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राजीव रंजन प्रसाद
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भारतीय जनता के समर्थन में
पुस्तकों ने लम्बी यात्राएँ की हैं, मोर्चा संभाला है। विभिन्न मत-मतान्तरों, विचार-विचारधाराओं, प्रतिरोध-संघर्षों की गवाह बनी हैं किताबें।
ज्यादा पीछे नहीं आजादी के दिनों की ही स्थूल-सूक्ष्म पड़ताल करें, तो पायेंगे कि औपनिवेशिक
शासन या अंग्रेजी हुकूमत की दमनकारी नीतियों, छल और प्रपंच, जातिवादी मानसिकता, नौकरशाही, पुरोहितवादी प्रवृत्तियों, दूषित न्याय व्यवस्था, प्रेस एक्ट, बंग-भंग, बर्बर चुंगी अथवा टैक्स
इत्यादि को लेकर अलख जगाने में साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रकारिता की भूमिका
अनिर्वचनीय है। पुस्तकें ही नहीं निष्पक्ष-निर्भीक पत्रिकाओं ने भी समग्र चेतना के
निर्माण में नवज्योत का काम किया है। भारत में असल आधुनिकता की शुरुआत यहीं से
मानी जाती हैं जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों-अंधविश्वासों के ऊपर तीखे प्रहार किए, तो दूसरी ओर नवजागरण की
भावभूमि पर राजनीतिक चेतना का संचार किया। उस ज़माने में पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ चेतना की
जाग्रत-कुण्ड थीं जिनसे भारतीय जनमानस को सीख मिल रही थी-‘चरैवति-चरैवति’ या फिर ‘एकला चलो रे’। पुस्तकें यही तो करती हैं। वह हमें अंदर से
परिमार्जित और परिष्कृत करती हैं। वह हमारी चेतना को उद्बुद्ध और जाग्रत करती हैं।
वह हमें मूल्यों से जोड़ती हैं, तो अपनी परम्पराओं के देख-रेख की सीख देती हैं।
भारत में पुस्तक लेखन की
परम्परा बेजोड़ रही है। किताबें जानने, समझने, सीखने और विचार करने की दृष्टि से उपयोगी मानी गईं हैं। ज्ञानार्जन की दृष्टि
से इनकी भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। व्यक्ति, समाज, संस्कृति, राजनीति, भाषा, धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, वाणिज्य-व्यापार, विज्ञान, भूगर्भ, खगोल, चिकित्सा आदि ऐसे
महत्त्वपूर्ण अनुशासन (Discipline) हैं जिनकी पहचान व्यापक है, तो पैठ विश्वतरीय। भारतीय चिंतन-दर्शन में मस्तिष्क को ‘बुद्धि तकनीक’ (Mind
Technology) कहा गया है। ज्ञान के परिसर या परिक्षेत्र में नवाचार (Innovation) और नव्य उद्यमशीलता (Newly
Entrepreneurship) को लेकर जो रोमांच आज हम महसूस कर रहे हैं, उसमें भारतीय ज्ञान-परम्परा
की भूमिका विशेष है। खासकर पत्रकारिता के साथ जनसंचार का सम्बन्ध और भी गहरा, सूक्ष्म, संवेदनीय एवं यथार्थपूर्ण
रहा है। जिन दिनों पत्रकारिता को एक स्वतंत्र विधा मानते हुए वस्तुनिष्ठ तथा
निष्पक्ष लेखन की शुरूआत हुई; उन दिनों भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी मुक्त न होकर प्रतिबंधित थी। सन् 1780 का काल उल्लेखनीय है जब
