Wednesday, June 26, 2019

मोदी सरकार ने किए सभी पोर्न बेबसाइट बैन, जय माता दी!

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यह अच्छी ख़बर इस नरेन्द्र मोदी सरकार में ही संभव थे। सरकार ने मनुष्यता के नवनिर्माण में क्रांतिकारी निर्णय लेते हुए सभी पोर्न साइटों पर बैन लगा दी है। यह सामाजिक शुचिता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का जीता-जागता परिणाम है।

सचमुच वन्दे मातरम्, जय श्री राम, मोदी-मोदी!

(ख़बर की सत्यता की जाँच आप स्वयं कर लेने के लिए स्वतन्त्र हैं!)

Tuesday, May 21, 2019

देशराग


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डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है,
तुम रोओ या हँसो की
तेरे सिर्फ रो-हँस लेने से
देश कभी बनता नहीं है
देश कभी मरता नहीं है
मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है।
तुम जागो या सोओ की
तेरे सिर्फ जग-सो लेने से
देश कभी बनता नहीं है
देश कभी मरता नहीं है
मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है।
तुम चाहो या चाहो की
तेरे सिर्फ चाह चाह लेने से
देश कभी बनता नहीं है
देश कभी मरता नहीं है
मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है।
तुम प्रेमी हो या द्रोही फिर
तेरे सिर्फ प्रेमी-द्रोही हो लेने से
देश कभी बनता नहीं है
देश कभी मरता नहीं है
मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है।

एक जन के एक जन्म से
देश कभी बनता नहीं है
देश कभी संवरता नहीं है
एक व्यक्ति के एक मरण से                                        
देश कभी मरता नहीं है
देश कभी झुकता नहीं है।
मिट्टी का तन देश नहीं है
यूँ बात-बात पे मिटता नहीं है।
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Monday, May 13, 2019

