Thursday, June 14, 2018

भारतीय मानुष : बाज़ार से इतर का व्यक्तित्व

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राजीव रंजन प्रसाद
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यह समय का फेर है कि इन दिनों फ़रेब, जालसाजी, षड़यंत्र, धोखा, ईष्र्या, कटुता, कपटता आदि का बोलबाला है। इसका कारण एक यह भी है कि हमारा व्यक्तित्व अब ‘ह्युमन बिंग’ से ‘डिजिटल बिंग’ में तब्दील हो रहा है। नेट-वेब आधारित तकनीकी-प्रौद्योगिकी आश्रित संजाल ने हमारे व्यक्तित्व को ‘आॅक्टोपस’ की भाँति जकड़ लिया है। अब पूरा राष्ट्र ‘पाॅलिटिक्ल वर्चुअलिटी’ की गोद में है। राजनीति हमें सिखा रही है कि-‘आदर्श जीवन’ क्या है? जन-जन के मन में क्या है? यही नहीं सरकारी-तंत्र का शासकीय-मानस भी अब ‘इवेंट कंटेंट मैसेन्जर’ द्वारा नियंत्रित, निर्धारित है। यदि देश का प्रधानमंत्री योग करते हुए, ‘हाइपर-डेकोरेटेट गार्डेन’ में टहलते हुए, आसन-प्राणायाम में ध्यानमग्न दिखाई दे रहे हैं, तो फिर देशवासियों को दुःख, तकलीफ, कष्ट, जार, क्षोभ, टीस, हुक, कसक, तनाव, अवसाद, ऊब आदि कैसे घेर सकती है? रोजगार, गरीबी, सूखा, हिंसा, अपराध, अशांति, असमानता, सुनियोजित भेदभाव आदि की फिर क्या बिसात? इसीलिए अब घोषित तौर पर टेलीविज़न अथवा अन्य जनमाध्यम में दिख रहा व्यक्तित्व (नरेन्द्र मोदी, विराट कोहली, सलमान खान इत्यादि) ही पूरे देश का तकदीर-तदबीर है। शायद इन्हीं तस्वीरों को देखते हुए अब हम अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं सम्मान को सुरक्षित-संरक्षित रखेंगे। भारतीयता के मूल बीज को अब व्यक्ति नहीं ‘यू ट्यूब’ में अपलोड कर कालजयी बनाया जाएगा। यह आरोप नहीं, बल्कि हम जिस राह पर हमारी निगाहें और बाहें हैं उसकी ‘लाइव रिपोर्टिंग’ है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आज की इस भूमंडलीकृत दुनिया में व्यक्ति के ‘इमेज’ को अधिक महत्त्वपूर्ण मान लिया गया है जबकि भारतीयता की असल कसौटी चरित्र हुआ करती है, छवियाँ नहीं। कारण कि मनुष्य का ‘व्यक्तित्व’ (Personality½ उसके चरित्र, कर्म और संस्कारों का समुच्चय है। व्यक्तित्व में अच्छे और बुरे दोनों पहलू या गुण समाहित होते हैं। सम्पूर्ण व्यक्तित्व में जो अच्छे अवयव हैं, उन्हें मनीषियों ने ‘शील’ नाम दिया है। भारतीय दृष्टि में ‘शील’ की अभिव्यक्ति एवं पहचान का माध्यम ‘धर्म’ या कत्र्तव्य है। ‘धारणात् धर्ममित्याहु’ अर्थात् जो मानव-मूल्य हमें धारण करें, वे धर्म हैं। ‘धर्म’ का कैनवास अत्यन्त विशाल है; यथा: मानुष धर्म, जीवन-धर्म, स्वधर्म, पितृ-धर्म, मातृ-धर्म, गुरु-धर्म इत्यादि। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था कि, ‘इंग्लैण्ड प्रत्येक चीज को ‘पाउण्ड’, ‘शिलिंग’ और ‘पेन्स’ में बताता है तो भारत प्रत्येक बात को धर्म की भाषा में बोलता है’। आधुनिक समाजविज्ञानी मणींद्र नाथ ठाकुर की दृष्टि में, भारतीय ‘‘धर्म जीवन-प्रणाली का अंग होता है; वह जीने की कला है जिसमें आचार-व्यवहार के अलावा प्रकृति, मनुष्य, उनके सम्बन्धों के बारे में विश्व-दृष्टि भी शामिल होती है।’’  

समग्रता में समझने की चेष्टा करें, तो व्यक्तित्व अँग्रेजी के ‘Personality’ शब्द के समानार्थी रूप में प्रयुक्त है। व्यक्तित्व लैटिन शब्द ‘Persona’ से निर्मित है। व्यक्तित्व का सम्बन्ध किसी व्यक्ति-विशेष के कायिक व्यवहार और बौद्धिक मनोजगत से है। व्यक्ति के उस धरातल से जिसमें मूलप्रवृत्तियाँ, मानसिक संप्रत्यय और चारित्रिक विशिष्टताएँ नाभिनाल एक-दूसरे से जुड़ी-गुँथी होती हैं। किसी व्यक्ति का बाहरी कपाट जितना सहज है, भीतरी पाट उतना ही सूक्ष्म और सूक्ष्मतर। हम जानते हैं कि समष्टि का बोध, प्रेरण और अनुकरण व्यक्तित्व के माध्यम से होता है। इसी तरह व्यष्टि की अभिव्यक्ति का केन्द्रक या स्रोत-संचारक व्यक्तित्व है। ये वे अभिन्न विशेषताएँ हैं जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से पृथक् करती हैं। मैक्डूगल का मानना है कि व्यक्ति की समस्त मानसिक शक्तियों एवं प्रवृत्तियों की पारस्परिक घनिष्ठ क्रिया-प्रतिक्रिया की समन्वित संहति व्यक्तित्व है। वुडवर्थ और मारक्विस का मानना है कि ‘‘व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यवहार ही व्यक्तित्व है।’’ कैटल एवं कार्न की परिभाषाओं में भी मानसिक शक्तियों, आन्तरिक जीवन-व्यवहार विशेष एवं मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं पर अधिक बल दिया गया है। इसी तरह मार्टन प्रिन्स के अनुसार, ‘‘व्यक्ति की समस्त जन्मजात शारीरिक प्रकृति, प्रेरणा प्रवृत्ति, आवश्यकता, अनुभव, विकसित मानसिक दशा का कुल योग व्यक्तित्व है।’’ 

समझने की लिहाज से देखें, तो परिपक्व व्यक्तित्व (Mature personality) के बारे में किम्बाल यंग का मत है, ‘‘व्यक्तित्व का वह स्वरूप जिसके क्रियाकलाप अथवा अंतःक्रिया में उत्तरदायित्त्व, स्थिरता एवं कार्य-ग्रहण में निरन्तरता दिखाई देती है। इसके मापन-मूल्यांकन के लिए व्यक्ति-विशेष के कार्यों एवं उद्देश्यों के संगठन को उसके कार्यों, प्रेमी जीवन, रचनात्मकता, आदर्श एवं नैतिक मूल्यों और उसके सामान्य जीवन-दर्शन पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है।’’ परिपक्व व्यक्तित्व की ऊध्र्वाधर चेतना विकसित होने पर अंतःवृत्ति और अभिवृत्ति बदल जाते हैं। आलपोर्ट ने लिखा है, दूसरे की अभिरुचि अपने महत्त्व और मुनाफे़ से बढ़कर हो जाती है। दूसरे का कल्याण तथा सेवा अपने से अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है। इस प्रकार आत्म का विस्तार हो जाता है। दरअसल, जिसे एक व्यक्ति प्रेम करता है वह उसका भाग बन जाता है, यदि कोई किसी चीज की प्रशंसा, सहानुभूति, आदर एवं विचारपूर्वक अनुकरण या अचेतन रूप से उसके साथ अभिज्ञान करता है, वह व्यक्तित्व में अन्तःकृत हो सकता है और हमेशा उसका आवश्यक अंग बनकर रह सकता है। इसीलिए आलपोर्ट का मानना है कि, ‘बुद्धिमानी एवं तीक्ष्ण बुद्धि योजना भविष्य के लिए बनाना परिपक्वता का चिह्न है।’ किम्बाल यंग ने भी लिखा है, ‘हमारे समाज में भविष्य के लिए योजना बनाना परिपक्व व्यक्ति का चिह्न है।’ परिपक्व व्यक्तित्व का व्यक्ति उत्तरदायी होती है। वह हर कार्य को जिम्मेदारी से करता है और जीवन के उत्तरदायित्वों को समझता है। परिपक्व व्यक्तित्व का एक प्रमुख लक्षण यह भी है कि वह अपने गुणों एवं दोषों को स्वयं देख लेता है और उन पर विचार करते हुए उन्हें सुधारने की क्षमता रखता है। अतएव, किसी भी संघर्षशील व्यक्तित्व के निर्माण में उद्दीपन एवं तदनुरूप मनोदैहिक क्रियाकलाप का विशेष महत्त्व है जिनका सम्बन्ध एवं समूहन द्वंद्वात्मक होता है। उद्दीपन के दो भेद देखे जा सकते हैं-सहज और असहज। सहज उद्दीपन के कारण-कार्य के बीच भौतिक और जैविक आधार का प्राकृतिक सम्बन्ध होता है।