भारत में पहले समाचारपत्र के रूप में ‘हिक्की गजट’ की छपाई जेम्स आगस्ट्स हिक्की द्वारा प्रारम्भ की गई। आज हम जिन समाचारपत्रों
के बहुविध संस्करण, रेडियो, दूर-दर्शन, इत्यादि नव एवं बहुविध माध्यमों का विस्तार देख रहे हैं, ‘आई.सी.टी.’, ‘इनोवेशन’, ‘कन्वर्जेंस’, ‘न्यू मीडिया’, ‘सोशल नेटवर्किंग’ आदि की आशातीत प्रगति और
अमोघ प्रभावशीलता के बावजूद सचाई सिर्फ इतनी ही नहीं है। ‘डिजिटल इंडिया’ के सर्वत्र उद्घोष या जयगूँज सुनने को मिल रहे
हैं। किताबों एवं पत्र-पत्रिकाओं के नेट और वेब संस्करण चहुँओर बड़ी सुगमता से
उपलब्ध हैं। हम अब पढ़ने का तरीका भूलकर लिखी चीजों को देखने के ढर्रे पर आगे बढ़
रहे हैं। यह खतरनाक है। भारत की सामासिक-संस्कृति या कह लें सामूहिक मानस के ख़िलाफ
यह एक ‘शीतयुद्ध’ है जिसमें ‘स्थायीत्व’ और ‘सतत् विकसनशील
विचार-प्रवृत्ति को दरकिनार करने का षड़यंत्र लगातार जारी है। विशेषकर, “उपग्रह टीवी के द्वारा
हमारी अस्मिता, हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों तथा हमारे ऐतिहासिक सन्दर्भ पर जो कुठाराघात
हो रहा है उसमें हमारे अस्तित्व के लिए एक अभूतपूर्व खतरा उत्पन्न हो गया है।“ इसका मुख्य कारण यह भी है
कि हमारे भीतर नैतिक आस्था संजोने तथा मूल्य-निर्माण करने वाली जो
सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएँ रही हैं; उनकी पतनशीलता और भ्रष्टता अब किसी से छुपी नहीं है। ज़ाहिर तौर पर ज्ञान, इच्छा और क्रिया का शाश्वत
अनुक्रम और संतुलन बिगड़ गए हैं। अब वास्तविकताएँ घटित होने के बाद अर्थ और
महत्त्वहीन सिद्ध होने लग रही हैं। मजे की बात यह कि इन सारी ख़राबियों की जड़ में
पूँजीवाद प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से शामिल हैं।
इस विषबेल के कई संचारी-तत्त्व हैं- अनैतिक आग्रह, राजनीतिक पूर्वग्रह और पूँजीगत दुराग्रह। आज
बाज़ार-प्रभुत्त्व में हैं इसलिए उनके अवयव हर जगह प्रभावशाली मुद्रा में हैं।
भूमंडलीकृत इस विश्व में जो चीजें व्यक्ति और समाज पर अधिक कहर बरपा रही हैं या कि
पूरा विश्व उनके कब्जे में हैं; वे हैं-काॅरपोरेट घराने, धनिक उद्योगपति, दौलतमंद व्यवसायी, जमाखोर व्यापारी, मुनाफाखोर और कालाबाज़ारी में नधाये कारोबारी इत्यादि।
ध्यान देना होगा कि
नकारात्मक प्रभाव के कारण उत्पन्न कुहरीला को छाँटने में पुस्तकें आज भी
सर्वश्रेष्ठ औजार हैं। संचार सम्बन्धी सैद्धान्तिकी, विचार-प्रक्रिया, तकनीकी-प्रौद्यौगिकी आधारित परिवर्तन, परावर्तन एवं अभिसरण
इत्यादि को लेकर प्रभूत लेखन-कार्य निर्बाध जारी है। वैसे भी आज के बेहद जटिल समय
में संचार-प्रवृत्तियों तथा उसके बहुविध ठिकानों को निकट से जानना जरूरी हो गया
है। इसके अतिरिक्त अकादमिक शोध की दशा-दिशा, रूपरेखा एवं स्वरूप आदि को जानने-समझने की