ठगिनी नैना क्यों झमकावे

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पत्रकारिता ईमान-धर्म की स्थायी चेतना है, आस्थावादी कर्मकाण्ड, झोलझाल, पाखण्ड या स्तरहीन कोई ऐसी चीज नहीं जिसमें भाषा-विचार बरतने की तमीज तक न शामिल हो। यह बात ‘कागद की लेखी’ और ‘आँखन देखी’ दोनों के लिए लागू होती हैं। पत्रकारिता की समस्त अन्तर्वस्तु अनुभव-सत्य और अनभय-सत्य पर आधारित होती है। आज यह पूँजी द्वारा हस्तांतरित तथा सत्ता द्वारा निर्देशित ‘मैनेजमेंट मीडियम’ है। माध्यम पर आज कब्जा मध्यस्थों का है जिनके लिए मीडिया बिकाऊ है, भाट और चारण है। यह उनलोगों के दखलांदाजी का शिकार है जिनका एकमात्र ध्येय जनता की भाव-संवेदना-विचार को ध्वस्त कर देना है। दरअसल, मुनाफे की संस्कृति राष्ट्रीयता के किसी विचार-बोध, विचार-दशा अथवा विचार-दर्शन को स्वीकार नहीं करती हैं क्योंकि उनके लिए ‘सूचना, ‘शिक्षा’ और ‘मनोरंजन’विचार विवेक द्वारा प्रस्तुत-प्रस्तावित न होकर कौड़ियों के भाव बिकाऊ है, पूँजी द्वारा हस्तगत कर लेने योग्य है।
यह प्रायः इस कार्यशैली में शामिल लोगों की जातिवादी पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है कि वे बिकेंगे अथवा नहीं। टेलीविज़न की बेहयाई अथवा उसकी बदचलनी के लिए वे जातियाँ एकमात्र जिम्मेंदार हैं जिन्होंने अपनी आभामण्डल और वर्चस्व को कायम रखने के लिए पत्रकारों की नई फौज इस पेशे में इरादतन आने ही नहीं दी क्योंकि वे दूसरी-दूसरी जातियों से थे और इससे उनका कथित शुद्धिवादी चोला तार-तार हो जाता। बुद्धि की जगह शुद्धि को व्यावहारिक मानने वाले राष्ट्र को सद्गति मिलनी तय होती है। आज मीडिया इसी हूम-जाप-समिधा में जुटी है; इस हक़ीकत और यथास्थिति को स्वीकार करना हमारी नियति नहीं मजबूरी ज्यादा है। मीडिया में ‘एक तरह की जात की पाँत’ अधिक दिखलाई देती है। जब किसी माध्यम का वह भी खासकर जनसंचार माध्यम का रूपांतरण जाति-विशेष में अनूदित हो चुका हो, तो फिर इस अनुसृजन का मजा लिजिए, मौज कीजिए।
नतीजतन, अधिसंख्य टेलीविजनपोशी सम्पादक, पत्रकार, विशेषज्ञ स्टूडियो में जाने से पूर्व अच्छे से सँवरते, अपना केश काढ़ते हैं, आईने में अपनी छवि निहारते हुए सेल्फी लेना पसंद करते हैं। वह जानते हैं टेलीविजन के सामने वही कहना है जिसे टेलीविजन पर आकर बोलने का मौका देने वाले ने तय कर रखा है। खरीदी-विचार के ये बंधु-टपोरी पत्रकारिता का ‘क ख ग’ न जानते हों, तो भी उनका कहना-बोलना टेलीविज़न पर अहर्निश जारी होता है। उनके कहे-सुने, प्रतिक्रिया-प्रतिवाद आदि में विवेक व विचार-दृष्टि नहीं होते, तो इसका रोना भी नहीं रोना चाहिए; क्योंकि भाड़े के टट्टू रट्टुमल ही होंगे; और क्या? यह और बात है, वे अपने को हीरामन समझते है!
