Sunday, May 27, 2018

अपनी भाषा के बारे में : डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

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जब योग्यता को इस कारण बेदख़ल होना पड़ता है कि वह अपने ऊपर काबिज़ भाषा से बेहतर चिंतन-कर्म और विचार-वस्तु अपनी निज-भाषा में सिरजने में सक्षम हो, तो यह सिर्फ किसी विश्वविद्यालय अथवा अकादमिक जगत का ही नहीं समूचे राष्ट्र का दुर्भाग्य होता है। 
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मनोभाषाविज्ञाननवाधुनिक ज्ञानानुशासनों का अध्ययन-क्षेत्र है। भारत में इस बारे में बहुत काम नहीं हुए,, लेकिन बाहर के कुछ महत्त्वपूर्ण मनोविज्ञानियों ने इस पर अवश्य विचार किया है। जैसे-आॅसगुड, सेबियाक, मिलर, बी. एफ. स्कीनर, नोम चाॅमस्की, . वी कटलर आदि। मोटे तौर पर मनोभाषिकी भाषा अधिगम, वाक्-बोधन तथा संज्ञानात्मक प्रक्रिया से जुड़ी-गुँथी हुई मनोदैहिक प्रणाली है। यह प्रणाली बहुरूपीय है और कई मायनों में बहुआयामी भी; क्योंकि मनोभाषिकी का सीधा सम्बन्ध भाषा उपार्जन, बच्चों में भाषा-विकास सम्बन्धी होने वाले स्वाभाविक बदलाव, द्वितीय भाषा अर्जन के प्रयास, भाषा अधिगम की प्रक्रिया, वाग् अवरोध, वाक् दोष इत्यादि के अन्तर्गत उत्पन्न समस्याओं, कठिनाइयों, अभिप्रेरणाओं, अभिवृत्तियों एवं अभिरुचियों तक व्यापक रूप् से फैली-पसरी हुई है। अर्थात् सामान्य रूप् से वाणी के माध्यम से बोली जाने वाली भाषा अपनी वास्तविक एवं मूल संरचना में जटिल तंतुओं का एक ऐसा संजाल है जिससे इस शब्दज संसार की उत्पत्ति या कहें निर्मिति हुई हैं। जब भी वक्ता और श्रोता के बीच अर्थग्रहण की साझी क्रिया सम्पन्न होती है, तो यह अर्थग्रहण आपसदारी की अंतःक्रिया में शामिल वक्ता और श्रोता के सम्प्रेषण-क्षमता के कारण अधिक महत्त्वपूर्ण बनता है। ध्यान दिया जाना चाहिए कि एक ही भाषा बोलने वाले व्यक्तियों की भाषा एकसम नहीं होती है। उनमें यह भिन्नता सम्प्रेषण क्षमता के कारण भी देखने को मिलते हैं। इसीलिए हर एक आदमी की भाषा जो अपनी विशेष पहचान लिए हुए प्रकट होती है; ‘व्यक्ति-भाषा (Idolect) कहलाती है। यदि हम दो व्यक्ति की समान भाषा में विभिन्नता खोजने का प्रयास करें, तो हमें मुख्य कारक जो दिखलाई देंगे, वे हैं-शब्द, सन्दर्भ, परिस्थिति, वक्ता और श्रोता के हाव-भाव, शारीरिक गति, अंग-संचालन, वाक्-प्रत्यक्षीकरण इत्यादि। यहाँ सम्प्रेषण की प्रकृति को भी समझना आवश्यक है। सम्प्रेषण के दौरान हमारा सबसे अधिक बल इस पर होता है कि शब्द किस प्रकार से अभिप्राय को संकेतित करते हैं; उनका कूटीकरण (कोडीकरण) किस प्रकार किया जाता है तथा वे कूट (कोड) सम्बन्धित पक्ष पर क्या-क्या प्रभाव डालते हैं तथा किस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त होती है आदि मिलकर सम्प्रेषण प्रक्रिया के अंग बनते हैं।
            इस शब्दज संसार के किसी भी मातृभाषा में सीखने, समझने, जानने और उस पर यथेष्ट तरीके से विचार करने का काम बचपन से ही शुरू हो जाता है। भाषा अर्जित करने के दौरान हमारे भीतर जो जानने-समझने की आन्तरिक प्रेरणाएँ जन्म लेती हैं; वह कुतूहल से ऊपर की चीज होती हैं; इसे ही जिज्ञासा (Curiosity) कहा गया है। जिज्ञासा भाषा-अर्जन में ‘ओपिनियन लिडर’ (Opinion Leader) की भूमिका निभाते हैं। दरअसल, “जिज्ञासा एक मौलिक प्रवृत्ति है जिसका कोई विशिष्ट आधार नहीं है। जब किसी जीव के सामने कोई नवीन या अपरिचित वस्तु आती है तब उसमें स्वभावतया इस वस्तु को जानने या समझने की इच्छा हो जाती है। जिज्ञासा द्वारा जीव परिवेश से परिचित हो जाता है और उसे अनुकूलन करने में सहायता मिलती है।“[1]
भाषा-अर्जन की प्रक्रिया में खपते बच्चों की दशा, स्थिति और उनके आंतरिक मन को समझना सचमुच अबूझ है। यद्यपि कवि टी. एस. इलियट ने अपनी कविता ‘शीशु-वर्णन’ में बालमन की हरकतों और भाषा में व्यक्त होने को आतुर अन्तद्र्वंद्व तथा अन्तर्विरोध को बड़ी बारीकी के साथ कविता के ‘फार्म’ में रूपाकार देने का प्रयास किया है-
           