बहरहाल, हम यह लगभग भूल चुके हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में मनोशारीरिक गुणों का एक ऐसा गत्यात्मक संगठन (Dynamic Organisation) उपस्थित है जिसका व्यवहार वातावरण के साथ अपने-अपने ढंग से अपूर्व समायोजन करने में निपुण है। अस्तु, व्यक्तित्व में शीलगुण की स्थापना हो, इसके निमित धर्म एक संकल्पित जीवन-दृष्टि है जिसमें मूल्यों का क्षरण नहीं, अपितु हर क्षण अवतरण होता है। इसलिए धर्म व्यक्तित्व का नैसर्गिक विकास है, सामूहिकता-बोध है, अतीत के अनुभवों से वर्तमान में साक्षात्कार है। यह स्पष्ट है कि व्यक्तित्व पर हर एक पक्ष अथवा उसके अनुषंगी घटकों का व्यापक प्रभाव है। किसी क्रियाशील व्यक्ति या कि संचारक-विशेष के सन्दर्भ में उक्त प्रभाव का विश्लेषण करें, तो हम पायेंगे कि सामान्य बुद्धि, ग्रहण-शक्ति, स्मरण-शक्ति, चिन्तन-शक्ति और कल्पना ये पाँच मानसिक सामग्री के स्रोत हैं जिनसे अनुस्यूत व्यक्ति भाषा-प्रयुक्ति, तथ्य-संग्रहण एवं अपनी नवीन विचारधारा का सृजन करता है। इन पंच-स्रोतों की क्षमता हर व्यक्ति में मात्रा एवं अनुपात से भिन्न-भिन्न होती है। ध्यातव्य है कि व्यक्तित्व का भावात्मक पक्ष महत्त्वपूर्ण है जिससे किसी संचारक की वाणी, गति, तान-अनुतान, लहजा, हावभाव, मुद्रा, स्थिति एवं चेष्टाओं में होने वाले बदलाव के संकेत मिलते हैं। ओशो रजनीश की दृष्टि में, ‘‘कुएँ से भी सागर का पता चलता है, ऐसे ही किसी व्यक्ति से भी उस अनंत का पता चलता है; अगर तुम झाँक सको, तो तुम्हें पता चल सकता है। लेकिन कहीं निर्भर नहीं होना है, और किसी चीज को परतंत्रता नहीं बना लेना है।...इस जगत में हमारे सारे सम्बन्ध शक्ति के सम्बन्ध हैं; शक्ति की राजनीति (पाॅवर पोलिटिक्स) के सम्बन्ध है। शक्ति की रुचि सदा नियम में होती है। व्यक्ति की रुचि विशेष बन सकती है। व्यक्ति पक्षपाती हो सकता है, शक्ति सदा निष्पक्ष है। निष्पक्षता ही उसकी रुचि है। इसलिए जो नियम में होगा, वह होगा; जो नियम में नहीं होगा, वह नहीं होगा।’’  इसी प्रकार, बौद्धिक पक्ष द्वारा किसी व्यक्ति की आन्तरिक अनुभूति, संवेदना, आवेग एवं मनःस्थिति का आकलन सम्भव है। यह भी कि व्यक्ति में सम्बन्धित जिन-जिन गुणों एवं विशेषताओं का समावेश होता है वे सब व्यक्तित्व के अन्तर्गत ली जा सकती हैं; बशर्ते सम्मिलित गुणधर्मों से किसी प्रकार की अनावश्यक जटिलता अथवा आत्मनिष्ठता उजागर न हो।

इतना अवश्य है कि विषयभेद के अनुसार व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों में से कोई एक प्रमुखता प्राप्त कर लेता है, जैसे-चिकित्सा-शास्त्र में व्यक्ति के शारीरिक व्यक्तित्व को प्रमुखता मिलती है, तो नीति शास्त्र में व्यक्ति के चरित्र को। ध्यातव्य है कि चरित्र व्यक्ति के व्यक्तित्व की साँस है। यहाँ चरित्र से अभिप्राय व्यक्ति की प्रकृति, उसका गुण, उसकी विचारधारा, उसकी क्रियात्मकता, भाषा, रुचि, शौक, आदत, व्यवसाय एवं उसके लोक-व्यवहार से है। यद्यपि व्यक्तित्व और चरित्र का आपसी सम्बन्ध पूरकत्व का है जिसमें शब्दावली का लोकवृत्त इसी के अनुरूप घटित और प्रयुक्त होता है। विभिन्न मुद्दों, मन्तव्यों, धारणाओं, मान्यताओं, प्रश्नों इत्यादि पर बहस-मुबाहिसे की गुँजाइश भी इन्हीं चरित्र-व्यक्तित्व का अवलम्ब अथवा आश्रय ग्रहण कर व्यवहार में फलित होती है। ज्ञान का बौद्धिक-तंत्र (एपेस्टीम) स्वयं भी इन्हीं भारतीय-पाश्चात्य रूपों एवं प्रारूपों का अनुसरणकर्ता है। पुरोहितवादी पाखण्ड से इतर भारतीय व्यक्तित्व अपने गठन में विनयशील और कृपालु है क्योंकि उसके साथ धर्म-आधारित जीवन-प्रणाली तथा मूल्य-चक्र जुड़े हुए हैं। उसका मन चेतस है, तो आनुभाविक-कोष जाग्रत है। अतएव, ‘‘दीर्घ आयु, अमृत जीवन, स्वास्थ्य, ऊर्जित प्राण-शक्ति, निर्विकार, इन्द्रिय धारणा, निश्चल धृति, मनःशान्ति-ये सब उपयोगी भाव मानसिक संकल्पों से प्राप्त किए जा सकते हैं।...पूर्णतया मनुष्य की जो भारतीय कल्पना है, उसमें उसे सत्यकाम और सत्यसंकल्प होना चाहिए। जीवन की सफलता या पूर्णता की कसौटी भी यही है कि हम किस मात्रा में अपने-आपको सत्यकाम बना सके और जीवन में कितने सत्य संकल्पों का लाभ हमें प्राप्त हुआ। संकल्प की एक वैदिक संज्ञा ऋतु है। मनुष्य ऋतुमय प्राणी है। ऋतु का सम्बन्ध कर्म से है। कर्म के द्वारा ऋतु या संकल्प की पूर्ति होती है। एक ओर ऋतु दूसरी ओर कर्म। इन्हीं दोनों के बीच में मनुष्य-जीवन है।’’  

इस उत्तर शती में जिनका व्यक्तित्व विवेकशील और आत्मा चिन्तनशील है, वह अपने कथन के शब्दार्थ से ही नहीं, बल्कि जिससे कहा जा रहा है उसके कर्म और मर्म से भी सुपरिचित होते हैं। सही व्यक्तित्व की पहचान यह है कि वह आधुनिक जुमले और मुहावरों को भर मुँह उवाचता भर नहीं है, बल्कि उसे करने हेतु दृढ़संकल्पित भी होता है। उसे सदैव यह भान होता है कि एक विकासशील देश का नेतृत्वकर्ता यदि चरित्रहीन, भ्रष्ट और पतित हुआ, तो देशवासियों का जीवन नरक होते देर न लगेगा। इसीलिए भारतीय चिन्तन-दृष्टि में व्यक्तित्व को विशेष महत्त्व प्राप्त है।

