Friday, June 1, 2018

साहित्य इस बार


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(30 मई को साहित्यिक पत्रकारिता को याद करते हुए डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद)
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देश मातृभाषा में संवादी हो, तो क्या कहने? मौलिक उद्भावना जुबानदार के मुख से स्वतः फूट पड़ते हैं। भाल-ललाट-माथ गर्वित होता है। मन-हृदय पुलकित-द्रवित। मातृभाषा के बाने में लिपटा जन-मन का साहित्य काल से संग्राम करने के लिए नहीं; अपितु वह काल से अपनापा गाँठने हेतु लिखा गया होता है। ग्रंथों और पोथियों से ज्ञान प्राप्य नहीं है। इसे पाने के लिए तो अन्तर्मन की आँख चाहिए जिसकी दृष्टि तनिक मलिन अथवा दूषित हो। भला कहीं मूल्य से संक्रमण हो सकता है? क्या कहीं बोध से अज्ञानता बनी रह सकती है? क्या यह संभव है कि अनुभवी आँखें धोखा खा जाए या फिर अविवेकी निर्णय लेने की ठान ले? नहीं, कदापि नहीं। साहित्य तश्तरी का जायका नहीं, मिश्रण का काॅकटेल नहीं; बल्कि मनुष्य होने का विकल्प है। तभी तो साहित्य कोंचता है। बैठकी पर पानी फेरता है, तो बैचैनियों मेंपैराशूटबाँधने का काम साहित्य ही करता है। साहित्य का करतब तो करिश्माई है और ही सम्मोहक। यह तो अपनी ही आँखों से ढुलके आँसू के भीतर पैठे गरमाई की तरह है जिसका स्वाद तीखा और खरा होता है। यह तो अपनी ही हथेलियों के रगड़ से पैदा हुई ऊष्मा की तरह है, जिसकी प्रकृति ही संघर्षशील और प्रतिरोधी होना है। असल नवाचार अथवा नवोन्मेष यही है कि हम स्वयं से पूछें हमने नया और सार्थक किया क्या है! हमने ऐसा क्या नया जोड़ा या फिर नए ढंग से कहीं किसी से जुड़ने की कोशिश की है जिससे भविष्य में सम्पूर्ण मानवता का हित-लाभ होने वाला है। जबकि हम सबको ज्ञात है कि लोकमंगल और जनकल्याण की सात्त्विक अभ्यर्थना साहित्य का मुख्य अभिलक्ष्य है। यह बात हमारे अंतरतम में गहरे पैठी होनी चाहिए। यह विश्वास होना जरूरी है कि साहित्य  हमारे अन्दर मूल्य-निर्माण और मूल्य-निर्णय का काम करता है। सनद रहे, साहित्य शब्दों की मुनीमी नहीं है, वह तो सामूहिक चेतना का कोठार है। अनुभव आधारित स्मृतियों की धूपछाँही यहीं देखी जा सकती है। अर्थात् यह ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक परिसम्पत्ति है जो गाँव-देहात, कस्बा-शहर, नगर-प्रवास, समाज-समुदाय, संगठन-संस्थान, मजदूर-किसान, अनपढ़-नासमझ, पढ़ा-लिखा, स्त्री-पुरुष, धर्मावलम्बी-मतावलम्बी सबको जाग्रत करे और मनुष्यता के चरम उत्कर्ष का संकेत दे। अब तक आपने जितनों को पढ़ा है, जिन-जिन को पढ़ा है, उनकी लिखी रचनाओं का स्मरण कीजिए; उन-उन लेखकों के बारे में सोचिए जिनके लिखे का पाठ-पुनर्पाठ आपने कर रखा है; क्या वे सचमुच समाज-प्रहरी हैं? चिंतनशील प्रेरक हैंमुक्ति के निर्माता, तो प्रतिरोध के जन्मदाता हैं? यदि हाँ तो ऐसे लोगों का साहित्य ही कालजयी हो सकता है, होना भी चाहिए।
