Saturday, May 31, 2014

राजनीति की ट्यून बदलती युवा-पीढ़ी

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जनप्रतिनिधियों को युवा अंध-समर्थन करने की बजाए उन्हें ज़मीनी ककहरा सीखने पर विवश कर रहे हैं। भारत की राजनीति जो अब तक राजनीतिक मुहावरे से चला करती थी; वर्तमान युवा पीढ़ी अब उसका टोंटी दबा रही है। इस बार लोकसभा चुनाव में ये असर खूब दिखे। युवा भागीदारी, हस्तक्षेप और नेतृत्व हर मोर्चे पर जारी है। लेकिन, ये परिवर्तनकारी उफान फिलहाल तात्कालिक है, दीर्घकालिक कम। तब भी राजनीति के बारे में व्यावहारिक हो कर सोचते युवाओं को मौजूदा समय की धारा में तैरना है, आगे बढ़ना है, अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं को पूरा करना है। आधुनिक जीवनशैली का युवा बेरोकटोक लव-इमोशन-फैशन और पैशन चाहता है। राजनीति से जुड़ी मध्यवर्गीय सोच या मानसिकता भी तेजी से बदल रही है। अब काॅलेज-गोइंग लड़कियाँ भी राजनीतिक बहस-मुबाहिसे में जबर्दस्त संवाद-चर्चा कर रही हैं। भारतीय लोकतंत्र का भविष्य अब पारम्परिक राजनीतिक धारणाओं के दायरे को तेजी से तोड़ रहा है। अब नए प्रतीक, बिम्ब, मिसाल, मुहावरे और उदाहरण बनते दिख रहे हैं। पुरानी राजनीति इनकी राह में रोड़ा बनने की लाख कवायद कर ले, उसे अंततः टूटना ही है। जनसरोकार, जनकल्याण, जनसेवा, जनपक्षधरता आदि जैसे शब्दों का सहारा लेकर कई दशक तक धर्म, जाति, सम्प्रदाय, जोड़तोड़, तुष्टिकरण, ध्रुवीकरण की राजनीति करने वाले मुँह की खा रहे हैं। देश का युवा लोकतंत्र में किसी शहजादे अथवा रईसजादे को भेजने की बजाय अब वहाँ खुद होने की ताकीद कर रहा है। अब तक जो परिवार इस ‘गन्दी राजनीति’ से अपने बच्चों को हरसम्भव दूर रखना चाहते थे अब उन्हें इस ओर जाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। भारत में धर्म, जाति, सम्प्रदाय, समुदाय, जैसे मोहरे अपनी हीनग्रंथि को भंजाने के लिए राजनीति करते थे; अब ये औजार ‘आउटडेटेड’ हो चुके हैं। भारतीय जनता को अब सिर्फ न्यायसंगत, निष्पक्ष और पारदर्शी शासन-व्यवस्था चाहिए। वास्तविक संकल्प, विकल्प और नेतृत्व के मूल्यबोध और विवेक-बुद्धि से संयुक्त जनतांत्रिक सरकार चाहिए। अन्यथा अमरीकी ढर्रे के प्रचार के बदौलत अगली बार भी मोदी सरकार बन जाये; इस चमत्कार के बारे में खुद भाजपाई नेतागण भी नहीं सोच सकते हैं।

 (वेबसाइट http://blogs.lse.ac.uk पर राजीव रंजन की टिप्पणी)

शामली: द स्पाइडर गर्ल


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यह कहानी प्रेम की है...प्रेम-प्रसंग की नही।

उस दिन वह नीले रंग की बटनदानी वाली कुर्ती पहने हुए थी। परिधान उस पर जम रहे थे। वह आकर्षक लग रही थी। लड़कियाँ जब आकर्षक लगती हैं, तो मन के भँवरे अपनी आवाज की ट्यून बढ़ा देते हैं। मुझे अपने भीतर के भँवरों की गुनजाहट साफ सुनाई पड़ रही थी। ये भँवरे डोरे डालने वाले नहीं थें, लेकिन थे तो भँवरे ही।

शामली ने आते ही मुझे दस हजार रुपए थमाए थे।

‘‘इतनी जल्दी थी....,’’

‘‘हाँ...,’’ छोटा सा, लेकिन प्यारा-सा जवाब।

मैं और शामली चाय की दूकान से चाय लेकर घुटकने लगे। वह बड़ी मुश्किल से अपना नया सूट दिखाते हुए कुछ बोली थी।

मैं शामली को सुन रहा था। इस सुनाहट में ताजगी थी।

‘‘पापा निक हो गए हैं, माँ भी खुश है। लोग आजकल हरी सब्जियाँ बिना कहे ले आते हैं...कभी शक्कर और मसाले भी।’’

मैं शामली को देख रहा था। उस शामली को जिसने एक तिनके के सहारे खुद को बदल देने का ज़ज्बा दिखाया था।
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शामली जिसकी उम्र 26 साल है; यही कोई तीन माह पहले मुझे मिली थी।

वह बड़ी थी, लेकिन इतनी भी बड़ी नहीं कि मैं उसे अपनी छोटी बहन न कह सकूँ। शामली का स्वभाव बिंदासता के महीन तागे से बुना हुआ था। आँख जो हमारी जिंदगी के सर्वाधिक करीब होते है; वे ज़िन्दगी के सच को ऐसे देखते हैं जैसे किसी फुलझड़ी को जलाकर बच्चे देखा करते हैं...पूरे हुलस, उत्साह और उमंग के साथ। शामली अपनी ज़िन्दगी को ऐसे ही देखती थी।

मुझे पिछली बातें याद आ रही थी।

जिस दिन शामली को मैंने मंदिर की सीढ़ियों के पास पहली बार देखा, उसके आँख में आँसू थे। मैंने आगे बढ़कर उससे बात की थी।

शामली के पिता सूत-कारोबारी थें। पिछले कई महीनों से उन्हें बीमारी ने तोड़ दिया था। माँ दो-चार घरों में बर्तन-बासन कर गुजारा करने लायक कमा-धमा ले रही थीं, लेकिन शामली के पढ़ने के सपने को बलि देकर।

यह सच था। चंद रुपल्ली से ज़िदगी नहीं बदला करती हैं। सो मैंने शामली के घर में बात की। हमसब मिलकर घरेलू तंगी से निपटने का कोई न कोई उपाय सोच रहे थे।

‘‘शामली....हमलोग टिफिन पैक कर लोगों को देंगे...!’’

सब चुप। शामली भी चुप।

‘‘हाँ, शामली! सुुबह-सुबह स्कूल के बच्चों को टिफिन देने का काम करेंगे...बिना लेकिन...परन्तु के।’’

सभी हँस पड़े। लेकिन, इस सुझाव में हामी सबकी थी।
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उस दिन के बाद से शामली रूकी कहाँ?

वह बच्चों की टिफिन में रोटियाँ जेवर की तरह तहियाकर रखती थी। खाने में स्वाद हो, इसका जायज़ा लेने के लिए वह भोजन पहले खुद ही चख लेती थी। शामली पूरे मुहल्ले की ‘प्यारी दीदी’ बन गई थी।

मुझे शामली का चेहरा फुलदानी-सा दमक रहा था। वह मुझे बार-बार अपने घर चाय के लिए आमंत्रित कर रही थी। मैंने उसे प्रामिश किया कि मैं, सीमा और बच्चों के साथ आऊँगा जल्द ही।

शामली संतोष के भाव से मुझे देख रही थी...और मैं शामली जैसी साहसी लड़की का कहानी अपने दिमाग में बुन रहा था।
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Friday, May 30, 2014

‘अच्छे दिन’ गाने वालों का कुनबा और राजघाट के गाँधी

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   ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र ने मंत्रिमण्डल के नक्शे को छापा, तो मन में संदेह के हूक दोहरे हो लिए। ‘अच्छे दिन’ के नारे और मुहावरे टेलीविज़न से गायब हैं; अब ये समाचारों पत्रों के गरदन पर भी आसीन नहीं दिख रहे। हाँ, अलीबाग(महाराष्ट्र) और बंदायूँ(उत्तर प्रदेश) से बुरी ख़बरें हहाती हुई अवश्य आ रही हैं। लोगबाग इसे लेकर कुहराम भी मचा रहे हैं। ‘फास्ट ट्रैक’ निर्णय होने के आसार हैं। आमजन जो रोज इस तरह की बद्तर घटनाओं को देखने-सुनने का आदी हो गया है वह भावी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सुरंग खुदवाते देख रहा है; जिसका मकसद है कि वे अपने प्रधानमंत्री आवास से निकले तो सीधे एयरपोर्ट पहुँचे। शायद! संसद भी पातालमार्गी(अंडरग्रांउड शिफ्ट) हो जाए, तो अचरज नहीं है। इस देश में सरकार और उसका भीतरी तंत्र कारपोरेट इत्र-फुलेल से गमक-दमक रहा है।  आमआदमी के भिनभिनाते-बजबजाते ज़िन्दगी से पिछली बार किसी को दरकार नहीं था; अबकी बार देखिए गुरु, मोदी सरकार किन-किन के दिन फेरने वाले हैं? 

 


मुझे कल तक अपनी चिन्ता भी सताती थी, अब तो वह भी नहीं; क्योंकि अबकी बार सीने पर गोली खाने जैसा स्टंट करना बेवकूफी होगी; ‘अच्छे दिन’ गाने वाले गुलाब फूल छिड़क गए वह क्या कम है? फिलहाल, मेरी सूरत और सीरत न देखिए। मुझसे मेरा नाम और पहचान न पूछिए। बल्कि इस बार गठित अपने मंत्रीमण्डल का हाल-ए-हकीकत देखिए और अन्दाजिए कि क्या आपके वाकई अच्छे दिन आने वाले हैं? अगर हाँ, तो जनता-जनार्दन खुश रहिए, मस्त रहिए।


गोकि जनता-जनार्दन से आशय यहाँ उनसे नहीं है जिनके पास ज़मीन-जायदाद इफ़रात है; उनसे भी नहीं है जिन्हें महीने की अंतिम तारीख को भारी मात्रा में एकमुश्त तनख़्वाह मिलते हैं। यहाँ बात उन सम्पन्न परिवारों के सन्दर्भ में भी नहीं है जिनके बच्चे ‘एन्ड्रायड’ मोबाइल पर वीडियो फिल्मस देखते हैं और अपनी ही माँ को ‘काऊ वुमैन’ कहकर चिढ़ाते हैं। माफ कीजिएगा, यहाँ जनता-जनार्दन का अर्थ उन नवजौवनों से भी नहीं है जो पार्टी-रेस्तरां अथवा डिस्कोथिक में क्रान्तिकारी चे-ग्वेरा का टी-शर्ट पहने हुए नृत्य करते तो दिखते हैं; लेकिन, इस शख़्सियत के बारे में जानने की इच्छा रखने पर उनके मुँह से एक बकार तक नहीं निकलती है। दरअसल, यहाँ जनता-जनार्दन का अर्थ संकुचित नहीं है; उसका दायरा सीमित नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि यहाँ बातें उनलोगों के बारे में की जा रही है जो अपने श्रमबल से अपनी तकदीर और तदबीर बदलने का स्वप्न देखते हैं; जिनके यहाँ पैदा होने वाली सन्तानों में प्रतिभा, योग्यता, दक्षता, प्रवीणता इत्यादि बेशुमार होते हैं, लेकिन ‘बुरे दिन’ के प्रस्तावकों ने उन्हें कभी इस काबिल नहीं समझा होता है कि उन्हें भी वे तमाम सुविधाएँ मुहैया कराई जाए जिनका संगबहनी बनकर कोई भी होनहार-बीरवान बन सकता है।


आँख के बारे में: राजीव रंजन प्रसाद का अनुसन्धान रिपोर्ट

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(Eye-Dwell Communication : Around the Eye)

कुछ नोट्स

-आँखें स्कैनिंग मशीन से अधिक ‘पावरफुल’ और ‘रिएक्टिव’ होती हैं....
-हर घटना हमारे दिमाग में तारीख़वार दर्ज होती हैं....
-हमें सम्पर्क में जो कुछ हासिल है...सबकुछ हमारे संज्ञान-बोध का हिस्सा है...
-वे तमाम क्रियाएँ जिसमें शारीरिक क्रियाशीलता शामिल हैं...आँख उन सभी की ‘रिज्यूमे’ तैयार करती है....
-आँखें झूठ का सबसे अधिक प्रतिवाद करती हैं....
-आँख का प्राकृतिक संकल्प या कहे मूल प्रवृत्ति है-सच का उद्बोधन....
-आँखों के माध्यम से पिछले सभी सच बासबूत जाने जा सकते हैं.....
-आँखें मुहावरा नहीं गढ़ती हैं, लेकिन भाषा के मुहावरों से बखू़बी परिचित होती हैं....

इसीलिए शायद हमारी आँखें सबसे अधिक बोलती हैं, भारत के लोक-माधुर्य के कवि बिहारी कहते हैं:


 ‘‘कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात।
भरे मौन में करत हैं, नैनन ही सों बात।।’’

मित्रो,

आपके समक्ष अपना शोध-पत्र प्रस्तुत करना मेरे लिए एक सुअवसर है।
आपसभी को अभिवादन!

