेष के कायिक व्यवहार और बौद्धिक मनोजगत से है। व्यक्ति के उस धरातल से जिसमें मूलप्रवृत्तियाँ, मानसिक संप्रत्यय और चारित्रिक विशिष्टताएँ नाभिनाल एक-दूसरे से जुड़ी-गुँथी होती हैं। किसी व्यक्ति का बाहरी कपाट जितना सहज है, भीतरी पाट उतना ही सूक्ष्म और सूक्ष्मतर। हम जानते हैं कि समष्टि का बोध, प्रेरण और अनुकरण व्यक्तित्व के माध्यम से होता है। इसी तरह व्यष्टि की अभिव्यक्ति का केन्द्रक या स्रोत-संचारक व्यक्तित्व है। ये वे अभिन्न विशेषताएँ हैं जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से पृथक् करती हैं। मैक्डूगल का मानना है कि व्यक्ति की समस्त मानसिक शक्तियों एवं प्रवृत्तियों की पारस्परिक घनिष्ठ क्रिया-प्रतिक्रिया की समन्वित संहति व्यक्तित्व है। वुडवर्थ और मारक्विस का मानना है कि ‘‘व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यवहार ही व्यक्तित्व है।’’ कैटल एवं कार्न की परिभाषाओं में भी मानसिक शक्तियों, आन्तरिक जीवन-व्यवहार विशेष एवं मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं पर अधिक बल दिया गया है। इसी तरह मार्टन प्रिन्स के अनुसार, ‘‘व्यक्ति की समस्त जन्मजात शारीरिक प्रकृति, प्रेरणा प्रवृत्ति, आवश्यकता, अनुभव, विकसित मानसिक दशा का कुल योग व्यक्तित्व है।’’
समझने की लिहाज से देखें, तो परिपक्व व्यक्तित्व (Mature personality) के बारे में किम्बाल यंग का मत है, ‘‘व्यक्तित्व का वह स्वरूप जिसके क्रियाकलाप अथवा अंतःक्रिया में उत्तरदायित्त्व, स्थिरता एवं कार्य-ग्रहण में निरन्तरता दिखाई देती है। इसके मापन-मूल्यांकन के लिए व्यक्ति-विशेष के कार्यों एवं उद्देश्यों के संगठन को उसके कार्यों, प्रेमी जीवन, रचनात्मकता, आदर्श एवं नैतिक मूल्यों और उसके सामान्य जीवन-दर्शन पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है।’’ परिपक्व व्यक्तित्व की ऊध्र्वाधर चेतना विकसित होने पर अंतःवृत्ति और अभिवृत्ति बदल जाते हैं। आलपोर्ट ने लिखा है, दूसरे की अभिरुचि अपने महत्त्व और मुनाफे़ से बढ़कर हो जाती है। दूसरे का कल्याण तथा सेवा अपने से अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है। इस प्रकार आत्म का विस्तार हो जाता है। दरअसल, जिसे एक व्यक्ति प्रेम करता है वह उसका भाग बन जाता है, यदि कोई किसी चीज की प्रशंसा, सहानुभूति, आदर एवं विचारपूर्वक अनुकरण या अचेतन रूप से उसके साथ अभिज्ञान करता है, वह व्यक्तित्व में अन्तःकृत हो सकता है और हमेशा उसका आवश्यक अंग बनकर रह सकता है। इसीलिए आलपोर्ट का मानना है कि, ‘बुद्धिमानी एवं तीक्ष्ण बुद्धि योजना भविष्य के लिए बनाना परिपक्वता का चिह्न है।’ किम्बाल यंग ने भी लिखा है, ‘हमारे समाज में भविष्य के लिए योजना बनाना परिपक्व व्यक्ति का चिह्न है।’ परिपक्व व्यक्तित्व का व्यक्ति उत्तरदायी होती है। वह हर कार्य को जिम्मेदारी से करता है और जीवन के उत्तरदायित्वों को समझता है। परिपक्व व्यक्तित्व का एक प्रमुख लक्षण यह भी है कि वह अपने गुणों एवं दोषों को स्वयं देख लेता है और उन पर विचार करते हुए उन्हें सुधारने की क्षमता रखता है। अतएव, किसी भी संघर्षशील व्यक्तित्व के निर्माण में उद्दीपन एवं तदनुरूप मनोदैहिक क्रियाकलाप का विशेष महत्त्व है जिनका सम्बन्ध एवं समूहन द्वंद्वात्मक होता है। उद्दीपन के दो भेद देखे जा सकते हैं-सहज और असहज। सहज उद्दीपन के कारण-कार्य के बीच भौतिक और जैविक आधार का प्राकृतिक सम्बन्ध होता है।