दृष्टि से इनका अध्ययन-अनुशीलन अपरिहार्य है। इसकी अनिवार्यता इसलिए भी है क्योंकि
प्राचीन-अर्वाचीन संचार विधा ने मनुष्य को काफी भीतर तक प्रभावित किया है। इस
प्रभावशीलता को जन-सापेक्ष और जन-पक्षधर बनाने में भाषा की भूमिका अन्यतम है। हमें
यह नहीं भूलना होगा कि भाषा संचार द्वारा अंतःविकसित किन्तु व्यक्ति-विशेष द्वारा
अर्जित एक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रम है। भाषा स्थूल-सूक्ष्म रूप में संज्ञान-बोध, कल्पना, स्मृति, अनुभव, विचार, दृष्टि इत्यादि प्रत्ययों
का वाहक भी है। वैसे भी बातचीत मनुष्य का गुण है। मनुष्य इसी गुण के नाते
संचार-प्रक्रिया में स्वतः भाग लेता है। ध्यान देने योग्य है कि, संचार में किसी वक्ता अथवा
संचारक के वक्तृत्व-कला की पहचान होती है। व्यवहार-जगत में वाक् बोली जाने के कारण
भाषा का उपयुक्त विकल्प है। यह जानना बड़ा दिलचस्प है कि सभी व्यक्तियों में
वाक्-क्षमता समान हो; यह आवश्यक नहीं है। प्रत्येक मनुष्य एक-दूसरे से भिन्न है। इस भिन्नता के कारण
ही भाषा में विकल्पन (Variation) की स्थिति उत्पन्न होती है। दरअसल, ज्ञात अर्थ के लिए समाज कोई शब्द-विशेष सुनिश्चित कर देता है और उस शब्द का उस
अर्थ के साथ यादृच्छिक सम्बन्ध जुड़ जाता है। यह सम्बन्ध स्वाभाविक न होकर आरोपित
होता है। इस शब्द-अर्थ सम्बन्ध को संकेत-ग्रह कहते हैं। वास्तव में भाषा न केवल
दृश्यमान जगत से सम्बन्धित वस्तुओं आदि के बारे में अभिव्यक्ति का साधन है, बल्कि अनुभूत विचारों की
अभिव्यक्ति का भी साधन है।
इसीलिए तो देशकाल से
जुड़ी-बँधी भाषा अपने समाज की संस्कृति का वाहक होती हैं। अतः लेखन में
सर्जनात्मक-कौशल अर्थात अपने विचार या भाव को अधिकाधिक प्रभावी बनाने की जरूरत
पड़ती है। माध्यम-विभेद के इस ज़माने में अथवा बहुविध माध्यमों की उपस्थिति में इसकी
महत्ता भाषा-अनुप्रयोग के बरास्ते ही संभव है। खासकर जनसंचार एवं पत्रकारिता की
दृष्टि से इसके सर्जनात्मक रूप-प्रकार अथवा साहित्यिक-स्वरूप को ज़ाहिर-प्रकट करने
में किताबे मुख्य सेतु सिद्ध होने वाली हैं। हिंदी भाषा को ‘खड़ी बोली’ के रूप में खड़ा करने वाले भरतेन्दु
हरिश्चन्द्र की बात करें तो, ‘‘उन्होंने मानवीय जगत के शाश्वत मूल्यों, मूल प्रवृत्तियों के परिष्करण और परिमार्जन की
संभावनाओं को स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने अंग्रेजी शासन-व्यवस्था के
दौरान देश की धार्मिक, सांस्कुतिक और आध्यात्मिक मृतप्राय परम्परा को जीवनदान दिया। उन्होंने
अंग्रेजी शासन-व्यवस्था से उत्पन्न अराजकता, असंतोष और अभावग्रस्तता को साहित्य के माध्यम से
जनसाधारण को परिचित कराया।“ इसी तरह भारतीयता का मूल बीज तलाशने का काम भी भारतीय विद्वानों ने किया है।
अपनी पुस्तकों या कि अपनी पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने पश्चिम के प्रति नतमस्तक