           “परम पिता परमेश्वर के हाथों की रचना,
सरल आत्मा
भरा है विश्व जिसके लिए
अनेक प्रकार के शोर और प्रकाश से,
प्रकाश, अंधकार, सूखा या नम; शीतल या गर्म;
घूमता वह मेज और कुर्सी के पायों में,
उठता, गिरता, पाता अनेक चुंबन और खिलौने,
साहसी आगे बढ़ता, कभी चैंकता
कोहनी और घुटने छीलता हुआ
बार-बार चाहता है करना जिज्ञासा शांत,
लेता आनंद
चमकदार, खुशबुदार, क्रिसमस ट्री का
आनंद-हवा में, धूप में और सागर का,
देखता जानता सूर्य प्रकाश में चमकते फ़र्श को
चाँ की तश्तरी में दौड़ते मृग को;
स्वीकारता वास्तविक और काल्पनिक को,
पहचानता हाथ के राजा-राजाओं को,
कूढ़ती हैं क्या परियाँ और
क्या कहते हैं नौकर।
विकासमान शिशु पर है बहुत भार
दिन-प्रतिदिन दिग्भांत और परेशान
सप्ताह-प्रति-सप्ताह होता और भी दिग्भ्रांत परेशान
ऐसा लगता है कि आज्ञाओं के बीच
ऐसा हो सकता है, नहीं हो सकता है-
इच्छा और नियंत्रण।“

बालभाषाविज्ञान की दृष्टि से देखें, तो आॅलपोर्ट के अनुसार,-‘‘बालभाषित व्यवहार अनुभव, याचना और आदेश के रूप् में होता है, जिससे वह दूसरों को अपनी विभिन्न अपेक्षाओं के प्रति ध्यान देने के लिए विवश करना चाहता है, विचार प्रेषण की इच्छा बाद का विकास है।“[2] सामान्यतया इच्छा और नियंत्रण की यह कामना या कहें प्रवृत्ति भाषा का बाना पहनकर बाहर आती हैं। किसी के ज़ाहिर बातों से ही यह पता चलता है कि उसके मन में क्या कुछ चल रहा है, या उसके भीतर कैसे-कैसे भाव जन्म ले रहे हैं। “जब तक मनुष्य अपने विचारों और भावों को अपने तक सीमित रखता है वह किसी को नहीं छेड़ता। ज्यों ही वह उन्हें व्यक्त कर देता है वह उनसे दूसरों को प्रभावित कर देता है।“ भारतीय दर्शन में ‘मन’ की शक्ति को अपरिमित माना गया है। अभिव्यक्त तथा अभिव्यंजित होने से पूर्व अंदरूनी धरातल पर भीतरी संवेगों-संवेदनों का ‘रिहर्सल’ या कह लें ‘कैटवाक’ होता है; इसे मनोभाषाविज्ञानियों ने ‘आन्तरिक संभाषण’ (Interal Speech) कहा है। मन के इसी स्तर पर सोचने यानी चिंतन का काम होता है जिससे व्यक्तित्व का स्वरूप स्थायी बनता है और इसी से किसी व्यक्ति के चरित्र का निर्धारण होता है। दरअसल, सोचना (Thinking) मनुष्य का सर्वोच्च गुण है। सोचने का कार्य यद्यपि प्रत्यक्ष् रूप से दिखाई नहीं देता, परन्तु यह मनुष्य को असीमित आनन्द देता है। भाषा जिस तरह लिखित रूप में लिपिबद्ध होने के बाद रचयिता के लिए ‘स्वान्तः सुखाय’ का हेतु बनती है; वैसे ही आन्तरिक भाषण के दौरान निर्मित प्रत्यय ‘अंतःसुखाय’ का जरिया होते हैं। भाषाविज्ञानियों ने भाषा का सामाजिक सह-सम्बन्ध खंगालने के बहुतेरे प्रयास किए हैं। उन्होंने यह माना है कि भाषा कोई जड़ या जोड़ी गई चीज नहीं है; वह सीधे हमारे वागेन्द्रियों की अतल गहराइयों से निःसृत है। वह अत्यन्त सजीव है और बेहद भाव-सम्पन्न। अस्तु, यादृच्छिक ध्वनि-संकेतों के माध्यम से प्रतीक-व्यवस्था का हिस्सा बनने वाली हर भाषा में कई प्रेरक (Motives), प्रवृत्तियाँ (Propensities) एवं आवश्यकताएँ (Needs) सहभागी-सहयोगी रहती हैं। यथा: शारीरिक (Physiological), मनोवैज्ञानिक (Psychological), आन्तरिक (Innate), अर्जित (Acquired), वैयक्तिक (Personal), सामाजिक (Social) इत्यादि।
                यहाँ हमारा ध्येय किसी भाषा-विशेष की महत्ता को स्थापित करना या उसका स्तुतिगान करना नहीं है। हम सिर्फ भाषा की अन्तर्वस्तु अथवा उसके अन्तर्जगत को जानने-समझने का विनम्र प्रयास कर रहे हैं। यह जरूरी है, क्योंकि भाषा को लेकर इन दिनों एक चलताऊ किस्म का रवैया अपनाया जा रहा है। आज उन्हीं बातों को अधिक प्रश्रय दिया जा रहा है जो चलन में है; कि उन चीजों को जिनका होना हमारे भारतीय होने से ताल्लुक रखता है। भाषा सम्बन्धी भारतीय दर्शन और चिन्तन-कर्म की बात भी करें, तो आधुनिक समय में भारतीय भाषाओं कोडंपकरने की साजिश बर्बर एवं क्रूर तरीके से जारी है। जहाँ तक चलन का सवाल है, तो वरिष्ठ सम्पादक रहे शेखर गुप्ता की चिंता गौरतलब है-‘‘लगातार बँटते ध्यान और 140 अक्षरों तक सिमट गए भव्य से भव्य विचारों के इस दौर में अब शोध-प्रबन्ध भी इस आधार पर तय किए जा रहे हैं कि क्या कुछ चलन में है।“[3] यह ‘ट्रेंड’ सर्वथा ग़लत है और यह नहीं भूलना चाहिए कि अपनी मातृभाषा को नज़रअंदाज करते हुए हम चाहे दूसरी भाषा में खुद को कितना भी ‘जीनियस’ साबित करें, लेकिन हम एक भारतीय के तौर पर अपनी भाषायी गरिमा और राष्ट्रीय आत्मसम्मान खो देते हैं। जबकि मन और विचार में जीने वाले मनुष्य के लिए आत्मसम्मान सबसे महत्त्वपूर्ण संवेग या संवेदनवृत्ति है। चर्चित मनोविज्ञानी मैक्डूगल ने यह साफतौर पर माना है कि आत्माभिमान (Self Assertion) या स्वाभिमान का संवेग मनुष्य के चरित्र का मूल आधार होता है।
(जारी....)