दरअसल, टेलीविज़न के अंदरखाने में पूँजीशाही की तूती बोलती है या फिर राजनीतिक बाबूगिरी चलती है। सत्ता की पटरानियाँ (नेता, मंत्री, नौकरशाह) मीडिया को हरम बनाकर उनका गैरजरूरी इस्तेमाल करती हैं, लेकिन दर्शकों को मजा आता है क्योंकि जनानेखाने में ताँक-झाँक की हमारी प्रवृत्ति ऐतिहासिक है, पेज-थ्री सर्कुलेशन सर्वाधिक है। मीडिया के बाबत रोना-रोने वालों (तथाकथित ठेठ, खाँटी और देसी शुभचिन्तकों) को अपने आँख का इलाज करना चाहिए या कि अपनी कनपटी पर जोरदार तमाचा जड़ना चाहिए, क्योंकि मीडिया के मौजूदा हाल-दशा के लिए वे ही सबसे ज्यादा जवाबदेह हैं जो इसकी ताकत से सुपरिचित थे; लेकिन न जाने किस सौतिया डाह के टेलीविज़न में घुस आये बीमारियों को तमाशाबीन अथवा मूकदर्शक बन देखते रहे, यह सोचकर कि इससे हमारा लेना-देना क्या? फिर आज शुचिता की माँग टेलीविज़न से क्यों? रेडलाइट की तरह यह भी रेडकारपेट मीडिया है। अंतर बस इतना है कि एक में शरीर रौंदी जाती है और दूसरे में विचार। पैसा तो दोनों जगह चलता है।
यद्यपि जो टेलीविज़न के ‘आई विटनेस’ हैं उन्हें पता है कि दूरदर्शन (डीडी) ने 1995 में ‘प्राइम टाइम’ में बीस मिनट के समाचार बुलेटिन ‘आजतक’ और अंग्रेजी में ‘एनडीटीवी’ का ‘टुनाइट’ प्रायोजित समाचार-प्रसारण शुरू हुए थे। यह तो बहुत बाद में कहें तो 31 दिसम्बर, 2000 से 24 घंटे के निजी न्यूज़ चैनल का विकास स्वतन्त्र रूप से ‘आजतक’ के रूप में हुआ। बात-बात पर इतिहास का हवाला देने वालों के लिए बता दें कि 1992 में भारतीय परिक्षेत्र में ‘एशेल ग्रुप’ द्वारा ‘जी टीवी’ का शुभारंभ हुआ तो इस चैनल ने आंधे घंटे का न्यूज बुलेटिन ‘आज की बात’ जारी किया था। 1993 में मीडिया मुगल के नाम से मशहूर रुपर्ट मर्डोक ने ‘जी टीवी’ से साझेदारी की और संग-साथ मिलकर ‘ई-एल टीवी’ दिसम्बर, 1994 में प्रारंभ किया। यही बाद में यानी जनवरी, 1998 में 24x7 घंटेवाली समाचार चैनल के रूप में विकसित हुआ ‘जी न्यूज़’ के नाम से।
रुपर्ट मर्डोक ने आते ही दूरदर्शन की प्रसारण-शक्ति और दर्शकीय-अभिरुचि को अपनी ओर खींच लिया। समाचारों का प्राइवेटीकरण हो गया और दूरदर्शन ने अपनी असंगतियों और अव्यवस्था का शिकार होते हुए अपना महत्त्व और जनाधर खो दिया; क्या किसी से छुपी बात है। राष्ट्रभक्ति पर बाँह ऊपर उठाने या भारतीय सनातनता को लेकर हमेशा एक ही तरह का बांग देने वाले की टोली उस समय कुछ नहीं बोली, क्योंकि सोचा होगा दूरदर्शन के लुट-पिट जाने से उनका बनना और बिगड़ना ही क्या है? इतिहास दुहरा रहा है। अब बात जनसंचार माध्यम से सीधे जनतंत्र के तीन स्थायी स्तंभों के खरीद-बिक्री पर आ टिकी है। लिहाजतन, राजनीतिक बाँझपन भी इसी रास्ते पर है। आगे की रामकहानी में इन दिनों भारतीय जनादेश से खिलवाड़ का जो उपक्रम रचा-बुना जा रहा है; भारतीय जनतंत्र की पराधीनता तय है। अचानक से हम रुपर्ट मर्डोक के ‘आॅक्टोपस’ चंगुल की तरह अमेरीकी या बाहरी गुलामी स्वीकार करने को विवश होंगे। बेहतर विकल्प के लिए अमेरीकी बाज़ार की तरह अमेरीकी सत्ता-तंत्र के अधीन हो जायेंगे। और उस दिन जब सब गुलाम होंगे भारत-दुर्दशा पर रोने के लिए कुछ लोग भारतेन्दु जी से लेकर प्रभाष जोशी जी की आत्मा तक को बुला रहे होंगे।
अवसर की इन संभावनाओं को देखते हुए जय-जय कीजिए, धन्य होइए! खैर!