Wednesday, June 13, 2018

पाठकीयता के मयखाने में किताब

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राजीव रंजन प्रसाद
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‘आलोचना’  पत्रिका के 54वें अंक में कमल नयन चौबे की यह टिप्पणी समीचीन है कि, ‘‘बहुत सी ऐसी किताबें हैं जिनमें उत्तर-औपनिवेशिक दौर के भारतीय लोकतंत्र की गहराई से विवेचना की गई है और इसमें इस दौर के अधिकांश मुद्दों का विश्लेषण किया गया है। मसलन, रामचन्द्र गुहा की किताब ‘इंडिया आॅफ्टर गाँधी: द हिस्ट्री आॅफ द वल्ड्र्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी (2007) में आजादी के बाद के दौर के भारतीय लोकतंत्र की कहानी प्रस्तुत की गई है। इसमें रजवाड़ों के विलय, भाषा आन्दोलन, नक्सल आन्दोलन, आपातकाल, सिख विरोधी दंगों, खालिस्तान आन्दोलन, राम-मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद, मंडल आन्दोलन आदि कई पहलुओं की विवेचना की गई है। पाॅल ब्रास की 1990 में प्रकाशित किताब ‘द पाॅलिटिक्स आँफ इंडिया सिन्स इंडिपेंडेंस’ भी इस समय तक की देश की राजनीति के विभिन्न आयामों का एक बेहतरीन विश्लेषण प्रस्तुत करती है। 1977 ई. मंे आपातकाल ख़त्म हुआ और फिर से लोकतांत्रिक शासन और अधिकार बहाल हुए। जहाँ एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम के तौर पर आपातकाल के बारे में इस दौर के बारे मे बताने वाली अधिसंख्य किताबों में उल्लेख किया गया है-मसलन गुहा (2007); ब्रांस (1990), लेकिन इसके बारे में ज्यादा गहन विश्लेषण के लिए इम्मा टारलो की किताब ‘इम्मा टारलो अनसेटलिंग मेमोरीज: नैरेटिव्स आॅफ इंडिया’ज इमरजेंसी’ (2003) देखी जा सकती है।“ इसी तरह “फैंसीन आर. फ्रैंकल की किताब ‘इंडिया’ज पाॅलिटिकल इकोनाॅमी, 1947-2004; अचीन विनायक (1995), फ्रैंकेल और राव (सम्पा.) (1990) जैसी किताबों में स्वतन्त्र भारत के राजनीतिक घटनाक्रम का विस्तृत विश्लेषण उपलब्ध है। समकालीन भारत के कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों की समझ कायम करने के लिए सतीश देशपाण्डे की कृति ‘कंटेम्पररी इंडिया: अ सोशियोलाॅजिक व्यू (2003)’ एक महत्त्वपूर्ण किताब है। भारतीय लोकतंत्र के विश्लेषण का एक महत्त्वपूर्ण आयाम भारतीय राज्य की प्रकृति की समझ कायम करना भी रहा है। प्रणव बर्द्धन ने ‘द पाॅलिटिकल इकनाॅमी आॅफ डिवलपमेंट इन इंडिया’ (1984) शीर्षक अपनी पुस्तक में पूँजीपतियों, अमीर किसानों और नौकरशाही को तीन प्रभुत्वशाली  वर्गों के रूप में रेखांकित किया है। उनके अनुसार, ये तीनों वर्ग राजनीतिक स्पेस पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए एक-दूसरे से गठजोड़ बनाते हैं और इसमें राज्य सापेक्षिक रूप से स्वायत्त स्थिति में बना रहता है। अचिन विनायक ने अपनी किताब ‘द पेनफुल ट्रांजिशन’ (1990) में प्रभुत्वशाली गठजोड़ की अवधारणा को अपनाया है। इसी तरह रूडाॅल्फ और रूडाॅल्फ ने भी अपनी पुस्तक ‘इन परसुईट आॅफ लक्ष्मी’ (1987) में इस बात पर बल दिया कि प्रभुत्वशाली गठबंधन में अमीर किसानों या खेतीहर पूँजीपतियों के प्रभाव में बढ़ोतरी हुई है। 

इस सन्दर्भ में फैंसीन फैंकेल और एम. एस. ए. राव द्वारा सम्पादित किताब ‘डाॅमिनेन्स ऐंड स्टेट पावर इन इंडिया: डिक्लाइन आॅफ अ सोशल आॅर्डर’ (1990) भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें लेखकों ने नौकरशाही और संगठित श्रम जैसी सार्वजनिक संस्थाओं और विधायिका और राजनीतिक दलों जैसी राजनीतिक संस्थाओं के बीच अन्तर किया है। इन्होंने यह तर्क दिया है कि स्वतन्त्र भारत में राजनीति के इतिहास में यह देखा जा सकता है कि निम्न जातियाँ या गरीब वर्ग जैसे पहले के निम्न हैसियत वाले समूहों की शक्ति का उदय हुआ है, वहीं ऊँची जातियों और मध्यवर्ग ने सार्वजनिक संस्थाओं के माध्यम से अपना वर्चस्व कायम रखने का प्रयास किया है। नब्बे के दशक में, विशेष रूप से उत्तर भारत की राजनीति में दलितों और पिछड़े जातियों का उभार हुआ। संसदीय राजनीति में पिछड़े समूहों के इस उभार के अध्ययन के लिए क्रिस्टाॅफ जैफरेलाॅ की पुस्तक ‘इंडियाज साइलेंट रिवोल्यूशन: द राइज आॅफ लोअर काॅस्ट्स इन नार्थ इंडिया (2003) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। रामचन्द्र गुहा (2007), निवेदिता मेनन और आदित्य निगम (2007) तथा अभय कुमार दुबे द्वारा सम्पादित किताब ‘लोकतंत्र के सात अध्याय’ (2002) अपनी किताब के कुछ अध्यायों में दलित राजनीति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। आधुनिकीकरण और दलितों पर इसके प्रभाव के सन्दर्भ में अभय कुमार दुबे द्वारा सम्पादित किताब ‘आधुनिकता के आईने में दलित’ (2003) भी एक विशिष्ट रचना है जिसमें डी. एस. नागराज, गोपाल गुरू और कई अन्य महत्त्वपूर्ण समाजवैज्ञानिकों के दलित प्रश्न-सम्बन्धी शोधालेख सम्मिलित हैं। इसमें आधुनिकता के सापेक्ष दलितों की समस्याओं के समाधान में आने वाली दिक्कतों और उम्मीदों का परीक्षण किया गया है। उत्तर औपनिवेशिक दौर में भारतीय लोकतंत्र की स्थिति और राज्य से इसकी अन्तःक्रिया को समझने के लिए पार्थ चटर्जी की रचना ‘पाॅलिटिक्स आॅफ गवर्नड’ (2004) काफी महत्त्वपूर्ण है। चटर्जी ने इसमें राजनीतिक समाज (पाॅलिटिकल सोसायटी) की अवधारणा प्रस्तुत की है जो पढ़े-लिखे और वास्तविक अर्थों में संविधान-प्रदत अधिकारों का प्रयोग करने वाले छोटे नागरिक समाज से अलग होती है। राजनीतिक समाज के सदस्यों की जीविका सम्बन्धी अधिकांश गतिविधियाँ ‘गैरकानूनी’ कामों के दायरे में चली जाती हैं और राज्य इनकी गोलबन्दी के आधार पर इनकी माँगों को स्वीकार या अस्वीकार करता है। 

भारत में लोकतंत्र की चुनौतियों के सन्दर्भ में प्रताप भानु मेहता की किताब ‘द बर्डन आॅफ डेमोक्रेसी’ भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि सामाजिक असमानता और राज्य के कार्यों के बारे में ग़लत समझ ने भारतीय लोकतंत्र के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। वे आत्मसम्मान की चाह को लोकतन्त्र की सबसे गहरी आकांक्षा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और इस बात पर बल देते हैं कि असमानता और जवाबदेही के संकट से उबरना भारतीय लोकतंत्र के लिए कठिन परीक्षा है। भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में उत्तर-पूर्व के मुद्दों की समझ भी आवश्यक है। ये प्रदेश अक्सर विद्रोही गतिविधियों के कारण अशान्त रहे हैं और ‘मुख्यधारा’ की राजनीति में इसकी इसी कारण से ज्यादा चर्चा होती रही है। विधायिका में काफी कम प्रतिनिधित्व के कारण भी यह क्षेत्र उपेक्षा का शिकार हो जाता है। इस सन्दर्भ में संजीब बरुआ की ‘ड्युरेबल डिस्आॅर्डर: अंडरस्टैंडिंग द पाॅलिटिक्स आॅफ नार्थईस्ट इंडिया’ (2005) देखी जा सकती है।“

