Monday, May 13, 2019

ठगिनी नैना क्यों झमकावे

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पत्रकारिता ईमान-धर्म की स्थायी चेतना है, आस्थावादी कर्मकाण्ड, झोलझाल, पाखण्ड या स्तरहीन कोई ऐसी चीज नहीं जिसमें भाषा-विचार बरतने की तमीज तक न शामिल हो। यह बात ‘कागद की लेखी’ और ‘आँखन देखी’ दोनों के लिए लागू होती हैं। पत्रकारिता की समस्त अन्तर्वस्तु अनुभव-सत्य और अनभय-सत्य पर आधारित होती है। आज यह पूँजी द्वारा हस्तांतरित तथा सत्ता द्वारा निर्देशित ‘मैनेजमेंट मीडियम’ है। माध्यम पर आज कब्जा मध्यस्थों का है जिनके लिए मीडिया बिकाऊ है, भाट और चारण है। यह उनलोगों के दखलांदाजी का शिकार है जिनका एकमात्र ध्येय जनता की भाव-संवेदना-विचार को ध्वस्त कर देना है। दरअसल, मुनाफे की संस्कृति राष्ट्रीयता के किसी विचार-बोध, विचार-दशा अथवा विचार-दर्शन को स्वीकार नहीं करती हैं क्योंकि उनके लिए ‘सूचना, ‘शिक्षा’ और ‘मनोरंजन’विचार विवेक द्वारा प्रस्तुत-प्रस्तावित न होकर कौड़ियों के भाव बिकाऊ है, पूँजी द्वारा हस्तगत कर लेने योग्य है।
यह प्रायः इस कार्यशैली में शामिल लोगों की जातिवादी पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है कि वे बिकेंगे अथवा नहीं। टेलीविज़न की बेहयाई अथवा उसकी बदचलनी के लिए वे जातियाँ एकमात्र जिम्मेंदार हैं जिन्होंने अपनी आभामण्डल और वर्चस्व को कायम रखने के लिए पत्रकारों की नई फौज इस पेशे में इरादतन आने ही नहीं दी क्योंकि वे दूसरी-दूसरी जातियों से थे और इससे उनका कथित शुद्धिवादी चोला तार-तार हो जाता। बुद्धि की जगह शुद्धि को व्यावहारिक मानने वाले राष्ट्र को सद्गति मिलनी तय होती है। आज मीडिया इसी हूम-जाप-समिधा में जुटी है; इस हक़ीकत और यथास्थिति को स्वीकार करना हमारी नियति नहीं मजबूरी ज्यादा है। मीडिया में ‘एक तरह की जात की पाँत’ अधिक दिखलाई देती है। जब किसी माध्यम का वह भी खासकर जनसंचार माध्यम का रूपांतरण जाति-विशेष में अनूदित हो चुका हो, तो फिर इस अनुसृजन का मजा लिजिए, मौज कीजिए।
नतीजतन, अधिसंख्य टेलीविजनपोशी सम्पादक, पत्रकार, विशेषज्ञ स्टूडियो में जाने से पूर्व अच्छे से सँवरते, अपना केश काढ़ते हैं, आईने में अपनी छवि निहारते हुए सेल्फी लेना पसंद करते हैं। वह जानते हैं टेलीविजन के सामने वही कहना है जिसे टेलीविजन पर आकर बोलने का मौका देने वाले ने तय कर रखा है। खरीदी-विचार के ये बंधु-टपोरी पत्रकारिता का ‘क ख ग’ न जानते हों, तो भी उनका कहना-बोलना टेलीविज़न पर अहर्निश जारी होता है। उनके कहे-सुने, प्रतिक्रिया-प्रतिवाद आदि में विवेक व विचार-दृष्टि नहीं होते, तो इसका रोना भी नहीं रोना चाहिए; क्योंकि भाड़े के टट्टू रट्टुमल ही होंगे; और क्या? यह और बात है, वे अपने को हीरामन समझते है!