लोक निर्मित भारतीय मनीषा की दृष्टि में साहित्य सिर्फ आस्वाद का विषय नहीं है। उसके लिए साहित्य पगडंडी नहीं पाँव है जिस पर देश-समाज की चेतना और सम्प्रभुता टिकी हुई है। साहित्यमना व्यक्तित्व वास्तव में किसानों-मजदूरों के संघर्ष एवं प्रतिरोध का सचेत गायक होता है, तो नगरीय त्रासदी और उत्तर शती द्वारा ऊपजाई गई कठिनाइयों को समझने वाला अगुवा नायक। साहित्य उनके द्वारा लिखा जाता है जो भाषा के प्रति संवेदनशील होते हैं। वे भाषा को अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए सहेजते-संजोते ही नहीं; रचते-सँवारते भी हैं। अर्थात् साहित्य एक ऐसी कला-विधि है जो भाषा का सिर्फ प्रयोग ही नहीं करती है बल्कि भाषा की उपयोगिता यानी उसकी उपादेयता को भी सिद्ध करती है; वह भाषा को माँजती-सँवारती, बुनती-कातती भी है। नवजागरणकालिन चिंतक बालकृष्ण भट्ट ने उपयुक्त ही कहा है कि, ‘साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है। वह जनसमूह के चित्त का चित्रण है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मानते हैं, ‘‘किसी भी सभ्य देश की शब्द-परम्परा और अर्थ-परम्परा के सामंजस्य-विधान से ही उसके साहित्य का स्वरूप निर्दिष्ट होता है। यदि इस सामंजस्य में बाधा पड़ेगी अर्थात् मनमाने ढंग से विदेशी शब्दों के विचारों का बड़े पैमाने पर आयात होगा तो साहित्य देश की प्राकृतिक जीवन धारा से विचिछन्न हो जाएगा।‘’ खुले मन से कहें, तो पश्चिमी विचारकों की पारिभाषिक विचारधाराओं को, मंतव्यों को, उनके ज़िरह-तफ़्शीश, बहस-मुबाहिसों आदि को देखना जरूरी है, लेकिन उसे पचाना तो अपनी ही मातृभाषा में होगा। यह कैसे हो सकता है कि हम उनके ही चश्मे को अपनी निगाहबानी मान लें; उनकी ही धुरी और केन्द्र को अपनी वैचारिक-यात्रा का पतवार मान लें। यह तो बौद्धिक दासता है, शैक्षणिक गुलामी जिसका बँधन जंजीर या सलाखें होकर दिमागी और मनोवैज्ञानिक आरोपण-प्रक्षेपण है। संकल्प-विकल्प की क्षमता रखने वाले भारतीय लोक को भला यह कहाँ और कैसे रास आने वाला है! अतीत-गुणगान के शास्त्रीय अप्रोचको छोड़ दीजिए, किन्तु अपनी चीजों और परम्पराओं के प्रति एक सम्यक दृष्टिकोण तो रखना ही होगा। देश-देशांतर तक अपनी खोज, सिद्धान्त और नवप्रयोगों का लोहा मनवा चुका यह राष्ट्र एकदम अचानक से उठ खड़ा नहीं हुआ है। स्त्री, दलित, आदिवासी जनसमाज को लेकर विमर्शात्मक चेतना तथा प्रतिरोध सिर्फ आज के खड़े किए हुए नहीं हैं। उदाहरण के लिए ओमप्रकाश बाल्मीकि से पहले डाॅ. भीमराव आम्बेडकर मिल जाते हैं। डाॅ. आम्बेडकर से पहले बिरसा मुंडा और तिलका माँझी सामूहिक आकांक्षा और प्रतिरोध के सच्चे नायक के रूप में दिख जाते हैं। उनसे पहले ज्योतिबा फूले, सावित्रीबाई फूले, रमाबाई फूले समाज-निर्माण और सुधार की चूलें कसते दिखाई देते हैं। दरअसल, भारत जैसे घोर जातिवादी-पुरोहितवादी मुल्क में शंकराचार्य को मुँह की खाते, तो संत कबीर को अपनी तर्क एवं वैज्ञानिक सोच आधारित लाठी हुरपेटते हमने देखा ही तो है। असल में, रचनाकार जो कोई हो, लेकिन कीर्ति-पताका तो उसकी ही फहरती आई है जिसकी रचनाएँ लोकप्रिय मुहावरे, मुलम्मे, मसख़रेपन से नहीं; लोक-मर्म तथा लोक-रस से पूरित है। कितने लेखकों, कवियों, आलोचकों, गीतकारों आदि को जानते हैं जिनका लिखा आज भी हम पर