भारत में लोकतंत्र और उसका लिखित संविधान आम-आदमी का वेद, वेदांग, उपनिषद्, कुरान, बाईबिल, गुरुग्रंथसाहिब सबकुछ है। भारतीय लोकतंत्र की समझ के लिए भारत के संविधान के निर्माण, इससे सम्बन्धित विविध वाद-विवाद, संविधान के माध्यम से तैयार संस्थाओं की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उनके अधिकार और अनुभवों की समझ आवश्यक है। इस सन्दर्भ में कई महत्त्वपूर्ण किताबों का उल्लेख किया जा सकता है। “भारत में संविधान सभा में हुई बहस और इसकी विभिन्न समितियों के कामों को समझने के लिए ग्रेनविले आॅस्टिन की किताब ‘द इंडियन काॅन्स्टीट्युशन काॅर्नरस्टोन आॅफ अ नेशन’ (1966) को एक बुनियादी किताब का दर्जा दिया जाता है। इसमें संविधान के अन्तर्निहित सामाजिक उद्देश्य, लोकतान्त्रिक सरकार की पारम्परिक संस्थाओं (कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका) की स्थापना; भारतीय संघवाद के विशिष्ट स्वरूप, भाषाई प्रावधानों के निर्माण और संविधान सभा की प्रकृति का विश्लेषण किया गया हे। आॅस्टिन ने एकता, सामाजिक क्रांति और लोकतन्त्र को एक ‘निर्बाध वेब’ (सीमलेस वेब) की तीन विशिष्ट धाराओं का दर्जा दिया हे। भारत के संविधान के विविध प्रावधानों की समझ के लिए दुर्गा दास बसु की कृति ‘इंट्रोडक्शन टू द काॅन्स्टीट्युशन आॅफ इंडिया’ (1985) काफी महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय किताब है। इसमें संविधान के विविध भागों के विकास और अन्य ऐतिहासिक तथ्यों, सांविधानिक प्रावधानों, संविधान संशोधनों और महत्त्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों और व्याख्याओं का उल्लेख किया गया है। ग्रेनविले आॅस्टिन ने 1999 में प्रकाशित अपनी दूसरी किताब ‘वर्किंग अ डेमोक्रेटिक काॅन्स्टीट्युशन: अ हिस्ट्र आॅफ इंडियन एक्सपीरियन्स’ में भारतीय संविधान के लागू होने के बाद के आरंभिक चार दशकों में इस संविधान के अनुभवों का विश्लेषण किया है। इसमें आजादी के बाद के दौर के अद्भुत आदर्शवाद और आपातकाल के संकट भरे दौर से गुजरते हुए 1990 के दशक की शुरुआत तक के अनुभवों का गहन परीक्षण किया गया है। भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति को समझने के लिए राजनीति के अद्भुत व्याख्याकार रजनी कोठारी ने समय-समय पर कई सूत्रीकरण प्रस्तुत किए। साठ के दशक में उन्होंने कांग्रेस के वर्चस्व वाली व्यवस्था की व्याख्या करने के लिए ‘कांग्रेस प्रणाली’ (1964) की अवधारणा प्रस्तुत की। 1970 में प्रकाशित अपनी किताब ‘पाॅलिटिक्स इन इंडिया’ में उन्होंने संरचनात्मक प्रकार्यात्मक रूपरेखा का प्रयोग करते हुए भारतीय राज्य और राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण किया। इसी प्रकार, अपनी सम्पादित किताब ‘कास्ट इन इंडियन पाॅलिटिक्स’ में उन्होंने भारतीय राजनीति में जाति आधारित गोलबन्दी की व्याख्या करते हुए यह तर्क प्रस्तुत किया कि दरअसल, यह राजनीति में जातिवाद नहीं है बल्कि जातियों का राजनीतिकरण है। अस्सी के दशक में राज्य के बढ़ते दमनकारी स्वरूप और मानवाधिकारों की चिन्ता को अभिव्यक्त करते हुए उन्होंने ‘स्टेट अगेंस्ट डेमोक्रेसी: इन सर्च आॅफ अ ह््युमन गवर्नेंस’ (1989) की रचना की। यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि अभय कुमार दुबे ने रजनी कोठारी के प्रमुख शोध आलेखों का हिन्दी अनुवाद और सम्पादन किया है, जो कि ‘राजनीति की किताब’ (2003) शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह किताब इसलिए भी काफी उपयोगी है कि इसमें कोठारी के साथ एक लम्बा साक्षात्कार भी शामिल किया गया है जिससे उनकी वैचारिक यात्रा और विचारों में होने वाले बदलावों को आसानी से समझा जा सकता है। 

अन्य कई लेखकों ने भी अस्सी के दशक में राज्य के बढ़ते दमनकारी स्वरूप और इसके द्वारा थोपे गए विकास में निहित हिंसक विस्थापन जैसे सवालों का विश्लेषण किया। इस विषय पर आशीष नंदी की पुस्तक ‘द रोमांस आॅफ द स्टेट ऐंड द फेट आॅफ डायसेंट इन ट्राॅपिक्स’ (2003) का अध्ययन किया जा सकता है। यह नंदी के कुछ शोधालेखों का संकलन है जिसमें उन्होंने राष्ट्र-राज्य की अवधारणा और भारत में इसके अनुभवों पर विचार किया है। वे इसके सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आयामों तथा सम्प्रदायवाद, सेक्युलरवाद, आतंकवाद तथा विकास जैसे मसलों पर भारतीय राज्य की नीतियों का विश्लेषण करते हैं। आरम्भिक दौर में भारत में उदारवाद के स्वरूप को लेकर चले वाद-विवाद का एक अद्भुल विश्लेषण सुनील खिलनानी की किताब ‘द आइडिया आॅफ इंडिया’ में प्रस्तुत किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस किताब का हिंदी अनुवाद ‘भारतनामा’ शीर्षक से अभय कुमार दुबे ने किया है। अतुल कोहली की किताब ‘पोवर्टी अमिड प्लेंटी इन द न्यू इंडिया’ वैश्वीकरण के युग में भारत की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था की गहन व्याख्या प्रस्तुत करती है। इसमें 1980 के दशक में राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी द्वारा राजनीतिज्ञों और उद्योगपतियों के बीच कायम किए गए सम्बन्धों पर गौर किया गया है, जिसने 1991 के बाज़ार सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया। वैश्वीकरण के प्रभावों तथा 1989 के बाद की राजनीति में सम्प्रदायवाद, पिछड़ी-दलित जातियों के उभार जैसी राजनीतिक परिघटनाओं के विश्लेषणात्मक अध्ययन के लिए निवेदिता मेनन और आदित्य निगम द्वारा लिखी गई किताब ‘पाॅवर एण्ड काॅन्टेस्टेशन: इंडिया सिंस 1989’ (2007) एक उपयोगी पुस्तक है। इसी तरह, अभय कुमार दुबे द्वारा सम्पादित किताब ‘भारत का भूमंडलीकरण’ (2003) में भारत के विभिन्न तबकों पर वैश्वीकरण के प्रभाव से सम्बन्धित कई गहन शोधालेख शामिल हैं जिनमें वैश्वीकरण के विकल्पों पर भी विचार किया गया है। भारतीय सन्दर्भ में लोकतंत्र के साथ ही असाधारण कानूनों का भी लगातार अस्तित्व बना रहा है। ऐसे कानून और इनके प्रावधान कानून के सम्मुख समानता की अवधारणा के विपरीत हैं। उज्ज्वल कुमार सिंह की किताब द स्टेट, डेमाॅक्रेसी ऐंड ऐंटी टेरर लाॅ इन इंडिया (2007) विशेष रूप से आतंकवाद गतिविधि निरोधक कानून या पोटा के निर्माण और निरस्त होने के सन्दर्भ में असाधारण कानूनों की राजनीति का परीक्षण करती है। भारतीय लोकतंत्र के इस अनछुए पहलू को समझने के लिए यह एक आवश्यक किताब है। 

भारतीय लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों और सीमावर्ती राज्यों में राज्य सत्ता की दमनकारी नीतियों की एक विचारोत्तेजक आलोचना के रूप में अरुंधती राॅय की किताब ‘लिसनिंग टू ग्रास हाॅप्पर्स’ (2009) का उल्लेख किया जा सकता है। यह किताब राॅय के कई लेखों का संकलन है। किताब में गुजरात 2002 में राज्य प्रायोजित दंगों, 2003 में भारतीय संसद पर हुए हमले की संदेहास्पद जाँच-पड़ताल पूरी तरह से गैर-जवाबदेह न्यायपालिका की सीमाओं तथा बड़े काॅरपोरेट घरानों, सरकार और मुख्यधारा की मीडिया के बीच साँठ-गाँठ, अगस्त 2008 में कश्मीर में हुई उथल-पुथल आदि मसलों पर लेख शामिल हैं। भारत में नारीवादी आन्दोलन के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और उसकी समकालीन चुनौतियों की समझदारी कायम करने के लिए राधा कुमार की किताब ‘अ हिस्ट्री आॅफ डुईंग: एन इल्यूस्ट्रेटेड अकाउंट फाॅर मूवमेंट फाॅर वुमेन राइट्स एंड फेमेनिज़्म इन इंडिया, 1800-1900’ (1993) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस किताब का हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है। भारत में नारीवाद के विविध आयामों और इसके समकालीन सवालों के सन्दर्भ में निवेदिता मेनन की किताब ‘सीईंग लाइक अ फेमेनिस्ट’ (2012) का अध्ययन किया जा सकता है। पर्यावरण और वन निवासी समूहों के अधिकारों का विकास और विस्थापन सम्बन्धी मुद्दों के ऐतिहासिक और समकालीन पहलुओं को समझने के लिए माधव गाडगिल और रामचन्द्र गुहा द्वारा सम्पादित दो किताबों का अध्ययन किया जा सकता है: ‘दि फिस्सर्ड लैण्ड: ऐन इकलाॅजिकल हिस्ट्री आॅफ इंडिया’ (1992) और ‘इकोलाॅजी ऐंड इक्विटी’ (1995)। ध्यान दिया जाना चाहिए कि किसी भी लोकतन्त्र के वास्तविक हालात का अन्दाजा वहाँ के अल्पसंख्क समूहों को मिले अधिकारों और उनकी राजनीतिक भागीदारी के आधार पर किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में राजीव भार्गव द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘सेक्युलरिज़म ऐंड इट्स क्रिटिक’ (1999) एक उपयोगी और प्रासंगिक किताब है। यह भी गौरतलब है कि अभय कुमार दुबे ने इस किताब में शामिल कई लेखों और कुछ नए लेखों को एक साथ रखकर एक किताब सम्पादित की जो कि सेक्युलरवाद के विषय पर एक अनिवार्य किताब के रूप में है। इस पुस्तक का शीर्षक है: ‘बीच बहस में सेक्युलरवाद’ (2005)। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के दौर में मुस्लिमों की स्थिति और पहचान के संकट की समस्या के विश्लेषणात्मक अध्ययन के लिए मुशीरुल हसन की यह किताब देखी जा सकती है: ‘लीगेसी आॅफ डिवाइडेड नेशन: इंडियाज मुस्लिमस सिंस इंडिपेंडेंस (1997)। पाॅल ब्रास ने अपनी एक अन्य किताब ‘द प्रोडक्शन आॅफ हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन काॅन्टेम्परी (2005) में समकालीन भारत में हिंदू-मुस्लिम दंगों के विविध कारकों और आयामों का विस्तार से विश्लेषण किया है। इस दौर में हिन्दुत्ववादियों के राजनीतिक उभार और उनकी विचारधारात्मक स्थिति की पड़ताल करने वाले कई अध्ययन भी सामने आए। इस सन्दर्भ में विशेष रूप से आशीष नंदी, शिखा त्रिवेदी, शैल मायाराम और अच्यूत याज्ञनिक की किताब ‘क्रिएटिंग अ नेशनेलिटी: रामजन्मभूमि मूवमेंट एण्ड द फीयर आॅफ द सेल्फ’ (1995) तथ किस्टाॅफ जेफेरेलाॅ की पुस्तक ‘द हिन्दू नेशनलिस्ट मूवमेंट इन इंडिया’ (1996) का उल्लेख किया जा सकता है।“