बहरहाल, हम यह लगभग भूल चुके हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में मनोशारीरिक गुणों का एक ऐसा गत्यात्मक संगठन (Dynamic Organisation) उपस्थित है जिसका व्यवहार वातावरण के साथ अपने-अपने ढंग से अपूर्व समायोजन करने में निपुण है। अस्तु, व्यक्तित्व में शीलगुण की स्थापना हो, इसके निमित धर्म एक संकल्पित जीवन-दृष्टि है जिसमें मूल्यों का क्षरण नहीं, अपितु हर क्षण अवतरण होता है। इसलिए धर्म व्यक्तित्व का नैसर्गिक विकास है, सामूहिकता-बोध है, अतीत के अनुभवों से वर्तमान में साक्षात्कार है। यह स्पष्ट है कि व्यक्तित्व पर हर एक पक्ष अथवा उसके अनुषंगी घटकों का व्यापक प्रभाव है। किसी क्रियाशील व्यक्ति या कि संचारक-विशेष के सन्दर्भ में उक्त प्रभाव का विश्लेषण करें, तो हम पायेंगे कि सामान्य बुद्धि, ग्रहण-शक्ति, स्मरण-शक्ति, चिन्तन-शक्ति और कल्पना ये पाँच मानसिक सामग्री के स्रोत हैं जिनसे अनुस्यूत व्यक्ति भाषा-प्रयुक्ति, तथ्य-संग्रहण एवं अपनी नवीन विचारधारा का सृजन करता है। इन पंच-स्रोतों की क्षमता हर व्यक्ति में मात्रा एवं अनुपात से भिन्न-भिन्न होती है। ध्यातव्य है कि व्यक्तित्व का भावात्मक पक्ष महत्त्वपूर्ण है जिससे किसी संचारक की वाणी, गति, तान-अनुतान, लहजा, हावभाव, मुद्रा, स्थिति एवं चेष्टाओं में होने वाले बदलाव के संकेत मिलते हैं। ओशो रजनीश की दृष्टि में, ‘‘कुएँ से भी सागर का पता चलता है, ऐसे ही किसी व्यक्ति से भी उस अनंत का पता चलता है; अगर तुम झाँक सको, तो तुम्हें पता चल सकता है। लेकिन कहीं निर्भर नहीं होना है, और किसी चीज को परतंत्रता नहीं बना लेना है।...इस जगत में हमारे सारे सम्बन्ध शक्ति के सम्बन्ध हैं; शक्ति की राजनीति (पाॅवर पोलिटिक्स) के सम्बन्ध है। शक्ति की रुचि सदा नियम में होती है। व्यक्ति की रुचि विशेष बन सकती है। व्यक्ति पक्षपाती हो सकता है, शक्ति सदा निष्पक्ष है। निष्पक्षता ही उसकी रुचि है। इसलिए जो नियम में होगा, वह होगा; जो नियम में नहीं होगा, वह नहीं होगा।’’ इसी प्रकार, बौद्धिक पक्ष द्वारा किसी व्यक्ति की आन्तरिक अनुभूति, संवेदना, आवेग एवं मनःस्थिति का आकलन सम्भव है। यह भी कि व्यक्ति में सम्बन्धित जिन-जिन गुणों एवं विशेषताओं का समावेश होता है वे सब व्यक्तित्व के अन्तर्गत ली जा सकती हैं; बशर्ते सम्मिलित गुणधर्मों से किसी प्रकार की अनावश्यक जटिलता अथवा आत्मनिष्ठता उजागर न हो।
इतना अवश्य है कि विषयभेद के अनुसार व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों में से कोई एक प्रमुखता प्राप्त कर लेता है, जैसे-चिकित्सा-शास्त्र में व्यक्ति के शारीरिक व्यक्तित्व को प्रमुखता मिलती है, तो नीति शास्त्र में व्यक्ति के चरित्र को। ध्यातव्य है कि चरित्र व्यक्ति के व्यक्तित्व की साँस है। यहाँ चरित्र से अभिप्राय व्यक्ति की प्रकृति, उसका गुण, उसकी विचारधारा, उसकी क्रियात्मकता, भाषा, रुचि, शौक, आदत, व्यवसाय एवं उसके लोक-व्यवहार से है। यद्यपि व्यक्तित्व और