होने की जगह स्वयं की मिथकीय चेतना के महत्त्व को पहले स्वीकार किया है। उदाहरण के लिए देखें, तो ‘‘श्री नरेश मेहता ने अपने काव्य में सामाजिक
विचारों को आधुनिक ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने पुरा कथाओं, प्रकृति एवं सौन्दर्य के
चित्रों के माध्यम से आधुनिक जीवन की विषमताओं, अभिशप्त व्यक्तियों की दारुण-यंत्रणाओं और
प्रश्निल आदि स्थितियों को दर्शाया है।’’
ऐसे में पाठकीयता के
प्रयोजन आवश्यक हैं, भाषिक-प्रयुक्तियों का दिग्दर्शन अपरिहार्य है; और इसे लेखन द्वारा ही साध पाना संभव है। इसी
नाते भाषा की वैचारिकी और सामाजिकी को लेखन द्वारा आज भी सबसे अधिक समझाया-बताया
जाता है। इस बारे में अपनी सहमतियाँ-असहमतियाँ आदी दर्ज की जाती हैं। भाषिक
मनोव्यवहार सम्बन्धी अनुप्रयोग अर्थात् मनोभाषिकी को लेकर प्रभूत
समाजभाषावैज्ञानिक एवं मनोभाषावैज्ञानिक लेखन-कार्य इससे इतर भी बहुतेरे हुए हैं।
भारतीय विद्वानों ने पश्चिमी चिंतकों-विचारकों और उनकी लिखी पुस्तकों का सहर्ष
स्वागत तथा अपने प्रसंगानुकूल अर्थ-सन्दर्भों में बहुतायत उपयोग किया है। यदि
भाषा-विज्ञान को ही उदाहरण के रूप में लें, तो हॉकेट का ‘ए कोर्स इन जनरल लिंग्विस्टिक्स’; हैरिस का ग्रन्थ ‘स्ट्रक्चरल लिंग्विस्टिक्स’; ब्लूमफील्ड का ग्रन्थ ‘लैंग्वेज’; रॉबर्ट हॉल की पुस्तक ‘एन इन्ट्रोडक्शन टू
लिंग्विस्टिक्स’; संरचनात्मक भाषाविज्ञान के बहुचर्चित ग्रन्थ माने गये हैं। इन सभी ग्रन्थों
में भाषा की समरूपता पर बल दिया गया है। नॉम चामस्की ने 1957 ई. में और 1965 ई. में ‘द सिमाॅन्टिक स्ट्रक्चर आॅस्पेक्टस’ और ‘द थ्योरी ऑफ सिन्टेक्स’ ग्रन्थों की रचना की और इन
दोनों ग्रन्थों में भाषा को मनोवादी आधार प्रदान किया गया है। चॉमस्की ने भी
सर्वाभौमिक व्याकरण की परिकल्पना द्वारा समरूपी भाषा को महत्त्व दिया और विभिन्न
बोलियों और उपबोलियों को मानक भाषा का स्खलित रूप माना। उपर्युक्त दोनों आयामों को
आधार मानकर इनके भाषायी समरूपता के सिद्धान्त को अस्वीकार करते हुए 1966 ई. में समाज भाषा विज्ञान
का आविर्भाव हुआ और समाज भाषाविज्ञान के जनक लेबॉब ने ‘सोश्योलिंग्विस्टिक पैटर्न्स’ पुस्तक लिखी जो बहुचर्चित
रही। जे. ए. फिसमैन ने ‘सोश्योलोजी ऑफ लैंग्वेज’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में भाषा के सन्दर्भ में समाज के विभिन्न
रूपों का वैज्ञानिक विवेचन लेबॉब और फिशमैन दोनों ने अपनी-अपनी पुस्तकों में
अमेरिकी समाज को आधार बनाकर वहाँ की भाषा का विवेचन किया है। विलियम ब्राइट द्वारा
सम्पादित पुस्तक ‘सोश्योलिंग्विस्टिक्स’ शीर्षक से बहुचर्चित रही। जे. वी. प्राइड और जेनेट होम्स द्वारा सम्पादित ‘सोश्योलिंग्विसटिक्स’ शीर्षक की पुस्तक भी
सर्वाधिक चर्चा का विषय बनी। इस पुस्तक में दोनों सम्पादकों ने लेबॉब जे. ए.
