Saturday, May 3, 2014

पुरानी फाइल: 2009 में बनारस


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भारत की सांस्कृतिक राजधानी बनारस अन्य भारतीय शहरों से कई मायने में अलहदा है। यहाँ पारंपरिकता से जुड़ाँव है, तो आधुनिकता का रंगरोगन भी। धर्म और आस्था का पुरातनपंथी दिनचर्या है, तो कला, साहित्य और वैचारिकता की बहस-मुबाहिसे भी आम है। दिलचस्प शहर है बनारस, जहाँ सलाना 5 लाख के करीब सैलानी आते हैं। उनकी यह आवाजाही इस शहर की जीवंतता का सबूत है, जो यहाँ आकर यही का हो जाना चाहते है। रमता जोगी बहता पानी की तरह एकदम निश्छल और निस्वार्थ है बनारस, जिसे पौराणिक ग्रंथों में काशी और वाराणसी दो अन्य नामों से जानते हंै. इस ऐतिहासिक नगर को अपनी लोकप्रियता का तनिक गुमान नहीं. आधुनिकता को समय के साथ सहजता से स्वीकारने में उस्ताद इस बुजुर्ग शहर को बदलाव की तीव्र रफ्तार से कोई गुरेज़ या परेशानी भी नहीं है. यहाँ लोकसेवा के निमित बने अनेकों धर्मशाला और सामुदायिक पड़ाव हैं, तो पाँच-सितारा होटल और महँगे रेस्तराँ भी. एक तरफ पारंपरिक बुनकरों द्वारा बनाये कपड़ों का बाजार है, तो दूसरी तरफ माॅल-कल्चर की तर्ज पर निर्मित गगनचुंबी मल्टीप्लेक्स. गंगा किनारे बने घाटों की संख्या तकरीबन सौ से ज्यादा हैं. जिसके इर्द-गिर्द हमेशा श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है. फूल-माला लिए धमाचैकड़ी करते छोटे उम्र के बच्चे भी घाटों के समीप आकर्षण का मुख्य केन्द्र होते हैं, जो बालसुलभ तरीके से पूजन-सामग्री लेने के लिए निवेदन करते मिल जाएंगे. दुनियावी तामझाम से बेफिक्र यह रहस्यपूर्ण जीवन परदेशी के अंदर चरम कुतूहल का संचार करता है. 
 
गंगा-जमुनी तहजीब, जो मानव के सहअस्तित्व का प्रमुख लक्षण है, बनारसवासियों में गहरे पैठी है. लिहाजा, छद्म मजहबी उन्मादों, सांप्रदायिक कुचक्रों तथा पारस्परिक सौहार्द बिगाड़ने वाले राजनीतिक हथकंडों को प्रश्रय का मौका ही नहीं मिलता. हर रंग में रचा-बसा बनारस बनारस को किस्म-किस्म के नामों, उपनामों और मिथकीय उपाधियों से नवाजा जाता है. कोई इसे गलियों का शहर कह आनन्दित होता है, तो किसी को घाटों का दृश्य इतना लुभाता है कि वह इसे घाटों का शहर समझने लगता है. बनारसी साड़ियाँ, जो कभी भारतीय नारियों की पसंदीदा परिधान थी. आज प्रायोजित माॅडल और फैशन के युग में हाशिए पर हंै, किंतु साँस टूटी नहीं. आज भी बनारसी साड़ियों की मांग वैवाहिक अवसरों पर सर्वाधिक है. उसी तरह फास्टफूड और कोल्डड्रिंक के इस जमाने में भी अगर लोग मिट्टी के कुल्हड़ पसंद करते हैं, तो इसके पीछे बनारसीपन जुड़ाव पहली वजह है. इसी तरह शौकीन लोग पान का बीड़ा चबाते हुए देश-विदेश के हाल-हालात पर चर्चा करते हैं, कला, साहित्य और लोक-चेतना के बाबत बहस करते हैं. ताज्जुब है कि इस शहर में जेट-वायुयान के युग में भी ‘एक्का’ अर्थात घोड़ागाड़ी प्रचलन में है. ठंडई, लस्सी, कचैड़ी, जलेबी और इमरती के दूकानों पर उमड़ती रेलमपेल भीड़ रोजाना का टंट-घंट है. यही नहीं धर्म, शास्त्र, वास्तु, कला-साहित्य, संगीत, नाटक, रामलीला, लोकगीत व गायन सभी क्षेत्रों में अग्रणी है बनारस. जहाँ आ कर पर्यटक खुद ही अपना सुध-बुध खो देते हैं. दर्शनार्थी मंत्रमुग्ध हो इसके चप्पे-चप्पे का खाक छानते हैं. आगंतुक घाटों के किनारे बने प्राचीन इमारतों, किलानुमा मेहराबों तथा नक्काशीदार भवनों के बीच से पावन नदी गंगा को अपलक निहारते हैं. किसी एक मुंडेर या झरोखे से सुबह-ए-बनारस का नजारा देखते हैं. सांध्य आरती, जो बनारस का पहचान-प्रतीक है को देखने हेतु जबरिया नावों की सवारी करते हैं. निःसंदेह कण-कण में थिरकन का अहसास कराते इस शहर में उमंग, उत्सव और उल्लास का जलवा जिस बुलंदी पर है. उसे देखकर ईष्र्या स्वाभाविक है. यँू तो इस उम्रदराज शहर में समय के साथ पैदा हुई समस्याएँ भी ढेरों हैं. लेकिन वह इन सभी से अपने हिसाब से निपटता है.