चरित्र का आपसी सम्बन्ध पूरकत्व का है जिसमें शब्दावली का लोकवृत्त इसी के अनुरूप घटित और प्रयुक्त होता है। विभिन्न मुद्दों, मन्तव्यों, धारणाओं, मान्यताओं, प्रश्नों इत्यादि पर बहस-मुबाहिसे की गुँजाइश भी इन्हीं चरित्र-व्यक्तित्व का अवलम्ब अथवा आश्रय ग्रहण कर व्यवहार में फलित होती है। ज्ञान का बौद्धिक-तंत्र (एपेस्टीम) स्वयं भी इन्हीं भारतीय-पाश्चात्य रूपों एवं प्रारूपों का अनुसरणकर्ता है। पुरोहितवादी पाखण्ड से इतर भारतीय व्यक्तित्व अपने गठन में विनयशील और कृपालु है क्योंकि उसके साथ धर्म-आधारित जीवन-प्रणाली तथा मूल्य-चक्र जुड़े हुए हैं। उसका मन चेतस है, तो आनुभाविक-कोष जाग्रत है। अतएव, ‘‘दीर्घ आयु, अमृत जीवन, स्वास्थ्य, ऊर्जित प्राण-शक्ति, निर्विकार, इन्द्रिय धारणा, निश्चल धृति, मनःशान्ति-ये सब उपयोगी भाव मानसिक संकल्पों से प्राप्त किए जा सकते हैं।...पूर्णतया मनुष्य की जो भारतीय कल्पना है, उसमें उसे सत्यकाम और सत्यसंकल्प होना चाहिए। जीवन की सफलता या पूर्णता की कसौटी भी यही है कि हम किस मात्रा में अपने-आपको सत्यकाम बना सके और जीवन में कितने सत्य संकल्पों का लाभ हमें प्राप्त हुआ। संकल्प की एक वैदिक संज्ञा ऋतु है। मनुष्य ऋतुमय प्राणी है। ऋतु का सम्बन्ध कर्म से है। कर्म के द्वारा ऋतु या संकल्प की पूर्ति होती है। एक ओर ऋतु दूसरी ओर कर्म। इन्हीं दोनों के बीच में मनुष्य-जीवन है।’’
बहरहाल, हम यह लगभग भूल चुके हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में मनोशारीरिक गुणों का एक ऐसा गत्यात्मक संगठन (Dynamic Organisation) उपस्थित है जिसका व्यवहार वातावरण के साथ अपने-अपने ढंग से अपूर्व समायोजन करने में निपुण है। अस्तु, व्यक्तित्व में शीलगुण की स्थापना हो, इसके निमित धर्म एक संकल्पित जीवन-दृष्टि है जिसमें मूल्यों का क्षरण नहीं, अपितु हर क्षण अवतरण होता है। इसलिए धर्म व्यक्तित्व का नैसर्गिक विकास है, सामूहिकता-बोध है, अतीत के अनुभवों से वर्तमान में साक्षात्कार है। यह स्पष्ट है कि व्यक्तित्व पर हर एक पक्ष अथवा उसके अनुषंगी घटकों का व्यापक प्रभाव है। किसी क्रियाशील व्यक्ति या कि संचारक-विशेष के सन्दर्भ में उक्त प्रभाव का विश्लेषण करें, तो हम पायेंगे कि सामान्य बुद्धि, ग्रहण-शक्ति, स्मरण-शक्ति, चिन्तन-शक्ति और कल्पना ये पाँच मानसिक सामग्री के स्रोत हैं जिनसे अनुस्यूत व्यक्ति भाषा-प्रयुक्ति, तथ्य-संग्रहण एवं अपनी नवीन विचारधारा का सृजन करता है। इन पंच-स्रोतों की क्षमता हर व्यक्ति में मात्रा एवं अनुपात से भिन्न-भिन्न होती है। ध्यातव्य है कि व्यक्तित्व का भावात्मक पक्ष महत्त्वपूर्ण है जिससे किसी संचारक की वाणी, गति, तान-अनुतान, लहजा, हावभाव, मुद्रा, स्थिति एवं चेष्टाओं में होने वाले बदलाव के संकेत मिलते हैं। ओशो रजनीश की दृष्टि में, ‘‘कुएँ से भी सागर का पता चलता है, ऐसे ही किसी व्यक्ति से भी उस अनंत का पता चलता है; अगर तुम झाँक सको, तो तुम्हें पता चल सकता है। लेकिन कहीं निर्भर नहीं होना है, और किसी चीज को परतंत्रता नहीं बना लेना है।...