आँख हमारी ज़िन्दगी के बहुत करीब है। या यों कह लें कि हमारी ज़िन्दगी आँख के सर्वाधिक निकट है। हम जानते हैं और यह मानते भी हैं कि दुनिया की सारी चीजें आँख से दिखती है और स्मृति में टंक जाती है। इस टंकाव का सीअन कमजोर नहीं होता है। जैसे झमठार पेड़ की जड़े मिट्टी के गहरे तल में अपनी रिश्तेदारी कायम रखती हैं कुछ-कुछ उसी तरह आँखें इस दुनिया-परिवेश से अपने सम्बन्धों को सुमधुर बनाए रखती हैं। शरीर में बहुत सारे अंग है जिनके रोगग्रस्त होने पर हमारे जीने के रंग फीके पड़ जाते हैं कई बार जान पर भी आ बनती है। यानी हमारे शरीर का अंग-प्रत्यंग सब महत्त्वपूर्ण है; लेकिन, दुनिया को जानने-समझने की लिए आँख सबसे उपयुक्त माध्यम है...इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।

मेरा शोध-पत्र इसी विषयवस्तु की परिधि में आपसे संवाद करने का इच्छुक है।

मित्रो,

मेरा स्पष्ट मानना है कि एक व्यक्ति चाहे वह किसी वय का हो....उसके आँख ने
अबतक जो कुछ देखा है वे सबकुछ उसके दिमाग में सुरक्षित हैं। जैसे आप कोई सामग्री ‘डिलिट’ कर देते हैं, तो भी वे आपके ‘सिस्टम’ से नहीं जाती हैं...तकनीकी जानकार उसे भी जो ‘डस्टबीन’ से ‘गेटआउट’ की जा चुकी हैं....उन्हें खोज निकालता है।

आँखों के साथ भी यही प्रक्रिया चलती है। अनवरत। अहर्निश। निरन्तर।

आपकी आँख ने कोई मृत्यु देखा हो, किसी को चोरी करते देखा हो, भगदड़ होते देखा हो...या कोई भी ऐसी चीज जिसकी तीव्रता, गति और प्रभाव मनुष्य के सम्पर्क-क्षेत्र के दायरे में आता हो...उसे हमारी आँखें अनबोले-अनकहे ढंग से अपने दिमाग में कैद कर लेती हैं। अचेतन, अर्द्धचेतन और चेतन की सामूहिक क्रियाशीलता चाहे कितनी भी परदेदारी कर ले, लेकिन उसे जाना-देखा कभी भी जा सकता है।

मित्रो,

इस दिशा में चैंकाने वाले तथ्य सामने आ सकते हैं। ‘लाई डिटेक्टर’ की अवधारणा आज चलन में है। यह शरीर से प्राप्त संकेतों के आधार पर झूठ पकड़ने में हरसंभव मदद करती है। हमें ‘आई डिटेक्टर’ से यह जानने में आसानी होगी कि जिस घड़ी यह घटना घटी...उस समय सम्पर्क-क्षेत्र में शामिल लोगों की आँखें अपने दिमाग को क्या संकेत दे रही थीं? दृश्य-बिम्बों को वे दिमाग के स्तर पर कैसे चित्रित कर रही थी। चित्रण की विधा कौन-सी रही होगी? यानी म्यूरल, पोट्रेट, पेंटिग या कुछ और।

समय की बेहद कमी की वजह से मुझे अपनी बात तीन मिनट में ख़त्म करनी पड़ रही है। आशा है, इन बिन्दुओं पर आप सभी गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे...हो सकता है हम आने वाले भविष्य को सकरात्मक ढंग से बदलने में आँखों को भी एक जरूरी योद्धा के रूप में शामिल करें।
आप सभी को धन्यवाद!

प्रस्तुतकर्ता
आर्जीव
माॅडरेटर: यूनिवर्सिटी आॅफ सेल्फ



Wednesday, May 28, 2014

फिल्म ‘मम्मा रेस्तरां’ ने चखाया रिश्तों की कद्रदानी का बेजोड़ स्वाद

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भारत एक दिलचस्प देश है। यहाँ सच की तपती ज़मीन पर धैर्यपूर्वक पाँव रख कर कोई भी चाहे तो सफलता अर्जित कर सकता है। हाँ, शर्त है कि आपकी चाहत बीच में ही कमजोर न पड़े। यह बात हाल ही में रिलिज हुई फ़िल्म ‘मम्मा रेस्तरां’ पर बिल्कुल सटीक बैठती है। इस घड़ी चारों ओर इसी फ़िल्म की धूम है। इस फ़िल्म को मिलते रेस्पांस से इस फ़िल्म के युवा निर्देशक सह पटकथा लेखक आर्जीव खासे उत्साहित हैं।

अब बात थोड़ी इस फ़िल्म की हो जाए। दरअसल, यह फ़िल्म 34 साल की एक स्त्री अंजिमा विश्वास के मुख्य चरित्र पर केन्द्रित हैं जिनकी दो लड़कियाँ हैं-11 वर्षीय हेम और 9 वर्षीय आही। जीवन के कठिन मोड़ पर तीनों एक रेस्तरां खोलने का निर्णय लेते हैं। यह रेस्तरां सिर्फ लड़कियों और स्त्रियों के लिए है। किसी भी स्थिति-परिस्थिति में पुरुषों को उसमें आवाजाही करने की इज़ाजत नहीं है। लोगों में इसे ले कर कई तरह के कहकहे, चर्चे और अफ़वाह गर्म रहते हैं, छींटाकशी और टिप्पणियाँ भी सुनने को मिलती है। पुरुषों के बगैर उसके रेस्तरे में कौन आएगा? यह सवाल अंजिमा को हमेशा मथ रहा होता है। लेकिन हेम और आही इसे एक प्रतीकात्मक लड़ाई मानकर चल रही होती हैं। हेम और आही के दृढ़निश्चय के आगे अंजिमा को भी हथियार डाल देना पड़ता है। उसे लगता है कि उसकी बेटियाँ ही सही हैं; ग़लत वह खुद है। जिस घर-परिवार के लिए अंजिमा ने अपना सबकुछ न्योंछावर कर दिया; उसी घर ने तो उसे घर से ही दर-बदर कर दिया है। उसका पति निखिल भी इस साज़िश में शामिल है। अंजिमा यह सब सिर्फ इसलिए झेलती है; क्योंकि डाॅक्टर ने कह दिया है कि वह अब कभी माँ नहीं बन सकती। जबकि घरवालों को हर हाल में लड़का चाहिए होता है। अंततः अंजिमा अपनी दोनों बेटियों हेम और आही को ले कर घर छोड़ने पर मजबूर हो जाती है। ऐसे मुश्किलात की घड़ी में हेम और आही भी इस पीड़ा का बराबर मार झेलती हैं। उन दोनों को पहली बार इस परिवार और समाज की असलियत का थाह-पता चलता है। अपनी माँ के साथ हुए अत्याचार को वे समाज के नंगेपन, वहशीपन और मर्दाने करतूत का दस्तावेज़ मान उनसे मुकाबला करने की ठान लेती हैं। और इस तरह खुलता है-‘मम्मा रेस्तरां’। अंजिमा, हेम और आही सांकेतिक ढंग से वैकल्पिक लड़ाई की मुनादी तो भर चुकी होती हैं, लेकिन यह आसान हरग़िज नहीं है। किन्तु वे तीनों न तो झुकती हैं और न ही टूटना जानती है। इसी बहाने वे तीनों भारतीय समाज में सताई गई स्त्रियों और उनकी पीड़ा के बारे में नजदीक से जान-देख पाती हैं। कई लोग एक के बाद एक जुड़ते चले जाते हैं।  उनकी पीड़ा, दुःख, हूक, टीस, कसक इत्यादि से रू-ब-रू होती हेम, आही और अंजिमा अपना सब दुःख-दर्द भूल जाती हैं। और इस तरह औरतों के बीच एक मानसिक संकल्प का पर्याय बनकर उभरता है-‘अम्मा रेस्तरां’। विभिन्न मौकों पर जानबूझकर कई कठिनाइयों को पुरुष-वर्ग अपने अहं/अहंकार की तुष्टि के लिए पैदा करता है; लेकिन इन सब की परवाह किए बगैर ‘अम्मा रेस्तरां’ एक सुपरवुमैन माॅल बन  कर ही दम लेता है। राष्ट्रीय स्तर पर इनकी खूब चर्चा होती है। इस प्रयास को सराहने वालों की लम्बी सूची तैयार हो जाती है। अन्तरराष्ट्रीय मैग्जीनों तक में अंजिमा, हेम और आही की चर्चाएँ  हैं। भारत के दूसरे शहरों में भी इसी नाम से रेस्तरंे खुलते हैं। और इस तरह यह फ़िल्म आखिर में एक सम्मान समारोह से ख़त्म होती है जिसमें अंजिमा खुद न बोलकर हेम को लोगों को सम्बोधित करने के लिए भेज देती है। हेम वहाँ सिर्फ इतना ही कहती है-‘‘आपसबों के सामने कहने के लिए कुछ नहीं हैं; लेकिन आपको दिखाने के लिए मेरे पास हौसले, उम्मीद और उड़ान से बनी-बुनी एक खूबसूरत चीज है, और वह है-‘मम्मा रेस्तरां’।’’ एक बड़े स्क्रीन पर मम्मा रेस्तरां का तस्वीर उभर आता है जिस पर हेम डिजिटल राइटिंग के सहारे लिखती है-‘थैंक्यू मम्मा!’ फ़िल्म के आख़िरी दृश्य में जब अंजिमा का पति निखिल उसका आॅटोग्राफ लेने आता है, तो अंजिमा बिना किसी अतिरिक्त भाव के चुपचाप सिग्नेचर कर देती है। निखिल अपने दोस्तों को आॅटोग्राफ दिखाता है। और उसके
ठीक बगल से अंजिमा, हेम और आही धीमे कदमों के साथ आगे निकल जाती हैं।

कहना न होगा कि फ़िल्म रिलिज होने के काफी पहले ही इसके गानों की धूम चर्चे में थी। फिल्मों के बीच गीत-संगीत जिस तरह आते हैं वह देखते ही बनता है। इस फिल्म की सफलता के बाबत पूछने पर आर्जीव बताते हैं-‘‘ठन-ठन गोपाल से मालामाल सप्ताह तक का सफ़र रोमांचित करता है। हमने चंदे इकट्ठे कर पैसों का इंतजाम किया था। अब हम उन्हें लौटा सकने की स्थिति में हैं। इस फ़िल्म की पटकथा बेजोड़ थी। लेकिन इतनी अच्छी फिल्म बन सकेगी, संदेह था। लेकिन हम नौसिखुओं की टीम ने काफी होमवर्क किया। आही और हेम का रौल इस फ़िल्म की जान है। दोनों के बे-लफ़्जी संवाद का दृश्य अच्छा बन पड़ा है। कई जगह दर्शक गहरे अनुभूति और संवेदना के साथ इस फ़िल्म से जुड़ते हैं। फ़िल्म समीक्षकों ने इसकी तारीफ़ और आलोचना जिस ढंग से की है; वह हमें साहस और संबल देता है। मुझे खुशी है कि हमने एक अर्थपूर्ण फ़िल्म बनाई और लोगों ने उसे उसी तरह हाथों-हाथ लिया।''

फिल्म ‘मम्मा रेस्तरां’ में प्रभावकारी अभिनय के साथ-साथ तकनीकी पक्ष भी बेजोड़ है। सिनेमेटोग्राफी, आॅडियो-विज़ुअल्स, लोकेशन, कोरियोग्राफी, लाइटिंग, सेट्स, एडिटिंग आदि बेहद प्रभावी हैं। कहीं-कहीं कुछ चीजें खटकती हैं; लेकिन वह कोई ऐसी ख़राबी नहीं है जो कि आपका मजा किरकिरा कर दे। भारत में आजकल जिस तरह थोकभाव मारधाड़, हिंसा, अश्लीलता और फूहड़पन से बजबजाते फिल्म बन रहे हैं; वैसे दौर में ‘मम्मा रेस्तरां’ मानवीय संवेदना और भावनात्मक रिश्ते की कड़ी को मजबूत करती है। यह फिल्म भारतीय जनमानस की सामूहिक अभिव्यक्ति का एक कोलाज मात्र है जिसे सिने-दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया है। आर्जीव आगे भी ऐसी ही फ़िल्मों के प्लाॅट पर काम करते हुए जल्द ही किसी नए फ़िल्म के साथ फिर से दर्शकों से रू-ब-रू होंगे; यह आशा अथवा उम्मीद की ही जा सकती है।  

(आर्जीव की डायरी से)

Sunday, May 25, 2014

लिखी चिट्ठी बहुत दिनों के बाद


प्रिय देव-दीप,

रायसीना हिल्स जहाँ कि राष्ट्रपति भवन स्थित है; सवेरा करवट ले रहा है। गोधुलि की बेरा में नरेन्द्र मोदी वहाँ करीब शाम 6 बजे प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। ख़बर है, चैकसी ऐसी कि परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। फिर आम-आदमी की क्या बिसात। हम भारतीय जन ऐसे प्रोटोकाॅल के आदी हंै...यह सरकार भी फिलहाल उसी नक़्शेकदम पर जाती दिख रही है-वी.आई.पी./वी.वी.आई.पी.। टीवी के कहे को हक़ीकत मानूँ, तो 6000 भारतीय ज़वानों की तैनाती आज की तारीख़ में की गई है। एयर डिफेंस सिस्टम की चाक-चैबन्द व्यवस्था है सो अलग। इस मौके पर 4000 मेहमानों के पधारने की सूचना प्रसारित की जा रही है; 60 देशों में न्योता भेजे जाने का जिक्र भी इन ख़बरों में शामिल है। टीवी वाले यह बताते नहीं थक रहे हैं कि आज से नये युग की शुरूआत हो रही है। शीर्षक टेलीविज़न स्क्रीन पर चमक रहा है-‘शुरू होगा इंडिया का नया इतिहास’, ‘अब इंडिया का होगा मोदीफिकेशन’, अब नए रोडमैप पर इंडिया आदि-आदि। इसमें ‘भारत’ शब्द कहीं नहीं है, क्योंकि भारत में हम जैसे सोच वाले लोग रहते हैं जो देखने-दिखाने से ज्यादा ज़मीनी काम करने और करवाने में विश्वास करते हैं।

देव-दीप, मोदी की ताजपोशी वाली इन ख़बरों में थिरकन है। वे टेलीविज़न स्क्रीन पर देशभर में लोगों को मोदी के लिए दुआयें माँगते दिखा रहे हैं। वे यह भी बता रहे हैं कि ‘सुपर पीएम’ की ‘सुपर टीम’ कैसी होगी। वे रेडकोर्स 7, आर.सी.आर जहाँ प्रधानमंत्री निवास अवस्थित है; में कैसे विराजेंगे? इस बारे में भी चर्चा छेड़ रखी है। कुल जमा निष्कर्ष यह है कि टेलीविज़न वालों ने ‘राज्याभिषेक’ शीर्षक से महापथ का महाकवरेज दिखाने को और मोदी की ताजपोशी सम्बन्धी ख़बर को पल-पल अपडेट करने को ही अपना सबसे बड़ा ‘लोकधर्म’ मान लिया है। नई सरकार के सामने पहाड़ सरीखी खड़ी चुनौतियों को वे बिसार चुके हैं जिनसे सामना प्रधानमंत्री बनते नरेन्द्र मोदी को करनी पड़ेगी। खैर!