जादू-सा असर किए हुए है? वहीं लोक-साहित्य अपनी वाचिक परम्परा में ही सही, लेकिन जीवित और जीवंत मालूम देता है। सचाई तो यही है , लोक अपनी रेग और टेक में भारतीयता के पूरेपन से बँधा हुआ है; इसलिए उसे अपनी पहचान और अस्मिता के मूल्य मालूम है; इन्हीं के बरअक़्स नगरीय-कस्बाई युवक-युवतियों को देखें, तो वह कौड़ियों के भाव बिकने को लालायित है। वह पैकेज और प्रमोशन की लालच में बाज़ार पूँजीकरण की पूरी तरह गिरफ़्त में है। हम प्रतिभा-पलायन का रोना रो रहे हैं और अगला हमारी ही प्रतिभाओं को हमारे ऊपर नवसाम्राज्यवादी हमले की ख़ातिर प्रशिक्षित कर रहा है। बहरहाल, हम वास्तविक मुद्दों से पलायन करते जा रहे हैं, जबकि आभासी मुद्दों को लेकर छीना-झपटी, हो-हल्ला सर्वाधिक है। अनशन, आंदोलन, प्रदर्शन आदि को हम आधे मन से आहूत कर रहे हैं और पूरे मन से उसका राजनीतिक लाभ उठाने की सोच रहे हैं। जरा सोचकर देखिए, यदि बाहरी दबाव और आरोपण के बीच हमने अपना लोक-मन भी खो दिया, तो फिर बचेगा क्या जिसको हम भारतीय कह सकें?...पेप्सी, कोक, वीवो, अप्पो, एलजी, एप्पल, फेसबुक, ट्वीटर, लिंकडीन, वाट्स-अप, मैक्डोनाल्ड, केएफएसी, गार्जियन, अमेजन, फ्लिपकार्ट, न्यूज़ काॅरपोरेशन...?
कहना यह है कि वैश्विक घुसपैठ ने आमजन के ऊपर राजनीतिक जोर-बल-दाब इतना बढ़ा दिया है कि जनता, लोकतंत्र और साहित्य का भीतरी अंतःसम्बन्ध ख़त्म-सा हो गया है। ऐसे में साहित्य की भूमिका क्या हो और वह इस संकटग्रस्त दौर में अपनी वास्तविक भूमिका का निवर्हन कैसे करे, यह प्रश्न मुख्य है। बीते दौर की विभिन्न प्रवृत्तियों का अध्ययन-विश्लेषण करें, तो स्पष्टतया भारतीय साहित्य ने जन-सामान्य की भाषा में सामाजिक असंतोष-आकांक्षा, जटिलता-संघर्ष, अन्तर्विरोध- द्वंद्व आदि को उपयुक्त वाणी प्रदान किया है; राजसत्ता से सीधे टकराने के अतिरिक्त राजनीतिक चेतना एवं सामूहिक प्रतिरोध के निर्माण में भी सार्थक योगदान दिया है। अतएव, राजनीति और साहित्य का सम्बन्ध क्या हो? वर्तमान में इस बारे में विचार करना जरूरी हो गया है। विजयदेव नारायण साही साहित्य और राजनीति को परस्पर अंतःसम्बन्धित मानते थे, तो उसके पीछे उनका तर्क था कि, ‘’उठती हुई जनता का साहित्य अनिवार्यतः एक बड़े अंश में राजनीति से प्रभावित होगा,इसलिए कि राजनीति जनता के उत्थान का आवश्यक माध्यम है। साथ-साथ वह जनता की कलात्मक प्रवृत्तियों का उत्थान कर नयी संस्कृति का पथ प्रशस्त करता है। यह उसका स्थायी मूल्यों पर आधारित मानवोचित पहलू है।‘’ राजनीति के प्रति भारतीय मनोजगत की यह वैचारिक टिप्पणी अमूल्य है क्योंकि दोनों अपनी मूल-प्रकृति में एक ही खूँटे से बँधे हैं अर्थात-‘सबका हित, सबका विकास अतएव, राजनीति-संवेदित साहित्य का उद्देश्य जीवन का उद्देश्य है। कवि केदारनाथ अग्रवाल की दृष्टि में, साहित्य-कला का उद्देश्य है वर्गविहिन समाज और राष्ट्र की स्थापना करना जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को सम्पूर्ण स्वतन्त्रता रहेगी कि अपनी योग्यतानुसार काम कर उसी के अनुरूप फल पाये।...इनके आवश्यक तत्त्व वे हैं जो देश की समस्त प्रगतिशील शक्तियों के शोषित, शासित और विद्रोही जीवन के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं से, प्रगतिशील तरीके से सम्बन्धित हैं और जो नवीन परिस्थितियों में जनसाधारण की नयी प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न हुए हैं।‘’