फिशमैन गम्पर्ज और अनवर एस दिल. द्वारा लिखे गये समाज भाषा विज्ञान सम्बन्धी लेखों
को प्रकाशित किया है। पश्चिमी देशों में समाजभाषाविज्ञान पर सर्वाधिक संख्या में
पुस्तकें लिखी गयी हैं। ट्रडगिल, रोनाल्ड वर्धा, आर. ए. हडसन आदि विद्वानों ने ‘सोश्योलिंग्विस्टिक्स’ शीर्षक से ही अलग-अलग स्वतन्त्र पुस्तकें लिखी हैं। आर. ए. हडसन ने अपनी
पुस्तक में समाज भाषा विज्ञान के जिन नियमों और सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया वे
लेबॉब और फिसमैन की मान्यताओं से पृथक सिद्ध होते हैं। गम्पर्ज ने ‘डाइरेक्शन्स इन
सोश्योलिंग्विस्टिक्स’ शीर्षक पुस्तक में समाजभाषाविज्ञान की विभिन्न दशाओं का संकेत किया है।
हर्बर्ट लैण्डर ने ‘लैंग्वेज एण्ड कल्चर’ शीर्षक पुस्तक में भाषा और संस्कृति के अन्तःसम्बन्धों का विवेचन किया है। डेलहाइम्स
द्वारा सम्पादित ‘लैंग्वेज इन कल्चर एण्ड सोसाइटी’ प्रख्यात पुस्तक रही है। इस पुस्तक में समाजभाषाविज्ञान और भाषा का
समाजशास्त्र दोनों पक्षों पर विभिन्न शोध-पत्रों का सम्पादन किया गया है। लेसले
मिलराय द्वारा लिखित ‘लैंग्वेज एण्ड सोशल नेटवर्क’ उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में विभिन्न सामाजिक सिद्धान्तों के सन्दर्भ में
भाषा प्रभेदों का विवेचन किया गया है। सेन्कोफ द्वारा लिखित ‘द सोशल लाइफ ऑफ लैंग्वेज’ महत्त्वपूर्ण पुस्तक है।
इस पुस्तक में विभिन्न भाषा प्रयोगों के माध्यम से सामाजिक विविधता को विवेचित
किया गया है। सुजाने रोमेने द्वारा सम्पादित ‘सोश्योलिंग्विस्टिक्स वैरिएशन इन स्पीच
कम्यूनिटी’ बहुत ही उपयोगी पुस्तक रही है। विलियम ब्राइट द्वारा सम्पादित ‘लैंग्वेज कल्चर एण्ड
सोसाइटी’ महत्वपूर्ण पुस्तक मानी
गयी है। इस पुस्तक में भाषायी विविधता प्रक्रिया और समस्या भाषायी विविधता में
संरचना की कोशभाषा और समाजिक व्याख्या आदि शीर्षकों में भाषा और समाज के सम्बन्धों
को स्पष्ट किया गया है। मार्टिन मोन्टगोमरी द्वारा लिखित ‘इन इंट्रोडक्शन टू लैंग्वेज एण्ड सोसाइटी’ महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस
पुस्तक में भाषा और समाज के बहुआयामी और बहुस्तरीय सम्बन्धों का विवेचन किया गया
है। फ्रेन्चन डी. मंजाली द्वारा सम्पादित ‘लैंग्वेज सोसाइटी एण्ड डसिकोर्स’ महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस
पुस्तक में भाषा और समाज के सम्बन्धों को प्रोक्ति के माध्यम से विवेचित किया गया
है। हैरी होइजर द्वारा सम्पादित ‘लैंग्वेज इन कल्चर’ महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में संस्कृति के सन्दर्भ में भाषा का विवेचन
किया गया है। मेरी सेन्चाज और बेन जी. ब्लान्टच द्वारा सम्पादित ‘सोश्यो कल्चरल डाइमेन्शन्स
ऑफ लैंग्वेज’ बहुत ही उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में समाज और संस्कृति के सन्दर्भ में
भाषा के विभिन्न प्रयोगगत आयामों का विवेचन किया गया है। माइकेल पेराडिस द्वारा