अपनी शर्तों पर जीता बनारस

ऐसे समय में जब भारतीय संस्कृति पर चैतरफा हमला जारी है. रहन-सहन से लेकर जीने का सलीका-तरीका तक बदलाव की चपेट में है. जिंदगी में आपाधापी, हो-हल्ला और चिल्ल-पों बढ़ी है. शब्द, संवेदना और सामाजिकता का दायरा घटा है. इन तमाम बुरे ख्यालातों और डरावने आशंकाओं के बीच भी प्राचीन स्मृतियाँ न तो विलुप्त हुई है और न ही बिखरी है. बनारसी परंपरा की कौन कहे, यह तो सदैव संबंधों को गर्माहट और गरिमा प्रदान करने का काम करता रहा है. लेकिन बनारस में रचने-बसने खातिर कुछ जरूरी शर्ते हैं. इसे बनारसी अदब में कुछ इस प्रकार कहा जाता है-‘राड़, साँढ़, सीढ़ी, सन्यासी; इन से बचै तो सेवै काशी’ एक और बात कही जाती है कि बनारस को पूर्णता में जानना मुश्किल है. यह हमेशा स्वयं को सौ-फीसदी प्रस्तुत करने से बचता है. यों तो कला, साहित्य, सिनेमा के अलावा नवसंचार माध्यम अपने-अपने हिसाब तथा दृष्टिकोण से इस ऐतिहासिक शहर का मुआयना करते आये हैं. परंतु अद्भुत और रहस्यमयी बनारस आज भी उनके लिए अजनबी और उतना ही अपरिचित बना हुआ है. कवि केदारनाथ सिंह ने बनारस की इस बनावट-बुनावट को ‘बनारस’ शीर्षक कविता में सधे अंदाज में चित्रित किया है-
 
‘अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है’
युगप्रवत्र्तक-युगद्रष्टा बनारस