इन प्रतिक्रियाओं को संवेदनशील तरीके से समझे जाने की जरूरत है। सबसे गाढ़ी चुनौती वर्तमानजनित समस्याओं, संघर्षों, पारिस्थितिकीय-तंत्र आदि से अपना तादात्मय स्थापित करने का है; अपनी भूमिका को तय करने का है। आज जनतांत्रिक मूल्यों में ह्रास और सांस्कृतिक पतनशीलता को लेकर चिंताएँ बढ़ी हुई हैं। समाज के लिए सबसे वांछनीय जरुरीयात कौन-सी है, इस बारे में सार्थक रायशुमारी अत्यावश्यक है। लेखकीय जुबां में शब्द बाँचते लोगों को इस ओर अपनी आँख रोपने की जरूरत अधिक है। यही नहीं हमें पाठकीयता की दृष्टि से अपनी भाषा, शैली एवं प्रस्तुतीकरण में फेरफार भी करना होगा। 55 फीसदी युवा आबादी वाले इस राष्ट्र का सम्यक् मार्गदर्शन किया जाना साहित्य का धर्म है और साहित्य-ज़मात का लेखकीय कर्तव्य। यानी हम सबकुछ लिखकर या कुछ भी परोस कर छुट्टी नहीं पा सकते हैं। हमें अपनी उपलब्धि गिनाने के साथ अपनी नाकामी भी ढोनी होगी।

2.
आजकर्म औरवचन के बीच दूरियाँ बढ़ रही है नतीजतन, अभिव्यक्त-अभिव्यंजित शब्दार्थ अपनी साहित्यिक मूल्यवता और अर्थ-सत्ता खोते हुए दिख रहे हैं। इसके लिए राजनीति भी कम जिम्मेदार नहीं है। अधिसंख्य राजनीतिज्ञों की साहित्यिक समझ और अध्ययनजीविता की प्रवृत्ति   के बारबर है। अकादमिकजनों से लेकर सैन्य दस्ते तक जड़ता की एकसमान स्थिति है। लिहाजतन, राष्ट्रीयता के भाव-बोध, संकल्प-विकल्प, बलिदान-उत्सर्ग, गौरव-गरिमा आदि महत्त्वपूर्ण प्रश्न खटाई में पड़ते जा रहे हैं। सामूहिकता, सामाजिकता, वैश्विकता, मानवीयता आदि ग्रंथकोश केहवाले हैं और उनका शब्दार्थ निरस्त/ख़ारिज किया जा चुका है। सुधी पाठक बौराया हुआ है क्योंकि पाठ के भीतर का मर्म और मूल्य बाज़ार औरउपभोक्ता-नीति से परिचालित है। अफसोस! भारतीय सचेतनता का मेरुदंड माना जाने वाला बौद्धिक-लेखक वर्ग  बेजुबान स्थिति में है। सबसे बुरीस्थिति यह है कि जो कुछ लोग ठीक-ठीक कहने, सुनने अथवा बोलने की स्थिति में हैं, उनकी बात, विचार, बहस, मुद्दों, चिंताओं आदि को सायासतनअनसुना कर दिया जा रहा है या कि  वह  यूथ-कनेक्टिंग तो बिल्कुल साबित नहीं हो पा रही हैं। जनभाषा के समर्थ और चेतस लेखकों (हिन्दी सहित सभी भाषाओं) की दारुण अवस्था किसी से छुपी नहीं है। जनभाषी वैचारिकी और विचारधारात्मक प्रतिरोध को मटियामेट करने वाली ताकतें आजअंग्रेजी कीसरोगेट तथाइम्बेडेडसंतानें बन चुकी हैं जो लोगों तक पहुँचती सबसे कम हैं; लेकिन उनमें हीनता-बोध सबसे अधिक भरती हैं। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारतीय साहित्य सदैव प्राची-प्रतीची के सहमेल, सद्भाव और सामंजस्य पर टिका रहा है। इसे देख पाने की समग्र दृष्टि और उदात्त भावना का होना आवश्यक है। जहाँ तक जाति और वर्ण-व्यवस्था का सवाल है, तो यह मूर्खों की संगत और पंगत का परिणाम है। गैर-जरूरी लोगों ने अपनी एक कोटि बनाई और कालांतर में भारत की सर्वसाधारण जनता पर थोप दिया। मुहम्मद बिन कासिम और बाबर की संताने कहाँ से कहाँ आकर आक्रमण कर सकती हैं, धावा बोल सकती हैं, तो इन वर्णसमाजियों के बाहरी होने पर फिर क्या एतराज़ होगा। आज ये खुद ही इतने बौने हैं कि उन्हें कोई भी कीमत देकर ख़रीद सकता है। उनको भ्रष्ट बना सकता है। अपने ईमान--धर्म से च्यूत कर सकता है। अब ये नाम में नहीं पैसे में जीते हैं। अब ये ठग बनकर नहीं काॅरपोरेटी दलाल बनकर लूटते हैं। जो वर्णसमाजी अथवा मनुवादी नहीं हैं उनकी प्रतिबद्धता और पक्षधरता स्मरणीय और उल्लेखनीय है। भारतीयता के निर्माण में जुटे ऐसे लोगों की संख्या कम भले हो, लेकिन वे बर्बर, अपराधी और अमानुषिक प्रकृति के नहीं हैं। साहित्य उनके लिए धरोहर है, तो लेखकीय समाज सांस्कृतिक पूँजी। उनकी रचनाओं में लोक-दर्शन अपने तईं  व्याप्त है, इरादतन निर्मित या निर्माणाधीन नहीं है। ऐसे ही लोगों से यह अपेक्षा भी की जा सकती है कि, “नयी सूचना-व्यवस्था के इस युग में उन्हें सिर्फ संचार-असंतुलन के विरूद्ध मोर्चा लेना चाहिए, बल्कि तृतीय विश्व के देशों की पुरातन संस्कृतियों, दार्शनिक मूल्यों और सामाजिक आस्थाओं के प्रचारक-प्रसारक के रूप में विकसित भी किया जाना चाहिए। ताकि सूचना-संस्कृति आधारित नवउपनिवेशवाद के विरूद्ध तृतीय विश्व में प्रबुद्ध जनमत विकसित किया जा सके।
पश्चिम ने उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद की जिस वैश्विक-संस्कृति को आगे बढ़ाया है उसमें मानवीयता के प्रश्न पीछे छूट रहे हैं।आज उन्माद की हद तक युद्ध को पैदा किया जा रहा है। आतंक का लिहाफ ले कर पूरे विश्व पर एकाधिकारवादी वर्चस्व के झंडे फहराए जा रहे हैं।कई बार वैश्विक युद्ध सम्बन्धी भारतीय मीडिया कवरेज सोची-समझी प्रस्तुति की बजाए अंधख्याली अधिक मालूम देता है। हमारी मानसिकता पर यह प्रायोजित तरीके का  सूचनात्मकबम्बारडिंगहै जो दुनिया के बारे में हमें सही दृष्टिकोण बनाने और इसकी बेहतरी के बारे में सोचने से रोकता है। हमयुद्ध के कारण की जगह उसके विवरण पर अपना ध्यान अधिक केन्द्रित करते हैं जिससे समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है। चित्रकार और संवेदनशील लेखक अशोक भौमिक सही ज़िरह करते हैं, ‘‘तमाम युद्धों के कारण जो भी रहे हों, विनाश निरीह नागरिकों औरसैनिकों का ही होता रहा है। जिनका युद्ध की कूटनीति से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, ऐसे बच्चे, बूढ़े, औरतें युद्ध में हताहत होते रहते हैं या विस्थापितहोते रहते हैं। हिरोशिमा-नागासाकी में अणुबम, वियतनाम में नेपाम बम, स्कड मिसाइलों की बारिश में जो अनगिनत लोगों की मौतें हुई और जिनअनगिनत लोगों की हत्या आज भी जारी है वे दरअसल एक संख्या से अधिक कुछ भी नहीं रह गए हैं। युद्ध ने हमारी चेतना को कुंद बना दिया है।