सम्पादित ‘ऑस्पेक्ट्स ऑफ बाइलिंग्वलिज्म’ महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस
पुस्तक में द्विभाषिकता और बहुभाषिकता का विशद् विवेचन मिलता है। सूसनगल द्वारा
लिखित ‘लैंग्वेज शिफ्ट’ महत्वपूर्ण पुस्तक हैं। इस
पुस्तक में लेखक ने भाषा विस्थापन की प्रक्रिया का विभिन्न आधारों पर विवेचन किया
गया है: 1) आयु और ऐतिहासिक परिवर्तन, 2) सामाजिक निर्धारक और 3) भाषा, चयन और शैली चयन। इसी
प्रकार ‘बाइलिंग्वलिटी एण्ड
बाइलिंग्वलिज्म’ पुस्तक बहुत उपयोगी है जो शियाने एफ. हेमर्स और माइकेल एच. ए. ब्लेक द्वारा
लिखी गयी है। इस पुस्तक में द्विभाषिकता और द्विभाषावाद का अन्तर स्पष्ट किया गया है। डिबोरा शीफिन
द्वारा लिखित ‘चेंज टू दा डिस्कोर्स’ उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में लेखक ने वार्तालाप और उसके विभिन्न रूपों को
आधार बनाकर भाषा रूपों और भाषा प्रयोगों को विवेचन किया है।
समग्रतः भाषा-व्यवहर, वाक्-व्यापार और
व्यक्तित्व-नेतृत्व को लक्ष्य कर जिन भी स्वतन्त्र ग्रंथों को विवेचित किया गया है
ये सभी पुस्तकें किसी शोधकर्ता के शोध कार्य के लिए सिद्धान्तों, नियमों के साथ-साथ विपुल
सामग्री भी प्रदान करते हैं। हिन्दी शोध क्षेत्र में हिन्दी शोधकर्ताओं के योगदान
को बखूबी याद किया जाना चाहिए। डॉ. भोलानाथ तिवारी द्वारा लिखित ‘भाषाविज्ञान’, ‘आधुनिक भाषाविज्ञान और
शैलीविज्ञान’ महत्वपूर्ण ग्रंथ है। डॉ. अम्बा प्रसाद ‘सुमन’ द्वारा लिखित ‘भाषाविज्ञान सिद्धान्त और प्रयोग’ संरचनात्मक भाषाविज्ञान से सम्बन्धित स्तरीय पुस्तके हैं। डॉ. कर्ण सिंह
द्वारा लिखित ‘भाषाविज्ञान’ विभिन्न स्रोतों से संकलित तथ्यों के वर्णन पर आधारित उपयोगी पुस्तक है। डॉ.
मोतीलाल गुप्त द्वारा लिखित ‘आधुनिक भाषाविज्ञान’ संरचनात्मक भाषाविज्ञान से सम्बन्धित उपयोगी और महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान
करती है। डॉ. तिलक सिंह द्वारा लिखित ‘नवीन शोध विज्ञान’ ऐसी पुस्तक है जिसमें संरचनात्मक भाषा विज्ञान और समाजभाषाविज्ञान के शोधगत
आयामों का सघन और गंभीर विवेचन मिलता है। इन स्वतंत्र पुस्तकों के अतिरिक्त हिन्दी
क्षेत्र में समाजभाषा विज्ञान से सम्बन्धित अनेक स्वतन्त्र पुस्तकें उपलब्ध हैं।
इन स्वतंत्र पुस्तकों में अधिसंख्य पुस्तकें पश्चिमी समाजभाषाविज्ञान के
सिद्धान्तों पर आधारित है। कुछ पुस्तकें ऐसी भी हैं जो हिन्दी और उसकी बोलियों के
सन्दर्भों से जुड़ी हुई हैं। इन पुस्तकों में अनेक सम्पादित पुस्तकें हैं और एकाधिक
स्वतंत्र लेखन कार्य है। डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव हिन्दी समाजभाषाविज्ञान के
प्रवर्तक माने जा सकते हैं। इनके द्वारा लिखित ‘हिन्दी भाषा का सामाजिक सन्दर्भ’ बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण
पुस्तक है। इस पुस्तक में समाजभाषाविज्ञान और भाषा का समाजशास्त्र दोनों आयामों से
सम्बन्धित तथ्यों का गहन और विशद् विवेचन मिलता है। डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव और