इसी प्रकार अकादमिक जगत व्यक्ति के व्यक्तित्व, व्यवहार एवं नेतृत्व को लेकर बेहद गंभीर है। मानव-विज्ञान की शाखा से लेकर मनोविज्ञान तक संचार-भाषा के बहुउद्देशीय आयोजन मानव-संचार एवं मानव-भाषा को केन्द्र में रखकर अपनी बात कहते हैं। विषय-विशेषज्ञों की बात करें, तो व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में अरुण कुमार सिंह की पुस्तक ‘व्यक्तित्व’ द्रष्टव्य है। इसमें उन्होंने व्यक्तित्व सम्बन्धी भारतीय-पश्चिमी अवधारणाओं और अन्य पक्षों पर विशद चर्चा एवं सैद्धान्तिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। व्यक्तित्व सम्बन्धी अंतःवृत्तियों के लिए प्रेरक और मार्गदर्शक की भाँति कार्य करने वाले कुछ सामान्य और विशेष पुस्तकों का उल्लेख किया जा सकता है। हिंदी में व्यक्तित्व विकास पर बहुत अधिक किताबें नहीं लिखी गई हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि किताबें हैं ही नहीं। हिंदी के नवागत शोधार्थी को यदि एक ही जगह व्यक्तित्व के बारे में सम्पूर्णतः जानकारी चाहिए हो, तो अरुण कुमार सिंह की पुस्तक ‘व्यक्तित्व’ का नामोल्लेख आवश्यक है।  ‘कादम्बिनी’ पत्रिका के व्यक्तित्व-विशेषांक (2006) में शिव खेड़ा की बहुचर्चित किताब ‘हाऊ टू विन’ बड़े काम की बतलाया गया है।है। इसी तरह, स्टीवन आर. कोवे की ‘सेवन हैबिट्स आॅफ हाइली इफैक्टिव पीपुल’, एस. आर. वास और अनिता वास की ‘सीक्रेट्स आॅफ लीडरशिप’, ‘गैट ए लाइफ, गैट ए जाॅब’, ‘यू लाइक एंड लाइक ए जाॅब यू गैट’ और ‘कनेक्टिंग वर्किंग टूगेदर फाॅर हैल्थ एण्ड हैप्पीनेस’-जैसी कई किताबें हैं। इसके अलावा ‘चिकेन सूप सीरिज’, ‘डेल कारनेगी की ‘बाॅडी लैंग्वेज’ और ‘हाऊ टू विन फ्रेंड्स एंड इंफुलुंस पीपुल’-जैसी सफलता और व्यक्तित्व विकास पर लिखी पुस्तकंे भी दुनियाभर में खासी लोकप्रिय हैं।इसी तरह लोकप्रियता के ‘बेस्ट सेलर’ प्रारूप में शिव खेड़ा की ‘हाऊ टू विन’ का हिंदी रूपांतरण ‘जीत आपकी’ के नाम से बाज़ार में उपलब्ध है। इसके अलावा संजीव मनोहर साहिल की, ‘आपकी सफलता-आपका हक’, आर. एस. चोयाल की ‘हाँ तुम एक विजेता हो’, उदयशंकर सहाय की ‘अपना व्यक्तित्व प्रभावी कैसे बनाएँ’ जैसी कुछ किताबें हिंदी में उपलब्ध हंल। इन किताबों के जरिए लोगों को अपने व्यक्तित्व की कमियों को पहचानने में खासी मदद मिलती है।  

उपर्युक्त (संक्षिप्त, चयनित, दूसरों द्वारा उद्धृत) विवेचन-विश्लेषण से यह बात तो साफ है कि हमारी पहलू में पुस्तकें इफ़रात हैं, बस पढ़ने का मिज़ाज और नियत चाहिए। मानसिक बोध और संज्ञान के सक्रियमान तथा शक्तिमान बने रहने ख़ातिर पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाएँ ही असल खुराक हैं। बाज़ार की राजनीति द्वारा लोकतंत्र तथा संसदीय कार्यकलाप को राजनीतिक बाज़ार मान बैठने की जिद से छुटकारा पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं से मित्रता गाढ़े बिना संभव नहीं है। हमलोग चाहे हैबरमास के लोवृक्रत का हवाला दें, या फिर फ्रांचिस्का आॅरसेनी के ‘हिंदी लोकवृत’ का। हम भारतीय सन्दर्भों में रामाधारी सिंह दिनकर के ‘संस्कृति के चार अध्याय’ से अपनापा गाठें या फिर एडर्नो के ‘संस्कृति-उद्योग’ का। हम सही बात तक कुशल पठनीयता के बरास्ते ही पहुँच सकते हैं। हम पढ़ते हुए ही अपने समसामयिक संकट-चुनौतियों से अवगत हो सकते हैं। यानी अंततः चुनाव तो हमें ही करना होगा। .…और यह चुनाव किताबों के मयखाने में प्रवेश किए या फिर उनका आस्वाद लिए बगैर हरग़िज संभव नहीं है।

पाठकीयता के मयखाने में किताब

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राजीव रंजन प्रसाद
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भारतीय जनता के समर्थन में पुस्तकों ने लम्बी यात्राएँ की हैं, मोर्चा संभाला है। विभिन्न मत-मतान्तरों, विचार-विचारधाराओं, प्रतिरोध-संघर्षों की गवाह बनी हैं किताबें। ज्यादा पीछे नहीं आजादी के दिनों की ही स्थूल-सूक्ष्म पड़ताल करें, तो पायेंगे कि औपनिवेशिक शासन या अंग्रेजी हुकूमत की दमनकारी नीतियों, छल और प्रपंच, जातिवादी मानसिकता, नौकरशाही, पुरोहितवादी प्रवृत्तियों, दूषित न्याय व्यवस्था, प्रेस एक्ट, बंग-भंग, बर्बर चुंगी अथवा टैक्स इत्यादि को लेकर अलख जगाने में साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रकारिता की भूमिका अनिर्वचनीय है। पुस्तकें ही नहीं निष्पक्ष-निर्भीक पत्रिकाओं ने भी समग्र चेतना के निर्माण में नवज्योत का काम किया है। भारत में असल आधुनिकता की शुरुआत यहीं से मानी जाती हैं जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों-अंधविश्वासों के ऊपर तीखे प्रहार किए, तो दूसरी ओर नवजागरण की भावभूमि पर राजनीतिक चेतना का संचार किया। उस ज़माने में पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ चेतना की जाग्रत-कुण्ड थीं जिनसे भारतीय जनमानस को सीख मिल रही थी-चरैवति-चरैवतिया फिर एकला चलो रे। पुस्तकें यही तो करती हैं। वह हमें अंदर से परिमार्जित और परिष्कृत करती हैं। वह हमारी चेतना को उद्बुद्ध और जाग्रत करती हैं। वह हमें मूल्यों से जोड़ती हैं, तो अपनी परम्पराओं के देख-रेख की सीख देती हैं।