सूचना और तकनीक के नए माध्यमों के विकास और प्रसार के चलते विश्व के अधिाधिक लोग तब तक निरपेक्ष दर्शक बनकर घटनाओं का आनंद लेतेरहते हैं जब तक गोली उनकी खिड़की से होकर कमरे में दाख़िल हो जाती हो। किसी युद्ध में मरे हुए लोगों की संख्या से ही उस युद्ध की विभीषिकाको मापने की हमारी मानसिकता अमानवीय है। आज राष्ट्रप्रेम, देशप्रेम, धर्म आदि शब्दों को मानव प्रेम के समानांतर खोजना होगा किप्रेमकी इनसंकीर्ण अवधाराणाओं से लाभ क्या आम जनता को हो रहा है या फिर राजनेताओं या धर्मगुरुओं को, जिनके द्वारा प्रचारित ऐसे मूल्य ही उनके धंधे कोबनाए रखने के लिए युगों से कारगर रहे हैं।‘’  मूल्यतः युद्ध का कारण मानवीय सदाशयता का अभाव तथा मूल्यों का पतनशील और विघटित होतेजाना है। डाॅ. मंजरी गुप्ता उपयुक्त विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं कि, ‘‘इस वैज्ञानिक युग में जब यंत्र-चालित भौतिकता सम्पूर्ण मानवीय और आध्यात्मिकमूल्यों को विनष्ट करने के लिए खड़ी है। द्वंद्व की ऊहापेाह की स्थिति पूरी तरह मानवीय और वैश्विक समस्या है। अस्तित्व  और अनास्तित्व के बीच,जीवन और मूल्यों के बीच, नैतिक और अनैतिक के बीच, राष्ट्रवाद और घृणा के बीच घिरी मनुष्यता व्यवहार और विवेक के बीच दुविधाग्रस्त है। परतन्त्रता और स्वतन्त्रता की सीमारेखा, व्यक्ति और समाज का सर्वस्व संशय की नोंक पर है। अतः आज एक व्यक्ति किस प्रकार अपने चैतन्य कीरक्षा इस सामूहिक जड़ता से कर सकता है; यह प्रश्न आदि कवि के समय में भी ज्वलन्त था तथा आज के वर्ग-व्यवस्था वाले समाज में भी जीवन्त है।‘’ सचाई हमारी आँखों के सामने है कि उपभोक्ता संस्कृति के बढ़त के बीच आज हर एक चीज बिकाऊ है, ग़लत नियत से हमारे ऊपर थोपी हुई  है।आदर्श जीवन और आदर्श संकल्प की बात बेमानी- सी हो चली है। पूरनचंद्र जोशी के मुताबिक, ‘‘तथाकथित विकासशील समाजों के सन्दर्भ मेंआधुनिकता कोबाहरी विकास' की एक प्रक्रिया के रूप में देखा गया है। ऐसा विकास जो बाहर से अनुप्रेरित और रचित है तथा देश के बाहर केमूल्यों, संस्थाओं, प्रौद्योगिकियों तथा वित्तीय संसाधनों के आयात पर निर्भर है।''
हमें अपने ऊपर नियंत्रण रखना होगा। विशेषतया युवा पीढ़ी को बड़े ही दृढ़ता, साहस और आत्मविश्वास के साथ मौजूदा संकट से टकराना होगा। इस टकराहट में हमारा पहला सामना अपने ही व्यक्तित्व से होगा जो प्रकृतितः आंतरिक जीवनमूल्य से संचालित है। अर्थात् मूल्य जीवन कीसत्ता है और वह प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद है जो प्रायः जिजीविषा के रूप में प्रकट होता है। सामान्यतः इस जीवनमूल्य की घनिष्ठता मानवमूल्यआधारित प्रकल्पों से होती हैं जो हमारे अन्दरजातीय चेतना (मनुष्य होने की चेतना) को जिलाए रखती है। मनुष्य का संकल्प, उसकी प्रज्ञा, उसकाएकान्त, उसकी निष्ठा और उसकी अविचल कर्म-शक्ति उसके जीवन में सबकुछ संभव कर सकती है। आन्तरिक चित्तवृत्ति एवं संस्कार आधारित इस मनोरचना को मनोविज्ञानियों नेसामूहिक अचेतन’ (कलेक्टिव अनकंशियसनेस) कहा है। यहाँ प्रो. जवीद आलम के इस दृष्टिकोण से सहमत हुआ जासकता है कि, ‘‘व्यक्ति अपनी चेतना स्थिर विचारधारात्मक दिशा और प्रत्यक्ष अनुभव से मिला-जुला कर बनाता है। व्यक्ति की विचारधारा में उसकी दुनिया के विभिन्न पहलुओं की उसकी समझ का मिला-जुला अक़्स होता है। विचारधारा में जिन्दगी और दुनिया के सभी पहलुओं का प्रतिनिधित्व हमेशा ही सही-सही नहीं होता। इसलिए चेतना कभी भी यथार्थ-बोध जैसी नहीं होती क्योंकि यथार्थ-बोध किसी किसी रूप में प्रभावित किया जा सकता है। इसीलिए चेतना की एक परत हमेशा बदलती रहती हैं क्योंकि अनुभवों से पैदा हुए अन्तर्विरोधों को सम्पूर्ण रूप से कभी हल नहीं किया जासकता। चेतना की अन्य परतें अधिक स्थायी होती हैं और लोगों की रोजमर्रा की विचारधारा की ज़मीन पर आधारित होती है।