Saturday, February 9, 2019

यदि आप पत्रिकाएँ खरीदकर नहीं पढ़ते, तो ईमानदारी और निष्ठा की बात रहने दीजिए!



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डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

कहावत है-‘सौ सुनार की, एक लुहार की’। पत्रिकाएँ ठोक-बजाकर मुद्दों को सामने लाती हैं। स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में पत्रिकाओं ने जो ज़मीन बनाया; विचारों के धरातल पर राजनीतिक चेतना का जो निर्माण किए वह बेजोड़ कही जानी चाहिए। उनकी भूमिका को भाषा के मुहावरेदानी में अक्षरशः बता पाना हो सकता है-संभव न हो; लेकिन उन्होंने जनपक्षधरता के जो उदाहरण पेश किए हैं, वह सचमुच बेमिसाल है। पत्रिकाएँ सूचनात्मक और विवरणात्मक मात्र नहीं हुआ करती है; बल्कि उनकी प्रकृति पाठक के विवेक को चुनौती देते हुए उनसे लड़ने-भिड़ने एवं टकराने का होता है। उनके द्वारा अर्जित अनुभवों पर रंदा चलाना होता है। वह ग़लत बातों को रेतती हैं, लेकिन तर्क सहित। पत्रिकाएँ झूठ को नंगा करती हैं और वास्तविक तथ्य को पुष्ट करती है, वह भी बड़ी निर्ममता के साथ। अपनी रचनाशीलता में पत्रिकाएँ दुनिया का सर्वांग सौन्दर्य उपस्थित कर देती हैं जिसे हम हीक भर निहार सकें, दुलार सकें, गले लगा सकें। कुल मिलाकर हम मनुष्य बने रहे इस समिधा में चेतस पत्रिकाएँ अहर्निशु जुटी होती हैं।
आजकल की बात दूसरी है। बिकाऊ लोगों ने पत्रिकाओं की ऐसी की तैसी कर दी है। उनके तकनीकी ताम-झाम बहुत हैं। चमकीली चमक-दमक बेशुमार है। पर विचार में बौनापन ऐसा कि आप यदि उनके झाँसे में आए, तो समझिए सत्यानाश! ऐसा नहीं है कि इन दिनों अच्छा कुछ भी नहीं है। लेकिन खोजने के लिए आजकल जूझना पड़ेगा। अपने साहस से निकलती और पाठकों के मन में पैठती लघु-पत्रिकाओं ने बड़ा फ़र्क उत्पन्न किया है। लेकिन उनकी आर्थिक ताकत कम होने से पहुँच अपर्याप्त है। अपनी जुटान-निपटान के माध्यम से निकलती ऐसी पत्रिकाओं को देखें तो वे अपने दख़ल में हस्तक्षेपी एवं प्रतिरोधी प्रकृति के हैं; पर वे अपने लेखकों, आलोचकों, समीक्षकों की आर्थिक मदद कर पाने में अक्षम हैं। ऐसे में कौन लेखक, आलोचक, कवि या साहित्यकार ताउम्र पत्रिकाओं के लिए अपना जांगर लुटायेगा। पाठकों में भी कई श्रेणियाँ है। तनख़्वाही प्रोफेसरों ने तो पत्रिकाओं को पढ़ने से ही तौबा कर लिया है, लेकिन लिखना जारी है। कुछ नेक जरूर हैं जो बिन मांगे-कहे समय से पत्रिकाओं को अपना सदस्यता शुल्क देते हैं। इसमें भी बहुत कम ही होंगे जो पत्रिका के आजीवन सदस्य हों।
अधिसंख्य प्रोफेसरों/अध्यापकों को तो मौजूदा पत्रिकाओं के नाम ही नहीं पता है और मालूम है तो ताजा अंक के बारे में मुँह सिले हुए हैं। ज्यादा पीछे न जाइए क्या आपने ‘कथादेश’ पत्रिका का दिसम्बर अंक पलटा है। यदि हाँ तो आपने सुधीर विद्यार्थी का संस्मरण पढ़ा होगा-‘एक इबारत जो लहूलुहान है’। इसी अंक में देखा होगा आपने भालचन्द्र जोशी का-‘कविता के घर में मनुष्यता का रहवास’। आपकी नज़रें जरूर इनायत हुई होंगी बजरंग बिहारी तिवारी के दलित प्रश्न से-‘ओड़िया दलित साहित्य’ शीर्षक से। इसी तरह ‘जनमत’ पत्रिका के नवम्बर, 2018 अंक में अवश्य ही देखा होगा-‘किसान क्रांति यात्रा: सवालों से भागती सरकारें’ विशेषांक का नव-कलेवर।
सजग पाठक सब जानते ही हैं इसलिए संक्षेप में कहें, तो ऐसे ही आपने देखा होगा ‘शीतल वाणी’, ‘रचना समय’, ‘हंस’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘सबलोग’, ‘जन मीडिया’, ‘पाखी’, ‘साहित्य अमृत’, ‘वाक्’, ‘तद्भव’ ‘सोच विचार’ आदि पत्रिकाओं के ताजातरीन अंक। अपने समय की विचारवाही पत्रिका समयांतर को कैसे भूल सकते हैं आप जिन्होंने अपनी पत्रिका के जनवरी-2019 अंक को दो दशक के साहित्य और संस्कृति पर केन्द्रित किया है। परिकथा का जनवरी-फरवरी, 2019 अंक के बारे में अवश्य ही सुन रखा होगा जो नव-लेखिकाओं के रचना-संसार पर केन्द्रित है। यदि आप पढ़ने की शौकीन हैं, तो हंस का पिछला विशेषांक ‘नवसंचार के जनाचार’ अवश्य ही पढ़ा-देखा होगा। अपनी तरह की अलग पत्रिका जिसने विशेष रूप से आपका ध्यान खींचा होगा-‘इंडिया इनसाइड’ का ताजा अंक जो ‘साहित्य के समकाल’ का पड़ताल करती है। यह लघु पत्रिकाओं की अपरिमित ताकत ही है कि शुद्ध मुनाफ़े वाली व्यावसायिक पत्रिकाओं ने भी साहित्य वार्षिकी निकाला है। ‘इंडिया टुडे: 2018’ का अंक देखें जिसका शीर्षक ही शानदार है-‘रचना का जनतंत्र’। मेरी अपनी सीमाओं के कारण बहुत-सी उल्लेखनीय पत्रिकाओं का नाम छूट जाना स्वाभाविक है; पर मेरा इरादा यहाँ महज़ पत्रिकाओं का नाम गिनाना मात्र नहीं है; बल्कि उनकी अनिवार्यता की ओर संकेत करने मात्र का है।