डॉ. रमानाथ सहाय द्वारा सम्पादित ‘हिन्दी का समाजिक सन्दर्भ’ समाजभाषाविज्ञान पर उपलब्ध सभी पुस्तकों में विशेष महत्व रखती है। इस पुस्तक
में समाजभाषाविज्ञान और भाषा का समाजशास्त्र दोनों पक्षों पर 17 शोधालेख प्रकाशित हैं।
डॉ. पी. गोपाल शर्मा और डॉ. सुरेश कुमार द्वारा सम्पादित ‘इण्डियन बाइलिग्वलिज्म’ बहुत ही उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में
विभिन्न विद्वानों ने इतिहास और समकालीनता को आधार बनाकर भारत में प्रयुक्त
द्विभाषिकता और बहुभाषिकता का विवेचन किया है। डॉ. श्रीकृष्ण द्वारा सम्पादित ‘भाषा अनुरक्षण और
भाषा-विस्थापन’ हिन्दी के सन्दर्भ नें उपयोगी संकलन है। इस पुस्तक में हिन्दी और इसकी बोलियों
को आधार बनाकर भाषा-अनुरक्षण और भाषा-विस्थापन का विशद् विवेचन मिलता है। डॉ.
सुरेश कुमार द्वारा सम्पादित ‘हिन्दी के प्रयुक्तिपरक आयाम’ उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में साहित्य और विज्ञान के विषयों का समाज भाषा
विज्ञान के सन्दर्भ में विवेचन किया गया है। डॉ. भोलानाथ तिवारी और मुकुल
प्रियदर्शिनी द्वारा लिखित ‘हिन्दी भाषा की सामाजिक भूमिका’ दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास से प्रकाशित उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में हिन्दी के साथ-साथ
अंग्रजी भाषायी समाज का विवेचन भी मिलता है। भोलानाथ तिवारी द्वारा लिखित भाषा और
संस्कृति महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में भाषा और संस्कृति के सहसम्बन्धों का
विवेचन किया गया है। डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा लिखित ‘भाषा और समाज’ उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में भाषा और समाज
के अन्तर सम्बन्धों का विवेचन मिलता है। डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा लिखित ‘भारत के प्राचीन भाषा
परिवार और हिन्दी’ तीन भागों में प्रकाशित बहुत ही उपयोगी पुस्तक है। इस पुस्तक में हिन्दी
भाषायी समाज का भारतीय भाषायी समाज और भारतेतर भाषायी समाज के साथ तुलनात्मक
विवेचन किया गया है। डॉ. सूरजनाथ द्वारा लिखित ‘हिन्दी भाषा सन्दर्भ और संरचना’ महत्वपूर्ण पुस्तक है। उस
पुस्तक में लेखक ने हिन्दी का सरचनागत और सन्दर्भगत दोनों दृष्टियों से विवेचन
किया है। डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, डॉ. महेन्द्र और मुकुल प्रियदर्शिनी द्वारा सम्पादित ‘सैद्धान्तिक एवम् अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान’ महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह
ग्रंथ डॉ. भोलानाथ तिवारी की स्मृति में लिखा गया है। इसमें समाज भाषाविज्ञान से
सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण लेख संकलित है। डॉ. भोलानाथ तिवारी और डॉ. कमल सिंह
द्वारा सम्पादित ‘सम्पर्क भाषा हिन्दी और भारतीय भाषाएँ’ उपयोगी ग्रंथ है। इसमें हिन्दी भाषा का भारतीय
भाषाओं से सम्बन्ध स्थापित किया गया है। डॉ. मदनलाल वर्मा द्वारा लिखित ‘सामाजिक मेल-मिलाप की
