Wednesday, May 28, 2014

फिल्म ‘मम्मा रेस्तरां’ ने चखाया रिश्तों की कद्रदानी का बेजोड़ स्वाद

.....................................................................................................

भारत एक दिलचस्प देश है। यहाँ सच की तपती ज़मीन पर धैर्यपूर्वक पाँव रख कर कोई भी चाहे तो सफलता अर्जित कर सकता है। हाँ, शर्त है कि आपकी चाहत बीच में ही कमजोर न पड़े। यह बात हाल ही में रिलिज हुई फ़िल्म ‘मम्मा रेस्तरां’ पर बिल्कुल सटीक बैठती है। इस घड़ी चारों ओर इसी फ़िल्म की धूम है। इस फ़िल्म को मिलते रेस्पांस से इस फ़िल्म के युवा निर्देशक सह पटकथा लेखक आर्जीव खासे उत्साहित हैं।

अब बात थोड़ी इस फ़िल्म की हो जाए। दरअसल, यह फ़िल्म 34 साल की एक स्त्री अंजिमा विश्वास के मुख्य चरित्र पर केन्द्रित हैं जिनकी दो लड़कियाँ हैं-11 वर्षीय हेम और 9 वर्षीय आही। जीवन के कठिन मोड़ पर तीनों एक रेस्तरां खोलने का निर्णय लेते हैं। यह रेस्तरां सिर्फ लड़कियों और स्त्रियों के लिए है। किसी भी स्थिति-परिस्थिति में पुरुषों को उसमें आवाजाही करने की इज़ाजत नहीं है। लोगों में इसे ले कर कई तरह के कहकहे, चर्चे और अफ़वाह गर्म रहते हैं, छींटाकशी और टिप्पणियाँ भी सुनने को मिलती है। पुरुषों के बगैर उसके रेस्तरे में कौन आएगा? यह सवाल अंजिमा को हमेशा मथ रहा होता है। लेकिन हेम और आही इसे एक प्रतीकात्मक लड़ाई मानकर चल रही होती हैं। हेम और आही के दृढ़निश्चय के आगे अंजिमा को भी हथियार डाल देना पड़ता है। उसे लगता है कि उसकी बेटियाँ ही सही हैं; ग़लत वह खुद है। जिस घर-परिवार के लिए अंजिमा ने अपना सबकुछ न्योंछावर कर दिया; उसी घर ने तो उसे घर से ही दर-बदर कर दिया है। उसका पति निखिल भी इस साज़िश में शामिल है। अंजिमा यह सब सिर्फ इसलिए झेलती है; क्योंकि डाॅक्टर ने कह दिया है कि वह अब कभी माँ नहीं बन सकती। जबकि घरवालों को हर हाल में लड़का चाहिए होता है। अंततः अंजिमा अपनी दोनों बेटियों हेम और आही को ले कर घर छोड़ने पर मजबूर हो जाती है। ऐसे मुश्किलात की घड़ी में हेम और आही भी इस पीड़ा का बराबर मार झेलती हैं। उन दोनों को पहली बार इस परिवार और समाज की असलियत का थाह-पता चलता है। अपनी माँ के साथ हुए अत्याचार को वे समाज के नंगेपन, वहशीपन और मर्दाने करतूत का दस्तावेज़ मान उनसे मुकाबला करने की ठान लेती हैं। और इस तरह खुलता है-‘मम्मा रेस्तरां’। अंजिमा, हेम और आही सांकेतिक ढंग से वैकल्पिक लड़ाई की मुनादी तो भर चुकी होती हैं, लेकिन यह आसान हरग़िज नहीं है। किन्तु वे तीनों न तो झुकती हैं और न ही टूटना जानती है। इसी बहाने वे तीनों भारतीय समाज में सताई गई स्त्रियों और उनकी पीड़ा के बारे में नजदीक से जान-देख पाती हैं। कई लोग एक के बाद एक जुड़ते चले जाते हैं।  उनकी पीड़ा, दुःख, हूक, टीस, कसक इत्यादि से रू-ब-रू होती हेम, आही और अंजिमा अपना सब दुःख-दर्द भूल जाती हैं। और इस तरह औरतों के बीच एक मानसिक संकल्प का पर्याय बनकर उभरता है-‘अम्मा रेस्तरां’। विभिन्न मौकों पर जानबूझकर कई कठिनाइयों को पुरुष-वर्ग अपने अहं/अहंकार की तुष्टि के लिए पैदा करता है; लेकिन इन सब की परवाह किए बगैर ‘अम्मा रेस्तरां’ एक सुपरवुमैन माॅल बन  कर ही दम लेता है। राष्ट्रीय स्तर पर इनकी खूब चर्चा होती है। इस प्रयास को सराहने वालों की लम्बी सूची तैयार हो जाती है। अन्तरराष्ट्रीय मैग्जीनों तक में अंजिमा, हेम और आही की चर्चाएँ  हैं। भारत के दूसरे शहरों में भी इसी नाम से रेस्तरंे खुलते हैं। और इस तरह यह फ़िल्म आखिर में एक सम्मान समारोह से ख़त्म होती है जिसमें अंजिमा खुद न बोलकर हेम को लोगों को सम्बोधित करने के लिए भेज देती है। हेम वहाँ सिर्फ इतना ही कहती है-‘‘आपसबों के सामने कहने के लिए कुछ नहीं हैं; लेकिन आपको दिखाने के लिए मेरे पास हौसले, उम्मीद और उड़ान से बनी-बुनी एक खूबसूरत चीज है, और वह है-‘मम्मा रेस्तरां’।’’ एक बड़े स्क्रीन पर मम्मा रेस्तरां का तस्वीर उभर आता है जिस पर हेम डिजिटल राइटिंग के सहारे लिखती है-‘थैंक्यू मम्मा!’ फ़िल्म के आख़िरी दृश्य में जब अंजिमा का पति निखिल उसका आॅटोग्राफ लेने आता है, तो अंजिमा बिना किसी अतिरिक्त भाव के चुपचाप सिग्नेचर कर देती है। निखिल अपने दोस्तों को आॅटोग्राफ दिखाता है। और उसके
ठीक बगल से अंजिमा, हेम और आही धीमे कदमों के साथ आगे निकल जाती हैं।