इस घड़ी मीडिया दिखा रही है कि बनारस के गंगाघाट से दिल्ली के गुजरात भवन पहुँचे मोदी किस तरह सुबह 7 बजे राजघाट पहुँचे और वहाँ बापू की समाधिस्थल पर पुष्पगुच्छ अर्पित कर प्रार्थना किया। उसके बाद वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिलने किस तरह से गये। उसके बाद उनके गुजरात भवन में नामचीन मंत्रियों का आना-जाना कैसे शुरू हुआ है। मंत्रीमण्डल छोटी होगी इस बारे में अन्दरखाने में राय-विमर्श हो रही है। मोदी जी ने ‘मीनिमम गर्वमेंट, मैक्सिमम गवर्नेस’ का अपना फार्मुला पहले से साध रखा है। कई बार पूँछ बाद में लम्बी होती जाती है, फिलहाल सभी का ध्यान गरदन पर फोकस है। दरअसल, मंत्रीमण्डल विभिन्न वैयक्तिक-शक्तियों का आपसी मिलाप होता है। इस मिलाप से संगठन को बल मिलता है। काम-काज को बाँट देने से हमारी योग्यता बढ़ती है। इसके अतिरिक्त एक-दूसरे को शक्ति-पद देकर हम अपनी निरंकुशता अथवा तानाशाही पर भी हरसंभव लोकतांत्रिक नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं।

देव-दीप, भावी प्रधानमंत्री ने ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ का संकल्प दुहाराया है। संकल्प-विकल्प की भावना से कटिबद्ध व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में मानुष होता है। यों तो ऐसे नारे और मुहावरे अन्य पार्टियाँ ने भी थोकभाव गढ़ा है, लेकिन वे अधिकतर शिगूफा ही साबित हुई हैं। जबकि मोदी सरकार ने जनता से वादा किया है कि उनकी सरकार निठल्लू नहीं होगी; भाट-चारणों की महाफौज नहीं होगी; जातिदारों बिरादरीवालों के हिसाब से चलने वाली भाई-भतीजावादी सरकार नहीं होगी। यह सरकार पुरानी इन सभी दोषपूर्ण रवायतों का समूल नाश करेगी।  अभी तक बनी सरकारें इन्हीं सब को बढ़ावा देती रही हैं। सुन रहा हूँ कि अब अन्धेरे ने पाला बदला है। नरेन्द्र मोदी सही संकल्प और सार्थक विकल्प लेकर आये हैं।

देव-दीप, यह सब टेलीविज़न पर ‘लाइव’ देखते हुए मेरा मन भी हर्षित-उल्लासित हो उठा है। मीडियावी ख़बरों में बड़बोलेपन ज्यादा है। यह सीधे नरेन्द्र मोदी का महिमामण्डन है। जो कमजोर होता है, वह आतुर कंठ से प्रशंसा उलीचता है। नरेन्द्र मोदी ज़मीनी नेता हैं; उन्हें माध्यमों की हैसियत-हक़ीकत पता है। वे जल्द ही इन कारगुज़ारियों पर अंकुश लगायेंगे। फिलहाल उन्हे गाने दीजिए। आज हर जरूरतमंद आँख इस आस-उम्मीद में है कि उनकी तकलीफ़ को बूझने वाला कोई अपना आदमी मिले; देश की शोषित पीड़ित जनता अपने हक़-हकूक को हासिल करने के लिए फिक्रमंद है; वैसे लोग जो सरकारी आँकड़ों में महज़ गिनती की संख्या मात्र बनकर रह गये हैं, वे अब खुद को नई सरकार द्वारा आदमी माने जाने को लेकर आशान्वित हैं; यानी हमें तो अपनी थाली में अच्छे दिन आने का इंतजार है; अपने तन पर अच्छे कपड़े और दुशाले आने की उम्मीद है; हमारी हाँक और हीक हर योग्य और काबिल को उपयुक्त रोजगार मिलने का है; और मुझे, एक अध्यापक की नौकरी, ताकि तुमलोगों के निमित सुकूनपूर्वक इतना कर सकूँ कि तुम अपनी आँखों से अच्छे दिन देख सको और खुश हो सको। आमीन!

तुमहारा पिता
राजीव

जनता-दर्पण में कांग्रेस की छवि मटमैली, गंदली और बदशक़्ल क्यों?

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(राजीव रंजन प्रसाद)

अरसे से आमजन आमूल-चूल बदलाव चाह रहे थे। लेकिन, कांग्रेसी-शासनदारों ने उनकी एक न सुनी। वे सुनते भी कैसे? कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र की विधिक/न्यायिक व्यवस्था नहीं है। यह पार्टी देश की इकलौती ऐसी पार्टी है जिसमें विरासत और वंशवाद की गूँज और किलकारी सबसे अधिक सुनी जाती है। अस्तु, कांग्रेसी नेतृत्व  का शीर्ष ढाँचा दो रूपों में विभाजित है। पहला, औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है, तो दूसरा राहुल गाँधी के ‘टैलेंट हट टाइप्ड’ है। दोनों समरूपी सोच का न होकर दो विपरीत ध्रुव हंै। एक सामंती और बुर्जुआर्जी है, तो दूसरा अपनी सोच एवं चिन्तन-दृष्टि में ही हवा-हवाई और टेढ़-बागुच है। यह हास्यास्पद स्थिति तब है जब जनता उनको हमेशा आगाह करती दिखी। यहाँ तक कि बिहार और यूपी से लगायत हाल ही में सम्पन्न पाँच प्रदेशों के चुनाव में जनता ने इस पार्टी की नसपट्टी ढीली करके रख दी थी। लेकिन, कांग्रेस पर इन परिणामों का प्रभाव बेअसर बना रहा।

चूँकि जनता अंततः विकल्प और समर्थ नेतृत्व चाहती है; इसलिए मोदी के नेतृत्व में मिले सक्षम जनादेश को इसी विचार का संगत परिणाम कह सकते हैं। वास्तव में, कांग्रेस शासन-तंत्र के हर मोर्चे पर विफल रही है। उनकी नाकामियों ने उनके अच्छे कार्याे(सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा विधेयक इत्यादि) की भी मिट्टी पलीद कर दी है जिसे लेकर कांग्रेसी-जन हमेशा मुगालते में रहते आये थे। अतः मौजूदा स्थिति में कांग्रेसियों के पास पार्टी के चिरायु होने की प्रार्थना भले हो, लेकिन उनके पास करम-धरम के नाम पर वाज़िब करतब कुछ नहीं है। हाल के कुछ वर्षों में कांग्रेस ने अपना सारा दारोमदार राहुल गाँधी के ऊपर लाद/थोप दिया था। यह सही है कि इस 16वीं लोकसभा चुनाव में उनका श्रम-निवेष अधिक रहा है; उन्होंने चुनावी-समय में खूब पसीने बहाये हैं; लेकिन, परिणाम आखिरकार उल्टे आये। जनता ने कांग्रेस पार्टी को अबकी बार बिल्कुल ही नकार दिया है। क्यों? दरअसल, इस करारी हार की वजहें कई दूसरी भी हैं। आइए, इस बिन्दु पर सिलसिलवार ढंग से विचारणा करें।

जो भी व्यक्ति विश्व के कई एक राष्ट्रों के इतिहास, क्रान्तियों, युद्ध, विजयों, उनमें हुई वृद्धियों और कमियों, उनकी विशेष सरकारों के स्थापित होने की विधियों  और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को अन्तरित किये गये क्रमिक अधिकार पर विचार करेगा, वह राजकुमारों(आधुनिक ‘शहजादों’) के अधिकारों को लेकर हुए विवादों को बहुत हल्के ढंग से लेने लगेगा और उसे यह विश्वास हो जायेगा कि किन्हीं सामान्य नियमों का कड़ाई से पालन करना और किन्हीं विशेष व्यक्तियों और परिवारों के प्रति अटल निष्ठा रखना जिन्हें लोग इतना महत्तवपूर्ण मानते हैं, ऐसे सद्गुण(?) हैं जिनके साथ तर्क कम और धर्मान्धता और अन्धविश्वास अधिक जुड़े हुए हैं। ऐसी जड़बद्ध स्थिति में किसी ऐसे सरकार की अधीनता चुपके से स्वीकार कर लेना जो उस देश में स्थापित है, जहाँ हम रहते हैं और इस सम्बन्ध में कोई प्रश्न न उठाना कि उसका उद्गम क्या है और यह पहली बार कब स्थापित हुई थी, एक व्यवहार-संगत और नीतिसंगत बात है। इस मानव-प्रकृति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए डेविड ह्यूम कहते हैं, हम स्वाभावतः अपने आपको अधीन रहने के लिए पैदा हुआ मान लेते हैं और यह कल्पना करने लगते हैं कि अमुक व्यक्ति हमें आदेश देने का अधिकार रखते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे हम आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य हैं। अधिकार और दायित्व की ये धारणाएँ उस लाभ से उत्पन्न होती हैं, जो हम सरकार से उठाते हैं। इससे हम सरकार के प्रति कोई विरोध करने से घृणा करने लगते हैं और यदि हम यह बात किसी दूसरे व्यक्ति में भी देखते हैं, तो हम ऐसे व्यक्ति से अप्रसन्न हो उठते हैं। ऐसा इसलिए कि प्रत्येक व्यक्ति का निजीहित अलग-अलग होता है और यद्यपि लोकहित अपने आपमें हमेशा एक और समान हो, फिर भी उससे सम्बद्ध व्यक्तियों(प्रायः लालची और पाखण्डी) के अलग-अलग मत होने के कारण वह हित मतभेद और अनबन का स्रोत बन सकता है। नतीजतन, इस अवस्था को बदलने या कोई नयी सरकार स्थापित करने या कि उसके सम्बन्ध में जनता के मन से सभी नैतिक संकोचों को दूर करने में अवाम को कई दशक लग जाते हैं। भारतीय सन्दर्भों में देखें, तो अबकी बार मोदी सरकार को बहुमत से जिताने में जनता को ऐसी ही लम्बी इंतजारी करनी पड़ी है।  

(पूरा आलेख पढ़े: ‘ग़लतियों की जादूगरी और कांग्रेस’ शीर्षक से) 

Thursday, May 22, 2014

चेतावनी : प्राकृतिक दुर्घटना के ख़तरनाक मोड़ पर ज़िन्दगी


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एहतियातन अपना बचाव हरसंभव मुस्तैदी से करना चाहिए। इस बार की आपदा संभवतः पिछली बार से अधिक त्रासदीजनक हो। पिछली रात भूकम्प के झटके मिले। यह अनायास नहीं, अपितु आगत संकट का पूर्व-संकेत है। गत वर्ष उतराखण्ड में जो कुछ घटित हुआ; यदि वह सब हमें याद है। हमने बेहतर प्रबंधन और बचाव के विकल्प चुन रखे हैं या कि उसके इंतजमात को ले कर आश्वस्त हैं, तो डरने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन, अब हमें भविष्य में ऐसी घटनाओं से हमेशा दो-चार होने की आदत डाल लेनी होगी।

Tuesday, May 20, 2014

Breaking Post : अपने विश्विधालय के कुलपति के नाम ख़त

मैंने कल विह्वल मन से यह ई-मेल अपने कुलपति प्रो. लालजी सिंह को भेजा था। लेकिन, न वे आये और न ही उनका कोई संदेशा आया। जो आये वे विभाग के होने के नाते उपस्थित थे या सीधे परिचय होने के कारण। लेकिन, हिन्दी विभाग का हाॅल खचाखच भरा था। अध्यापक और विधार्थियों का जनसमूह इस श्रद्धांजली भेंट में जिस तरह शिरक्त किया, वह वैसे कम नहीं था। फिर भी, आखि़र हम किस बिनाह पर या किस शर्त पर विश्वविधलय से स्वयं को जोड़कर देखें, उसके लिए अपनी हर इच्छा को दांव पर लगा दें, औरों के ढर्रे से अलग हटकर कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य करें और अपने विश्वविधालय का नाम ससम्मान विश्व भू-पटल पर दर्ज करायें....यहां तो हमारे जीने पर ही संकट है।

शोक-सन्देश
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20/05/2014
12 : 29 PM

प्रति,

परमआदरणीय कुलपति महोदय,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।

महोदय,

मैं, यह सूचना अत्यन्त दुःख के साथ व्यथित मन से आप तक पहुँचा रहा हूँ कि
अपने हिन्दी विभाग(कला संकाय) के मेधावी, यशस्वी और सर्जनात्मक
प्रतिभा-सम्पन्न शोध-छात्र रविशंकर उपाध्याय का निधन गत अपराह्न 3 बजे सर
सुन्दरलाल चिकित्सालय के आई.सी.यू. में हो गया। युवा कवि रविशंकर की
रचनात्मक गतिविधियों एवं उनके सांस्कृतिक-साहित्यिक सक्रियता से यह परिसर
पूर्व-परिचित एवं निबद्ध रहा है। कल उनके निधन से बीएचयू परिसर का
वातावरण काफी आहत और संवेदित भी दिखा। आज दिनांक 20/05/2014 को अपराह्न 3
बजे हम विद्याार्थियों/शोधार्थियों ने हिन्दी विभाग में श्रद्धांजली
कार्यक्रम रखने का प्रस्ताव किया है।

श्रीमान् इस परिसर में हमसब विद्यार्थियों के लिए आपका अभिभावकत्व
महत्त्वपूर्ण है। आपकी उपलब्धियाँ और सफलता हमारे लिए विशेष मायने और
अर्थ रखते हैं। लेकिन, यह घोर निराशाजनक स्थिति है कि आप जैसे संवेदनशील,
योग्य, अनुभवी और गवेषणामुखी व्यक्तित्व के धनी विश्वविद्यालय के कुलपति
से हमारा साहचर्य-सम्पर्क शून्य है। संचार-क्रांति के तमाम विकल्पों की
उपस्थिति के बावजूद आपसी संवाद के सुअवसर हमें नहीं प्राप्त हो पाते हैं।
नतीजतन, वर्तमान अकादमिक-व्यवस्था के प्रति हमारी धारणा उत्तरोत्तर
रूढ़/जड़ होते जाने को विवश है। हम शोधार्थी जिन पर अक्सर शोध सम्बन्धी
दृष्टि, चिन्तन, तर्क, विचार, वैज्ञानिक संकल्पना इत्यादि के
अनुपस्थित/अक्षम होने के आरोप मढ़े जाते हैं; मैं बताना चाहूँगा कि हम
अपने शोध-कार्य की गुणवत्ता एवं स्तरीयता को बनाये रखने के लिए हरसंभव
प्रयत्न करते हैं। शोधार्थी रविशंकर उपाध्याय उन्हीं में से एक थे।

श्रीमान् यदि इस परिसर के मान-प्रतिष्ठा एवं सम्मान को बनाये रखने की
जिम्मेदारी हमारे ऊपर है, तो आपका भी हमारे प्रति उतना ही दायित्व-बोध
एवं कर्तव्य बनता है जिससे हमें सुनियोजित तरीके से वंचित/उपेक्षित रखा
जाता है।

अतः श्रीमान् मैं आशा और उम्मीद भरे शब्दों में आपसे विनम्र आग्रह करता
हूँ कि आप आज की तारीख़ में यदि हमसबों के बीच उपस्थित हों, तो यह हमारे
लिए बड़भाग्य(‘किस्मत’ वाले शब्दार्थ में नहीं) होगा। आप की इस उपस्थिति
से दिवंगत युवा कवि रविशंकर उपाध्याय जी को श्रद्धाजंली भेंट मिलने के
अतिरिक्त हम संकल्पित-समर्पित विद्याथियों-शोधाथियों को भी असीम प्रेरणा
एवं वास्तविक संबल प्राप्त हो सकेंगे।
सादर,

भवदीय,
राजीव रंजन प्रसाद
प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता,
हिन्दी विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी।

Sunday, May 18, 2014

अगली तारीख़ तक विदा, ‘इस बार’!