प्रोक्तियाँ’ बहुत ही उपयोगी ग्रंथ है। इस पुस्तक में सामाजिक व्यवहार के विभिन्न पक्षों से
सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के वार्तालापों का विवेचन किया गया है। ‘आज की भाषा, आज का समाज’ मदन लाल वर्मा की
महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह पुस्तक वर्तमान हिन्दी भाषी समाज हिन्दी भाषा और उसकी
बोलियों से सम्बन्ध स्थापित करती है। पुष्पा श्रीवास्तव लिखित ‘मनोभाषाविज्ञान’ पूर्ण मनोयोग से लिखी गई
पुस्तक है जो मनोभाषाविज्ञान को एक स्वतंत्र अनुशासन मानकर उनका गंभीर शोधानुशीलन
प्रस्तुत करती है। सूर्यदेव शास्त्री ने भाषा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन ‘भाषा और मनोविश्लेषण’ नाम की पुस्तक से किया है, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण
पुस्तक है। डाॅ. कृष्णकुमार गोस्वामी लिखित पुस्तक 'शैक्षिक व्याकरण और हिंदी भाषा' भी आज के अकादमिक परिवेश
तथा शैक्षणिक जगत के लिए एक पठनीय पुस्तक है।
यद्यपि हिंदी का साहित्यिक
जगत प्रभूत लेखन का सदैव साक्षी रहा है। इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी की परम्परा में आगे आये डाॅ. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखित पुस्तक ‘काव्य-भाषा पर तीन निबंध’ साहित्य के शील-परीक्षकों
तथा कला-मर्मज्ञों के लिए जरूरी तौर पर पठनीय पुस्तक है। साहित्यिक प्रतिबद्धता
संग लेखन की इस धुरी पर डटे लेखकों में प्रोफेसर नामवर सिंह का नाम अन्यतम हैं।
उनके लेखन का स्वर और स्वभाव शोधार्थी का है जो अपने-आप में विलक्षण बात है। बाद
की पीढ़ी ने नामवर सिंह के आलोचना-कर्म का न सिर्फ अनुकरण किया है, अपितु ‘काॅपी’ भी उतना ही हुआ है। आलोचना
की इस नकलची संस्कृति ने विचारों के स्तर पर विविधता तो रोपी है, लेकिन उनमें मौलिकता एवं
विशिष्टता का सर्वथा अभाव है। खैर, ये हमारे लिए अभी चर्चानुकूल नहीं है। बहरहाल, आज हम सब सायास-अनायास समस्याओं, चुनौतियों, संघर्षों, बाधाओं आदि का सामना कर
रहे हैं। प्रत्यक्षतः राजनीतिक-तंत्र मूल्यविहीन होते जाने को अभिशप्त है। आज
आवश्यकता सक्षम नेतृत्व एवं उपयुक्त विकल्प की है जबकि व्यक्ति-पूजा और नायक-दर्शन
की झूठी छवियों, सत्य मालूम देते प्रवंचनाओं, मनुष्यता को क्षरित करते आडम्बरों आदि से घिरे हुए हैं। इस समय सम्यक्
विवेक-दृष्टि की जरूरत है। सक्षम राजनीतिज्ञों, राजनीतिक विश्लेषकों आदि को सच के पक्ष में गला
बुलंद करने की आवश्यकता है। हमें नए प्रतिमान गढ़ने होंगे। आलोचना के नए फ़लक तैयार
करने होंगे। समसामयिक लेखन और अकादमिक शोध इस लक्षित अभियान को पूरा करने में सबसे
निर्णायक योग दे सकते हैं। इसी तरह जनमाध्यम को नए सिरे से जनमत-निर्माण की
प्रक्रिया पूरी करनी होगी। यह काम हो रहा है। इस समिधा में जुटे लेखकों-लेखिकाओं
का कहा-सुना वरेण्य एवं स्तुत्य है।
(जारी....)
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