भारत में पुस्तक लेखन की परम्परा बेजोड़ रही है। किताबें जानने, समझने, सीखने और विचार करने की दृष्टि से उपयोगी मानी गईं हैं। ज्ञानार्जन की दृष्टि से इनकी भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। व्यक्ति, समाज, संस्कृति, राजनीति, भाषा, धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, वाणिज्य-व्यापार, विज्ञान, भूगर्भ, खगोल, चिकित्सा आदि ऐसे महत्त्वपूर्ण अनुशासन (Discipline) हैं जिनकी पहचान व्यापक है, तो पैठ विश्वतरीय। भारतीय चिंतन-दर्शन में मस्तिष्क को बुद्धि तकनीक’ (Mind Technology) कहा गया है। ज्ञान के परिसर या परिक्षेत्र में नवाचार (Innovation) और नव्य उद्यमशीलता (Newly Entrepreneurship)  को लेकर जो रोमांच आज हम महसूस कर रहे हैं, उसमें भारतीय ज्ञान-परम्परा की भूमिका विशेष है। खासकर पत्रकारिता के साथ जनसंचार का सम्बन्ध और भी गहरा, सूक्ष्म, संवेदनीय एवं यथार्थपूर्ण रहा है। जिन दिनों पत्रकारिता को एक स्वतंत्र विधा मानते हुए वस्तुनिष्ठ तथा निष्पक्ष लेखन की शुरूआत हुई; उन दिनों भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी मुक्त न होकर प्रतिबंधित थी। सन् 1780 का काल उल्लेखनीय है जब भारत में पहले समाचारपत्र के रूप  में  हिक्की गजटकी छपाई जेम्स आगस्ट्स हिक्की द्वारा प्रारम्भ की गई। आज हम जिन समाचारपत्रों के बहुविध संस्करण, रेडियो, दूर-दर्शन, इत्यादि नव एवं बहुविध माध्यमों का विस्तार देख रहे हैं, ‘आई.सी.टी.’, ‘इनोवेशन’, ‘कन्वर्जेंस’, ‘न्यू मीडिया’, ‘सोशल नेटवर्किंगआदि की आशातीत प्रगति और अमोघ प्रभावशीलता के बावजूद सचाई सिर्फ इतनी ही नहीं है। डिजिटल इंडियाके सर्वत्र उद्घोष या जयगूँज सुनने को मिल रहे हैं। किताबों एवं पत्र-पत्रिकाओं के नेट और वेब संस्करण चहुँओर बड़ी सुगमता से उपलब्ध हैं। हम अब पढ़ने का तरीका भूलकर लिखी चीजों को देखने के ढर्रे पर आगे बढ़ रहे हैं। यह खतरनाक है। भारत की सामासिक-संस्कृति या कह लें सामूहिक मानस के ख़िलाफ यह एक शीतयुद्धहै जिसमें स्थायीत्वऔर सतत् विकसनशील विचार-प्रवृत्ति को दरकिनार करने का षड़यंत्र लगातार जारी है। विशेषकर, “उपग्रह टीवी के द्वारा हमारी अस्मिता, हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों तथा हमारे ऐतिहासिक सन्दर्भ पर जो कुठाराघात हो रहा है उसमें हमारे अस्तित्व के लिए एक अभूतपूर्व खतरा उत्पन्न हो गया है।इसका मुख्य कारण यह भी है कि हमारे भीतर नैतिक आस्था संजोने तथा मूल्य-निर्माण करने वाली जो सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएँ रही हैं; उनकी पतनशीलता और भ्रष्टता अब किसी से छुपी नहीं है। ज़ाहिर तौर पर ज्ञान, इच्छा और क्रिया का शाश्वत अनुक्रम और संतुलन बिगड़ गए हैं। अब वास्तविकताएँ घटित होने के बाद अर्थ और महत्त्वहीन सिद्ध होने लग रही हैं। मजे की बात यह कि इन सारी ख़राबियों की जड़ में पूँजीवाद प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से शामिल हैं।  इस विषबेल के कई संचारी-तत्त्व हैं- अनैतिक आग्रह, राजनीतिक पूर्वग्रह और पूँजीगत दुराग्रह। आज बाज़ार-प्रभुत्त्व में हैं इसलिए उनके अवयव हर जगह प्रभावशाली मुद्रा में हैं। भूमंडलीकृत इस विश्व में जो चीजें व्यक्ति और समाज पर अधिक कहर बरपा रही हैं या कि पूरा विश्व उनके कब्जे में हैं; वे हैं-काॅरपोरेट घराने, धनिक उद्योगपति, दौलतमंद व्यवसायी, जमाखोर व्यापारी, मुनाफाखोर और कालाबाज़ारी में नधाये कारोबारी इत्यादि।

ध्यान देना होगा कि नकारात्मक प्रभाव के कारण उत्पन्न कुहरीला को छाँटने में पुस्तकें आज भी सर्वश्रेष्ठ औजार हैं। संचार सम्बन्धी सैद्धान्तिकी, विचार-प्रक्रिया, तकनीकी-प्रौद्यौगिकी आधारित परिवर्तन, परावर्तन एवं अभिसरण इत्यादि को लेकर प्रभूत लेखन-कार्य निर्बाध जारी है। वैसे भी आज के बेहद जटिल समय में संचार-प्रवृत्तियों तथा उसके बहुविध ठिकानों को निकट से जानना जरूरी हो गया है। इसके अतिरिक्त अकादमिक शोध की दशा-दिशा, रूपरेखा एवं स्वरूप आदि को जानने-समझने की दृष्टि से इनका अध्ययन-अनुशीलन अपरिहार्य है। इसकी अनिवार्यता इसलिए भी है क्योंकि प्राचीन-अर्वाचीन संचार विधा ने मनुष्य को काफी भीतर तक प्रभावित किया है। इस प्रभावशीलता को जन-सापेक्ष और जन-पक्षधर बनाने में भाषा की भूमिका अन्यतम है। हमें यह नहीं भूलना होगा कि भाषा संचार द्वारा अंतःविकसित किन्तु व्यक्ति-विशेष द्वारा अर्जित एक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रम है। भाषा स्थूल-सूक्ष्म रूप में संज्ञान-बोध, कल्पना, स्मृति, अनुभव, विचार, दृष्टि इत्यादि प्रत्ययों का वाहक भी है। वैसे भी बातचीत मनुष्य का गुण है। मनुष्य इसी गुण के नाते संचार-प्रक्रिया में स्वतः भाग लेता है। ध्यान देने योग्य है कि, संचार में किसी वक्ता अथवा संचारक के वक्तृत्व-कला की पहचान होती है। व्यवहार-जगत में वाक् बोली जाने के कारण भाषा का उपयुक्त विकल्प है। यह जानना बड़ा दिलचस्प है कि सभी व्यक्तियों में वाक्-क्षमता समान हो; यह आवश्यक नहीं है। प्रत्येक मनुष्य एक-दूसरे से भिन्न है। इस भिन्नता के कारण ही भाषा में विकल्पन (Variation) की स्थिति उत्पन्न होती है। दरअसल, ज्ञात अर्थ के लिए समाज कोई शब्द-विशेष सुनिश्चित कर देता है और उस शब्द का उस अर्थ के साथ यादृच्छिक सम्बन्ध जुड़ जाता है। यह सम्बन्ध स्वाभाविक न होकर आरोपित होता है। इस शब्द-अर्थ सम्बन्ध को संकेत-ग्रह कहते हैं। वास्तव में भाषा न केवल दृश्यमान जगत से सम्बन्धित वस्तुओं आदि के बारे में अभिव्यक्ति का साधन है, बल्कि अनुभूत विचारों की अभिव्यक्ति का भी साधन है।

इसीलिए तो देशकाल से जुड़ी-बँधी भाषा अपने समाज की संस्कृति का वाहक होती हैं। अतः लेखन में सर्जनात्मक-कौशल अर्थात अपने विचार या भाव को अधिकाधिक प्रभावी बनाने की जरूरत पड़ती है। माध्यम-विभेद के इस ज़माने में अथवा बहुविध माध्यमों की उपस्थिति में इसकी महत्ता भाषा-अनुप्रयोग के बरास्ते ही संभव है। खासकर जनसंचार एवं पत्रकारिता की दृष्टि से इसके सर्जनात्मक रूप-प्रकार अथवा साहित्यिक-स्वरूप को ज़ाहिर-प्रकट करने में किताबे मुख्य सेतु सिद्ध होने वाली हैं। हिंदी भाषा को खड़ी बोलीके रूप में खड़ा करने वाले भरतेन्दु हरिश्चन्द्र की बात करें तो, ‘‘उन्होंने मानवीय जगत के शाश्वत मूल्यों, मूल प्रवृत्तियों के परिष्करण और परिमार्जन की संभावनाओं को स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने अंग्रेजी शासन-व्यवस्था के दौरान देश की धार्मिक, सांस्कुतिक और आध्यात्मिक मृतप्राय परम्परा को जीवनदान दिया। उन्होंने अंग्रेजी शासन-व्यवस्था से उत्पन्न अराजकता, असंतोष और अभावग्रस्तता को साहित्य के माध्यम से जनसाधारण को परिचित कराया।इसी तरह भारतीयता का मूल बीज तलाशने का काम भी भारतीय विद्वानों ने किया है। अपनी पुस्तकों या कि अपनी पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने पश्चिम के प्रति नतमस्तक होने की जगह स्वयं की मिथकीय चेतना के महत्त्व को पहले स्वीकार किया है।  उदाहरण के लिए देखें, तो ‘‘श्री नरेश मेहता ने अपने काव्य में सामाजिक  विचारों को आधुनिक ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने पुरा कथाओं, प्रकृति एवं सौन्दर्य के चित्रों के माध्यम से आधुनिक जीवन की विषमताओं, अभिशप्त व्यक्तियों की दारुण-यंत्रणाओं और प्रश्निल आदि स्थितियों को दर्शाया है।’’