शोध-विश्लेषण कार्य शुरू.....,

पुरानी फाइल : व्यक्तित्व की भाषा

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 (राजीव रंजन प्रसाद लिखित  'एक बंजारे बेरोजगार का नोट्स-बुक’ से)

अंग्रेजी में एक शब्द है-‘व्यक्तित्व’। लोकप्रिय और बहुचर्चित भी। इंटरनेट जो अक्षरों, शब्दों, वाक्यों, लिपियों, भाषाओं इत्यादि का खजाना है; में एक इंटर पर इफरात सामग्री(टेक्सट, इमेज, पीएडएफ, पीपीटी, आॅडियो, विडियो इत्यादि) मिल जाएंगे व्यक्तित्व के बारे में। वहाँ यह सूचना आसानी से मिल सकती है कि साधारण बोलचाल में प्रयुक्त शब्द ‘व्यक्तित्व’ को अंग्रेजी में ‘Personality’ कहा जाता है जो लैटिन शब्द ‘Persona’ से बना है। अपनी बोली में हम कुछ बोले नहीं कि सामने वाला व्यक्ति फौरन यह जान लेगा कि हम कैसे हंै? हमारे व्यवहार की प्रकृति क्या है? हमारा स्वभाव कैसा होगा? हम मिलनसार हैं या उजड्ड। अक्लमंद हैं या हमारे दिमाग में सिर्फ भूसा भरा हुआ है। कई बार तो हम किसी का हाव-भाव और हरकत देखकर यह सटीक अनुमान लगा सकते हैं कि फलांना व्यक्ति इस वक्त क्या सोच रहा है; उसके दिमाग में क्या चल रहा है। चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।

व्यक्तित्व का नाता हर आदमी के चाहे वह छोटा हो या बड़ा; देह और दिमाग दोनों से अंतःसम्बन्धित होता है। मन की हलचलों से, भाव-तरंगों से, सूझों से या फिर देखने-सुनने के उन सभी तौर-तरीकों से जो हमारे व्यवहार और आचरण का हिस्सा हैं; हमारे व्यक्तित्व की अमूल्य निधि हैं। बिल्कुल भाषा की माफिक। उस भाषा की तरह जो हमारे ज़बान के लार से पुष्ट-संपुष्ट होकर जवान होती है; समृद्ध होती है। मैं भाषा के मुद्दे पर आऊँगा, लेकिन उससे पहले व्यक्तित्व की बात। यदि कोई हँसोड़ है, तो यह उस व्यक्ति-विशेष का अपना व्यक्तित्व है। इसी तरह किसी आदमी की प्रसन्नता को भाँपकर जब हम कहते हैं, वह बहुत हँसमुख है, तो यह भी उस व्यक्ति के व्यक्तित्व पर की गई टिप्पणी ही होती है। दुनिया में बहुतेरे ऐसे लोग मिल जाएंगे जो खुशी हो या ग़म सब स्थिति में संतुष्ट और स्थिर बने रहने की चेष्टा करते हंै और अपने सचेतन प्रयत्न में सफल भी होते हैं; ऐसे लोगों को हम ज़िन्दादिल शख़्स कह उनके आगे सर नवाते हैं। उदाहरण कई-कई हो सकते हैं। जैसे-कोई उदारमना व्यक्तित्व का हो सकता है, तो कोई महामना। पण्डित मदन मोहन मालवीय जी स्वयं उदाहरण हैं जिनका व्यक्तित्व विराट चेतना, विशाल हृदय और विमल मन से आपूरित था। धैर्यवान, सयंमशील, उग्र, निंदक, आलसी, ईष्र्यालु आदि-आदि मनोवृत्ति-अभिवृत्ति के लोग भी होते हैं जिनके सम्पर्क-संगति में आते ही हमारा दिमागी एंटीना/एरियल उनके बारे में ख़बरें देने लग जात हैं। उद्दीपन, संवेदन, प्रत्यक्षीकरण और आत्माधारणा जैसी मनोवैज्ञानिक शब्दावली इसीलिए लोकप्रिय हैं क्योंकि वे हमारे मनोजगत और मनोचेतना को देखते ही पढ़ लेने में अव्वल हैं।

ध्यातव्य है कि चारित्रिक गुण हमारे व्यक्तित्व का अहम भाग है। इसके माध्यम से व्यक्तित्व को काफी हद तक जाना-समझा जा सकता है। जब किसी के काम को मौलिक कहा जाता है, तो यह मौलिकता कहीं बाहर से आरोपित अथवा प्रक्षेपित नहीं होती हैं, बल्कि यह उस व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व का अंग-उपांग होती हैं जो उसका प्रयोक्ता होती हैं। यह मनुष्य के व्यक्तित्व का आन्तरिक गुणधर्म है जो भिन्न-भिन्न कई रूपों में देखने को मिलती हैं। यथा-अंतःमुखी व्यक्तित्व, बाह््यमुखी या विकासोन्मुखी व्यक्तित्व। दरअसल, खाना, पीना, सोना, रोना, हँसना, बोलना इत्यादि को जिस तरह मनोविज्ञानियों ने मुलप्रवृत्ति कहा है; उसी तरह व्यक्तित्व हमारे जीवन का सूचक/संकेतक है। व्यक्तित्व स्वाभाविक जीवन-प्रणाली की अभिव्यक्ति है। यह चेतना का वास्तविक और मूर्त स्वरूप है। व्यक्तित्व को जानने के लिए अगर हम जिज्ञासा की खुरपी लगाएँ, तो आश्चर्यजनक चीजें प्राप्त होंगी। हम यह जानकर चकित होंगे कि-‘‘मानव का निर्माण पाँच पदार्थों से हुआ है। प्रथम तो उसे भौतिक शरीर मिला है जो अन्नमय कोष है। दूसरे उसे प्राणवायु प्राप्त हुई है, वही प्राणमय कोष है। तीसरे उसे मन प्राप्त हुआ है। उसी को मनोमय कोष कहा जाता है। चैथे उसे बुद्धि मिली है जो विज्ञानमय कोष के अन्तर्गत आती हैं और पाँचवें उसे पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ प्राप्त हुई हैं जिनके द्वारा वह आन्नदोपभोग करता है। अतः ये ही अन्नदमय कोष हैं। इस तरह हमारा मानव-शरीर जिसे व्यावहारिक भाषा में व्यक्तित्व कहा जा रहा है उक्त पाँचों कोषों से मिलकर पंचकोष के रूप में समन्वित है।

व्यक्तित्व या भौतिक-शरीर से सम्बन्धित यह व्याख्या भारतीय दृष्टिकोण से सम्बन्धित है। उपनिषदों में वर्णित इन प्रामाणिक तथ्यों को पश्चिमी विद्वान, विज्ञानी, शिक्षाशास्त्री सभी स्वीकार करते हैं; लेकिन इन्हें हम मानना तो दूर ‘आउटडेटेड नाॅलेज’ कह इस पूरे ज्ञान-मीमांसा से ही पल्ला झाड़ ले रहे हैं। दूसरी तरफ ज्ञान-तकनीकी की पश्चिमी विचारधाराएँ जिन्हें हम अंग्रेजी पोथियों में पढ़ने को बाध्य हैं; के प्रति हमारा दृष्टिकोण प्रायः बिल्कुण भिन्न किस्म का होता है। उदाहरणार्थ-पानी की यौगिकीय-संरचना के बारे में वैज्ञानिक जब यह कहते हैं कि-जल के कण मूलतः 2 भाग हाइड्रोजन और 1 भाग आॅक्सीजन से मिलकर बने हैं; तो हमें प्रथम द्रष्टया घोर आश्चर्य होता है। हम सेाचते हैं-पानी के कणों को कैसे अलग-अलग विभाजित किया जा सकता है? चूँकि यह वैज्ञानिक सिद्धान्त के रूप में यह रूढ़-कथन है; इस कारण एक सीमा के बाद हम अधिक जिरह नहीं करते हैं। न्युटन की गति नियम हो या आइंस्टीन की सापेक्षिकता का सिद्धान्त; हम इन्हें वैज्ञानिक सत्य कह कर स्वीकार कर लेते हैं प्रायः। ऐसा क्यों है कि हम इन प्रस्थापनाओं के भीतरी खण्डों को अलग-अलग न देखते हुए भी उसे सच मान लेने को बाध्य होते हैं? उस पर जरूरी तर्क-वितर्क नहीं करते हैं? कई बार द्वंद्व या आन्तरित असंगति उत्पन्न होने की स्थिति में भी चिन्तन करने को उद्धत नहीं होते हैं? या फिर चिन्तन की प्रतिमाएँ इतनी सघन नहीं होती हैं कि वे इन सिद्धान्तों से सीधे टकराने की चुनौती मोल ले सकें।

जबकि हमारे यहाँ शास्त्रार्थ की संस्कृति हजारों वर्ष पहले तक मौजूद थीं। आज तो उनका जिक्र भी फ़साने में नहीं। आज की नवपीढ़ी को इस सत्य से साक्षात्कार कराना बिल्ली के गले में घंटी बाँधने जैसा है कि हमारी परम्परा आज तक जीवित इसलिए नहीं है कि हम एक महान परम्परा के नागरिक हैं; बल्कि इसलिए कि हमारी सांस्कृतिक क्रियाशीलता में परिवर्तनीयता के गुण विद्यमान हैं। भारतीय ज्ञान-परम्परा नवीनताओं को हमेशा समय के कोख में ढोती है और उसे उपयुक्त अवधि के पश्चात जन्मती भी है, बशर्ते नवीन-धारा अपनी प्रकृति और चेतना में दीर्घजीवी हो। आज यह कसौटी हमारी आधुनिक भारतीय चित्तवृत्ति से गायब हैं जो सचमुच तकलीफदेह है और चिन्ताजनक भी।

इसके विपरीत पश्चिमी ज्ञानतंत्र या अकादमिक जगत से जुड़े लोग अच्छी से अच्छी चीज को हमेशा ‘काउंटर’ करते हैं। वे यह मानने के लिए न तो बाध्य होते हैं और न ही किए जाते हैं कि फलांना सत्य सार्वभौमिक सत्य है या कि उनमें परिष्कार/परिवर्धन की चेष्टा समय की फ़िजूलखर्ची है। भारतीय शिक्षालयों में ऐसी अध्यापकीय हिदायतें अटी पड़़ी हैं। वस्तुतः पश्चिमी शोधक भीतरी प्रयोग को लेकर पगलाए होते हैं। कई नई खोजें तो इसी पागलपन की देन हैं। ऐसे सुधीजनों के प्रति निःसंदेह हमारी कृतज्ञता व्यक्त होनी ही चाहिए जिन्होंने अपनी इस तर्क-वितर्क की चेतना से समय के पूरे ‘पैराडाइम’ को ही बदल देने का लाभकारी उपक्रम किया है। पश्चिमी अनुसन्धानकत्र्ताओं की इन चेष्टाओं  पर निसार होने का यह अर्थ नहीं है कि हम अपने दरो-दीवार के भूगोल, रंग, आकार, प्रकृति, भाषा और ज़ुबान भूल जाएँ। संवादी रूप में अपनी भाषा को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले व्यक्तित्व को ही खो दें सदा-सर्वदा के लिए।

बहरहाल, आज हम पश्चिमी जगत के उस दौर को अपना सार्थक अतीत मानने को अभिशप्त हैं, जो औद्योगिकीकरण के बाद उपनिवेश की खोज में विकसित हुई साम्राज्यवादी सत्ता का ज्ञानोदय-काल है। गोरे अंग्रेजे मैकाले की काली शिक्षा नीति आज भी प्रभावी और बेखटक प्रयोग में है, तो सिर्फ इसलिए कि स्वाधीन भारत की चेतना अपनी भाषा से कटकर उस भाषा से संयुक्त हो गई है जो अधिनायकवादी प्रवृत्ति और वर्चस्व की नीति से परिचालित है। स्मरण रहे, सीखने की भाषा अपनी या परायी नहीं होती है, लेकिन अपनी मर्म, वेदना, संवेदना, मौन और चिन्तन की भाषा परायी कैसे हो सकती है? जिस तरह हम अपनी जान को किसी बीमा-कम्पनी के भरोसे नहीं छोड़ सकते हैं, वैसे ही अपनी भाषा को अपनी ही ज़बान से बेदखल कर देना कहाँ की और कैसी समझदारी है? यह एक यक्ष प्रश्न है जिस पर भावुक विलाप करने की जगह वस्तुपरक संवाद-विमर्श की आवश्यकता है। वर्तमान भाषा-बोध की कमी और हिन्दी भाषा को लेकर फैलाई गई भ्रामक संकीर्णता के बाबत साहित्यकार प्रभाकर श्रोतिय दो-टूक कहते हैं-‘‘यह आर्थिक प्रभुत्त्ववाद अपने बहुत बड़े और महीन संजाल से मनुष्य के मन, बुद्धि, संवेग, इच्छा, यहाँ तक कि उसकी राष्ट्रीय राजनीति और व्यवस्थाओं को भी नियंत्रित कर रहा है; साहित्य, संस्कृति और भाषा का, मनुष्य के मन में नए ढंग से अर्थांतर और मूल्यांतर कर रहा है; प्रतिरोध और विद्रोह की आवाज़ों को तत्काल बिकने वाले साहित्य की ऊँची कीमत पर माँग से कुचल रहा है। घटिया साहित्य की विपुलता से वह विचारशील और गहरे साहित्य को विस्थापित कर रहा है। सब कुछ इतनी नफ़ासत और क्रमिक प्रक्रिया से होता है कि पाठक-मन को जरा धक्का न लगे।’’

शशि शेखर जी, भारतीय जनता पर क्या अब भी तरस खाने की जरूरत है!!!