कहना न होगा कि हर पत्रिका ने अपनी तरह से अपने मौजूदा समय के महत्त्वपूर्ण लेखकों से जरूरी सामग्री इकट्ठा कर/जुटा कर पाठकों को समृद्ध करने का बीड़ा उठाया है। उन्हें भरा-पूरा करने के लिए रचनात्मक सामग्री जुटाया और अथक मेहनत संग सम्पादित कर हम पाठकों तक पहुँचाया है। ऐसे सम्पादको का शुक्रगुजार होना लाजमी है जो समय के बनैले त्रासदियों और उसकी चपेट से हमें बचाना चाहते हैं। दूरदर्शी सम्पादकों के प्रति हमारा सर इस कारण भी झुक जाता है कि वे अपनी पूरी जिंदगी खपाकर हमें बचाने में जुटे हुए हैं। उन रचनाकारों को भी हम दिल से आभारी हैं जिन्होंने अपनी भूख की जगह हमारे भविष्य की चिंता करना जरूरी समझा है। वे जानते हैं कि भूकम्प आने से ठीक पहले तक ज़मीन पर दरारें नहीं हुआ करती हैं; सुनामी आने के ठीक पहले तक किनारों पर भगदड़ नहीं मचे होते हैं; लेकिन जब अन्धकारा को लगातार गाढ़ा और पैना किया जा रहा हो तो देर-सवेर हमारे उजाले के परखच्चे उडेंगे ही उडेंगे। हमारी खुशहाली में डाका पडेगा ही पडेगा। इसे नौजवान पीढ़ी भले न देख पा रही हो, लेकिन अनुभवी आँखें अपनी इंद्रियों से संभावित खतरों को भाँप लेने में सक्षम है, समर्थ है। ऐसे सम्पादकों में किन-किन का नाम का नाम लिया जाए, लेकिन जिन्होंने भी अपनी साहस और जीवटता के बूते पत्रिकाओं को जिंदा रखा है उनके प्रति हमारा कृतज्ञ होना जरूरी है।
लेकिन हम पाठक क्या सचमुच भरोसे के काबिल हैं? क्या हने इन पत्रिकाओं के महत्त्वपूर्ण अंकों को खरीदा है। अपने डाक के पते पर शुल्क देकर मंगाया है। यदि नहीं, तो फिर हम कैसे पाठक हैं! सोचना होगा। क्या हममें इतनी भी सदाशयता नहीं बची है कि हम विचारों को महत्व दें। अपनी रूह में उन पत्रिकाओं के शब्दार्थ को शामिल करें। हमारे लिए तमाम कठिनाइयों को झेलती, बर्दाश्त करती इन लघु पत्रिकाओं को जिंदा रखने में हमारा कोई फ़र्ज नहीं है? कोई भूमिका नहीं है? हमें सोचना होगा कि बाज़ारवादी आक्रमण और पूँजीवादी धौंस के बावजूद पत्रिकाएँ बची हुई हैं; येन-केन-प्रकारण नियमित प्रकाशित हो रही हैं तो पाठकों के नेकदिली और भरोसेमंद साथ के ही कारण। संख्या में बेहद कम किन्तु सहृदय और संवेदनशील पाठक कुल के बावजूद अपना जान निसार किए हुए हैं। उनकी मेहरबानी और दिलचस्पी ही लघु पत्रिकाओं की असल ताकत है। ऐसे पाठक मनस्वी होते हैं जो अपनी पत्रिकाओं को दुलारते हैं। समय से सहयोग और न्यनतम सदस्यता शुल्क नवाज़ते रहते हैं। बाद बाकी, तो मुँह बाये ऐसे लोगों की टोली हैं जिनमें लिखने-छपने की ललक तो ग़जब होती है पर पत्रिकाओं को महीने-दर-महीने खरीदकर पढ़ना गुनाह लगता है। पत्रिकाएँ भी आजकल दाम में कुल महंगाई बढ़ोतरी के बाद भी पचास रुपए की कीमत के आस-पास टंगी है। कुछेेक विशेषांकों की बात छोड़ दें, तो पत्रिकाओं के साधारण अंक प्रायः 100 से नीचे के ही होते हैं।
तिस पर भी सम्पादकों के सामने विकट संकट यह होता है कि सदस्यता शुल्क पाठकों से बड़े आग्रह-अनुरोध के बाद मंगाने होते हैं। बिक्री केन्द्रों का बर्ताव तो और ठस एवं गैर-जिम्मेदाराना है। ऐसे में पढ़े-लिखें लोगों से ही उम्मीद-अपेक्षाएँ सर्वाधिक है। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि कहाँ चली जाती है पूरी दुनिया को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले लोगों की ईमानदारी, निष्ठा, लगाव और पाठकीय प्रतिबद्धता जो सम्पादक को अपने लिए आर्थिक सहयोग ख़ातिर भी मान-मनुहार करना पड़ता है। नौकरी के लिए ललायी नई पीढ़ी की उदासीनता ने भी इस संकट को और गाढ़ा किया है। विचारों के ग्रहण-बोध की उनकी सहज लगाववृत्ति को मौजूदा परिवेश नेे नज़र लगा दी है, लेकिन उनकी खुद की नियत भी सही नहीं है। उनकी आँख बिना किसी दृष्टि-दोष के कुछ भी सही नहीं देख पा रही है। अधिसंख्य युवा अलग-अलग खाँँचें में उलझे हुए हैं। शब्दों की गंभीरता और विचारों की ताकत से नावाकिफ़ ऐसे युवजन यदि पत्रिकाओं को खरीदकर पढ़ने मात्र लगें, तो लघु-पत्रिकाओं के समक्ष खड़ा एक बड़ा संकट हल हो जाएगा। आर्थिक मोर्चे पर आत्मनिर्भर होने से ये पत्रिकाएँ विचारों के स्तर पर अधिक सशक्त और प्रभावशाली होंगी। इन पत्रिकाओं से जुड़े स्वतन्त्र लेखकों को भी कुछ आर्थिक सहूलियत हो सकेंगी।