इस जगत में हमारे सारे सम्बन्ध शक्ति के सम्बन्ध हैं; शक्ति की राजनीति (पाॅवर पोलिटिक्स) के सम्बन्ध है। शक्ति की रुचि सदा नियम में होती है। व्यक्ति की रुचि विशेष बन सकती है। व्यक्ति पक्षपाती हो सकता है, शक्ति सदा निष्पक्ष है। निष्पक्षता ही उसकी रुचि है। इसलिए जो नियम में होगा, वह होगा; जो नियम में नहीं होगा, वह नहीं होगा।’’ इसी प्रकार, बौद्धिक पक्ष द्वारा किसी व्यक्ति की आन्तरिक अनुभूति, संवेदना, आवेग एवं मनःस्थिति का आकलन सम्भव है। यह भी कि व्यक्ति में सम्बन्धित जिन-जिन गुणों एवं विशेषताओं का समावेश होता है वे सब व्यक्तित्व के अन्तर्गत ली जा सकती हैं; बशर्ते सम्मिलित गुणधर्मों से किसी प्रकार की अनावश्यक जटिलता अथवा आत्मनिष्ठता उजागर न हो।
इतना अवश्य है कि विषयभेद के अनुसार व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों में से कोई एक प्रमुखता प्राप्त कर लेता है, जैसे-चिकित्सा-शास्त्र में व्यक्ति के शारीरिक व्यक्तित्व को प्रमुखता मिलती है, तो नीति शास्त्र में व्यक्ति के चरित्र को। ध्यातव्य है कि चरित्र व्यक्ति के व्यक्तित्व की साँस है। यहाँ चरित्र से अभिप्राय व्यक्ति की प्रकृति, उसका गुण, उसकी विचारधारा, उसकी क्रियात्मकता, भाषा, रुचि, शौक, आदत, व्यवसाय एवं उसके लोक-व्यवहार से है। यद्यपि व्यक्तित्व और चरित्र का आपसी सम्बन्ध पूरकत्व का है जिसमें शब्दावली का लोकवृत्त इसी के अनुरूप घटित और प्रयुक्त होता है। विभिन्न मुद्दों, मन्तव्यों, धारणाओं, मान्यताओं, प्रश्नों इत्यादि पर बहस-मुबाहिसे की गुँजाइश भी इन्हीं चरित्र-व्यक्तित्व का अवलम्ब अथवा आश्रय ग्रहण कर व्यवहार में फलित होती है। ज्ञान का बौद्धिक-तंत्र (एपेस्टीम) स्वयं भी इन्हीं भारतीय-पाश्चात्य रूपों एवं प्रारूपों का अनुसरणकर्ता है। पुरोहितवादी पाखण्ड से इतर भारतीय व्यक्तित्व अपने गठन में विनयशील और कृपालु है क्योंकि उसके साथ धर्म-आधारित जीवन-प्रणाली तथा मूल्य-चक्र जुड़े हुए हैं। उसका मन चेतस है, तो आनुभाविक-कोष जाग्रत है। अतएव, ‘‘दीर्घ आयु, अमृत जीवन, स्वास्थ्य, ऊर्जित प्राण-शक्ति, निर्विकार, इन्द्रिय धारणा, निश्चल धृति, मनःशान्ति-ये सब उपयोगी भाव मानसिक संकल्पों से प्राप्त किए जा सकते हैं।...पूर्णतया मनुष्य की जो भारतीय कल्पना है, उसमें उसे सत्यकाम और सत्यसंकल्प होना चाहिए। जीवन की सफलता या पूर्णता की कसौटी भी यही है कि हम किस मात्रा में अपने-आपको सत्यकाम बना सके और जीवन में कितने सत्य संकल्पों का लाभ हमें प्राप्त हुआ। संकल्प की एक वैदिक संज्ञा ऋतु है। मनुष्य ऋतुमय प्राणी है। ऋतु का सम्बन्ध कर्म से है। कर्म के द्वारा ऋतु या संकल्प की पूर्ति होती है। एक ओर ऋतु दूसरी ओर कर्म। इन्हीं दोनों के बीच में मनुष्य-जीवन है।’’
इस उत्तर शती में जिनका व्यक्तित्व विवेकशील और आत्मा चिन्तनशील है, वह अपने कथन के शब्दार्थ से ही नहीं, बल्कि जिससे कहा जा रहा है उसके कर्म और मर्म से भी सुपरिचित होते हैं। सही व्यक्तित्व की पहचान यह है कि वह आधुनिक जुमले और मुहावरों को भर मुँह उवाचता भर नहीं है, बल्कि उसे करने हेतु दृढ़संकल्पित भी होता है। उसे सदैव यह भान होता है कि एक विकासशील देश का नेतृत्वकर्ता यदि चरित्रहीन, भ्रष्ट और पतित हुआ, तो देशवासियों का जीवन नरक होते देर न लगेगा। इसीलिए भारतीय चिन्तन-दृष्टि में व्यक्तित्व को विशेष महत्त्व प्राप्त है।