 चुनावों में मरघटिए का टंट-घंट मत छानिए
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(21 जुलाई 2013 को इसी ब्लाॅग पर ‘हिन्दुस्तान’ समाचार पत्र के सम्पादक के नाम भेजे इस पत्र को प्रकाशित किया गया था।)

शशि शेखर अख़बार के सम्पादक हैं। समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ में उनकी
वैचारिक-टीआरपी जबर्दस्त है। वे जो लिखते हैं, सधे अन्दाज़ में। उनका साधा
हर शब्द ठीक निशाने पर पड़ता है या होगा, ऐसी मैं उम्मीद करता रहा हूँ
(फिलहाल नाउम्मीदगी की बारिश से बचा जाना नितान्त आवश्यक है) लेकिन, कई
मर्तबा वे जो ब्यौरे देते हैं, तर्क-पेशगी की बिनाह पर अपनी बात रखते
हैं; उसमें विश्लेषण-विवेक का अभाव होता है। यानी वे अपने विचार से जिस
तरह पसरते हैं, उनकी तफ़्तीश से कई बार असहमत हुआ जा सकता है। खैर!
पत्रकारिता भाषा में तफ़रीह नहीं है, यह शशि शेखर भी जानते हैं और मैं भी।
बीते ढाई दशक में उनकी कलम ने काफी धार पाया है, चिन्तन में पगे और चेतस
हुए हैं सो अलग। यह मैंने कइयों से सुना है...और उनसे भी।
अब मुख्य बात। शशि शेखर के लोकप्रिय रविवारीय स्तम्भ ‘आजकल’ में आज का
शीर्षक है-‘‘चुनावों को महाभारत मत बनाइए’’। इसमें उनका कौतूहल देखने
लायक है-‘‘पुरजवान होती इक्कीसवीं सदी के हिन्दुस्तानी सियासतदां अपने ही
इतिहास से सबक क्यों नहीं लेते? वे कबतक नफरत के भोथरे तर्कों को नया
जामा पहनाते रहेंगे? वे कबतक हमारे शान्ति पसन्द समाज को बाँटने की कोशिश
करते रहेंगे? वे हम पर तरस क्यों नहीं खाते? हम हिन्दुस्तानी हैं, सिर्फ
वोट बैंक नहीं।’’

ऐसे कुतूहल शशि शेखर जी जैसों के लिए सेहतमंद नहीं है। आप किस पर तरस
खाने की बात कर रहे हैं? भारतीय जनता के ऊपर जो चुनावों में हर एजेण्डे,
साँठ-गाँठ, जोड़-तोड़, जाति-धर्म, संस्था-समुदाय, भाषा-तहजीब इत्यादि से
ऊपर उठकर(तमाम षड़यंत्रों अथवा कुचक्रों के अस्तित्वमान होते हुए भी) अपना
निर्णय सुनाती आई है; जिसने भाजपा के ‘इंडिया शाइंनिग’ से लेकर बसपा के
‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ तक को अप्रत्याशित पटखनी दी है? उस कांग्रेस
को ठेंगा दिखाया है जिसके मीडिया-युवराज राहुल गाँधी पर पार्टी की ओर से
लाख एतबार-पेशगी के बावजूद जनता की दिलचस्पी लेशमात्र नहीं है।(वैसे
कांग्रेस में उनसे बेहतर कई युवा राजनीतिज्ञ हैं) तभी तो, आप इस बात का
जिक्र करना नहीं भूलते हैं-‘‘राहुल गाँधी ने पिछले अप्रैल में जब सीआईआई
को सम्बोधित किया, तो एक वर्ग(पंक्तिलेखक युवा लिखना भूल गए) ने सोशल
मीडिया पर उन्हें ‘पप्पू’ की उपाधि से नवाज दिया।’’

अतः उपर्युक्त उदाहरणों से ज़ाहिर है कि भारतीय आबादी ‘मुर्दों का टीला’
नहीं है, लिहाजा चुनावी मौके पर हमें भी मरघटिए का टंट-घंट नहीं छानना
चाहिए। यह ख़्याल रखा जाना आवश्यक है कि हमारे किए-धरे, कहे-सुने पर आज भी
जनता सबसे अधिक विश्वास करती है, अपनी आत्मा में सच के ज़िन्दा होने का
ढ़िढोरा पिटती है। इसलिए हमारे लिखे का वैचारिक-अर्थ निकसे न कि
वैचारिक-अर्थी; ऐसी निगाहबानी जरूरी है।
और जहाँ तक नरेन्द्र मोदी का सवाल है, तो उनका व्यक्तित्व निश्चित ही
नेतृत्व-सम्पन्न है। उनके उवाच में प्रभाव का रंग है। राजनीति की उनकी
समझ(चालाकियाँ) इतनी साफ/निखरी हुई है कि वे जर्रे-जर्रे का इस्तेमाल
अपने पक्ष, हित अथवा वोट-बैंक भुनाने के लिए कर सकते हैं।(यह मान लेना भी
अतिरेक से भरा और भ्रामक है) बकौल शशि शेखर-‘‘बड़े जतन से
उन्होंने(नरेन्द्र मोदी) खुद को इस लायक बनाया है कि उनकी प्रसिद्धि
गुजरात और देश की सीमाओं से लांघकर समूची धरती पर फैलने लगे। लोग उन्हें
पसन्द करें या नापसन्द, पर राजनीति के जंगल में उन्होंने अपनी जगह बनाने
में कामयाबी हासिल कर ली है।’’

यहाँ भी शशि शेखर जी को याद रखना चाहिए कि भारतीय राजनीति जंगल नहीं है।
अगर जंगल-राज होता, तो आप पिछले वर्ष यूपी में बेहद रचनात्मक ढंग से
चुनावी-तैयारी, अभियान, जनमुहिम, संघर्ष या व्यावहारिक परिवर्तन(चुनाव
ख़त्म अब काम शुरू) इत्यादि का ‘अपना मोर्चा’ नहीं ठानते; इस ज़मीन में खुद
को नहीं गोड़ते; आप वह सब नहीं करते जिससे भारतीय लोकतंत्र की गरिमा
‘पुनर्नवा’ होती है। अतः शशि शेखर जी की सलाहियत दुरुस्त है। हमें अपने चुनावों को महाभारत बनने
से रोकना होगा। इससे ईश्वरवाद और भाग्यवाद के कुकुरमुते पनपते हैं। इससे
हमारा नागरिकपना ख़त्म होता है। हम यूटोपिया-चिन्तन में दाखिल अवश्य होते
हैं, लेकिन उसे साकार करने का औजार भूल गए होते हैं। मेरी समझ से, अतीत
की बात पर श्रद्धा ठीक है। परन्तु उसका बेवजह इस्तेमाल ख़तरनाक है। हमें
चुनावों में अपने विवेक-कौशल, बुद्धि-व्यवहार, दृष्टि-चेतना इत्यादि के
सहारे चुनावी लड़ाई लड़नी चाहिए जिसका हिमायती खुद आप भी हैं। हमें उन बौने
युवा राजनीतिज्ञों(वंशवाद के उत्तराधिकारी) को राजनीतिक-पास देने से बचना
चाहिए जिनसे जनता को रू-ब-रू कराने का जिम्मा कई बार समाचारपत्रों के ऊपर
भी लाद दिया जा सकता है।

अतएव, हमें चुनावी सरगर्मियों का आकलन-विश्लेषण करते समय भारतीय नागरिकों
की ओर से सहृदयता बरतने की हरसम्भव कोशिश करनी चाहिए; ताकि हमारे ये
प्रयत्न तमाम भूलों के बावजूद भारतीय चिन्तन, विचार, दृष्टि, परम्परा,
तहज़ीब, उसूल इत्यादि को दृढ़ सम्बल प्रदान कर सके; भाग्य की लेखी कहे जाने
वाले पाखण्ड का नाश कर सके...और हम बढ़ सके लोकतंत्र के जनपथ पर अपनी
भारतीय जीवन-राग एवं जीवन-मूल्यों को गाते-गुनगुनाते हुए; ‘वीर तुम बढ़े
चलो, धीर तुम बढ़े चलों की टेक पर। आमीन!

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Saturday, May 17, 2014

पुरानी फाइल : प्रचारित ज्ञानकाण्ड नहीं है हिन्दी


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हमें हिन्दी-विलापी ज़बानकारों की जरूरत नहीं है। ऐसे नकारे लोग कोई
दूसरे नहीं हैं; वे हम ही में से हैं यानी हिन्दीभाषाभाषी शोधक-अन्वेषक;
अध्यापक-प्राध्यापक, अकादमिक या राजभाषिक बुद्धि-सेनानी वगैरह-वगैरह
जिनकी चेतना और संस्कार दोनों में से हिन्दी-भाषा के प्रत्यय, प्रतिमा,
अनुभव, स्मृति, कल्पना, चिन्तन, संवेदन इत्यादि सब के सब गायब हो चुके
हंै। इन दिनों हिन्दी-प्रदेशों में अंग्रेजी को ही ज्ञान के गहन प्रकाश
के रूप में देखने का चलन बढ़ा है। इसे भूख-निवारण, कुण्ठा-निवारण,
बेराजगार-मुक्ति, भाषाई-प्रतिरूप, चेतना-विकास और संस्कृति-बोध की
वास्तविक, एकमात्र और सर्वश्रेष्ठ कसौटी मानकर प्रचारित-प्रसारित करने
वाले हमहीं-आपहीं जैसे ज्ञान-आयोगिया लोग हैं। 
 
क्या इस सचाई को हम झुठला सकते हैं कि आजादी के इत्ते बर्षों बाद भी 
भारत में बनी अंग्रेजी की एक
भी धारावाहिक, वृत्तचित्र, सिनेमा आदि ने भारतीय जनमानस को
आलोडि़त-आन्दोलित करने में सफलता हासिल नहीं की है। कितने लोग मानेंगे कि
अंग्रेजी में प्रकाशित किसी पुस्तक ने भारतीय मन की सामूहिक अभिव्यक्ति
की दिशा में अकल्पित अथवा अप्रत्याशित दखल देने का जिम्मा उठाया है।
दरअसल, हम भूल जाते हैं कि अंग्रेजी भाषा में तैयार उत्पाद, साहित्य,
तकनीक, प्रौद्योगिकी इत्यादि को भारतीय बाजार में बेचा-खपाया जा सकता है;
लेकिन, लोगों में प्रतिरोधी संचेतना पैदा करने की कूव्वत अपनी भाषा को
छोड़कर दूसरी भाषा में हो ही नहीं सकती है। फिर ऐसा क्यों है कि यशोगान
उसी भाषा का, जयगान उसी भाषा का, दर्शन-साहित्य सम्बन्धी पिच्छलग्गूपन
उसी भाषा का, ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी आकर्षण उसी भाषा का हमारे
मन-मस्तिष्क पर काबिज़ है। अंग्रेजी को प्रायोजित ढंग से नम्बर वन या
सर्वश्रेष्ठ घोषित करने के पीछे मुख्य वजहें क्या हैं जबकि दुनिया भर में
ज्ञान की इकलौती भाषा वही नहीं है? आखिर ऐसी स्थिति क्योंकर है; यह
हम-सबके लिए निःसन्देह विचारणीय है? क्योंकि यह हमारी मातृभाषा हिन्दी के
लिए ही नहीं, अपितु देश की उन सभी भाषाओं के लिए यक्ष प्रश्न है जो अपनी
भाषा को लेकर सवाल खड़े करना चाहते हैं, सोचना, विचारना और खुले रूप से
संवाद करना चाहते हैं।

वर्तमान समय की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हिन्दी के अकादमिक जगत के
लोग इस मुद्दे पर प्रायः सार्थक कम बोलते हैं; घिसी-पिटी बातों को
दुहराते ज्यादा हैं। दरअसल, हमारी भाषा के जानकारों के पास स्पष्ट समझ और
निष्पक्ष नेतृत्व का संकट गहरा है। भाषिक अभिव्यक्ति के लिए शब्द-भण्डार
विपुल मात्रा में उपलब्ध हंै; लेकिन, सहृदय ज्ञान-संचारकों,
वात्र्ताकारों, मार्गदर्शकों की भारी कमी है। मौजूदा स्थिति यह है कि जो
विद्धान हैं वे चुप हैं। वे प्रायः अपनी विद्वता के आलोक में ही विचरते
रहते हैं-‘अजगर करे न चाकरी...’ के दर्शन के साथ। लेकिन जो नई पीढ़ी के
हमारे जैसे भाषाई शावक हैं वे संभाव्य-चेतना से बिल्कुल खाली नहीं हैं।
हम विद्यार्थीजन इस कमी को पाटने की दिशा में लगातार प्रयत्नशील हैं। हम
यत्नपूर्वक और पूरे मनोयोग से अपनी भाषा में स्वस्थ और सार्थक जवाब देने
के लिए कटिबद्ध और संकल्परत हैं। स्मरण रहे, हम फिल्मी अंदाजे-बयाँ की
तरह तड़क-भड़क से भरपूर मनोरंजनयुक्त कार्यक्रम करने के हामी नहीं हैं;
हम भाषाई विचार-विमर्श के स्तर पर सतही और बासी चिन्तन सामग्री भी नहीं
परोसना चाहते हैं। वास्तव में, हम किसी भाषा-विशेष के सन्दर्भ में कोई
राजनीतिक नारा या जुमला उछालने की बजाए अपनी भाषा के बारे में अपनी भाषा
में बात करने को पूरी शिद्त और शाइस्तगी के साथ इच्छुक हैं। हमारा मुख्य
ध्येय निज संकल्प, चिन्तन, दूरदृष्टि, देसी ज्ञान, देसी आधुनिकता, लोक
कला, योजना, तकनीक, प्रौद्योगिकी, इंटरनेट इत्यादि के बहुआयामी तथा समग्र
प्रयोग-प्रसार के माध्यम से हिन्दी भाषा को समुन्नत, विकासशील और
सार्वदेशिक ज्ञान-मीमांसा का क्षेत्र में सर्वतोमुखी घोषित करना है। हम
पूरी ताकत से उस आन्तरिक-बाह्î संक्रमण को अपनी संज्ञानात्मक बोध, चेतना,
व्यक्तित्व और व्यवहार से अलग कर देना चाहते हैं जो ज्ञान की भाषा होने
की बजाए वर्चस्व और प्रभुत्त्व की महिमामण्डित भाषा बनती जा रही है।

यह आवश्यक है क्योंकि आज पूरी दुनिया बाज़ार पूँजीकरण के दबाव और चपेट में
है। हमें ‘पेट्रोडाॅलर’ और ‘मार्केट कैप’ से दबते रुपए की तरह अपनी भाषा
को शिकस्त खाने नहीं देना है। हम रवीन्द्रनाथ टैगोर के उस विचार से
पूर्णतया सहमत हैं जिसका आह्वान उन्होंने उस दौर में किया था जब
देशकाल-परिवेश औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़ा था-‘‘मैंने बहुत दुनिया देखी
है। ऐसी भाषाएँ हैं जो हमारी भाषाओं से कहीं कमजोर हैं परन्तु उनके
बोलनेवाले अंग्रेजी विश्वविद्यालय नहीं चलाते। हमारे ही देश में ये लोग
परमुखापेक्षी हैं...देशी भाषाओं को कच्चे युवकों की जरूरत है। लग पड़ोगे,
तो सब हो जाएगा। हिन्दी के माध्यम से तुम्हें ऊँचे से ऊँचे विचारों को
प्रकट करने का प्रयत्न करना होगा। क्यों नहीं होगा? मैं कहता हूँ जरूर
होगा।’’

काशी की ‘गंगा-आरती’ को भाजपा ने ‘जन-प्रतिनिधि आरती’ में बदला

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(अच्छे दिन का आसार पाले काशीजन को अपनी ही घाट से बैरंग लौटाया जा रहा)