Tuesday, February 5, 2019

मुर्गाकुल मीडिया : डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

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एक मुर्गे की मामूली ग़लती बर्दाश्त नहीं, वहीं पूरा देश मनुष्यरूपेण भारतीय मुर्गे से त्रस्त है क्योंकि उन पर मीडिया का वरदहस्त है!

यह लिखने-पढ़ने की दुनिया का मुर्गाकाल है। मीडिया की दुनिया में बुद्धिवादी मुर्गों की आमद इन दिनों बढ़ी है। उन्हें ऐसी-ऐसी जगहों पर ‘फिट’ किया जा रहा है जिस ऊँचाई से कही-सुनी बात का असर शानदार होता है। अर्थात् टेलीविज़न के स्क्रीन पर, सिनेमा के परदे पर, समाचार-पत्र के पन्नों पर, सार्वजनिक मंच तथा मचानों पर आदि-आदि। ये खास नस्ल के मुर्गे हैं। इनकी विशेष कुल, गोत्र और जाति है। इनकी पहुँच एकवर्गीय है और प्रकृति वर्चस्ववादी। इसलिए इनका कहा इस पूरे मुल्क के लिए सनातनी, शाश्वत और कालजयी है। उनका वर्तमान ही नहीं है, अतीत और भविष्य भी इनकी मनमानी व्याख्या पर है। इतिहास और भूगोल सब के सब इनकी ही गिरफ़्त में है। ये वही लोग हैं जो बाहर से दाहिनापंथी हैं तो बायाँपंथी; लेकिन अन्दर से एकमेक हैं। आयातीत विचार वाले वामपंथी न तो दिल से नेक हैं और न दिमाग से। उन्होंने ही दक्षिणपंथियों को सिरजा है, उभारा है। कायम और काबिज किया है। हर तरह की सभा-दल में शामिल ऐसे लोगों ने कभी किसानों को अपनाया नहीं। उनका दुःख देखा नहीं। उनके बच्चों को रोजगार नहीं दिया। जातीय हेकड़ी की कमर तोड़ी नहीं। ज़मीने बाँटी नहीं। चल-अचल सम्पतियों पर समानता का ‘वीटो पाॅवर’ पेश किया नहीं। बस विचारों की फेरबदली में लगे व जुटे रहे। 