‘’ प्रसिद्ध मनोविज्ञानीकार्ल गुस्ताव युंग ने जिसेसामूहिक अचेतनकहा है; वह चेतना की इन्हीं अन्य परतों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण परत है। वर्तमान पारिस्थितिकी-तंत्र मेंहमारा यहसामूहिक अचेतन सर्वाधिक संकटग्रस्त है। साम्राज्यवादी बाहरी शक्तियाँ विश्व-बाज़ार का सुरसा-मुँह लिए सामने खड़ी हैं। उपभोक्तवाद काऑक्टोपसहमारी हुनर, कला, हस्तशिल्प, लघु उद्यम आदि को तहस-नहस करने पर तुला है। हमारी जुबान काट ली गई है तथा हमारी मातृभाषा के कब्र खोदने का षड़यंत्र जारी है। भारतीय मर्मज्ञता, विद्वता, प्रकांडता, उच्च कोटि की बौद्धिकता आदि सबकुछ अंग्रेजी में उपलब्ध है; लेकिन अपनी मातृभाषाओं में देर-सबेर अनूदित होने और बहुत बाद में पहुँचने के लिए अभिशप्त हैं। यह कोई महान सोच नहीं है, भाषाई चेतना की राष्ट्रीय अभिव्यक्ति तो हरग़िज नहीं। क्योंकि भारतीय कला के सम्पूर्ण ब्यौरेवार अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि भारतीय धर्म-दर्शन को संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, अवह्ट्ट आदि भाषाओं के साथ मिलाकर देखा जाए। क्षेत्रीय, स्थानीय या प्रांतीय भाषाओं के ऊपर समान संकट मंडरा रहा है। सिर्फ वे ही खतरे में नहीं हैं जो राष्ट्रभाषा के रूप् में संविधान के अष्टम अनुसूची के अन्तर्गत शामिल हैं। समस्या तो उन बोलियों, उपभाषाओं आदि के साथ जबर्दस्त हैं जो अब तक अपने पहचान की लड़ाई लड़ रही हैं।
ध्यातव्य है कि जनभाषी लेखकों का पश्चिम से कोई टकरावगत स्थिति नहीं है; लेकिन वे अंधानुकरण (देसी-विदेशी) करने से बचते हैं जिसे अंग्रेजी कीलिट्फेबी पीढ़ी (साहित्यिक उत्सवी) आँख मूँदकर अपना लेती है। इस बाबत विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का कथन द्रष्टव्य है-‘‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल नेभारतीय परम्परा को मानते हुए भी अंधानुसरण कहीं नहीं किया है। आधुनिक पश्चिमी शास्त्र-मीमांसा को विदेशी कहकर त्यागा भी नहीं है। यथास्थान उसके सत्पक्ष  का संग्रह भी है।‘’ यही कारण है कि भारतभाषी जनमानस प्लेटो, अरस्तू, लौंजाइनस, कांट, हीगेल, न्यूटन, गैलोलियो, शेक्सपीयर, मिल्टन, वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, आर्नल्ड, रिचर्डस, बनार्ड, ज्या पॉल सात्र, सीमोन बउआर, हैबरमास, मैकलुहान, टेरी ईग्लटन, रेमण्ड विलियम्स, नोम चोमस्की, आॅल्विन टाॅफ्लर इत्यादि से बखूबी परिचित हैं; उन्हें करीब से पहचानते हैं। आधुनिक विकास की प्रगतिशील परम्परा में इनके अवदान का भारतीय अकादमिकजनों और स्वतंत्र लेखकों ने जिस कदर मान दिया है; वह सचमुच स्तुत्य है। अपने आलेखों, स्तंभों, शोध-ग्रंथों, शोध-पत्रों, पुस्तकों आदि में पश्चिमी सिद्धान्तकारों और विद्वानों को जो लोग ससम्मान याद करते रहे हैं यदि उनकी सूची बनाएँ, तो फेहरिस्त काफी लम्बी होगी।