कहना न होगा कि फ़िल्म रिलिज होने के काफी पहले ही इसके गानों की धूम चर्चे में थी। फिल्मों के बीच गीत-संगीत जिस तरह आते हैं वह देखते ही बनता है। इस फिल्म की सफलता के बाबत पूछने पर आर्जीव बताते हैं-‘‘ठन-ठन गोपाल से मालामाल सप्ताह तक का सफ़र रोमांचित करता है। हमने चंदे इकट्ठे कर पैसों का इंतजाम किया था। अब हम उन्हें लौटा सकने की स्थिति में हैं। इस फ़िल्म की पटकथा बेजोड़ थी। लेकिन इतनी अच्छी फिल्म बन सकेगी, संदेह था। लेकिन हम नौसिखुओं की टीम ने काफी होमवर्क किया। आही और हेम का रौल इस फ़िल्म की जान है। दोनों के बे-लफ़्जी संवाद का दृश्य अच्छा बन पड़ा है। कई जगह दर्शक गहरे अनुभूति और संवेदना के साथ इस फ़िल्म से जुड़ते हैं। फ़िल्म समीक्षकों ने इसकी तारीफ़ और आलोचना जिस ढंग से की है; वह हमें साहस और संबल देता है। मुझे खुशी है कि हमने एक अर्थपूर्ण फ़िल्म बनाई और लोगों ने उसे उसी तरह हाथों-हाथ लिया।''

फिल्म ‘मम्मा रेस्तरां’ में प्रभावकारी अभिनय के साथ-साथ तकनीकी पक्ष भी बेजोड़ है। सिनेमेटोग्राफी, आॅडियो-विज़ुअल्स, लोकेशन, कोरियोग्राफी, लाइटिंग, सेट्स, एडिटिंग आदि बेहद प्रभावी हैं। कहीं-कहीं कुछ चीजें खटकती हैं; लेकिन वह कोई ऐसी ख़राबी नहीं है जो कि आपका मजा किरकिरा कर दे। भारत में आजकल जिस तरह थोकभाव मारधाड़, हिंसा, अश्लीलता और फूहड़पन से बजबजाते फिल्म बन रहे हैं; वैसे दौर में ‘मम्मा रेस्तरां’ मानवीय संवेदना और भावनात्मक रिश्ते की कड़ी को मजबूत करती है। यह फिल्म भारतीय जनमानस की सामूहिक अभिव्यक्ति का एक कोलाज मात्र है जिसे सिने-दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया है। आर्जीव आगे भी ऐसी ही फ़िल्मों के प्लाॅट पर काम करते हुए जल्द ही किसी नए फ़िल्म के साथ फिर से दर्शकों से रू-ब-रू होंगे; यह आशा अथवा उम्मीद की ही जा सकती है।  

(आर्जीव की डायरी से)

No comments:

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...