दरअसल, टेलीविज़न के अंदरखाने में पूँजीशाही की तूती बोलती है या फिर राजनीतिक बाबूगिरी चलती है। सत्ता की पटरानियाँ (नेता, मंत्री, नौकरशाह) मीडिया को हरम बनाकर उनका गैरजरूरी इस्तेमाल करती हैं, लेकिन दर्शकों को मजा आता है क्योंकि जनानेखाने में ताँक-झाँक की हमारी प्रवृत्ति ऐतिहासिक है, पेज-थ्री सर्कुलेशन सर्वाधिक है। मीडिया के बाबत रोना-रोने वालों (तथाकथित ठेठ, खाँटी और देसी शुभचिन्तकों) को अपने आँख का इलाज करना चाहिए या कि अपनी कनपटी पर जोरदार तमाचा जड़ना चाहिए, क्योंकि मीडिया के मौजूदा हाल-दशा के लिए वे ही सबसे ज्यादा जवाबदेह हैं जो इसकी ताकत से सुपरिचित थे; लेकिन न जाने किस सौतिया डाह के टेलीविज़न में घुस आये बीमारियों को तमाशाबीन अथवा मूकदर्शक बन देखते रहे, यह सोचकर कि इससे हमारा लेना-देना क्या? फिर आज शुचिता की माँग टेलीविज़न से क्यों? रेडलाइट की तरह यह भी रेडकारपेट मीडिया है। अंतर बस इतना है कि एक में शरीर रौंदी जाती है और दूसरे में विचार। पैसा तो दोनों जगह चलता है।
यद्यपि जो टेलीविज़न के ‘आई विटनेस’ हैं उन्हें पता है कि दूरदर्शन (डीडी) ने 1995 में ‘प्राइम टाइम’ में बीस मिनट के समाचार बुलेटिन ‘आजतक’ और अंग्रेजी में ‘एनडीटीवी’ का ‘टुनाइट’ प्रायोजित समाचार-प्रसारण शुरू हुए थे। यह तो बहुत बाद में कहें तो 31 दिसम्बर, 2000 से 24 घंटे के निजी न्यूज़ चैनल का विकास स्वतन्त्र रूप से ‘आजतक’ के रूप में हुआ। बात-बात पर इतिहास का हवाला देने वालों के लिए बता दें कि 1992 में भारतीय परिक्षेत्र में ‘एशेल ग्रुप’ द्वारा ‘जी टीवी’ का शुभारंभ हुआ तो इस चैनल ने आंधे घंटे का न्यूज बुलेटिन ‘आज की बात’ जारी किया था। 1993 में मीडिया मुगल के नाम से मशहूर रुपर्ट मर्डोक ने ‘जी टीवी’ से साझेदारी की और संग-साथ मिलकर ‘ई-एल टीवी’ दिसम्बर, 1994 में प्रारंभ किया। यही बाद में यानी जनवरी, 1998 में 24x7 घंटेवाली समाचार चैनल के रूप में विकसित हुआ ‘जी न्यूज़’ के नाम से।
रुपर्ट मर्डोक ने आते ही दूरदर्शन की प्रसारण-शक्ति और दर्शकीय-अभिरुचि को अपनी ओर खींच लिया। समाचारों का प्राइवेटीकरण हो गया और दूरदर्शन ने अपनी असंगतियों और अव्यवस्था का शिकार होते हुए अपना महत्त्व और जनाधर खो दिया; क्या किसी से छुपी बात है। राष्ट्रभक्ति पर बाँह ऊपर उठाने या भारतीय सनातनता को लेकर हमेशा एक ही तरह का बांग देने वाले की टोली उस समय कुछ नहीं बोली, क्योंकि सोचा होगा दूरदर्शन के लुट-पिट जाने से उनका बनना और बिगड़ना ही क्या है? इतिहास दुहरा रहा है। अब बात जनसंचार माध्यम से सीधे जनतंत्र के तीन स्थायी स्तंभों के खरीद-बिक्री पर आ टिकी है। लिहाजतन, राजनीतिक बाँझपन भी इसी रास्ते पर है। आगे की रामकहानी में इन दिनों भारतीय जनादेश से खिलवाड़ का जो उपक्रम रचा-बुना जा रहा है; भारतीय जनतंत्र की पराधीनता तय है। अचानक से हम रुपर्ट मर्डोक के ‘आॅक्टोपस’ चंगुल की तरह अमेरीकी या बाहरी गुलामी स्वीकार करने को विवश होंगे। बेहतर विकल्प के लिए अमेरीकी बाज़ार की तरह अमेरीकी सत्ता-तंत्र के अधीन हो जायेंगे। और उस दिन जब सब गुलाम होंगे भारत-दुर्दशा पर रोने के लिए कुछ लोग भारतेन्दु जी से लेकर प्रभाष जोशी जी की आत्मा तक को बुला रहे होंगे।
अवसर की इन संभावनाओं को देखते हुए जय-जय कीजिए, धन्य होइए! खैर!

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...