'गंगा आरती' काशी की अध्यात्मिक शान है। इसकी लोकप्रियता स्वमेव प्रसिद्ध है। गंगा के तीर पर बने पारम्परिक घाट प्रतिदिन उसका चश्मदीद गवाह बनते हैं। इस आरती-पूजन में जन-मन का जुटान स्फूर्त एवं स्वाभाविक ढंग से होता है। यह तादाद तकरीबन सैकड़ो-हजारों में होती है। विदेशी सैलानियों का जमावड़ा भी यहाँ रोज उमडता है। वे आश्चर्यमिश्रित भाव से इस परम्परा का लुत्फ़ और आनन्द लेते दिखते हैं। काशीजन बाबा विश्वनाथ और माँ गंगे पर अगाध श्रद्धा रखने वाले लोग हैं। उनमें अपने शहर में पधारे दर्शनार्थियों के प्रति विशेष सहूलियत का भाव रहता है। कुल जमा यह कि इन क्षणों में आरती-पूजन का माहौल मनोहारी, पावन एवं पवित्र हो जाता है।

लेकिन विशेष मौकों पर इस परम्परा का उल्लंघन होना बेहद अखरता है। किसी राजनेता के गंगा-आरती में शामिल होने का यह अर्थ कहाँ और कैसे होता है कि आमजन को इस सुअवसर से महरूम कर दिया जाये। उनके ही आने-जाने पर पाबंदियाँ लगा दी जाये। जिस स्थान से उनका जुड़ाव असीम-अनन्त है; उन जगहों को भी धर्म के ठेकेदारों द्वारा आरक्षित करा दिया जाये। यह न्यायसंगत, उपयुक्त अथवा सही नहीं है। पर राजीतिक वर्चस्वधारियों के लिए धर्म की वास्तविक प्रकृति, चरित्र, आचरण, व्यवहार एवं व्यवस्था का ज्ञान ही शून्य है। दरअसल, कथित विशिष्ट जन धर्म का लिहाफ़ लेकर उन पारम्परिक, धार्मिक, सार्वजनिक इत्यादि जगहों पर इसलिए आते हैं ताकि वे खुद को आमजन के माफ़िक आचरण-व्यवहार करने वाला खुद को घोषित कर सकें।

आज नरेन्द्र मोदी काशी के घाट पर हैं; लेकिन काशीजनों की वहाँ उपस्थिति है ही नहीं। वे जिन लोगों के संग-साथ गंगा-आरती करने पहुँचे हैं उस स्थान को उन्हीं के सिपहसालारों ने ‘हाइजैक’ कर लिया है। हो सकता है कि गंगा-आरती के दरम्यान ‘हर हर महादेव’ के बरअक़्स ‘हर हर मोदी’ का नारा लगे। उनका मन प्रसन्न हो; तबीयत प्रफुल्लित हो; भाव आन्नदित हो। लेकिन, वह काशी की मूल स्वाभाविक परम्परा को अवरुद्ध कर आज गंगा किनारे जिस मंच पर आसीन हैं; उनका उनके जाते ही उजड़ना और नष्ट होना तय है। क्या इत्ती-सी बात भी किसी ज़मीनी नेता का नामूलम है? काशी की जिस जनता ने उन्हें इस बार चुनाव में सर आँखों पर बिठाया है; आज वे ही चेहरे अपनी आँखों से अपने शहर की परम्परा में अपने लोकप्रिय एवं पसंदीदा नेता को नहीं देख पा रहे हैं। एक बार फिर दुहराऊं अपनी बात कि काशी के ‘मुक्तिबोधों’, यह आने वाले दिन के अच्छे संकेत नहीं हैं।

Friday, May 16, 2014

चुनावी-परिणाम से इतर कुछ बात करें.....!


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हम विद्यार्थी हैं। हमारा सामना सब चीजों से होना है। अपनी भाषा में हमने इस संचार-युग की रामकहानी को अक्सर सुना होगा कि भूमण्डलीकृत बाज़ार की निर्मिति बाज़ारवादी शक्तियाँ किस तरह कर रही हैं। उनके अन्तर्गत जो कुछ भी निर्माणाधीन है; उन पर उनका इकलौता आधिपत्य है। विदेशी संचारविज्ञानियों ने इस पर गंभीरता से सोचा है। विशेषतया राॅबर्ट डब्ल्ल्यू. मैक्चेस्नी की दृष्टि मार्केबल हैं। उन्होंने संचार की सामान्य और स्वाभाविक मानी जाने वाली प्रक्रिया को समझने की पूरी चेष्टा की है। वे यह जानना चाहते हैं कि आखिर संचार-तंत्र की सम्पूर्ण गतिविधियाँ किस तरह काम करती हैं; संचार प्रणालियों का स्वरूप क्या है और सरकारी नीतियाँ इस पूरे तंत्र के ढाँचें और गतिविधियों को किस तरह प्रभावित करती है। संचार माध्यमों द्वारा जो अन्तर्वस्तु उत्पादित की जाती है, उसकी प्रक्रिया और प्रकृति का विवेचन भी मैक्चेस्नी इस तंत्र को समझने के लिए आवश्यक मानते हंै। उनकी दृष्टि में इसमें उत्पादन, वितरण और विनिमय की प्रक्रियाएँ भी शामिल हैं।

दरअसल, भूमण्डलीय संचार के सन्दर्भ में प्रौद्योगिकी के विकास का प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बनकर उभरा है। यह लगभग मान लिया गया है कि प्रौद्योगिकी और बाज़ार ही दो ऐसे घटक हैं जो संचार की पूरी प्रणाली और प्रक्रिया को नियंत्रित कर रहे हैं। आज साइबर अंतरिक्ष में अमेरिकी वर्चस्व का होना सचाई है। आप क्या देखेंगे और कितना देखेंगे; यह आज हम नहीं अमेरिका तय कर रहा है। यही नहीं यह हमसे हमारे फुरसत के उन बेशकीमती क्षणों को भी छीन लेने पर आमादा है जिन पर अब तक हमारा एकाधिकार होता था। हालत बदतर इतनी है कि कईयों की मेहरारू रूठ जाये, तो उन्हें अपनी मोहतरमा को मनाने तक के वक़्त नहीं मिलते है। खैर!

गोकि पूँजी के भूमंडलीकरण के साथ जो सार्वभौम बाज़ार-तंत्र हमारे इर्द-गिर्द फैला-पसरा है वह ‘इलेक्टाॅनिक जनतंत्र’ के नाम पर हमें लगातार गुलामी की चक्करघिन्नी में पिस रहा है। फ्रेडरिक जेमेसन जिसे उत्तर पूँजीवाद या कि वृद्ध पूँजीवाद कहते हैं; वह वास्तव में सूचना पूँजीवाद है। इलेक्टाॅनिक जनतंत्र के समर्थकों का यह स्पष्ट मानना है कि औद्योगिक-क्रांति ने भीमकाय सामाजिक संस्थाओं, बड़े-बड़े निगमों, बड़ी-बड़ी यूनियनों, बड़ी-बड़ी सरकारों, इजारेदारियों, नौकरशाहियों का जो विराट और दमनकारी ढांचा प्रदान किया था और आम-आदमी को इसका अनुचर बना दिया था उसे इस नई प्रौद्योगिकी ने धीरे-धीरे नष्ट करना शुरू कर दिया है। यह अधूरी सचाई है। हाल-ए-हक़ीकत कुछ और है। संचार प्रौद्योगिकी से जुड़े उत्पादों के विश्वव्यापी प्रसार के कारण प्रभुत्त्वशाली उत्पादकों से जिस प्रौद्योगिकी का निर्यात किया जा रहा है उसके साथ उन उत्पादों का भी निर्यात किया जा रहा है जिन्हें सांस्कृतिक उत्पाद कहा जा सकता है। प्रभुत्त्वशाली देशों से अन्य विकासशील अथवा पिछड़े देशों को इन उत्पादों का प्रवाह बिना किसी प्रतिरोध और प्रतिक्रिया के हो रहा है? ये उत्पाद ग्रहण करने वाले देश क्या इन्हें सहज ही स्वीकार कर रहे हैं? क्या इन उत्पादों का असर वहाँ के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर नहीं पड़ रहा है? हमें यहाँ ठहरकर सोचना होगा कि संस्कृतियों के बीच आदान-प्रदान विश्व मानवता के हित में रहा है। विश्व सभ्यता का विकास इसी प्रक्रिया में हुआ है। लेकिन, सूचना पूँजीवाद के इस युग में यह प्रवाह पूरी तरह से एकतरफा हो रहा है।

समाजविज्ञानी पीटर गोल्डिंग की इस सन्दर्भ में चिंता वाजिब है कि विश्व सांस्कृतिक व्यवस्था में व्याप्त असमानताएँ पहले की तुलना में अधिक असंतुलित और विषमतापूर्ण है। यह पारंपरिक सामंती प्रभुत्त्वादियों से भिन्न अवश्य है; लेकिन इसकी जड़े उसी अवधारणा से फुनगी-पनपी हुई है। यदि हम अपने बच्चों को पोर्नोग्राफी की दुनिया और कार्टूनों के बेजा हरकत करते गतिशील चित्रों से दूर(बशर्ते इसे हम एक एहतियातन तौर पर जरूरी और विवेकपूर्ण कदम मानते हों) रखना चाहते हैं तो हमें सीधे-सीधे संचार-क्रांति के इन विचारों से टकराना होगा जिसे बिल गेट्स संचार-क्रांति के सन्दर्भ में ‘घर्षणहीन पूँजीवाद’ कह रहे हैं। उनकी भाषा में यह बदलाव सकारात्मक और जनतांत्रिक है। वे यह मानते हैं कि ‘‘पूँजीवाद का जो भी शोषणकारी और उत्पीड़नकारी इतिहास रहा है, उसे संचार-क्रांति बदल रही है। संचार क्रांति के द्वारा समानता और लोकतंत्र के नए और वास्तविक युग की शुरुआत हो रही है जिसकी सबसे बड़ी पहचान यह होगी कि सूचनाएँ सबको उपलब्ध होंगी और सूचनाओं पर सबका अधिकार होने की वजह से लोग अपने अधिकारों के प्रति न सिर्फ अधिक सचेत होंगे बल्कि उन अधिकारों का बेहतर ढंग से उपयोग कर सकेंगे।

बहरहाल, इनके ख़िलाफ खड़े होने के बरक़्स इस बारे में अपनी बेबाक एवं स्वतंत्र राय  रखना भी हमारे स्वस्थ दृष्टिकोण और दूरदर्शी अंतःदृष्टि का परिचायक है। अतः हमें उपर्युक्त विश्लेषण को अपने सन्दर्भ में खुद को इनसे जोड़कर देखना चाहिए।

Wednesday, May 14, 2014

बिल्ली के गले में घंटी बँध चुकी है

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(आसन्नप्रसवा: मोदी आने वाला है)

प्रशंसा उलीचने से बचना आवश्यक
1) क्या हम भारतीय लोकतंत्र के किसी नवप्रवत्र्तनकारी युग में प्रवेश कर रहे है?ं
2) क्या एफडीआई, सेज, अधिग्रहण, कब्जा, दमन, निर्वासन, विस्थापन, पलायन इत्यादि शब्द अपनी घृणतम परिकल्पनाओं, अमानुषिक परिभाषाओं एवं विध्वंसकारी व्यवहार-प्रणालियों से सदा-सर्वदा के लिए विदा हो जाएंगे?
3) नमो-नमो द्वारा लाये जा रहे अच्छे दिन गुणात्मक रूप से पिछली सरकारों के क्रियाकलाप से भिन्न और मूल्यपरक होंगे?
3) यदि भिन्न और मूल्यवान हंै तो किन अर्थो में?
4) क्या मोदी-कार्यकाल में लोग अधिक खुशहाल, सुरक्षित और भविष्योनुमुखी चेतना से लैश होंगे?
5) क्या विभिन्न तरह के समाजों में व्याप्त गैर-बराबरी ख़त्म हो जाएगी?
6) क्या कथित विकास का रूढ़ अर्थ बदलेगा और यह सिर्फ मध्यवर्ग के विकास तक ही सीमित नहीं होगा?
7) क्या हाशिए पर रहने वाली दुनिया की अधिकांश आबादी को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार(गारंटीनुमा झाँसा नहीं) आसानी से उपलब्ध होगा?
8) क्या भारतीय जनतंत्र को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी और सब जगह शांति और भाईचारे का माहौल बन सकेगा?
9) क्या हम इस तरह आदर्श लोकतंत्र के युग में प्रवेश करेंगे जिसमें सत्ता की बागडोर वास्तव में जनता के हाथ में होगी?
10) क्या नई सरकार विदेशी वर्चस्ववादी ताकतों के साथ सही तालमेल बिठाने अथवा वैश्विक राजनीति में सार्थक भागीदारी का नाम लेकर ऐसा कुछ भी नहीं करेगी जो सम्पूर्ण भारतीय जनता के लिए घातक अथवा खतरनाक हो?

महानुभावगण, ज्यादा हूमचिए अथवा चुमकिए मत। इन सवालों से टकराइए। यह तय जानिए की अगली लोकसभा चुनाव में हम युवाओं की तादाद आगे होगी और बढ़ी हुई होगी। जबकि आपका चेहरा और आपके लाव-लश्कर पीछे होंगे। हम भारतीय युवाओं का ‘विजन 2020’ तक पहुँचना सुनिश्चित है। आज हम कद्दावर नहीं हैं; लेकिन कल हमारा कद वही नहीं होगा जो आज है। हमारे सवाल कल भी इतने ही सामान्य नहीं होंगे; जैसे आज हैं। हम कल की तारीख़ में आज से अधिक सजग, सचेत और चेतस होंगे। अतः हमारा आज केन्द्र में न होना आपकी आँख में है। कल आपका केन्द्र से बाहर होना हमारी लय-सुर-ताल में शामिल होंगे...यदि आपने उपर्युक्त सवालों से बचने की कोशिश की। इनसे मुँह चुराना ही आपने अपना ‘राजधर्म’ समझा। यदि आपके आने के बाद भी भविष्य की राजनीति ने अपना चाल, चरित्र और चेहरा नहीं बदला, तो तय मानिए जनाब! आपकी तो छुट्टी ही हो गई।

इस युवा समय में युवाओं के सामूहिक स्वर से टकराने की ताकत/कुव्वत किसी में नहीं है। आज तक राजनीतिक पार्टियाँ, सत्तासीन सरकारें, कारपोरेट जगत, बहुराष्ट्रीय कंपनिया, अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार, प्रभुत्त्वशाली शक्तियाँ इत्यादि हाहाकरी मुद्रा में हैं, तो सिर्फ इसलिए कि भारतीय लोकतंत्र में ज़मीनी समझ के राजनीतिक युवाओं को राजनीति में शामिल ही नहीं होने दिया जाता है। खैर! अभी हम ऊपर पूछे गए सवालों पर लौटते हैं। ये बुनियादी और सबसे अहम सवाल हैं। इन सवालों को अगले प्रधानमंत्री बनने वाले व्यक्ति से हर वह भारतीय पूछना चाहेगा जो इस (अ)स्वाधीन भारत में दशकों से पीड़ित, शोषित और वंचित है। स्वयं को आगामी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने वाले नरेन्द्र मोदी विभिन्न मंचों से बराबर हुंकार भरते आये हैं। उनके कहे को जनता ने खारिज़ भी नहीं किया है। अतएव, यदि वे प्रधानमंत्री बन सके, तो जनता को इन सवालों का जवाब उन्हीं से और उनकी सरकार से ही चाहिए। दिल्ली में 49 दिन की सरकार बनाकर सबसे अधिक काम करने का डींग हाँकने वाले अरविन्द केजरीवाल से भी जनता की उम्मीद अभी चुकी नहीं है; बशर्ते वे जादूई यथार्थवाद की जगह यथार्थवाद की राजनीति के महत्त्व को समझने की काबीलियत अपने भीतर पैदा करें। अब हर सरकार को यह समझना ही होगा कि भारतीय जनता अब बिना किसी ‘लेकिन’, ‘किन्तु’, ‘परन्तु’ के अपना भला, हित और सर्वतोमुखी तथा टिकाऊ विकास चाहती है।