चुरकी की दिशा और जनेऊ की जगह बदलकर वामपंथी और दक्षिणपंथी बने ऐसे लोगों ने येन-केन-प्रकारेण मीडिया को पालतू बनाया। शैक्षणिक पाठ्यक्रमों को अपने जातीय दंभ और अहंकार के अनुकूल बनाया। सबसे अधिक बौद्धिकों ने ज्यादती की। भाषा में छल किया। तिस पर ये दावा करते हैं-क्रांति का, रामराज्य स्थापित करने का। यही वे मुख्य सूत्रधार हैं जो सवर्ण और अ-सवर्ण का मुद्दा उठाते हैं। चारों तरफ फैलाते-पटकते हैं। ये जानते हैं कि लोग समझदार और विवेकवान दिखाई दें, तो उन्हें आपसदारी के संवाद में जोड़ने की जगह उलझा दो, उनको लड़ा दो। 

मुर्गाकुल मीडिया भी इसी समिधा में खेत है। वह वंचितों की नहीं है, क्योंकि मीडिया में आये अधिसंख्य लोग आपराधिक मानसिकता के हैं। वे दिखने में जितने सुडौल हैं अन्दर से उतने ही बिगड़ैल और ख़राब नियत वाले हैं। ऐसे 'मीडिजन' झमकदार पहनावे में अपनी बात कहते और मनवाते हैं। दरअसल, ये बदनस्ली मुर्गे जनपक्षधर बांग देने की बजाय कुछ और कर रहे हैं। जागरण, जागृति, मशाल, मिसाल इत्यादि अब उनके जुमले हैं जिसे आधार बनाकर ‘औरन को सीख’ बाँच रहे हैं। पत्रकारिता खुद अपने नागरिकों को दौड़ा रही है, हदसा रही है, डरा रही है, उनके भीतर भीतर भय का घनघोर वातावरण सिरज रही है। आश्चर्य नहीं कि यह देश के होनहारों को, कर्णधारों को अवसादग्रस्त व कुंठाग्रस्त करने में अव्वल है। देश में मीडियापोसी मुर्गों की कमी नहीं है। अब मुर्गे की बलिहारी ऐसी कि वे सड़कों पर खुलेआम घूम रहे हैं। इस-विस-जिस को सरेआम-खुलेआम काटते फिर रहे हैं। हत्या, हिंसा, उगाही, दलाली, बवाल, आगजनी, दंगा, फसाद, बलात्कार इत्यादि इनके ही उपजाए सैरागाह हैं। मीडिया के ये कारामाती मुर्गे पत्रकारिता के नए मानक खोजने और मानदण्ड स्थापित करने पर तुले हैं। 

पत्रकारिता बकवादी हो रही है इसलिए वह पाठक की खरीद पर नहीं राजनीतिक प्रचार पर निर्भर है। उनके विवेक का सत्यानाश करते हुए राजनीतिक मनोरंजन परोस रही है। मनोरंजन अब हाशिए पर नहीं मुख्य पृष्ठ पर है। बिके हुए सम्पादक भाट-चारण होने की शर्त पर लगातार बकवास कर रहे हैं। उनके लिए आयातीत मुद्दे ही असल सत्य हैं। इसी गढ़े हुए सत्य का महाकुंभ लगाकर पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं को उसमें गोता लगाने और लगाए रखने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। देश में गरीबी, बेरोजगारी, अपराध से मुक्ति, स्त्रियों की सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, बुनियादी जरूरतों की पूर्ति, शिक्षा के उन्नत होते स्तर, लोगों में विकसित होता कर्तव्य-बोध, दायित्व या नैतिक आचरण सब पर चर्चा जोरदार हो रहे हैं। बहस-संवाद पुरजोर दिख रहे हैं। लेकिन ज़मीनी अथवा वास्तविक बदलाव नहीं हो रहा है। अब हर पाठ का कुपाठ हो रहा है; अंतःपाठ या अन्तर्पाठ बिल्कुल नहीं। 