ऐसे में पाठकीयता के प्रयोजन आवश्यक हैं, भाषिक-प्रयुक्तियों का दिग्दर्शन अपरिहार्य है; और इसे लेखन द्वारा ही साध पाना संभव है। इसी नाते भाषा की वैचारिकी और सामाजिकी को लेखन द्वारा आज भी सबसे अधिक समझाया-बताया जाता है। इस बारे में अपनी सहमतियाँ-असहमतियाँ आदी दर्ज की जाती हैं। भाषिक मनोव्यवहार सम्बन्धी अनुप्रयोग अर्थात् मनोभाषिकी को लेकर प्रभूत समाजभाषावैज्ञानिक एवं मनोभाषावैज्ञानिक लेखन-कार्य इससे इतर भी बहुतेरे हुए हैं। भारतीय विद्वानों ने पश्चिमी चिंतकों-विचारकों और उनकी लिखी पुस्तकों का सहर्ष स्वागत तथा अपने प्रसंगानुकूल अर्थ-सन्दर्भों में बहुतायत उपयोग किया है। यदि भाषा-विज्ञान को ही उदाहरण के रूप में लें, तो हॉकेट का ए कोर्स इन जनरल लिंग्विस्टिक्स’; हैरिस का ग्रन्थ स्ट्रक्चरल लिंग्विस्टिक्स’; ब्लूमफील्ड का ग्रन्थ लैंग्वेज’; रॉबर्ट हॉल की पुस्तक एन इन्ट्रोडक्शन टू लिंग्विस्टिक्स’; संरचनात्मक भाषाविज्ञान के बहुचर्चित ग्रन्थ माने गये हैं। इन सभी ग्रन्थों में भाषा की समरूपता पर बल दिया गया है। नॉम चामस्की ने 1957 ई. में और 1965 ई. में द सिमाॅन्टिक स्ट्रक्चर आॅस्पेक्टसऔर द थ्योरी ऑफ सिन्टेक्सग्रन्थों की रचना की और इन दोनों ग्रन्थों में भाषा को मनोवादी आधार प्रदान किया गया है। चॉमस्की ने भी सर्वाभौमिक व्याकरण की परिकल्पना द्वारा समरूपी भाषा को महत्त्व दिया और विभिन्न बोलियों और उपबोलियों को मानक भाषा का स्खलित रूप माना। उपर्युक्त दोनों आयामों को आधार मानकर इनके भाषायी समरूपता के सिद्धान्त को अस्वीकार करते हुए 1966 ई. में समाज भाषा विज्ञान का आविर्भाव हुआ और समाज भाषाविज्ञान के जनक लेबॉब ने सोश्योलिंग्विस्टिक पैटर्न्सपुस्तक लिखी जो बहुचर्चित रही। जे. ए. फिसमैन ने सोश्योलोजी ऑफ लैंग्वेजशीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में भाषा के सन्दर्भ में समाज के विभिन्न रूपों का वैज्ञानिक विवेचन लेबॉब और फिशमैन दोनों ने अपनी-अपनी पुस्तकों में अमेरिकी समाज को आधार बनाकर वहाँ की भाषा का विवेचन किया है। विलियम ब्राइट द्वारा सम्पादित पुस्तक सोश्योलिंग्विस्टिक्सशीर्षक से बहुचर्चित रही। जे. वी. प्राइड और जेनेट होम्स द्वारा सम्पादित सोश्योलिंग्विसटिक्सशीर्षक की पुस्तक भी सर्वाधिक चर्चा का विषय बनी। इस पुस्तक में दोनों सम्पादकों ने लेबॉब जे. ए. फिशमैन गम्पर्ज और अनवर एस दिल. द्वारा लिखे गये समाज भाषा विज्ञान सम्बन्धी लेखों को प्रकाशित किया है। पश्चिमी देशों में समाजभाषाविज्ञान पर सर्वाधिक संख्या में पुस्तकें लिखी गयी हैं। ट्रडगिल, रोनाल्ड वर्धा, आर. ए. हडसन आदि विद्वानों ने सोश्योलिंग्विस्टिक्सशीर्षक से ही अलग-अलग स्वतन्त्र पुस्तकें लिखी हैं। आर. ए. हडसन ने अपनी पुस्तक में समाज भाषा विज्ञान के जिन नियमों और सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया वे लेबॉब और फिसमैन की मान्यताओं से पृथक सिद्ध होते हैं। गम्पर्ज ने डाइरेक्शन्स इन सोश्योलिंग्विस्टिक्सशीर्षक पुस्तक में समाजभाषाविज्ञान की विभिन्न दशाओं का संकेत किया है। हर्बर्ट लैण्डर ने लैंग्वेज एण्ड कल्चरशीर्षक पुस्तक में भाषा और संस्कृति के अन्तःसम्बन्धों का विवेचन किया है। डेलहाइम्स द्वारा सम्पादित लैंग्वेज इन कल्चर एण्ड सोसाइटीप्रख्यात पुस्तक रही है। इस पुस्तक में समाजभाषाविज्ञान और भाषा का समाजशास्त्र दोनों पक्षों पर विभिन्न शोध-पत्रों का सम्पादन किया गया है। लेसले मिलराय द्वारा लिखित लैंग्वेज एण्ड सोशल नेटवर्कउपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में विभिन्न सामाजिक सिद्धान्तों के सन्दर्भ में भाषा प्रभेदों का विवेचन किया गया है। सेन्कोफ द्वारा लिखित द सोशल लाइफ ऑफ लैंग्वेजमहत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में विभिन्न भाषा प्रयोगों के माध्यम से सामाजिक विविधता को विवेचित किया गया है। सुजाने रोमेने द्वारा सम्पादित सोश्योलिंग्विस्टिक्स वैरिएशन इन स्पीच कम्यूनिटीबहुत ही उपयोगी पुस्तक रही है। विलियम ब्राइट द्वारा सम्पादित लैंग्वेज कल्चर एण्ड सोसाइटीमहत्वपूर्ण पुस्तक मानी गयी है। इस पुस्तक में भाषायी विविधता प्रक्रिया और समस्या भाषायी विविधता में संरचना की कोशभाषा और समाजिक व्याख्या आदि शीर्षकों में भाषा और समाज के सम्बन्धों को स्पष्ट किया गया है। मार्टिन मोन्टगोमरी द्वारा लिखित इन इंट्रोडक्शन टू लैंग्वेज एण्ड सोसाइटीमहत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में भाषा और समाज के बहुआयामी और बहुस्तरीय सम्बन्धों का विवेचन किया गया है। फ्रेन्चन डी. मंजाली द्वारा सम्पादित लैंग्वेज सोसाइटी एण्ड डसिकोर्समहत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में भाषा और समाज के सम्बन्धों को प्रोक्ति के माध्यम से विवेचित किया गया है। हैरी होइजर द्वारा सम्पादित लैंग्वेज इन कल्चरमहत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में संस्कृति के सन्दर्भ में भाषा का विवेचन किया गया है। मेरी सेन्चाज और बेन जी. ब्लान्टच द्वारा सम्पादित सोश्यो कल्चरल डाइमेन्शन्स ऑफ लैंग्वेजबहुत ही उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में समाज और संस्कृति के सन्दर्भ में भाषा के विभिन्न प्रयोगगत आयामों का विवेचन किया गया है। माइकेल पेराडिस द्वारा सम्पादित ऑस्पेक्ट्स ऑफ बाइलिंग्वलिज्म  महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में द्विभाषिकता और बहुभाषिकता का विशद् विवेचन मिलता है। सूसनगल द्वारा लिखित लैंग्वेज शिफ्टमहत्वपूर्ण पुस्तक हैं। इस पुस्तक में लेखक ने भाषा विस्थापन की प्रक्रिया का विभिन्न आधारों पर विवेचन किया गया है: 1) आयु और ऐतिहासिक परिवर्तन, 2) सामाजिक निर्धारक और 3) भाषा, चयन और शैली चयन। इसी प्रकार बाइलिंग्वलिटी एण्ड बाइलिंग्वलिज्मपुस्तक बहुत उपयोगी है जो शियाने एफ. हेमर्स और माइकेल एच. ए. ब्लेक द्वारा लिखी गयी है। इस पुस्तक में द्विभाषिकता और द्विभाषावाद  का अन्तर स्पष्ट किया गया है। डिबोरा शीफिन द्वारा लिखित चेंज टू दा डिस्कोर्सउपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में लेखक ने वार्तालाप और उसके विभिन्न रूपों को आधार बनाकर भाषा रूपों और भाषा प्रयोगों को विवेचन किया है।