[1]  शर्मा, (डाॅ.) रामनाथ; केदारनाथ रामनाथ प्रकाशन; मेरठ; पृ. 71
[2] अंजु पुरवार के अप्रकाशित शोधग्रंथप्रसाद के नाटकों का मनोभाषिक अध्ययनसे साभार
[3] इंडिया टुडे; 01 जुलाई, 2015; पृ. 23

Sunday, May 13, 2018

बगैर मेरुदण्ड की भारतीय राजनीति में ‘मनस्वी’ राजनीतिज्ञ प्रचार से नहीं विचार से पैदा होंगे!


‘जिस समाज के लोग अच्छे विचारों का सम्मान करना भूल जाते हैं, वह स्वमेव नष्ट हो जाता है!’
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राजीव रंजन प्रसाद

भारतीय दर्शन में ‘मन’ की महिमा अपरंपार है। इन्द्रियों पर नियंत्रण मन द्वारा संभव है। आजतक मनुष्य ने नानाविध-बहुविध जितने भी बदलाव किए हैं उन सबका कर्मस्थली मस्तिष्क है। संकल्प-विकल्प की चेतना इसी मन से सृजित, निर्मित, संचरित और संस्कारित है। वासुदेवशरण अग्रवाल मन का स्थूल-सूक्ष्म विश्लेषण करते है। उनकी दृष्टि में-‘मन ही मनुष्य का दूसरे मनुष्य से भेदक है। जो मनुष्य संकल्पवान मन का भरण करते हैं, वे ही राष्ट्र की निधि हैं।’ इसी में आगे वह मन को ‘कल्पवृक्ष’ बताते हैं, तो कारण कि भारतीय दर्शन में मन की कई अवस्थाएँ और भूमिकाएँ निर्धारित हैं। दरअसल, बालक और युवा में जो अन्तर है, उसमें मन की अवस्था का भेद अधिक है। अस्तु, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के शब्दवृत्त में चाहे हम जितने भी तथ्य, सूचना, आँकड़े, विवरण, उदाहरण आदि जुटा ले या उन्हें प्रक्षेपित कर लें; लेकिन मन की वृत्ति के आगे उनका मूल्य कुछ भी नहीं है। इस कारण मन की अर्थवत्ता का ज्ञान आवश्यक है। भारतीय चिंतक-मनीषियों की दृष्टि में आज ‘अनेक आचार्यों द्वारा विद्यालयों में शिक्षा के आयोजन इसीलिए है कि सच्चे अर्थों में संकल्पवान्, मनःशक्ति से धनी, मनुष्यों का निर्माण किया जाए।’ 


(जारी...

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...