अतः उत्तर शती के विवेकशील प्राणी के रूप में अपनी पहचान करते हुए यदि इस वस्तुस्थिति पर संवेदनशील ढंग से विचार किया गया, तो भारतीय जनसमाज की प्रकृति, अंतःवृत्ति और मनोरचना से सम्बन्धित अनेकानेक चीजें रहस्य मात्र बनकर रह जाएंगी। हम यह कभी नहीं जान पाएंगे कि लोक-मन अथवा लोक-वार्ता केवल लोककथाएँ, परिकथाएँ, पुराकथाएँ, पशुकथाएँ मात्र नहीं हैं, अपितु लोक-जीवन की समूची अभिव्यक्तियाँ इसके अध्ययन का विषय है। जैसे-लोकगीत और इसके अनेक रूप, चुटकुले, धार्मिक संस्कार, लोक-जीवन की पारम्परिक विधाएँ एवं लोक-विश्वास आदि। सम्पूर्ण लोक-मानस उनकी गहराईयाँ, प्रवृत्तियाँ, शक्तियाँ-इन सभी का अध्ययन और अपनी स्मृति में स्थान देना अत्यावश्यक है। साहित्य इन्हीं अर्थों में तो शाश्वत और कालजयी है। राजनीतिक चरित्र को शील-गुण सम्पन्न बनाने में साहित्य की भूमिका अनिर्वचनीय है। लोकतंत्र से चिढ़ने और उसकी सत्ता को अपदस्थ करने की सोच रखने वाले आभिजात्य और पूँजीशाली मध्यवर्ग अपने बेहूदे आचरण के अतिशय प्रदर्शन द्वारा जनतंत्र आधारित संसद की गरिमा को नष्ट कर देने पर तुला है।  उसकी पूरी कोशिश है कि न्याय आधारित भारत की जन-चेतना की बोलती बंद कर दी जाए। प्रायः इस तरह कीप्रक्रिया को राजनीतिक प्रणाली के अन्तर्गत छुपे तौर पर अंजाम दिया जाता है। इसपैटर्नकीइनकोडिंग एवंडिकोडिंग कुछ इस तरह की जाती हैकि शोषण, अन्याय, भेदभाव, असमानता, अत्याचार आदि के बीजाणु-विषाणु प्रत्यक्षतः दिखाई दें। ध्यातव्य है कि सामाजिक बहिष्करण एवं हाशियाकरण की स्थिति को यथावत बनाए रखने अथवा इन्हें बढ़ावा देने के लिएभाषाको एक प्रमुख औजार के रूप में आजमाया जाता है; भाषिक-राजनीति के गंदे खेल को उकसाया जाता है।  असल खतरा इन्हीं से है। उत्तर, पश्चिम, पूरब, दक्षिण का भेदभाव यही पैदा करते हैं। एक-दूसरे के ख़िलाफ जानबूझकर भड़काते यही हैं। भाषासिद्ध सनातनधारियों का सत्यानाश तय है; बशर्ते राजनीति के आगे-आगे साहित्य मशाल लिए चलने वाले लोग आपस में बँटे हुए न हों। आज सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि साहित्य-समाजी पुरानी-नयी पीढ़ी मिलकर आगे बढ़ने की सोचें। एक-दूसरे के साथ जैनुइनमुद्दे पर यथार्थवादी दृष्टिकोण से विचार करे। लिंग-वय-जाति-गोत्र-सम्प्रदाय-समुदाय आदि से ऊपर उठते हुए भारतीयता के प्रश्नपर एकजुट हो सोचने वाले ऐसे ही लोगों से साहित्य का असल उद्देश्य सधेगा और भारतीयता का मुकुट-भाल चमकेगा। अतएव, इस समिधा में हम सबके खपने की आवश्यकता है। हमें इस ओर आज न कल समग्रता में सोचना, विचारना एवं यथेष्ट चिंतन करना ही होगा; यही विकल्प है-एकमात्र, एकमात्र, एकमात्र।    
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सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल प्रदेश-791 112
मो. : 09436848281

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...