फिलहाल, नरेन्द्र मोदी की बात...क्योंकि इस घड़ी मीडियावी संसार में उन्हीं का आना तय माना जा रहा है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार बनाये जाने की संभावना या कह लें आसार सबसे प्रबल हैं। कारण कि विजय शंखनाद के उद्घोषक नरेन्द्र मोदी को भारतीय जनमानस अपनी इच्छाओं/आकांक्षाओं की (क्षति)पूर्तिकत्र्ता मान चुकी है। दशकों से लिजलिजी राजनीति की पैरहन बनी भारतीय जनता को यह भरोसा भी ‘नमो-नमो’ ने खुद ही दिलाया है। चाहे हम लाख-लिख इसे कांग्रंेस-विरोधी परिवर्तनकामी लहर होने का हवाला दें; किन्तु इसमें नरेन्द्र मोदी का व्यक्तिगत योग सर्वाधिक है। जनता ने उनके कहे को सुना है; उनकी बातों पर कान दी है और उसने अपनी आँखों से इस राजनीतिज्ञ में संकल्प, विकल्प और नेतृत्व का वास्तविक दमखम/साहस पहचानने-टटोलने की कोशिश की है।

यह सब हो सका है, क्योंकि जनता आज भ्रष्टाचार की जिस दलदल में फँसी है; वह व्यवस्थगत कुचक्र को जिस तरह झेल रही है; घोर निराशा और हताशा के जिस भँवर में वह ऊब-चूब कर रही है; उससे उबरने/निपटने के लिए अब उसे इसी तरह से आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी, ऐसे ही निर्णय करने ही होंगे। दरअसल, जनता को पिछली सरकारों ने हद दरजे तक मुर्ख बनाया है। लेकिन, अब जनता को ‘उल्लू’ बनाना संभव नहीं है। इस बार जाति और धर्म के सिक्के खूब चले हैं, लेकिन वे कितने खोटे साबित हो गए हैं यह अबकी बार चुनाव परिणाम ही बताएगा। फिर भी, भारतीय जनता ने बिल्ली के गले में घंटी बाँध दी है।

कहना न होगा कि पिछली एनडीए सरकार ने भी भारतीय जन को बुरी तरह छला है। पाँच सालों तक शासनारूढ़ रही पार्टी ने वर्ष 2004 के चुनाव में जिस तरह ‘इंडिया शाइनिंग’ अथवा ‘भारत उदय’ का नारा/मुहावरा गढ़ा था; वह सिर्फ झूठ का पुलिन्दा ही साबित हुआ। इसी नाते उसके प्रचारवादी संस्कृति के जन-प्रबन्धक(स्पीन डाॅक्टर्स) मुँह के बल गिरे। जनता के बीच वादे चाहे कितने भी हवा-हवाई क्यों न किये जाते रहे हों, लेकिन, काम तो उसे अंततः ज़मीनी ही करना होता है। हमने देखा है कि एनडीए को अपनी इस प्रचारवादी राजनीतिक ढोंग का हर्जाना पन्द्रहवीं लोकसभा चुनाव में हार के रूप में दुबारा चुकाना पड़ा था। लिहाजा, वर्ष 2009 में विकल्पहीनता के भयानक दौर में जनता एक बार फिर यूपीए के कमजोर/अक्षम हाथों को ही थाम लेने को विवश और बाध्य दिखी। वाक्-बहादुर नरेन्द्र मोदी को ये सारे सबक निश्चय ही याद होंगे। वैसे भी भारतीय जनता पार्टी के लिए इस चुनाव में बहुमत से जीतना अब तक की भारतीय राजनीति का सबसे संवेदनशील क्षण होगा; जिसे एक व्यक्ति के बदौलत जीतने का सपना देखा एवं रचा-बुना गया है।
ख़ालिस देवपुरुष बनाने वालों को जनता से डरना होगा
‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ या ‘मोदी आने वाला है’ का राग अलापने वालों को यह ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है कि लोकतंत्र में व्यक्तिवादी राजनीति के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए; अगर ऐसी स्थिति है, तो तत्काल अन्य राजनीतिज्ञों को अपने व्यक्तित्व/चरित्र के सबलीकरण का महापाठ पढ़ने शुरू कर देने चाहिए।  

इस बार जनता मोदी के पक्ष में है; ऐसा बिल्कुन नहीं है। दरअसल, भारतीय जनता झूठ/भ्रम के सीखचें को तोड़ना चाहती थी। वह टेलीविज़न के सच को ‘सच’ मानने को हरग़िज तैयार नहीं है। वह शहरी विकास के गोलमटोल दावे को भी नकार चुकी है। वह जानती है कि उसे सीने में दर्द हो और दवा दिल्ली को खिला दी जाए तो उससे उसका कोई फायदा होने वाला नहीं है। अतः आमजन अब सशर्त बदलाव, राहत, सुरक्षा, विकास, समृद्धि इत्यादि की माँग करती हुई एकजुट है। कथित तौर पर प्रचारतंत्र के बदौलत नरेन्द्र मोदी की छवि या चेहरा गढ़ने में मीडिया ने रात-दिन एक कर दिये हंै; उसने मोदी के चेहरे को इफ़रात प्रचार-खर्चे के शह पर जन-जन तक तक पहुँचाने का काम किया है; यह सब चाहे कितने भी सच हों जनता को इन सबसे कोई लेना-देना नहीं है। भारत की नपुंसक होती भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी ने जिस ‘मिनिमम गर्वमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ की बात की है; जनता का पूर्णविश्वास उस शब्दार्थ पर है। हाँ, उसका ‘डीएनए टेस्ट’ अभी बाकी है; लेकिन यह रास्ता जनता ने काफी सोच-समझकर और विवेकपूर्ण ढंग से चुना है। यह विश्वास मुझमें भी जगा है; क्योंकि मेरी दृष्टि में भी अब ढुलमुल रवैये की जगह यह समय कठोर निर्णय का है। युवा पीढ़ी ने इसी बिनाह पर मोदी का जबर्दस्त समर्थन किया है। इसमें कुछ अतिरेकी युवजन भी शामिल हैं जिनका मानस पिज्जा, चाऊमिन, बर्गर खाकर बना है या फिर पारंपरिक पुरोहिताई/पंडिताई के सामन्ती मानसिकता की उपज है। लेकिन, ऐसे हल्लाबोलू/सनकी युवाओं की तादाद कम है। हमें इनकी तबीयत दुरुस्त करने के लिए सकारात्म राजनीति की ताक़ीद करनी होगी। चलिए, यह पहलकदमी हम आज खुद ही से करें।

Tuesday, May 13, 2014

जनता दिमाग में विवेक रखती है!


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युवा पीढ़ी को नरेन्द्र मोदी भा रहे हैं, तो इसकी वजहें बहुत सारी है। बार-बार ठगी जाती जनता को एक ही ठग ताज़िन्दगी नहीं ठग सकता है। कांग्रेस की राजनीतिक किताब यहीं ख़त्म हो रही है। बाकी दल लोकतंत्र के लटकन हैं; यह पब्लिक है जो सब जानती है। यानी उन पर भरोसा करना मौजूदा युवा पीढ़ी के लिए खुद का खुद से ही माखौल उड़ाना है। अतः वह इस बार चुनाव में यह टिटिमा नहीं करना चाहती है।

सवाल उठता है, तो फिर! जवाब में अधिसंख्य युवा सस्वर कंठ से ‘नमो नमो’ बोलते दिख रहे हैं। ये युवा पढ़े-लिखे, समझदार और जागरूक युवा हैं। ‘इमोशनल अत्याचार’ अथवा ‘नैतिक चीत्कार’ करने वाले पार्टियों की ये युवा बैन्ड बजा देने में उस्ताद हैं। ये युवा इतनी कूव्व्त रखते हैं कि ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ का चोचरम करने वाले राजनीतिज्ञों की पतलून ढीली कर दें। अपनी काबीलियत और सामथ्र्य से आगे बढ़ने को उतावली यह पीढ़ी जो आजतक मौका-ए-वारदात पर साक्षी/द्रष्टा होते हुए भी कुछ नहीं बोलती थी; अब राजनीतिज्ञों से सीधा सवाल कर रही है, उनसे स्पष्ट भाषा में संवाद कर रही है। जनादेश की दिशा को ये भारतीय युवाज्वार बदल कर रख देगी; यह विश्वास उम्र में बड़ी पीढ़ी को ही नहीं पुरनियों को भी जबर्दस्त हैं।

यह कोई चमत्कार नहीं है। आज का युवा व्यावहारिक सोच में पगा है। प्रोफेशनल माइंड सेट। टिट फौर टैट। नो चांस बिफोेर, नो टिकट मोर। आज यही युवा-पीढ़ी जिस पर अराजनीतिक होने का आरोप लगता रहा है, अब अपनी राजनीतिक सक्रियता द्वारा सबको चैंका रहा है। लोगों में राजनीतिक चेतना का निर्माण करने में यह युवा ज़मात अपना कीमती वक्त ‘इन्वेस्ट’ कर रही है। वह जानती है कि भारतीय राजनीति में लफ़्फाज, फेंकू, चम्पू, पप्पू, डेमागाॅग या फिर रैबल राउजर टाइप नेताओं की बाढ़ आ गई है; यह चुनाव उन्हीं की छँटनी करने का जायज़ तरीका है। वे उसी की जीत पक्की अथवा सुनिश्चित करेंगे जिस राजनीतिज्ञ की नियत साफ हो, नीति सार्वभौमिक हो, व्यक्तित्व प्रभावशाली हो, प्रतिबद्धता निर्णायक हो, सोच एवं दृष्टि सार्वदेशिक और सर्वतोमुखी तो हो ही, इसके अतिरिक्त जो जनता से बात जनता की भाषा में करने का हिमायती हो।

युवा पीढ़ी को इस बात की जानकारी भलीभाँति है कि आज देश में ‘पब्लिक कनेक्टिंग’ राजनीतिज्ञ अल्पमत में हैं। आज जनता अपने जिन सांसदों/विधायकों से सीधे संवाद करना चाहती है, अपनी हालबयानी और दशा-स्थिति से अपने जिन जनप्रतिनिधियों को अवगत कराना चाहती है; उनमें से कुछ ही हैं जो इस अपेक्षा अथवा जनांकाक्षा की कद्र करते हैं बाकी सब भगौड़े हैं, चिटफंडी खादीधारी है। नतीजतन, नागरिक-जीवन सम्बन्धी मूलभूत सुविधाओं की पहुँच और प्राप्ति नगण्य है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि से जुड़े ज़बानी भरोसे का लाॅलीपाॅप बाँटते राजनीतिज्ञों की भरमार है; लेकिन कहे को कर के दिखाने भर की हैसियत किसी में नहीं है।

नरेन्द्र मोदी जैसा कि वे दावा करते हैं-इन राजनीतिक घटियागिरियों को वे सदा-सर्वदा के लिए ख़त्म कर देना चाहते हैं। वे जातिवादी तकरीरों से ऊपर उठकर देसी राजनीति करना चाहते हैं। पिछले बरस दिसम्बर में वाराणसी महारैली को सम्बोधित करते हुए उन्होंने एक मजे की बात कही थी-‘‘सत्ता में आया भाइयो और बहनो तो आप सभी के सामने दोबारा उपस्थित होऊंगा और अपना सर ऊँचा कर कहूँगा, चाय बेचने वाला नरेन्द्र मोदी आज वह सबकुछ कर रहा है जो पिछले प्रधानमंत्रियों ने न किया और न ही करना चाहा। यह जो युवा इतनी तादाद में उमड़ी है अब उसे एक अदद नौकरी के लिए फार्म पे फार्म नहीं भरने होंगे; मैंने अपने गुजरात में आॅनलाइन इंटरव्यू कराये और तत्काल परिणाम देकर बड़ी संख्या में युवाओं को नौकरी भी दे दी। यह कांग्रेस जो चुनाव नजदीक आते ही ‘गरीब, गरीब, गरीब....’ का माला जपने लगती है, अब उसकी विदाई तय है। अब जनता को भाषण और आश्वासन नहीं चाहिए; झूठे संकल्प नहीं चाहिए बल्कि सचमुच विकल्प चाहिए। एक ऐसी सरकार चाहिए जिसका दिल धड़के तो जनता के लिए...उसका सीना गर्व से फूले या चैड़ा हो तो अपनी जनता के हित और कल्याण में......नहीं तो मंच से भारत माता का जयजयकार करना, महादेव के नाम की जयजयकारी करना धोखा है, छलावा, झाँसा है...ऐसा मैं मानता हूं। नरेन्द्र मोदी जो कभी ट्रेन में चाय बेचता था आज उसे जनता प्रधानमंत्री बनते हुए देखना चाहती है तो भाइयो और बहनो, यह जनता का विवेक है, निर्णय है...मेरे जिम्मे तो सिर्फ कर्तव्य है जिसका मैं पालन करूँगा।’’ 

जनता दिमाग में विवेक रखती है! तमाम लेकिन, किन्तु, परन्तु के बावजूद भारतीय जनता अपनी चेतना में जीवन्त, बेलाग और मुखर है। अतएव, इसके लिए विज्ञापनबाज टपोरियों को ‘उल्लू मत बनाओ’ जैसे बेढंगे और बेढब भाषा में ‘प्रोपेगेण्डा करने की जरूरत नहीं है।

राजीव के लिए अपनी भाषा में मनुहार

‘‘हत्यारे एकदम सामने नहीं आते
वह पुराना तरीका है एक आदमी को मारने का
अब एक समूह का शिकार करना है
हत्यारे एकदम सामने नहीं आते
उनके पास हैं कई-कई चेहरे
कितने ही अनुचर और बोलियाँ
एक से एक आधुनिक सभ्य और निरापद तरीके
ज्यादातर वे हथियार की जगह तुम्हें
विचार से मारते हैं
वे तुम्हारे भीतर एक दुभाषिया पैदा कर देते हैं।’’
...........................................................................-धूमिल