मीडिया इस तरह पूरे मुल्क में फैल-पसर रही है। सरकार ने बेहतरीन सुविधाओं के साथ निजी चैनलों का सरकारीकरण कर दिया है। नामकरण से इतर इस अघोषित सरकारीकरण में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बड़ी निवेश कर रही हैं। वे राम-लीला, कृष्ण-लीला, हनुमान-लीला, शंकर-लीला के प्रदर्शन-प्रस्तुति हेतु खुले दिल से चढ़ावा चढ़ा रही हैं। उनके निर्माण में बड़ी धनराशि लगा रही हैं। देश को बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बिना तिरंगे के आकार-प्रकार व रंग में फेरफार किए सबकुछ बदल दिया है। हमारी चेतना और विवेक को रंगीन बना दिया है। हमारा देश राम-कृष्ण की कहानी देखते हुए पोर्नोग्राफी देख रहा है। बच्चे और किशोर बदलाव के सबसे लम्बे डग भर रहे हैं। वे जिन सिसकारियों के साथ गर्लफ्रेंड-ब्वायफ्रंेड बन गलबहियाँ करते हुए घूम-फिर रहे हैं, उसमें ग़लत कुछ भी नहीं है तो यह भी सच है कि उसमें स्थायीत्व भी नहीं है। अब जिंदगी की मुख्य धुरी कहे जाने वाले परिवार को नए दौर के बहुतेरे युवाओं ने दिमाग-बाहर कर दिया है। वे संस्कार के नाम पर नैतिक पालन करने की बजाय स्वार्थसिद्धि में जुटे हुए हैं। 

अब मुर्गाकुल मीडिया में नधाए लोग ही असल जिंदगी में लेखक हैं, शिक्षक हैं, नेता हैं, नौकरशाह हैं, मंत्री-हुक्मरां हैं। ये अपने गाजे-बाजे संग देश को साहित्य की नई बात बता रहे हैं। अध्यात्म-दर्शन पर व्याख्यान दे रहे हैं। समूचे देश को भाषण पिला रहे हैं। शासन-व्यवस्था बनाए रखने की ताक़ीद दे रहे हैं। देश को गुजरे सभी सालों से बेहतर दशा-स्थिति में होने का दावा पेश कर रहे हैं। जबकि उनका देश कहीं नहीं हैं। वे बिके हुए मुर्गे हैं। देश की दलाली करते हुए अल्प समय में करोड़ों का वारा-न्यारा किए हुए लोग हैं। सभी संसाधनों पर जबरिया अपना एकाधिकार जमाए हुए लोग हैं। ये लोग दो टांग पर खड़े मुर्गे हैं जिनकी मांसल भाग पर देशवासियों की नहीं, पूँजीवादी ताकतों की गिद्ध-दृष्टि हैं। यह और बात है, ऐसे मुर्गे जिनकी गंध बदबूदार होती है और प्रजाति उछलखोर इस समय मुल्क में सबसे बड़े 'ब्रांड' बने हुए हैं। उनकी बढ़ी हुई मांग इस कारण भी है कि लोकसभा चुनाव सामने आने वाला है। ऐसे मुर्गे अपनी गरदन मरोड़े जाने से पहले तक औरों की मजा लेते रहेंगे। दूसरों के ऊपर हँसते रहेंगे। अपनी बारी तक वे चाहेंगे कि इस देश में उनके सिवा कोई नहीं बचे।

निपट अनाड़ी ऐसे लोगों के लिए ‘बाबा नाम केवलम्’ की तर्ज पर बिकाऊ और बकलोल मीडिया ही सबसे मुफीद और एकमात्र चारागाह है। मुर्गाकुल मीडिया के इस युग में उनसे कुछ भी अपेक्षा रखना अपनी विवेक, साहस और आत्मबल का सत्यानाश करना है।

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...