अगर हम इस शहर की प्राचीनता को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में खंगाले तो बनारस से वर्तमान वाराणसी में रूपांतरण शनैः-शनैः हुआ है. वैदिक काल में जहाँ यह जीवन-मृत्यु एवं मोक्ष-मुक्ति का पावन केन्द्र था. वहीं जैन-बौद्ध संप्रदायों के लिए ज्ञानाश्रयी स्थल था. आज सारनाथ की ख्याति इन्हीं कारणों से है,  क्योंकि महात्मा बुद्ध ने सर्वप्रथम अपने शिष्यों को उपदेश इसी जगह दिया था, जिसे बौद्ध ग्रंथों में ‘धर्मचक्रपरिवर्तन’ के नाम से जाना जाता है. हिन्दु धर्मावलम्बियों की दिव्यस्थली कहे जाने वाले बाबा विश्वनाथ मंदिर, दुर्गा मंदिर, संकटमोचन मंदिर तथा कालभैरव मंदिर प्राचीनकाल से ही धार्मिक-संकेन्द्रण के महत्वपूर्ण पड़ाव रहे हैं. कबीर और रैदास, जो भक्ति-आंदोलन के आधार-स्तंभ माने जाते हैं. उनका जन्मस्थली और तपोभूमि यही शहर है. राजशाही और व्यवस्थित राजतंत्र के हिसाब से काशी-नरेश का ओहदा सर्वोपरि था. मशहूर रामनगर का किला आज भी वास्तु और स्थापत्य के विचार से महत्वपूर्ण भारतीय विरासत हैं. जहाँ भ्रमणल पर्यटकों की दिनभर आवाजाही लगी रहती है. लोक-कला और लोक-चेतना की दृष्टि से उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पंडित रविशंकर, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, किशन महराज जैसे जादुई शख्सियतों की सरजमीं बनारस आज भी  शास्त्रीय संगीत और गायन विधा में अव्वल है. अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इन प्रसिद्ध लोगों की सहज जीवनशैली और मृदुभाषिता आमजन को बेहद प्रभावित करती है. इसके अलावे यह जिक्र जरूरी है कि वैचारिक संजीवनी का प्रस्फुट्टन और साहित्य एवं हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव-विकास काशी से ही हुआ है. जिसे कबीर, तुलसी, रैदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, महामना मदन मोहन मालवीय, रामचन्द्र शुक्ल ने समकालीन हिसाब से गढ़ा. अब यह दारोमदार नई पीढ़ी के नायकों मसलन चंद्रबली सिंह, नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह और ज्ञानेन्द्रपति पर है, जो अंधाधुंध बदलाव के चपेट और चंगुल में कैद वर्तमान मानव-समुदाय को वैचारिक खुराक प्रदान करने हेतु तत्पर हैं.

बनारस का सिनेमाई सच

सिनेमा से आमआदमी का साबका हर रोज पड़ता है. क्योंकि यह समय, समाज और संस्कृति का प्रतिबिम्ब है. बनारस इसके दायरे से भला कैसे दूर रहता. अतएव, फिल्मों की दुनिया में अमिताभ ने बनारस को ज्यादा लोकप्रियता दिलायी. मसलन, ‘ओ...खइके पान बनारस वाला...कि खुल जाए बंद अक्ल का ताला.’ इसके अलावे सिनेमा के रूपहले परदे पर बनारस को लेकर बहुत सारी फिल्में बनी हैं या फिर अपरोक्ष ढंग से उनमें इस शहर का जिक्र.

क्या खूब कही किसी ने...,

मिलता है. बनारस के ठेठपन और भदेसपन को बड़े ही सूक्ष्मता और सहजता के साथ सिनेमा में फिल्माया जाता रहा है. नामों की फेहरिस्त में पकंज पराषर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘बनारस-अ माइस्टिक लव स्टोरी’ के अतिरिक्त ‘लगा चुनरी में दाग’, ‘धर्म’, ‘चोखेर बाली’ शुमार है. विवाद और विरोध की वजह से दीपा मेहता ‘वाटर’ फिल्म भले यहाँ न बना पायी हों, पर वह बनारस केन्द्रित एक महत्वपूर्ण फिल्म है. अमूमन बनारस पर फिल्म बनाना आसान काम नहीं है. क्योंकि यहाँ बिम्बों की भरमार है. एंग्ल और लोकेशन के अनगिनत स्पाॅट हैं. अब निर्देशक और सिनेमेटोग्राफर पर निर्भर है कि वह अपने विजुअल्स में क्या दिखाना चाहता है और क्या छोड़ना?

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--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...