समग्रतः भाषा-व्यवहर, वाक्-व्यापार और व्यक्तित्व-नेतृत्व को लक्ष्य कर जिन भी स्वतन्त्र ग्रंथों को विवेचित किया गया है ये सभी पुस्तकें किसी शोधकर्ता के शोध कार्य के लिए सिद्धान्तों, नियमों के साथ-साथ विपुल सामग्री भी प्रदान करते हैं। हिन्दी शोध क्षेत्र में हिन्दी शोधकर्ताओं के योगदान को बखूबी याद किया जाना चाहिए। डॉ. भोलानाथ तिवारी द्वारा लिखित भाषाविज्ञान’, ‘आधुनिक भाषाविज्ञान और शैलीविज्ञानमहत्वपूर्ण ग्रंथ है। डॉ. अम्बा प्रसाद सुमनद्वारा लिखित भाषाविज्ञान सिद्धान्त और प्रयोगसंरचनात्मक भाषाविज्ञान से सम्बन्धित स्तरीय पुस्तके हैं। डॉ. कर्ण सिंह द्वारा लिखित भाषाविज्ञानविभिन्न स्रोतों से संकलित तथ्यों के वर्णन पर आधारित उपयोगी पुस्तक है। डॉ. मोतीलाल गुप्त द्वारा लिखित आधुनिक भाषाविज्ञानसंरचनात्मक भाषाविज्ञान से सम्बन्धित उपयोगी और महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान करती है। डॉ. तिलक सिंह द्वारा लिखित नवीन शोध विज्ञानऐसी पुस्तक है जिसमें संरचनात्मक भाषा विज्ञान और समाजभाषाविज्ञान के शोधगत आयामों का सघन और गंभीर विवेचन मिलता है। इन स्वतंत्र पुस्तकों के अतिरिक्त हिन्दी क्षेत्र में समाजभाषा विज्ञान से सम्बन्धित अनेक स्वतन्त्र पुस्तकें उपलब्ध हैं। इन स्वतंत्र पुस्तकों में अधिसंख्य पुस्तकें पश्चिमी समाजभाषाविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित है। कुछ पुस्तकें ऐसी भी हैं जो हिन्दी और उसकी बोलियों के सन्दर्भों से जुड़ी हुई हैं। इन पुस्तकों में अनेक सम्पादित पुस्तकें हैं और एकाधिक स्वतंत्र लेखन कार्य है। डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव हिन्दी समाजभाषाविज्ञान के प्रवर्तक माने जा सकते हैं। इनके द्वारा लिखित हिन्दी भाषा का सामाजिक सन्दर्भबहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में समाजभाषाविज्ञान और भाषा का समाजशास्त्र दोनों आयामों से सम्बन्धित तथ्यों का गहन और विशद् विवेचन मिलता है। डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव और डॉ. रमानाथ सहाय द्वारा सम्पादित हिन्दी का समाजिक सन्दर्भसमाजभाषाविज्ञान पर उपलब्ध सभी पुस्तकों में विशेष महत्व रखती है। इस पुस्तक में समाजभाषाविज्ञान और भाषा का समाजशास्त्र दोनों पक्षों पर 17 शोधालेख प्रकाशित हैं। डॉ. पी. गोपाल शर्मा और डॉ. सुरेश कुमार द्वारा सम्पादित इण्डियन बाइलिग्वलिज्मबहुत ही उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में विभिन्न विद्वानों ने इतिहास और समकालीनता को आधार बनाकर भारत में प्रयुक्त द्विभाषिकता और बहुभाषिकता का विवेचन किया है। डॉ. श्रीकृष्ण द्वारा सम्पादित भाषा अनुरक्षण और भाषा-विस्थापनहिन्दी के सन्दर्भ नें उपयोगी संकलन है। इस पुस्तक में हिन्दी और इसकी बोलियों को आधार बनाकर भाषा-अनुरक्षण और भाषा-विस्थापन का विशद् विवेचन मिलता है। डॉ. सुरेश कुमार द्वारा सम्पादित हिन्दी के प्रयुक्तिपरक आयामउपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में साहित्य और विज्ञान के विषयों का समाज भाषा विज्ञान के सन्दर्भ में विवेचन किया गया है। डॉ. भोलानाथ तिवारी और मुकुल प्रियदर्शिनी द्वारा लिखित हिन्दी भाषा की सामाजिक भूमिकादक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास से प्रकाशित उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में हिन्दी के साथ-साथ अंग्रजी भाषायी समाज का विवेचन भी मिलता है। भोलानाथ तिवारी द्वारा लिखित भाषा और संस्कृति महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में भाषा और संस्कृति के सहसम्बन्धों का विवेचन किया गया है। डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा लिखित भाषा और समाजउपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में भाषा और समाज के अन्तर सम्बन्धों का विवेचन मिलता है। डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा लिखित भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दीतीन भागों में प्रकाशित बहुत ही उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में हिन्दी भाषायी समाज का भारतीय भाषायी समाज और भारतेतर भाषायी समाज के साथ तुलनात्मक विवेचन किया गया है। डॉ. सूरजनाथ द्वारा लिखित हिन्दी भाषा सन्दर्भ और संरचनामहत्वपूर्ण पुस्तक है। उस पुस्तक में लेखक ने हिन्दी का सरचनागत और सन्दर्भगत दोनों दृष्टियों से विवेचन किया है। डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, डॉ. महेन्द्र और मुकुल प्रियदर्शिनी द्वारा सम्पादित सैद्धान्तिक एवम् अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञानमहत्वपूर्ण पुस्तक है। यह ग्रंथ डॉ. भोलानाथ तिवारी की स्मृति में लिखा गया है। इसमें समाज भाषाविज्ञान से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण लेख संकलित है। डॉ. भोलानाथ तिवारी और डॉ. कमल सिंह द्वारा सम्पादित सम्पर्क भाषा हिन्दी और भारतीय भाषाएँउपयोगी ग्रंथ है। इसमें हिन्दी भाषा का भारतीय भाषाओं से सम्बन्ध स्थापित किया गया है। डॉ. मदनलाल वर्मा द्वारा लिखित सामाजिक मेल-मिलाप की प्रोक्तियाँबहुत ही उपयोगी ग्रंथ है। इस पुस्तक में सामाजिक व्यवहार के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के वार्तालापों का विवेचन किया गया है। आज की भाषा, आज का समाजमदन लाल वर्मा की महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह पुस्तक वर्तमान हिन्दी भाषी समाज हिन्दी भाषा और उसकी बोलियों से सम्बन्ध स्थापित करती है। पुष्पा श्रीवास्तव लिखित मनोभाषाविज्ञानपूर्ण मनोयोग से लिखी गई पुस्तक है जो मनोभाषाविज्ञान को एक स्वतंत्र अनुशासन मानकर उनका गंभीर शोधानुशीलन प्रस्तुत करती है। सूर्यदेव शास्त्री ने भाषा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन भाषा और मनोविश्लेषणनाम की पुस्तक से किया है, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। डाॅ. कृष्णकुमार गोस्वामी लिखित पुस्तक 'शैक्षिक व्याकरण और हिंदी भाषा' भी आज के अकादमिक परिवेश तथा शैक्षणिक जगत के लिए एक पठनीय पुस्तक है।

यद्यपि हिंदी का साहित्यिक जगत प्रभूत लेखन का सदैव साक्षी रहा है। इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की परम्परा में आगे आये डाॅ. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखित पुस्तक काव्य-भाषा पर तीन निबंधसाहित्य के शील-परीक्षकों तथा कला-मर्मज्ञों के लिए जरूरी तौर पर पठनीय पुस्तक है। साहित्यिक प्रतिबद्धता संग लेखन की इस धुरी पर डटे लेखकों में प्रोफेसर नामवर सिंह का नाम अन्यतम हैं। उनके लेखन का स्वर और स्वभाव शोधार्थी का है जो अपने-आप में विलक्षण बात है। बाद की पीढ़ी ने नामवर सिंह के आलोचना-कर्म का न सिर्फ अनुकरण किया है, अपितु काॅपीभी उतना ही हुआ है। आलोचना की इस नकलची संस्कृति ने विचारों के स्तर पर विविधता तो रोपी है, लेकिन उनमें मौलिकता एवं विशिष्टता का सर्वथा अभाव है। खैर, ये हमारे लिए अभी चर्चानुकूल नहीं है। बहरहाल, आज हम सब सायास-अनायास समस्याओं, चुनौतियों, संघर्षों, बाधाओं आदि का सामना कर रहे हैं। प्रत्यक्षतः राजनीतिक-तंत्र मूल्यविहीन होते जाने को अभिशप्त है। आज आवश्यकता सक्षम नेतृत्व एवं उपयुक्त विकल्प की है जबकि व्यक्ति-पूजा और नायक-दर्शन की झूठी छवियों, सत्य मालूम देते प्रवंचनाओं, मनुष्यता को क्षरित करते आडम्बरों आदि से घिरे हुए हैं। इस समय सम्यक् विवेक-दृष्टि की जरूरत है। सक्षम राजनीतिज्ञों, राजनीतिक विश्लेषकों आदि को सच के पक्ष में गला बुलंद करने की आवश्यकता है। हमें नए प्रतिमान गढ़ने होंगे। आलोचना के नए फ़लक तैयार करने होंगे। समसामयिक लेखन और अकादमिक शोध इस लक्षित अभियान को पूरा करने में सबसे निर्णायक योग दे सकते हैं। इसी तरह जनमाध्यम को नए सिरे से जनमत-निर्माण की प्रक्रिया पूरी करनी होगी। यह काम हो रहा है। इस समिधा में जुटे लेखकों-लेखिकाओं का कहा-सुना वरेण्य एवं स्तुत्य है।

(जारी....)

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...