प्रिय देव-दीप,

हमारी आँखें बाहर के दृश्यों को खूब से खूब 1/10 भाग ही देख पाती है। नेत्र का दिखाव-क्षेत्र सीमित मात्रा में प्रकाशीय कणों को ग्रहण करता है। इसलिए हमारे मानस में बनने वाले दृश्यबिम्ब चयनित/प्रतिनिधि होते हैं। इसी तरह ‘वाक्’ में हम जितना सोचते हैं; उसका कुछ हिस्सा ही अभिव्यक्त हो पाता है; शेष अव्यक्त ही रह जाते हैं। यह अनदेखा दृश्य अथवा अव्यक्त वाणी एक दिन बचावट की बड़ी ढेर बनकर हमारे ही सामने आ खड़ी होती हैं। यह सब हमारे अचेतन का हिस्सा है।

बच्चों, इसी तरह सुनावट की प्रक्रिया घटित होती है। हम जो सुन पाते हैं वे तो एक अंश मात्र हैं; बहुलांश तो अनसुना ही रह जाते हैं। जिन आवाजों को हम नहीं ग्रहण कर पाते हैं, उन्हें प्रकृति अपने संज्ञान में सुरक्षित कर लेती है। यह प्रकृतिगत अचेतन का हिस्सा है। प्रकृति बहुविध आवाजों को न सिर्फ ग्रहण करती है; बल्कि उसे तरंगों में रूपान्तरित कर ब्राह्मण्ड में विस्तारित कर देती है। ये तरंगत्व नाद-अनुनाद के रूप में हमें पूरे जगत में फैले मिल सकते हैं। इस फैलाव में विद्युत्व और चुम्बकत्व दोनों पर्याप्त मात्रा में विद्यमान होते हैं।

बच्चों, तुमदोनों ने रंग-मिश्रण के बारे में कुछ सुना है। प्रकाश, ध्वनि, दृश्य और पदार्थ इत्यादि रंग-मिश्रण की ही तरह आपस में घुलमिल कर जागतिक कार्यकलापों को संभव बनाते हैं। यह अंतःक्रियात्मक मिश्रण मनुष्य के आचरण-व्यवहार को काफी हद तक नियंत्रित-निर्धारित करते हैं। उनके व्यक्तित्व-व्यवहार को बुनते-बनाते हैं। जीवन में घटित हर एक चीज जिन्हें हम समय, समाज और परिस्थिति के आपसी तालमेल और मिलाव-बनाव का परिणााम मानते हैं....वे सभी संचार की गतिविधि, गतिशीलता और गत्यात्मकता के द्धारा मानव एवं मानवेतर जीवन के समक्ष ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ का अद्भुत कोलाज रचते हैं जिसमें हमारी भूमिका सिवाए पात्रगत-अभिव्यक्ति के विशेष या विशिष्ट कुछ भी नहीं है।

बच्चों, भारतीय चिन्तन में पगे ‘वसुधौवकुटुम्बकम्’ की भावना हो या फिर शेक्सपियर की कविता ‘विश्व एक रंगमंच है!’ का मूलार्थ...यह दुनिया हमारे देखे-सुने-कहे की सार्थकता, महत्ता और पूर्णता को ही अंतिम सत्य मानकर चलती है।

Saturday, May 3, 2014

पुरानी फाइल: 2009 में बनारस


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भारत की सांस्कृतिक राजधानी बनारस अन्य भारतीय शहरों से कई मायने में अलहदा है। यहाँ पारंपरिकता से जुड़ाँव है, तो आधुनिकता का रंगरोगन भी। धर्म और आस्था का पुरातनपंथी दिनचर्या है, तो कला, साहित्य और वैचारिकता की बहस-मुबाहिसे भी आम है। दिलचस्प शहर है बनारस, जहाँ सलाना 5 लाख के करीब सैलानी आते हैं। उनकी यह आवाजाही इस शहर की जीवंतता का सबूत है, जो यहाँ आकर यही का हो जाना चाहते है। रमता जोगी बहता पानी की तरह एकदम निश्छल और निस्वार्थ है बनारस, जिसे पौराणिक ग्रंथों में काशी और वाराणसी दो अन्य नामों से जानते हंै. इस ऐतिहासिक नगर को अपनी लोकप्रियता का तनिक गुमान नहीं. आधुनिकता को समय के साथ सहजता से स्वीकारने में उस्ताद इस बुजुर्ग शहर को बदलाव की तीव्र रफ्तार से कोई गुरेज़ या परेशानी भी नहीं है. यहाँ लोकसेवा के निमित बने अनेकों धर्मशाला और सामुदायिक पड़ाव हैं, तो पाँच-सितारा होटल और महँगे रेस्तराँ भी. एक तरफ पारंपरिक बुनकरों द्वारा बनाये कपड़ों का बाजार है, तो दूसरी तरफ माॅल-कल्चर की तर्ज पर निर्मित गगनचुंबी मल्टीप्लेक्स. गंगा किनारे बने घाटों की संख्या तकरीबन सौ से ज्यादा हैं. जिसके इर्द-गिर्द हमेशा श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है. फूल-माला लिए धमाचैकड़ी करते छोटे उम्र के बच्चे भी घाटों के समीप आकर्षण का मुख्य केन्द्र होते हैं, जो बालसुलभ तरीके से पूजन-सामग्री लेने के लिए निवेदन करते मिल जाएंगे. दुनियावी तामझाम से बेफिक्र यह रहस्यपूर्ण जीवन परदेशी के अंदर चरम कुतूहल का संचार करता है. 
 
गंगा-जमुनी तहजीब, जो मानव के सहअस्तित्व का प्रमुख लक्षण है, बनारसवासियों में गहरे पैठी है. लिहाजा, छद्म मजहबी उन्मादों, सांप्रदायिक कुचक्रों तथा पारस्परिक सौहार्द बिगाड़ने वाले राजनीतिक हथकंडों को प्रश्रय का मौका ही नहीं मिलता. हर रंग में रचा-बसा बनारस बनारस को किस्म-किस्म के नामों, उपनामों और मिथकीय उपाधियों से नवाजा जाता है. कोई इसे गलियों का शहर कह आनन्दित होता है, तो किसी को घाटों का दृश्य इतना लुभाता है कि वह इसे घाटों का शहर समझने लगता है. बनारसी साड़ियाँ, जो कभी भारतीय नारियों की पसंदीदा परिधान थी. आज प्रायोजित माॅडल और फैशन के युग में हाशिए पर हंै, किंतु साँस टूटी नहीं. आज भी बनारसी साड़ियों की मांग वैवाहिक अवसरों पर सर्वाधिक है. उसी तरह फास्टफूड और कोल्डड्रिंक के इस जमाने में भी अगर लोग मिट्टी के कुल्हड़ पसंद करते हैं, तो इसके पीछे बनारसीपन जुड़ाव पहली वजह है. इसी तरह शौकीन लोग पान का बीड़ा चबाते हुए देश-विदेश के हाल-हालात पर चर्चा करते हैं, कला, साहित्य और लोक-चेतना के बाबत बहस करते हैं. ताज्जुब है कि इस शहर में जेट-वायुयान के युग में भी ‘एक्का’ अर्थात घोड़ागाड़ी प्रचलन में है. ठंडई, लस्सी, कचैड़ी, जलेबी और इमरती के दूकानों पर उमड़ती रेलमपेल भीड़ रोजाना का टंट-घंट है. यही नहीं धर्म, शास्त्र, वास्तु, कला-साहित्य, संगीत, नाटक, रामलीला, लोकगीत व गायन सभी क्षेत्रों में अग्रणी है बनारस. जहाँ आ कर पर्यटक खुद ही अपना सुध-बुध खो देते हैं. दर्शनार्थी मंत्रमुग्ध हो इसके चप्पे-चप्पे का खाक छानते हैं. आगंतुक घाटों के किनारे बने प्राचीन इमारतों, किलानुमा मेहराबों तथा नक्काशीदार भवनों के बीच से पावन नदी गंगा को अपलक निहारते हैं. किसी एक मुंडेर या झरोखे से सुबह-ए-बनारस का नजारा देखते हैं. सांध्य आरती, जो बनारस का पहचान-प्रतीक है को देखने हेतु जबरिया नावों की सवारी करते हैं. निःसंदेह कण-कण में थिरकन का अहसास कराते इस शहर में उमंग, उत्सव और उल्लास का जलवा जिस बुलंदी पर है. उसे देखकर ईष्र्या स्वाभाविक है. यँू तो इस उम्रदराज शहर में समय के साथ पैदा हुई समस्याएँ भी ढेरों हैं. लेकिन वह इन सभी से अपने हिसाब से निपटता है.

अपनी शर्तों पर जीता बनारस

ऐसे समय में जब भारतीय संस्कृति पर चैतरफा हमला जारी है. रहन-सहन से लेकर जीने का सलीका-तरीका तक बदलाव की चपेट में है. जिंदगी में आपाधापी, हो-हल्ला और चिल्ल-पों बढ़ी है. शब्द, संवेदना और सामाजिकता का दायरा घटा है. इन तमाम बुरे ख्यालातों और डरावने आशंकाओं के बीच भी प्राचीन स्मृतियाँ न तो विलुप्त हुई है और न ही बिखरी है. बनारसी परंपरा की कौन कहे, यह तो सदैव संबंधों को गर्माहट और गरिमा प्रदान करने का काम करता रहा है. लेकिन बनारस में रचने-बसने खातिर कुछ जरूरी शर्ते हैं. इसे बनारसी अदब में कुछ इस प्रकार कहा जाता है-‘राड़, साँढ़, सीढ़ी, सन्यासी; इन से बचै तो सेवै काशी’ एक और बात कही जाती है कि बनारस को पूर्णता में जानना मुश्किल है. यह हमेशा स्वयं को सौ-फीसदी प्रस्तुत करने से बचता है. यों तो कला, साहित्य, सिनेमा के अलावा नवसंचार माध्यम अपने-अपने हिसाब तथा दृष्टिकोण से इस ऐतिहासिक शहर का मुआयना करते आये हैं. परंतु अद्भुत और रहस्यमयी बनारस आज भी उनके लिए अजनबी और उतना ही अपरिचित बना हुआ है. कवि केदारनाथ सिंह ने बनारस की इस बनावट-बुनावट को ‘बनारस’ शीर्षक कविता में सधे अंदाज में चित्रित किया है-
 
‘अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है’
युगप्रवत्र्तक-युगद्रष्टा बनारस

अगर हम इस शहर की प्राचीनता को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में खंगाले तो बनारस से वर्तमान वाराणसी में रूपांतरण शनैः-शनैः हुआ है. वैदिक काल में जहाँ यह जीवन-मृत्यु एवं मोक्ष-मुक्ति का पावन केन्द्र था. वहीं जैन-बौद्ध संप्रदायों के लिए ज्ञानाश्रयी स्थल था. आज सारनाथ की ख्याति इन्हीं कारणों से है,  क्योंकि महात्मा बुद्ध ने सर्वप्रथम अपने शिष्यों को उपदेश इसी जगह दिया था, जिसे बौद्ध ग्रंथों में ‘धर्मचक्रपरिवर्तन’ के नाम से जाना जाता है. हिन्दु धर्मावलम्बियों की दिव्यस्थली कहे जाने वाले बाबा विश्वनाथ मंदिर, दुर्गा मंदिर, संकटमोचन मंदिर तथा कालभैरव मंदिर प्राचीनकाल से ही धार्मिक-संकेन्द्रण के महत्वपूर्ण पड़ाव रहे हैं. कबीर और रैदास, जो भक्ति-आंदोलन के आधार-स्तंभ माने जाते हैं. उनका जन्मस्थली और तपोभूमि यही शहर है. राजशाही और व्यवस्थित राजतंत्र के हिसाब से काशी-नरेश का ओहदा सर्वोपरि था. मशहूर रामनगर का किला आज भी वास्तु और स्थापत्य के विचार से महत्वपूर्ण भारतीय विरासत हैं. जहाँ भ्रमणल पर्यटकों की दिनभर आवाजाही लगी रहती है. लोक-कला और लोक-चेतना की दृष्टि से उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पंडित रविशंकर, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, किशन महराज जैसे जादुई शख्सियतों की सरजमीं बनारस आज भी  शास्त्रीय संगीत और गायन विधा में अव्वल है. अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इन प्रसिद्ध लोगों की सहज जीवनशैली और मृदुभाषिता आमजन को बेहद प्रभावित करती है. इसके अलावे यह जिक्र जरूरी है कि वैचारिक संजीवनी का प्रस्फुट्टन और साहित्य एवं हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव-विकास काशी से ही हुआ है. जिसे कबीर, तुलसी, रैदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, महामना मदन मोहन मालवीय, रामचन्द्र शुक्ल ने समकालीन हिसाब से गढ़ा. अब यह दारोमदार नई पीढ़ी के नायकों मसलन चंद्रबली सिंह, नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह और ज्ञानेन्द्रपति पर है, जो अंधाधुंध बदलाव के चपेट और चंगुल में कैद वर्तमान मानव-समुदाय को वैचारिक खुराक प्रदान करने हेतु तत्पर हैं.

बनारस का सिनेमाई सच

सिनेमा से आमआदमी का साबका हर रोज पड़ता है. क्योंकि यह समय, समाज और संस्कृति का प्रतिबिम्ब है. बनारस इसके दायरे से भला कैसे दूर रहता. अतएव, फिल्मों की दुनिया में अमिताभ ने बनारस को ज्यादा लोकप्रियता दिलायी. मसलन, ‘ओ...खइके पान बनारस वाला...कि खुल जाए बंद अक्ल का ताला.’ इसके अलावे सिनेमा के रूपहले परदे पर बनारस को लेकर बहुत सारी फिल्में बनी हैं या फिर अपरोक्ष ढंग से उनमें इस शहर का जिक्र.

क्या खूब कही किसी ने...,

मिलता है. बनारस के ठेठपन और भदेसपन को बड़े ही सूक्ष्मता और सहजता के साथ सिनेमा में फिल्माया जाता रहा है. नामों की फेहरिस्त में पकंज पराषर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘बनारस-अ माइस्टिक लव स्टोरी’ के अतिरिक्त ‘लगा चुनरी में दाग’, ‘धर्म’, ‘चोखेर बाली’ शुमार है. विवाद और विरोध की वजह से दीपा मेहता ‘वाटर’ फिल्म भले यहाँ न बना पायी हों, पर वह बनारस केन्द्रित एक महत्वपूर्ण फिल्म है. अमूमन बनारस पर फिल्म बनाना आसान काम नहीं है. क्योंकि यहाँ बिम्बों की भरमार है. एंग्ल और लोकेशन के अनगिनत स्पाॅट हैं. अब निर्देशक और सिनेमेटोग्राफर पर निर्भर है कि वह अपने विजुअल्स में क्या दिखाना चाहता है और क्या छोड़ना?

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...